खुली अथवा अचानक लडाई धारा-34 और 149

               खुली अथवा अचानक लडाई



                                                             अभिनिर्धारित सिंद्धांतो के अनुसार अचानक


 पारस्पिरिक लडाई के मामले में भा00विकी 


धारा-34 

 और 149  दोनो लागू नहीं होती है । सभी व्यक्त 




 अपने अपने द्वारा किए गये कार्य के लिए 


उत्तरदायी ठहराये जाते हैं । उपस्थित हो जाने मात्र से 



सामान्य आशय का गठन नहीं होता है । इसके


 लिए पूर्व नियोजन आवश्यक है । मात्र अपराध के 




समय एक साथ रहने से यदि व्यक्ति अचानक कोई


 घटना कर बैठे तो व्यक्ति को 34, 149 में


 दोषी नही ठहराया जा सकता । इसके लिए




 उसका पूर्व नियोजित होना आवश्यक है ।






 


सामान्य उददेश्य का अभिनिर्धारण के लिए निम्नलिखित बातो को 

 देखा जाएगा-


1. समूह की प्रकृति

 
2. घटना स्थल पर ले जाये जाने वाले हथियार 

 
3. आरोपीगण का घटना के पूर्व व पश्चात का व्यवहार,


4. सदस्यों के कृत्य

 
5. सदस्यों द्वारा मौके पर ग्राहय आचरण 

 


एक समूह जो प्रारंभ में विधिपूर्ण था बाद में अविधिपूर्ण हो सकता

 है और मौके पर भी सामान्य आशय तथा उददेश्य का गठन किया जा सकता है । 

 
यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि 


मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन 

प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को चोट पहंुचाने के

 सबंध में मस्तिष्को के मिलने बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो


 धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

 
अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार 

किये जाते है । लडाई के लिए 

कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई 


अचानक होती है जिसके लिए 

दोनो पक्ष दोषी होते है 
 
सामान्य उददेश्य पूर्व मिलन की अपेक्षा नहीं करता इसके लिए 


जरूरी है कि 5 या 5 से अधिक 

सदस्य सामान्य उददेश्य बनाये और उस उददेश्य को हासिल 


करने उस समूह में स्वयं कृत्य करें 

यहां समूह का कृत्य ही सबको बराबर का उत्तरदायी बनाता है । 


इसकी प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं 

होती है । इसे आरोपीगण के कृत्य, आचरण सुसंगत परिस्थितियों 


के आधार पर देखा जाता है ।

 इसमें आरोपीगण के 

कृत्य पहंुचाई गई क्षतियां प्रयुक्त हथियार, कार्य की प्रकृति और


 आरोपीगण का आचरण मुख्य 

तथ्य है। इसके लिए समूह की प्रकृति, समूह के सदस्यों द्वारा ले

 जाए जाने वाले हथियार, घटना के


 समय अथवा घटना के नजदीक सदस्यों का व्यवहार देखा जाना

 चाहिए। 

 
अचानक लडाई के मामले में धारा-300 के भाग-4 के अंतर्गत 


मामला प्रमाणित माना जाता है । इस संबंध में यह सुस्थापित


 विधि है कि भा..सं. की धारा-300 के स्पष्टीकरण 4 को लागू

 किये जाने के लिए आवश्यक है कि आरोपी यह साबित करे कि 

जो लडाई हुई है 


वह-

- पूर्व चिंतन के बिना,



- अकस्मात लडाई में,



- अपराधी द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त किये बिना 


या कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य किये 


बिना 



और,



- मारे गये व्यक्ति के साथ लडाई होनी चाहिए ।





लडाई दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य आयुधो के



 साथ या बिना मुठ भेड होती है। यह संभव नहीं 



है




 कि इस बारे में कोई सामान्य नियम प्रतिपादित 




किया जाये कि अकस्मात झगडा किसको माना 


जाये । यह तथ्य का प्रश्न है और यह बात कि



 कोई झगडा अकस्मात हुआ या नहीं, आवश्यक


 रूप 



 से 



प्रत्येक मामले के साबित तथ्यों पर निर्भर होगा ।



अपवाद 4 को लागू करने के लिए यह दर्शित किया जाना पर्याप्त 


नहीं है कि अकस्मात झगडा हुआ


 था और उसके लिए पूर्व चिंतन नहीं किया गया था । यह भी 



दर्शित किया जाना चाहिए कि 

अपराधी ने अनुचित लाभ नहीं लिया या उसने कू्रर या 


अप्रायिक रीति में कार्य नहीं किया । 

अभिव्यक्ति अनुचित लाभ जैसा कि उपंबध में प्रयुक्त किया गया है


 का अर्थ है अऋजू लाभ । उपरोक्त 

सिद्धांत मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गलीवेंकटयया बनाम आंध्र


 प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 

 .सी.सी. 370 मंे प्रतिपादित किया है।



इस मामले में मान्नीय न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया 

है कि दंड संहिता की धारा-300 

 का चैथा अपवाद अकस्मात हाथापाई में किये गये कार्यो को 


आच्छादित करता है। यह अपवाद इसी 

सिद्धांत पर आधारित है कि दोनो में ही पूर्वचिंतन का अभाव है ।

जबकि अपवाद 1 के मामले में आत्म नियंत्रण का पूर्ण अभाव है

 और स्पष्टीकरण 4 के मामले में केवल 

आवेश की तीव्रता का उल्लेख है जो व्यक्तियों के सौम्य संतुलन को

 प्रभावित करती है और उनको 

उन कार्यो को करने के लिए प्रेरित करती है । जिन्हें वे अन्यथा 

नहीं करेंगे । अपवाद 4 में प्रकोपन 

को उपबंधित किया गया है ।जैसा कि अपवाद 1 में है किन्तु 

कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष 

परिणाम नही है ।

वास्तव में अपवाद 4 के अधीन ऐसे मामलो पर विचार किया गया 

है जिनमें इस बात के होते हुए भी

 कि प्रहार किया गया है या विवाद के उदगम में कुछ प्रकोपन 


दिया 

गया है या किसी भी रीति में 

झगडे से उत्पन्न हुआ है तथापि दोनो पक्षों का पश्चातवर्ती आचरण

 उनके अपराध के संबंध में समान


 आधार पर रख देता है । अकस्मात लडाई में एक दूसरे को 


प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार


 विवक्षित है । तब कारित मानववध स्पष्टतः एक पक्षीय प्रकोपन के


 अंतर्गत नहीं आता है और न ही 

ऐसे मामलो में सम्पूर्ण दोष किसी एक पक्ष पर डाला जा सकता है 


। ऐसा होता हो जो अपवाद 



अधिक उपयुक्त रूप से लागू होगा वह अपवाद 1 है । लडाई के

 लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या 

अवधारण नहीं होता है लडाई अचानक होती है जिसके लिए लगभग


दोनो ही पक्ष दोषी होते हैं । 


अचानक लडाई के मामले में जब परस्पर प्रकोपन का मामला हो

 यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि 


दोनो पक्षों में कौन ज्यादा जिम्मेदार है तो धारा 304 के अपवाद


 में मामला माना जायेगा । महेश 

विरूद्ध एम.पी.राज्य ए.आई.आर. 1996 सु.को. 3315 इसी प्रकार पूर्व


 चिंतन पूर्व रंजिश के अभाव में 

यदि क्षति पहंुचाई जाती है तो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में


 मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त 

नहीं है और चिकित्सीय सहायता द्वारा अभियुक्त को बचाया जा


 सकता था तो यह कार्य आपराधिक 

मानव वध माना जायेगा । 


 
धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध 


हेतु दण्ड व्यवहत करती है । जब

 कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की



 सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध 


करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष

 दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया 


गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए ।



 बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि 


विरूद्ध था । भा..सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित



 करने के पूर्व, भा..सं. की 


धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।


141 विधिविरूद्ध जमाव- पांच याअधिक व्यक्तियों का जमाव 


विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन

 व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य



 हो-


पहला- केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को 

या किसी राज्य के विधान मंडल

 को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की 



विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा 

हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा

 आतंकित करना अथवा

दूसरा- किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का 

प्रतिशेध करना अथवा

तीसरा- किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का 


रना अथवा

चैथा- किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के


 प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का 

कब्जा लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के


 अधिकार के उपभोग से या जल 

का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका


 वह कब्जा रखता हो, या उपभोग

 करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार



 को प्रवर्तित करना अथवा

पांचवा- आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा 


किसी व्यक्ति को वह करने के लिए

 जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप



 करने के लिए जिसे करने का वह 

वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

स्पष्टीकरण- कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था


 बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो 


सकेगा ।

धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए 




कि फंसाने वाला कृत्य विधि 



विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया 

या 

था और यह अन्य सदस्यों के 

ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए 



किया गया था और यह अन्य 

सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए । यथा सामान्य उददेश्य के 


अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । 

यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में



 कारित होते हुए विशिष्ट अपराध 

की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत


 इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

धारा-149 भा... के प्रमाणन के लिए दो बाते साबित की जाना 


आवश्यक है ।

पहला- किसी विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के द्वारा अपराध

 किया जाना चाहिए।


दूसरा- उस अपराध को उस समूह के सामान्य उददेश्य की


 अग्रसरता में होना चाहिए अथवा इस 

प्रकार होना चाहिए कि उस समूह के सभी सदस्य यह जानते थे 


कि यह कारित होना प्रतीत होता 


था।

सामान्य उददेश्य के अपराध के गठन के लिए आवश्यक है कि 



उसके सदस्यों द्वारा उसमें कोई भाग



 लिया गया है । मात्र उपस्थिति से इसकी उपधारणा नहीं की जा 


सकती है । यदि सदस्य को 

सामान्य उददेश्य की जानकारी नहीं है तो अपराध घटित नहीं हो 


सकता है । अतः विधि के 


सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार अचानक लडाई के मामले में 


पक्षकार एक दूसरे को प्रकोपन देते है 


और दोनो ओर से प्रहार किये जाते हैं । लडाई के लिए कोई पूर्व


 विचार विमर्श या चिन्तन का 


अभाव रहता है । लडाई अचानक होती है इसके लिए दोनो पक्ष 


दोषी होते हैं । अचानक पारस्पिरिक


 लडाई के मामले में भा00वि0 की धारा-34 और 149 दोनो लागू




 नहीं होती है ।


भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर विधिक प्रतिपादनाएं

भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर            विधिक प्रतिपादनाएं

    क-    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के उपबंधों को लागू करने के लिए लोक सेवक को स्वयं के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या धनीय फायदे को-
    1    भ्रष्ट या विधिविरूद्ध साधनो द्वारा या
    2    लोक सेवक के रूप में अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग या
    3    किसी लोक हित के बिना अभिप्राय करना ।

         आर0साई भारतीय बनाम जे जयालालीथा, 2004    भाग-2 एस0सी0सी0 9 वाला मामला।

    ख-    लोक सेवक द्वारा अवचार आवश्यकतः अपने पदीय कर्तव्य के संबंध में किया जाना आवश्यक नहीं है । अतः यह आवश्यक नहीं हे कि लोक सेवक रिश्वत देने वाले को उसके द्वारा किए गए वदे के अनुसार शासकीय पक्षपात दर्शाने के योग्य है ।
         धनेश्वर नारायण सक्सेना बनाम दिल्ली प्रशासन ए0आई0आर0 1962 एस0सी0 195 सीबी और
         जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 वाला मामला ।

    ग-    प्रत्येक अवैध परितोषण की स्वीकृति चाहे मांग के पूर्ववर्ती य नहीं धारा 7 के अधीन आएगी । किन्तु यदि अवैध की स्वीकृति लोक सेवक द्वारा मांग के अनुसरण में है तो यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के अधीन भी आएगी ।
        राज्य बनाम ए0प्रतिबन 2006 भाग-11 एस0सी0सी0 473
         बालीराम बनाम महाराष्ट्र राज्य 2008 भाग-14 एस0सी0सी0 779।

    घ-    एक बार यदि अभियोजन यह साबित करता है कि नकद या किसी वस्तु के रूप में परितोषण लोक सेवक को दिया गया है या उसके द्वारा स्वीकार किया गया है तो न्यायालय धारण 7 के अधीन विधिक विवाधक के अधीन यह उपधारणा करने के लिए सशक्त है कि उक्त परितोषण किसी पदीय कार्य को करने या करने से प्रवर्तित रहने के लिए हेतुक या परितोषक के रूप में संदत्त या स्वीकार किया गया था ।
        मधुकर भास्कर राव जोशी बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0 147 ।

    ड-    एक बार यह साबित हो जाता है कि अभियुक्त ने किसी ओर के बिना दूषित धन स्वीकार किया था तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हेै कि उसने धारा-13-1-घ के अर्थान्तर्गत मांग के अनुसरण में दूषित धन अभिप्राप्त किया । 

   एम0डब्ल्यू0 मुहीद्दीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0  567   जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।

    च-    जब यह साबित हो जाता है कि कोई रकम लोक सेवक को अंतरित की गई है तो यह साबित करने का भार लोक सेवक पर है कि यह अवैध परितोषण के माध्यम से नहीं किया गया था।   
         बी0 नोहा बनाम केरल राज्य 2006 भाग-12 एस0.सी0सी0277।

    छ-    जब एक बार दूषित धन अभियुक्त लोक सेवक के कब्जे में आ जाता है तो या केवल निष्कर्ष निकाला जा सकता है उसने इसे स्वीकार किया और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के साथ पठित धारा-7 के अर्थान्तर्गत धनीय फायदा अभिप्राप्त किया 
      एम0डब्ल्यू0मोहीददीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567।
   
    ज    जहां  अभियेाजन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और धारा-13-1 घ के साथ पठित धारा-13-2 के अधीन दण्डनीय अपराध के संबंध में है । वहां यह तर्क कि उपधारणा नहीं निकाली जा सकती यदि धारा-13-2 के साथ पठित धारा-13-1घ के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरोप धारा-7 के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरेाप धारा-7 के अधीन भी है ।
        राज्य द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो हैदराबाद बनाम जी0प्रेम राज 2010 भाग-1 एस0सी0सी0 398 ।

    झ    यदि कानूनी उपधारणा अनुपयुक्त है क्योंकि आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा-5-1घ के अधीन है तो न्यायालय स्थितियां स्वयं बोलती है, के सिद्धांत को लागू कर सकता है । यदि लोक सेवक परिवादी से अभिप्राप्त चिन्हित करेंसी नोटो के साथ रंगे हाथ पकडा गया है ।
        रघुवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य 1974 भाग 4 एस0सी0सी0 56
        ए0आई0आर0 1974 एस0सी0 1516,
        राज्य ए0पी0बनाम जीवरतनम 2004 भाग 6 एस0सी0सी0 488।

    ञ - जब यह साबित हो जाता है कि धन की स्वीकृति स्वेच्छया और सोच समझकर की गई थी तो धारा 7 के साथ पठित धारा 13 एक घ के अधीन आरोप में अभियोजन को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा मांग या हेतुक साबित करने का अतिरिक्त भार नहीं डाला जा सकता ।
         ( बी. नोहा बनाम केरल राज्य, 2006 (12) एस.सी.सी. 277 ) ।
   
    ट - महाराष्ट्र राज्य बनाम रसीद बी. मुलानी, 2006 एक एस.सी.सी. 407 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसकी परीक्षा के दौरान विलंब से न कि अन्वेषक अधिकारी को तत्काल अभियुक्त द्वारा दिया गया रिश्वत धन प्राप्त करने के लिए स्पष्टीकरण स्वीकार नहीं किया।

    ठ - धारा 13 (1) घ के साथ पठित धारा 13 (2) के अधीन किसी भी समय अभियुक्त की यह दलील कि रिश्वत धन बलपूर्वक उसके हाथ में दिया गया था, 313 के अधीन परीक्षा के दौरान पहली बार उठाई गई दलील सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं की गई ।
      राज्य ए.पी. बनाम पी. सत्यनारायण मुरतय, 2009 (9) एस.सी.सी. 674 ) ।
   
    ड - लोक सेवक की ओर से तत्काल स्पष्टीकरण देने की सफलता पर जब पुलिस अधिकारी ने साक्षियों की उपस्थिति में यह घोषित किया कि अभियुक्त लोक सेवक ने परिवादी से रिश्वत धन ग्रहण किया, अभियोजन मामले के समर्थन में परिस्थिति के रूप िमें विचार नहीं किया जा सकता ।
     सुल्ताना अहमद बनाम बिहार राज्य, 1947 चार एस.सी.सी. 252
    जोसफ जेम्स बनाम केरल राज्य, 2010 (1) के.एल.डी. 581)

    ढ-    लोक सेवक का सामान्य और अनैच्छिक प्रक्रिया जब करेंसी नोट उसे सौंपे जाने का प्रयास किया गया घोर विरोध के पश्चात ऐसे व्यक्ति को जिसने उसे रिश्वत देने का प्रयास किया जोरदार डांट डपट किया गयाथा यदिजाल के दौरान मामले में ऐसी केाई बात घटित नहीं हुई तो यह ऐसा परिस्थिति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।


        ए0 शशिधरन बनाम केरल राज्य 2007 भाग-2 के0एल0डी0 600
        जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।

                               सामान्य आशय के अग्रसरण में ऐसा करने के लिए और अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग करते हुए रिश्वत की मांग की ओर स्वीकार किया और तदद्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और 13-2 के साथ पठित धारा-13-1-घ तथा भारतीय दंण्ड संहिता की धारा-34 के अधीन दण्डनीय अपराध किया गया माना जाता है ।

पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881 में दिये विशेष प्रावधान

      पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881 में दिये विशेष प्रावधान

      (1).    धारा-147 निगोषियबिल इन्स्टूमेंट एक्ट के अंतर्गत दण्डनीय प्रत्येक अपराध     क्षमनीय है ।
    (2)    राजीनामा के लिए न्यायालय कीे अनुमति आवष्यक नहीं है ।
    (3)    धारा 138 का अपराध क्षमनीय है ।
    (4)    धारा-147 में राजीनामा हो जाने पर आरोपी को दोषमुक्त माना जायेगा ।
    (5)    षिकायतकर्ता द्वारा गवाही हल्फनामे पर धारा-145 के अंतर्गत दी जा सकती है ।
    (6)    यह षपथ पत्र सभी न्यायसंगत अपवादो के अंतर्गत जांच विचारण की कार्यवाही में पढा जायेगा।
    (7)    न्यायालय अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर षपथकर्ता केा             परीक्षण हेतु बुलासकता है    
    (8)    अपराध के पंजीयन के लिए 200 या 202 दं.प्र.स. के अंतर्गत मौखिक परीक्षण             आवष्यक नहीं है ।
    (9)    धारा-146 के अंतर्गत बैंकं पर्ची  अनादरण कें तथ्यों की प्रथम दृष्टया साक्ष्य हे ।
    (10)    चैक अनादृत हो गया है बैंक पर्ची पेष की जाने पर न्यायालय चेक अनादृत मानेगा
    (11)    वे मेमो जिस पर षासकीय चिन्ह लगा हुआ है जिससे यह पता चलता है कि चैक अनादृत हो गया है । न्यायालय चेक का अनादृत  मानेगा ।
    (12)    यह कि जब तक ऐसा तथ्य असाबित नहीं हो जाता तब तक न्यायालय बैंक की पर्ची या मेमो पेष किये जाने पर अनादृत मानेगा  ।
    (13)    धारा 144 में संमंस तामीली का तरीका दिया गया है ।
    (14)    अभियुक्त का या गवाह का संमसं जारी करने वाले मजिस्ट्ेट जहां पर वह वास्तव में रहता है भेज सकता है ।
    (15)    जहां पर वह व्यवसाय करता है या व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है उसे संमस भेज सकता है ।
    (15)    संमंस स्पीड पोस्ट द्वारा या कोरियर द्वारा भेजा जा सकता है  इसके लिए सत्र न्यायालय की अनुमति आवष्यक है ।
    (16)    जहां प्राप्ति पर संमंस लेने से मना कर दिया है कि टीप अंकित हो वहां         न्यायालय यह घोषित  कर सकता है कि संमंस जरिये तामील हो गया है ।
    (17)    धारा-143 में प्रार्थी का विचारण प्रथम श्रेणी न्यायिक दण्डाधिकरी अथवा महानगर मजिस्ट्ेट संक्षिप्त विचारण कर सकता है ।
    (18)    संक्षिप्त विचारण के दौरान दं.प्र.सं. की धारा-262 से 265 के अनुसार विचारण किया     जा सकता है ।
    (19)    संक्षिप्त विचारण के दौरान एक वर्ष से अधिक की सजा और पांच हजार से अधिक का अर्थ दण्ड नहीं दिया जा सकता है ।
    (20)    विचारणं इस धारा के अंतर्गत षिंकायत दर्ज होने के 6 माह के अंदर पूरा किये जाने की कोषिष की जायेगी इस धारा के अंतर्गत मामले का विचारण नतीजे तक     दिन प्रति दिन     जारी रहेगा ।
    (21)    धारा-142 में अपराध का सज्ञानं लिखित षिकायत पर पाने वाले अथवा चैक धारक के द्वारा करने पर दिया जायेगा ।
    (22)    षिकायत एक महिने केे अंदर की जावेगी जब धारा-138 सी के अंतर्गत चेक देने वाले पर नोटिस प्राप्त होने के बाद 15 दिन के अंदर धनराषि का संदाय नहीं किया जाता है ं।
    (23)    महानगर मजिस्ट्ेट अथवा प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्ेट के द्वारा यह अपराध का विचारण किया जावेगा ।
    (24)    न्यायालय निर्धारित समयअवधि के बाद पर्याप्त कारण विलम्ब का दर्षाये जाने पर भी षिकायत का संज्ञान ले सकता है ।
    (25)    द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्ेट के द्वारा धारा-138 के अपराध का संज्ञान नहीं लिया जा सकता     है ।
    (26)    धारा-141 में भी कम्पनी को दंड दिया जा सकता है ।
    (27)    धारा-141 में कम्पनियों द्वारा किये गये अपराध के लिए कम्पनी को उत्तरदायी धारा-138 में बनाया जा सकता है ।
    (28)    कम्पनी का हर व्यक्ति जो अपराध होने के समय कम्पनी में व्यवसाय व कम्पनी के संचालन का भारसाधक था दण्डित किया जावेगा ।
    (29)    कम्पनी का हर व्यक्ति जो अपराध के लिए उत्तरदायी है अपराध का दोषी माना जायेगा, यदि व्यक्ति यह प्रमाणित कर दे कि अपराध उसकी जानकारी में  किया गया है तो वह उत्तरदायी है । यदि यह प्रमाणित करता है कि उसने ऐसे अपराध को रोकने के लिए पूरे समय तत्पर्ता अपनाई थी तो भी वह उत्तरदायी नहीं है ।   
     (30)    धारा 141 में कम्पनी का अर्थ निगमित निकाय से है ।
     (31)    इसमें व्यक्तियों की फर्म सम्मिलित है ।
     (32)    इसमें अन्य संघ षामिल है ।
     (33)    निदेषक का अर्थ फर्म के संबंध में फर्म के हिस्सेदार से है ।
     (34)    कम्पनी के भारसाधक का अर्थ व्यवसाय के दिन प्रतिदिन के सम्पूर्ण नियंत्रण से है ।
     (35)    केवल कम्पनी की तरफ से चेक पर हस्ताक्षर करने वाले निदेषक को सूचना पत्र देना पर्याप्त है ।
     (36)    केवल कम्पनी को ही सूचना पत्र देना अनिवार्य है ।
     (37)    कम्पनी के पारिसमापन के बाद भी निदेषक उत्तरदायी नहीं है ।
     (38)    धारा 140 के अनुसार यह उचित अभिकथन नही होगा कि चैक जारी करते समय जारी कर्ता के द्वारा विष्वास करने का कारण ं था कि कथित कारण से चेक अनादृत हो जावेगा ।
     (39)    धारा 139 में धारक के पक्ष में खण्डित उपधारणा दी है ।
     (40)    जिसके अनुसार यह उपधारणा की जाएगी  कि चैक धारक ने किसी ऋण या अन्य दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वाह करने के दौरान प्राप्त किया ।
     (41)    यह उपधारणा की जावेगी कि आंशिक रूप से निर्वाह करने के लिए चैक प्राप्त किया ।
     (42)    धारा 138 के अंतर्गत 2 वर्ष के कारावास की सजा का प्रावधान है ।
     (43)    धारा-138 के अंतर्गत अर्थ दण्ड चैक की दुगनी रकम तक हो सकेगा ।
     (44)    दोनो दण्ड से भी दण्डित हो सकेगा ।
     (45)    प्रतिकर चेक की रकम के अनुसार दिया जायेगा ।
        धारा 138 के अपराध के लिए निम्नलिखित
    (46)    चैक लिखी तारीख से 6 महिने की मियाद बैंक में पेष हो । अब मियाद की अवधि 3 महिने हो गई है । लेकिन अधिनियम में परिवर्तन नहीं किया गया है।
    (47)    चैक तिथि मान्य अवधि के लिए पेष हो ।
    (48)    दोनो में जो पहले हो तब पेष हो ।
    (49)    चैक अनादरण कीसूचना के 30 दिन के अंदर लिखित नोटिस देकर धन की मांग की जाना जरूरी है ।
        धारा138 के लिए आवष्यक
    (50)    चैक लिखने वाला व्यक्ति प्राप्ति के बाद 15 दिनो के अंदर धनराषि का भुगतान कर दे ।
    (51)    15 दिन के अंदर भुगतान करें ।
    (52)    केवल कानूनी रूप से वसूली ऋण धन प्राप्त किया जा सकता है।
    (53)    केवल कानूनी रूप से वसूल योग्य अन्य दायित्व धन की वसूली की जा सकती है।           
        धारा-138 में
    (54)    बैंक से तात्पर्य उपरवाल बैंक  से है अनादृत बैंक से नही है ।
    (55)    चैंक कालसीमा बाधित ऋण के लिए दिये जाने पर प्रावधान धारा-138 के आकर्षितनहीं होते ।
    (56)     यदि अभिस्वीकृति कालसीमा बाधित ऋण की समय समाप्त होने के पूर्व प्राप्त होगी तभी धारा-138 आकर्षित होगी ।
    (57)    चैक उपहार दान धरमार्थ दिये जाने पर भी अनादरण की दषा में धारा-138 लागू नहींहोती है
    (58)    विक्रय के प्रतिफल स्वरूप जारी चैक अनादरण पर धारा-138 लागू होती है।
    (59)    खाता बदं होने पर भी लागू होगी ।
    (60)    स्टाप पेमेंट पर लागू होगी ।
    (61)    पिता के ऋण के बदले पुत्र चैक दे दे तो धारा-138 लागू नहीं होगी ।   
    (62)    पोस्टेड चैक खाता खत्म मात्र प्राप्ति की सूचना के बाद पेष होने पर भी धारा-138 लागू होगी ।
    (63)    अपर्याप्त राषि पं्रबंधक के पद की टीप धारा-138 लागू होती ।
    (64)    ओवर ड्ाफट की दषा में लागू होगी ।
    (65)    ओवर ड्ाफट की दषा में यदि बैंक एकांकी रूप से सुविधा बंद कर दे तो धारा‘138 लागू नहीं होगा ।
        धारा-138 के लिए
    (66)     चैक पर हस्ताक्षर पर्याप्त हैे ।
    (67)    चैक पूरा निष्पादक द्वारा ही लिखा जाना अनिवार्य नहीं है ।
    (68)    पेय आडर चैक की परिभाषा में आता हैं।
    (69)     स्वयं के देय पर धारा-138 लागू नहीं ंहोता है।
    (70)    यदि चैक लेखीवाल के अपूर्ण हस्ताक्षर में हो जो बेईमानी पूर्वक न हो तभी तो धारा-138 आकर्षित होती है ।
    (71)     यदि हस्ताक्षर का मिलान नहीं हो पायेगा तो धारा-138 लागू होती है ।
    (72)    संयुक्त हस्ताक्षर की दषा में एक के भी हस्ताक्षर पर धारा-138 लागू होती है ।
    (73)    नोटिस प्राप्ति पर चैक राषि अदा करने पर नोटिस का व्यय भी अदा करना जरूरी नहीं है ।
    (74)     धारा 138 के अंर्तगत आपराधिक कार्यवाही के साथ साथ सिविल कार्यवाही हो सकती है ।
    (75)    धारा-138 के साथ सिविल कार्यवाही हो सकती है ।
    (76)    दोनो कार्यवाही एक साथ चल सकती है ।
    (77)    सिविल कार्यवाही लंबित रहने की दषा में आपराधिक कार्यवाही कारक का दुरूपयोग नहीं है ।
    (78)    सूचना पत्र कीअवधि के अवतरण के पूर्व परिवाद प्रस्तुति अपरिपक्व नहीं होगी क्यों कि संज्ञान लेना परिवाद पेष करना दो अलग अलग बाते है ।   
    (79)    धारा-138 का परिवाद परिवादी की मृत्यु पर समाप्त नहीं होगा ।
    (80)    मृत परिवादी के विधिक उत्तराधिकारी मृत परिवादी की जगह षामिल होगे ।
     (81)    बेंक के संमंापन के बाद मर्जर बैंक परिवाद जारी रख सकता है ।
    (82)    गारंेटर के विरूद्ध परिवाद पेष किया जा सकता है ।
    (83)    यह कि 1 मार्च 1882 में लागू हुआ है ।
    (84)    यह कि 147 धारा है।
    (85)    बैंकर में डाक घर बचत बैंक षामिल है ं
    (86)    वचन-पत्र ऐसी लेख पर लिखा जाए जिसमें निष्चित व्यक्ति या उसके आदेषानुसार लिखत के वाहक को धन की निष्चित राषि बिना किसी षर्त के दी जाती है ।
    (87)    विनिमय-पत्र ऐसी लेख पर लिखत है जिसमें निष्चित व्यक्ति को निर्देष देने वाले के रचयिता के द्वारा हस्ताक्षर अषर्त आदेष रखता है निष्चित व्यक्ति को निष्चित राशि दिया जाए ।
    (88)    चैक वचन पत्र नहीं है ।
    (89)    चैक विनिमय पत्र है ।
    (90)    धारा-118 में लिखित के संबंध में उपधारणा दी गई है ।
    अधिनियम की धारा-118 के अनुसार जब तक कि प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता, निम्नलिखित उपधारणाएं की जाएंगी-
    (91)    प्रतिफल के विषय में यह कि हर एक परक्राम्य लिखत प्रतिफलार्थ         रचित या लिखी गई थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब  प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई  थी;
    (92)    तारीख के बारे में यह कि ऐसी हार परक्राम्य लिखत जिस पर             तारीख पडी है, ऐसी तारीख को रचित या लिखी गई थी;
    (93)    प्रतिग्रहण के समय के बारे में यह कि हर प्रतिग्रहित विनिमय-पत्र         उसकी तारीख के पश्चात युक्तियुक्त समय के अंदर और उसकी         परिपक्वता के पूर्व प्रतिगृहीत किया गया था;
    (94)    अन्तरण के समय के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत का हर             अन्तरण उसकी परिपक्वता के पूर्व किया गया था;
    (95)    पृष्ठांकनो के क्रम के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत पर विद्यमान         पृष्ठांकन उस क्रम में किए गए थे जिसमें वे उस पर विद्यमान हैं;
    (96)    स्टाम्प के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत पर विद्यमान-पत्र या             चैक सम्यक् रूप से स्टापित था;
    (97)    यह कि धारक सम्यक्-अनुक्रम धारक है यह कि परक्राम्य लिखत         का धारक सम्यक्-अनुक्रम-धारक है,
       (98)  अधिनियम की धारा-139 में उपधारणा दी गई है कि जब तक तत्प्रतिकूल साबित न हो यह उपधारणा की जाएगी कि चेक के धारक ने धारा 138 में निर्दिष्ट प्रकृति का चेक किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिए प्राप्त किया है ।
       

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

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