ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008


                                ग्राम न्यायालय
                                     भारत 120 करोड़ वाला देश है जहां पर अधिकांश आबादी गांव में रहकर अपना जीवनयापन करती है अशिक्षित, परम्परावादी, रूढीवादी होने के कारण इनमें आपस में विवाद होते रहते हैं प्राचीन परम्पराओं के चलते गांव के मामले गांव में निपट जाते थे गॉव में पंचायत व्यवस्था थी पंच को परमेश्वर मानकर विवादो का निपटारा हो जाता था पंच भी जुम्मन शेख और अलगू चौधरी के बीच में हिन्दु,मुस्लिम, सिख, इसाई का अंतर रखते हुए जाति, धर्म, भाषा का भेदभाव भुलाकर न्यायोचित फैसला देते थे

                                  लेकिन गांव शहर से दूर होने के कारण वह न्याया प्राप्त करने से वंचित रह जाते थे इस कारण न्याय तक आम व्यक्ति की पहंुच सरल बनाये जाने हेतु एंव साधारण जनस्तर पर सामान्य व्यक्ति को त्वरित, सस्ता और सारवान न्याय उपलब्ध कराये जाने हेतु भारत के विधि आयोग ने ग्राम न्यायालय की स्थापना के संबंध में अपनी 114वीं रिपोर्ट में सिफारिश की थी


 
                               सरकार ने विधि आयोग की उक्त सिफारिशों को प्रभावी करने के लिए, 15 मई-2007 को राज्य सभा में ग्राम न्यायालय विधेयक 2007 पुरःस्थापित किया था। उक्त विधेयक कार्मिक, लोक शिकायत, विधि और न्याय मंत्रालय से संबंधित विभाग संबंधी संसदीय स्थायी समिति को निर्दिष्ट किया गया था उक्त स्थायी समिति द्वारा की गई सिफारिशें सारवान् प्रकृति की होने के कारण सरकार ने उसकी अधिकांश सिफारिशों को स्वीकार कर लिया है

                        इसके अलावा सरकार ने 1 जनवरी 2008 को राज्य के विधि मंत्रियों, विधि सचिवों और उच्च न्यायालयों के महारजिस्ट्र्ारों का एक सम्मेलन भी, उक्त विधेयक के विभिन्न उपबंधों पर उनके विचार जानने के लिए आयोजित किया था विधि आयोग की सिफारिश और विचार विमर्श के बाद यह विधेयक प्रस्तुत किया गया है
                                                 जो ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के रूप में पारित हुआ अधिनियम के अंतर्गत राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद अधिसूचना द्वारा किसी जिले में माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक पंचायत या पंचायतो के समूह या ग्राम पंचायतो के समूह के लिये एक ग्राम न्यायालय स्थापित करेगी जिसका मुख्यालय उस पंचायत में स्थित होगा प्रत्येक न्यायालय के लिये न्याय अधिकारी के रूप में प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी को नियुक्त किया जावेगा जिसमें अनुसूचित जाति अनुसूचित जनजाति स़्त्री तथा अन्य वर्ग के समुदाय के सदस्यों को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया जावेगा

 
उद्देश्य-
01. इस विधेयक का मुख्य उद्देश्य को निर्धन को उनके घरों के नजदीक न्याय प्रदान करना और उस स्थान तक पहुंचकर ग्रामीण क्षेत्रों की जनता को त्वरित, वहनीय और सारवान न्याय प्रदान करना है
02. गांव के लोग गांव में ही न्याय प्राप्त कर सकें और उन्हें न्याय पाने के लिये अपनेे दिन भर का काम-धंधा छोड़कर शहर के चक्कर काटने पड़े।
03. नागरिकों को उनके घरों तक न्याय उपलब्ध हो इस प्रयोजन से ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अंतर्गत ग्राम न्यायालय की स्थापना की गई है

04. ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 में इस बात का ध्यान रखा गया है कि किसी भी नागरिक को सामाजिक, आर्थिक या अन्य निःशक्त्ता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित नहीं किया जाए
05. इसके लिए अधिनियम में विधिक सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है

 
न्याय अधिकारी के कर्तव्य
01. न्याय अधिकारी का कर्तव्य होगा कि वह अपनी अधिकारिता के अंतर्गत आने वाले ग्रामों के अंदर दौरा करें
02. ऐसे स्थान पर विचारण या कार्यवाही संचालित करे जिसे वह उस स्थान से निकट समझते हो जहां पक्षकार निवास करते हो ,
03. ग्राम न्यायालय को मुख्यालय से बाहर चलित न्यायालय लगाने की भी शक्ति प्राप्त है
04. गाम न्यायालय को सिविल ओर दांडिक दोनो प्रकरणों की अधिकारिता प्रदान की गई है
05. ग्राम न्यायालय में अधिनियम की अनुसूची-1 के अनुसार दिये गये दांडिक प्रकरणों का है
06. दूसरी अनुसूची में दिये गये सिविल प्रकरणों का निराकरण किया जावेगा

 
ग्राम न्यायालय के विचारण की शक्तियां

1. दांडिक मामलो का विचारण करते समय ग्राम न्यायालय दं0प्र0सं0 मेंदी गई संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुुसरण करेगें और संक्षिप्त प्रक्रिया अपनाते हुये मामलों का निपटारा करेगें।
2. इस संबंध में सौदा अभिवाक् से संबंधित अध्याय 21 दं0प्र0सं0 के प्रावधान पूर्णतः ग्राम न्यायालय को लागू होगें
3. सरकार की तरफ से ग्राम न्यायालय में दांडिक मामलो का संचालन करने के लिये सहायक लोक अभियोजन अधिकारी कार्य कर सकेंगे और न्यायालय की इजाजत से परिवादी अपना अधिवक्ता नियुक्त कर सकते हैं
4. ग्राम न्यायालय विधिक सेवा प्राधिकरण के माध्यम से पक्षकारो को निशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायेगी
5. मामले के निर्णय की निःशुल्क प्रति तत्काल दोनो पक्षकारो को दी जावेगी
6. निर्णय विचारण समाप्ति के 15 दिन के अन्दर सुनाया जाएगा
ग्राम न्यायालय में साक्ष्य अभिेलेखन की प्रक्रिया
7. ग्राम न्यायालय में भारतीय साक्ष्य अधिनियम कठोरता से लागू नहीं की जाएगी
8. साक्षियों की साक्ष्य विस्तार से अभिलिखित कर संक्षेप में लिपिबद्ध की जाएगी
9. औपचारिक प्रकृृति की साक्ष्य को शपथ पत्र पर प्रकट किए जाने की अनुमति दी जाएगी।
10. ग्राम न्यायालय द्वारा प्रत्येक सिविल विवादो में विशेष प्रक्रिया का पालन किया जावेगा, 100/-कोर्टफीस के साथ दावा ग्राम न्यायालय में प्रस्तुत किया जावेगा
ग्राम न्यायालय के निर्णय-
11. सिविल वाद का निराकरण 6 माह की अवधि के अंदर किया जावेगा और तर्क सुनने के ठीक 15 दिन के अंदर निर्णय पारित किया जावेगा
12. निर्णय की प्रतिलिपि तीन दिन के अंदर निःशुल्क दी जावेगी
13. ग्राम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय डिक्री का निष्पादन सिविल प्रक्रिया के तहत होगा
14. लेकिन इसमें नैसर्गिक न्याय के सिद्वांतो का अनुरण किया जावेगा
15. ग्राम न्यायालय प्रथम दो अवसर पर यह प्रयास करेगी कि प्रत्येक वाद या कार्यवाही समझौते से निपटाई जावे
16. पक्षकारो के बीच समझौता कराये जाने का प्रयास किया जायेगा
17. इसके लिये सुलाहदारों की नियुक्ति जिला मजिस्ट्ेट के परामर्श से की जावेगी

ग्राम न्यायालय की भाषा-
18. ग्राम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी से भिन्न राज्य भाषाओं में से एक राज्य भाषा होगी
19. भारत के संविधान की अनुसूची-8 में 22 भाषा राज्य भाषा के रूप में शामिल हैं। जिनमें असमी, बांगला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड, कश्मीरी, कोकंडी मैथली, मलयालयम्, मणीपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु, उर्दू, शामिल है
ग्राम न्यायालय के आदेश के विरूद्ध अपील-
20. ग्राम न्यायालय के किसी भी निर्णय दंडाज्ञा या आदेश के विरूद्ध अपील सेंशन न्यायालय में 30 दिन के अंदर होगी
21. जिसे सेंशन न्यायालय 6 माह के अंदर निपटाएगी
22. सेंशन न्यायालय के निर्णय या विश्लेषण के विरूद्व अपील नहीं होगी रिट याचिका को वर्जित नहीं किया गया है
23. अपराधिक प्रकरण में यदि आरोपी ने अपराध स्वीकार किया है तो उस दोषसिद्धी के विरूद्ध अपील नहीं होगी
24. इसी प्रकार ग्राम न्यायालय एक हजार रूपये से कम का जुर्माना किया है तो उसके विरूद्ध अपील नहीं होगी
25. सिविल मामलो में अन्तर्वती आदेश को छोड़कर अंतिम आदेश के विरूद्ध जिला न्यायाधीश के न्यायालय में 30 दिन के अंदर अपील होगी।
26. जिला न्यायालय 6 माह के अंदर सिविल अपील का निपटारा करेंगे 27. अपील न्यायालय के आदेश के विरूद्ध कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं होगी
28. सिविल मामलों में यदि कोई आदेश पक्षकारो की सहमति से पारित किया गया है तो विवादित विषय वस्तु का मूल्य एक हजार रूपये से कम है तो वहां अपील नहीं होगी
29. यदि विवादित विषय वस्तु का मूल्य पांच हजार रूपये से कम है तो विधि के प्रश्न पर अपील होगी
ग्राम न्यायालय एंव पुलिस सहायता-
30. ग्राम न्यायालय पुलिस सहायता प्राप्त कर सकेगी अपने कृत्यों के निर्वहन के लिये राजस्व अधिकारियों, सरकारी सेवक की सहायता प्राप्त कर सकती हैं
31. न्यायाधिकारी और कर्मचारी को लोक सेवक समझा जावेगा।
32. प्रत्येक 6 माह में एक बार ग्राम न्यायालय का वरिष्ठ अधिकारी निरीक्षण करेगें
इस प्रकार न्याय प्राणाली को मजबूत करने और जन स्तर तक न्याय पहुंचाने के लिये तथा समाज के व्यक्तियों को त्वरित और सस्ता सुलभ न्याय उपलब्ध हो सके इसके लिये ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 की स्थापना की गई है।
 
                                                उमेश कुमार गुप्ता

न्याय तक पहुंच में- भारतीय न्याय व्यवस्था उमेश कुमार गुप्ता

न्याय तक पहुंच में- भारतीय न्याय व्यवस्था 
                                                              उमेश कुमार गुप्ता
        भारतीय न्याय प्रणाली जो प्राचीन काल में न्याय के सामान्य सिद्धांत पर आधारित थी। भारत में प्रत्येक गांव गणतंत्र में बटा हुआ था । गण का प्रधान गणाध्यक्ष कहलाता था। जिसका कार्य गण की रक्षा करना और लोगो से इस कार्य हेतु लगान राजस्व वसूलना तथा उन्हें न्याय प्रदान करना था। यहीं गण बाद में समूह के रूप में संगठित होकर राजा-महाराजा, जमीदार, कहलाये । इनका कार्य भी लोगो से राजस्व वसूलना उनकी चोर, डकैत, लूटेरो से रक्षा करना तथा उन्हें न्याय प्रदान करना था। भारतीय धर्मशास्त्र के अनुसार राजा का न्याय करना धार्मिक तथा नैतिक कर्तव्य था। उसके न्याय प्रदान करने के कार्य में पण्डित और मौलवी उसका साथ देते थे । वे प्रचलित व्यक्तिगत विधि से राजा को अवगत कराते थे । 
        यह न्याय व्यवस्था भारत में विदेशी आक्रमण तक लागू रही । उसके बाद विदेशीयों का राज्य होने पर प्रतिशोधात्मक न्यायव्यवस्था प्रारंभ हुई । जिसमें मुगलकालीन अपराधिक दण्ड व्यवस्था एक लम्बे समय तक भारत में प्रचलनशील रही है । मुगल कालीन न्यायव्यवस्था पूरी तरह से रेगिस्तान की तपती धूप में निर्मित होने के कारण  कठोरात्मक थी । जिसमें किसा(जैसे को तैसा), दिया(क्षतिपूर्ति) हद, (निश्चित दण्ड), ताजिर (स्वविवेकानुसार), जैसे दण्ड दिये जाते थे।
        उस समय सिविल विधि के मामले में हिन्दुओ पर शास्त्र पर आधारित हिन्दू विधि और मुस्लिम पर कुरान पर आधारित शरियत मुस्लिम व्यक्तिगत कानून लागू होता था। लेकिन दाण्डिक मामलो में कोई भेद भाव नहीं था। काजी की अदालते थी । काजी द्वारा ही न्याय प्रदान किया जाता था। राजा-महाराजा भी अपने घर के बाहर न्याय का घण्टा टांगकर न्याय की पूर्ति किया करते थे।
         इसके बाद सन् 1600 में अंग्रेजों के आने के बाद लगभग 1858 तक मुस्लिम अपराध कानून देश में लागू था। लेकिन उसमें समय-समय पर अंग्रेजों द्वारा कुछ परिवर्तन किए थे। लेकिन  समय के साथ वह अपनी व्यवहारिकता खोता जा रहा था। उसमें कई कमियां थीं। काजी मनमाजी करते थे। वह स्त्रियों के प्रति

 अमानवीय था। अतः पहली क्रांति असफल हो जाने के बाद जब 1858 में  भारत का सम्पूर्ण शासन इंगलेड के सम्राट के हाथ में गया, तब भारतीय न्याय व्यवस्था में एक नये युग की शुरूआत हुई । अंग्रेजो द्वारा ही उस समय  वर्तमान न्यायव्यवस्था नीव रखी गई । इस काल में अंग्रेजो के द्वारा विभिन्न अधिनियम बनाये गये । जिनमें से कुछ अधिनियम आज तक प्रचलन में है । जिनमें समयानुसार कोई परिवर्तन नहीं हुए हैं । पहली बार अंग्रेजो के द्वारा विधि का संहिता करण कर उसे साक्ष्य पर आधारित लंबी प्रक्रियात्मक  विधि बनाया गया है।
        अंग्रेजो द्वारा भारत में सभी भारतियों के लिए अपराधिक मामलो में एक समान आपराधिक कानून भारतीय दण्ड संहिता 1860 बनाकर सब पर लागू किया गया । जो आज तक प्रचलनशील है । लेकिन सिविल मामलो में वहीं पुरानी व्यक्तिगत विधि की न्यायिक व्यवस्था में लागू रही । सन् 1908 मेे सिविल प्रक्रिया संहिता की रचना की थी। अंग्रेजी न्याय व्यवस्था में मुन्सिफ मजिस्ट्रेट न्याय प्रदान करते थे । उनके आदेश और निर्णय के विरूद्ध अपील का प्रावधान था ।
        अंग्रेजी न्याय व्यवस्था का मूल उद्देश्य राजस्व वसूली करना अपने व्यक्तियों, व्यापार और राज्य की रक्षा करना जमीदारी कर वसूलना था। इसलिए उन्होंने भारतीयों के व्यक्तिगत कानून पर कोई ध्यान नहीं दिया और भारतीय परिवेश में न्याय व्यवस्था की स्थापना नहीं की गई। अंग्रेजांे ने प्रशासन की बागडोर उनके हाथ में रहे इसलिये न्याय व्यवस्था में पुलिस को अधिक शक्तिशाली बनाया, ताकि पुलिस का दमन चक्र चलाकर अपना राज्य स्थापित कर सकें।
        आज आजाद हुए हमें 60 साल से ज्यादा हो गये है। हमने संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय की गारंटी दी है । उसे विचार मत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी  है। उसे अवसर की समानता, बंधुता की गारंटी दी है । लेकिन आज हम अपने नागरिकों को न्याय प्रदान नहीं कर पा रहे हैं। वे सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक न्याय के लिए नेताओं,सरकारी संस्थाओं, के सामने भटक रहे हैं । विचार, मत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सूचना के अधिकार प्राप्त हो जाने के बाद भी संघर्ष जारी है । समाज में हर स्तर पर असामानता भेदभाव, उंच-नीच की दीवार कायम है । गरीबी और अमीरी के बीच एक लम्बी खाई है। आसमानता, अलगाववाद, आतंकवाद, से देश पीडित है ।
        आज भारत के न्यायालय मुकदमों के बोझ से दब गये हैं। समय पर न्याय मिलना टेढ़ी खीर है। न्याय में विलंब होने के कारण लोगों का कानून से डर समाप्त हो गया। दादा मुकदमा दायर करता है । नाती उसका फल प्राप्त करता है। न्याय महंगा होने के कारण गरीबांे के लिए दुर्भर हो गया है। इस कारण लोगों का न्याय पर से विश्वास डगमगाना प्रारंभ हो गया है। आज लोग धन की वसूली, मकान खाली कराना, संविदा का पालन कराना, जैसे न्यायिक  कार्य, असामाजिक ढंग से कराने के बाध्य हो गये हैं। इसलिए बहुत आवश्यक है कि जनसंख्या के अनुपात के आधार पर न्यायालय की स्थापना की जाये, नहीं तो न्याय आम जनता के लिए प्राप्त करना एंवरेस्ट की चोटी पर फतह करने के समान हो जायेगा।

        देश के न्यायालयों में आज भी करोड़ों रुपये खर्च किये जाने के बाद बुनियादी सुविधाओ, भवन, बिजली, कम्प्यूटर, प्रशिक्षित कर्मचारी, एकांउटेंट, लाइब्रेरियन आदि का अभाव है।ं इसलिए आवश्यक है कि प्रशिक्षित कर्मचारियों की भर्ती कर उन्हें न्यायिक प्रक्रिया से अवगत कराया जाये। देश के न्यायालय ई कोर्ट क्रांति के कारण करोडो रूपये खर्च किये जाने के बाद कम्प्यूटर, लेपटॅाप, इंटरनेट, वीडियो कानफ्रेसिंग जैसी सुविधाआंे से लैस होकर हाइटेक न्यायालय बन गये है । लेकिन इसके बाद भी बिजली आपूर्ति के अभाव में वे अपंगता महसूस करते हैं ।

        आज इतनी सुविधाओ के बाद भी कोई व्यक्ति घर में बैठकर इंटरनेट पर अपने केस की स्थिति ज्ञात नहीं कर सकता है। उसे अपने केस की नकल निकलवाने निर्णय की प्रतिलिपि प्राप्त करने, आज भी अन्य पर निर्भय होना पडता है । अतः आवश्यक है कि न्यायालय में मूलभूत बुनियादी सुविधायें, प्रशिक्षित कर्मचारी बिजली व्यवस्था, बिल्डिंग, फंड, आदि उपलब्ध कराया जावे।



        आज भारत कम्प्यूटर युग, साइबर क्राइम आतंकवाद, मॉलकल्चर के दौर से गुजर रहा है । लेकिन आज भी हम सैकडो साल पुरानी अंग्रेजों द्वारा निर्मित सिविल और दांडिक न्याय प्रणाली को अपनाये हुए है। हम जानते है कि अंग्रेजो द्वारा निर्मित न्यायव्यवस्था में भारतीय परिवेश के अनुसार कानून शामिल नहीं है। इसके बाद भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं करना चाहते हैं । यही कारण है कि आज हमें रोज नये-नये कानून,अधिनियम, अध्यादेश बनाने पड़ रहे हैं।

        न्याय में विलम्ब, न्याय की हानि और न्याय में जल्दी न्याय की हार मानी गई है । लेकिन उसके बाद भी ऐसे नियम कानून अध्यादेश, बन रहे है जिनमें दी गई प्रक्रिया के अनुसार निर्धारित समयावधि में कार्यवाही किया जाना संभव नहीं है । अतः इस संबंध मेंविचार किया जाना चाहिए कि ऐसे प्रावधान न बनाये जाने जिनका पालन प्रयोगिक रूप से देश में अदालतों की कमी एवं काम की अधिकता के कारण सम्भव नहीं है । 


        न्याय प्रणाली में सुधार के लिए आवश्यक है कि भारत में व्याप्त समाजिक आर्थिक, पारिवारकि, राजनैतिक परिवेश को देखते हुए आतंकवाद, साइबर क्राइम, चेक बाउंस, मैच फिक्सिंग, देशद्रोह, आर्थिकअपराध,राजनैतिक घोटाले को देखते हुये अलग-अलग कानून बनाये जाये।  भारतीय न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये यह भी आवश्यक है कि सन् 1860 की भारतीय दंड संहिता की जगह शरीर, संपत्ति, राज्य, लोक सेवक, निर्वाचन, लोक स्वास्थ्य, धर्म, विवाह, सेवा-संविदा, स्त्री-बच्चे, बृद्ध पुरुष, महिला, यातायात, खाद्य सामग्री, वितरण प्रणाली, पर्यावरण आदि के संबंध में अगल-अलग विधान बनाये जाये ।


        आज एक ही विषय पर कई अलग-अलग अपराधिक कानून प्रचलित है ।  अतः आवश्यक है कि इन सभी प्रचलित कानूनो को जो किं एक ही विषय से संबंधित है । उन्हें एक ही विधान में सम्मिलित किया जाये। प्रत्येक अपराध के लिए विशेष न्यायालय, न्यायाधीश की नियुक्ति की जाये। केस निर्धारण के लिए समय सीमा नियत की जाये। प्रत्येक न्यायालय के लिये सुनवाई योग्य प्रकरणों की संख्या सीमित की जाये।समय के अनुसार सजा अर्थदण्ड, क्षतिपूर्ति, प्रतिकर की राशि मंे वृद्धि की जावे । 

        आज दस रूपये में कोई शराब प्राप्त नही ंहोती है । लेकिन शराब पीकर दंगा किये जाने पर धारा 510 भारतीय दण्ड संहिता मंे 10 रूपये अर्थ दण्ड का प्रावधान है । जो समय के अनुसार उचित नही है । लापरवाही, उपेक्षापूर्वक वाहन चलाने पर बहुत कम अर्थ दण्ड का प्रावधान है । यदि अर्थ दण्ड का प्रावधान बढा दिया जाये ।  क्षतिपूर्ति निश्चित कर दी जाये तो मोटर यान अधिनियम के अंतर्गत प्रतिकर के दावो की संख्या पर रोक लगाई जा सकती है ।

        मोटरयान अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत होने वाले प्रतिकर के मामलों में बीमा कम्पनी बीमा होने के बाद भी बीमा की शर्तो के भंग न होने  पर भी अपने जवाब में वह प्रचलित मापदण्ड के अनुसार कितनी प्रतिकर देने तैयार है । इस बात का उल्लेख नहीं करती है । जब कि बीमा कम्पनी को अपने जवाब के साथ प्रतिकर का चेक संलग्न कर जवाब देना चाहिए । इससे प्रतिकर के मामले शीघ्रता से निपट सकते हैं ।

        यदि पराक्रम लिखत अधिनियम के अंतर्गत चेक प्रदान करने वाला व्यक्ति चेक काटने की तुरन्त सूचना बैंक को दे दे तो बैंक में चेक काटने की प्रविष्टि हो जाने के बाद ब्लेंक चेक, सुरक्षा के लिए दिये गये जाली चेक, बेक डेटेड चेक के संबंध में जो मुकदमों की बाढ आई है । वह रोकी जा सकती है । सन् 1881 के इस कानून में इस प्रकार के संशोधन किये जाने की आवश्यकता है । 

        भारत में राजद्रोह संबंधी कई विधिया जैसे राजद्रोहात्मक सभाओ का निवारण अधिनियम 1911 आदि प्रचलित है । जो अंग्रेजी शासन काल की रक्षा के लिए बनायी गई है । जिनकी कोई आवश्यकता नहीं है । उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए । राजद्रोह की परिभाषा में आतंकवाद, जासूसी, देश के विरूद्ध की जाने वाली आपराधिक गतिविधिया, देश की एकता, अखण्डता, को खण्डित करने वाले कार्य भारतीय तिरंगे के अंतर्गत खेलते हुए की जा रही मैच फिक्सिंग को भी शामिल करना चाहिए।

        भारत मंे गुलामी को प्रदर्शित करते कई ऐसे कानून प्रचलित है जिनकी आज कोई आवश्यकता नहीं है । भारत में जाति, निर्याेग्यता अधिनियम 1850 । नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876। सराय अधिनियम 1867। शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923। जैसे कई अधिनियम चलन में है । उन्हें समाप्त किये जाने की आवश्यकता है । 

        आजादी के कई साल बीत जाने के बाद भी कई कानूनो में पुरानी दण्ड व्यवस्था को कायम रखा गया है जैसे विस्फोटक पदार्थ अधिनियम 1908 में आज भी धारा-4ख, में निर्वासन के दण्ड का उल्लेख है । विस्फोटक अधिनियम 1884 में समय के अनुसार परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता है । भोपाल गैस त्रासदी में हजारो लोगों की अकाल मृत्यु हो जाने पर भी हम उचित दण्ड दोषियों को नहीं दे सके ।यह समय के अनुसार न्याय व्यवस्था न बदलने का परिणाम है । 
        भारतीय दंड व्यवस्था जो पूरी तरह से पुलिस दंड व्यवस्था  अथवा पुलिस प्रताडना संहिता है। उसमें व्यापक परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता है । एफ.आई.आर., विचारण, जांच, तलाशी, गिरफ्तारी, कथन, जमानत में जो तांडव देखने को मिलता है। उससे आज हम सब परिचित है। हम ऐसी न्याय व्यवस्था में जी रहे हैं। जिसमें देश की शीर्ष अन्वेषण एजेंसी राजनैतिक प्रभाव में मुकदमें गढ़ रही है। इसलिए हमंे ऐसी स्वतंत्र जांच एजेसी की आवश्यकता है। जिस पर न्याय पालिका के अलावा किसी का नियंत्रण न हो।

     आज जो न्याय प्रणाली है । उससे न तो आरोपी खुश है न तो प्रार्थी खुश है । वादी नाराज है तो प्रतिवादी तंग है। ऐसी सिविल-दाण्डिक न्याय प्रणाली को पूरी तरह बदलने की आवश्यकता है। हमारी न्याय प्रणाली में आज एक बार जिस व्यक्ति के विरुद्ध झूठी-सच्ची, चढ़ा-बढ़ा कर एफ.आई.आर. दर्ज हो जाये या जिसकी संपत्ति के विरुद्ध कोई वाद झूठा प्रस्तुत हो जाए तो उसके बाद उसकी कोई सूनने वाला कोई कानून नहीं है । उसे एक लंबी महंगी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही न्याय प्राप्त हो सकता है। 

         आकड़े बताते है कि 90 प्रतिशत दहेज प्रताड़ता की रिपोर्ट में दूर के रिश्तेदारों को झूठा फंसाया जाता है। जमीन बिक्री के बाद प्रतिफल प्राप्त हो जाने के बाद में मूल्य वृद्धि हो जाने पर विक्रय पत्र को अवैध और शून्य घोषित जानबूझकर कराया जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुति के पूर्व उसकी सत्यता की जानकारी एक समीति के द्वारा संक्षिप्त जांच कर की जाये और उस समीति के द्वारा ही मुकदमें के परिणाम से संभावित कानून को ध्यान में रखते हुए पक्षकारों को अवगत कराया जाये।उसके बाद ही यदि मुकदमे में दम हो तो उसे न्यायालय में प्रस्तुत कराया जाये ।
       

       
        हमारी न्याय व्यवस्था में प्रमाणित, साबित स्वयं सिद्ध, अकाटय् तथ्यों को भी न्यायालय में बार-बार आकर साबित करना पड़ता है। जिसके कारण सालों मुकदमें लंबित रहते हैं। सच्ची बातें झूठी साबित हो जाती है। इसके लिए आवश्यक है कि अन्वेषण के प्रत्येक प्रक्रम पर वैज्ञानिक तरीके से जांच की जाये, आरोपी और प्रार्थी दोनों को सुनवाई का पर्याप्त अवसर देते हुए यदि घटनास्थल, चिकित्सीय परीक्षण रिपोर्ट, एफ.एस.एल. रिपोर्ट, हथियार की जप्ती, साक्षिणें के कथन अंकित आदि किये जाने की कार्यवाही की जाये तो इन सब बातों को बार-बार न्यायालय में आकर प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है । 

        26.11. के हमले की घटना को देश के लाखो-करोडो लोगो ने अपनी आंख से देखा है । उसमें मरने वाले लोगो को देखा है । उस घटना में हुए नुकसान को देखा है । घटना करने वाले व्यक्तियों को देखा है । इसके बाद भी सालो करोडो रूपये खर्च करके उस घटना में घटित अपराध का विचारण किया गया और आरोपी को दण्डित किया गया है । ऐसे मामलो में यदि किसी आपराधिक घटना में यह पाया जाता है कि घटना की जीवन्त रिकार्डिंग बिना किसी छेड छाड के की गई है जिसकी सार्वजनिक रूप से पुष्टि हो रही है, तो ऐसे मिडिया रिकार्डिंग को सर्व प्रथम महत्व देते हुए इस प्रकार के प्रकरणो को उसी रिकार्डिंग के आधार पर तत्काल निपटाना चाहिए । उसमें ज्यादा श्रम, समय, बरबाद किये जाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । इसलिए वैज्ञानिक ढंग से की गई घटना की रिकार्डिंग को न्याय व्यस्था में निश्चित प्रमाण माने जाने संबंधी संशोधन साक्ष्य अधिनियम में किया जाना चाहिए । 

         हमारी न्याय व्यवस्था में न्याय महंगा है। इसलिए दुर्लभ है। जबकि न्यायालय को पीड़ित तक खुद पहंुचना चाहिये । संपूर्ण न्याय व्यवस्था निःशुल्क और निष्पक्ष होना चाहिये । गरीबों के लिए उच्च और उच्च्तम न्यायालय जाना चार धाम की यात्रा की तरह नहीं होना चाहिए । गरीबी के कारण आज कई पक्षकार पूरी जिंदगी इन न्यायालयों से सहायाता प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उनकी देहरी तक छू नहीं पाते हैं। 


        इनके लिए निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराने विधिक सेवा प्राधिकरण की जिला  तालुका स्तर पर रचना की गई है । लेकिन इनकें कार्यलय, प्रचार प्रसार सामग्री केवल जिलो तक सीमित होने के कारण वास्तविक जरूरतमंद व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त नहीं हो पा रही है । निःशुल्क विधिक सहायता हम आरोपी अथवा प्रार्थी को अथवा न्यायालय में उपस्थित पक्षकार को देते है । लेकिन जो व्यक्ति न्यायालय आना चाहता है । जो गरीबी के कारण न्यायालय नहीं आ पा रहा है । उनकी तरफ ये संस्थाये देखती तक नहीं है । जबकि वास्तव में वही निशुल्क विधिक सहायता पाने का पहला हकदार व्यक्ति है ।

        हमारे देश में नामी-गिरामी, प्रशिक्षित, प्रवीण, वकीलांे की फीस फिल्म के हीरों और क्रिकेट खिलाड़ियों के पारिश्रमिक की तरह है । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को उसकी पसंद का अधिवक्ता संविधान के अनुसार प्राप्त नहीं हो पाता है। इसलिये आवश्यक है कि न्याय व्यवस्था को सस्ता, सुलभ, शीघ,्र पारदर्शित,  बनाने जाने के लिये उसे निःशुल्क कर दिया जाये । 

        उसके लिए आवश्यक है कि सरकार न्यायालय में प्रस्तुत होने वाले प्रत्येक सिविल और दांडिक मुकदमें में उपस्थित होने वाले अधिवक्ता को नियत फीस दे और खुद मुकदमें का खर्च सरकार को व्ययन करना चाहिये। हमारी न्याय व्यवस्था में सिविल और दांडिक केस निपटने के बाद प्रतिकर की बात कही जाती है। जबकि आवश्यक है कि जमानत के साथ ही आरोपी से प्रतिकर राशि वसूल की जाये ताकि वह तत्काल प्रार्थी के इलाज, राहत में काम आ सके। इसी प्रकार सिविल मामलों में मुकदमा दायर होते ही निर्णय का पालन किया जाएगा इस बात की जामानत ली जानी चाहिये और क्षतिपूर्ति भरवाना चाहिए ताकि निष्पादन की लंबी प्रक्रिया से बचा जा सके।

        हमारी न्याय प्रणाली में निष्पादन से वास्तविक न्यायिक लड़ाई प्रारंभ होती है । जबकि वास्तव में जब एक बार किसी आदेश, निर्णय की वरिष्ठ न्यायालय द्वारा पुष्टि हो जाती है तो उसके बाद निष्पादन की प्रक्रिया अन्य कोई कानूनी उपचार उपलब्ध न होने के कारण नहीं चाहिये। वरिष्ठ न्यायालय द्वारा ही उसका निष्पादन संपन्न करा देना चाहिये। 

        हमारी न्याय प्रणाली में सरकार जनता की तरफ से आपराधिक प्रकरण लड़ती है । सरकार की तरफ से एक दिन में 100-100 मुकदमें मे एक सरकारी वकील पैरवी करता है। उसकी  योग्यता क्षमता, से हम सब परिचित है । इस प्रकार सरकार पक्षकारों पर सरकारी वकील थोपकर पीड़ित को न्याय प्रदान नहीं कर पाती है । अधिकांश मुकदमें सही ढंग से लड़े न जाने के कारण छूट जाते हैं । जिसका जनता में रोष देखा जा सकता है। 

        इसके लिए आवश्यक है कि पीड़ित को अपनी तरफ से अधिवक्ता नियुक्ति की छूट देकर उसके माध्यम से संपूर्ण अभियोजन कार्यवाही पूर्ण करानी चाहिये और उसके अधिवक्ता का शुल्क सरकार के द्वारा अदा करना चाहिये। इस संबध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 और 301 में  यह संशोधन किया जाना चाहिए ।
        इसके अलावा हमारे यहां परिवाद पंजीबद्ध हो जाने के बाद एफ0आई0आर0 दर्ज हो जाने के तत्काल बाद आरोपी को उस संबध में सुने जाने और अपना बचाव तत्काल प्रस्तुत किये जाने की अनुमति दी जानी चाहिए । प्रार्थी को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-207 के अंतर्गत चालान की नकल दी जाना चाहिए । इसी प्रकार परिवाद पंजीबद्ध हो जाने के बाद केवल परिवाद की प्रतिलिपि देने का प्रावधान है । जबकि परिवाद पत्र के अलावा धारा-200,202 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत अंकित कथन एंव परिवाद के साथ प्रस्तुत दस्तावेज भी संमस के साथ भेजे जाने चाहिए अथवा न्यायालय में उपस्थित होने पर दिये जाने चाहिए ।   

        हमारे देश में सालो आपराधिक प्रकरण चलते हैं । प्रार्थी को उसके साथ घटित घटना में आरोपी के विरूद्ध क्या न्यायालयीन कार्यवाही हुई है । इसकी उसे कोई जानकारी नहीं रहती है। वह केवल सरकारी गवाह के रूप में उपस्थित होता है । घर चला जाता है । उसके बाद उसके प्रकरण में क्या हुआ इसकी उसे कोई जानकारी नहीं दी जाती है । इसलिए आवश्यक है कि उसे चालान पेश होने के समय चालान की नकल दी जाये, ताकि वह यह जान सके कि उसकी रिपोर्ट पर किस प्रकार का मामला प्रस्तुत किया गया है । निर्णय हो जाने के बाद उसे अपील की सुविधा दी गई है, इसलिए निर्णय की जानकारी भी दी जानी चाहिए । 

        हमारे यहां चालान के साथ आरोपी, साक्षी, जमानतदार, आदि से संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत किये जाते हैं परन्तु उनकी पहचान के संबंध में कोई दस्तावेज नहीं रहता है । जिसके कारण बाद मेंउन्हें तलाशने में समय गवाना पडता है । इसलिए आवश्यक है कि इन सबके फोटोग्राफ उनके बयान के साथ नाम,पता,व्यवसाय, मोबाइल नंबर सहित अंकित किया जाना चाहिए । 

        हमारे देश में सबसे बड़ी मुकदमें बाज सरकार है । जो हर छोटी से छोटी बात को बड़ी से बडी अदालत में ले जाना उचित समझती है। यदि सरकार न्यायलय में मुकदमा प्रस्तुत करने के पहले उसकी जांच एक कमेटी से करवा ले और यह पाये कि आदेश प्रचलित नियम कानून के अनुरूप है, तो सरकार मुकदमेंबाजी में लोकधन बर्बाद करने से बच सकती है और अपनी जनता को न्याय प्रदान कर सकती है। 

        हमारी न्याय व्यवस्था में विधि के सिद्धांत वैज्ञानिक एंव सुनिश्चित नहीं है । एक ही बिन्दु पर कई पक्ष विपक्ष में अभिमत प्राप्त हो सकते हैं । विधि नियमो की बाहुल्यता है  । इस कारण न्यायालयो को कार्य करने में असुविधा होती है । अतः आवश्यक है कि प्रत्येक न्यायालय मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये दिशानिर्देश के अनुरूप कार्य करे और अनुच्छेद 141 के अंतर्गत उसे विधि मानकर उसका पालन करें ।

        भारत में न्यायिक सेवा भी देश की उच्चत्तर सेवाओं में सदस्यों को प्राप्त वेतन, सुविधा के कारण शामिल हो गई है। लेकिन इसके बाद भी जिनता व्यय सरकार के द्वारा न्यायिक सेवा पर और विश्वास जनता के द्वारा  किया जाता है। उस सुविधा और विश्वास के अनुरूप प्रतिफल प्रदान करने में न्यायिक संस्थान असफल है। एक अदालत दुसरी अदालत को राहत देने की जिम्मेदारी यह कहकर टाल देती है कि उन्होंने ही पूरे न्यायादान का ठेका नहीं ले रखा है। जबकि प्रचलित कानून के अनुसार वह खुद न्यायादान प्रदान कर सकते है। जिसके कारण न्याय में विलंब और खीजता पक्षकारों में उत्पन्न होती है। इस न्यायिक आचरण में भी त्वरित न्याय प्रदान करने सुधार की आवश्यकता है।
       
        भारतीय न्याय व्यवस्था में न्यायिक प्रक्रिया में सुधार हेतु न्यायिक प्रशिक्षण संस्थान एवं  अनुसंधान केन्द्र खोले गये हैं। इन संस्थाओं द्वारा समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रम, रेफ्रेसर कोर्स आयोजित किए जाते है। लेकिन इसके बाद भी न्यायाधीशगण नवनीनतम कानून और प्रक्रिया से लम्बे समय तक अनभिज्ञ देखे गये हैं। इसके लिए आवश्यक है कि न्यायिक प्रशिक्षण संस्थान पुरानी विधियों को लेकर की जा रही घिसी पिटी प्रशिक्षण प्रक्रिया से हटकर कुछ नया सोचे, समझे और करे। 

        हमारे देश में न्यायिक प्रक्रिया नए दौर से गुजर रहे हैं। समयानुसार रोज नये कानून विधान, नियम अध्यादेश बन रहे हैं। प्रचलित कानूनों में संशोधन हो रहा है। जिनका वास्तविक ज्ञान न्यायालयों को विलम्ब से होता है। उन्हें किस रूप में कानून लागू करना है। यह बात समय पर समझ नहीं आती है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि प्रशिक्षण संस्थान इन नये कानूनों पर क्रेन्द्रित होकर अपना कार्य करे और नवीनतम विधि प्रक्रिया से न्यायालय को अवगत कराये।

        न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों को एक ही विषय पर प्रचलित विरोधाभाषी, कानून, मत, अभिमत, न्यायदृष्टांत का अध्ययन कर यह बताना चाहिए कि कौन सा कानून अब अधिक उचित और तर्क संगत है। किसे लागू किया जाना चाहिए, इस संबंध मंे अभिमत देना चाहिए । इसके साथ  वैज्ञानिक ढंग से शोध कर वैज्ञानिक तरीके से प्रचलित विधि से अवगत कराकर उसमें क्या सुधार, संशोधन, न्यायहित, लोकहित में प्रकरण के शीघ्र निराकरण हेतु हो सकता है। इन सब विषयवस्तु पर कार्य किया जाना चाहिए तभी उनकी सार्थकता सिद्ध हो सकती है।

        इन न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों में सर्वसुविधाआंे से युक्त, नवनियुक्त न्यायाधीशों में भी काम के प्रति लगन, निष्ठा, कार्यक्षमता जगाकर उनमें प्रचलित विधि के अनुसार न्यायदान करने की क्षमता का विकास करना चाहिए। ये न्यायाधीश विधि के ज्ञाता,  विशेषज्ञ जानकार हैं, इसलिए लाखों में से चुनकर आए हैं। यह मानते हुए उन्हें वही अध्ययन पुनः न कराकर उनके कार्यक्षेत्र संबंधी व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

        प्रत्येक नवनियुक्त न्यायाधीश को प्रशिक्षण काल में ही कार्यरत न्यायालयों में जोड़कर उन न्यायालयों में लम्बित फाइलों के अनुसार आदेश, निर्णय आदि लेखन कराकर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि प्रशिक्षण बाद उन्हें किसी व्यवहारिक कठिनाई का सामना न करना पड़े और वह व्यवहारिक रूप से न्याय प्रदान करें। 

        हमारी न्याय व्यवस्था में बहुत सी कमियां अधीनस्थ न्यायिक कर्मचारियों में भी हैं। जो न्याय प्रदान में बाधक है। वे पूर्णतः प्रशिक्षित नहीं है। उनमंे कम्प्यूटर में कार्य करने की समयानुसार  क्षमता नहीं है। उन्हंे भी न्यायिक अधिकारियों की तरह समय-समय पर प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता है।     
  
        इस प्रकार आज हमारे देश में बदलते सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिवेश को देखते हुए न्याय व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।आज देश मे न्यायालय के अलावा न्यायालय के बाहर न्यायिकेत्तर उपाय से प्रकरण सुलझाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है कि न्यायालय के अलावा कुछ संस्था, प्राइवेट एजेंसी, एन.जी.ओ. को न्यायिक अधिकार प्रदान किये जाये कि वे ज्यादा से ज्यादा मुकदमंे सुलह,, समझाइश , समझौते, मध्यस्थता, के माध्यम से न्यायालय के बाहर निपटाये। 

         यदि न्यायालय पर बढ़ते हुए मुकदमों के बोझ को कम नहीं किया गया और विलंब से न्याय प्रदान किया गया तो देश में न्याय तक पहंुच वाली न्याय व्यवस्था पर से लोगांे का विश्वास उठ जाएगा और जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय निर्मित नहीं किये गये तो न्याय कछुआ और मुकदमें खरगोश की चाल से बढ़ते हुए इस देश की न्याय व्यवस्था को चौपट कर देंगे।
       
                                   उमेश कुमार गुप्ता
                                    















भारतकासंविधानऔरपर्यावरसंरक्षण

       भारतकासंविधानऔरपर्यावरसंरक्षण                                                                                                      
                      
                                      देश में आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है। चैड़ी सड़कों के लिये पेड़ काटे जा रहे हैं। औद्योगिकरण विकास के लिये नये कारखाने स्थापित हो रहे हैं। शहर कांकरीट के जंगल बनते जा रहे हैं। जिसके कारण जल, वायु, धरती तीनों में प्रदूषण बढ़ रहा है। जिसके कारण लोगों का जीवन जीना दूभर हो गया है। प्रदूषण के कारण ही बहरापन, विकलांगता, अंधापन, केंसर, अस्थमा आदि बीमारिया से लोग ग्रसित हो रहे हैं।
                                               हमारे संविधान के आर्टिकल-48-अ में कहा गया कि ष् राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन का और वनों तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार आर्टिकल-51-अ में पर्यावरण संरक्षण को नागरिकों का मूल कत्र्तव्य मानते हुये यह प्रावधान किया गया है कि- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करं और उनका संवर्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखें।
                                 संविधान के इन्हीं प्रावधानों को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, जल प्रदूषण अधिनियम 1974, वायु प्रदूषण अधिनियम 1981, राष्ट्रीय पर्यावरण अधिनियम 1995, ध्वनि प्रदूषण नियम 2000, रसायन दुर्घटना आपात योजना तैयारी और अनुक्रिया नियम 1996 जैसे अलग-अलग अधिनियमों की रचना की गई है।
                                   संविधान के अनुच्छेद-21 में जीवन जीने के अधिकार में मानव स्वास्थ्य क्षेम के लिए पर्यावरण को माना गया है। पर्यावरण संरक्षण सरकार एवं न्यायालय का दायित्व बताया गया है।
                  अनुच्छेद21 के अंतर्गत सफाई एवं पर्यावरण शुद्धाता को शामिल करते हुये यह निर्धारित किया गया है कि पर्यावरण प्रदूषण से पीडि़त एवं प्रभावित व्यक्ति प्रतिकार पाने का हकदार है।
                               इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुये 19 नवम्बर 1986 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की रचना की गई। इसके अनुसार पर्यावरण प्रदूषण से तात्पर्य पर्यावरण में किसी भी पर्यावरणीय प्रदूषण का विद्यमान होना शमिल है, तथा पर्यावरण से अभिप्राय जल, हवा और भूमि तथा जल, भूमि और हवा तथा मानवीय प्राणी अन्य जीवित प्राणी, पौधे, सुक्ष्म जीवाणु तथा संपत्ति में और उनके बीच विद्यमान अंतर्संबंध शामिल है।
                                 इस अधिनियम की धारा-3 में केन्द्र सरकार को शक्ति दी गई है कि अधिनियम के उपबंधों के अंतर्गत पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा संरक्षण के लिए और पर्यावरणीय प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण, अपशमन के लिये उपाय करें। जिसमें पर्यावरण के मानक निर्धारित करना और प्रदूषण को दूर करने के उपाय शामिल हैं। इस संबंध में न्यायालय द्वारा भी समय-समय पर नोटिस जारी किए गए हैं। जिसके उल्लंघन पर धारा 15, 16 में दण्ड के प्रावधान दिये गये हैं।
                                      न्यायालय द्वारा पर्यावरण प्रदूषण से हुई नुकसानी के लिए राहत और प्रतिकर देने, दुर्घटना से प्रभावी रूप से शीघ्र निपटने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अधिकरण अधिनियम 1995 को राष्ट्रपति के द्वारा दिनांक-17.06.1995 को स्वीकृति प्रदान की गई है। जिसके अंतर्गत पर्यावरण दुर्घटना से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति संबंधी विधि की व्यवस्था की गई है। इसके अंतर्गत अधिकरण की स्थापना की जायेगी जो दावों की सुनवाई करेगी।
                            
                                                         पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक मामलों में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा समय-समय पर दिशा निर्देश जारी किए गए हैं न्यायालय द्वारा दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ईंटों के कारखानों से कारित प्रदूषण को रोकने के लिये ऐसे कारखानों को बंद करने अथवा अन्यत्र ले जाने का आदेश दिया गया। न्यायालय द्वारा ही निर्धारित किया गया है कि प्रदूषण का पता लगाने तथा रोकने के उपाय करने का कार्य बोर्ड का है। यमुना के जल को प्रदूषित होने से रोकने के लिए दिल्ली एवं हरियाणा के कई उद्योगों पर प्रतिबंध लगाये गये हैं। ताजमहल को प्रदूषण से बचाने के लिए वहां से अतिक्रमण को हटाने तथा उस क्षेत्र को हल्का औद्योगिक क्षेत्र घोषित नहीं करने का आदेश दिया गया।
                                     एल. सी. मेहता विरूद्ध भारत सरकार संघ ए.आई.आर 2001 एस.सी. 3262 में न्यायालय ने अधिनिर्धारित किया कि आर्टिकल 51 क (छ) के अंतर्गत केंद्र सरकार का यह कत्र्तव्य है कि वह             देश की शिक्षण संस्थाओं में एक  घंटे पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा देने का निर्देश दे।
                                   माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रदूषण रहित जल और वायु के उपभोग को अनुच्छद 21 में मूल अधिकार माना गया। पेट्रोल और डीजल से चलित वाहनों के कारण प्रदूषण को रोकने विशेष उपाय किये जाने सरकार को निर्देशित किया गया है।
                                                 इन री ध्वनि प्रदूषण ए.आई.आर 2005 एस.सी 3036 के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने सरकार को ध्वनि प्रदूषण रोकने निर्देश दिया है कि देश भर में व्याप्त ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए उससे संबंधित कानूनों को कड़ाई से लागू करें।
               
                                                 उच्चतम न्यायालय ने अधिनिर्धारित किया है कि आर्टिकल 21 के अंतर्गत सभी व्यक्ति को मानव गरिमा से जीने का मूल अधिकार प्राप्त है। मानव जीवन का आकर्षण सुख पूर्ण जीवन जीना है। प्रत्येक व्यक्ति को आर्टिकल 21 के अंतर्गत ध्वनि प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन बिताने का अधिकार है। जिसको अनुच्छेद 19-1-अ में प्रदत्त अधिकार का प्रयोग करने में विफल नहीं किया जा सकता है।
                                              आर्टिकल 19-1-अ में प्रदत्त अधिकार आन्यत्रिक नहीं है। उस पर आर्टिकल 19-2 के अंतर्गत युक्तियुक्त निर्बन्धन लागू किए जा सकते हैं। कोई भी व्यक्ति लाउडस्पीकर और आधुनिक ध्वनि विस्तारकों द्वारा किसी को उसकी आवाज सुनने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

                             इन री ध्वनि प्रदूषण ए.आई.आर 2005 एस.सी 3036 में न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देश दिये हैं -
    1.    पटाखों की ध्वनि स्तर वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली  के अनुसार करना चाहिए। जब तक कि इससे अच्छी प्रणाली न खोज ली जाए।
    2.    ध्वनि करने वाले पटाखो के प्रयोग पर 10 बजे रात से 6 बजे सुबह तक पूर्ण रोक होगी।
    3.    पटाखों को दो भागों में बांटना चाहिए। एक घरेलू प्रयोग के लिए और दूसरा निर्यात के लिए। दोनों के रंग अलग होना चाहिए। घरेलू पटाखों पर रासायनिक तत्वों की जानकारी प्रकाशित होनी चाहिए।

               
    4.    लाउडस्पीकर आदि यंत्रों का ध्वनि विस्तार 10 डेसिबल-ए से अधिक नहीं होगा।
    5.    आवासीय क्षेत्रों मंे कारों के हाॅर्न का प्रयोग वर्जित होगा।
    6.    जब तक सरकार समुचित कानून नहीं बनाती तब तक उपर्युक्त निर्देश कानून की तरह माने जायेंगे।

                                       एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ ए.आई.आर 1991-सुप्रीम कोर्ट     ..............के एक लोकहित वाद में उच्चतम न्यायालय ने  केंद्र और राज्य सरकारों को निम्नलिखित निर्देश पर्यावरण के संबंध में दिये हैं ?
    1.    वे सभी सिनेमाघरों भ्रमणकारी सिनेमाघरों में प्रत्येक शो के पूर्व प्रदूषण संबंधी कम से कम 2 स्लाइड अवश्य दिखाये। यह उन्हें लाइसेंस की एक शर्त होनी चाहिये।
    2.    फरवरी 1992 से प्रत्येक दिन सिनेमाघरांे में थोड़ी अवधि की प्रदूषण संबंधी फिल्म दिखाई जानी चाहिए।
    3.     रेडियो और दूरदर्शन से प्रत्येक दिन 5 से 7 मिनिट का प्रोग्राम प्रसारित किया जाना चाहिए तथा सप्ताह में एक बार इस पर एक लंबा प्रोग्राम दिखाया जाना चाहिए।
    4.    स्कूल, काॅलेजों, विश्वविद्यालयों में प्रदूषण एक अनिवार्य विंषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि छात्रों को इसकी जानकारी हो सके और वे इसे अपना लें।
    कांउसिल फाॅर इन विरो लीगल एक्शन विरूद्ध यूनियन आॅफ इण्डिया ए.आई.आर 1996-5-एस.सी. 281 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भारत के समुद्री तट क्षेत्रों में स्थित कारखानों द्वारा
               
                                               पारिस्थितिकी और पर्यावरण को होने वाली क्षति से संरक्षण प्रदान करने के लिए आवश्यक निर्देश दिये हैं जिससे संबंधित अधिनियमों के प्रावधानों को प्रभावी रूप से लागू किया जा सके। न्यायालय द्वारा  संबंधित उच्च न्यायालयों में हरी पीठ ग्रीन बेंच की स्थापना का सुझाव दिया जो इस प्रकार के मामलो की सुनवाई करे और निपटावे।
                                माननीय उच्चतम न्यायालय के सुझाव को ध्यान में रखते हुये 02 जून 2010 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 (ग्रीन ट्रिब्यूनल) की स्थापना की गई। इसका मूल उद्देश्य भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के अंतर्गत स्वास्थ्य पर्यावरण भारत के नागरिकों का मूल अधिकार होने के कारण पर्यावरण की सुरक्षा रहत और व्यक्तियों और संपत्ति के नुकसान के लिए मुआवजा देने संबंधी मामलों को शीघ्र और प्रभावी ढ़ंग से निपटाना है।


    राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 की धारा 14 में दी गई अनुसूची के अनुसार निम्नलिखित 06 अधिनियम से संबंधित मामलों का निपटारा किया जायेगा।
    1.    जल प्रदूषण का निवारण अधिनियम 1976।
    2.    जल प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण उपकर  अधिनियम 1977।
    3.    वन संरक्षण अधिनियम 1980।
    4.    वायु प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण अधिनियम   1981।
    5.    पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986।
    6.    सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम 1991 और जैव  विविधता    अधिनियम 2002।




                   
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 (ग्रीन ट्रिब्यूनल) की मुख्य विशेषतायेंः-
    1.़    ग्रीन ट्रिव्यूनल में एक अध्यक्ष होगा, 10 राज्य स्तर पर         गठित और 20 केंद्र स्तर पर गठित अधिकरण में             विशेषज्ञ सदस्यों की नियुक्ति की जायेगी।
    2.    आवश्यकता पड़ने पर विशेष ज्ञान और विशेषज्ञता         वाले व्यक्तियों को निमंत्रित किया जाएगा।
    3.    सर्वप्रथम पाॅंच राज्यों में कलकत्ता, नई दिल्ली, पूने,         भोपाल, चेन्नई में अधिकरण की स्थापना की गई है।
    4.    पूणे सर्किट बेंच का क्षेत्राधिकार महाराष्ट्र, गुजरात,         गोवा, दमन दीव में होगा।
    5.    अधिकारण 06 माह में निर्णय देगी।   
    6.    90 दिन में सुप्रीम कोर्ट में अपील हो सकती है।
    7.    पर्यावरण संबंधी 6 अधिनियमों के आदेश की 30 दिन         के अंदर न्यायधिकरण में अपील होगी।
    8.    सिविल कोर्ट की डिग्री की तरह निष्पादन होगा।
    9.    सिविल कोर्ट अधिकर होंगे।
    10.    अधिनियम की धारा-15 के अंतर्गत वाद कारण             दिनाॅक से 5 वर्ष के अंदर आवेदन किया जायेगा।
    11.    विशेष कारण से 60 दिन और आवेदन की अवधि             बढ़ाई जा सकती।
    12.    पर्यावरण संबंधी 6 अधिनियमों की अपीलीय             अधिकारिता का प्रयोग करेगा।
    13.    दुनियाॅ का भारत तीसरा देश आस्ट्र्ेेलिया, न्यूजीलैण्ड         के बाद है जिसने इस न्यायाधिकरण की रचना की।
             
    14.    यह न्यायाधिकरण प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर         कार्य करेगा।
    15.    यह एक फास्ट टे्र्क अर्द्ध न्यायिक न्यायालय है
    16.    इससे उच्च न्यायालयों में मुकद्मों का बोझ कम             होगा।
    17.    इसकी स्थापना में मान0 न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार का         विशेष योगदान है।

                         उमेश कुमार गुप्ता
                         

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta