धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ

  धारा-306 और 107 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित   विधिक प्रतिपादनाऐ                            
                                                                       दुष्प्रेरण
                                भा0दं0सं0 की ़धारा-107 दुष्प्रेरण से संबंधित है । जिसके अनुसार कोई व्यक्ति किसी बात के लिये  दुष्प्रेरण करता है । 

पहला-    उस काम को करने के लिय किसी व्यक्ति को उकसाता है या
दूसरा-    उस बात को करने के लिये किसी षडयंत्र में एक या अधिक अन्य व्यक्ति या व्यक्तियों         के साथ सम्मिलित होता है । यदि उस षडयंत्र के अनुसरण में और उस बात को  करने के उददेश्य से कोई कार्य    या अवैध लोप घटित हो जाये या
तीसरा-    उस बात के लिये किये जाने में किसी कार्य या अवैध लोप व्दारा साश्य सहायता   करता है ।


                                              मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा 2010 भाग 4 मनीसा पेज एक एस0एस0 चीना विरूद्ध विजय कुमार महाजन एंव अन्य में अभिनिर्धारित किया है कि दुष्प्रेरण किसी व्यक्ति को उकसाने की मानसिक प्रक्रिया या एक व्यक्ति को कोई चीज करने के लिये आशयित करने हेतु अन्तर्वलित करता है । अभियुक्त व्दारा बिना उकसाने या आत्म हत्या करने में सहायता के व्दारा कोई  सकारात्मक कार्य किये । विधान का आशय और इस न्यायालय व्दारा विनिश्चित प्रकरणों का अनुपात स्पष्ट है कि धारा 306 के तहत एक व्यक्ति को दोषसिद्ध करने के अनुसरण में अपराध कारित करने की स्पष्ट आपराधिक मन स्थिति होना चाहिये। 



.                       यह एक सजीव कार्य या प्रत्यक्ष कार्य भी आवश्यक करता है , जो मृतक को आत्म हत्या करने के अलावा  कोई अन्य विकल्प  नहीं देखते हुये प्रस्तुत करता है और कार्य मृतक को ऐसी स्थिति  में ढकेलने  के लिये आशयित होना चाहिये कि वह आत्म हत्या कारित करें ।
                   यदि मृतक निःसंदेह रूप से सामान्य चिडचिडेपन मनमुटाव और मतभेदों से अति संवेदनशील था जो हमारे दिन प्रतिदिन के जीवन में होते हैं । प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय संवेदना  एक दूसरे से अलग होती है । भिन्न भिन्न लोग समान स्थिति में भिन्न भिन्न रूप से व्यवहार करते हैं ।तब हमे सावधानी से कार्य करना चाहिए 



                                                                                                   रमेश कुमार विरूद्ध छत्तीसगढ़ राज्य 2001 भाग-9 एस.एस.सी. 618 न्यायालय ने उकसाहट को परिभाषित करते हुए स्पष्ट किया है कि उकसाहट किसी कार्य को करने के लिये उत्तेजित करने, भड़काने या उत्साहित करने हेतु अंकुश होता है । उकसाहट की अपेक्षाओं को संतुष्ट करने के लिये यद्यपि यह आवश्क नहीं है कि मूल शब्द इस निमित उपयोग होना चाहिये या जो उकसाहट गठित करते है । आवश्यक रूप से और विनिर्दिष्टता पूर्वक परिणाम को सुझााते हो फिर भी भडकाने की निश्चित युक्ति युक्त परिणाम को अर्थान्वयत  किया जाना चाहिये 


                                             पश्चिम बंगाल राज्य विरूद्ध होरीलाल जायसवाल-1994 भाग  1   एस0एस0सी0-73 में उच्चतम न्यायालय ने चेतावनी दी कि न्यायालय को प्रत्येक प्रकरण के तथ्य एंव परिस्थितिया निर्धारित करने में स्पष्टतः सावधान करना चाहिये और परीक्षण में निष्कर्ष के प्रयोजन हेतु प्रस्तुत साक्ष्य में क्या पीडित इतनी कूररता की शिकार थी, वस्तुतः उसको आत्म हत्या कारित करने के व्दारा जीवन का अंत करने के लिये प्रेरित किया गया । 


                                                          यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि पीडित ने आत्महत्या  अत्यधिक संवेदनशील सामान्य चिडचिडेपन, मनमुटाव और घरेलू जीवन में मत भेदो से कारित की थी ओर ऐसा चिडचिडापन, मनमुटाव और मतभेद सामान्यतः आत्महत्या कारित करने के लिये समाज में व्यक्ति को उकसाने हेतु अपेक्षित नहीं थे । न्यायालय का विवेक इस निष्कर्ष पर आधारित होने के लिये संतुष्ट नहीं होना चाहिये कि दुष्प्रेरण के आरोप का अभियुक्त आत्म हत्या के आरोप का दोषी होना पाया जाना चाहिये ।


                                                   उच्चतम न्यायालय के द्वारा चित्रेश कुमार चैपडा बनाम दिल्ली राज्य 2009 भाग-16 एस0एस0सी 605 में दुष्प्रेरण पर विचार किया है। न्यायालय ने ‘‘उकसाहट‘‘ और ‘‘प्रेरित‘‘ करना ‘‘ शब्दो के डिकशनरी अर्थ को व्यवहत किया। न्यायालय ने अभिमत दिया कि कोई आश्य पत्र व्दारा किसी कार्य को करने के लिये उकसाने, भडकाने या उत्साहित करने के लिये नहीं होना चाहिये। प्रत्येक व्यक्ति के आत्म हत्या करने की विधि एक दूसरे से अलग अलग होती है। प्रत्येक व्यक्ति के पास उसकी स्वंय का स्व-आदर और स्व-प्रतिष्ठा की योजना होती है । इसलिये ऐसे प्रकरणो को व्यवहत करने के लिये कोई निश्चित सूत्र  प्रतिपादित करना असंभव है । प्रत्येक प्रकरण उसके स्वय के तथ्यों एव परिस्थितियों के आधार पर विनिश्चित होना चाहिये ।
       




       
                             विधि के सुस्थापित सिंद्धात के अनुसार भा0दं0वि0 की धारा 306 के आरोप में दंडित किये जाने के लिये दो तत्व आवश्यक है:-


    1-     यह कि एक व्यक्ति व्दारा आत्महत्या कारित करने के लिये उकसाना  या  प्रताडित  किये जाने के फलस्वरूव आत्म हत्या की गई है ।


    2-     यह कि आरोपी ने उसे आत्म हत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया।


                                                             भा0दं0वि की धारा-107 और 306 का एक साथ पठन करने  पर यह स्पष्ट होता हे कि यदि कोई व्यक्ति अन्य किसी व्यक्ति को आत्महत्या करने  को उकसाता है और ऐसे उकसाने के परिणाम स्वरूव दूसरा व्यक्ति आत्म हत्या करता है तो उकसाने वाला व्यक्ति धारा 306 भा0दं0वि0 के अंतर्गत उकसाने हेतु उत्तरदायी होता है । 
  
                                              इसके लिये आवश्यक है कि आत्म हत्या करने वाले की मनोस्थिति एंव मरने वाले के लिये आत्म हत्या करने  के अलावा ओर कोई रास्ता नही बचा है । विधि के सुस्थापित सिद्धांत अनुसार क्र्रोध ,भावनावश जल्दबाजी में उठाये गये  कदम दुष्प्रेरण की श्रेणी में नहीं आते है ।


                                           अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य, ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070 वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने मत व्यक्त किया है किः-इस न्यायालय ने सतत् यह दृष्टिकोण अपनाया है कि किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति सावधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं बचा था।

                                                      यह बात भी ध्यान में रखनी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।   घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है। 


                                        रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य ,2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097 - 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्ल्यू 5832 किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्या करने के लिये दुष्प्रेरित किया था, द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये । इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है । ‘‘

         मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया है जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पैरा 12 और 13 इस प्रकार है:-


                               ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानबूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती है । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है, ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में वर्णित किया जा सके ।

                                                                 पश्चिमी बंगाल राजय बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73- ए.आई.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.ला जनरल 2104 वाले  मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह मत व्यक्त किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था । प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये।

                                                    यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अतिसंवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात है जिसमें विपदग्रस्त रहता है और ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोप से अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘


                                                                मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये। घटना घटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,का अभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है ।   
     
                                                      इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तक घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की ओर से किया गया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है । जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्या करने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्धि कायम रखने योग्य नहीं है । 


                                                          उमेश कुमार गुप्ता

ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008


                                ग्राम न्यायालय
                                     भारत 120 करोड़ वाला देश है जहां पर अधिकांश आबादी गांव में रहकर अपना जीवनयापन करती है अशिक्षित, परम्परावादी, रूढीवादी होने के कारण इनमें आपस में विवाद होते रहते हैं प्राचीन परम्पराओं के चलते गांव के मामले गांव में निपट जाते थे गॉव में पंचायत व्यवस्था थी पंच को परमेश्वर मानकर विवादो का निपटारा हो जाता था पंच भी जुम्मन शेख और अलगू चौधरी के बीच में हिन्दु,मुस्लिम, सिख, इसाई का अंतर रखते हुए जाति, धर्म, भाषा का भेदभाव भुलाकर न्यायोचित फैसला देते थे

                                  लेकिन गांव शहर से दूर होने के कारण वह न्याया प्राप्त करने से वंचित रह जाते थे इस कारण न्याय तक आम व्यक्ति की पहंुच सरल बनाये जाने हेतु एंव साधारण जनस्तर पर सामान्य व्यक्ति को त्वरित, सस्ता और सारवान न्याय उपलब्ध कराये जाने हेतु भारत के विधि आयोग ने ग्राम न्यायालय की स्थापना के संबंध में अपनी 114वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी


 
                               सरकार ने विधि आयोग की उक्त सिफारिशों को प्रभावी करने के लिए, 15 मई-2007 को राज्य सभा में ग्राम न्यायालय विधेयक 2007 पुरःस्थापित किया था। उक्त विधेयक कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय मंत्रालय से संबंधित विभाग संबंधी संसदीय स्थायी समिति को निर्दिष्ट किया गया था उक्त स्थायी समिति द्वारा की गई सिफारिशें सारवान् प्रकृति की होने के कारण सरकार ने उसकी अधिकांश सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है

                        इसके अलावा सरकार ने 1 जनवरी 2008 को राज्य के विधि मंत्रियों, विधि सचिवों और उच्च न्यायालयों के महारजिस्ट्र्ारों का एक सम्मेलन भी, उक्त विधेयक के विभिन्न उपबंधों पर उनके विचार जानने के लिए आयोजित किया था विधि आयोग की सिफारिश और विचार विमर्श के बाद यह विधेयक प्रस्तुत किया गया है
                                                 जो ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के रूप में पारित हुआ अधिनियम के अंतर्गत राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद अधिसूचना द्वारा किसी जिले में माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक पंचायत या पंचायतो के समूह या ग्राम पंचायतो के समूह के लिये एक ग्राम न्यायालय स्थापित करेगी जिसका मुख्यालय उस पंचायत में स्थित होगा प्रत्येक न्यायालय के लिये न्याय अधिकारी के रूप में प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी को नियुक्त किया जावेगा जिसमें अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति स़्त्री तथा अन्य वर्ग के समुदाय के सदस्यों को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया जावेगा

 
उद्देश्य-
01. इस विधेयक का मुख्य उद्देश्य को निर्धन को उनके घरों के नजदीक न्याय प्रदान करना और उस स्थान तक पहुंचकर ग्रामीण क्षेत्रों की जनता को त्वरित, वहनीय और सारवान न्याय प्रदान करना है
02. गांव के लोग गांव में ही न्याय प्राप्त कर सकें और उन्हें न्याय पाने के लिये अपनेे दिन भर का काम-धंधा छोड़कर शहर के चक्कर काटने पड़े।
03. नागरिकों को उनके घरों तक न्याय उपलब्ध हो इस प्रयोजन से ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अंतर्गत ग्राम न्यायालय की स्थापना की गई है

04. ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 में इस बात का ध्यान रखा गया है कि किसी भी नागरिक को सामाजिक, आर्थिक या अन्य निःशक्त्ता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित नहीं किया जाए
05. इसके लिए अधिनियम में विधिक सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है

 
न्याय अधिकारी के कर्तव्य
01. न्याय अधिकारी का कर्तव्य होगा कि वह अपनी अधिकारिता के अंतर्गत आने वाले ग्रामों के अंदर दौरा करें
02. ऐसे स्थान पर विचारण या कार्यवाही संचालित करे जिसे वह उस स्थान से निकट समझते हो जहां पक्षकार निवास करते हो ,
03. ग्राम न्यायालय को मुख्यालय से बाहर चलित न्यायालय लगाने की भी शक्ति प्राप्त है
04. गाम न्यायालय को सिविल ओर दांडिक दोनो प्रकरणों की अधिकारिता प्रदान की गई है
05. ग्राम न्यायालय में अधिनियम की अनुसूची-1 के अनुसार दिये गये दांडिक प्रकरणों का है
06. दूसरी अनुसूची में दिये गये सिविल प्रकरणों का निराकरण किया जावेगा

 
ग्राम न्यायालय के विचारण की शक्तियां

1. दांडिक मामलो का विचारण करते समय ग्राम न्यायालय दं0प्र0सं0 मेंदी गई संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुुसरण करेगें और संक्षिप्त प्रक्रिया अपनाते हुये मामलों का निपटारा करेगें।
2. इस संबंध में सौदा अभिवाक् से संबंधित अध्याय 21 दं0प्र0सं0 के प्रावधान पूर्णतः ग्राम न्यायालय को लागू होगें
3. सरकार की तरफ से ग्राम न्यायालय में दांडिक मामलो का संचालन करने के लिये सहायक लोक अभियोजन अधिकारी कार्य कर सकेंगे और न्यायालय की इजाजत से परिवादी अपना अधिवक्ता नियुक्त कर सकते हैं
4. ग्राम न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण के माध्यम से पक्षकारो को निशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायेगी
5. मामले के निर्णय की निःशुल्क प्रति तत्काल दोनो पक्षकारो को दी जावेगी
6. निर्णय विचारण समाप्ति के 15 दिन के अन्दर सुनाया जाएगा
ग्राम न्यायालय में साक्ष्य अभिेलेखन की प्रक्रिया
7. ग्राम न्यायालय में भारतीय साक्ष्य अधिनियम कठोरता से लागू नहीं की जाएगी
8. साक्षियों की साक्ष्य विस्तार से अभिलिखित कर संक्षेप में लिपिबद्ध की जाएगी
9. औपचारिक प्रकृृति की साक्ष्य को शपथ पत्र पर प्रकट किए जाने की अनुमति दी जाएगी।
10. ग्राम न्यायालय द्वारा प्रत्येक सिविल विवादो में विशेष प्रक्रिया का पालन किया जावेगा, 100/-कोर्टफीस के साथ दावा ग्राम न्यायालय में प्रस्तुत किया जावेगा
ग्राम न्यायालय के निर्णय-
11. सिविल वाद का निराकरण 6 माह की अवधि के अंदर किया जावेगा और तर्क सुनने के ठीक 15 दिन के अंदर निर्णय पारित किया जावेगा
12. निर्णय की प्रतिलिपि तीन दिन के अंदर निःशुल्क दी जावेगी
13. ग्राम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय डिक्री का निष्पादन सिविल प्रक्रिया के तहत होगा
14. लेकिन इसमें नैसर्गिक न्याय के सिद्वांतो का अनुरण किया जावेगा
15. ग्राम न्यायालय प्रथम दो अवसर पर यह प्रयास करेगी कि प्रत्येक वाद या कार्यवाही समझौते से निपटाई जावे
16. पक्षकारो के बीच समझौता कराये जाने का प्रयास किया जायेगा
17. इसके लिये सुलाहदारों की नियुक्ति जिला मजिस्ट्ेट के परामर्श से की जावेगी

ग्राम न्यायालय की भाषा-
18. ग्राम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी से भिन्न राज्य भाषाओं में से एक राज्य भाषा होगी
19. भारत के संविधान की अनुसूची-8 में 22 भाषा राज्य भाषा के रूप में शामिल हैं। जिनमें असमी, बांगला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड, कश्मीरी, कोकंडी मैथली, मलयालयम्, मणीपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु, उर्दू, शामिल है
ग्राम न्यायालय के आदेश के विरूद्ध अपील-
20. ग्राम न्यायालय के किसी भी निर्णय दंडाज्ञा या आदेश के विरूद्ध अपील सेंशन न्यायालय में 30 दिन के अंदर होगी
21. जिसे सेंशन न्यायालय 6 माह के अंदर निपटाएगी
22. सेंशन न्यायालय के निर्णय या विश्लेषण के विरूद्व अपील नहीं होगी रिट याचिका को वर्जित नहीं किया गया है
23. अपराधिक प्रकरण में यदि आरोपी ने अपराध स्वीकार किया है तो उस दोषसिद्धी के विरूद्ध अपील नहीं होगी
24. इसी प्रकार ग्राम न्यायालय एक हजार रूपये से कम का जुर्माना किया है तो उसके विरूद्ध अपील नहीं होगी
25. सिविल मामलो में अन्तर्वती आदेश को छोड़कर अंतिम आदेश के विरूद्ध जिला न्यायाधीश के न्यायालय में 30 दिन के अंदर अपील होगी।
26. जिला न्यायालय 6 माह के अंदर सिविल अपील का निपटारा करेंगे 27. अपील न्यायालय के आदेश के विरूद्ध कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं होगी
28. सिविल मामलों में यदि कोई आदेश पक्षकारो की सहमति से पारित किया गया है तो विवादित विषय वस्तु का मूल्य एक हजार रूपये से कम है तो वहां अपील नहीं होगी
29. यदि विवादित विषय वस्तु का मूल्य पांच हजार रूपये से कम है तो विधि के प्रश्न पर अपील होगी
ग्राम न्यायालय एंव पुलिस सहायता-
30. ग्राम न्यायालय पुलिस सहायता प्राप्त कर सकेगी अपने कृत्यों के निर्वहन के लिये राजस्व अधिकारियों, सरकारी सेवक की सहायता प्राप्त कर सकती हैं
31. न्यायाधिकारी और कर्मचारी को लोक सेवक समझा जावेगा।
32. प्रत्येक 6 माह में एक बार ग्राम न्यायालय का वरिष्ठ अधिकारी निरीक्षण करेगें
इस प्रकार न्याय प्राणाली को मजबूत करने और जन स्तर तक न्याय पहुंचाने के लिये तथा समाज के व्यक्तियों को त्वरित और सस्ता सुलभ न्याय उपलब्ध हो सके इसके लिये ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 की स्थापना की गई है।
 
                                                उमेश कुमार गुप्ता

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta