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क्या मृतक का विधिक प्रतिनिधि मोटर यान अधिनियम, 1988 की धारा-166 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है जब कि वह आश्रित नहीं है ?

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

        क्या मृतक का विधिक प्रतिनिधि मोटर यान अधिनियम,  1988 की धारा-166 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है जब कि वह आश्रित नहीं है ?

        मोटर यान अधिनियम एक लोककल्याणकारी लोकहित संबंधी अधिनियम है जिसके अंतर्गत सड़क दुर्घटना में  घायल होने, स्थाई रूप से अंपग होने एवं आकस्मिक मृत्यु की दशा में परिवार के सदस्यों को क्षतिपूर्ति दिये जाने संबंधी प्रावधान दिये गये हैं। यदि संपत्ति को भी कोई नुकसान पहुंचाता है तो उसकी भी क्षतिपूर्ती की जाती है।


        इस अधिनियम की धारा-165 के अंतर्गत राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा मोटरदावा अधिकरण की संरचना करती है जो मोटरयानों के उपयोग से व्यक्तियों को मृत्यु, शारीरिक क्षति, सपंत्ति का नुकसान आदि के संबंध में प्रतिकर का निर्धारण करती है। 


        मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा-166 के अनुसार इस प्रकार के प्रतिकर के लिये जो दुर्घटना से उत्पन्न हुआ है,     न्यायालय में उस व्यक्ति के द्वारा आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है। 

क-    उस व्यक्ति द्वारा, जिसे क्षति हुई है, या
ख-    संपत्ति के स्वामी द्वारा, या
ग-    जब दुर्घटना के परिणामस्वरूप मृत्यु हुई है, तब मृतक के सभी या किसी विधिक प्रतिनिधि द्वारा, या
घ-    जिस व्यक्ति को क्षति पहुंची है उसके द्वारा अथवा सम्यक रूप से प्राधिकृत किसी अभिकर्ता द्वारा अथवा मृतक के सभी या विधिक प्रतिनिधि द्वारा

        मोटरयान अधिनियम 1988 में विधिक प्रतिनिधि को कहीं परिभाषा नहीं दी गई है। विधिक प्रतिनिधि को व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा-2 (11) में परिभाषित किया गया है।


        जिसके अनुसार विधिक प्रतिनिधि से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जो मृत व्यक्ति का विधिक दृष्टि से प्रतिनिधित्व करता है ओर इसके अंतर्गत कोई दूसरा व्यक्ति आता है जो मृत व्यक्ति की संपदा में दखलांदाजी करता है और जहाॅ किसी पक्षकार प्रतिनिधि के रूप में वाद लाता है या जहाॅ किसी पक्षकार पर प्रतिनिधि के रूप में वाद लाया जाता है, वहाॅ वह व्यक्ति इसके अंतर्गत आता है जिसे वह संपदा उस पक्षकार के मरने पर न्यायगत होती है जो इस प्रकार वाद लाये या जिस पर इस प्रकार वाद लाया है। 


      मोटरयान अधिनियम के अंतर्गत प्रतिकर राशि का निर्धारण आश्रितता के सिद्धांत के आधार पर धारा-168 के अंतर्गत किया जाता है और उसी व्यक्ति को प्रतिकर दिया जाता है जो किसी दुर्घटना के कारण उस धनराशि सुविधा, सुख आदि से वंचित होता है जिसका वह पात्र था। इसका अपवाद धारा-140 -2- जहाॅ त्रुटिविहीन दायित्व के लिये विधिक प्रतिनिधि बिना आश्रितता के आधार पर भी क्षतिपूर्ती प्राप्त कर सकता है। 

        दावा न्यायालय द्वारा विधिक प्रतिनिधि के प्रतिकर का निर्धारण उत्तरजीविका के आधार पर अथवा उनकी व्यक्तिगत विधि के आधार पर नहीं किया जाता है।
      
        यारासिंह बनाम पंजाब राज्य 1998 ए0सी0जे0 493 पंजाब हरियाणा के मामले में विधिक प्रतिनिधि का निर्वाचन किया गया है। जिसके अनुसार मोटरयान अधिनियम में जो विधिक प्रतिनिधि शब्द है उस शब्द का निर्वाचन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-8 में दिये गये वैधानिक प्रतिनिधियों की परिभाषा के आधार पर विस्तृत अथवा सीमित नहीं किया जा सकता है।

        इसी प्रकार अब्दुल रहमान बनाम दयाराम 1989 ए0सी0जे0 806 में बंबई उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है, कि प्रतिकर के मामले में व्यक्तिगत विधि लागू नहीं होती। आश्रितता के प्रश्न पर जोर दिया जाता है। 

        मुस्लिम विधि के अंतर्गत पिता द्वारा पृथक से  आधे प्रतिकर की मांग की गई थी जिसे इंकार किया गया है तथा शकुन बनाम स्टेट आॅफ म0प्र0 1995 ए0सी0जे0 64 में म0प्र0 उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने भी अभिनिर्धारित किया है, कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के सिद्धांत मोटरयान अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत दावा प्रकरणों पर लागू नहीं होते।

        इस प्रकार यह सुस्थापित सिद्धांत है, कि दावा अधिकरण के द्वारा प्रतिकर का निर्धारण करते समय केवल आश्रितता पर जोर दिया जाता है और व्यक्तिगत विधि के प्रावधान प्रतिकर निर्धारण करते समय लागू नहीं होते हैं। 

        आश्रितता को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है किन्तु इसका निर्धारण अधिनियम के अंतर्गत दी गई अनुसूचियों और पक्षकारों के जीवन की दशा स्थिति, आय व्यय को देखते हुए किया जाता है जिसके अंतर्गत दाम्पत्य सुख से वंचित रहने  बाबत् प्रतिकर, संतान से प्रत्याशा की हानि बाबत् प्रतिकर, विकलंाग होने पर शादी में परेशानी बाबत् प्रतिकर, इलाज के दौरान विशेष भोजन हेतु प्रतिकर, संतान सुख से वंचित होने पर प्रतिकर, जीवन के आनन्द में हानि बाबत् प्रतिकर आदि का निर्धारण किया जाता है।

        आश्रितता का सीधा अर्थ किसी व्यक्ति पर आश्रित होना है और उस व्यक्ति के उपर जीवन की स्थिति के लिये निर्भर होना है और बिना उसके उस जीवन में भोग रहे सुख, समृद्धि, कल्याण, सुविधा आदि की कल्पना नहीं की जा सकती। यह मानकर चलना है ऐसी दशा में यदि आश्रित व्यक्ति को कोई हानि पहुंची है तो उसका प्रभाव उस पर आधारित व्यक्तियों पर पड़ता है और इसी बात का निर्धारण धन के रूप में प्रतिकर के रूप में दावा अधिकरण करते हैं।

        अधिकांश मामलों में दावा अधिकरण के द्वारा आश्रितता के आधार पर ही प्रतिकर का निर्धारण किया जाता है और जो विधिक प्रतिनिधि आश्रितता की कोटि में नहीं आते हैं उन्हें सामान्यतः प्रतिकर नहीं दिया जाता है।

        यदि माॅ की दुर्घटना में मृत्यु हुई हो और विवाहित पुत्र/पुत्री माॅ से अलग रहते हों तो उन्हें प्रतिकर पाने का हकदार नहीं माना गया है क्योंकि वे अपनी माॅ पर आश्रित नहीं थे। एम0पी0एस0 रोड़ ट््रांसपोर्ट बनाम राघवैया 1989 ए0सी0जे0 622

        एक मामले में अवयस्क भाई की ओर से दावा पेश किया गया किन्तु वह पिता एवं भाई का भरणपोषण नहीं करता था ऐसी स्थिति में भाई एवं पिता मृतक की मृत्यु के संबंध में प्रतिकर पाने के हकदार नहीं माने गये। रेखा बनाम रामपाल 1984 ए0सी0जे0 929

    यदि मृतक के माता-पिता जीवित हैं तो उसके भाई प्रतिकर पाने का हकदार नहीं माना गया। हंसराज वल्द नीलम चोपड़ा 1986 ए0सी0जे0 152 भाई को उसी समय मृतक का  विधिक  प्रतिनिधि माना जा सकता है जब पक्षकारों शासित करने वाली व्यक्तिगत विधि के अंतर्गत अधिमानीय वारिसगण अनुपस्थित हों। न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध अब्दुल रसीद 1998 भाग-1 म0प्र0 वीकली नोट-112


        माॅ की उपस्थिति में भाई या बहिन अपने भाई की मृत्यु का प्रतिकर दावा करने के अधिकार नहीं माने जा सकते। यदि मृतक के भाई के अलावा अन्य कोई संबंधी न हो तो भाई प्रतिकर के रूप में दावा प्रस्तुत कर सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा गुजरात स्टेट रोड़ कार्पाेरेशन बनाम रावनभाई 1987 एम0सी0जे0-561  में यह निर्धारित किया है

        विधवा अपने स्वर्गीय पति की मृत्यु के संबंध में प्रतिकर का दावा प्रस्तुत कर सकती है, उसके साथ ही साथ बच्चों, मृतक की माॅ भी दावा प्रस्तुत कर सकती है क्योंकि व्यक्तिगत विधि के प्रावधान लागू नहीं होते हैं इसलिए सौतेली माॅ भी पक्षकार हो सकती है।

        इस प्रकार जो भी व्यक्ति आश्रित रहता है वह आश्रितता के सिद्धांत के आधार पर दावा प्रस्तुत कर सकता है और सभी विधिक प्रतिनिधि को दावा प्रस्तुत करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है, किन्तु इसके लिये शर्त है, कि मृतक पर आश्रित हो, तभी क्षतिपूर्ति की माॅग कर सकते हैं। 

        यदि विधिक प्रतिनिधि मृतक पर आश्रित नहीं हैं तो वह क्षतिपूर्ति की मंाग नहीं कर सकता। दावा अधिकरण द्वारा स्वतंत्र आय अर्जित करने वाले पुत्रगण को मृतक का प्रतिकर पाने का हकदार नहीं पाया गया।

         सामेला बनाम रामपुरी 1995 ए0सी0जे0 1094 म0प्र0 के मामले में दावेदार जो मृतक पर आश्रित नहीं थे उन्हें दावे की कोई राशि पाने का हकदार नहीं माना गया। इस मामले में मृतक के दादा-दादी, माता-पिता के अलावा मृतक के भाई-बहिन भी शामिल थे परन्तु मृतक के भाई-बहिन मृतक पर आश्रित नहीं होना पाये गये इसलिए उन्हें प्रतिकर में किसी राशि के पाये जाने का हकदार नहीं माना गया है।

         इस प्रकार यह सुस्थपित सिद्धांत है, कि जो मृतक का विधिक प्रतिनिधि मृतक पर आश्रित नहीं है, उसे क्षतिपूर्ति प्रदान नहीं की जायेगी किन्तु वह क्षतिपूर्ति की मांग विधिक प्रतिनिधि होने के नाते कर सकता है किन्तु उसे केवल आश्रितता के आधार पर ही क्षतिपूर्ति दी जायेगी।

    दावा अधिकरण की धारा-166 में विधिक प्रतिनिधि के दावा प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया है किन्तु दावा अधिकरण धारा-140 (2) के अंतर्गत आश्रिता ना होने की दशा में भी विधिक प्रतिनिधि को क्षतिपूर्ति प्रदान कर सकता है तथा कई मामलों में आश्रिता ना होने की दशा मंे भी क्षतिपूर्ति प्रतिकर प्रदान किया गया है। 

        विधिक प्रतिनिधि ऐसा व्यक्ति होता है, जो मोटरयान दुर्घटना के कारण व्यक्ति की मृत्यु होने से हानि उठाता है और उसे आवश्यक रूप से पति-पत्नि, माता-पिता होना आवश्यक नहीं होता है।

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा लेटेट्स सुप्रीम कोर्ट पुने 2007 भाग- (4)    पृष्ठ क्रं0-239 श्रीमति मंजूरी बेरा बनाम ओरिऐंटेड इंश्योरेंस लिमिटेड कंपनी के मामले में निर्धारित किया है, कि विधिक प्रतिनिधिगण केवल दावेदार का मृतक पर आश्रित होना नहीं है। धारा-2 (11) व्य0प्र0सं0 के अंतर्गत उसका निश्चित और विधिक प्रतिनिधि आश्रित ना होने की दशा में प्रतिकर प्राप्त कर सकता है और प्रतिकर की मात्रा अधिनियम की धारा-140 में निर्धारित दायित्व से कम नहीं होगी। 

        मान0 उच्चतम न्यायालय अधिनियम की धारा-140 के अंतर्गत आश्रितता का वाद के कारण दायित्व समाप्त नहीं होता है, क्योंकि आश्रितता का अभाव है। दावा आवेदन पत्र दाखिल करने का अधिकार का विचारण हकदारी के अधिकार की पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए। मात्रा निर्धारित करते समय गुणक विधि का उपयोग आश्रितता की वंचना के कारण किया जाता है। 

        उस व्यक्ति का दायित्व, जो उत्तरदायी है और व्यक्ति जिसे दायित्व की क्षतिपूर्ति करना है, अधिनियम की धारा-140 के निबन्धन में दायित्व आश्रितता के अभाव के कारण समाप्त नहीं होती है। ऐसी दशा में विधिक प्रतिनिधि जो आश्रित नहीं हैं। प्रतिकर के लिये आवेदन प्रस्तुत करते हैं केवल प्रतिकर की मात्रा धारा-140 से कम पाने का अधिकारी नहीं होता है। यदि विवाहित पुत्री अपने पिता की विधिक प्रतिनिधि के रूप में दावा करती है तो वह आश्रित ना होने की दशा में भी त्रुटिविहिन दायित्व के अंतर्गत प्रतिकर पाने की अधिकारी है। 

        इस प्रकार मृतक का विधिक प्रतिनिधि धारा-166 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की मांग तो कर सकता है परन्तु आश्रित न होने की दशा में उसे क्षतिपूर्ति नहीं दी जायेगी और आश्रित साबत न होने की दशा में विधिक प्रतिनिधि केवल धारा-140 (2) के अंतर्गत निर्धारित क्षतिपूर्ति उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

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