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द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता के संबंध में विधिक स्थिति

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता के संबंध में विधिक स्थिति , जहा धारा-35 भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 के तहत प्राथमिक साक्ष्य (मूल दस्तावेज) अग्राह्य पाया जावे:-
                                        
                                                         भारतीय स्टाम्प अधिनियम एक वित्तीय अधिनियम है जो कुछ दस्तावेजांे पर राज्य शासन के राजस्व को सुरक्षित करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया। यह इस उद्देश्य से नहीं बनाया गया है कि किसी पक्षकार को एक हथियार प्रदान कर दिया जावे जिससे कि वह यांत्रिकीय आधार पर विपक्षी के केस को मिटा सके।

                                        मूलतः यह प्रावधान राजस्व के हित में सृजित किया गया। एक बार जब इस प्रावधान का उद्देश्य कानून के द्वारा स्थापित कर दियागया है तो वह पक्षकार जो किसी दस्तावेज के आधार पर दावा करता है। केवल उस दस्तावेज की प्रारंभिक त्रुटियों के कारण विफल नहीं किया जावेगा। 

        द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता की विधिक स्थिति पर विचार करने के पूर्व उपरोक्त सिद्धांत को मस्तिष्क में रखना आवश्यक है।

                              शीर्षस्थ न्यायालय ने हाल में ही डा0 चिरंजित लाल वि0 हरिदास -2005  (10) एस0सी0सी0 746के प्रकरण में यह कहा है कि किसी दस्तावेज की साक्ष्य मंे ग्राह्यता पर विचार करने के दौरान उस विचार को दृढ़ता के साथ द्वितीयक कानून के आलोक में यथा धारा-35 इंडियन स्टांप के आलोक में विवेचित करना चाहिए।

        धारा-35 कहती है, कि कोई दस्तावेज जिस पर स्टांप ड्यूटी देय है और उचित रूप से स्टांपित नहीं है, उसे साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया जा सकता और कानून  के  द्वारा या उभय पक्षों की सहमति के द्वारा भी वह ग्राह्य नहीं होता। मूलतः यह कहा जा सकता है, कि धारा-35 के प्रावधान किसी प्रकार के द्वितीयक साक्ष्य को नहीं पहचानता है और यह तथ्य उसके लिये अंजान है। 

        धारा-35 इंडियन स्टांप एक्ट 1899 के अनुसार वैसे दस्तावेज जिनके लिये स्टांपित होना आवश्यक है और वे स्टांपित नहीं है या पर्याप्त रूप से स्टांपित नहीं है, उन्हंे साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया जायेगा।

 सिवाय की वह दस्तावेज रशीद विनिमय पत्र और वचन पत्र नहीं है

 उपरोक्त तीन दस्तावेजों को छोड़कर अन्य कोई भी दस्तावेज यदि पर्याप्त रूप से स्टांपित नहीं पाया जाता है तो वह साक्ष्य में तभी ग्राह्य होगा जबकि स्टांप ड्यूटी की कमी  को अदा कर दिया जाए और दस्तावेज को अभिप्रमाणित कर दिया जाए। 

        गंगा बिसन वि0 तुकाराम 1909 एन0एल0जे0 70 के प्रकरण में नागपुर उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया था कि किसी भी दशा में प्राथमिक साक्ष्य के स्थान पर द्वितीयक साक्ष्य को प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है। तात्पर्य यह है, कि यदि प्राथमिक साक्ष्य ग्राह्य नहीं हुई तो किसी भी दशा में द्वितीयक साक्ष्य नहीं दिया जा सकता।

        इसी प्रकार सेवा वि0 तुका 1951 ए0आई0आर0 (राज) 66 वाले प्रकरण मंे राजस्थान हाईकोर्ट ने निर्धारित किया कि वे अस्टांपित होने के कारण अथवा अपर्याप्त रूप से स्टांपित होने के कारण यदि कोई प्राथमिक दस्तावेज साक्ष्य में अग्राह्य हो तो उसका द्वितीयक दस्तावेज या साक्ष्य भी अग्राह्य होगा।

 जैसा कि उपर कहा जा चुका है सर्वाेच्च न्यायालय ने भी स्टेट आफ बिहार वि0 करमचंद और ब्रदर्स लिमिटेड 1962 ए0आई0आर0 (एस0सी0) 110 वाले प्रकरण में निर्धारित किया कि दस्तावेजों को अभिप्रमाणिक प्राथमिक दस्तावेज पर किया जाता है और इस हेतु द्वितीयक दस्तावेज को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है और जब प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता तो साक्ष्य में उसके ग्राह्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता है,

 इसी तथ्य को सुग्रीव प्रसाद दुबे वि. सीताराम दुबे 2004 (1) एम0पी0एच0टी0 488 मंे  उच्च न्यायालय ने भी पुष्ट किया है और कहा है, कि यदि कोई मूल दस्तावेज अस्टांपित या अपर्याप्त रूप से स्टांपित होने के कारण साक्ष्य में अग्राह्य हो तो उसका द्वितीयक साक्ष्य यथा उसके फोटोकाॅपी भी साक्ष्य में अग्राह्य हांेगे। 

        जे0के0राव वि0 पी0बी0 सुब्बाराव  1971 ए0आई0आर0 (एस0सी0)1070 इस बिन्दु पर एक महत्वपूर्ण फैसला है जिसमें अवधारित सिद्धांत सुग्रीव प्रसाद वाले केस में भी माना गया था। इस केस में सर्वाेच्च न्यायालय में अवधारित किया है, कि अस्टांपित या अपर्याप्त रूप से स्टांपित दस्तावेज साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होते हैं और उन दस्तावेजों की काॅपियाॅ या द्वितीयक साक्ष्य भी साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होती  (पैरा 13 और 14)

 पंजाब उच्च न्यायालय ने करतारसिंह वि0 मोहिन्दरसिंह 1971 ए0आई0आर0 (पंजाब) 458 वाले प्रकरण में अवधारित किया कि यदि प्राथमिक दस्तावेज स्टांप ड्यूटी की कमी और साक्षी की अदायगी के बाद अभिप्रमाणित कर दिया गया हो और उसके बाद वह खो जाए तो ऐसी दशा में उसका द्वितीयक साक्ष्य नहीं किया जा सकता और यदि दिया भी जाता है तो वह साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा। 


पंजाब उच्च न्यायालय का यह निर्णय वैसे द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता को प्रतिबंधित करता है जिसका मूल दस्तावेज अभिप्रमाणित किया गया हो और बाद में खो गया हो। इसी न्याय दृष्टांत में यह भी कहा गया है, कि:-

यदि पहले वाले केस में द्वितीयक साक्ष्य अस्टांपित होने के कारण साक्ष्य में अग्राह्य पाया जाए तो बाद वाले प्रकरण में भी वे अग्राह्य ही होंगे।

 पूर्व में ही रामरतिन वि0 परमानंद 1946 ए0आई0आर0 (पी0सी0) 51 वाले प्रकरण में यह कहा गया है, कि संपाश्र्वनिक प्रयोजनों के लिये भी अस्टांपित दस्तावेज ग्राह्य नहीं हो सकते हैं

 और फर्म चुन्नीलाल, टुक्कीलाल वि0 फर्म मुकटलाल, रामचरण 1968 ए0आई0आर0 (ईलाहा.) 64 वाले प्रकरण में यह कहा गया है, कि उपर वाली दशा में पक्षकारों के हस्ताक्षर भी प्रमाणित नहीं किए जा सकते हैं। 

        उपरोक्त विवेचन के आलोक में एवं जे0के0 राव वि0 पी0वी0 सुब्बाराव और अन्य वाले न्याय दृष्टांत के आधार पर जो अपने उच्च न्यायालय द्वारा भी सुग्रीव प्रसाद वाले केस में पुष्ट किया गया है। यह बिल्कुल स्पष्ट है, कि यदि किसी कारण  से प्राथमिक साक्ष्य अग्राह्य होगा तो उसी का द्वितीयक साक्ष्य नहीं दिया जा सकता है और किसी भी दशा में साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा।

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta