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मध्यस्थता

                            मध्यस्थता
    

                             मध्यस्थता सुलह कि वह अबाद्धकारी, गोपनीय, सस्ती, अनऔपचारिक, किफायती प्रक्रिया है । जिसमें मध्यस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष होकर गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखते हुए विवाद को हल करने का आधार भूत रास्ता उपलब्ध कराता है । इसमें पक्षकारो के द्वारा सुझाये गये रास्तो से ही विवाद का हल निकाला जाता है।  मध्यस्थ के द्वारा उन पर समझौता आरोपित नहीं किया जाता है। इसमें दोनो पक्षकारो की जीत होती है । कोई भी पक्षकार अपने को हारा हुआ या ठगा महसूस नहीं करता है। 

                                                मध्यस्थता बातचीत की एक प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष  मध्यस्थता अधिकारी विवाद और झगडे में लिप्त पक्षांे के बीच सुलह कराने में मदद करता है । यह  मध्यस्थता अधिकारी बातचीत की विशेष शैली और सूचना विधि का प्रयोग करते हुए समझौते का आधार तैयार करता है तथ वादी और प्रतिवादी को समझौते के द्वारा विवाद समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है। 

                                               मध्यस्थता विवादो को निपटाने के लिए मुकदमेबाजी की तुलना में कहीं अधिक संतोषजनक तरीका है । जिसके माध्यम से निपटाये गए मामलो में अपील और पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं होती है और सभी विवाद पूरी तरह निपट जाते हैं। इस पद्धति के द्वारा विवादोें का जल्द से जल्द निपटारा होता है जो कि खर्च रहित है । यह मुकदमो के झंझटो से मुक्त है । साथ ही साथ न्यायालयों पर बढते मुकदमों का बोझ भी कम होता है । 


                                                           मध्यस्थता विवादो को निपटाने की  सरल एव् निष्पक्ष आधुनिक प्रक्रिया है। इसके द्वारा  मध्यस्थ अधिकारी दबावरहित वातावरण में विभिन्न पक्षों के विवादो का निपटारा करते है। सभी पक्ष अपनी इच्छा से सद्भावपूर्ण वातावरण में विवाद का समाधान निकालते हैं। उसे स्वेच्छा से अपनाते है ।  मध्यस्थता के दौरान विभिन्न पक्ष  अपने विवाद को जिस तरीके से निपटाते हैं वह सभी पक्षों को मान्य होता है, वे उसे  अपनाते है ।  


                                                        मध्यस्थता में मामले सुलाह, समझौते, समझाइश, सलाह के आधार पर निपटते हैं दोनो पक्ष जिस ढंग से विवाद सुलझाना चाहते है उसी ढंग से विवाद का निराकरण किया जाता है। इसमें विवाद की जड तक पहंुचकर विवाद के कारणों का पता लगाकर विवाद का हल निकाला जाता है । 

                                             मध्यस्थता माध्यस्थम् से अलग है । माध्यस्थम् में दोनो पक्षकार को सुनकर विवाद का हल निकाला जाता है । इसके लिए करार में माध्यस्थम् की शर्त होना अनिवार्य है। माध्यस्थम् में विवाद से बाहर की विषय वस्तु पर विचार नहीं किया जाता है और न ही उसके आधार पर विवाद का निराकरणा किया जा सकता है । 


                                                    मध्यस्थता पंचायत से भी अलग है। पंचायत में समाज में व्याप्त रूढियों, प्रथाओं, मान्यताओं, को ध्यान में रखते हुए निर्णय जबरदस्ती पक्षकारो पर थोपे जाते हैं। पंचायत में सामाजिक प्रथाओ को ध्यान मंे रखकर दबाव वश निर्णय लिये जाते हैं । समस्या की जड तक पहंुचकर समस्या को जड से समाप्त नहीं किया जाता है । 


                                                 मध्यस्थता लोक अदालत से भी अलग है । लोक अदालत में कानून के अनुसार केवल राजीनामा योग्य मामले रखे जाते हैं । इसमे पक्षकारो का सामाजिक आर्थिक हित होते हुए भी कानून में प्रावधान न होने के कारण कोई सहायता प्रदान नहीं की जा सकती। केवल कानून के दायरे में रहते ही लोक अदालत में निर्णय पारित किया जाता है । 


                                           मध्यस्थता न्यायिक सुलह से भी अलग है ।न्यायिक सुलह में सुलहकर्ता न्यायिक दायरे मंे रहते हुए दोनो पक्षकारो को सुनकर विवाद का हल बताता है । जो प्रचलित कानून की सीमा के अंतर्गत होता है । 


                                                       मध्यस्थता समझौते से भी अलग है। समझौते में किसी पक्षकार को कुछ मिलता है । किसी को कुछ त्यागना पडता है । किसी को परिस्थितिवश समझौता करना पडता है । इसमें दोनो पक्षकार संतुष्ट नहीं होते है । एक न एक पक्षकार असंतुष्ट बना रहता है । 


                                                         मध्यस्थता में जो रास्ते उपलब्ध है उन्हीं रास्ते में समस्या  का हल निकाला जाता है। मध्यस्थता में व्यक्तिगत राय  मध्यस्थ नही थोपता है । न ही कानून बताकर कानून के अनुसार कानून के दायरे में रहकर समस्या का हल निकालने को कहा जाता है । इसमें वैकल्पिक न्यायिक उपचार निकाले जाते है जो विवाद से संबंधित भी हो सकते हैं और विवाद की विषय वस्तु से अलग भी हो सकते हैं । इसमें वैचारिक मत भेद समाप्त कर दोनो पक्षकारो को पूर्ण संतोष एंव पूर्ण संतुष्टि प्रदान की जाती है । 


                                   मध्यस्थता में मध्यस्थ तठस्थ रहकर विवादों का निराकरण करवाता है । इसमें गोपनीयता महत्वपूर्ण है । किसी भी पक्षकार की गोपनीय तथ्य बिना उसकी सहमति के दूसरे पक्ष को नहीं बताये जाते हैं । इसमें तठस्थता भी महत्वपूर्ण है । तठस्थ रहकर बिना किसी पक्षकार का पक्ष लिए समझौते का हल निकाला जाता है । इसमें  मध्यस्थ के द्वारा कोई पहल नही की जाती है, कोई सुझाव नही दिया जाता है। दोनो पक्षों की बातचीत के आधार पर हल निकाला जाता है।
        मध्यस्थता के निम्नलिखित चार चरण हैंः- 


    1.    परिचय- मध्यस्थता में सर्व प्रथम पक्षकारो का परिचय लिया जाता है । परिचय के दौरान पक्षकारो को मध्यस्थता के आधारभूत सिद्धात बताये जाते है जिसमें मध्यस्थता के फायदे, गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखे जाने, सस्ता सुलभ शीघ्र न्याय प्राप्त होने, न्यायशुल्क की वापसी होने आदि बाते बताई जाती है । 

    2.    संयुक्त सत्र-परिचय के बाद संयुक्त सत्र में दोनो पक्षों को उनके अधिवक्ताओ के साथ आमने सामने बैठाकर क्रम से उनका पक्ष सुना जाता है। इसमें पक्षकारो कोआपस में वाद विवाद करने, लडने की मनाही रहती है। स्वस्थ वातावरण में दोनो पक्षों की बातचीत  मध्यस्थ सुनता है । इसमें बिना  मध्यस्थ की अनुमति के दोनो पक्षकार आपस में वाद विवाद नहीं कर सकते है जो भी बात कहनी है वह  मध्यस्थ के माध्यम से कही जायेगी। इसमें विवाद के प्रति जानकारी प्राप्त की जाती है एंव विवाद के निपटारे के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है । 

    3.    पृथक सत्र- संयुक्त सत्र के बाद अलग सत्र होता है जिसमें एक एक पक्षकार को उनके अधिवक्ताओ के साथ अलग-अलग सुना जाता है । इसमें  मध्यस्थ तथ्यों की जानकारी एकत्र करता है । पक्षकारो की गोपनीय बाते सुनता समझता है ।झगडे के कारणो से अवगत होता है । समस्या का यदि कोई हल हो तो वह खुद पक्ष्कार  मध्यस्थ को बताते है । इस सत्र में मध्यस्थ अधिकारी विवाद की जड तक पहुंचता हैं । 

    4.    समझौता-विवाद के निवारण उपरांत मध्यस्थ अधिकारी सभी पक्षों से समझौते की पुष्टि करवाता है तथा उसकी शर्ते स्पष्ट करवाता है । इस समझौते को लिखित रूप से अंकित किया जाता है ।जिस पर सभी पक्ष अधिवक्ताओं सहित हस्ताक्षर करते हैं ।  
      
            मध्यस्थ अधिकारी की भूमिका और कार्य 

                                                           मध्यस्थ अधिकारी विवादित पक्षों के बीच समझौते की आधार भूमि तैयार करता है। पक्षकारो के बीच आपसी बातचीत और विचारो का माध्यम बनता है । समझौते के दौरान आने वाली बाधाओं का पता लगाता है । बातचीत से उत्पन्न विभिन्न समीकरणों को पक्षों के समक्ष रखता है ।सभी पक्षों के हितों की पहचान करवाता है । समझौते की शर्ते स्पष्ट करवाता है तथा ऐसी व्यवस्था करता है कि सभी पक्ष स्वेच्छा से समझौते को अपना सके ।
                                                      एक मध्यस्थ फैसला नहीं करता क्या न्याससंगत और उपयुक्त है, संविभाजित निन्दा नहीं करता, ना ही किसी गुण या सफलता को संभावना की राय देता है ।
                                            एक मध्यस्थ उत्प्रेरक की तरह दोनो पक्षों को एक साथ लाकर परिणामों की व्याख्या करके एंव बाधाओ को सीमित करते हुए विचार विमर्श द्वारा समझौता कराने का कार्य करता है।
                                            इस प्रकार मध्यस्थ का कर्तव्य है कि वह पक्षकारो को इस गलत फहमी से निकाले की
        भूल में गालिब, जिन्दगी भर करता रहा ।
        धूल चेहरे पर थी, आएना साफ करता रहा ।।    




                                             मध्यस्थता के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है ।

                                                                                                                                          (उमेश कुमारगुप्ता)
                         

नोट-        लेखक उमेश कुमार गुप्ता के द्वारा 14.07.2012 से 19.07.2012 तक विदिशा में आयोजित थ्वनदकंजपवद ज्तंपदपदह वद ज्मबीदपुनमे व िडमकपंजपवद में भाग लिया         है ।

























भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta