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भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन प्रक्रिया

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
         ‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन  प्रक्रिया

1.        सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 114 एवं आदेश 47 में पुनर्विलोकन के संबंध में प्रावधान किये गये हैं। 

        धारा 114 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार पुनर्विलोकन के लिये अपने को जो व्यक्ति व्यथित मानता है वह  निम्नलिखित आधार पर डिक्री पारित करने वाले या आदेश करने वाले न्यायालय से निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन कर सकेगा और न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे ।


(क) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात है, किन्तु जिसकी कोई अपील नहीं की गयी है,
(ख) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात नहीं है, अथवा
(ग) ऐसे विनिश्चिय से जो लघुवाद न्यायालय के निर्देश पर किया गया है।
    व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 47  पुनर्विलोकन से संबंधित है जिसके अनुसार किसी डिक्री या आदेश के विरूद्ध निम्नलिखित दशाओं में उसी न्यायालय में पुनर्विलोकन हेतु आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा 


         1. कोई ऐसी नई और महत्वपूर्ण बात या
         2. साक्ष्य के पता चलने से जो सम्यक तत्परता के प्रयोग के पश्चात् उस समय जब डिक्री/आदेश पारित किया गया था उसके ज्ञान में नहीं था या
        3. या उसके द्वारा पेश नहीं किया जा सकता था या
        4. किसी भूल या गलती के कारण जो अभिलेख के देखने से ही प्रकट होती हो, या
    5. या किसी अन्य पर्याप्त कारण से पुनर्विलोकन के लिए आवेदन किया जा सकेगा। 


    आदेश 47 नियम 1 के उपनियम 2 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार- 

         1. वह पक्षकार जो डिक्री या आदेश की अपील नहीं कर रहा है निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन इस बात के होते हुये भी कि किसी अन्य पक्षकार द्वारा की गई अपील लंबित है वहाॅ के सिवाय कर सकेगा जहाॅ ऐसी अपील का आधार आवेदक और अपीलार्थी दोनों के बीच सामान्य है 

        2. या जहाॅ प्रत्यर्थी होते हुये वह अपील न्यायालय में वह मामला उपस्थित कर सकता है जिसके आधार पर वह पुनर्विलोकन के लिये आवेदन करता है। 

         3. पुनर्विलोकन के समय यह बात ध्यान रखने योग्य है कि आदेश 47 नियम 2 के स्पष्टीकरण  के अनुसार - यह तथ्य की किसी विधि -प्रश्न का विनिश्चय जिस पर न्यायालय का निर्णय आधारित है, किसी अन्य मामले में वरिष्ठ न्यायालय के पश्चातवर्ती विनिश्चय द्वारा उलट दिया गया है या उपान्तरित कर दिया गया है, उस निर्णय के पुनर्विलोकन के लिए आधार नहीं होगा। 

    इस प्रकार पुनर्विलोकन के तीन बातें महत्वपूर्ण हैं :-

    (1)    यदि निर्णय अभिलेख के मुख पर प्रकट त्रुटि द्वारा दूषित हो गया हो। प्रकट त्रुटि का अर्थ यह है कि तर्क-वितर्क लंबी पद्धति के अपनाये बिना, अभिलेख को केवल देखने मात्र से ही प्रकट हो जाती है। 

    (2)    यदि कार्यवाही में गंभीर अनियमितता है, यथा नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन, तो पुनर्विलोकन का आवेदन ग्रहण किया जा सकता है। 

    (3)    यदि तथ्य की किसी गलत धारणा के द्वारा कोई गलती/त्रुटि हो गई है, जिसे बनाये रखने पर न्याय की हत्या हो जावेगी, तो भी पुनर्विलोकन किया जा सकता है।

     इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.नागराज बनाम कर्नाटक राज्य, 1993 सप्लीमेंट (4) सु.को.के. 595 , (जादूनाथ जेना बनाम बसुपुर पंचायत, ए.आई.आर 2004 उडीसा 81 (खंडपीठ)  अवलोकनीय हैं जिनमें उपरोक्त सिद्धांत अभिनिर्धारित किये गये हैं। 

        पुनर्विलोकन के लिये आवेदन 

1.         पुनर्विलोकन के लिये आवेदन का प्रारूप अपील करने के प्रारूप के समान होगा जो आवश्यक परिवर्तन सहित लागू होगा। 

2.        पुनर्विलोकन के लिये आवेदन प्रस्तुत किये जाने पर वह व्यवहार न्यायालय नियम 1961 के नियम 372 के उपनियम 16 के अनुसार विविध न्यायिक प्रकरणों के रजिस्टर में पंजीबद्ध होगा। 

3.        पुनर्विलोकन के लिये आवेदन पर न्याय फीस अधिनियम 1870 के अनुसार  न्याय शुल्क देय होगा ।

 न्याय फीस अधिनियम 1870 की अनुसूची एक के क्रमांक 04 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन या उसके पश्चात् उपस्थापित किया गया है तथा क्रमांक 05 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन के पूर्व उपस्थापित किया गया है। 
4.    आदेश 47 नियम 4(1) के अनुसार    पुनर्विलोकन के पर्याप्त आधार नहीं होने पर आवेदन नामंजूर किया जावेगा  और न्यायालय की राय में पुनर्विलोकन केलिये आवेदन मंजूर होने की दशा में निम्नलिखित कदम उठाये जाएंगे:

    1. ऐसा कोई भी आवेदन विरोधी पक्षकार को ऐसी पूर्ववर्ती सूचना दिये बिना मंजूर नहीं किया जायेगा जिससे वह उपसंजात होने और उस डिक्री या आदेश के जिसके पुनर्विलोकन के लिये आवेदन किया गया है, समर्थन में सुने जाने के लिये समर्थ हो जायें तथा 

    2. ऐसा कोई भी आवेदन ऐसी नई बात या साक्ष्य के पता चलने के आधार पर जिसके बारे में आवेदन अभिकथन करता है कि वह उस समय जब डिक्री पारित की गई थी या आदेश किया गया था, उसके ज्ञान में नहीं थी या उसके   द्वारा पेश नहीं किया गया जा सकता था, ऐसे अभिकथन के पूर्ण सबूत के बिना मंजूर नहीं किया जायेगा।

    3. आवेदन मंजूर कर लिया जाता है तो उसका उल्लेख रजिस्टर में किया जायेगा और न्यायालय मामले को तुरन्त फिर सुन सकेगा या फिर से सुनवाई के बारे में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे। 

    4. पुनर्विलोकन के आवेदन पर किये गये आदेश के या पुनर्विलोकन में पारित डिक्री या आदेश के पुनर्विलोकन के लिये कोई भी आवेदन ग्रहण नहीं किया जायेगा। 


    5. पुनर्विलोकन नामंजूरी का आदेश अपील योग्य नहीं होगा।

    6. पुनर्विलोकन मंजूरी का आदेश अपील योग्य होगा। 

    7. जहाॅ आवेदन पक्षकार की अनुपस्थिति में खारिज हुआ है वहाॅ पर्याप्त  हेतुक के आधार पर आवेदन पुनः सुनवाई में विरोधी पक्षकार को सूचना देकर ग्रहण किया जा सकेगा।

    8. जहाॅ दो या दो अधिक न्यायाधीशों द्वारा गठित न्यायालय द्वारा आदेश दिया गया है वहाॅ उपस्थित किसी भी एक न्यायाधीश के समक्ष ही पुनर्विलोकन आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा,  जब तक कि वे आगामी 06 माह तक आवेदन पर सुनवाई हेतु उपस्थित हैं ऐसी दशा में किसी अन्य न्यायाधीश के समक्ष आवेदन की सुनवाई नहीं होगी।

            :ः पुनर्विलाकन की सीमायें:ः

1.     विधि की त्रुटि के आधार पर भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता है।

2.     यदि पूर्णपीठ किसी फैसले को भी उलट दें, तब भी किसी आदेश का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता,

3.     यदि विधि या गुणागुण पर भी किसी प्रकार की कोई गलती हो तो भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।

4.    - यदि उच्च मंच (ीपहीमत वितनउ) के निर्णय को समझने की त्रुटि (मततवत वित नदकमतेजंदकपदह) रही हो, तो भी इस आधार पर किसी निर्णय का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। 

5.     साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन नहीं किया जा सकता - पुनर्विलोकन की सीमा अपील की भांति व्यापक न होकर बहुत सीमित होती है और वह बताये गये आधारों पर ही किया जा सकता है। अभिलेख के देखने से प्रकट होने वाली भूल (त्रुटि) वह होती है, जो अभिलेख देखने मात्र से ही प्रकट हो जाये। जिस निष्कर्ष को गलत बताने के लिए सारे साक्ष्य का मूल्यांकन अपेक्षित हो, वह ऐसी भूल नहीं मानी जा सकती। तदानुसार पुनर्विलोकन में साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन करके दिया गया नया निर्णय अपास्त किया गया। इस सम्बन्ध में अवलोकनीय  (ए.आई.आर. 1979 सु.को. 1047 तथा ए.आई.आर 1960 सु.को.137 है ) 

6.     नया कथन जो द्वितीय अपील में नहीं उठाया गया, पुनर्विलोकन में पहली बार नहीं उठाया जा सकता ।

7.    आदेश 47, नियम 1 की शर्तो के अनुसार निर्देश न्यायालय अपने पूर्वनिर्णय का पुनर्विलोकन कर सकता है, यदि वहाॅ अभिलेख के मुख पर कोई प्रकट त्रुटि हो। परन्तु आदेश की शुद्धता पर विचार नहीं किया जा सकता। इस संबंध में न्यायदृष्टांत जयचंद्र महामात्र ब. लैण्ड एक्वीजिशन आॅफिसर रायगढ, ए.आई.आर 2005 सु.केा. 4165 अवलोकनीय है। 

8.    आवेदक के पुनर्विलोकन याचिका के रूप में गुणागुण पर नए सिरे से संपूर्ण मामले पर तर्क करने का अवसर नहीं दिया जा सकता। इस संबंध में ।  आर.बी.ठक्कर एंड कंपनी (में) विरूद्ध शत्रुघन लालसिन्हा, 2010 (5) एम.पी.एच.टी 91 (सी.जी.) अवलोकनीय है।
9.    गलत विनिश्चिय के लिए यह अनुज्ञेय नहीं है कि उसकी फिर से सुनवाई की जाये और उसे ठीक किया जाये।  (1997) 8 एस.सी.सी.715, अनुसरित। इस संबंध में न्यायदृष्टांत म.प्र. राज्य विरूद्ध एस.एस.भदौरिया, 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ)त्र2001(1) एम.पी.एल.जे. 72 अवलोकनीय है। 

10.    कोई आदेश गलत होने से पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता-  इस संबंध में न्यायदृष्टांत धर्माबाई ठाकुर (श्रीमती) विरूद्ध उषारानी दीक्षित (श्रीमती) 2004,(4)एम.पी.एच.टी. 417 अवलोकनीय है। 

11.    आदेश 47 नियम 1, सि.प्र.सं. के अधीन शक्तियों का केवल भूलों को ठीक करने के लिए किया जाता है-जो अभिलेख को देखने से ही प्रकट होती है। 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ) 2001(1) एम.पी.एल.जे.72  मदनसिंह विरूद्ध शांतिबाई 2005(1) एम.पी.एच.टी. 480 अवलोकनीय है।

12.    गलत निष्कर्ष, पुनर्विलोकन किये जाने का आधार नहीं है-अवैध या गलत निष्कर्ष, चाहे तथ्यों पर हो या विधि में हो इसके सम्बन्ध में पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता। 

        इस प्रकार पुनर्विलोकन की सीमायें निश्चित हैं अभिलेख से प्रगट गल्ती और किसी नई बात पर ही पुनर्विलोकन उसी न्यायालय में जिसने डिक्री आदेश पारित किया है उस दिनांक से परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 124 के अनुसार तीस दिन के अन्दर उच्चतम न्यायालय को छोड़कर किया जा सकता है।

                          

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta