अभियोजन चलाने की अनुमति के बारे में

  अभियोजन चलाने की अनुमति के बारे में

        अभियोजन चलाने की अनुमति कई बार जिला मजिस्ट्रेट के स्थान पर अतिरिक्त जिला मजिस्ट्रेट द्वारा दी होती है और तब यहप्रश्न उत्पन्न होता है कि ऐसी अनुमति वैधानिक नहीं हे ।

 इस संबंध में आर्मस रूल्स 1962 का नियम 2 एफ 2 अवलोकनीय है जिसके अनुसार जिला मजिस्ट्रेट में उस जिले का अतिरिक्त जिला मजिस्टे्रट या अन्य अधिकारी जिसे राज्य सरकार ने विशेष रूप से सशक्त किया हो शामिल होते है ।

        न्याय दृष्टांत विजय बहादुर उर्फ बहादुर विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. 2002 भाग-4 एम.पी.एच.टी. 167, भी इसी संबंध में अवलोकनीय है जिसमें उक्त नियम की व्याख्या की गइ्र है और यह प्रतिपादित किया गया है कि अतिरिक्त जिला मजिस्टे्रट द्वारा दी गई मंजूरी उक्त नियम के तहत वैध मंजूरी है प्रतिरक्षा के तर्को को अमान्य किया गया । अतः जब कभी विचारण के दौरान उक्त स्थिति उत्पन्न हो तभी यह ध्यान रखना चाहिए की जिला मजिस्टे्रट में अतिरिक्त जिलामजिस्टे्रट और अन्य अधिकारी यदि राज्य सरकार द्वारा सशक्त किया गया हो तो वह भी शामिल होता है ।


        कई बार  ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि संबंधित जिला मजिस्टे्रट को अभियोजन चलाने की अनुमति प्रमाणित करने के लिए साक्ष्य में उपस्थित नहीं किया जाता है इस संबध में न्याय दृष्टांत माननीय उच्च न्यायालय का स्टेट आफ एम0पी0 विरूद्ध जीया लाल आई0एल0आर0 2009 एम0पी0 2487  अवलोकनीय है । जिसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन चलाने की अनुमति का आदेश स्पष्ट रूप से जिला मजिस्टे्रट ने उसके पदीय कर्तव्य के निर्वहन के दौरान जारी किया इस लिए उपधारणा की जायेगी की यह कार्य सदभाविक तरीके से किया गया है

        जिला मजिस्टे्रट को गवाह के रूप में परिक्षित कराया जाना अभियोजन के लिए आवश्यक नहीं है । यह न्याय दृष्टांत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 पर आधारित है लेकिन अभियोजन चलाने की अनुमति के सबंध में इससे मार्गदर्शन लिया जा सकता है और जो वैधानिक स्थिति उक्त अधिनियम के बारे में प्रतिपादित की गई है वहीं आयुध अधिनियम के बारे में भी समान रूप से लागू होती है ।


        न्याय दृष्टांत स्टेट विरूद्ध नरसिंम्हाचारी, ए0आई0आर0 2006 एस0सी0 628 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन चलाने की अनुमति एक लोक दस्तावेज होता है और इसे धारा 76 से 78भारतीय साक्ष्य अधिनियम में बतलाये तरीके से प्रमाणित किया जा सकता है । 

        न्याय दृष्टांत शिवराज सिंह यादव विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 2010 भाग-4 एम0पी0जे0आर0 49 डी0बी0 में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय ने अभियोजन चलाने के आदेश को एक लोक दस्तावेज माना है और उसका प्रस्तुत किया जाना ही उसका प्रमाणित होना माना जायेगा अनुमति देने वाले अधिकारी का परीक्षण करवाना आवश्यक नहीं होगा यह प्रतिपादित किया है ।

        न्याय दृष्टांत स्टेट आफ एम0पी0 विरूद्ध हरिशंकर भगवान प्रसाद त्रिपाठी, 2010 भाग-8 एस0सी0सी0 655 में यह प्रतिपादित किया गया है कि अभियोजन चलाने की अनुमति देते समय संबंधित अधिकारी के लिए यह आवश्कय नहीं है कि वह आदेश में यह इंडिकेट करे की उसने व्यक्तिगत रूप से संबंधित पत्रावली की छानबीन की है और यह संतोष किया है कि अनुमति देनी चाहिए ।

        न्याय दृष्टांत सी0एस0 कृष्णामूर्ति विरूद्ध स्टेट आफ कर्नाटका 2005 भाग-4 एस0सी0 सी0 81 में यह प्रतिपादित किया गया है कि तथ्य जो अपराध गठित करते है वे अनुमति आदेश में रेफर किये गये अभियोजन के लिए यह प्रमाणित करना आवश्यक नहीं है कि सारी सामग्री अनुमति देने वाले अधिकारी के सामने रखी गई थी । 

        यद्यपि उक्त सभी न्याय दृष्टांत भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1988 पर आधारित है लेकिन अनुमति से संबंधित होने से इनसे मार्गदर्शन लिया जा सकता है ।

        न्याय दृष्टांत गुरूदेव सिंह उर्फ गोगा विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 आई0एल0आर0 2011 एम0पी0 2053  में माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने यह प्रतिपादित किया है कि अभियोजन चलाने की मंजूरी लेते समय आयुधो को प्रस्तुत करना आवश्यक नहीं होता है । और प्राधिकारी द्वारा उनका परीक्षण भी आवश्यक नहीं होता है ।

 इस न्याय दृष्टांत में न्याय दृष्टांत राजू दुबे विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 1998 भाग-1 जे0एल0जे0 236  एंव श्रीमती जसवंत कौर विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 1999 सी0आर0एल0आर0 एम0पी0 80 प्रभु दयाल विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 2002 सी0आर0एल0आर एम0पी0 192 को इस न्याय दृष्टांत में ओवर रूल्ड कर दिया गया है

 अतः ये न्याय दृष्टांत यदि इस संबंधमें प्रस्तुत होते है कि जप्त शुदा हथियार अभियेाजन चलाने की मंजूरी लेते समय प्रस्तुत नहीं किये गये है तो यह प्रतिरक्षा मान्य नहीं की जायेगी क्योंकि जप्तशुदा हथियार का अभियोजन चलाने की मंजूरी लेते समय प्रस्तुत किया जाना आवश्यक नहीं है ।



           

धारा-27 साक्ष्य अधिनियम

              धारा-27 साक्ष्य अधिनियम 

            विधि के सुस्थापित सिद्धांतों के अनुसार एक मात्र विवेचक की साक्ष्य के आधार पर धारा-27 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत दिया गया मेमोरेण्डम कथन और उसकी जप्ती को प्रमाणित माना जा सकता है ।

  इस संबंध मे मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  राज्य राष्ट्ीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली विरूद्ध नवजोग सिद्धू 2006 भाग-1 उच्चतम न्यायालय पत्रिका 169  में धारा-27 में विस्तृत व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया है कि केवल पुलिस अधिकारी की साक्ष्य इसके लिए पर्याप्त है, किन्तु निम्नलिखित शर्ताे की पूर्ति होने परः-
    1-    यह कि वह तथ्य जिसके बारे में साक्ष्य दिया गया है विवावधक से सुसंगत होना चाहिए ।यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि उपबंध का सुसंगतता के प्रश्न से सीधा संबंध नहीं है । प्रकट किए गए तथ्य की सुसंगति ऐसे अन्य साक्ष्य की सुसंगति निर्देशनों के अनुसार ऐसे साबित की जानी चाहिए जो अन्य साक्ष्य की सुसंगति से संबद्ध हों और जो प्रकट किए गए तथ्य को ग्राहय बनाने के लिए इसे अपराध से संबद्ध करें ।

    2-    तथ्य प्रकट किए जाने चाहिए ।

    3-    प्रकटीकरण, अभियुक्त से प्राप्त सूचना के परिणाम स्वरूप किया जाना    चाहिए न कि अभियुक्त के अपने कृत्य द्वारा ।

    4-    सूचना देने वाला व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त होना चाहिए।

        5-    वह पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में होना चाहिए ।

    6-    अभिरक्षाधीन अभियुक्त से प्राप्त सूचना के परिणाम स्वरूप तथ्य के     प्रकटीकरण की बावत् अभिसाक्ष्य दिया जाना चाहिए ।

    7-    इस पर सूचना का केवल वह भाग जो प्रकट किए गए तथ्य से      स्पष्ट रूप से या पूर्ण रूप से सबंद्ध है, साबित किया जा सकता है           शेष भाग ग्राहय है ।    
                     . पुलिस को नये तथ्य की जानकारी होना ही धारा 27 साक्ष्य अधिनियम में ग्राहॅय है, यदि वह तथ्य पुलिस की जानकारी में पहले से था तो वह उक्त अधिनियम की परिधि में साक्ष्य में ग्राहॅय नहीं है:-
                             यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत ऐसी साक्ष्य ही ग्राह्य है, जिससे किसी तथ्य की जानकारी मिली हो, जहा कोई तथ्य पूर्व से ही पुलिस की जानकारी में है, वहा उस तथ्य का पुनः पता चलना धारा 27 साक्ष्य अधिनियम की परिधि में साक्ष्य के सुसंगत एवं ग्राह्य नहीं बनायेगा,

 संदर्भ:- अहीर राजा विरूद्ध राज्य ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 अतः कथित संसूचना आधारित बरामदगी अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता है।


पंच गवाहो द्वारा जप्ती का समर्थन न करने के बारे में

    पंच गवाहो द्वारा जप्ती का समर्थन न करने के बारे में
        कई बार ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है कि पंच साक्षीगण जप्ती का समर्थन नहीं करते है और अभिलेख पर एक मात्र जप्तीकर्ता की साक्ष्य रहती है 

। इस संबंध में वैधाकि स्थिति यह है कि यदि एकमात्र जप्तीकर्ता की साक्ष्य विश्वास किये जाने योग्य हो तब पंच साक्षीगण की पुष्टि के अभाव में भी उस पर विश्वास किया जा सकता है ।

 इस सबंध में न्यायदृष्टांत  नाथू सिंह विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 ए0आई0आर0 1973 एस0सी0 2783 अवलोकनीय है जो आर्मस एक्ट पर आधारित मामला है और इसमें यह प्रतिपादित किया गया है कि पंच गवाहो के समर्थन न करने के बाद भी यदि पुलिस साक्षीगण की साक्ष्य विश्वास योग्य हो तो उसे विचार में लिया जाना चाहिए ।

        न्याय दृष्टांत काले बाबू विरूद्ध स्टेट आफ एम0पी0 2008 भाग-4 एम0पी0एच0टी0 397 में भी यह प्रतिपादित किया गया है कि अन्य साक्षीगण कहानी का समर्थन नहीं करते मात्र इस कारण पुलिस अधिकारी की गवाह अविश्वसनीय नहीं हो जाती है ।

        न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध स्टेट देहली एडमीनिशटे्रशन 2003  भाग-5 एस0 सी0सी0 297 में  पुलिस अधिकारी की अभिसासक्ष्य का मूल्यांकन भी उसी कसौटी पर किया जाना चाहिये, जिस कसौटी पर किसी दूसरे साक्षी की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोंत से सम्पुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जायेगा।
            

अंतरिम भरण पोषण का आदेश अंतर्वर्ती नहीं


       अंतरिम भरण पोषण का आदेश  अंतर्वर्ती  नहीं  



  2010भाग-3 म0प्र0लाॅ0ज0 151 म0प्र0
 आकांक्षा बनाम वीरेन्द्र,

  2000 भाग-1 म0प्र0 लाॅ0ज0 86ः

2000 भाग-1 एम0पी0जे0आर0 148
 मधु उर्फ संजीव कुमार बनाम श्रीमती ललिता बाई 

 में अभिनिर्धारित किया था कि अंतरिम भरण पोषण का आदेश सारवान तौर पर दोनो पक्षों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है ।

 यह स्वीकृत स्थिति है कि यदि पति इसका पालन नहीं करता है तो उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकता है अथवा उसको जेल भेजा जा सकता है । अतः अंतरिम भरण पोषण के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलनशील है । 

        ऐसा कोई आदेश जो कि व्यक्ति के अधिकार को सारवान तौर पर प्रभावित करता है अथवा या सारवान तौर पर प्रतिकूलता कारित करता है तो इसे अंतर्वर्ती आदेश होना नहीं कहा जा सकता है ।

 अंतरिम भरण पोषण का आदेश जो कि पक्षकारों के अधिकारों को सारवान तौर पर प्रभावित करता है उसे अंतर्वर्ती होना नहीं माना गया । 

  2010भाग-3 म0प्र0लाॅ0ज0 151 म0प्र0 आकांक्षा बनाम वीरेन्द्र, एं 2000 भाग-1 म0प्र0 लाॅ0ज0 86ः2000 भाग-1 एम0पी0जे0आर0 148 मधु उर्फ संजीव कुमार बनाम श्रीमती ललिता बाई  में अभिनिर्धारित किया था कि अंतरिम भरण पोषण का आदेश सारवान तौर पर दोनो पक्षों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है । यह स्वीकृत स्थिति है कि यदि पति इसका पालन नहीं करता है तो उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकता है अथवा उसको जेल भेजा जा सकता है । अतः अंतरिम भरण पोषण के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलनशील है ।
 

धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना

 धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
   यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 

  ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

    धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 

 2012 भाग-3 एल.एस.सी.टी. सुप्रीम कोर्ट 57
 स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2003) 1 एस.सी.सी. 240
  में निर्धारित किया है कि

 ‘‘ यह आवश्यक न्याय का नियम है कि जब कभी विरोधी ने उसके प्रकरण में प्रति-परीक्षण में उसको स्वयं को उपस्थित रखने से इन्कार किया , यह अनुसरण करता है कि उस विषय पर रखा साक्ष्य स्वीकार किया जाना चाहिए । ’’

        हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य , (2008) 15 एस.सी.सी. 652 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है कि धारा-311  का उद्देश्य किसी पक्षकार की अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लेने या साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए बात के लाने की गलती के कारण न्याय की असफलता रोकना है। इस न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया । 

        ‘‘ यह समर्थ करते हुए एक पूरक उपबंध है एवं कतिपय परिस्थितिया  न्यायालय पर अधिरोपित करते हुए , तात्विक साक्षी की जाच करने का कर्तव्य , जो इसके पूर्व अन्यथा नहीं लाया जाएगा । यह वृहद संभव निबन्धनों में रखा गया है एवं किसी परिसीमा हेतु नहीं कहता , या तो प्रक्रम के संबंध में , जो न्यायालय की शक्तियाॅ अनुप्रयोग किया जाना चाहिए या रीति के संबंध में , जिसमें यह अनुप्रयोग किया जाना चाहिए ।

 यह केवल परमाधिकार नहीं है , बल्कि न्यायालय की ऐसे साक्षियों की जाच करने का सादा कर्तव्य है यथा राज्य एवं विषय के मध्य न्याय करने के लिए स्पष्टतः आवश्यक विचारण किया जाता है । न्यायालय पर समस्त विधिपूर्ण अर्थों से सत्य पर पहॅुचने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है एवं ऐसे अर्थों में से एक इसके स्वयं के साक्षियों की जाच है , जब कतिपय स्पष्ट कारण हेतु कोई पक्षकार साक्षियों को बुलाने के लिए तैयार नहीं करता , जो महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य बोलने की स्थिति में होते हैं । 

        ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

        धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है ।
        धारा-311 में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि ‘‘ इस संहिता के तहत् जाॅच या परीक्षण या किसी कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ’’ है। यह परन्तु मस्तिष्क में उठता है कि जबकि धारा न्यायालय साक्षियों को समनित करने के लिए अत्यंत वृहद शक्ति प्रदत्त  करती है , प्रदत्त विवेकाधिकार न्यायिक रूप से अनुप्रयोग होना चाहिए , क्योंकि शक्ति की वृहदता न्यायिक मस्तिष्क की प्रयोज्यता की आवश्यकता से वृहद है । ’’

        हाॅफमेन एन्ड्र्ेस बनाम इंस्पेक्टर आॅफ कस्टम्स , अमृतसर , (2000)10 एस.सी.सी. 430 में अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘ ऐसी परिस्थितियों में , यदि नये काउंसेल तात्विक साक्षियों को आगे जाॅच करना सोचते हैं , न्यायालय नरम एवं उदार रूप न्याय के हित में अपना सकता था , विशिष्ट रूप से जब न्यायालय को यथा संहिता की धारा-311 में निहित मामले में शक्तियाॅ हैं । अखिरकार परीक्षण मूल रूप से कैदियों के लिए है और न्यायालयों को उनको निष्पक्ष संभव रीति में अवसर प्रदान करना चाहिए । ’’


        मोहन लाल शामजी सोनी बनाम भारत का संघ एवं अन्य , 1991 सप्ली. (1) 271 में  उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्प्रेक्षित कियाः-

        ‘‘ विधि का सिद्धांत , जो इस न्यायालय द्वारा उपर्युक्त विनिश्चयों में अभिव्यक्त अभिमतों से निकलता है , है कि दाण्डिक न्यायालय के पास किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समनित करने या पुनः बुलाने एवं किसी ऐसे व्यक्ति को जाॅच करने की प्रचुर शक्ति है , यहाॅ तक कि दोनों तरफ केक साक्ष्य समाप्त हो गये हैं एवं न्यायालय की अधिकारिता से निकाली जानी चाहिए एवं निष्पक्ष एवं अच्छा अर्थ केवल सुरक्षित मार्गदर्शनों में प्रतीत होता है एवं यह कि न्याय की अपेक्षाएॅ किसी व्यक्ति की जाॅच करती है , जो प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा । ’’


        सत्य की खोज करना किसी भी परीक्षण या जाॅच का आवश्यक प्रयोजन है ,माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशगण की न्यायपीठ ने मारिया मार्गरीडा स्केरिया फर्नांडिस बनाम एरास्मो जेक डे स्केरिया द्वारा विधिक प्रतिनिधिगण , 2012  (3) स्केल 550 में सम्प्रेषित किया । उस पवित्र कर्तव्य का समय-समय पर स्मरण निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:-

        ‘‘ जो लोग अपेक्षित करते हैं कि न्यायालय को यह पता करने की इसकी बाध्यता से निर्मुक्ति चाहिए ,जहाॅ वस्तुतः सत्य ठहरता है । न्यायिक प्रणाली के प्रारम्भ में यह अपेक्षित किया गया है कि खोज , दोष-प्रक्षालन एवं सत्य की स्थापना न्याय के न्यायालयों के रेखांकित अस्तित्व के मुख्य प्रयोजन हैं । ’’ 

        हमें इस तथ्य का भान हैं कि साक्षियों का पुनः आहुत करना , उनके  घटना के बारे में मुख्य-परीक्षण में जाॅचे  जाने के लगभग चार वर्ष पश्चात् निदेशत करते हुए , जो लगभग सात वर्ष पुरानी है । विलम्ब मानवीय स्मृति पर प्रबल भार रखता है , युक्तियुक्त रूप से समयावधि के भीतर प्रकरणों को विनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रणाली की शुद्धता के बारे में शिष्टता से अलग होती है । इस सीमा तक श्री रावल द्वारा अभिव्यक्त आशंका कि अभियोजन विलम्बित पुनः बुलाने के कारण प्रभाव वहन कर सकेगा ।

 यह कहते हुए कि , हम इस अभिमत के हैं कि कारणों की समानता पर एवं साक्षियों को प्रति-परीक्षण हेतु अवसर के इन्कार के परिणामों को देखते हुए , हम अपीलार्थी के पक्ष में उसके पक्ष में सम्भावित प्रभाव के विरूद्ध अभियोजन संरक्षित करने के मुकाबले अवसर देते हुए निर्दिष्ट करेंगे ।

 परीक्षण की निष्पक्षता इस आधार पर है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अलंघनीय है एवं कोई मूल्य उस आधार को संरक्षित करने हेतु अत्यंत प्रबल नहीं है । अभियोजन को सम्भावित प्रभाव यहाॅ तक कि इस मूल्य पर भी नहीं है , एक मात्र अनुमति , जो अभियुक्त को उसको स्वयं की प्रतिरक्षा हेतु निष्पक्ष अवसर का इंकार न्यायसंगत करेगी ।
      

      
    


 

     

ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना

     ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना

  धारा- 363,366,376, भा.द.वि. के अपराध के प्रमाणन के लिए प्रार्थीया की आयु महत्वपूर्ण स्थान रखती है । यदि प्रार्थीया की उम्र 18 वर्ष से कम है तो ऐसे अपराधो मे उसकी सम्मति कोई महत्व नहीं रखती है और यह साबित हो जाता है कि  प्रार्थीया 18 वर्ष से कम उम्र की है तो उसके विधिपूर्ण संरक्षण होने की दशा में सरंक्षण की सम्मति के बिना ले जाने या फुसलाकर ले जाने पर धारा-363 का अपराध प्रमाणित माना जाता है ।


        विधिपूर्ण संरक्षण के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति आते है जिस पर ऐसे अवयस्क या व्यक्ति की देखरेख या अभिरक्षा का भार न्यस्त किया जाता है । धारा-361 भा.द.सं. में विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण परिभाषित किया गया है और धारा-363 भा.द.वि. में इसे दण्डित किया गया है ।


        जहां तक आयु प्रमाणन की बात है । इस संबंध में सुस्थापित सिद्धंात है कि उसे माता पिता के कथन स्कूल का प्रवेश रजिस्टर तथा नगर पालिका का जन्म रजिस्टर के द्वारा उसे प्रमाणित किया जाता है । इस प्रकार की साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से अधिक विश्वसनीय होती है क्यों कि चिकित्सीय साक्ष्य जलवायु के परिवर्तन, खानपान, वंश, परम्परा तथा अन्य बातो पर निर्भर करती है।

        इसलिए आयु निर्धारण का कोई मानक निर्धारित नहीं किया जा सकता। परन्तु ऐसी परिस्थितियों में आयु का निश्चयात्मक साक्ष्य उसका आयु प्रमाण पत्र होता है। प्रस्तुत प्रकरण में पेश मार्कशीट को प्रमाणित नहीं किया गया है । इसलिए आयु के सबंध में मौखिक साक्ष्य और अस्थि परीक्षण रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित है ।


        चिकित्सीय न्यायशास्त्र में अस्थि विकास परीक्षण का आयु निर्धारण के लिए एक्स-रे परीक्षण किया जाता है और आयु निर्धारण में अस्थि विकास परीक्षण को सर्वाधिक मान्यता प्रदान की गई है ।


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        विधिपूर्ण संरक्षकता में से ऐसे सरक्षण की सम्मति के बिना ले जाना  या बहलाकर ले जाने के कारण को दंडनीय माना गया है औरले जाना शब्द या बहलाकर ले जाने का कार्य किसी लालच प्रलोभन या बल के द्वारा किया जा सकता है किन्तु ले जाने के लिए किसी बल की अपेक्षा नहीं की गई है ।

शिवनाथ गयार विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन 1998(1) करंट क्रिमिनल जजमेंट एम.पी. 196,
प्रदीप मंगल विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन 1996 करंट क्रिमिनल रिपोर्टर एम.पी. 158
मध्य प्रदेश राज्य विरूद्ध नरेन्द्र कुमार 2000(1)करंट क्रिमिनल जजमेंट 263 एम.पी.

        ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना को यदि हम देखे तो जब तक कि आरोपी की ओर से कोई ऐसा सक्रिय कार्य ना किया जाए जिससे कोई लडकी उसके साथ जाने का विचार बनाए या आरोपी उसे ना बहकाये तो ऐसी दशा में आरोपी को लडकी ले जाने की परिकल्पना की जा सकती है


            आरोपी की तरफ से वास्तव में ऐसा लालच दिया जाए जिससे उसका मस्तिष्क परिवर्तित हो जाए तो उसे बहकाकर ले जाना कहते है ।

     किन्तु यदि लडकी की इच्छाओ के विरूद्ध आरोपी कोई कार्य करता है तो वह चले जाना कहलाएगा और उसे दोषी ठहराया नही जा सकता ।

        इस प्रकार ले जाने मे अल्प वयस्क की इच्छा कोई महत्व नहीं रखती है ।

    जब कि बहकाकर ले जाने या फुसलाने में अवयस्क की इच्छा अपना प्रभाव रखती है और आरोपी के कार्य के साथ ही साथ भागने वाली की इच्छा का भी उसमें समावेश होता है । जो लालच, धमकी, भय, छल-कपट आदि से प्राप्त किया जाता है ।

         जब कि ले जाने में अवयस्क की सहमति बिलकुल नहीं होती ।

.         इस प्रकार ले जाने के शब्द के अंतर्गत व्यक्ति की इच्छा की कमी और इच्छा की अनुपस्थित में शामिल रहते हैं और बहकाकर ले जाने में आरोपी की मानसिक अवस्था को आरोपी द्वारा प्रेरणा, प्रलोभन, लोभ-लालच उत्पे्रेरित किया जाता है । जिससे उसके साथ जाने की अवयस्क के मन मे आशा और इच्छा जाग्रत होती है ।

        धारा-361 भा.द.वि. का उद्देश्य अवयस्क को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करने की धारा-361 में दण्डित किये जाने के पूर्व बालिका की समक्ष उसकी बौद्धिक क्षमता तथा मामले की परिस्थिति पर विचार किया जाना चाहिए।

    यदि आरोपी के अनुनेय विनय पर बालिका आरोपी के साथ जाने के लिए स्वयं तैयार हो जाती है तो तब भी व्यपहरण का अपराध होता है । इसमें लडकी का चाल चलन और चरित्र हीनता का बचाव नहीं किया जा सकता है 

    और यदि आरोपी सक्रिय भूमिका अदा करता है तो व्यपहरण का अपराध होता है ।      
      
    

सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-122 में दान

 सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-122 में दान


सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-122 में दान को परिभाषित किया गया है ।

 दान के निम्नलिखित आवश्यक तत्व बताये गये हैंः-

    1-    दाता एंव अदाता दोनो को जीवित होना चाहिए।

    2-    दान की सम्पत्ति निश्चित और दान के समय विद्यमान होना चाहिए।

    3-    दान स्वैच्छिक और बिना किसी प्रतिफल के होना आवश्यक है ।

    4-    दाता द्वारा दान सम्पत्ति का अंतरण किया जाना आवश्यक है ।

    5-    अदाता द्वारा दान सम्पत्ति का प्रतिग्रहण करना आवश्यक है  

            और  यह प्रतिग्रहण   दाता के जीवनकाल में ही किया जाना चाहिए ।

    6-    यदि दान सम्पत्ति स्थवर होतो दान विलेख दाता अथवा उसकी तरफ से किसी अधिकृत व्यक्ति द्वारा         हस्ताक्षरित          और कम से कम दो साक्षियों द्वारा अनुप्रमाणित होना आवश्यक है 
               दान विलेख का   रजिस्ट्ी करण होना भी आवश्यक है ।

                     

धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना

   धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
  


        हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य , (2008) 15 एस.सी.सी. 652 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है कि धारा-311  का उद्देश्य किसी पक्षकार की अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लेने या साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए बात के लाने की गलती के कारण न्याय की असफलता रोकना है। इस न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया । 

        ‘‘ यह समर्थ करते हुए एक पूरक उपबंध है एवं कतिपय परिस्थितियाॅं न्यायालय पर अधिरोपित करते हुए , तात्विक साक्षी की जाॅच करने का कर्तव्य , जो इसके पूर्व अन्यथा नहीं लाया जाएगा । यह वृहद संभव निबन्धनों में रखा गया है एवं किसी परिसीमा हेतु नहीं कहता , या तो प्रक्रम के संबंध में , जो न्यायालय की शक्तियाॅ अनुप्रयोग किया जाना चाहिए या रीति के संबंध में , जिसमें यह अनुप्रयोग किया जाना चाहिए । यह केवल परमाधिकार नहीं है , बल्कि न्यायालय की ऐसे साक्षियों की जाॅच करने का सादा कर्तव्य है यथा राज्य एवं विषय के मध्य न्याय करने के लिए स्पष्टतः आवश्यक विचारण किया जाता है । न्यायालय पर समस्त विधिपूर्ण अर्थों से सत्य पर पहॅुचने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है एवं ऐसे अर्थों में से एक इसके स्वयं के साक्षियों की जाॅच है , जब कतिपय स्पष्ट कारण हेतु कोई पक्षकार साक्षियों को बुलाने के लिए तैयार नहीं करता , जो महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य बोलने की स्थिति में होते हैं । 

        ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

        धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 

        धारा-311 में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि ‘‘ इस संहिता के तहत् जाॅच या परीक्षण या किसी कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ’’ है। यह परन्तु मस्तिष्क में उठता है कि जबकि धारा न्यायालय साक्षियों को समनित करने के लिए अत्यंत वृहद शक्ति प्रदत्त  करती है , प्रदत्त विवेकाधिकार न्यायिक रूप से अनुप्रयोग होना चाहिए , क्योंकि शक्ति की वृहदता न्यायिक मस्तिष्क की प्रयोज्यता की आवश्यकता से वृहद है । ’’

        हाॅफमेन एन्ड्र्ेस बनाम इंस्पेक्टर आॅफ कस्टम्स , अमृतसर , (2000)10 एस.सी.सी. 430 में अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘ ऐसी परिस्थितियों में , यदि नये काउंसेल तात्विक साक्षियों को आगे जाॅच करना सोचते हैं , न्यायालय नरम एवं उदार रूप न्याय के हित में अपना सकता था , विशिष्ट रूप से जब न्यायालय को यथा संहिता की धारा-311 में निहित मामले में शक्तियाॅ हैं । अखिरकार परीक्षण मूल रूप से कैदियों के लिए है और न्यायालयों को उनको निष्पक्ष संभव रीति में अवसर प्रदान करना चाहिए । ’’

        मोहन लाल शामजी सोनी बनाम भारत का संघ एवं अन्य , 1991 सप्ली. (1) 271 में  उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्प्रेक्षित कियाः-

        ‘‘ विधि का सिद्धांत , जो इस न्यायालय द्वारा उपर्युक्त विनिश्चयों में अभिव्यक्त अभिमतों से निकलता है , है कि दाण्डिक न्यायालय के पास किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समनित करने या पुनः बुलाने एवं किसी ऐसे व्यक्ति को जाॅच करने की प्रचुर शक्ति है , यहाॅ तक कि दोनों तरफ केक साक्ष्य समाप्त हो गये हैं एवं न्यायालय की अधिकारिता से निकाली जानी चाहिए एवं निष्पक्ष एवं अच्छा अर्थ केवल सुरक्षित मार्गदर्शनों में प्रतीत होता है एवं यह कि न्याय की अपेक्षाएॅ किसी व्यक्ति की जाॅच करती है , जो प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा । ’’

        सत्य की खोज करना किसी भी परीक्षण या जाॅच का आवश्यक प्रयोजन है ,माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशगण की न्यायपीठ ने मारिया मार्गरीडा स्केरिया फर्नांडिस बनाम एरास्मो जेक डे स्केरिया द्वारा विधिक प्रतिनिधिगण , 2012  (3) स्केल 550 में सम्प्रेषित किया । उस पवित्र कर्तव्य का समय-समय पर स्मरण निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:-

        ‘‘ जो लोग अपेक्षित करते हैं कि न्यायालय को यह पता करने की इसकी बाध्यता से निर्मुक्ति चाहिए ,जहाॅ वस्तुतः सत्य ठहरता है । न्यायिक प्रणाली के प्रारम्भ में यह अपेक्षित किया गया है कि खोज , दोष-प्रक्षालन एवं सत्य की स्थापना न्याय के न्यायालयों के रेखांकित अस्तित्व के मुख्य प्रयोजन हैं । ’’ 

        हमें इस तथ्य का भान हैं कि साक्षियों का पुनः आहुत करना , उनके  घटना के बारे में मुख्य-परीक्षण में जाॅचे  जाने के लगभग चार वर्ष पश्चात् निदेशत करते हुए , जो लगभग सात वर्ष पुरानी है । विलम्ब मानवीय स्मृति पर प्रबल भार रखता है , युक्तियुक्त रूप से समयावधि के भीतर प्रकरणों को विनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रणाली की शुद्धता के बारे में शिष्टता से अलग होती है । इस सीमा तक श्री रावल द्वारा अभिव्यक्त आशंका कि अभियोजन विलम्बित पुनः बुलाने के कारण प्रभाव वहन कर सकेगा । यह कहते हुए कि , हम इस अभिमत के हैं कि कारणों की समानता पर एवं साक्षियों को प्रति-परीक्षण हेतु अवसर के इन्कार के परिणामों को देखते हुए , हम अपीलार्थी के पक्ष में उसके पक्ष में सम्भावित प्रभाव के विरूद्ध अभियोजन संरक्षित करने के मुकाबले अवसर देते हुए निर्दिष्ट करेंगे । परीक्षण की निष्पक्षता इस आधार पर है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अलंघनीय है एवं कोई मूल्य उस आधार को संरक्षित करने हेतु अत्यंत प्रबल नहीं है । अभियोजन को सम्भावित प्रभाव यहाॅ तक कि इस मूल्य पर भी नहीं है , एक मात्र अनुमति , जो अभियुक्त को उसको स्वयं की प्रतिरक्षा हेतु निष्पक्ष अवसर का इंकार न्यायसंगत करेगी ।
      

       2012 भाग-3 एल.एस.सी.टी. सुप्रीम कोर्ट 57  में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2003) 1 एस.सी.सी. 240 में निर्धारित किया है कि ‘‘ यह आवश्यक न्याय का नियम है कि जब कभी विरोधी ने उसके प्रकरण में प्रति-परीक्षण में उसको स्वयं को उपस्थित रखने से इन्कार किया , यह अनुसरण करता है कि उस विषय पर रखा साक्ष्य स्वीकार किया जाना चाहिए । ’’
    


 

     

साक्षियों की विलम्ब से की गई परीक्षा

                    साक्षियों की विलम्ब से की गई परीक्षा


  इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बंटी बनाम मध्यप्रदेश राज्य ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 261 2004 एस.सी.सी. 41 वाले मामले में  अभिनिर्धारित किया था जहां तक साक्षियों की विलम्ब से की गई परीक्षा का संबंध है । इस न्यायालय ने अनेक विनिश्चियों में यह अभिनिर्धारित किया है कि जब तक कि अन्वेषक अधिकारी से स्पष्ट रूप से यह न पूछ लिया जाए कि साक्षियों की परीक्षा करने में विलम्ब क्यों हुआ है, प्रतिरक्षा पक्ष इस बात से कोई फायदा नहीं उठा सकता ।

 इसे हर जगह लागू होने वाले नियम के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि यदि किसी विशिष्ट साक्षी की परीक्षा में कोई विलम्ब हुआ है तब अभियोजन पक्ष कथन संदेहास्पद बन जाएगा क्यों कि यह बात बहुत से संघटको पर निर्भर करती है ।

 यदि परीक्षा में हुए विलम्ब की बावत् दिया गया स्पष्टीकरण तर्क संगत और स्वीकार्य है और न्यायालय भी इसे तर्क सम्मत स्वीकार करता है तब निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं है ।   

धारा-313 के अधीन की गई परीक्षा

               धारा-313 के अधीन की गई परीक्षा

                                   इस संबंध में सुस्थापित सिद्धांत है कि द.प्र.सं. की धारा-313 के अधीन की गई परीक्षा मात्र औपचारिकता नहीं है इसका प्रयोजन अभियुक्त के अभियोगो को सिद्ध करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा अभिलेख पर प्रस्तुत तथ्य समग्री को उसकी जानकारी देना होता है। अभियुक्त को उसके विरूद्ध अपराध में फंसाने वाली जो परिस्थितियां है उन्हें स्पष्ट करने का अवसर प्रदान किया जाता है और अभियोजन पक्ष द्वारा अभिलेख पर प्रस्तुत किये गये साक्ष्य की पृृष्ठभूमि में उसमें अपनी बात कही जाती है ।    अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

    लालू महतो बनाम राज्य (2008-8 एस.सी.सी. 395) अजयसिंह बनाम महाराष्ट््र राज्य (2009-1 उम.नि.पं. 8-(2007)-12 एस.सी.सी. 341 और विक्रम जीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2006)-13 एस.सी.सी. 306):- वाले मामले में सविस्तार प्रतिपादित किया गया है और उन पर चर्चा की गई है। 

 
    उच्चतम न्यायालय ने अजयसिंह बनाम महाराष्ट््र राज्य (उपरोक्त) वाले मामले में दिए गए विनिश्चय के पैरा-11, 12 और 13 में निम्नलिखित मताभिव्यक्ति की है:-


                                         इस धारा के अधीन परीक्षा किए जाने का उद्देश्य अभियुक्त को यह अवसर देना है, कि वह अपने विरूद्ध किए गए पक्ष कथन का स्पष्टीकरण दे सकें। अभियुक्त की निर्दाेषिता या दोषिता का निर्णय करने के लिये इस कथन पर विचार किया जा सकता है। यदि उन्मोचन का भार अभियुक्त पर हो, तब यह उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि ऐसे कथन के आधार पर भार का उन्मोचन होता है या नहीं। 



    उपधारा (10) (ख) में वर्णित ‘‘साधारणतया‘‘ शब्द से मामले से संबंधित सामान्य प्रकृति को सीमित नहीं होता है। अपितु इसका यह अर्थ है, कि प्रश्न साधारणतया संपूर्ण मामले से संबंधित होना चाहिए और वह मामले के किसी भी विशिष्ट भाग या भागों तक सीमित भी होना चाहिए। प्रश्न इस प्रकार विरचित किया जाना चाहिए, जिससे कि अभियुक्त यह जान सके कि उसे क्या स्पष्ट करना है, ऐसी कौन सही परिस्थितियाॅ हैं, जो उसके विरूद्ध हैं ओर जिनकी बाबत् स्पष्टीकरण दिया जाना उसके लिये आवश्यक है।


 इस धारा का संपूर्ण उद्देश्य अभियुक्त को उन परिस्थितियों को स्पष्ट करने के लिये सही और समुचित अवसर प्रदान करने का है, जो उसके विरूद्ध प्रतीत होती है और यह कि प्रश्न सही होने चाहिए और वे इस क्रम से पूछे जाने चाहिए कि गुण-दोष के बारे में कोई अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें।

                                    अभियुक्त द्वारा ऐसी किसी बात को, जो उससे स्पष्ट करने के लिये कभी पूछी ही नहीं गई, स्पष्ट न कर पाने के आधार पर की गई दोषसिद्धि विधि की दृष्टि से दोषपूर्ण है। संहिता की धारा-313 को अधिनियमित करने का संपूर्ण उद्देश्य यह था कि अभियुक्त का ध्यान आरोप  और  साक्ष्य में उन विनिर्दिष्ट मुद्दों की ओर, जिनके आधार पर अभियोजन पक्ष द्वारा यह दावा किया जाता है, कि अभियुक्त के विरूद्ध मामला बनता है, आकर्षित किया जाना चाहिए, जिससे कि वह ऐसा स्पष्टीकरण दे सकें, जो वह देना चाहता है।


                                              संहिता की धारा-313 के उपबंधों पर ईमानदारी ओर निष्पक्ष रूप से विचार करने की महत्ता पर बहुत ही अत्यधिक जोर नहीं दिया जा सकता। अभियुक्त के समक्ष बहुत सारे तथ्यों को एक साथ रखकर उससे, उनके बारे में पूछना कि उसे क्या कहना है ?


                              इस धारा का ठीक प्रकार से अनुपालन नहीं होगा। उससे प्रत्येक तात्विक बात के संबंध में जो, उसके विरूद्ध प्रयोग की जानी आशयित है, पृथक रूप से प्रश्न किया जाना चाहिए। प्रश्न सही होने चाहिए कि उनके गुण-दोषों के बारे में अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें।

                           अभियुक्त भले ही अशिक्षित न हो तो भी यदि उस पर हत्या का आरोप है, वह मानसिक रूप से विचलित हो सकता है। अतः निष्पक्षता की बाबत् यह अपेक्षा की जताी है, कि प्रत्येक तात्विक परिस्थिति को सहज रूप से और पृथक रूप से (अभियुक्त के समक्ष) रखा जाना चाहिए, जिससे कि कोई अशिक्षित व्यक्ति, जो विक्षुब्ध या भ्रमित हो, आसानी से उसके गुण-दोष के बारे में विवेचन कर सके और उसे समझ सके।


                                           उच्चतम न्यायालय में पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह  (2005) 6 एस.सी.सी. 101:- वाले मामले में दिए गए विनिश्चिय के पैरा-10 में मताभिव्यक्ति की है, कि 


                                                                       यदि साक्ष्य में ऐसी परिस्थितियाॅ विद्यमान थीं, जो अभियुक्त और उसके  (द्वारा दिये गये) स्पष्टीकरण के प्रतिकूल है और उसके द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण साक्ष्य का उचित रूप से मूल्यांकन किए जाने में न्यायालय की सहायता करेगा, तो न्यायालय को इस बात को अभियुक्त की जानकारी में लाना चाहिए, जिससे कि वह (अपने) साक्ष्य में उन प्रतिकूल परिस्थितियों के बाबत् कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सके।

                      समेकित प्रश्न के बिन्दु पर उच्चतम न्यायालय ने आगे मताभिव्यक्ति की, कि सामान्यता, समेकित प्रश्नों, जो अनेक प्रश्नों को एक साथ सम्मिलित करते हैं, को अभियुक्त से पूछा नहीं जाएगा। आगे यह मताभिव्यक्ति की गई कि प्रश्न जो पूछे जाने हैं, ऐसे होने चाहिए जिनका अभियुक्त की स्थिति में कोई युक्तियुक्त व्यक्ति, युक्तिसंगत स्पष्टीकरण देने की स्थिति में हो।


                                          स्थिति चाहे कोई भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि सेशन न्यायाधीश ने अपीलार्थी के समक्ष कोई फंसाने वाले प्रश्न और प्रतिकूल साक्ष्य नहीं रखे थे। पुनः मामले के तथ्यों पर विचार करते हैं, यह सुव्यक्त हे कि बरामदगियाॅ, जो फंसाने वाली थी और अपीलार्थी के प्रतिकूल थी, की वास्तविकता के विश्लेषण मंे अंततः स्वीकार किया गया था, किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न जो हमारे समक्ष विचारणार्थ उत्पन्न हुआ है, यह है, कि सेशन न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त का परीक्षण दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन किया जाना चाहिए था।


                    ऐसा प्रतीत होता है, कि सेशन न्यायाधीश ने सभी अभियुक्तों की बरामदगी के संबंध में मात्र एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न संख्या 4 सभी बरामदगियों के संबंध में एक समेकित प्रश्न जटिलता वाला प्रश्न है जिसको उपरोक्त विनिश्चयों के प्राश में अनेक तथ्यों को एक साथ समेकित करके नहीं पूछा जाना चाहिए था।


                                   इसमें कोई संदेह नहीं कि काउंसेल ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-294 के अधीन वास्तविकता को स्वीकार किया है, किन्तु विद्वान सेशन न्यायाधीश ने अभियुक्त व्यक्तियों से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन कोई प्रश्न नहीं पूछा है, जिसको पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह वाले (उपर्युक्त) मामले में दिए गए उच्ततम न्यायालय के विनिश्चय  को दृष्टि में रखते हुए अभियुक्त की जानकारी में लाया जाना चाहिए, जिससे कि वह साक्ष्य में इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सकें।
      
   





गम्भीर और अचानक प्रकोपन की कसौटी

गम्भीर और अचानक प्रकोपन की कसौटी

 धारा-300 के अपवाद 1 के पठन मात्र से यह स्पष्ट है कि अपवाद का फायदा अभिप्राप्त करने के लिए यह साबित किया जाना चाहिए कि-

    1-    मृतक अभियुक्त को कार्यों या शब्दो द्वारा क्षति पहंुचाई और इस प्रकार प्रकोपन कारित किया ।

    2-    प्रकोपन को गम्भीर और अचानक दोनो होना चाहिए।

    3-    प्रकोपन ऐसा होना चाहिए जिससे कि युक्तियुक्त मनुष्य आत्म नियत्रण की शक्ति खो दे और यह कि इससे अभियुक्त ने वास्तव में अचानक और अस्थायी रूप से आत्म नियंत्रण खो दिया।
        जांच करने के संबंध में भारतीय विधि

    1-    गम्भीर और अचानक प्रकोपन की कसौटी यह है कि क्या समाज के उसी वर्ग को होने वाला जिसका अभियुक्त है, कोई युक्तियुक्त मनुष्य उसी स्थिति में रख दिये जाने पर, जिसमें कि अभियुक्त था, उतना प्रकोपित हो जाएगा कि वह अपना आत्म विश्वास खो देगा ।

    2-    भारत मे ंशब्द और अंग विक्षेप भी कतिपय परिस्थितियों मे किसी अभ्यिुक्त को गम्भीर ओर अचानक प्रकोपन कारित कर सकते है जिससे कि उसका कृत्य भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के प्रथम अपवाद के भीतर आ जाए।

    3-    घटना ग्रस्त व्यक्ति के पूर्व कृत्यों द्वारा सृष्ट मानसिक पृष्ठभूमि को अभिनिश्चित करने के लिए विचार में लिया जा सकता है कि क्या पश्चात्वर्ती कृत्य ने उस अपराध को करने के लिए गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित किया था।

    4-    घातक वार को उस प्रकोपन से उद्भूत रोष के प्रभाव से स्पष्टतः सम्बद्ध होना चाहिए न कि उस समय होना चाहिए, जब कि समय बीत जाने से रोष शान्त हो गया है या अन्या पूर्वाचिन्तन और विचारके लिए अवसर या गुंजाइश दिया । चांद सिंह बनाम राजस्थान राज्य निर्णय पत्रिका 1971 राजस्थान 261 ।




प्रतिकर संदाय


                                प्रतिकर

        के.भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन 1997-7 एस.सी.सी.510    में संहिता की धारा-357-3को विचारणकरते हुए, इस न्यायालय ने अभिव्यक्त किया कि यदि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्ेट जुर्माने में से प्रतिकर परिवादी को परिवादी को हानि उठाने वाला महसूस करके संदत्त करना आदेशित करते थे, जब राशिउक्त सीमा से अधिक थी । 

ऐसे प्रकरण में परिवादी केवल अधिकतम रूपये पंाच हजार की राशि प्राप्त    करेगा, क्योकि न्यायिक मजिस्टे्रट प्रथम श्रेणी संहिता की धारा- 29-2 के अनुसार तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए कारावास का दण्डादेश या 5,000 रूपये से अधिक जुर्माना या दोनों उक्त राशि अब 10,000 तक बढौतरी की गई है, पारित कर सकता है । इस न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे प्रकरणों में मजिस्ट्रेट संहिता की धारा-357-3 से आश्रय लेने के द्वारा परिवादी की व्यथा कम कर सकता है।


        अभियुक्त को परिवादी को प्रतिकर संदाय करने के लिए निदेशित करते हुए आयडिया उसको तुरंत अनुतोष उसकी व्यथा कम करने के लिए देना है । धारा- 357-3 के निबंधनों में, प्रतिकर अभियुक्त के कृत्य के कारण उस व्यक्ति द्वारा वहन की गई नुकसानी या क्षति के लिए अधिनिर्र्णीत किया जाता है, जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया है ।

 यदि मात्र प्रतिकर निदेशित करते हुए आदेश पारित किया जाता है, यह पूर्णतः अप्रभावकारी होगा । यह बिना भय दिखाकर या इसके अनुपालन के प्रकरण में तुरंत प्रतिकूल परिणामों की आशंका का आदेश होगा । 


            संहिता की धारा-357-3 के तहत परिवादी को अनुतोष देने का सम्पूर्ण प्रयोजन हतोत्साहित होगा, यदि वह संहिता की धारा-421 का आश्रय लेते हुए जाता है । धारा-357-3 के तहत आदेश इसका अनुपालन संरक्षित करने का सामथ्र्य से होना चाहिए ।

 यह बिना भय दिखाकर केवल व्यतिक्रम दण्डादेश के लिए उपबंधित करने के द्वारा आदेश में प्रेरित हो सकता है । यदि संहिता की धारा-421 न्यायालय द्वारा संदत्त किया जाना आदेशित प्रतिकर जुर्माने के साथ रखती है, जहां तक वसूली की रीति का संबंध है, तब कोई कारण नहीं है कि क्यों न्यायालय प्रतिकर के भुगतान के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता, यथा यह भा.द.सं. की धारा-64 के तहत जुर्माने के संदाय के व्यतिक्रम में किया जा सकता है ।

 यह स्पष्ट होता हैकि इसके आलोक में, विजयन में, इस न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त वर्णित उपबंध न्यायालय को प्रतिकर के संदाय के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए समर्थ करते हैं और निवेदन निरस्त किया कि आश्रय केवल प्रतिकर के आदेश को प्रवृत्त करने के लिए संहिता की धारा-421 का हो सकता था। सम्बद्ध रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि इस न्यायालय द्वारा हरिसिंह में किये सम्प्रेक्षण आज उतने महत्वपूर्ण हैं, यथा वे तब थे, जब वे किये गये थे । निष्कर्ष, इसलिए है कि प्रतिकर संदाय करने का आदेश व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिनिर्णीत करने के द्वारा प्रवृत्त किया जा सकेगा ।

आपराधिक षडयंत्र

                                       आपराधिक षडयंत्र

        ’’आपराधिक षडयंत्र’’  का अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धाा-120क में परिभाषित है, जबकि संहिता की धारा-120ख उक्त अपराध के लिए दण्ड उपबन्धित करती है ।

 आपराधिक षडयंत्र के अपराध की आधारशिला दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य किसी अवैध कृत्य या कोई कृत्य, जो स्वयं अवैध नहीं है, अवैध  साधनों के माध्यम से पूर्ण/करने के लिए सहयोग हेतु अनुबंध होता है । 

ऐसा अनुबंध या मस्तिष्कां का मिलन एंव सबूत का संबंध या कारित करने हेतु मुख्य अपराध अन्यथ, जो षडयंत्र हो सकेगा, आपराधिक षडयंत्र का अपराध कारित किया स्थित होता है।

        आपराधिक षडयंत्र के अपराध का प्रत्यक्ष सबूत से अधिक नहीं उपलब्ध होगा और ऐसे अपराध का सबूत दिये प्रकरण की स्थापित परिस्थितियों से अनुमान की प्रक्रिया द्वारा विनिश्चित किया जाना चाहिए । उक्त अपराध के आवश्यक संषटक, इसके कारित करने के सबूत की अनुज्ञेय रीति एंव इस संबंध में न्यायालयों की पहंुच निःशेषित रूप से इस न्यायालय द्वारा कई उद्घोषणाओ में विचारण की गई है,

 जो दृष्टांत रूप से ई.के चन्द्रसेनन बनाम केरल राज्य, 1995 भाग-2 एस.सी.सी. 99, केहर सिंह और अन्य बनाम राज्य दिल्ली प्रशासन, 1988  भाग-3 एस.सी.सी. 60, अजय अग्रवाल बनाम भारत का संघ, 1993 भाग-3 एस.सी.सी. 609 और यश पाल मित्तल बनाम पंजाब राज्य, 1977 भाग-4 एस.सी.सी. 540 में संन्दर्भित किये जा सके ।

        विवि की प्रतिपादनाएं जो उपर्युक्त प्रकरणांे से निकली है, किसी रूप से आधारात्मक रूप से भिन्न नहीं है, जो हमारे द्वारा एतस्मिन उपर कहा गया । आपराधिक षडयंत्र का अपराध अपराध के कारित करने का या विधिपूर्ण उददेश्य अविधिपूर्ण साधनों सेप्राप्त करने का  अनुबंध होता है । 

ऐसा षडयंत्र कभी-कभार खुला होगा एंव इसलिए प्रत्यक्ष साक्ष्य इसे स्थापित करने हमेशा उपलब्धनहीं होगा । ऐसे षडयंत्र का सबूत या अन्यथा अनुमान का मामला है एंव न्यायालय को ऐसा अनुमान लगाने में यह विचारण करना चाहिए कि क्या मूल तथ्य अर्थात परिस्थितियां जिनसे अनुमान लगाना चाहिए, समस्त युक्तियुक्त शंका से परे साबित है एंव इसके पश्चात क्या ऐसी साबित एंव स्थापित परिस्थितियों से कोई अन्य निष्कर्ष सिवाये इसके कि अभियुक्त अपराध कारित करने के लिए सहमत था, निकाला जा सकता है। प्राकृतिक रूप से अभियुक्त के प्रतिकूल किसी अनुमान लगाने के प्रयोजनो हेतु साबित परिस्थियां मूल्यांकित करते हुए, किसी शंका का लाभ जो आ सकेगा, अभियुक्त् को जाना चाहिए ।

बलात्संग के अपराध सहमति

                                    सहमति

        धारा 375 भा0द0सं0 के तहत बलात्संग के अपराध की सार किसी पुरूष द्वारा किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरूद्ध और उसकी सम्मति के बिना इस धारा में उल्लेखित छह परिस्थितियों में से किसी एक के तहत लैंगिक सम्भोग है । 


    बलात्संग के अपराध के लिए किसी व्यक्ति का दायित्व अवधारित करने के लिए सर्वोपरि महतव की बात सम्मति है ।

 सम्मति अभियुक्त को दायित्व से पूर्णतः निर्मुक्त करती है।

 यह प्रकरण की परिस्थितियों और प्रकृति पर निर्भर करते हुए अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है ।

 किसी स्त्री ने सम्मति दी है यह तभी कहा जा सकता है जब वह स्वतंत्रतापूर्वक स्वयं को समर्पित करने के लिए सहमत होती है ।

 जब वह उस रीति जिसमें वह चाहती है में कार्य करने के लिए उसकी शारीरिक और नैतिक शक्ति के स्वतंत्र एंव निर्बाधित रूप से अवगत होती है ।

 सम्मति जो दी गई है को निर्वापित करने या रोकने के लिए स्वतंत्र और निर्बाधित अधिकार का अनुप्रयोग अभियोक्त्री करती है यह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले प्रस्तावित कार्य और पूर्ववर्ती द्वारा सहमत की स्वेच्छिक और सचेत स्वीकृति सर्वदा होती है।


    अभियुक्त को बलात्संग के आरोप से मुक्त करने के लिए स्त्री की सहमति तर्क संगत कार्य होनी चाहिए जो सोच विचार के साथ और संतुलित मस्तिष्क से किया गया होना चाहिए एंव प्रत्येक पहलू पर किसी व्यक्ति की इच्छा या भावना के अनुसार सहमति वापस लेने की शक्ति और विद्यमान क्षमता से अच्छाई और बुराई को वह तोल चुकी है ।

    डर या आतंक के प्रभाव के अधीन समर्पण सम्मति नहीं है और किसी व्यक्ति को दायित्व से निर्मुक्त नहीं करेगी ।

 सहमति और समर्पण के मध्य अन्तर होता है ।

राव हरनारायण सिंह शिवजी सिंह बनाम राज्य ए0आई0आर0 1958 पंजाब 123 में सम्प्रकाशित के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सहमति सोच विचार मौनानुकूलता या विरोध् नहीं करना और बिना चाहे कार्य करने की किसी व्यक्ति को बलात्संग के आरोप से मुक्त करने के लिए सम्मति होना नहीं समझा जा सकता ।

    न्यायालय द्वारा यह सम्प्रेक्षित किया गया था कि असहाय त्याग का मात्र कार्य जब मानसिक रूप से किसी डर या उत्प्रेरणा द्वारा कार्य करने के लिए तत्पर होती है तो यह सम्मति दूषित हो जाती है और उसे विधि में यथा समझी गयी सम्मति होना नहीं कहा जा सकता ।

        बलात्संग के अभिकथन के प्रति प्रतिरक्षा के रूप में किसी महिला के द्वारा सम्मति स्वेच्छिक सहभाग अपेक्षित करती है न केवल कार्य की महत्ता और नैतिक गुण के ज्ञान पर आधारित करते हुए बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य करने के पश्चात बल्कि विरोध करने और सहमति देने के मध्य पसन्द का स्वतंत्रतापूर्वक अनुप्रयोग करने के पश्चात स्वेच्छिक सहभाग अपेक्षित करती है ।

    न्यायालय द्वारा यह और सम्प्रेक्षित किया गया था कि सहमति और समर्पण के मध्य  अन्तर होता है एंव समर्पण का मात्र कार्य समर्पण लिप्त नहीं करता ।

 बलात्संग के समान दाण्डिक प्रकृत के कृत्य से मुक्त करने क लिए किसी लडकी की सम्मति उसकी इच्छा या चाहने के अनुसार सम्मति वापस लेने के लिए शक्ति और विद्यमान क्षमता के साथ दोनो तरफ अच्छाई एंव बुराई के संतुलन के रूप में मस्तिष्क द्यारा मापी जाने के पश्चात होती है,

 इसलिए किसी स्त्री को सम्मति देना केवल तभी कहा जा सकता है जब वह स्वतंत्रापूर्वक स्वयं को समर्पित करना सहमत होती है जब उसके पास उसी रीति में जो वह चाहती है कार्य करने की शारीरिक एंव नैतिक शक्ति स्वतंत्रतापूर्वक औरनिर्बाधित रूप से होती है ।

    इसलिए मामलो के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए विशेष रूप से अभियोक्त्री का परिसाक्ष्य यह प्रतीत होता है कि वह अपीलार्थी द्वारा मैथुन के लिए बिना उसकी इच्छा के विवश की गयी थी और यद्यपि उसका प्रेम प्रसंग हो सकता है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि घटना दिनांक को वह सहमत पक्षकार थी एंव अपीलार्थी के साथ मैथुन के लिए उसकी सहमति दी थी

जाली लाइसेंस एंव बीमा कम्पनी का क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायित्व

 जाली लाइसेंस एंव बीमा कम्पनी का क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायित्व

        इस तथ्य के प्रति सजग है कि जाली अनुज्ञप्ति का नवीनीकरण अनुज्ञप्ति को वेध नहीं बना सकेगा तथा ऐसा उच्चतम न्यायालय के अनेक विनिश्चयों में अभिनिर्धारित किया गया है जिनमें निम्नलिखित विनिश्चय सम्मिलित है-

2001 भाग-4 एस0सी0सी0 342 न्यू इंडिया इन्श्योरेंस कम्पनी, शिमला बनाम कमला एंव अन्य इत्यादि,     
                   
2007 भाग-3 एस0सी0सी0 700ः 2007 भाग-2 दु0मु0प्र0 68 नेशनल इंश्योरंेस कम्पनी लि0 बनाम लक्ष्मी नारायण धुत

2009 भाग-4 एस0सी0सी0 751ः2009 भाग-2 दु0मु0प्र0 311 नेशनल इंश्योरंेस कम्पनी लि0 बनाम सज्जन कुमार अग्रवाला

2007 भाग-5 एस0सी0सी0 428 ओरिएण्टल इंश्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम मीना वरियाल एंव अन्य

   मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रेम कुमारी के मामले में नकली लाइसेंस के मामले में बीमा कम्पनी को उत्तरदायी नहीं ठहराया है । 

2003 भाग-3 एस0सी0सी0 338ः 2003 भाग-2 दु0मु0प्र0 124, यूनाइटेेड इण्डिया इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम लेहरू एंव अन्य,

2004 भाग-3 एस0सी0सी0 नेशनल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम स्वर्ण सिंह,

2007 भाग-3 एस0सी0सी0 700, 2007 भाग-2 दु0मु0प्र0 382 नेशनल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम लक्ष्मी नारायण धूत,

2007 भाग-5 स्केल 269 ओरिएण्टल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम मीना वरियाल एंव अन्य,

1977 भाग-2 एस0सी0सी0 886 मीनू बी0 मेहता एंव एक अन्य बनाम बालकृष्ण राम चन्द्र नयन एंव एक अन्य,

1987 भाग-3 एस0सी0सी0 234 गुजरात राज्य सडक परिवहन निगम अहमदाबार बनाम रमन भाई प्रभात भाई एंव अन्य,
2007 भाग-7 स्केल 753 ओरिएण्टल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम बृज मोहन एंव अन्य,

2007 भाग-8 एस0सी0सी0 698 यूनाइटेड इण्यिा इंश्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम देवेन्द्र सिंह,
े2008 भाग-1 स्केल 531 प्रेम कुमार व अन्य बनाम प्रहलाद देव व अन्य,

2008 भाग-1 स्केल 727 ओरिएण्टल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम पृथ्वीराज,

2008 भाग-3 दु0मु0प्र0 150 उत्तराखण्ड यूनियन आफ इण्डिया एंव अन्य बनाम विजय कपिल,

2008 भाग-3 दु0मु0प्र0 145 सुप्रीम कोर्ट नेशनल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम गीता भट्ट एंव अन्य

2008 ए0सी0जे0 776ः2008 भाग-3 दु0मु0प्र0 प्रेम कुमारी बनाम प्रहलाद देव,

2007 भाग-2 एम0पी0एच0टी0 417 डी0बी0 श्रीमती सुनीताजैन बनाम कुंवर सिंह उर्फ राजू विश्वकर्मा,

2010 भाग-3दु0मु0प्र0500 म0प्र0 राजीलाल विरूद्ध पदमचन्द्रगुप्ता  एंव अन्य ,

2008 भाग-1 ए0सी0सी0डी0 132 एस0सी0 प्रेमकुमारी एंव अन्य विरूद्ध प्रहलाद देव एंव अन्य 
2010 भाग-3दु0मु0प्र0500 म0प्र0 राजीलाल विरूद्ध पदमचन्द्रगुप्ता  एंव अन्य 

,2008 भाग-1 ए0सी0सी0डी0 132 एस0सी0 प्रेमकुमारी एंव अन्य विरूद्ध प्रहलाद देव एंव अन्य

 यूनाइटेड इण्डिया इंश्योरेंस कम्पनी लिमि0 विरूद्ध सुजाता अरोरा एंव अन्य सी0ए0नंबर-231/2012 सुप्रीम कोर्ट

       2008 भाग-1 ए0सी0सी0डी0 132 एस0सी0 प्रेमकुमारी एंव अन्य विरूद्ध प्रहलाद देव एंव अन्य      न्यायदृष्टांत में अभिनिर्धारित दिशा निर्देशों के अनुसार जाली लाइसेंस पाये जाने पर बीमा कम्पनी क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायी नहीं है ।

 इसके अलावा बीमा कम्पनी के  यह भी तर्क  है कि जाली लाइसेंस है इसलिए बीमा कम्पनी को पै-एण्ड रीकवर सिद्धांत के अंतर्गत उत्तरदायी नहीं ठहराया जा सकता है
 


  यह समान रीति से सुस्थापित विधि है कि बीमा कम्पनी को अपनी प्रतिरक्षा में सफल होने के लिए अभिलेख पर निर्णायक रूप में यह स्थापित करना होगा कि बीमित व्यक्ति ने जानबूझकर अपने वाहन को ऐसे व्यक्ति को चलाने को अनुमति देकर जिसके पास वैध एंव प्रभावी चालन अनुज्ञप्ति नहीं थी, बीमा पालिसी की शर्तो का स्वैच्छिक उल्लंघन कारित किया था । 



        इस प्रकार बीमित व्यक्ति के द्वारा पालिसी की शर्ता के स्वैच्छिक भंग को साबित करने हेतु यह स्पष्ट है कि बीमाकर्ता के द्वारा स्वैच्छिक भंग के उसके अभिकथन को साबित करने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किया जाना होगा । यदि बीमाकर्ता यह स्थापित करने में सक्षम होता है कि बीमित व्यक्ति ने चालक के द्वारा धारित अनुज्ञप्ति की वास्तविकता या अन्यथा को सत्यापित कराने के लिए पर्याप्त सावधानी और सतर्कता नहीं बरती थी तो बीमाकर्ता की प्रतिरक्षा को सफल होना चाहिए।



        बीमित व्यक्ति यह दर्शित करने में सक्षम हो जाता है कि उसने वाहन का प्रयोग सम्यक रूप से अनुज्ञप्ति चालक के द्वारा किये जाने के विषय में पालिसी की शर्त की पूर्ति के मामले युक्तियुक्त सावधानी बरती थी, तो बीमाकर्ता की प्रतिरक्षा अनिवार्थतः असफल होगी ।

        बीमा कम्पनी संविदा के निर्बन्धन के भंग का परिवाद करती है, जो उसे बीमा की संविदा के अधीन अपने दायित्व से बचने की अनुमति प्रदान करेगा । यदि संविदा के निर्बन्धन का भंग संविदा के पक्षकार को संविदा का अनुपालन न करने की अनुभूति प्रदान करता है, तो भार व्यापक रूप में उसी पक्षकार पर होगा जो भंग का परिवाद करें,यह साबित करने हेतु कि संविदा के अन्य पक्षकार के द्वारा भंग कारित किया गया है । ऐसी परिस्थिति में परीक्षण यह होगा कि यदि कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं किया जाता है तो कौन असफल होगा ।


      2004 भाग-3 एस0सी0सी0 नेशनल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम स्वर्ण सिंह, 
  स्वर्णसिंह के अनुसार बीमा कम्पनी का प्राथमिक आधार यह है कि वाहन को चला रहे व्यक्ति के पास वैध चालन अनुज्ञप्ति नहीं थी। स्वर्ण सिंह के मामले में निम्नलिखित स्थितियों पर विचार किया गया -

1.    चालक के पास अनुज्ञप्ति थी किन्तु वह फर्जी थी,

2.    चालक के पास केाई अनुज्ञप्ति नहीं थी,

3.    चालक के पास मूलतः एक वैध अनुज्ञप्ति थी परन्तु दुर्घटना के दिनांक को वह समाप्त हो चुकी थी एंव उसका नवीनीकरण नहीं हुआ था,

4    अनुज्ञप्ति उस श्रेणी के वाह हेतु थी जो बीमाकृत वाहन से भिन्न था,

5.    अनुज्ञप्ति एक प्रशिक्षु अनुज्ञप्त् िथी।

    श्रेणी क में दो प्रकार की स्थितियां हो सकती है । 

प्रथम स्वयं अनुज्ञप्ति ही फर्जी हो, 

 दूसरी जहां मूलतः अनुज्ञप्ति फर्जी हो किन्तु बाद में विधिवत कराया गया हो ।


        2003 भाग-3 एस0सी0सी0 338 यूनाइटेड इण्डिया इन्श्योरेंस कं.लि. बनाम लेहरू एंव अन्य में इस न्यायलाय के निर्णय पर बल दिया गया था । उक्त र्णिय में प ुराने मोटरयान अधिनियम की धारा-96 -2 ख दो और समान प्रावधान अर्थात मोटर यान अधिनियम 1988 की धारा-149-2क दोपर विचार करने के पश्चात इस न्यायालय ने निम्नलिखि निर्णय दिया था। 

        इस प्रकार उपधारा-1 के अधीन बीमा कम्पनी को डिक्री के लाभ के हकदार व्यक्ति को इस बात के होते हुए भी भुगतान करना चाहिए कि वह पालिसी को परिवर्जित करने या रदद करने का हकदार हो गया था । परिवर्जित अथवा रदद कर सका होगा । शब्दो इस धारा के प्रावधानो के अध्यधीन का तात्पर्य यह है कि बीमा कम्पनी केवल धारा 149 में उपवर्णित आधारो पर ही दायित् से छुटकारापा सकती है । उपधारा 7 जिस पर विश्वास व्यक्त किया गया है अपेक्षाकृत कुछ भी अधिक अधिकथित नहीं करती या बीमा कम्पनी को कोई उच्चतर अधिकार प्रदान नहीं करती । इसके प्रतिकुल उपधारा 7 की शब्दावली अर्थात ऐसा कोई भी बीमाकर्ता जिसको उपधारा 2 या उपधारा 3 में निर्दिष्टनोटिस दी गई है अपने दायित्व को परिवर्जित करने का हकदार नहीं होगा । यही निर्दिष्ट करती है कि विधानमण्डल स्पष्ट रूप से यही निर्दिष्ट करना चाहता था कि बीमा कम्पनी को तब तक भुगतान करना चाहिए । जब तक कि उन्हे उपधारा-2 में विनिर्दिष्ट आधारो पर दायित्व से अभियुक्त नहीं कर दिया जाता । इसके अतिरिक्त उपधारा-4 से स्पष्ट है कि जो यह समादेश देती हे कि बीमा पालिसी की शर्ते जो बीमा को निबंन्धित करने के लिए तात्पर्यित है उनका तब तक कोई प्रभाव नहीं होगा यदि वे उपधारा 2 में विनिर्दिष्ट प्रकृति के नहीं है । इससे तो यही दर्शित होता है कि बीमा कम्पनी को पर पक्षकार को तो भुगतान करना ही है, किन्तु वह उस व्यक्ति से उसकी वसूली कर सकता है जो प्राथमिक रूप से भुगतान करने के लिए दाययी था । भुगतान करने के बीमा कम्पनी के दायित्व पर अग्रेसर उपधारा 5 द्वारा भ्ज्ञी बल दिया गया है । उससे भी यही दर्शित होता है कि बीमा कम्पनी को पहलंे भुगतान करना चाहिए इसके पश्चात वह उसकी वसूली कर सकता है । यदि धारा 149 को पूर्ण रूप में पढा जाता है तो यह स्पष्ट हो जाता है कि उपधारा 7 बीमा कम्पनी को कोई अतिरिक्त अधिकार प्रदान नहीं कर रही है । इसके प्रतिकूल वह इस पर बल दे रही है कि बीमा कम्पनी उपधारा-2 में वर्णित सीमित आधारो पर के सिवाय अपने दायित्व से नहीं बच सकती । 

  न्यायदृष्टांत 2011 भाग-3 दु0मु0प्र0 366 दिल्ली न्यू इंडिया एश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड विरूद्ध रणबीर सिंह शास्त्री एंव अन्य मे अभिनिर्धारित किया गयाहै कि  बीमा पालिसी का स्वेच्छिक भंग का दोषी नहीं है । चालक के लाइसेंस की जांच कराना उसका कर्तव्य नही है ।

         चालक वाहन चलाना जानता था इसलिए उच्चतम न्यायालय के तीन न्यायाधीशगण के द्वारा  2004 भाग-3 एस0सी0सी0 297 नेश्नल इंश्योरेंस के0लि0 बनाम स्वर्ण सिंह एंव अन्य के मामले में प्रतिपादित दिशा निर्देशों के अनुसार लाइसेंस न होने की दशा में भी बीमा कम्पनी पै-एण्ड रिकवर के लिए उत्तरदायी है । अतः बीमा कम्पनी पर क्षतिपूर्ति का उत्तरदायित्व स्वर्ण सिंह मामले के अनुसार डाला जाये क्यो कि इसे अभी बडी खण्ड पीठ के द्वारा समाप्त नहीं किया गया है। 

             2008 भाग-3 दु0मु0प्र0 145 सु0को0 नेश्नल इन्श्योरेंस कम्पनी लिमि0 बनाम गीता भट्ट एंव अन्य मे अभिनिर्धारित किया गया है कि जहां पर पक्षकार ने दावा किया हो वहां पर स्वर्ण सिंह का मामला लागू होगा और जहां पर वाहन के स्वामी या वाहन के अन्य यात्रियों द्वारा दावा किया गया हो वहां स्वर्ण सिंह का मामला लागू नहीं होता है।


        प्रेम कुमार के मामले में अधिनस्थ न्यायालय के निर्णय की पुष्टि की गई है और पर पक्षकार की दशा में पै-एण्ड रिकवर सिंद्धात को मान्यता दी गई है । अतः उसके द्वारा प्रस्तुत गीता भट्ट न्यायदृष्टांत में अभिनिर्धारित दिशानिर्देशों के अनुसार फर्जी चालन अनुज्ञप्ति का होना बीमाकर्ता को तृतीय पार्टी के पक्ष में अधिनिर्णाीत धनराशि की प्रतिपूर्ति वाहन स्वामी को करने के दायित्व से मुक्त नहीं करता । दावेदारो के पक्ष में अधिनिर्णीत धनराशि के भुगतान हेतु बीमाकम्पनी निर्देशित, इस छूट के साथ कि वह उसे वाहन के स्वामी और चालक से वसूल कर सकती है । इसको ध्यान में रखते हुए बीमा कम्पनी को उत्तरदायी ठहराया जाये ।

        विधि के सुस्थापित सिद्वांत अनुसार लायसेंस का न होना मूलभूत विखण्डन नहीं है । ऐसी स्थिति में स्वर्ण सिंह वाले मामले में प्रतिपादित दिशा निर्देशानुसार अनावेदक क्रमांक-1 वाहन चलाना जानता था। केवल उसके पास  वैध एंव प्रभावी लायसेंस नहीं था । 

 न्यायदृष्टांत  2011 भाग-3 दु0मु0प्र0 366 दिल्ली न्यू इंडिया एश्योरेंस कम्पनी लिमिटेड विरूद्ध रणबीर सिंह शास्त्री एंव अन्य   के अनुसार बीमा पालिसी की शर्त के स्वैच्छिक भंग का दोषी नहीं माना जा सकता है ।


 इसलिए बीमा कम्पनी  2004 भाग-3 एस0सी0सी0 297 नेश्नल इंश्योरेंस कं0लि0 बनाम स्वर्ण सिंह एंव अन्य में प्रतिपादित दिशा निर्देशो के अनुसार पै-एण्ड रिकवर के अनुसार क्षतिपूर्ति के लिए उत्तरदायी है । 

    मोटरयान अधिनियम के प्रावधान लोकहित संबधी प्रावधान है और मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इस संबंध में समय-समय पर दिशा निर्देश जारी किये है जो अनुच्छेद 141 के अनुसार विधि का रूप रखते है और सभी न्यायालयो अधिकरण पर बंधनकारी है। ऐसी स्थिति में बीमा कम्पनी के इस तर्क को मान्यता प्रदान नहीं की जा सकती कि न्यायालय को पै-एण्ड रिकवर आदेश की अधिकारिता प्राप्त नहीं है । 

    

संयुक्त अपकृत्यकर्ताओ 166mvact

                           संयुक्त अपकृत्यकर्ताओ


 माननीय मध्य प्रदेष उच्च न्यायालयय की खण्डपीठ के द्वारा   सुषीला भदौरिया श्रीमती बनाम एम.पी.एस.आर.टी.सी. 2005-1- जे.एल.जे. 15  में अभिनिर्धारित किया गया है कि संयुक्त अपकृत्यकर्ताओ के मामलों में जहा कि दायित्व संयुक्त एंव पृथक हो, दावेदार को यह विकल्प प्राप्त होगा कि वह दोनो वाहनों के चालको स्वामीगण व बीमा कम्पनी को षामिल कर सके अथवा मात्र एक वाहन के चालक स्वामी व बीमा कम्पनी को षामिल कर सके ओर सम्पूर्ण प्रतिकर को अपकृत्यकर्ताओ में एक से वसूल कर सके। उसके लिए आवष्यक नहीं है कि वह दोनो अपकृत्यकर्ताओ को पक्षकार बनाए । उसकी मर्जी के अनुसार वह उनमें से किसी एक को चुन सकता है ।   














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नापुन्सकता

                                    नापुन्सकता

    जार्ज फिलिप बनाम सेली एलियास टी.0ए0आई0आर0 1995 केरल 289 में सम्प्रकाशित मामले में जिसमें केरल उच्च न्यायालय की खण्ड न्यायपीठ ने अभिनिर्धारित किया है कि नपुंसकता से सामान्य सहवास के लिए अक्षमता या असमर्थता अभिपे्रत है । ऐसी असमर्थता या अक्षमता कई कारणों से हो सकती है । नपुंसकता पूर्णतया लैंगिक सम्भोग करने की सामथ्र्यता का अभाव है । जब इस पहलू को वैवाहिक मुकदमें के किसी पक्षकार द्वारा स्थापित एंव साबित करने की ईप्सा की जाती हे तो विवाह के पक्षकारगण की चिकित्सीय जांच ऐसे अभिकथनो को स्थापित करने के लिए ज्ञात विधियों में से एक है ।


        यद्यपि यह सत्य है कि किसी भीपक्षकार को न्यायालय के विधिमान्य आदेश के तहत गठित किसी चिकित्सीय मण्डल से चिकित्सीय जांच कराने के लिए विवश नहीं किया जा सकता चिकित्सीय जाच कराने के लिए पक्षकारगण में से एक के द्वारा प्रख्यान अनुमान के परिणाम में अपनी स्थिति होती है । तथ्यात्मक रूप से स्थिति और अधिक संरक्षित हो जाती है यदि दूसरा पक्षकार ऐसी चिकित्सीय जांच के लिए समपूर्ण कर देता है और स्पष्ट रूप से उसे अपने पक्ष में साबित कर देता है । तथ्यों पर यह नोट किया जाना चाहिए कि अपीलार्थी चिकित्सीय जांच कराने के पश्चात सामान्य सहवास के बारे में क्षमतावान और साम्र्थयवान व्यक्ति होना प्रमाणित कियाजा चुका है ।



    जगदीश कुमार बनाम श्रीमती सीता देशी ए0आई0आर0 1963 पंजाब 155 वी 50 31 में सम्प्रकाशित के मामले जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया कि लैंगिक सम्भोग के लिए अक्षमता नपंुसकता का आवश्यक संघटक है । ऐसी कोई असमर्थता विभिन्न कारणों से उत्पन्न हो सकती है इसके अन्तर्गत मानसिक और नैतिक निःशक्तता है, असमर्थता भावनात्मक कारणों से भी सकती है कोई व्यक्ति अन्यथा यौन कार्य करने के लिए समथर् है, वह उसकी स्वयं की पत्नी के साथ ऐसा करने में असमर्थ हो सकेगा ।


    यह और सम्प्रेक्षित किया गया है जहां पति उसकी पत्नी के साथ लैंगिक सम्भोग करने के लिए पूर्णतया असमर्थ है जिसके लिए उसके पास पूर्णतया विवाह के पश्चात दो या तीन दिनों तक उसके साथ उसी कमरे में रहा था तो यह निष्पष अनुमान है कि विवाहेत्तर सम्भोग नहीं होना अक्षमता, तनावग्रस्तता या मिरगी से उत्पन्न पति को ज्ञात प्रत्याख्यान के कारण है और यह कि वह उसकी पत्नी के प्रति उसकी नपंुसकता दर्शाता है । यहां तक कि जो पत्नी को निष्पक्ष परीक्षण प्रदत्त किया गया है यदि पति उसके प्राथमिक वैवाहिक कर्तव्य में विफल होता है तो उसे उसके विवाह के समय से तुरन्त विवाह शून्य करने के लिए कार्यवाही के संस्थान से धारा-12-1क के तहत नपंुसक के रूप में समझा जाना चाहिए ।


    मोईना खोसला बनाम अमरदीप खोसला ए0आई0आर0 1986 दिल्ली 399 में सम्प्रकाशित के मामले में जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विवाहेत्तर सम्भोग से अभिप्रेत है साधारणतया और सम्पूर्ण लैगिक सम्भोग और लैंगिक सम्भोग उस समय पूर्ण होता है जब स्त्री और पुरूष सहभागी चरमोत्कर्ष प्राप्त कर चुके थे । सामान्यता स्त्रियों के साथ्ज्ञ किसी कार्य के प्रति अपनी भावना प्रदर्शित करने के लिए पति की अक्षमता के कारण सम्भोग का अभाव सामान्यतया पत्नी को अकृतता की डिक्री का हकदार बनाता है ।


        युवराज दिग्विजय सिंह बनाम युवरानी प्रताप कुमार ए0आई0आर0 1970 एस0सी0 137 में सम्प्रकाश्ति के मामले में जिसमें माननीय शीर्ष न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि याचिकाकर्ता को यह अवश्य साबित करना चाहिए कि विवाह के समय से कार्यवाही संस्थित करने तक प्रत्यर्थी की मानसिक या शारीरिक दशा ऐसी थी कि विवाहोत्तर सम्भोग व्यवहारिक रूप से असम्भाव्य था । 

कोई पक्षकार नपंुसक होता है यदि उसकी मानसिक या शारीरिक दशा विवाहोत्तर सम्भोग को असम्भाव्य बनाती है । किसी याचिकाकर्ता को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा-12-1क के तहत अकृतता की डिक्रीप्राप्त करने क लिए उसे स्थापित करना होगा कि उसकी पत्नी प्रत्यर्थी विवाह के समय नपंुसक थी और इस प्रकार कार्यवाहियां संस्थित करने तक नपंुसक होना कायम थी ।
  






धारा-34 और 149 आई0पी0सी0

                      धारा-34 और 149 आई0पी0सी0            
                                         सामान्य आशय       
     धारा-’34 भा0द0वि0 के अंतर्गत यदि दो या दो से अधिक व्यक्ति कोई कार्य संयुक्त रूप से करते है तो विधि के अंतर्गत स्थिति वहीं होगी कि मानो उनमें से प्रत्येक के वह कार्य स्वयं व्यक्तिगत रूप से किया गया हो । व्यक्तियों का कार्य अलग हो सकता है किन्तु उनका आषय एक रहना आवष्यक है ।

    इस संबंध में विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि धारा-34 किसी आपराधिक कृत्य को करने के संयुक्त दायित्व के सिद्धांत के आधार पर अधिनियमित की गई है । यह धारा केवल एक साक्ष्य का नियम है और इसमें कोई सरवान् अपराध सृजित नहीं किया गया है ।

 इस धारा की सुभिन्न विषेषता यह है कि इसमें कार्यवाई में सहभागिता का तत्व विद्यमान है । अनेक व्यक्तियों द्वारा किये गये आपराधिक कार्य के अनुक्रम में किसी व्यक्ति द्वारा किये गए किसी अपराध के लिए किसी अन्य व्यक्ति का दायितव धारा-34 के अधीन तभी उद्भूत होगा यदि ऐसा आपराधिक कार्य उन व्यक्तियों के, जो अपराध करने में सम्मिलित हुये थे, किसी सामान्य आषय को अग्रसर करने के लिए किया गया हो ।

        सामान्य आशय से संबंिधत धारा-भा0द0सं0 35,36,37,38, है ।

        संहिता की धारा-35 जब कि ऐसा कार्य इस कारण आपराधिक है कि वह आपराधिक ज्ञान या आशय से किया गया है-जब कभी कोई कार्य जो आपराधिक ज्ञान या आशय से किये जाने के कारण ही आपराधिक है, कई व्यक्तियों द्वारा किया जाता है, तब ऐसे व्यक्तियों में से हर व्यक्ति जो ऐेसे ज्ञान या आशय से उस कार्य में सम्मिलित होता है, उस कार्य के लिए उसीप्रकार दायित्व के अधीन है, मानो वह कार्य उस ज्ञान या आशय से अकेले उसी द्वारा किया गया हो ।

        संहिता की धारा-36 अंशतः कार्य द्वारा और अंशतः लोप द्वारा कारित परिणाम-जहां कही किसी कार्य द्वारा या किसी लोप द्वारा किसी परिणाम का कारित किया जाना या उस परिणाम को कारित करने का प्रयत्न करना अपराध है, वहां वह समझा जाना है कि उस परिणाम का अंशतः कार्य द्वारा और अश्ंातः लोप द्वारा कारित किया जाना वहीं अपराध है ।

        संहिता की धारा-37 किसी अपराध को गठित करने वाले कई कार्यो में से किसी एक को करके सहयोग करना जब कि कोई अपराध कई कार्यो द्वारा किया जाता है, तब जो कोई या तो अकेले या किसी अन्य व्यक्ति के साथ सम्मिलित होकर उन कार्यो में से कोई एक कार्य करके उस अपराध के किए जाने में साशय सहयोग करता है, वह उस अपराध को करता है । 

        संहिता की धारा-38 आपराधिक कार्य में संपृक्त व्यक्ति विभिन्न अपराधो के दोषी हो सकेंगे जहां कि कई व्यक्ति किसी आपराधिक कार्य को करने में लगे हुए या सम्पृक्त है, वहां वे उस कार्य के आधारपर विभिन्न अपराधों के दोषी हो सकेंगे । 

        सामान्य आषय का प्रत्यक्ष सबूत यदाकदा उपलब्ध होता है और इसलिए ऐसे आषय का निष्कर्ष केवल मामले के साबित तथ्यों और साेिबत परिस्थितियों से उपदर्षित परिस्थितियों से ही निकाला जा सकता है । सामान्य आषय के आरोप को साबित करने के अनुक्रम में अभियोजन पक्ष को साक्ष्य द्वारा, चाहे वह प्रत्यक्ष हो या पारिस्थितिक, यह साबित करना होता है कि उस अपराध केा करने की, जिसके लिए उन्हें धारा-34 के अंतर्गत आरोपित किया गया है, सभी अभियुक्त व्यक्तियों की योजना थी या मतैक्य था । चाहे वह पूर्व योजनाबद्ध हो या क्षणिक हो किन्तु यह सब आवष्यक रूप से अपराध किये जाने से पूर्व होना चाहिए ।       

        अषोक कुमार विरूद्ध पंजाब राज्य ए0आई0आर0 1977 एस0सी0 109. वाले मामले में मत व्यक्त किया गया है कि इस धारा को लागू करने के लिए किसी अपराध में भाग लेने वालो के मध्य एक सामान्य आषय का विद्यमान होना आवष्यक तत्व है यह आवष्यक नहीं है कि किसी अपराध को संयुक्त रूप से करने के लिए आरोपित अनेक व्यक्तियों  के कार्य समान और समरूप है कार्य स्वरूप में भिन्न भिन्न हो सकते हैं किन्तु वे एक ही सामान्य आषय से किए गये होने चाहिए जिससे कि इस उपबंध को लागू किया जा सके ।

                                      सामान्य उददेश्य 

        धारा-149 प्रतिनिधिक एंव आन्वयिक दाण्डिक दायितत्व विधि विरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य हेतु विहित करती है,जहां अपराध उस जमाव के सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में ऐसे विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया गया हो या उस जमाव के सदस्यों का उस उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया जाना जानते हुए किया हो ।

        विधि के सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार जब कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए । बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि विरूद्ध था। भा.द.सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित करने के पूर्व, भा.द.सं. की धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।

        धारा-141 भा0द0सं0 के अनुसार विधिविरूद्ध जमाव- पांच या अधिक व्यक्तियों का जमाव विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य हो-

    पहला-    केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को या किसी राज्य के विधान मंडल को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा आतंकित करना अथवा

    दूसरा-    किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का  प्रतिशेध करना अथवा

    तीसरा-    किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का रना अथवा


    चैथा-        किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का कब्जा  लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के अधिकार के उपभोग से या जल का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका वह कब्जा रखता हो, या उपभोग करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार को प्रवर्तित करना अथवा

    पांचवा-    आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा किसी व्यक्ति को वह करने के लिए जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप करने के लिए जिसे करने का वह वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

    स्पष्टीकरण-    कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो सकेगा ।

        यह इस प्रकार अवेक्षित किया जाना चाहिए कि धारा-149 के आवश्यक संघटको में से एक है कि अपराध विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य द्वारा कारित किया जाना चाहिए और धारा-149 यह स्पष्ट करती है कि यह केवल वहां होता, जहंा पांच या अधिक व्यक्ति ने जमाव गठित किया, जो एक विधिविरूद्ध जमाव होता है, उक्त धारा की अन्य आवश्यकतांए स्पष्टतः, यथा उस जमाव को करते हुए व्यक्तियों का सामान्य उददेश्य पूर्ण हो । अन्य शब्दों में, विधिविरूद्ध जमाव की एक आवश्यक शर्त है कि इसकी सदस्यता पांच या अधिक होना चाहिए । धारा-149 द्वारा विनिर्दिष्ट अपराध के आवश्यक संघटकों के संबंध में सही विधिक स्थिति शंका में नहीं है। 

        यदि जमाव की सदस्यता पांच से कम हो तो धारा-141 लागू नहीं होती है । इसलिए धारा-149 का अवलम्ब नहीं लिया जा सकता । यदि पंाच या अधिक व्यक्ति विधिविरूद्ध जमाव गठित करने के रूप में आरोपित हैं और अभियोजन द्वारा प्रस्तुत साक्ष्य उन समस्त के विरूद्ध आरोप साबित करता है, यह एक स्पष्ट प्रकरण होता है, जहां धारा- 149 अवलम्ब ली जा सकती है । यह परन्तु आवश्यक नहीं है कि पांच या अधिक व्यक्ति धारा-149 के तहत आरोप के पूर्व दोषसिद्ध किये जाने चाहिए।

        विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के विरूद्ध सफलतापूर्वक धारा-149 का आरोप लगाया जा सकता है । यह हो सकेगा कि पांच व्यक्तियों से कम धारा-149 के तहत आरोपित एंव दोष सिद्ध किये जा सकेंगे, यदि आरोप है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति अन्य के साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते, ऐसे नामित अन्य व्यक्ति परीक्षण हेतु उनके साथियों के साथ उपलब्ध नहीं हो सकेंगे, इस कारण से उदाहरण हेतु कि वह फरार हो गये हो ।

        ऐसे प्रकरण मंे, तथ्य कि पांच से कम व्यक्ति न्यायालय के समक्ष हैं,   धारा-149 को इस साधारण कारण से अप्रयोज्य नहीं बनाता है कि आरोप एंव साक्ष्य दोनो साबित किये जाना ईप्सित है कि न्यायालय के समक्ष व्यक्ति और पांच से अधिक संख्या में एंव इस प्रकार, वे एक साथ विधिविरूद्ध जमाव गठित करते । इसलिए, धारा-149 के तहत आरोप लगाने के अनुसरण मंे, यह आवश्यक नही है कि पांच या अधिक व्यक्ति न्यायालय के समक्ष आवश्यक रूप से लाये जाने चाहिए और दोषसिद्ध किये जाने चाहिए ।

        उपर्युक्त उपबन्ध यह स्पष्ट करता है कि भा.द.सं. की धारा-149 की सहायता से अभियुक्त को दोषसिद्ध करने के पूर्व, न्यायालय को सामान्य उददेश्य और यह कि उददेश्य विधिविरूद्ध था की प्रकृति के बारे में स्पष्ट निष्कर्ष देना चाहिए । ऐसे निष्कर्ष साथ ही अभियुक्तगण द्वारा किसी ओर कार्य के अभाव में भी, मात्र तथ्य कि वे लैस थे सामान्य उददेश्य साबित करने के लिए पर्याप्त नहीं होगा ।धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध हेतु दण्ड व्यवहत करती है ।
      
        विधान का धारा-149 अधिनियमित करने में विधिविरूद्ध जमाव के प्रत्येक सदस्य केा इसके एक या अधिक सदस्यों द्वारा कारित किये प्रत्येक अपराध के लिए दण्डित किये जाने का उत्तरदायी बनाने का आशय नहीं है । धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए कि फंसाने वाला कृत्य विधि विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया या था और यह अन्य सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया गया था और यह अन्य सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए । यथा सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में कारित होते हुए विशिष्ट अपराध की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

        यदि परिवादी और अभियुक्त स्वयं खुली लडाई में संलग्न थे, इसलिए भा.द.सं. की धारा-149 के तत्व आकर्षित नहीं होगे क्यों कि अपराध की सदोषता अपीलार्थीगण को व्यक्तिगत रूप से अन्तर्वलित करेगा । काउंटर प्रकरण में इस बात का विशेष ध्यान देना चाहिए।

        उच्चतम न्यायालय के ए0आई0आर. 1976 एस0सी0 912 पूरणबनाम राजस्थान राज्य  में प्रतिपादित किया है कि अचानक दो पक्षकारो के मध्य पारस्परिक लडाई के मामले मंे, भा0द0सं0 की धारा 149 आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु अवलम्ब नहीं ली जा सकती और अभियुक्तगण व्यक्तिगत रूप से उनके द्वारा कारित क्षतियों के लिए दोषसिद्ध किये जायगे । इस प्रकरण में उच्चतम न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि पक्षकारो के मध्य अचानक पारस्परिक लडाई के मामले में, भा.0द0सं0 की धारा-149 की सहायता का अवलम्ब लेने के प्रश्न आन्वयिक दाण्डिक दायित्व अधिरोपित करने के प्रयोजन हेतु नहीं होगा और अभियुक्त केवल उसके द्वारा उसके वयैक्तिक कार्य द्वारा कारित क्षतियां के लिए दोषसिद्धि किया जा सकता था ।
        उच्चतम न्यायालय के द्वारा मरियादासन और अन्य बनाम तमिलनाडू राज्य ए0आई0आर0 1980 एस0सी0 573, ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 339 अब्दुल हमीद और अन्य बनाम उ0प्र0 राज्यमें अभिनिर्धारित किया है कि अपराध कारित करने के सामान्य उददेश्य से किसी अवैध सभा का गठन साबित करने के लिए संतोष जनक साक्ष्य के अभाव में और जब सम्पूर्ण लडाई अचानक आवेश के क्षण प्रारम्भ हुई हो, तब अभियुक्त अकेला उनके वैयक्तिक कार्याे के लिए उत्तरदायी हो सकता है और भा0द0सं0 की धारा-149 के तहत दोषसिद्ध नहीं किया जा सकता 

            अब्दल हमीद बनाम उ0प्र0 राज्य 1991 भाग 1 एस0सी0सी0 339 गजानन्द बनाम उ0प्र0 राज्य ए0आई0आर0 1954 एस0सी0 695    द्वारका प्रसाद बनाम उ0प्र0 राज्य 1993 सप्ली 3 एस0सी0सी0 141 के मामले में यह ठहराया गया है कि एक खुली लडाई परिभाषा    के अनुसार है जब दोनो तरफ से लडाई प्रारम्भ होना अर्थ है, खुली होती है और एक अवस्था की लडाई होती है प्रश्न ऐसी लडाई में कोैन हमला करता है और कौन बचाव पूर्णतः अतात्विक होता है प्रतिद्वंद्वी कमाण्डर द्वारा अपनाई गयी चालाकियों पर निर्भर करता है।
    ।
    यह स्थिति गजानन्द बनाम उ.प्र.राज्य कानबी नानजी वीरजी बनाम गुजरात राज्य, पूरण बनाम राजस्थान राज्य, विश्वास अबा कुराने बनाम महाराष्ट्र, के मामलो में स्थापित की गई है। यथा एक बार अभियोजन द्वारा यह स्थापित होता है कि प्रश्नगत घटना खुली लडाई के परिणामस्वरूप है, तब सामान्यतः प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार किसी भी पक्षकार को उपलब्ध नहीं होता है और वे क्रमशः उनके कार्यो हेतु दोषी होंगे ।

    केवल सिंह बनाम पंजाब राज्य 2003 भाग-12 एस0सी0सी0 369 में  यह सम्प्रकाशित में यह ठहराया गया है कि दोनो पक्षकारगण सशस्त्र आए और खुली लडाई में हुए, जिसके परिणामस्वरूप दोनो     पक्षकारो को क्षतियां हुई ।    चूंकि दोनो पक्षकारगण लडाई के लिए तैयारी से आए थे इस प्रश्न में जाना अनावश्यक है कि क्या उनमें से किसी ने प्रायवेट प्रतिरक्षा के     अधिकार का अनुप्रयोग किया और इसलिए अभियुक्त की सदोषता उनके वैयक्तिक कार्यो हेतु निर्देशन द्वारा विनिश्चित की जानी चाहिए।इसलिए ऐसी स्थिति में भा0द0सं0 की धाराओ 147,148 और 149 के सिद्धांतो को लागू करने हेतु न्यायालय के लिए सुरक्षित नही ंहोगा ।       

                                     अचानक लडाई-

 2010 भाग-4 क्राईम्स 217 एस.सी. गनपत विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा एंव अन्य,
 2008 भाग-3 एम.पी.वि.नोट 18 रायसिंह एंव अन्य विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी,
2009 भाग-3 एम.पी.वि.नोट 7 रमेश कुमार उर्फ टोनी विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा,
 2009 भाग-2 क्राईम्स 365 एस.सी. नफे सिंह विरूद्ध स्टेट आफ हरियाणा,
 2007 भाग-1 जे.एल.जे. 377 शरीफ खान विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी.

            उपरोक्त न्यायदृष्टांतो में अभिनिर्धारित सिंद्धांतो के अनुसार अचानक पारस्पिरिक लडाई के मामले में भा0द0वि0 की धारा-34 और 149 दोनो लागू नहीं होती है । सभी व्यक्ति अपने अपने द्वारा किए गये कार्य के लिए उत्तरदायी ठहराये जाते हैं । उपस्थित हो जाने मात्र से सामान्य आशय का गठन नहीं होता है । इसके लिए पूर्व नियोजन आवश्यक है । मात्र अपराध के समय एक साथ रहने से यदि व्यक्ति अचानक कोई घटना कर बैठे तो व्यक्ति को 34, 149 में दोषी नही ठहराया जा सकता । इसके लिए उसका पूर्व नियोजित होना आवश्यक है । 

        सामान्य उददेश्य का अभिनिर्धारण समूह की प्रकृति घटना स्थल पर ले जाये जाने वाले हथियार और उसके पूर्व व पश्चात के व्यवहार,सदस्यों के कृत्य, आचरण, सदस्यों द्वारा मौके पर गृहण आचरण के आधार पर अभिनिर्धारित किया जा सकता है । एक समूह जो प्रारंभ में विधिपूर्ण था बाद में अविधिपूर्ण हो सकता है और मौके पर भी सामान्य आशय तथा उददेश्य का गठन किया जा सकता है । 

        यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को मार डालने के सबंध में मस्तिष्को के मिलन बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

        अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार किये जाते है । लडाई के लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई अचानक होती है जिसके लिए दोनो पक्ष दोषी होते है 

        प्रतिपादित दिशा निर्देशो के अनुसार सामान्य उददेश्य पूर्व मिलन की अपेक्षा नहीं करता इसके लिए  जरूरी है कि 5 या 5 से अधिक सदस्य सामान्य उददेश्य बनाये और उस उददेश्य को हासिल करने उस समूह में स्वयं कृत्य करें यहां समूह का कृत्य ही सबको बराबर का उत्तरदायी बनाता है । 

        इसकी प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं होती है । इसे आरोपीगण के कृत्य, आचरण सुसंगत परिस्थितियों के आधार पर देखा जाता है । इसमें आरोपीगण के कृत्य पहंुचाई गई क्षतियां प्रयुक्त हथियार, कार्य की प्रकृति और आरोपीगण का आचरण मुख्य तथ्य है। इसके लिए समूह की प्रकृति, समूह के सदस्यों द्वारा ले जाए जाने वाले हथियार, घटना के समय अथवा घटना के नजदीक सदस्यों का व्यवहार देखा जाना चाहिए।

        यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को मार डालने के सबंध में मस्तिष्को के मिलन बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

.        अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार किये जाते है । लडाई के लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई अचानक होती है जिसके लिए दोनो पक्ष दोषी होते है ऐसा हो सकता है कि लडाई एक पक्ष प्रारंभ करे और दूसरा पक्ष उसको बढावा न दे तो लडाई के गंभीर परिणाम सामने नहीं आते हैं।

        अचानक लडाई के मामले में धारा-300 के भाग-4 के अंतर्गत हत्या की जगह आपराधिक मानव वध का अपराध प्रमाणित माना जाता है । महेश विरूद्ध एम.पी.राज्य ए.आई.आर. 1996 सु.को. 3315  गलीवेंकटयया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 ए.सी.सी. 370  मंे प्रतिपादित किया है कि भा.द.सं. की धारा-300 के स्पष्टीकरण 4 को लागू किये जाने के लिए आवश्यक है कि आरोपी यह साबित करे कि जो लडाई हुई है वह-

क-        पूर्व चिंतन के बिना,
ख-        अकस्मात लडाई में,
ग-        अपराधी द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त किये बिना या कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य किये             बिना और,
घ-        मारे गये व्यक्ति के साथ लडाई होनी चाहिए ।

        लडाई दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य आयुधो के साथ या बिना मुठ भेड होती हे यह संभव नहीं है कि इस बारे में कोई सामान्य नियम प्रतिपादित किया जाये कि अकस्मात झगडा किसको माना जाये । यह तथ्य का प्रश्न है और यह बात कि कोई झगडा अकस्मात हुआ या नहीं, आवश्यक रूप से प्रत्येक मामले के साबित तथ्यों पर निर्भर होगा ।

         अपवाद 4 को लागू करने के लिए यह दर्शित किया जाना पर्याप्त नहीं है कि अकस्मात झगडा हुआ था और उसके लिए पूर्व चिंतन नहीं किया गया था । यह भी दर्शित किया जाना चाहिए कि अपराधी ने अनुचित लाभ नहीं लिया या उसने कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य नहीं किया । अभिव्यक्ति अनुचित लाभ जैसा कि उपंबध में प्रयुक्त किया गया है का अर्थ है अऋजू लाभ। उपरोक्त सिद्धांत मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गलीवेंकटयया बनाम आंध्र प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 ए.सी.सी. 370  मंे प्रतिपादित किया है।

        इस मामले में मान्नीय न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया है कि दंड संहिता की धारा-300 का चैथा अपवाद अकस्मात हाथापाई में किये गये कार्यो को आच्छादित करता है । यह अपवाद इसी सिद्धांत पर आधारित है कि दोनो में ही पूर्वचिंतन का अभाव है ।

        जबकि अपवाद 1 के मामले में आत्म नियंत्रण का पूर्ण अभाव है और स्पष्टीकरण 4 के मामले में केवल आवेश की तीव्रता का उल्लेख है जो व्यक्तियों के सौम्य संतुलन को प्रभावित करती है और उनको उन कार्यो को करने के लिए प्रेरित करती है । जिन्हें वे अन्यथानहीं करेंगे । अपवाद 4 में प्रकोपन को उपबंधित किया गया है ।जैसा कि अपवाद 1 में है किन्तु कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष परिणाम नही है ।

        वास्तव में अपवाद 4 के अधीन ऐसे मामलो पर विचार किया गया है जिनमें इस बात के होते हुए भी कि प्रहार किया गया है या विवाद के उदगम में कुछ प्रकोपन दिया गया है या किसी भी रीति में झगडे से उत्पन्न हुआ है तथापि दोनो पक्षों का पश्चातवर्ती आचरण उनके अपराध के संबंध में समान आधार पर रख देता है । 

        अकस्मात लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार विवक्षित है । तब कारित मानववध स्पष्टतः एक पक्षीय प्रकोपन के अंतर्गत नहीं आता है और न ही ऐसे मामलो में सम्पूर्ण दोष किसी एक पक्ष पर डाला जा सकता है । ऐसा होता हो जो अपवाद अधिक उपयुक्त रूप से लागू होगा वह अपवाद 1 है । लडाई के लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या अवधारण नहीं होता है लडाई अचानक होती है जिसके लिए लगभग दोनो ही पक्ष दोषी होते हैं । 

        अचानक लडाई के मामले में जब परस्पर प्रकोपन का मामला हो यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि दोनो पक्षों में कौन ज्यादा जिम्मेदार है तो धारा 304 के अपवाद 4 में मामला माना जायेगा । 

        इसी प्रकार पूर्व चिंतन पूर्व रंजिश के अभाव में यदि क्षति पहंुचाई जाती है तो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त नहीं है और चिकित्सीय सहायता द्वारा अभियुक्त को बचाया जा सकता था तो यह कार्य आपराधिक मानव वध माना जायेगा ।      
     
      
                 

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta