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अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

                                       लालू महतो बनाम राज्य (2008-8 एस.सी.सी. 395) अजयसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009-1 उम.नि.पं. 8-(2007)-12 एस.सी.सी. 341 और विक्रम जीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2006)-13 एस.सी.सी. 306):- वाले मामले में सविस्तार प्रतिपादित किया गया है और उन पर चर्चा की गई है। 

    उच्चतम न्यायालय ने अजयसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (उपरोक्त) वाले मामले में दिए गए विनिश्चय के पैरा-11, 12 और 13 में निम्नलिखित मताभिव्यक्ति की है:-

                                        इस धारा के अधीन परीक्षा किए जाने का उद्देश्य अभियुक्त को यह अवसर देना है, कि वह अपने विरूद्ध किए गए पक्ष कथन का स्पष्टीकरण दे सकें। अभियुक्त की निर्दाेषिता या दोषिता का निर्णय करने के लिये इस कथन पर विचार किया जा सकता है। यदि उन्मोचन का भार अभियुक्त पर हो, तब यह उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि ऐसे कथन के आधार पर भार का उन्मोचन होता है या नहीं। 


                                                      उपधारा (10) (ख) में वर्णित ‘‘साधारणतया‘‘ शब्द से मामले से संबंधित सामान्य प्रकृति को सीमित नहीं होता है। अपितु इसका यह अर्थ है, कि प्रश्न साधारणतया संपूर्ण मामले से संबंधित होना चाहिए और वह मामले के किसी भी विशिष्ट भाग या भागों तक सीमित भी होना चाहिए। प्रश्न इस प्रकार विरचित किया जाना चाहिए, जिससे कि अभियुक्त यह जान सके कि उसे क्या स्पष्ट करना है, ऐसी कौन सही परिस्थितियाॅ हैं, जो उसके विरूद्ध हैं ओर जिनकी बाबत् स्पष्टीकरण दिया जाना उसके लिये आवश्यक है। इस धारा का संपूर्ण उद्देश्य अभियुक्त को उन परिस्थितियों को स्पष्ट करने के लिये सही और समुचित अवसर प्रदान करने का है, जो उसके विरूद्ध प्रतीत होती है और यह कि प्रश्न सही होने चाहिए और वे इस क्रम से पूछे जाने चाहिए कि गुण-दोष के बारे में कोई अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें। अभियुक्त द्वारा ऐसी किसी बात को, जो उससे स्पष्ट करने के लिये कभी पूछी ही नहीं गई, स्पष्ट न कर पाने के आधार पर की गई दोषसिद्धि विधि की दृष्टि से दोषपूर्ण है। संहिता की धारा-313 को अधिनियमित करने का संपूर्ण उद्देश्य यह था कि अभियुक्त का ध्यान आरोप  और  साक्ष्य में उन विनिर्दिष्ट मुद्दों की ओर, जिनके आधार पर अभियोजन पक्ष द्वारा यह दावा किया जाता है, कि अभियुक्त के विरूद्ध मामला बनता है, आकर्षित किया जाना चाहिए, जिससे कि वह ऐसा स्पष्टीकरण दे सकें, जो वह देना चाहता है।



                                                     संहिता की धारा-313 के उपबंधों पर ईमानदारी ओर निष्पक्ष रूप से विचार करने की महत्ता पर बहुत ही अत्यधिक जोर नहीं दिया जा सकता। अभियुक्त के समक्ष बहुत सारे तथ्यों को एक साथ रखकर उससे, उनके बारे में पूछना कि उसे क्या कहना है ? इस धारा का ठीक प्रकार से अनुपालन नहीं होगा। उससे प्रत्येक तात्विक बात के संबंध में जो, उसके विरूद्ध प्रयोग की जानी आशयित है, पृथक रूप से प्रश्न किया जाना चाहिए। प्रश्न सही होने चाहिए कि उनके गुण-दोषों के बारे में अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें। अभियुक्त भले ही अशिक्षित न हो तो भी यदि उस पर हत्या का आरोप है, वह मानसिक रूप से विचलित हो सकता है। अतः निष्पक्षता की बाबत् यह अपेक्षा की जताी है, कि प्रत्येक तात्विक परिस्थिति को सहज रूप से और पृथक रूप से (अभियुक्त के समक्ष) रखा जाना चाहिए, जिससे कि कोई अशिक्षित व्यक्ति, जो विक्षुब्ध या भ्रमित हो, आसानी से उसके गुण-दोष के बारे में विवेचन कर सके और उसे समझ सके।

                                                     उच्चतम न्यायालय में पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह  (2005) 6 एस.सी.सी. 101:- वाले मामले में दिए गए विनिश्चिय के पैरा-10 में मताभिव्यक्ति की है, कि यदि साक्ष्य में ऐसी परिस्थितियाॅ विद्यमान थीं, जो अभियुक्त और उसके  (द्वारा दिये गये) स्पष्टीकरण के प्रतिकूल है और उसके द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण साक्ष्य का उचित रूप से मूल्यांकन किए जाने में न्यायालय की सहायता करेगा, तो न्यायालय को इस बात को अभियुक्त की जानकारी में लाना चाहिए, जिससे कि वह (अपने) साक्ष्य में उन प्रतिकूल परिस्थितियों के बाबत् कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सके। समेकित प्रश्न के बिन्दु पर उच्चतम न्यायालय ने आगे मताभिव्यक्ति की, कि सामान्यता, समेकित प्रश्नों, जो अनेक प्रश्नों को एक साथ सम्मिलित करते हैं, को अभियुक्त से पूछा नहीं जाएगा। आगे यह मताभिव्यक्ति की गई कि प्रश्न जो पूछे जाने हैं, ऐसे होने चाहिए जिनका अभियुक्त की स्थिति में कोई युक्तियुक्त व्यक्ति, युक्तिसंगत स्पष्टीकरण देने की स्थिति में हो।


                                         स्थिति चाहे कोई भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि सेशन न्यायाधीश ने अपीलार्थी के समक्ष कोई फंसाने वाले प्रश्न और प्रतिकूल साक्ष्य नहीं रखे थे। पुनः मामले के तथ्यों पर विचार करते हैं, यह सुव्यक्त हे कि बरामदगिया जो फंसाने वाली थी और अपीलार्थी के प्रतिकूल थी, की वास्तविकता के विश्लेषण मं अंततः स्वीकार किया गया था, किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न जो हमारे समक्ष विचारणार्थ उत्पन्न हुआ है, यह है, कि सेशन न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त का परीक्षण दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन किया जाना चाहिए था। ऐसा प्रतीत होता है, कि सेशन न्यायाधीश ने सभी अभियुक्तों की बरामदगी के संबंध में मात्र एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न संख्या 4 सभी बरामदगियों के संबंध में एक समेकित प्रश्न जटिलता वाला प्रश्न है जिसको उपरोक्त विनिश्चयों के प्राश में अनेक तथ्यों को एक साथ समेकित करके नहीं पूछा जाना चाहिए था।

 इसमें कोई संदेह नहीं कि काउंसेल ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-294 के अधीन वास्तविकता को स्वीकार किया है, किन्तु विद्वान सेशन न्यायाधीश ने अभियुक्त व्यक्तियों से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन कोई प्रश्न नहीं पूछा है, जिसको पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह वाले (उपर्युक्त) मामले में दिए गए उच्ततम न्यायालय के विनिश्चय  को दृष्टि में रखते हुए अभियुक्त की जानकारी में लाया जाना चाहिए, जिससे कि वह साक्ष्य में इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सकें।
      
   

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umesh gupta