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क्रूरता

                                          क्रूरता    

            अभिव्यक्ति  ’’कू्ररता’’ को किसी अधिनियम में परिभाषित नहीं किया है ।जब ेकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-13 के अंतर्गत विवाह विच्छेद का महत्वपूर्ण आधार है और धारा-498ए भा.द.सं. में इसे किसी स्त्री को उसके पति अथवा निकटतम संबंधियों द्वारा कू्ररता पूर्ण व्यवहार करने पर दण्डित किया गया है ।


        कू्ररता शारीरिक या मानसिक हो सकती है । क्रूरता जो विवाह विघटन हेतु एक आधार है, को ऐसी प्रकृति के स्वैच्छिक एंव अन्यायोचित आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकेगा जो जीवन, अंगत या स्वास्थ्य, शारीरिक या मानसिक को खतरा कारित करे या ऐसे खतरे की  युक्तियुक्त शंका को उत्पत्ति प्रदत्त करें । मानसिक कू्ररता के प्रश्न को, विशिष्ट समाज जिसमें पक्षकारगण संबद्ध हैं, के वैवाहिक बंधनों के आदर्शों, उनके सामाजिक गुणों, दर्जो, वातावरण जिसमें वे रहते हैं, के प्रकाश में विचारण किया जाना चाहिए । 

        क्रूरता में यथा उपर नोट किया गया, मानसिक क्रूरता सम्मिलित होती है जो वैवाहिक दोष के अधिकार-क्षेत्र के भीतर आती है ।कू्ररता शारीरिक होना आवश्यक नहीं है ।यदि उसके पति या पत्नी के आचरण से वह स्थापित की जाती है और/या कोई अनुमान वैधानिक रूप से निकाला जा सकता है कि पति या पत्नी का व्यवहार ऐसा है कि यह दूसरे पति या पत्नी के मस्तिष्क में, उसके मानसिक कल्याण के बारे में आशंका कारित करता है तो यह आचरण क्रूरता समझा जाता है।


        विवाह जैसे नाजुक मानव रिश्ते में, हमें अधिसंभाव्यताओं को देखना चाहिए । शंका की छाया से परे सबूत के सिद्धांत को आपराधिक परीक्षणों को लागू करना चाहिए और सिविल मामलो में नहीं और निश्चित रूप से पति और पत्नी के ऐसे नाजुक संबंध वाले मामलों में नहीं लागू करना चाहिए । 


        इसलिए हमे देखना चाहिए कि प्रकरण में क्या अधिसंभाव्यताएं हैं और विधिक कू्ररता का पता न केवल तथ्य के मामले के रूप में लगाया जाना चाहिए बल्कि फरियादी पति या पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव के रूप में, दूसरे के कृत्यांे या कारित करने के कारण से । 


        क्रूरता भौतिक या शारीरिक या मानसिक हो सकेगी । भौतिक कू्ररता में दृश्यमान और प्रत्येक साक्ष्य होती है, परंतु, मानसिक कू्ररता में कभी-कभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगी । ऐसे प्रकरण मे जहां, कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं होती है तो न्यायालयों से घटनों की मानसिक प्रक्रिया और मानसिक प्रभाव की जांच करने की उपेक्षा की जाती है जिनको साक्ष्य में लाया जाता है । यह इस रूप में है कि हमे वैवाहिक विवादों में साक्ष्य का विचारण करना चाहिए । 


        अभिव्यक्ति ’’कू्ररता’’ को मानव आचरण या मानव व्यवहार के संबंध में प्रयुक्त किया गया है । यह वैवाहिक कर्तव्यांे और उत्तरदायित्वों के संबंध में या के बारे में आचरण है । कू्ररता कोई अनुक्रम या आचरण है जो दूसरे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता मानसिक या शारीरिक, स्वैच्छिक या अस्वैच्छिक हो सकेगी । यदि यह शारीरिक है तो इसका विनिश्चय करने मे न्यायालय को कोई कठिनाई नहीं होगी । यह तथ्य और माप का प्रश्न है । यदि यह मानसिक है तो कठिनाई होती है ।


        प्रथम कू्रर व्यवहार की प्रकृति के बारे में जांच प्रारंभ की जानी चाहिए, द्वितीय ऐसे व्यवहार का पति या पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव, चाहे इससे युक्तियुक्त आशंका कारित हुई थी कि यह दूसरे के साथ रहने के लिए नुकसानदायक या क्षतिकारक होगी । आत्यंतिक रूप से यह फरियादी पति या पत्नी पर आचरण की प्रकृति और इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए निकाला जाने वाला अनुमान का एक मामला है परन्तु ऐसा मामला हो सकेगा जहां शिकायत किया गया आचरण स्वयंमेव ही अत्यधिक बुरा और स्वतः अवैध या अविधिक है । तब दूसरे पति या पत्नी पर प्रभाव या क्षतिकारक प्रभाव की जांच या विचारण करने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता स्थापित होगी यदि आचरण स्वयंमेव साबित हो जाता है या स्वीकार किया जाता है । 


        कू्ररता घटित करने के लिए शिकायत किया गया आचरण ’’घोर और वजनदार’’ होना चाहिए ताकि इस निष्कर्ष पर पहंुचे कि याचिकाकर्ता पति या पत्नी से दूसरे पति या पत्नी के साथ युक्तियुक्त रूप से रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । इसको ’’ वैवाहिक जीवक की सामान्य टूट-फूट’’ से और अधिक गंभीर होनी चाहिए ।


        आचरण की जांच परिस्थितियों और पृष्ठभूमि को विचारण में लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहंुचने के लिए जांच की जानी चाहिए, क्या शिकायत किया गया आचरण वैवाहिक विधि में कू्ररता समझा जाता है। आचरण का, यथा उपर नोट किया गया, विभिन्न कारकों की पृष्ठभूमि में विचारण किया जाना चाहिए, जैसे, पक्षकारगण की सामाजिक हैसियत, उनकी शिक्षा, शारीरिक और मानसिक दशाएं , रीति और रिवाज, परिस्थितियां, जो कू्ररता घटित करेंगी, की यथार्थ परिभाषा प्रतिपादित करना या परिपूर्ण विवरण देना कठिन है ।

        यह इस प्रकार की आवश्यक होनी चाहिए कि न्यायालय की अंतरात्मा का समाधान कर सके कि पक्षकारगण के मध्य संबंध, दूसरे पति या पत्नी के आचरण के कारण इस सीमा तक खराब हो चुके थे कि विवाह-विच्छेद अभिप्राप्त करने के लिए शिकायतकर्ता पति या पत्नी को हकदार करने के लिए मानसिक वेदना, प्रताडना या दुःख के बिना उनके लिए एक साथ रहना असंभव होगा । कृप्या देखें-शोभरानी बनाम मधुकर रेडडी ए.आई.आर. 1988, सुप्रीम कोर्ट 121.

        कू्ररता गठित करने के लिए शारीरिक हिंसा आत्यंतिक रूप से अनावश्यक नहीं हैं और अमान्यनीय मानसिक वेदना और प्रताडना कारित करते हुए आचरण का सतत अनुक्रम अधिनियम की धारा-10 के आशय के भीतर कू्ररता को सुगठित कर सकेगी । मानसिक कू्ररता दूसरे व्यक्ति की मानसिक शांति की सतत बाधा में परिणित होते हुए भददी और गंदी भाषा का प्रयोग करने के द्वारा मौखिक गालियों और अपमानों से गठित हो सकेगी ।
       
        क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए याचिका को व्यवहृत करने वाली न्यायालय को ध्यान में रखना चाहिए कि इसके समक्ष समस्याएं मनुष्यों की हैं और विवाह-विच्छेद की याचिका का निपान करने क पूर्व पति या पत्नी के आचरण में मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को ध्यान में रखना चाहिए । चाहे कितना ही अमरत्वपूर्ण या तुच्छ हो, ऐसाआचरण दूसरे के मस्तिष्क में दर्द कारित कर सकेगा । परन्तु ऐसे आचरण को कू्ररता कह सकने के पूर्व, इसे गम्भीरता की कुछ सीमा को अवश्य छूना चाहिए । गंभीरता का माप करना न्यायालय पर निर्भर करता है ।

        यह देखा जाना चाहिए क्या आचरण ऐसा था कि कोई भी युक्तियुक्त व्यक्ति इसको सहन नहीं करेगा । यह विचारण किया जाना चाहिए कि क्या परिवादी से सामान्य मानव जीवन के एक भाग के रूप में वहन करने की अर्ज की जानी चाहिए । 

        प्रत्येक वैवाहिक आचरण, जो दूसरे को क्षोभ कारित कर सकेगा, को कू्ररता नही समझा जा सकेगा । पतियों या पत्नीयों के बीच मात्र तुच्छ नोंक-झोंक, झगडे जो दिन प्रतिदिन के वैवाहिक जीवन मे ंघटित होते हैं, को भी कू्ररता नहीं समझा जा सकेगा । वैवाहिक जीवन में कू्ररता अनाधारित प्रकार की हो सकेगी । जो नाजुक या बर्बर हो सकती है । यह शब्द, संकेत या मात्र चुप्पी, हिंसा या अहिंसा हो सकेगी ।


        मजबूत विवाह की आधारशीला, सहनशीलता, समायोजन और एक दूसरे के प्रति आदर हैे । कुछ सहन करने की सीमा तक एक-दूसरे की त्रुटि के प्रति आदर है । कुछ सहन करने की सीमा तक एक-दूसरे की त्रुटि के प्रति सहनशीलता प्रत्येक विवाह में अंतर्निहित होनी चाहिए । छोटी-छोटी नोंक-झोंक, तुच्छ भिन्नताओं को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए और जो स्वर्ग में बनाया गया होना कहा गया है, को नष्ट करने के लिए फैलाना नहीं चाहिए ।

        सभी झगडों को प्रत्येक विशिष्ट प्रकरण में जो कू्ररता गठित करते हैं, को विनिश्चित करने में उस दृष्टिकोण से मापा जाना चाहिए और यथा उपर नोट किया गया । पक्षकारगण की शारीरिक व मानसिक दशाओं, उनका चरित्र और सामाजिक दर्जा को सदा ही ध्यान में रखते हुए मापा जाना चाहिए ।

        ेअत्यधिक तकनीकी और अत्यधिक संवेदनशील दृष्टिकोण विवाह के संस्थान पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा । न्यायालयों को आदर्श पतियों और आदर्श पत्नियों को व्यवहन नहीं करना चाहिए । इनको इनके समक्ष विशिष्अ पुरूष और स्त्री को व्यवहन करना है । आदर्श युगल या मात्र आदर्श युगल को संभवतः वैवाहिक न्यायालय के पास जाने का अवसर नहीं मिलेगा ।कृप्या देखें- दास्ताने बनाम दास्ताने ए.आई.आर. 1975 सुप्रीम कोर्ट 1534.

         क्रूरता के संबध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली 2006 भाग-4 एस.सी.सी. 558 में मानसिक कू्ररता की संकल्पना के विकास और उद्गम की जांच की थी कि विवाह-विच्छेद की अर्जी मुख्य रूप से कू्ररता के आधार पर फाइल की गई थी । यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद का दावा करने के लिए कू्ररता का आधार नहीं था। यह केवल अधिनियम की धारा-10 के अधीन संशोधन द्वारा कू्ररता को विवाह-विच्छेद का एक आधार बनाया गया था और वेशब्द जो धारा-10 से लोप किए गए इस प्रकार हैं ’’जिससे याची के मस्तिष्क मे युक्तियुक्त आशंका कारित हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना याची के लिए नुकसानदेह या हानिकर होगा’’ । इसलिए, विवाह- विच्छेद का दावा करने वाले पक्षकार के लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकृति का है जिससे यह आशंका- युक्तियुक्त आशंका हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना उसके लिए नुकसान देह या हानिकर होगा ।’’

        शोभा रानी बनाम मधुकर रेडडी 1988 भाग-1 एस.सी.सी. 105 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  मत व्यक्त किया गया है ’’ कू्ररता शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में परिभाषित नहीं किया गया है ं इसका प्रयोग अधिनियम की धारा-’13-1-1क  में वैवाहिक कर्तव्यों या दायित्वों की बावत या सबंधित मानवीय आचरण या व्यवहार के संदर्भ में किया गया है । यह ऐसा आचारण है जो अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता, मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय हो सकती है । यदि यह शारीरिक है तो यह तथ्य और कोटि का प्रश्न है । 

        यदि यह मानसिक है तो जांच कू्रर बर्ताव की प्रकृति और तत्पश्चात ऐसे बर्ताव का दम्पत्ति पर प्रभाव के संबंध से आरंभ होनी चाहिए । क्या यह युक्तियुक्त आशंका पैदा करती है कि इसके कारण दूसरे पक्षकार के साथ रहना नुकसानदेह या हानिकर होगा, अंततः शिकायत करने वाले पति/पत्नी पर इसके प्रभाव और आचरण की प्रकृति पर ध्यान देते हुए मामले का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । 


        तथापि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण अत्यंत बुरा और स्वतः विधिविरूद्ध या अवैध है । तब दूसरे पक्षकार पर इसके प्रभाव या हानिकर प्रभाव की जांच या विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता तभी सिद्ध हो जाएगी यदि आचरण स्वतः साबित या स्वीकृत है । 

        आशय का अभाव मामले में कोई अंतर पैदा नहीं करता यदि मानवीय क्रियाकलाप के मामूली अर्थ में शिकायत किया गया कार्य, अन्यथा कू्ररता माना जाता है । क्रूरता में आशय आवश्यक घटक नहीं है । पक्षकार को अनुतोष इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि जानबूझकर या सोच-समझकर कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया है ।

        वी. भगत बनाम डी. भगत 1994 भाग-1 एस.सी.सी.337 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  मत व्यक्त किया गया है ’’धारा-13-1-1क में मानसिक कू्ररता को मौटे तौर पर ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता जिससे अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा और यातना पहुंचे कि उस पक्षकार के लिए अन्य पक्षकार के साथ रहना संभव न हो । दूसरे शब्दो मे मानसिक कू्ररता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि पक्षकारो से युक्तियुक्त रूप से यह प्रत्याशा न की जा सके कि वे साथ-साथ रह सकें । ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि उस पक्षकार से जिसके साथ दुव्र्यवहार किया गया है । 

        युक्तियुक्त रूप से यह न कहा जा सके कि वह दूसरे पक्षकार के ऐस आचरण को सहन कर ले और उसके साथ जीवन बिताए । यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे आवेदक के स्वास्थ्य को क्षति कारित ही हो । ऐसे निष्कर्ष निकालते समय, पक्षकारांे की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज जिसमें वे रहते हैं, 

पक्षकारेा की यदि वे पहले से ही अलग रह रहे हैं साथ रहने की संभावना या असंभावना और अन्य ऐसे सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनका सम्पूर्ण रूप से उल्लेख करना न तो संभव है और न ही वांछनीय । 

        एक मामले में जो कार्य कू्ररता है वही कार्य दूसरे मामले मे कू्ररता की कोटि में नहीं भी आ सकता । यह ऐसा विषय है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनिश्चय किया जाना चाहिए । यदि यह अभियोगों और अभिकथनों का मामला है तब उस संदर्भ पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें वे किए गए थे ।’’    
   
             इस प्रकार कू्ररता के सबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जो मत ’एन.जी.दास्तने बनाम एस.दास्तने 1975 भाग-2 एस.सी.सी. 326 में व्यक्त किया गया है कि’’इस सबंध में जांच की जानी चाहिए कि क्या कू्ररता के रूप मंे आरोपित आचरण ऐसी प्रकृति का है जिससे याची के चित्त में यह युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि उसका प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकर या क्षतिपूर्ण होगा।’ यह महत्वपूर्ण है ।   
                                                                         (उमेश कुमार गुप्ता)

                            1.        नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली 2006 भाग-4 एस.सी.सी. 558 में  माननीय उच्च्तम न्यायालय द्वारा मानसिक कू्ररता की संकल्पना के विकास और उद्गम की जांच की थी कि विवाह-विच्छेद की अर्जी मुख्य रूप से कू्ररता के आधार पर फाइल की गई थी । यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद का दावा करने के लिए कू्ररता का आधार नहीं था। यह केवल अधिनियम की धारा-10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण का दावा करने के लिए ही आधार था । 1976 के संशोधन द्वारा कू्ररता को विवाह-विच्छेद का एक आधार बनाया गया था और वे शब्द जो धारा-10 से लोप किए गए इस प्रकार हैं ’’जिससे याची के मस्तिष्क मे युक्तियुक्त आशंका कारित हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना याची के लिए नुकसानदेह या हानिकर होगा’’ । इसलिए, विवाह- विच्छेद का दावा करने वाले पक्षकार के लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकृति का है जिससे यह आशंका- युक्तियुक्त आशंका हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना उसके लिए नुकसान देह या हानिकर होगा ।’’

2.        एन.जी.दास्तने बनाम एस.दास्तने 1975 भाग-2 एस.सी.सी. 326
में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’इस सबंध में जांच की जानी चाहिए कि क्या कू्ररता के रूप मंे आरोपित आचरण ऐसी प्रकृति का है जिससे याची के चित्त में यह युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि उसका प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकर या क्षतिपूर्ण होगा।’’    


3.        शाभा रानी बनाम मधुकर रेडडी 1988 भाग-1 एस.सी.सी. 105 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’ कू्ररता शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में परिभाषित नहीं किया गया है ं इसका प्रयोग अधिनियम की धारा-’13-1-1क  में वैवाहिक कर्तव्यों या दायित्वों की बावत या सबंधित मानवीय आचरण या व्यवहार के संदर्भ में किया गया है । यह ऐसा आचारण है जो अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता, मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय हो सकती है । यदि यह शारीरिक है तो यह तथ्य और कोटि का प्रश्न है । यदि यह मानसिक है तो जांच कू्रर बर्ताव की प्रकृति और तत्पश्चात ऐसे बर्ताव का दम्पत्ति पर प्रभाव के संबंध से आरंभ होनी चाहिए । क्या यह युक्तियुक्त आशंका पैदा करती है कि इसके कारण दूसरे पक्षकार के साथ रहना नुकसानदेह या हानिकर होगा, अंततः शिकायत करने वाले पति/पत्नी पर इसके प्रभाव और आचरण की प्रकृति पर ध्यान देते हुए मामले का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । तथापि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण अत्यंत बुरा और स्वतः विधिविरूद्ध या अवैध है । तब दूसरे पक्षकार पर इसके प्रभाव या हानिकर प्रभाव की जांच या विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता तभी सिद्ध हो जाएगी यदि आचरण स्वतः साबित या स्वीकृत है । आशय का अभाव मामले में कोई अंतर पैदा नहीं करता यदि मानवीय क्रियाकलाप के मामूली अर्थ में शिकायत किया गया कार्य, अन्यथा कू्ररता माना जाता है । क्रूरता में आशय आवश्यक घटक नहीं है । पक्षकार को अनुतोष इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि जानबूझकर या सोच-समझकर कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया है ।

4.        वी. भगत बनाम डी. भगत 1994 भाग-1 एस.सी.सी.337 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’धारा-13-1-1क में मानसिक कू्ररता को मौटे तौर पर ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता जिससे अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा और यातना पहुंचे कि उस पक्षकार के लिए अन्य पक्षकार के साथ रहना संभव न हो । दूसरे शब्दो मे मानसिक कू्ररता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि पक्षकारो से युक्तियुक्त रूप से यह प्रत्याशा न की जा सके कि वे साथ-  साथ रह सकें ।ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि उस पक्षकार से जिसके साथ दुव्र्यवहार किया गया है । युक्तियुक्त रूप से यह न कहा जा सके कि वह दूसरे पक्षकार के ऐस आचरण को सहन कर ले और उसके साथ जीवन बिताए । यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे आवेदक के स्वास्थ्य को क्षति कारित ही हो । ऐसे निष्कर्ष निकालते समय, पक्षकारांे की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज जिसमें वे रहते हैं, पक्षकारेा की यदि वे पहले से ही अलग रह रहे हैं साथ रहने की संभावना या असंभावना और अन्य ऐसे सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनका सम्पूर्ण रूप से उल्लेख करना न तो संभव है और न ही वांछनीय । एक मामले में जो कार्य कू्ररता है वही कार्य दूसरे मामले मे कू्ररता की कोटि में नहीं भी आ सकता । यह ऐसा विषय है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनिश्चय किया जाना चाहिए । यदि यह अभियोगों और अभिकथनों का मामला है तब उस संदर्भ पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें वे किए गए थे ।’’

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta