अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

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अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

                                       लालू महतो बनाम राज्य (2008-8 एस.सी.सी. 395) अजयसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009-1 उम.नि.पं. 8-(2007)-12 एस.सी.सी. 341 और विक्रम जीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2006)-13 एस.सी.सी. 306):- वाले मामले में सविस्तार प्रतिपादित किया गया है और उन पर चर्चा की गई है। 

    उच्चतम न्यायालय ने अजयसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (उपरोक्त) वाले मामले में दिए गए विनिश्चय के पैरा-11, 12 और 13 में निम्नलिखित मताभिव्यक्ति की है:-

                                        इस धारा के अधीन परीक्षा किए जाने का उद्देश्य अभियुक्त को यह अवसर देना है, कि वह अपने विरूद्ध किए गए पक्ष कथन का स्पष्टीकरण दे सकें। अभियुक्त की निर्दाेषिता या दोषिता का निर्णय करने के लिये इस कथन पर विचार किया जा सकता है। यदि उन्मोचन का भार अभियुक्त पर हो, तब यह उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि ऐसे कथन के आधार पर भार का उन्मोचन होता है या नहीं। 


                                                      उपधारा (10) (ख) में वर्णित ‘‘साधारणतया‘‘ शब्द से मामले से संबंधित सामान्य प्रकृति को सीमित नहीं होता है। अपितु इसका यह अर्थ है, कि प्रश्न साधारणतया संपूर्ण मामले से संबंधित होना चाहिए और वह मामले के किसी भी विशिष्ट भाग या भागों तक सीमित भी होना चाहिए। प्रश्न इस प्रकार विरचित किया जाना चाहिए, जिससे कि अभियुक्त यह जान सके कि उसे क्या स्पष्ट करना है, ऐसी कौन सही परिस्थितियाॅ हैं, जो उसके विरूद्ध हैं ओर जिनकी बाबत् स्पष्टीकरण दिया जाना उसके लिये आवश्यक है। इस धारा का संपूर्ण उद्देश्य अभियुक्त को उन परिस्थितियों को स्पष्ट करने के लिये सही और समुचित अवसर प्रदान करने का है, जो उसके विरूद्ध प्रतीत होती है और यह कि प्रश्न सही होने चाहिए और वे इस क्रम से पूछे जाने चाहिए कि गुण-दोष के बारे में कोई अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें। अभियुक्त द्वारा ऐसी किसी बात को, जो उससे स्पष्ट करने के लिये कभी पूछी ही नहीं गई, स्पष्ट न कर पाने के आधार पर की गई दोषसिद्धि विधि की दृष्टि से दोषपूर्ण है। संहिता की धारा-313 को अधिनियमित करने का संपूर्ण उद्देश्य यह था कि अभियुक्त का ध्यान आरोप  और  साक्ष्य में उन विनिर्दिष्ट मुद्दों की ओर, जिनके आधार पर अभियोजन पक्ष द्वारा यह दावा किया जाता है, कि अभियुक्त के विरूद्ध मामला बनता है, आकर्षित किया जाना चाहिए, जिससे कि वह ऐसा स्पष्टीकरण दे सकें, जो वह देना चाहता है।



                                                     संहिता की धारा-313 के उपबंधों पर ईमानदारी ओर निष्पक्ष रूप से विचार करने की महत्ता पर बहुत ही अत्यधिक जोर नहीं दिया जा सकता। अभियुक्त के समक्ष बहुत सारे तथ्यों को एक साथ रखकर उससे, उनके बारे में पूछना कि उसे क्या कहना है ? इस धारा का ठीक प्रकार से अनुपालन नहीं होगा। उससे प्रत्येक तात्विक बात के संबंध में जो, उसके विरूद्ध प्रयोग की जानी आशयित है, पृथक रूप से प्रश्न किया जाना चाहिए। प्रश्न सही होने चाहिए कि उनके गुण-दोषों के बारे में अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें। अभियुक्त भले ही अशिक्षित न हो तो भी यदि उस पर हत्या का आरोप है, वह मानसिक रूप से विचलित हो सकता है। अतः निष्पक्षता की बाबत् यह अपेक्षा की जताी है, कि प्रत्येक तात्विक परिस्थिति को सहज रूप से और पृथक रूप से (अभियुक्त के समक्ष) रखा जाना चाहिए, जिससे कि कोई अशिक्षित व्यक्ति, जो विक्षुब्ध या भ्रमित हो, आसानी से उसके गुण-दोष के बारे में विवेचन कर सके और उसे समझ सके।

                                                     उच्चतम न्यायालय में पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह  (2005) 6 एस.सी.सी. 101:- वाले मामले में दिए गए विनिश्चिय के पैरा-10 में मताभिव्यक्ति की है, कि यदि साक्ष्य में ऐसी परिस्थितियाॅ विद्यमान थीं, जो अभियुक्त और उसके  (द्वारा दिये गये) स्पष्टीकरण के प्रतिकूल है और उसके द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण साक्ष्य का उचित रूप से मूल्यांकन किए जाने में न्यायालय की सहायता करेगा, तो न्यायालय को इस बात को अभियुक्त की जानकारी में लाना चाहिए, जिससे कि वह (अपने) साक्ष्य में उन प्रतिकूल परिस्थितियों के बाबत् कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सके। समेकित प्रश्न के बिन्दु पर उच्चतम न्यायालय ने आगे मताभिव्यक्ति की, कि सामान्यता, समेकित प्रश्नों, जो अनेक प्रश्नों को एक साथ सम्मिलित करते हैं, को अभियुक्त से पूछा नहीं जाएगा। आगे यह मताभिव्यक्ति की गई कि प्रश्न जो पूछे जाने हैं, ऐसे होने चाहिए जिनका अभियुक्त की स्थिति में कोई युक्तियुक्त व्यक्ति, युक्तिसंगत स्पष्टीकरण देने की स्थिति में हो।


                                         स्थिति चाहे कोई भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि सेशन न्यायाधीश ने अपीलार्थी के समक्ष कोई फंसाने वाले प्रश्न और प्रतिकूल साक्ष्य नहीं रखे थे। पुनः मामले के तथ्यों पर विचार करते हैं, यह सुव्यक्त हे कि बरामदगिया जो फंसाने वाली थी और अपीलार्थी के प्रतिकूल थी, की वास्तविकता के विश्लेषण मं अंततः स्वीकार किया गया था, किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न जो हमारे समक्ष विचारणार्थ उत्पन्न हुआ है, यह है, कि सेशन न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त का परीक्षण दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन किया जाना चाहिए था। ऐसा प्रतीत होता है, कि सेशन न्यायाधीश ने सभी अभियुक्तों की बरामदगी के संबंध में मात्र एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न संख्या 4 सभी बरामदगियों के संबंध में एक समेकित प्रश्न जटिलता वाला प्रश्न है जिसको उपरोक्त विनिश्चयों के प्राश में अनेक तथ्यों को एक साथ समेकित करके नहीं पूछा जाना चाहिए था।

 इसमें कोई संदेह नहीं कि काउंसेल ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-294 के अधीन वास्तविकता को स्वीकार किया है, किन्तु विद्वान सेशन न्यायाधीश ने अभियुक्त व्यक्तियों से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन कोई प्रश्न नहीं पूछा है, जिसको पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह वाले (उपर्युक्त) मामले में दिए गए उच्ततम न्यायालय के विनिश्चय  को दृष्टि में रखते हुए अभियुक्त की जानकारी में लाया जाना चाहिए, जिससे कि वह साक्ष्य में इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सकें।
      
   

हितबद्ध साक्षी

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                हितबद्ध साक्षी

        माननीय उच्चतम न्यायालय ने कुलेश मंडल बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य (2007) 59 ए.सी.सी. 798) वाले मामले में दिलीपसिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में पारित निर्णय को उद्दत करते हुए इस प्रकार मत व्यक्त किया:-

        ‘‘हम उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों के इस मत से असहमत हैं, कि दोनों प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के परिसाक्ष्य की पुष्टीकरण की आवश्यकता है। यदि ऐसे किसी मत के लिये आधार इस तथ्य पर आधारित हैं, कि साक्षी स्त्रिया हैं और उनकी परिसाक्ष्य के उपर सात व्यक्तियों का भाग्य आधारित है, हमारी जानकारी में ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि यह बात इस तर्क पर आधारित है, कि वे मृतक के निकट के नातेदार हैं, तो हम इस मत से सहमत नहीं हैं। अनेक दांडिक मामलों के लिये यह एक सामान्य भ्रामकताः है और इस न्यायालय की एक अन्य न्यायपीठ ने एक मामले में इस भ्रामकता को दूर करने का प्रयत्न किया है। तथापि, हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि दुर्भाग्यवश यह अवस्थिति अभी तक मौजूद है और यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो किसी भी प्रकार से काउंसेलों की दलीलों में।‘‘

मसालती और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य (ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 202):- वाले मामले में न्यायालय ने इस प्रकार मत व्यक्त किया था:-    ‘‘किन्तु हमारा यह मत है, कि यह दलील तर्कयुक्त नहीं है कि साक्षियों द्वारा दिए गए साक्ष्य को मात्र इस आधार पर व्यक्त किया जाना चाहिए कि यह साक्ष्य पक्षपाती या हितबद्ध साक्षी का साक्ष्य है............। ऐसे एकमात्र आधार पर कि यह एक विफल करने वाली होगी। इस बारे में कोई पक्का नियम अभिकथित नहीं किया जा सकता कि कितने साक्ष्य को स्वीकार किया जाना चाहिए ? न्यायिक मत ऐसे साक्ष्य पर विचार करने में सतर्कता बरतने की उपेक्षा करता है, किन्तु यह दलील है, कि ऐसे साक्ष्य को खारिज किया जाना चाहिए, क्योंकि यह एक पक्षपाती साक्षी का साक्ष्य है, सही होना स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘‘
      

धारा-174 दं0प्र0सं0 में मृत्यु समीक्षा के संबंध में

    

   धारा-174 दं0प्र0सं0 में मृत्यु समीक्षा के संबंध में

1-        धारा-174 दं.प्र.सं. के अंतर्गत की जाने वाली कार्यवाही का क्षेत्र अत्यंत पर संबंधित है। इसका उद्देश्य मात्र यह सुनिश्चित करना है, कि क्या किसी व्यक्ति की संदेहास्पद परिस्थितियों के अधीन मृत्यु हो गई है या अप्राकृतिक मृत्यु हुई है। यदि ऐसा है तो मृत्यु का प्रत्यक्ष कारण क्या है ?


2-        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत क्या मृतक पर हमला किया गया है। किसने हमला किया है। किन परिस्थितियों में हमला हुआ आदि बातें इसकी कार्यवाही और परिधि और क्षेत्र के बाहर की हैं। इसलिए मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में सभी प्रत्यक्ष कार्या के सभी विवरणों की प    रविष्टि कराना आवश्यक नहीं है। यदि इन चीजों का योग है तो न्यायालय द्वारा अभियोजन कहानी को संदेहास्पद नहीं माना जा सकता है। 

3-        पोददा नारायण बनाम आन्ध्रप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1975 एस0सी0 1252।


4-        शकीला खादर बनाम नौशेर गामा ए0आई0आर0 1975 एस0सी0 1324 के मामले में यदि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि ऐसा व्यक्ति प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं है।


5-        इकबाल बेग बनाम आंध्रप्रदेश राज्य ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 923-मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में आरोपी का नाम का उल्लेख नहीं होने से यह भी नहीं माना जा सकता कि वह अपराध के समय पस्थित नहीं था क्योंकि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट ऐसे किसी व्यक्ति का कथन नहीं है एवं सभी नामों का उल्लेख किया जावेगा।


6-        खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी बनाम मध्यप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 1853-वह 3 न्यायाधीशों की खण्डपीठों में यह अभिनिर्धारित किया है, कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों का लाभ मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में न होने पर उनकी साक्ष्य अविश्वसनीय नहीं हो जाती।


7-        अमरसिंह बनाम बलविन्दर सिंह (2003) 2 एस0सी0सी0 518-जे0टी0-2003 (2) एस0सी0-1 में यह अभिनिर्धारित किया गया है।


8-        राधा मोहन सिंह उर्फ लाल साहब और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य जे0टी0 2006    (1) एस0सी0 482 में 3 जजों की खण्डपीठ में यह अभिनिर्धारित किया है, कि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में अभियुक्त व्यक्तियों के नाम उनके पास के आयुध साक्षी के नाम का उल्लेख करना विधि की अपेक्षा नहीं है। मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट मृत्यु के स्पष्ट कारणों को निश्चित करने तक सीमित है और इसमें यह उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं है, कि मृतक पर किसने हमला किया था और हमले के साक्षी कौन थे

9-        अतः माननीय उच्चतम न्यायालय के अनेक विनिश्चयों से यह सुस्थापित है, कि मृत्यु समीक्षा करने का प्रयोजन अत्यंत परिसिमित है अर्थात् यह सुनिश्चित करना है, कि क्या किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की है या किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा हत्या की गई है या किसी पशु द्वारा या किसी मशीनरी द्वारा उसकी मृत्यु हुई है या कोई दुर्घटना हुई है या उसकी ऐसी परिस्थितियों के अधीन मृत्यु हुई है जो युक्तियुक्त रूप से यह संदेह उत्पन्न करती है कि किसी अन्य व्यक्ति ने अपराध किया है। निश्चित रूप से विधि की यह अपेक्षा नहीं है, कि प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के ब्यौरों का उल्लेख किया जाए, अभियुक्तों के नामों या प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के नामों का उल्लेख किया जाये या उनके कथनों का सार लिखा जाये और न ही यह आवश्यक है, कि किसी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी द्वारा उस पर हस्ताक्षर कराये जाये।
      

















   

‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति

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     ‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति

                                          दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई हैं तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा ।


                                      इस प्रकार प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी भी मृत्यु दण्ड, अजीवन कारावास, दो वर्ष से अधिक दण्डनीय अपराध के संबंध में की गई वह पहली सूचना हैं जिसके आधार पर अभियोजन द्वारा जाॅच प्रारंभ की जाती हैं । 


                             यदि रिपोर्टकर्ता थाने जाकर रिपोर्ट करने की स्थिति में नहीं हैं तो उसे मौके पर देहाती नालिस के रूप में दर्ज किया जाता हैं । इसी प्रकार यदि संबंधित क्षेत्राधिकार के बाहर रिपोर्ट की जाती हैं तो उसे शून्य पर कायम कर संबंधित थाने को भेजा जाता हैं । प्रथम सूचना रिपोर्ट को परिभाषित नहीं किया गया हैं, यह एक जानकारी मात्र हैं, जो अनवेषण अधिकारी को मामला फाइल करने के पूर्व अथवा पश्चात् के सभी विषय को खोजने के लिये प्राधिकृत करने हेतु समुचित होती हैं।


                         घटना के बाबत् धुंधले प्रकार का संदेश प्रथम सूचना रिपोर्ट के समतुल्य नहीं माना गया हैं ।(कृपया देखें पताई उर्फ कृष्ण कुमार बनाम स्टेट आॅफ यू.पी.,2010 क्रि.लाॅ.ज. 2815 सु.को.) । 


प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलम्ब का परिणाम
 
        प्रथम सूचना रिपोर्ट यदि विलम्ब से की गई हैं तो उस संबंध मे ंदिया गया स्पष्टीकरण तर्कपूर्ण व साख पूर्ण होना चाहिए यदि स्पष्टीकरण विलम्ब के संबंध में पर्याप्त नहीं हैं तो ऐसी रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित नहीं हैं ।
      
  विलंब से मामले के वृत्तांत में परिवर्तन होने की संभावना रहती हैं। इसीलिए अपेक्षा की जाती हैं कि आरंभिक अवसर में न्यायालय के समक्ष पहुंच की जाए। यदि पुलिस के समक्ष पहुॅंच करने में अथवा न्यायालय के समक्ष पहॅुंच करने में विलंब होता हैं तो ऐसी स्थिति में न्यायालय लांछनों को
संदेह की निगाह से देखेगा और वह इस संबंध में निः संकोच संतोषप्रद स्पष्टीकरण की मांग करेगा । यदि ऐसा स्पष्टीकरण नहीं पाया जाता हैं तो उस विलंब को अभियोजन के मामले के लिये घातक माना जाएगा । 


          प्रथम सूचना रिपोर्ट को त्वरित तौर पर दर्ज कराने के पीछे निहित भावना यह होती हैं कि विलंब किए जाने पर घटना बढ़ाए चढ़ाए जाने की संभावना हो सकती हैं ।
        रंजिश के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब को अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा गया हैं और असामान्य विलंब को संतोषजनक नहीं माना गया हैं ।     (कृपया देखें -रमेश बाबूराव देवास्कर बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, 2007 क्रि.लाॅ.ज. 851ः2008 क्रि.लाॅ.ज. 372ः2007(4) करेन्ट क्रिमिनल रिपोर्टर्स 272ः2007 (12) स्केल 272ः 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 6475 सु.को. )
        प्रत्येक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट विलंब से करना संदेहास्पद नहीं होता हैं। यह मामले के तथ्य और परिस्थितियों के आधार पर उसके विलंब से किये जाने के प्रभाव को ध्यान में रखकर विचार किया जाना चाहिए । इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा रविन्द्र कुमार बनाम स्टेट
आफ पंजाब 2007 भाग-7 एस.एस.सी. 690 में कुछ परिस्थितियाॅं बताई हैं जो निम्नलिखित हैं ।
    1-    भारतीय परिवेश में ग्रामवासियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह घटना के उपरांत तत्काल पुलिस को सूचना देंगें ।
    2-    मानवीय स्वभाव होता हैं कि मृतक के नाते-रिश्तेदार जिन्होने
घटना देखी हैं उनसे  शीघ्रता से रिपोर्ट किये जाने की आशा नहीं की जा सकती ।
       3-    इसके अलावा ग्रामीण व्यक्ति बिना समय गंवाए अपराध की पुलिस को जानकारी देने की आवश्यकता के तथ्य से अनभिज्ञ हो सकता हैं।     4-    इस तरह की स्थिति शहरी व्यक्तियों के साथ भी हो सकती हैं जो तत्काल पुलिस स्टेशन जाने की नहीं सोचते हैं।
    5-    सूचना देने वाले व्यक्ति को पुलिस स्टेशन पहुंचने तक समुचित परिवहन सुविधाओं का अभाव ।
    6-    मृतक के नाते-रिश्तेदारों को कतिपय स्तर की मस्तिष्क की प्रशांति को पुनः हासिल करने में समय लग सकता हैं ।
    7-    जो व्यक्ति ऐसी सूचना देने वाले समझे जाते हैं उनकी शारीरिक दशा अपने आप में इतनी बिगडी होने की स्थिति में हो सकती हैं कि पुलिस को दुर्घटना के बाबत् कतिपय जानकारी हासिल करने के लिए उनके पास तक पुलिस को पहॅुंचना पड़ा हो ।
         इस प्रकार सूचनादाता की दशा, कारित क्षतियों की प्रकृति, आहतों की संख्या, पुनः चिकित्सीय सहायता पहुॅंचाने के संबंध में किए गए प्रयास, अस्पताल की दूरी, पुलिस स्टेशन की दूरी आदि तथ्य व परिस्थितियों के आधार पर विलंब प्रथम सूचना रिपोर्ट का आकलन किया जाना चाहिए।उसे अपने आप विलंब के आधार पर संदेहास्पद नहीं माना जाना चाहिए । ( कृपया देखे- अमरसिंह बनाम बलविंदर सिंह,2003 (2) सु.को.के. 518ः2003 ए.आई.आर. डब्ल्यू 717, साहिब राव बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्  2006 क्रिं.लाॅ.ज. 2881 सु.को.), ऐसा कोई अंकगणितीय फार्मूला नहीं हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब के आधार पर किसी भी ओर अनुमान निकाला जा सके ।     


         प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्यिक मूल्य 

 
         प्रथम सूचना रिपोर्ट को सारवान साक्ष्य के भाग के रूप में होना नहीं समझा जा सकता है। अतः इसके आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा। इसका उपयोग इसको करने वाले व्यक्ति के खंडन अथवा समथर््ान के लिये ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा- 145 और 157 के अनुसार किया जा सकता हैं ।  कृपया देखें-अर्जुनसिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी.,1997 (1)म.प्र.वी.नो. 194 (स्टेट आॅफ एम.पी. बनाम के.के.पाण्डे,2007 (3) म.प्र.वी.नो. 21 म.प्र.) 


        प्रथम सूचना रिपोर्ट के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को इनसाइक्लोपीडिया होना आवश्यक नहीं होता हैं, इसलिये अभियोजन
घटना की सभी तथ्यों का इसमें समावेश होना आवश्यक नहीं हैं,ं परन्तु प्रथम सूचना रिपोर्ट में घटना की प्रथम जानकारी के बाबत अत्याधिक महत्वपूर्ण सामग्री होती हैं। इसके वृत्तांत में परिवर्तन किए जाने व सुधार किए जाने की संभावना होती है। 


        प्रथम सूचना रिपोर्ट मात्र विधि को गतिशील करने के लिए की जाती हैं। इसे विस्तृत होना अवश्यक नहीं हैं अपितु इसमें आवश्यक लांछन जिससे कि संज्ञेय अपराध कागठन होना होता हो पर्याप्त माना गया।  इसमें यदि सभी चक्षुदर्शी साक्षीगण के नाम वर्णित न हो सके तो यह तथ्य असारवान होगा। (चारू किशोर मेहता बनाम (श्रीमति) बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, क्रि.लाॅ.ज. 1486 बम्बई )  आनंद सिंह बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. 2010 क्रि.लाॅ.ज. एन.ओ.सी. 334 इलाहाबाद मनोज बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 1999 (4)सु.को.के. 268.सुजाय सेन बनाम स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल, 2007 (2) म.प्र.वी.नो. 89 सु.को. )   

 
         यदि एन्टी-टाइम व एन्टी- डेटेड रिपोर्ट के आधार पर मामला रजिस्टर्ड किया जाए और इसी कारण द.प्र.सं. की धारा- 157 के प्रावधान का पालन नहीं किया गया था । ऐसी स्थिति में प्रथम  सूचना रिपोर्ट को महत्व प्रदान नहीं किया गया। 


        यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट न केवल एन्टी-टाइम थी अपितु यह एन्टी-डेटेड भी थी, तो ऐसी देहाती नालिश में मामले को गढ़े जाने की संभावना मानी गयी।  (छबिलाल बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2009 (1) जे.एल.जे. 167 म.प्र. ) (रामाधार बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. आई.एल.आर.2011 म.प्र. नोट 32)
      
                             यदि साक्षी का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में होना नहीं पाया गया। घटना स्थल पर भीड़ थी और इसलिए प्रथम सूचना दाता से युक्तियुक्त तौर पर इस बात की प्रत्याशा नहीं की जाती थी कि वह प्रत्येक देखने वाले व्यक्ति के नाम को प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित करें ऐसी स्थिति में साक्षी की साक्ष्य को इस आधार पर त्यक्त नहीं किया जा सकता कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में उसका नाम नहीं था। (कृपया देखें- पिल्लू उर्फ प्रहलाद बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2010 (2) जे.एल.जे. 309 म.प्र.)

 
        इसी प्रकार यदि घायल साक्षी के नाम भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में न हो तो इस आधार पर भी उसे संदेहास्पद नहीं माना जा सकता । ऐसी कोई विधिक अपेक्षा नहीं हैं कि सभी साक्षीगण का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में हो ।


        प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्राॅवधानिक मुद्रित प्रारूप में होना चाहिए । यदि इस रूप में नहीं हैं तो उसे विश्वास योग्य नहीं माना जा सकता । पुलिस अधिकारी के द्वारा स्टेशन हाउस की डायरी में दर्ज सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जा सकता हैं। इसे केवल धारा- 162 के अंतर्गत अभिलिखत कथन माना जाएगा ।


        इसी प्रकार तार संदेश से दी गई अस्पष्ट सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। टेलीफोन से दी गई व्यर्थ सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं।  प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत करना प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार हैं ।


        एक ही घटना के संबंध में दी गई द्वितीय सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट के रूप में दर्ज नहीं की जा सकती। एक मामले में केवल एक ही एफ.आई.आर. हो सकती है।
        यदि आरोपी के द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाई गई हैं तो उसमें की गई संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धारा- 25 के अंतर्गत साक्ष्य में ग्रा्ह्य नहीं होगी लेकिन धारा- 8 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत आचरण के रूप में उसे मान्यता प्रदान की जाएगी । 



          यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में ओवहर राईटिंग की जाती हैं तो इस बात की संभावना हैं कि वह एंटी डेटेड थी अथवा एंटी टाइम थी । यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित वृत्तांत सत्य होना नहीं पाया जाता हैं और उसका चिकित्सीय एवं मौखिक साक्ष्य से भी समर्थन नहीं होता हैं तो ऐसी रिपोर्ट के आधार पर दोषसिद्धी नहीं दी जा सकती हैं ।

                      

























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umesh gupta