भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha  ]



2010भाग-3 म0प्र0लाॅ0ज0 151 म0प्र0 आकांक्षा बनाम वीरेन्द्र, एं 2000 भाग-1 म0प्र0 लाॅ0ज0 86ः2000 भाग-1 एम0पी0जे0आर0 148 मधु उर्फ संजीव कुमार बनाम श्रीमती ललिता बाई  में अभिनिर्धारित किया था कि अंतरिम भरण पोषण का आदेश सारवान तौर पर दोनो पक्षों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है । यह स्वीकृत स्थिति है कि यदि पति इसका पालन नहीं करता है तो उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकता है अथवा उसको जेल भेजा जा सकता है । अतः अंतरिम भरण पोषण के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलनशील है ।

दण्ड अपराध के समानुपातिक

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. आरोपी को दिया गया दण्ड उसके अपराध के समानुपातिक होना चाहिए:-
        माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बार-बार यह निर्दिष्ट किया गया है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो,
 संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.

’अधिनियम’ की धारा-163 (क)

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      ’अधिनियम’ की धारा-163 (क)के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ-
1-    राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147.

 
 ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए ।


 2-     कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58.

अग्रक्रय अधिकार

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                अग्रक्रय अधिकार

        अग्रक्रय का अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 जिसे  आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा 22 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति का बंटवारा होने के पहले यदि उत्तराधिकार में हक व अधिकार प्राप्त होता है और उनमें से कोई एक सदस्य संपत्ति का विक्रय करना चाहता है तो अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 में विनिर्दिष्ट वारिस अग्रक्रय का दावा कर सकते हैं।

        अग्रक्रय अधिकार लागू किये जाने के लिये आवश्यक शर्ते:-
1. यह कि विवादित संपत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति होना चाहिये।
2. यह कि अनुसूची एक के वारिसों में कम से कम दो या दो से अधिक वारिस  होना चाहिये।
3. यह कि विवादित संपत्ति का बंटवारा नहीं होना चाहिये।
4. यह कि संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होना चाहिये।
5. यह कि संपत्ति उत्तरजीविता के आधार पर अधिनियम की  धारा 6 के अनुसार उत्तरजीवी सहदायिकों को उत्तरजीविता के आधार पर प्राप्त नहीं होना चाहिये।
6. यह कि सहस्वामी के द्वारा अचल संपत्ति में अपना हित हस्तांतरण करने के बाद दूसरा सहस्वामी अग्रक्रय अधिकार के आधार पर क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में दावा पेश कर सकता है।
7. यह कि जिस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के अन्दर संपत्ति स्थिति होगी उसे वाद और आवेदन क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा।
8. यह कि वादकारण संपत्ति की बिक्री के बाद उत्पन्न होता है।
9. यह कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 97 के अनुसार जब खरीददार बिक्रीसुदा संपत्ति पर कब्जा करता है अथवा रजिस्टर्ड विक्रयपत्र का निष्पादन होता है उसके एक साल के अन्दर आवेदन/दावा पेश होना चाहिये।
10. यह कि वर्ग-1 के वारिसों ने निर्वसीयति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है तभी यह धारा लागू होगी।
11. यह कि संपत्ति का मूल्य निर्धारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया जावेगा और न्यायालय संपत्ति का मूल्य निर्धारित करेगा।
12. यह कि जो भी हिस्सेदार सबसे ज्यादा मूल्य देगा वही अग्रक्रय के अधिकार में संपत्ति प्राप्त करेगा।
13. यह कि हिस्सेदार न्यायालय द्वारा निर्धारित मूल्य पर संपत्ति नहीं खरीदता है तो वह आवेदन का खर्च देगा और उत्तराधिकारी संपत्ति बाहरी व्यक्ति को बिक्री करने के लिये स्वतंत्र होगा।
14.  इसी प्रकार व्यापार कारोबार की बिक्री एवं अधिकार हेतु आवेदन व दावा प्रस्तुत किया जावेगा।

15. इस धारा के अधीन आवेदन पर पारित आदेश अपील योग्य नहीं होगा। लेकिन वाद में पारित आदेश अपीलयोग्य होगा।
16. यह कि बिक्री के बाद दावा पेश होगा , अधिनियम की धारा 22(1) के अन्तर्गत आवेदन पेश नहीं होगा।
17. यह कि धारा 164 म0प्र0.भू राजस्व संहिता के संशोधन के बाद अधिनियम की धारा 22 के प्रावधान लागू होंगे। कृपया देखें ए0आई0आर0 1978 सुप्रीम कोर्ट 793(तीन जज का निर्णय) भजया वि0 श्रीमती गोपिका बाई एवं अन्य। उसमें ए0आई0आर0 1974 म0प्र0 पेज 141 फुल बैंच, चरणलाल साहू वि0 नंदकिशोर भट्ट को मान्यता प्रदान की गई है।
एवं अधिनियम की धारा-4 में संशोधन के बाद धारा 22 के प्रावधान कृषि भूमि पर लागू होंगे।

18.    यह कि म0प्र0सीलिंग एक्ट के अन्तर्गत अधिग्रहित भूमि पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे। 


19.        यह कि धारा 22 के अतिक्रमण में सहउत्तराधिकारी द्वारा किया गया हित का अन्तरण शून्य न होकर अन्य सह उत्तराधिकारियों के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है। 

न्यायालय में मामले के निराकरण

भारतीय न्याय व्यवस्था                              न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-
   
1.    यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।

2.     यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले  मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।

        जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।

3.     यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट  के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष  प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।

        इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक  वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।

4.    यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।

5.     यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।

6.    यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।

        इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।

7.    यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।

8.         यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

9.        यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10.        यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है  इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।

11.        यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।
       
                        

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भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन प्रक्रिया

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
         ‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन  प्रक्रिया

1.        सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 114 एवं आदेश 47 में पुनर्विलोकन के संबंध में प्रावधान किये गये हैं। 

        धारा 114 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार पुनर्विलोकन के लिये अपने को जो व्यक्ति व्यथित मानता है वह  निम्नलिखित आधार पर डिक्री पारित करने वाले या आदेश करने वाले न्यायालय से निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन कर सकेगा और न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे ।


(क) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात है, किन्तु जिसकी कोई अपील नहीं की गयी है,
(ख) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात नहीं है, अथवा
(ग) ऐसे विनिश्चिय से जो लघुवाद न्यायालय के निर्देश पर किया गया है।
    व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 47  पुनर्विलोकन से संबंधित है जिसके अनुसार किसी डिक्री या आदेश के विरूद्ध निम्नलिखित दशाओं में उसी न्यायालय में पुनर्विलोकन हेतु आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा 


         1. कोई ऐसी नई और महत्वपूर्ण बात या
         2. साक्ष्य के पता चलने से जो सम्यक तत्परता के प्रयोग के पश्चात् उस समय जब डिक्री/आदेश पारित किया गया था उसके ज्ञान में नहीं था या
        3. या उसके द्वारा पेश नहीं किया जा सकता था या
        4. किसी भूल या गलती के कारण जो अभिलेख के देखने से ही प्रकट होती हो, या
    5. या किसी अन्य पर्याप्त कारण से पुनर्विलोकन के लिए आवेदन किया जा सकेगा। 


    आदेश 47 नियम 1 के उपनियम 2 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार- 

         1. वह पक्षकार जो डिक्री या आदेश की अपील नहीं कर रहा है निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन इस बात के होते हुये भी कि किसी अन्य पक्षकार द्वारा की गई अपील लंबित है वहाॅ के सिवाय कर सकेगा जहाॅ ऐसी अपील का आधार आवेदक और अपीलार्थी दोनों के बीच सामान्य है 

        2. या जहाॅ प्रत्यर्थी होते हुये वह अपील न्यायालय में वह मामला उपस्थित कर सकता है जिसके आधार पर वह पुनर्विलोकन के लिये आवेदन करता है। 

         3. पुनर्विलोकन के समय यह बात ध्यान रखने योग्य है कि आदेश 47 नियम 2 के स्पष्टीकरण  के अनुसार - यह तथ्य की किसी विधि -प्रश्न का विनिश्चय जिस पर न्यायालय का निर्णय आधारित है, किसी अन्य मामले में वरिष्ठ न्यायालय के पश्चातवर्ती विनिश्चय द्वारा उलट दिया गया है या उपान्तरित कर दिया गया है, उस निर्णय के पुनर्विलोकन के लिए आधार नहीं होगा। 

    इस प्रकार पुनर्विलोकन के तीन बातें महत्वपूर्ण हैं :-

    (1)    यदि निर्णय अभिलेख के मुख पर प्रकट त्रुटि द्वारा दूषित हो गया हो। प्रकट त्रुटि का अर्थ यह है कि तर्क-वितर्क लंबी पद्धति के अपनाये बिना, अभिलेख को केवल देखने मात्र से ही प्रकट हो जाती है। 

    (2)    यदि कार्यवाही में गंभीर अनियमितता है, यथा नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन, तो पुनर्विलोकन का आवेदन ग्रहण किया जा सकता है। 

    (3)    यदि तथ्य की किसी गलत धारणा के द्वारा कोई गलती/त्रुटि हो गई है, जिसे बनाये रखने पर न्याय की हत्या हो जावेगी, तो भी पुनर्विलोकन किया जा सकता है।

     इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.नागराज बनाम कर्नाटक राज्य, 1993 सप्लीमेंट (4) सु.को.के. 595 , (जादूनाथ जेना बनाम बसुपुर पंचायत, ए.आई.आर 2004 उडीसा 81 (खंडपीठ)  अवलोकनीय हैं जिनमें उपरोक्त सिद्धांत अभिनिर्धारित किये गये हैं। 

        पुनर्विलोकन के लिये आवेदन 

1.         पुनर्विलोकन के लिये आवेदन का प्रारूप अपील करने के प्रारूप के समान होगा जो आवश्यक परिवर्तन सहित लागू होगा। 

2.        पुनर्विलोकन के लिये आवेदन प्रस्तुत किये जाने पर वह व्यवहार न्यायालय नियम 1961 के नियम 372 के उपनियम 16 के अनुसार विविध न्यायिक प्रकरणों के रजिस्टर में पंजीबद्ध होगा। 

3.        पुनर्विलोकन के लिये आवेदन पर न्याय फीस अधिनियम 1870 के अनुसार  न्याय शुल्क देय होगा ।

 न्याय फीस अधिनियम 1870 की अनुसूची एक के क्रमांक 04 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन या उसके पश्चात् उपस्थापित किया गया है तथा क्रमांक 05 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन के पूर्व उपस्थापित किया गया है। 
4.    आदेश 47 नियम 4(1) के अनुसार    पुनर्विलोकन के पर्याप्त आधार नहीं होने पर आवेदन नामंजूर किया जावेगा  और न्यायालय की राय में पुनर्विलोकन केलिये आवेदन मंजूर होने की दशा में निम्नलिखित कदम उठाये जाएंगे:

    1. ऐसा कोई भी आवेदन विरोधी पक्षकार को ऐसी पूर्ववर्ती सूचना दिये बिना मंजूर नहीं किया जायेगा जिससे वह उपसंजात होने और उस डिक्री या आदेश के जिसके पुनर्विलोकन के लिये आवेदन किया गया है, समर्थन में सुने जाने के लिये समर्थ हो जायें तथा 

    2. ऐसा कोई भी आवेदन ऐसी नई बात या साक्ष्य के पता चलने के आधार पर जिसके बारे में आवेदन अभिकथन करता है कि वह उस समय जब डिक्री पारित की गई थी या आदेश किया गया था, उसके ज्ञान में नहीं थी या उसके   द्वारा पेश नहीं किया गया जा सकता था, ऐसे अभिकथन के पूर्ण सबूत के बिना मंजूर नहीं किया जायेगा।

    3. आवेदन मंजूर कर लिया जाता है तो उसका उल्लेख रजिस्टर में किया जायेगा और न्यायालय मामले को तुरन्त फिर सुन सकेगा या फिर से सुनवाई के बारे में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे। 

    4. पुनर्विलोकन के आवेदन पर किये गये आदेश के या पुनर्विलोकन में पारित डिक्री या आदेश के पुनर्विलोकन के लिये कोई भी आवेदन ग्रहण नहीं किया जायेगा। 


    5. पुनर्विलोकन नामंजूरी का आदेश अपील योग्य नहीं होगा।

    6. पुनर्विलोकन मंजूरी का आदेश अपील योग्य होगा। 

    7. जहाॅ आवेदन पक्षकार की अनुपस्थिति में खारिज हुआ है वहाॅ पर्याप्त  हेतुक के आधार पर आवेदन पुनः सुनवाई में विरोधी पक्षकार को सूचना देकर ग्रहण किया जा सकेगा।

    8. जहाॅ दो या दो अधिक न्यायाधीशों द्वारा गठित न्यायालय द्वारा आदेश दिया गया है वहाॅ उपस्थित किसी भी एक न्यायाधीश के समक्ष ही पुनर्विलोकन आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा,  जब तक कि वे आगामी 06 माह तक आवेदन पर सुनवाई हेतु उपस्थित हैं ऐसी दशा में किसी अन्य न्यायाधीश के समक्ष आवेदन की सुनवाई नहीं होगी।

            :ः पुनर्विलाकन की सीमायें:ः

1.     विधि की त्रुटि के आधार पर भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता है।

2.     यदि पूर्णपीठ किसी फैसले को भी उलट दें, तब भी किसी आदेश का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता,

3.     यदि विधि या गुणागुण पर भी किसी प्रकार की कोई गलती हो तो भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।

4.    - यदि उच्च मंच (ीपहीमत वितनउ) के निर्णय को समझने की त्रुटि (मततवत वित नदकमतेजंदकपदह) रही हो, तो भी इस आधार पर किसी निर्णय का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। 

5.     साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन नहीं किया जा सकता - पुनर्विलोकन की सीमा अपील की भांति व्यापक न होकर बहुत सीमित होती है और वह बताये गये आधारों पर ही किया जा सकता है। अभिलेख के देखने से प्रकट होने वाली भूल (त्रुटि) वह होती है, जो अभिलेख देखने मात्र से ही प्रकट हो जाये। जिस निष्कर्ष को गलत बताने के लिए सारे साक्ष्य का मूल्यांकन अपेक्षित हो, वह ऐसी भूल नहीं मानी जा सकती। तदानुसार पुनर्विलोकन में साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन करके दिया गया नया निर्णय अपास्त किया गया। इस सम्बन्ध में अवलोकनीय  (ए.आई.आर. 1979 सु.को. 1047 तथा ए.आई.आर 1960 सु.को.137 है ) 

6.     नया कथन जो द्वितीय अपील में नहीं उठाया गया, पुनर्विलोकन में पहली बार नहीं उठाया जा सकता ।

7.    आदेश 47, नियम 1 की शर्तो के अनुसार निर्देश न्यायालय अपने पूर्वनिर्णय का पुनर्विलोकन कर सकता है, यदि वहाॅ अभिलेख के मुख पर कोई प्रकट त्रुटि हो। परन्तु आदेश की शुद्धता पर विचार नहीं किया जा सकता। इस संबंध में न्यायदृष्टांत जयचंद्र महामात्र ब. लैण्ड एक्वीजिशन आॅफिसर रायगढ, ए.आई.आर 2005 सु.केा. 4165 अवलोकनीय है। 

8.    आवेदक के पुनर्विलोकन याचिका के रूप में गुणागुण पर नए सिरे से संपूर्ण मामले पर तर्क करने का अवसर नहीं दिया जा सकता। इस संबंध में ।  आर.बी.ठक्कर एंड कंपनी (में) विरूद्ध शत्रुघन लालसिन्हा, 2010 (5) एम.पी.एच.टी 91 (सी.जी.) अवलोकनीय है।
9.    गलत विनिश्चिय के लिए यह अनुज्ञेय नहीं है कि उसकी फिर से सुनवाई की जाये और उसे ठीक किया जाये।  (1997) 8 एस.सी.सी.715, अनुसरित। इस संबंध में न्यायदृष्टांत म.प्र. राज्य विरूद्ध एस.एस.भदौरिया, 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ)त्र2001(1) एम.पी.एल.जे. 72 अवलोकनीय है। 

10.    कोई आदेश गलत होने से पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता-  इस संबंध में न्यायदृष्टांत धर्माबाई ठाकुर (श्रीमती) विरूद्ध उषारानी दीक्षित (श्रीमती) 2004,(4)एम.पी.एच.टी. 417 अवलोकनीय है। 

11.    आदेश 47 नियम 1, सि.प्र.सं. के अधीन शक्तियों का केवल भूलों को ठीक करने के लिए किया जाता है-जो अभिलेख को देखने से ही प्रकट होती है। 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ) 2001(1) एम.पी.एल.जे.72  मदनसिंह विरूद्ध शांतिबाई 2005(1) एम.पी.एच.टी. 480 अवलोकनीय है।

12.    गलत निष्कर्ष, पुनर्विलोकन किये जाने का आधार नहीं है-अवैध या गलत निष्कर्ष, चाहे तथ्यों पर हो या विधि में हो इसके सम्बन्ध में पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। 

        इस प्रकार पुनर्विलोकन की सीमायें निश्चित हैं अभिलेख से प्रगट गल्ती और किसी नई बात पर ही पुनर्विलोकन उसी न्यायालय में जिसने डिक्री आदेश पारित किया है उस दिनांक से परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 124 के अनुसार तीस दिन के अन्दर उच्चतम न्यायालय को छोड़कर किया जा सकता है।

                          

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umesh gupta