धारा-157 द.प्र.सं. लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं
धारा-157 द.प्र.सं. लेबलों वाले संदेश दिखाए जा रहे हैं. सभी संदेश दिखाएं

धारा-157 द.प्र.सं.

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

 इस संबंध मे मान्नीय उच्चतम न्यायायल द्वारा सवरन ंिसह विरूद्ध पंजाब राज्य ए.आई. आर. 1976 सुप्रीम कोर्ट 2304 पाला ंिसह बनाम स्टेट आफ पंजार्ब ए.आइ. आर. 1972 सुप्रीम कोर्ट 2679, रामबिहारी विरूद्ध स्टेट आफ बिहार ए.आइ.आर. 1998 सुप्रीम कोर्ट 1850, में अभिनिर्धारित किया है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्रेषित करने में विलम्ब मात्र ऐसी परिस्थिति नहीं मानी जा सकती जिसके आधार पर सम्पूर्ण अभियोजन मामले का परित्याग किया जाये।]


        ऐसी स्थिति मे आरोपीगण को धारा-157 द.प्र.सं.के अंतर्गत संबधित न्यायिक दण्डाधिकारी को एफ.आई.आर. की प्रतिलिपि प्राप्त न होने पर धारा-157 दं.प्र.सं. के अंतर्गत कोई प्रतिकूल प्रभाव इस मामले में न पडने के कारण अभियोजन मामले पर अविश्वास नहीं किया जा सकता है । अतः आरोपीगण को प्रस्तुत न्यायदृष्टांत 2001 भाग-2 म.प्र.वि.नो. क्र. 64 में प्रतिपादित दिशानिर्देशों से कोई लाभ प्राप्त नही होता है ।                         आपराधिक षडयंत्र

        ’’आपराधिक षडयंत्र’’  का अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धाा-120क में परिभाषित है, जबकि संहिता की धारा-120ख उक्त अपराध के लिए दण्ड उपबन्धित करती है । आपराधिक षडयंत्र के अपराध की आधारशिला दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य किसी अवैध कृत्य या कोई कृत्य, जो स्वयं अवैध नहीं है, अवैध  साधनों के माध्यम से पूर्ण/करने के लिए सहयोग हेतु अनुबंध होता है । ऐसा अनुबंध या मस्तिष्कां का मिलन एंव सबूत का संबंध या कारित करने हेतु मुख्य अपराध अन्यथ, जो षडयंत्र हो सकेगा, आपराधिक षडयंत्र का अपराध कारित किया स्थित होता है।
        आपराधिक षडयंत्र के अपराध का प्रत्यक्ष सबूत से अधिक नहीं उपलब्ध होगा और ऐसे अपराध का सबूत दिये प्रकरण की स्थापित परिस्थितियों से अनुमान की प्रक्रिया द्वारा विनिश्चित किया जाना चाहिए । उक्त अपराध के आवश्यक संषटक, इसके कारित करने के सबूत की अनुज्ञेय रीति एंव इस संबंध में न्यायालयों की पहंुच निःशेषित रूप से इस न्यायालय द्वारा कई उद्घोषणाओ में विचारण की गई है, जो दृष्टांत रूप से ई.के चन्द्रसेनन बनाम केरल राज्य, 1995 भाग-2 एस.सी.सी. 99, केहर सिंह और अन्य बनाम राज्य दिल्ली प्रशासन, 1988  भाग-3 एस.सी.सी. 60, अजय अग्रवाल बनाम भारत का संघ, 1993 भाग-3 एस.सी.सी. 609 और यश पाल मित्तल बनाम पंजाब राज्य, 1977 भाग-4 एस.सी.सी. 540 में संन्दर्भित किये जा सके ।
        विवि की प्रतिपादनाएं जो उपर्युक्त प्रकरणांे से निकली है, किसी रूप से आधारात्मक रूप से भिन्न नहीं है, जो हमारे द्वारा एतस्मिन उपर कहा गया । आपराधिक षडयंत्र का अपराध अपराध के कारित करने का या विधिपूर्ण उददेश्य अविधिपूर्ण साधनों सेप्राप्त करने का  अनुबंध होता है । ऐसा षडयंत्र कभी-कभार खुला होगा एंव इसलिए प्रत्यक्ष साक्ष्य इसे स्थापित करने हमेशा उपलब्धनहीं होगा । ऐसे षडयंत्र का सबूत या अन्यथा अनुमान का मामला है एंव न्यायालय को ऐसा अनुमान लगाने में यह विचारण करना चाहिए कि क्या मूल तथ्य अर्थात परिस्थितियां जिनसे अनुमान लगाना चाहिए, समस्त युक्तियुक्त शंका से परे साबित है एंव इसके पश्चात क्या ऐसी साबित एंव स्थापित परिस्थितियों से कोई अन्य निष्कर्ष सिवाये इसके कि अभियुक्त अपराध कारित करने के लिए सहमत था, निकाला जा सकता है। प्राकृतिक रूप से अभियुक्त के प्रतिकूल किसी अनुमान लगाने के प्रयोजनो हेतु साबित परिस्थियां मूल्यांकित करते हुए, किसी शंका का लाभ जो आ सकेगा, अभियुक्त् को जाना चाहिए ।
        के.भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन 1997-7 एस.सी.सी.510    में संहिता की धारा-357-3को विचारणकरते हुए, इस न्यायालय ने अभिव्यक्त किया कि यदि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्ेट जुर्माने में से प्रतिकर परिवादी को परिवादी को हानि उठाने वाला महसूस करके संदत्त करना आदेशित करते थे, जब राशिउक्त सीमा से अधिक थी । ऐसे प्रकरण में परिवादी केवल अधिकतम रूपये पंाच हजार की राशि प्राप्त    करेगा, क्योकि न्यायिक मजिस्टे्रट प्रथम श्रेणी संहिता की धारा- 29-2 के अनुसार तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए कारावास का दण्डादेश या 5,000 रूपये से अधिक जुर्माना या दोनों उक्त राशि अब 10,000 तक बढौतरी की गई है, पारित कर सकता है । इस न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे प्रकरणों में मजिस्ट्रेट संहिता की धारा-357-3 से आश्रय लेने के द्वारा परिवादी की व्यथा कम कर सकता है।
        अभियुक्त को परिवादी को प्रतिकर संदाय करने के लिए निदेशित करते हुए आयडिया उसको तुरंत अनुतोष उसकी व्यथा कम करने के लिए देना है । धारा- 357-3 के निबंधनों में, प्रतिकर अभियुक्त के कृत्य के कारण उस व्यक्ति द्वारा वहन की गई नुकसानी या क्षति के लिए अधिनिर्र्णीत किया जाता है, जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया है । यदि मात्र प्रतिकर निदेशित करते हुए आदेश पारित किया जाता है, यह पूर्णतः अप्रभावकारी होगा । यह बिना भय दिखाकर या इसके अनुपालन के प्रकरण में तुरंत प्रतिकूल परिणामों की आशंका का आदेश होगा ।
            संहिता की धारा-357-3 के तहत परिवादी को अनुतोष देने का सम्पूर्ण प्रयोजन हतोत्साहित होगा, यदि वह संहिता की धारा-421 का आश्रय लेते हुए जाता है । धारा-357-3 के तहत आदेश इसका अनुपालन संरक्षित करने का सामथ्र्य से होना चाहिए । यह बिना भय दिखाकर केवल व्यतिक्रम दण्डादेश के लिए उपबंधित करने के द्वारा आदेश में प्रेरित हो सकता है । यदि संहिता की धारा-421 न्यायालय द्वारा संदत्त किया जाना आदेशित प्रतिकर जुर्माने के साथ रखती है, जहां तक वसूली की रीति का संबंध है, तब कोई कारण नहीं है कि क्यों न्यायालय प्रतिकर के भुगतान के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता, यथा यह भा.द.सं. की धारा-64 के तहत जुर्माने के संदाय के व्यतिक्रम में किया जा सकता है । यह स्पष्ट होता हैकि इसके आलोक में, विजयन में, इस न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त वर्णित उपबंध न्यायालय को प्रतिकर के संदाय के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए समर्थ करते हैं और निवेदन निरस्त किया कि आश्रय केवल प्रतिकर के आदेश को प्रवृत्त करने के लिए संहिता की धारा-421 का हो सकता था। सम्बद्ध रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि इस न्यायालय द्वारा हरिसिंह में किये सम्प्रेक्षण आज उतने महत्वपूर्ण हैं, यथा वे तब थे, जब वे किये गये थे । निष्कर्ष, इसलिए है कि प्रतिकर संदाय करने का आदेश व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिनिर्णीत करने के द्वारा प्रवृत्त किया जा सकेगा ।


     

                           इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बंटी बनाम मध्यप्रदेश राज्य ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 261 2004 एस.सी.सी. 41 वाले मामले में  अभिनिर्धारित किया था जहां तक साक्षियों की विलम्ब से की गई परीक्षा का संबंध है । इस न्यायालय ने अनेक विनिश्चियों में यह अभिनिर्धारित किया है कि जब तक कि अन्वेषक अधिकारी से स्पष्ट रूप से यह न पूछ लिया जाए कि साक्षियों की परीक्षा करने में विलम्ब क्यों हुआ है, प्रतिरक्षा पक्ष इस बात से कोई फायदा नहीं उठा सकता । इसे हर जगह लागू होने वाले नियम के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि यदि किसी विशिष्ट साक्षी की परीक्षा में कोई विलम्ब हुआ है तब अभियोजन पक्ष कथन संदेहास्पद बन जाएगा क्यों कि यह बात बहुत से संघटको पर निर्भर करती है । यदि परीक्षा में हुए विलम्ब की बावत् दिया गया स्पष्टीकरण तर्क संगत और स्वीकार्य है और न्यायालय भी इसे तर्क सम्मत स्वीकार करता है तब निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं है ।         ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना आरोपी पर धारा- 363,366,376, भा.द.वि. के अपराध के प्रमाणन के लिए प्रार्थीया की आयु महत्वपूर्ण स्थान रखती है । यदि प्रार्थीया की उम्र 18 वर्ष से कम है तो ऐसे अपराधो मे उसकी सम्मति कोई महत्व नहीं रखती है और यह साबित हो जाता है कि  प्रार्थीया 18 वर्ष से कम उम्र की है तो उसके विधिपूर्ण संरक्षण होने की दशा में सरंक्षण की सम्मति के बिना ले जाने या फुसलाकर ले जाने पर धारा-363 का अपराध प्रमाणित माना जाता है ।
        विधिपूर्ण संरक्षण के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति आते है जिस पर ऐसे अवयस्क या व्यक्ति की देखरेख या अभिरक्षा का भार न्यस्त किया जाता है । धारा-361 भा.द.सं. में विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण परिभाषित किया गया है और धारा-363 भा.द.वि. में इसे दण्डित किया गया है ।
        जहां तक आयु प्रमाणन की बात है । इस संबंध में सुस्थापित सिद्धंात है कि उसे माता पिता के कथन स्कूल का प्रवेश रजिस्टर तथा नगर पालिका का जन्म रजिस्टर के द्वारा उसे प्रमाणित किया जाता है । इस प्रकार की साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से अधिक विश्वसनीय होती है क्यों कि चिकित्सीय साक्ष्य जलवायु के परिवर्तन, खानपान, वंश, परम्परा तथा अन्य बातो पर निर्भर करती है।
        इसलिए आयु निर्धारण का कोई मानक निर्धारित नहीं किया जा सकता। परन्तु ऐसी परिस्थितियों में आयु का निश्चयात्मक साक्ष्य उसका आयु प्रमाण पत्र होता है। प्रस्तुत प्रकरण में पेश मार्कशीट को प्रमाणित नहीं किया गया है । इसलिए आयु के सबंध में मौखिक साक्ष्य और अस्थि परीक्षण रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित है ।
        चिकित्सीय न्यायशास्त्र में अस्थि विकास परीक्षण का आयु निर्धारण के लिए एक्स-रे परीक्षण किया जाता है और आयु निर्धारण में अस्थि विकास परीक्षण को सर्वाधिक मान्यता प्रदान की गई है । प्रस्ुतत प्रकरण में अभियोजन के द्वारा डाक्टरी सुझाव के बाद अस्थि विकास परीक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है । जिसके अनुसार प्रार्थीया वंदना की उम्र 18 वर्ष से अधिक बताई गई है ।
.      
        विधिपूर्ण संरक्षकता में से ऐसे सरक्षण की सम्मति के बिना ले जाना  या बहलाकर ले जाने के कारण को दंडनीय माना गया है औरले जाना शब्द या बहलाकर ले जाने का कार्य किसी लालच प्रलोभन या बल के द्वारा किया जा सकता है किन्तु ले जाने के लिए किसी बल की अपेक्षा नहीं की गई है ।
शिवनाथ गयार विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन 1998(1) करंट क्रिमिनल जजमेंट एम.पी. 196,
प्रदीप मंगल विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन 1996 करंट क्रिमिनल रिपोर्टर एम.पी. 158
मध्य प्रदेश राज्य विरूद्ध नरेन्द्र कुमार 2000(1)करंट क्रिमिनल जजमेंट 263 एम.पी.
        ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना को यदि हम देखे तो जब तक कि आरोपी की ओर से कोई ऐसा सक्रिय कार्य ना किया जाए जिससे कोई लडकी उसके साथ जाने का विचार बनाए या आरोपी उसे ना बहकाये तो ऐसी दशा में आरोपी को लडकी ले जाने की परिकल्पना की जा सकती है
            आरोपी की तरफ से वास्तव में ऐसा लालच दिया जाए जिससे उसका मस्तिष्क परिवर्तित हो जाए तो उसे बहकाकर ले जाना कहते है ।
     किन्तु यदि लडकी की इच्छाओ के विरूद्ध आरोपी कोई कार्य करता है तो वह चले जाना कहलाएगा और उसे दोषी ठहराया नही जा सकता ।
        इस प्रकार ले जाने मे अल्प वयस्क की इच्छा कोई महत्व नहीं रखती है ।
    जब कि बहकाकर ले जाने या फुसलाने में अवयस्क की इच्छा अपना प्रभाव रखती है और आरोपी के कार्य के साथ ही साथ भागने वाली की इच्छा का भी उसमें समावेश होता है । जो लालच, धमकी, भय, छल-कपट आदि से प्राप्त किया जाता है ।
         जब कि ले जाने में अवयस्क की सहमति बिलकुल नहीं होती ।
.         इस प्रकार ले जाने के शब्द के अंतर्गत व्यक्ति की इच्छा की कमी और इच्छा की अनुपस्थित में शामिल रहते हैं और बहकाकर ले जाने में आरोपी की मानसिक अवस्था को आरोपी द्वारा प्रेरणा, प्रलोभन, लोभ-लालच उत्पे्रेरित किया जाता है । जिससे उसके साथ जाने की अवयस्क के मन मे आशा और इच्छा जाग्रत होती है ।
        धारा-361 भा.द.वि. का उद्देश्य अवयस्क को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करने की धारा-361 में दण्डित किये जाने के पूर्व बालिका की समक्ष उसकी बौद्धिक क्षमता तथा मामले की परिस्थिति पर विचार किया जाना चाहिए।
    यदि आरोपी के अनुनेय विनय पर बालिका आरोपी के साथ जाने के लिए स्वयं तैयार हो जाती है तो तब भी व्यपहरण का अपराध होता है । इसमें लडकी का चाल चलन और चरित्र हीनता का बचाव नहीं किया जा सकता है
    और यदि आरोपी सक्रिय भूमिका अदा करता है तो व्यपहरण का अपराध होता है ।      
      
     
        ऐसा कोई आदेश जो कि व्यक्ति के अधिकार को सारवान तौर पर प्रभावित करता है अथवा या सारवान तौर पर प्रतिकूलता कारित करता है तो इसे अंतर्वर्ती आदेश होना नहीं कहा जा सकता है । अंतरिम भरण पोषण का आदेश जो कि पक्षकारों के अधिकारों को सारवान तौर पर प्रभावित करता है उसे अंतर्वर्ती होना नहीं माना गया ।
    धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
  
2012 भाग-3 एल.एस.सी.टी. सुप्रीम कोर्ट 57  में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2003) 1 एस.सी.सी. 240 में निर्धारित किया है कि ‘‘ यह आवश्यक न्याय का नियम है कि जब कभी विरोधी ने उसके प्रकरण में प्रति-परीक्षण में उसको स्वयं को उपस्थित रखने से इन्कार किया , यह अनुसरण करता है कि उस विषय पर रखा साक्ष्य स्वीकार किया जाना चाहिए । ’’
        हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य , (2008) 15 एस.सी.सी. 652 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है कि धारा-311  का उद्देश्य किसी पक्षकार की अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लेने या साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए बात के लाने की गलती के कारण न्याय की असफलता रोकना है। इस न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया ।
        ‘‘ यह समर्थ करते हुए एक पूरक उपबंध है एवं कतिपय परिस्थितियाॅं न्यायालय पर अधिरोपित करते हुए , तात्विक साक्षी की जाॅच करने का कर्तव्य , जो इसके पूर्व अन्यथा नहीं लाया जाएगा । यह वृहद संभव निबन्धनों में रखा गया है एवं किसी परिसीमा हेतु नहीं कहता , या तो प्रक्रम के संबंध में , जो न्यायालय की शक्तियाॅ अनुप्रयोग किया जाना चाहिए या रीति के संबंध में , जिसमें यह अनुप्रयोग किया जाना चाहिए । यह केवल परमाधिकार नहीं है , बल्कि न्यायालय की ऐसे साक्षियों की जाॅच करने का सादा कर्तव्य है यथा राज्य एवं विषय के मध्य न्याय करने के लिए स्पष्टतः आवश्यक विचारण किया जाता है । न्यायालय पर समस्त विधिपूर्ण अर्थों से सत्य पर पहॅुचने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है एवं ऐसे अर्थों में से एक इसके स्वयं के साक्षियों की जाॅच है , जब कतिपय स्पष्ट कारण हेतु कोई पक्षकार साक्षियों को बुलाने के लिए तैयार नहीं करता , जो महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य बोलने की स्थिति में होते हैं ।
        ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।
        धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है ।
        धारा-311 में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि ‘‘ इस संहिता के तहत् जाॅच या परीक्षण या किसी कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ’’ है। यह परन्तु मस्तिष्क में उठता है कि जबकि धारा न्यायालय साक्षियों को समनित करने के लिए अत्यंत वृहद शक्ति प्रदत्त  करती है , प्रदत्त विवेकाधिकार न्यायिक रूप से अनुप्रयोग होना चाहिए , क्योंकि शक्ति की वृहदता न्यायिक मस्तिष्क की प्रयोज्यता की आवश्यकता से वृहद है । ’’
        हाॅफमेन एन्ड्र्ेस बनाम इंस्पेक्टर आॅफ कस्टम्स , अमृतसर , (2000)10 एस.सी.सी. 430 में अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘ ऐसी परिस्थितियों में , यदि नये काउंसेल तात्विक साक्षियों को आगे जाॅच करना सोचते हैं , न्यायालय नरम एवं उदार रूप न्याय के हित में अपना सकता था , विशिष्ट रूप से जब न्यायालय को यथा संहिता की धारा-311 में निहित मामले में शक्तियाॅ हैं । अखिरकार परीक्षण मूल रूप से कैदियों के लिए है और न्यायालयों को उनको निष्पक्ष संभव रीति में अवसर प्रदान करना चाहिए । ’’
        मोहन लाल शामजी सोनी बनाम भारत का संघ एवं अन्य , 1991 सप्ली. (1) 271 में  उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्प्रेक्षित कियाः-
        ‘‘ विधि का सिद्धांत , जो इस न्यायालय द्वारा उपर्युक्त विनिश्चयों में अभिव्यक्त अभिमतों से निकलता है , है कि दाण्डिक न्यायालय के पास किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समनित करने या पुनः बुलाने एवं किसी ऐसे व्यक्ति को जाॅच करने की प्रचुर शक्ति है , यहाॅ तक कि दोनों तरफ केक साक्ष्य समाप्त हो गये हैं एवं न्यायालय की अधिकारिता से निकाली जानी चाहिए एवं निष्पक्ष एवं अच्छा अर्थ केवल सुरक्षित मार्गदर्शनों में प्रतीत होता है एवं यह कि न्याय की अपेक्षाएॅ किसी व्यक्ति की जाॅच करती है , जो प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा । ’’
        सत्य की खोज करना किसी भी परीक्षण या जाॅच का आवश्यक प्रयोजन है ,माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशगण की न्यायपीठ ने मारिया मार्गरीडा स्केरिया फर्नांडिस बनाम एरास्मो जेक डे स्केरिया द्वारा विधिक प्रतिनिधिगण , 2012  (3) स्केल 550 में सम्प्रेषित किया । उस पवित्र कर्तव्य का समय-समय पर स्मरण निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:-
        ‘‘ जो लोग अपेक्षित करते हैं कि न्यायालय को यह पता करने की इसकी बाध्यता से निर्मुक्ति चाहिए ,जहाॅ वस्तुतः सत्य ठहरता है । न्यायिक प्रणाली के प्रारम्भ में यह अपेक्षित किया गया है कि खोज , दोष-प्रक्षालन एवं सत्य की स्थापना न्याय के न्यायालयों के रेखांकित अस्तित्व के मुख्य प्रयोजन हैं । ’’
        हमें इस तथ्य का भान हैं कि साक्षियों का पुनः आहुत करना , उनके  घटना के बारे में मुख्य-परीक्षण में जाॅचे  जाने के लगभग चार वर्ष पश्चात् निदेशत करते हुए , जो लगभग सात वर्ष पुरानी है । विलम्ब मानवीय स्मृति पर प्रबल भार रखता है , युक्तियुक्त रूप से समयावधि के भीतर प्रकरणों को विनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रणाली की शुद्धता के बारे में शिष्टता से अलग होती है । इस सीमा तक श्री रावल द्वारा अभिव्यक्त आशंका कि अभियोजन विलम्बित पुनः बुलाने के कारण प्रभाव वहन कर सकेगा । यह कहते हुए कि , हम इस अभिमत के हैं कि कारणों की समानता पर एवं साक्षियों को प्रति-परीक्षण हेतु अवसर के इन्कार के परिणामों को देखते हुए , हम अपीलार्थी के पक्ष में उसके पक्ष में सम्भावित प्रभाव के विरूद्ध अभियोजन संरक्षित करने के मुकाबले अवसर देते हुए निर्दिष्ट करेंगे । परीक्षण की निष्पक्षता इस आधार पर है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अलंघनीय है एवं कोई मूल्य उस आधार को संरक्षित करने हेतु अत्यंत प्रबल नहीं है । अभियोजन को सम्भावित प्रभाव यहाॅ तक कि इस मूल्य पर भी नहीं है , एक मात्र अनुमति , जो अभियुक्त को उसको स्वयं की प्रतिरक्षा हेतु निष्पक्ष अवसर का इंकार न्यायसंगत करेगी ।
      

      
        इस संबंध में सुस्थापित सिद्धांत है कि द.प्र.सं. की धारा-313 के अधीन की गई परीक्षा मात्र औपचारिकता नहीं है इसका प्रयोजन अभियुक्त के अभियोगो को सिद्ध करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा अभिलेख पर प्रस्तुत तथ्य समग्री को उसकी जानकारी देना होता है। अभियुक्त को उसके विरूद्ध अपराध में फंसाने वाली जो परिस्थितियां है उन्हें स्पष्ट करने का अवसर प्रदान किया जाता है और अभियोजन पक्ष द्वारा अभिलेख पर प्रस्तुत किये गये साक्ष्य की पृृष्ठभूमि में उसमें अपनी बात कही जाती है ।         विधि का सुस्थापित सिद्वांत है कि काउन्टर प्रकरण का एक साथ निराकरण किया जाना चाहिये । अपीलार्थीगण को चोट पहुंची है जिसका अभियोजन के द्वारा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है जबकि बचाव में अपीलार्थीगण के द्वारा घटना दिनांक को  उनको चोट पहुंचना प्रमाणित किया है और प्रार्थीगण के द्वारा अपराध स्वीकार किया गया है और उन्हें ग्राम न्यायालय द्वारा 50-50 रूपये के अर्थदंड से दंडित किया गया है ।
        प्रकरण में अपीलार्थी साहब सिंह के द्वारा दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट डी0/3 से यह प्रमाणित होता है कि जब वह अपने घर आ रहा था तब प्रार्थी बाबूलाल और शंकर लाल ने उसे गालियां दी हे । जान से मारने की धमकी दी है। जिसके फलस्वरूप घटना घटित हुई है ।
        ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट होता है कि प्रार्थीगण के द्वारा अपीलार्थीगण को गालियां दी गई है । भारत में शब्द और अंग विक्षेप भी उक्त परिस्थितियों में गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित कर सकते हैं । अपीलार्थीगण के द्वारा बिना पूर्व चिन्तन के आत्म नियंत्रण खोकर उत्तेजित होकर मारपीट की गई है । जिसके फलस्वरूप घटना घटित हुई है । अपीलार्थीगण के द्वारा भी झगडा टालने का प्रयास नहीं किया गया है और मारपीट की गई है । इसलिये उन्हें प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदान नहीं किया जा सकता और उनके द्वारा आत्म नियंत्रण खोकर प्रतिरक्षा अधिकार का  अतिक्रमण कर गम्भीर और अचानक प्रकोपन के बाद कार्य करते हुए प्रार्थी शंकरलाल को राजाचैहान और रणवीर सिंह के द्वारा गंभीर चोट और सामान्य आशय की पूर्ति में साहब सिंह उनका साथ दिया है । तथाा बाबूलाल को साधरण चोट साहब सिंह के द्वारा पहंुचाई गई है । और राजाचैहान और रणवीर सिंह के द्वारा  सामान्य आश्या की पूर्ति में उनका साथ दिया गया है ।
        ऐसी स्थिति में विचारण न्यायालय के द्वारा काउन्टर प्रकरण को ध्यान में न रखते हुये अपीलार्थीगण को दडित किये जाने में विधि एंव तथ्यों की गंभीर भूल की गई । अतः विचारण न्यायालय के द्वारा की गई दोषसिद्वि दण्डाज्ञा अपास्त की जाती है ।
         अपीलार्थीगण के द्वारा प्रार्थीगण के साथ अचानक और गम्भीर प्रकोपन के बाद मारपीट की गई है ।ऐसी स्थिति में अपीलार्थी साहबसिह को धारा 324 की जगह धारा 334 भ0दं0वि0 के अपराध के आरोप में तथा धारा 325/34 भा0दं0वि0 के आरोप के स्थान पर ध्ंाारा 335/34 भा0दं0वि0 के आरोप मेे तथा अपीलार्थीगण रणबीर एंव राजा चैहान को धारा 324/34 की जगह धारा- 334/34 और धारा 325 भा0दं0वि0 के स्थान पर धारा 335 भा0दं0वि0 के अपराध आरोप में दोषसिद्व ठहराया जाता है । अतःविचारण न्यायालय द्वारा की गई दोषसिद्वि एंव दंडाज्ञा को अपास्त किया जाता है ।
        अपीलार्थीगण प्रथम अपराधी है । कोई पूर्व दोषसिद्धि प्रमाणित नहीं है । किन्तु उनके द्वारा आत्मसंयम खोकर तलवार और लाठी से मारपीट की गई है । इसलिए उन्हें परिवीक्षा अधिनियम का लाभ देना उचित नहीं है । किन्तु पारिवारिक स्थिति को देखते हुए धारा 334 भ0दं0वि0 के अपराध के आरोप में पांच सौ रूपये के अर्थ दण्ड तथा ध्ंाारा 335/34 भा0दं0वि0 के आरोप मेे दो हजार रूपये के अर्थ दण्ड, अपीलार्थीगण रणबीर एंव राजा चैहान को  धारा- 334/34 पांच सौ रूपये के अर्थ और धारा 335 भा0दं0वि0 के अपराध आरोप में दो हजार रूपये के अर्थ दण्ड से दण्डित किया जाता है । अर्थदंड अदा न करने पर एक-एक माह का कठोर कारावास भुगताया जावे ।

        धारा-300 के अपवाद 1 के पठन मात्र से यह स्पष्ट है कि अपवाद का फायदा अभिप्राप्त करने के लिए यह साबित किया जाना चाहिए कि-
    1-    मृतक अभियुक्त को कार्यों या शब्दो द्वारा क्षति पहंुचाई और इस प्रकार प्रकोपन कारित किया ।
    2-    प्रकोपन को गम्भीर और अचानक दोनो होना चाहिए।
    3-    प्रकोपन ऐसा होना चाहिए जिससे कि युक्तियुक्त मनुष्य आत्म नियत्रण की शक्ति खो दे और यह कि इससे अभियुक्त ने वास्तव में अचानक और अस्थायी रूप से आत्म नियंत्रण खो दिया।
        जांच करने के संबंध में भारतीय विधि

    1-    गम्भीर और अचानक प्रकोपन की कसौटी यह है कि क्या समाज के उसी वर्ग को होने वाला जिसका अभियुक्त है, कोई युक्तियुक्त मनुष्य उसी स्थिति में रख दिये जाने पर, जिसमें कि अभियुक्त था, उतना प्रकोपित हो जाएगा कि वह अपना आत्म विश्वास खो देगा ।
    2-    भारत मे ंशब्द और अंग विक्षेप भी कतिपय परिस्थितियों मे किसी अभ्यिुक्त को गम्भीर ओर अचानक प्रकोपन कारित कर सकते है जिससे कि उसका कृत्य भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के प्रथम अपवाद के भीतर आ जाए।
    3-    घटना ग्रस्त व्यक्ति के पूर्व कृत्यों द्वारा सृष्ट मानसिक पृष्ठभूमि को अभिनिश्चित करने के लिए विचार में लिया जा सकता है कि क्या पश्चात्वर्ती कृत्य ने उस अपराध को करने के लिए गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित किया था।
    4-    घातक वार को उस प्रकोपन से उद्भूत रोष के प्रभाव से स्पष्टतः सम्बद्ध होना चाहिए न कि उस समय होना चाहिए, जब कि समय बीत जाने से रोष शान्त हो गया है या अन्या पूर्वाचिन्तन और विचारके लिए अवसर या गुंजाइश दिया । चांद सिंह बनाम राजस्थान राज्य निर्णय पत्रिका 1971 राजस्थान 261 ।




भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta