सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक परिचय umeshgupta

    सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक    परिचय             
        भारत के संविधान मंे लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है, जिसमें जनता में से जनता के द्वारा जनता के लिए, चुने व्यक्तियों द्वारा राज्य किया जाता है । इस प्रकार जनता का राज्य होता है । ऐसे राज्य मंे प्रत्येक नागरिक, वर्ग, को यह जानने का अधिकार है कि उसके खून-पसीने की कमाई से एकत्र किये गये टैक्स को सरकार किस प्रकार खर्च कर रही है । उससे प्राप्त राशि का किस प्रकार लोक  प्राधिकारी लोक संस्थाएं उपयोग कर रही है । ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति सरकार से करता है । इसी पारदर्शिता को लागू करने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की स्थापना की गई है । जिसे आगे संक्षिप्त में आर.टी.आई. कानून कहा गया है ।

        लोक सूचना अधिनियम की धारा-1 की उपधारा-(3) के अनुसार राष्ट्रपति महोदय की स्वीकृति 15 जून, 2005 को होने के पश्चात् 21 जून, 2005 को भारत के असाधारण राजपत्र भाग-प्प् खण्ड-1 पार्ट-प्प्, अनुसार-1 दिल्ली में प्रकाशित होने के तत्काल प्रभाव से इसकी धारायें धारा 4 की उपधारा- (1) तथा धारा-5 की उपधारा- (1) और  (2),  धारायें 12,13,15,16,24,27,28 लागू हो गई थीं, शेष धारायें इसके अधिनियमित होने के 120  (एक सौ बीस दिन बाद) प्रवृत्त हो गई है । मध्य प्रदेश में यह कानून 12 अक्टूबर 2005 को लाग हुआ है ।

        इस अधिनियम में 31 धारायें है । अधिनियम की धारा-27 के अंतर्गत राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति दी गई है जिसके अंतर्गत सूचना अधिकार  (फीस और लागत का विनियमन) नियम, 2005 बनाया गया है । जिसके अंतर्गत 10 रूपये आवेदन के साथ फीस दी जायेगी जो नगद मांग देय, ड्राफट या बेंकर चैक के रूप में लोक प्राधिकरण के लेखाधिकारी को संदेय होगा । 

        नियम 4 के अनुसार धारा-7 की उपधारा (1) के अधीन किसी सूचना को
उपलब्ध कराने के लिए फीस, निम्नलिखित दर पर, जो समुचित रसीद के विरूद्ध नकद के रूप में या मांग देय ड्राफट या बैंकर चैक के रूप में होगी जो लोक प्राधिकरण के किसी लेखा अधिकारी को संदेय हागा, प्रभारित की जाएगीः-

     (क)    तैयार किए गए या प्रतिलिपि किए गए प्रत्येक  (ए-4 या ए-3 आकार)
        कागज के लिये दो रूपये,
     (ख)    बडे आकार के कागज में किसी प्रतिलिपि का वास्तविक प्रभार या लागात            कीमत,
     (ग)    नमूनो या माडलों के लिए वास्तविक लागत या कीमत, और
     (घ)    अभिलेखों के निरीक्षण के लिए, पहले घंटे के लिए कोई फीस नहीं, तथा
        उसकेे पश्चात प्रत्येक घंटे  (या उसके भाग) के लिए रूपये पांच,

        नियम 5 के अनुसार धारा-7 की उपधारा (5) के अधीन किसी सूचना को उपलब्ध कराने के लिए फीस, निम्नलिखित दर पर, जो समुचित रसीद के विरूद्ध नकद के रूप में या मांग देय ड्राफट या बैंकर चैक के रूप में होगी जो लोक प्राधिकरण के किसी लेखा अधिकारी को संदेय हागा, प्रभारित की जाएगीः-

     (क)    डिस्केट या फ्लाॅपी में सूचना उपलब्ध कराने के लिए, प्रति डिस्केट या     फ्लाॅपी,          पचास रूपये, और
     (ख)    मुद्रित प्ररूप में दी गई सूचना के लिए, ऐसे प्रकाशन के लिए नियत कीमत
        पर या ऐसे प्रकाशन से उद्धरणें की फोटो प्रति के प्रति पृष्ठ के लिए दो
        रूपये ।

इस अधिनियम की धारा-2एफ के अनुसार सूचना से अभिप्राय किसी इलेक्ट्ानिक रूप में धारित 

अभिलेख,
दस्तावेज,
ज्ञापन,
ई-मेल,
मत,
सलाह,
प्रेस विज्ञप्ति,
परिपत्र,
आदेश,
लागबुक,
संविदा,
रिपोर्ट,
कागजपत्र,
नमूने,
माडल,
आंकडो, सबंधी सामग्री

और किसी प्राइवेट निकाय से संबंधित ऐसी सूचना सहित, जिस तक तत्समय प्रवृत्त, किसी अन्य विधि के अधीन किसी लोक प्राधिकारी की पहंुच हो सकती है, किसी रूप में कोई सामग्री अभिप्रेत है ।

        इस प्रकार सूचना के अंतर्गत मूल्यांकन उत्तरपुस्तिका , फाइल की टिप्पणी 

आदि शामिल है । लोक प्राधिकारी में शामिल हैे । कृषि उपज मण्डी समिति, गैर सरकारी संगठन सोसायटी जिनका सरकार द्वारा वित्त पोषण होता है ।

        अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी नागरिकों को सूचना का अधिकार होगा सूचना के अधिकार को धारा-2आई में परिभाषित किया गया है ।

        जिसके अनुसार सूचना का अधिकार से अभिप्रेत है इस अधिनिमय के अधीन पहंुच योग्य सूचना का जो किसी लोक प्राधिकारी द्वारा या उसके नियंत्रणाधीन धारित है, अधिकार अभिप्रेत है और जिसमें निम्नलिखित का अधिकार सम्मिलित है-
    1-    कृति, दस्तावेजो, अभिलेखों का निरीक्षण,
    2-    दस्तावेजो या अभिलेखों के टिप्पण, उद्धरण या प्रमाणित प्रतिलिपि लेना,
    3-    सामग्री के प्रमाणित नमूने लेना,
    4-    डिस्केट, फलापी, टेप, वीडियों कैसेट के रूप में या किसी अन्य इलेक्ट्ानिक             रीति में
        या प्रिंटआउट के माध्यम से सूचना को, जहां ऐसी सूचना किसी कम्प्यूटर
        या किसी अन्य युक्ति में भण्डारित है,
        अभिप्राप्त करना,
        अधिनियम की धारा-8 में सूचना के प्रकट किये जाने से छूट प्रदान की गई है जिसमें लोक प्राधिकारियों को सूचना देने की बाध्यता नहीं होगी । वह निम्नलिखित है-
    क-    सूचना जिसके प्रकटन से
        भारत की प्रभुता और अखण्डता,
        राज्य की सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हित, विदेश से संबध पर             प्रतिकूल प्रभाव पडता हो
         या किसी अपराध को करने का उददीपन होता हो,
        अपराध के उद्दीपन को भा.द.सं. की धारा-383 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार जो कोई किसी व्यक्ति को स्वयं उस व्यक्ति को या किसी अन्य व्यक्ति को कोई क्षति करने के भय में साशय डालता है, और तद्द्वारा इस प्रकार भय मे डाले गए  व्यक्ति को, कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूमि या य हस्ताक्षरित या मुद्रांतिक कोई चीज, जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, किसी व्यक्ति को परिदत करने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करता है, वह उद्दापन करता है ।
        इस प्रकार यदि अवैध वसूली के लिए कोई जानकारी मांगी जाती है तो वह उद्दीपन की श्रेणी में आएगी ।
        भा.दं.सं. की धारा-384 से लेकर 389 तक में उद्दीपन को विभिन्न रूपांे में दण्डित किया है जिसमें  उदद्पन करने के लिए किसी व्यक्ति को क्षति के भय में डालना, किसी व्यक्ति को मृत्यु का घोर उपहति के भय में डालकर उदद्पन, उदद्पन करने के लिए किसी व्यक्ति को मृत्यु या घोर उपहति के भय में डालना, मृत्यु या आजीवन कारावास, आदि से दण्डनीय अपराध का अभियोग लगाने की धमकी देकर उदद्पन, उदद्पन करने के लिए किसी व्यक्ति को अपराध का अभियोग लगाने के भय में डालना शामिल है ।
    ख-    सूचना, जिसके प्रकाशन को किसी न्यायालय
        या अधिकरण द्वारा अभिव्यक्त रूप से निषिद्ध किया गया है
        या जिसके प्रकटन से न्यायालय का अवमान होता है ।
    ग-    सूचना जिसके प्रकटन से
        संसद
        या किसी राज्य के विधान मण्डल 
        के विशेषाधिकार का भंग कारित होगा,
    घ-    सूचना जिसमें वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार गोपनीयता
        या बौद्धिक संपदा सम्मिलित है,
        जिसके प्रकटन से किसी पर व्यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को
        नुकसान होता है,
        जब तक कि सक्षम प्राधिकारी का यह समाधान नहीं हो
        जाता है कि ऐसी सूचना के प्रकटन से विस्तृत लोक हित का समर्थन     होता है,
    ड-    किसी व्यक्ति को उसकी वैश्वासिक नातेदारी में उपलब्ध सूचना,
        जब तक
        कि सक्षम प्राधिकारी का यह समाधान नहीं हो जाता है
        कि ऐसी सूचना के प्रकटन से विस्तृत लोक हित का समर्थन होता है,
    च-    किसी विदेश सरकार से विश्वास में प्राप्त सूचना,
    छ-    सूचना जिसका प्रकट करना किसी व्यक्ति के जीवन या शारीरिक सुरक्षा को             खतरे में डालेगा
        या जो विधि प्रवर्तन
        या सुरक्षा प्रयोजनो के लिए विश्वास में दी गई किसी सूचना
        या सहायता के स्त्रोत की पहचान करेगा,
    ज-    सूचना, जिससे अपराधियों के अन्वेषण, पकडे जाने
        या अभियोजन की क्रिया में अडचन पडेगी,
    झ-    मंत्रिमण्डल के कागजपत्र,
        जिसमें मंत्रिपरिषद, सचिवों और अन्य अधिकारियों के विचार विमर्श के अभिलेख         सम्मिलित है,
        परन्तु यह कि मंत्रिपरिषद के विनिश्चय, उनके कारण तथा वह सामग्री जिसके         आधार पर विनिश्चय किए गए थे,

        विनिश्चय किए जाने और विषय के पूरा या समाप्त होने के पश्चात जनता को         उपलब्ध कराए जाएगे,
        परन्तु यह और कि वे विषय जो इस धारा में विनिर्दिष्ट छूटों के अंतर्गत आते हैं         प्रकट नहीं किए जाएगें,

    ञ-    सूचना जो व्यक्तिगत सूचना से संबंधित है,
        जिसका प्रकटन किसी लोक    क्रियाकलाप
        या हित से सबंध नहीं रखता है
        या जिससे व्यक्ति की एकांतता पर अनावश्यक अतिक्रमण होगा,
        जब तक कि, यथास्थिति केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना         अधिकारी   
        या अपील प्राधिकारी का यह समाधान नहीं हो जाता है
        कि ऐसी सूचना का प्रकटन विस्तृत लोक हित में न्यायोचित है,
        परन्तु ऐसी सूचना के लिए, जिसको, यथास्थिति, संसद
        या किसी विधान- मण्डल को देने से इंकार नहीं किया जा सकता है, किसी             व्यक्ति का इंकार नहीं किया जा सकेगा ।


2-        शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923- 1923 का 19 में उपधारा-1 के     अनुसार         अनुज्ञेय किसी छूट में किसी बात के होते हुए भी,
        किसी लोक प्राधिकारी को सूचना तक पहंुच अनुज्ञात की जा सकेगी,
        यदि सूचना के प्रकट में लोकहित, संरक्षित हितों के नुकसान से अधिक है 

3-        उपधारा-1 के खण्ड क, खण्ड ग, और खण्ड झ के उपबंधों के अधीन रहते             हुए, किसी ऐसी घटना, वृत्तांत या विषय से संबंधित कोई सूचना जो उस             तारीख से, जिसको धारा-6 के अधीन कोई अनुरोध किया जाता है, बीस वर्ष             पूर्व घटित हुई थी या हुआ था उस धारा के अधीन अनुरोध करने वाले किसी             व्यक्ति को उपलब्ध कराई जाएगी ।

        परन्तु यह कि जहां उस तारीख के बारे में, जिससे बीस वर्ष की उक्त     अवधि             को संगठित किया जाता है, कोई प्रश्न उदभूत होता है, वहां इस अधिनियम में         उसके लिए उपबंधित प्रायिक अपीलों के अधीन रहते हुए केन्द्रीय सरकार का             विनिश्चय अंतिम होगा ।

        अधिनियम की धारा-9 के अनुसार वहां पर भी सूचना नहीं दी जायेगी जहां             राज्य से भिन्न किसी व्यक्ति के अस्तित्वयुक्त प्रतिलिप्यधिकार का उल्लंघन             अन्तर्वलित करेगा । 


        अधिनियम की धारा-10 के अनुसार जितने भाग की सूचना अधिनियम में नहीं दी जा सकती है । उस भाग को छोडकर शेष भाग की सूचना पृथककरण कर के दी जाएगी।

        अधिनियम की धारा-11 के अनुसार परव्यक्ति के संबंध में सूचना उससे पांच दिन के अंदर जानकारी ली जाने के बाद की क्या वह सूचना प्रकट की जानी चाहिए या नहीं। यदि वह गोपनीय रखने कहता है तो तीसरे पक्ष के हित का ध्यान रखते हुए सूचना दी जाएगी । अधिनियम की धारा-19 के अनुसार तीसरे पक्ष को अपील का अधिकार प्राप्त है । चालीस दिन का समय तीसरे पक्ष को दिया जाएगा ।

        अधिनियम की धारा-6 के अंतर्गत सूचना प्राप्त करने के लिए लिखित मे  अनुरोध किया जाएगा । अनुरोध प्राप्ति के 30 दिन के भीतर ऐसी फीस संदाय किये जाने पर सूचना उपलब्ध कराई जाएगी । 

        यदि जानकारी किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित है तो वह 48   घंटे के अंदर उपलब्ध कराई जायेगी ।
         अधिनियम की धारा-19 के अंतर्गत 30 दिन के अंदर अपील की जाएगी। दूसरी अपील 90 दिन के अंदर केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को दी जाएगी।


         अधिनियम की धारा-20 के अंतर्गत बिना किसी युक्तियुक्त कारण के सूचना न देने पर कोई आवेदन प्राप्त किये जाने पर निश्चित समय पर सूचना न दिये जाने पर असदभावना पूर्वक सूचना दिये जाने पर, जानबूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना दी है या उस सूचना को नष्ट कर दिया है, जो अनुरोध का विषय थी या किसी रीति से सूचना देने में बाधा डाली है तो वह ऐसे प्रत्येक दिन के लिए जब तक आवेदन प्राप्त किया जाता है या सूचना दी जाती है, दो सौ पचास रूपये की शास्ति अधिरोपित करेगा, तथापि ऐसी शास्ति की कुल रकम पच्चीस हजार रूपये से अधिक नहीं होगी ।
         अधिनियम को अध्यारोही प्रभाव दिया गया है । अन्य न्यायालय की अधिकारिता वर्जित की गई है । 

        आम व्यक्ति को लोकहित में सूचना का अधिकार प्रदान किया गया है । जो विषय वस्तु लोकहित से संबंधित है । वह सूचना के अधिकार में शामिल है । सूचना के अधिकार से आम जनता को यह लाभ प्राप्त है कि लोक प्राधिकारी जो कार्य करेंगे उसकी जानकारी रहेगी । यदि वह मनमाने तौर पर काम करते है तो उस पर रोक लगाई जा सकेगी । यदि उनके द्वारा सरकारी कार्य करने में हीला हवाला किया जाता है, वे कार्य में उपेक्षा बरतते है, जिससे शासकीय कार्य में मनमानी भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद को बढावा देते है तो उन पर रोक लगाई जा सकेगी ।   
     
        आर.टी.आई एक्ट से यह भी लाभ है कि लोकहित के कार्यो की सुनवाई समय पर हो सकेगी । समुचित राहत आम नागरिकों को समय पर प्राप्त होगी। सराकरी सेवको में कर्तव्य परायणता, जनसेवा की भावना जागृत होगी । जो इस अधिनियम का मूल्य उददेश्य है।

        सूचना के अधिकार से देश को यह लाभ है कि लोक प्राधिकारी के कृत्यों में पारदर्शिता आएगी तथा नागरिकों के प्रति जवाबदेही बढेगी । उचित ढंग से कार्य करने की भावना/मानसिकता विकसित होगी ।    

        देश को स्वच्छ प्रशासन प्राप्त होगा । नागरिकों की सामान्य सुविधाए प्राप्त करने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पडेगा लोकहित में मानक स्तर के कार्य होंगे । घटिया निर्माण कार्य पर रोक लगेगी । यही कारण है कि सूचना का अधिकार ’’सुशासन की कुंजी’’ माना गया है । इसके लिए आवश्यक है कि सरकारी रिकार्ड चुस्त दुरूस्त सूची बद्ध कम्प्यूटरीकृत रखे जावे ।

आर.टी.आई. कानून लागू होने के बाद सरकारी विभागों से मांगी जा रही सूचनाओं के कारण अनेक घोटालों का पर्दाफास हुआ है । घोटालो में  फसने वाले नेताओं और अफसरों की नींद हराम हुई है । आर.टी.आई. की सूचना जुटाकर घोटालों का भंडफोड करने में अनेक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडा है । पुलिस प्रशासन द्वारा उन्हें समय-समय पर डराया धमकाया जाता है । समाज के संगठन काम करने वाले ऐसे आर.टी.आई. कार्यकताओं की सुरक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है । सरकार ऐसे कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करें ।

        आर.टी.आई. कानून ने भ्रष्ट नेता और अफसरों की नाक में दम कर रखा है । सही कारण है कि अवैध खनन करने वालो के कारनामों को उजागर करने वाले गुजरात के अमित जेठवा जमीन घोटालों का सच सामने लाने वाले पुणें के सतीश सेठी औरअहमदाबाद के नदीम सैयद जैसे तमाम कार्यकर्ताओं को अपनी जान तक गवानी पडी है । सूचना का अधिकार कानून जैसे-जैसे सशक्त बन कर उभर रहा है । वैसे-वैसे भ्रष्ट लोगों की लाॅबी भी सामने आ रही है । लेकिन चंद लोगों की हत्या या कुछ लोगों को डराने धमकाने से सूचना के अधिकार की मुहीम रूकने वाली नहीं है ।

        जरूरत है तो ऐसे लोगों का साथ देने का और ऐसे प्रशासन पर दबाव बनाने की कि वह भ्रष्ट नेता, अफसरों, के प्रभाव में आकर ऐसा कोई काम न करने पायें जिससे कानून से खिलवाड होता दिखाई दे            

क्रूरता

                                          क्रूरता    

            अभिव्यक्ति  ’’कू्ररता’’ को किसी अधिनियम में परिभाषित नहीं किया है ।जब ेकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-13 के अंतर्गत विवाह विच्छेद का महत्वपूर्ण आधार है और धारा-498ए भा.द.सं. में इसे किसी स्त्री को उसके पति अथवा निकटतम संबंधियों द्वारा कू्ररता पूर्ण व्यवहार करने पर दण्डित किया गया है ।


        कू्ररता शारीरिक या मानसिक हो सकती है । क्रूरता जो विवाह विघटन हेतु एक आधार है, को ऐसी प्रकृति के स्वैच्छिक एंव अन्यायोचित आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकेगा जो जीवन, अंगत या स्वास्थ्य, शारीरिक या मानसिक को खतरा कारित करे या ऐसे खतरे की  युक्तियुक्त शंका को उत्पत्ति प्रदत्त करें । मानसिक कू्ररता के प्रश्न को, विशिष्ट समाज जिसमें पक्षकारगण संबद्ध हैं, के वैवाहिक बंधनों के आदर्शों, उनके सामाजिक गुणों, दर्जो, वातावरण जिसमें वे रहते हैं, के प्रकाश में विचारण किया जाना चाहिए । 

        क्रूरता में यथा उपर नोट किया गया, मानसिक क्रूरता सम्मिलित होती है जो वैवाहिक दोष के अधिकार-क्षेत्र के भीतर आती है ।कू्ररता शारीरिक होना आवश्यक नहीं है ।यदि उसके पति या पत्नी के आचरण से वह स्थापित की जाती है और/या कोई अनुमान वैधानिक रूप से निकाला जा सकता है कि पति या पत्नी का व्यवहार ऐसा है कि यह दूसरे पति या पत्नी के मस्तिष्क में, उसके मानसिक कल्याण के बारे में आशंका कारित करता है तो यह आचरण क्रूरता समझा जाता है।


        विवाह जैसे नाजुक मानव रिश्ते में, हमें अधिसंभाव्यताओं को देखना चाहिए । शंका की छाया से परे सबूत के सिद्धांत को आपराधिक परीक्षणों को लागू करना चाहिए और सिविल मामलो में नहीं और निश्चित रूप से पति और पत्नी के ऐसे नाजुक संबंध वाले मामलों में नहीं लागू करना चाहिए । 


        इसलिए हमे देखना चाहिए कि प्रकरण में क्या अधिसंभाव्यताएं हैं और विधिक कू्ररता का पता न केवल तथ्य के मामले के रूप में लगाया जाना चाहिए बल्कि फरियादी पति या पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव के रूप में, दूसरे के कृत्यांे या कारित करने के कारण से । 


        क्रूरता भौतिक या शारीरिक या मानसिक हो सकेगी । भौतिक कू्ररता में दृश्यमान और प्रत्येक साक्ष्य होती है, परंतु, मानसिक कू्ररता में कभी-कभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगी । ऐसे प्रकरण मे जहां, कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं होती है तो न्यायालयों से घटनों की मानसिक प्रक्रिया और मानसिक प्रभाव की जांच करने की उपेक्षा की जाती है जिनको साक्ष्य में लाया जाता है । यह इस रूप में है कि हमे वैवाहिक विवादों में साक्ष्य का विचारण करना चाहिए । 


        अभिव्यक्ति ’’कू्ररता’’ को मानव आचरण या मानव व्यवहार के संबंध में प्रयुक्त किया गया है । यह वैवाहिक कर्तव्यांे और उत्तरदायित्वों के संबंध में या के बारे में आचरण है । कू्ररता कोई अनुक्रम या आचरण है जो दूसरे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता मानसिक या शारीरिक, स्वैच्छिक या अस्वैच्छिक हो सकेगी । यदि यह शारीरिक है तो इसका विनिश्चय करने मे न्यायालय को कोई कठिनाई नहीं होगी । यह तथ्य और माप का प्रश्न है । यदि यह मानसिक है तो कठिनाई होती है ।


        प्रथम कू्रर व्यवहार की प्रकृति के बारे में जांच प्रारंभ की जानी चाहिए, द्वितीय ऐसे व्यवहार का पति या पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव, चाहे इससे युक्तियुक्त आशंका कारित हुई थी कि यह दूसरे के साथ रहने के लिए नुकसानदायक या क्षतिकारक होगी । आत्यंतिक रूप से यह फरियादी पति या पत्नी पर आचरण की प्रकृति और इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए निकाला जाने वाला अनुमान का एक मामला है परन्तु ऐसा मामला हो सकेगा जहां शिकायत किया गया आचरण स्वयंमेव ही अत्यधिक बुरा और स्वतः अवैध या अविधिक है । तब दूसरे पति या पत्नी पर प्रभाव या क्षतिकारक प्रभाव की जांच या विचारण करने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता स्थापित होगी यदि आचरण स्वयंमेव साबित हो जाता है या स्वीकार किया जाता है । 


        कू्ररता घटित करने के लिए शिकायत किया गया आचरण ’’घोर और वजनदार’’ होना चाहिए ताकि इस निष्कर्ष पर पहंुचे कि याचिकाकर्ता पति या पत्नी से दूसरे पति या पत्नी के साथ युक्तियुक्त रूप से रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । इसको ’’ वैवाहिक जीवक की सामान्य टूट-फूट’’ से और अधिक गंभीर होनी चाहिए ।


        आचरण की जांच परिस्थितियों और पृष्ठभूमि को विचारण में लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहंुचने के लिए जांच की जानी चाहिए, क्या शिकायत किया गया आचरण वैवाहिक विधि में कू्ररता समझा जाता है। आचरण का, यथा उपर नोट किया गया, विभिन्न कारकों की पृष्ठभूमि में विचारण किया जाना चाहिए, जैसे, पक्षकारगण की सामाजिक हैसियत, उनकी शिक्षा, शारीरिक और मानसिक दशाएं , रीति और रिवाज, परिस्थितियां, जो कू्ररता घटित करेंगी, की यथार्थ परिभाषा प्रतिपादित करना या परिपूर्ण विवरण देना कठिन है ।

        यह इस प्रकार की आवश्यक होनी चाहिए कि न्यायालय की अंतरात्मा का समाधान कर सके कि पक्षकारगण के मध्य संबंध, दूसरे पति या पत्नी के आचरण के कारण इस सीमा तक खराब हो चुके थे कि विवाह-विच्छेद अभिप्राप्त करने के लिए शिकायतकर्ता पति या पत्नी को हकदार करने के लिए मानसिक वेदना, प्रताडना या दुःख के बिना उनके लिए एक साथ रहना असंभव होगा । कृप्या देखें-शोभरानी बनाम मधुकर रेडडी ए.आई.आर. 1988, सुप्रीम कोर्ट 121.

        कू्ररता गठित करने के लिए शारीरिक हिंसा आत्यंतिक रूप से अनावश्यक नहीं हैं और अमान्यनीय मानसिक वेदना और प्रताडना कारित करते हुए आचरण का सतत अनुक्रम अधिनियम की धारा-10 के आशय के भीतर कू्ररता को सुगठित कर सकेगी । मानसिक कू्ररता दूसरे व्यक्ति की मानसिक शांति की सतत बाधा में परिणित होते हुए भददी और गंदी भाषा का प्रयोग करने के द्वारा मौखिक गालियों और अपमानों से गठित हो सकेगी ।
       
        क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए याचिका को व्यवहृत करने वाली न्यायालय को ध्यान में रखना चाहिए कि इसके समक्ष समस्याएं मनुष्यों की हैं और विवाह-विच्छेद की याचिका का निपान करने क पूर्व पति या पत्नी के आचरण में मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को ध्यान में रखना चाहिए । चाहे कितना ही अमरत्वपूर्ण या तुच्छ हो, ऐसाआचरण दूसरे के मस्तिष्क में दर्द कारित कर सकेगा । परन्तु ऐसे आचरण को कू्ररता कह सकने के पूर्व, इसे गम्भीरता की कुछ सीमा को अवश्य छूना चाहिए । गंभीरता का माप करना न्यायालय पर निर्भर करता है ।

        यह देखा जाना चाहिए क्या आचरण ऐसा था कि कोई भी युक्तियुक्त व्यक्ति इसको सहन नहीं करेगा । यह विचारण किया जाना चाहिए कि क्या परिवादी से सामान्य मानव जीवन के एक भाग के रूप में वहन करने की अर्ज की जानी चाहिए । 

        प्रत्येक वैवाहिक आचरण, जो दूसरे को क्षोभ कारित कर सकेगा, को कू्ररता नही समझा जा सकेगा । पतियों या पत्नीयों के बीच मात्र तुच्छ नोंक-झोंक, झगडे जो दिन प्रतिदिन के वैवाहिक जीवन मे ंघटित होते हैं, को भी कू्ररता नहीं समझा जा सकेगा । वैवाहिक जीवन में कू्ररता अनाधारित प्रकार की हो सकेगी । जो नाजुक या बर्बर हो सकती है । यह शब्द, संकेत या मात्र चुप्पी, हिंसा या अहिंसा हो सकेगी ।


        मजबूत विवाह की आधारशीला, सहनशीलता, समायोजन और एक दूसरे के प्रति आदर हैे । कुछ सहन करने की सीमा तक एक-दूसरे की त्रुटि के प्रति आदर है । कुछ सहन करने की सीमा तक एक-दूसरे की त्रुटि के प्रति सहनशीलता प्रत्येक विवाह में अंतर्निहित होनी चाहिए । छोटी-छोटी नोंक-झोंक, तुच्छ भिन्नताओं को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए और जो स्वर्ग में बनाया गया होना कहा गया है, को नष्ट करने के लिए फैलाना नहीं चाहिए ।

        सभी झगडों को प्रत्येक विशिष्ट प्रकरण में जो कू्ररता गठित करते हैं, को विनिश्चित करने में उस दृष्टिकोण से मापा जाना चाहिए और यथा उपर नोट किया गया । पक्षकारगण की शारीरिक व मानसिक दशाओं, उनका चरित्र और सामाजिक दर्जा को सदा ही ध्यान में रखते हुए मापा जाना चाहिए ।

        ेअत्यधिक तकनीकी और अत्यधिक संवेदनशील दृष्टिकोण विवाह के संस्थान पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा । न्यायालयों को आदर्श पतियों और आदर्श पत्नियों को व्यवहन नहीं करना चाहिए । इनको इनके समक्ष विशिष्अ पुरूष और स्त्री को व्यवहन करना है । आदर्श युगल या मात्र आदर्श युगल को संभवतः वैवाहिक न्यायालय के पास जाने का अवसर नहीं मिलेगा ।कृप्या देखें- दास्ताने बनाम दास्ताने ए.आई.आर. 1975 सुप्रीम कोर्ट 1534.

         क्रूरता के संबध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली 2006 भाग-4 एस.सी.सी. 558 में मानसिक कू्ररता की संकल्पना के विकास और उद्गम की जांच की थी कि विवाह-विच्छेद की अर्जी मुख्य रूप से कू्ररता के आधार पर फाइल की गई थी । यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद का दावा करने के लिए कू्ररता का आधार नहीं था। यह केवल अधिनियम की धारा-10 के अधीन संशोधन द्वारा कू्ररता को विवाह-विच्छेद का एक आधार बनाया गया था और वेशब्द जो धारा-10 से लोप किए गए इस प्रकार हैं ’’जिससे याची के मस्तिष्क मे युक्तियुक्त आशंका कारित हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना याची के लिए नुकसानदेह या हानिकर होगा’’ । इसलिए, विवाह- विच्छेद का दावा करने वाले पक्षकार के लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकृति का है जिससे यह आशंका- युक्तियुक्त आशंका हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना उसके लिए नुकसान देह या हानिकर होगा ।’’

        शोभा रानी बनाम मधुकर रेडडी 1988 भाग-1 एस.सी.सी. 105 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  मत व्यक्त किया गया है ’’ कू्ररता शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में परिभाषित नहीं किया गया है ं इसका प्रयोग अधिनियम की धारा-’13-1-1क  में वैवाहिक कर्तव्यों या दायित्वों की बावत या सबंधित मानवीय आचरण या व्यवहार के संदर्भ में किया गया है । यह ऐसा आचारण है जो अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता, मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय हो सकती है । यदि यह शारीरिक है तो यह तथ्य और कोटि का प्रश्न है । 

        यदि यह मानसिक है तो जांच कू्रर बर्ताव की प्रकृति और तत्पश्चात ऐसे बर्ताव का दम्पत्ति पर प्रभाव के संबंध से आरंभ होनी चाहिए । क्या यह युक्तियुक्त आशंका पैदा करती है कि इसके कारण दूसरे पक्षकार के साथ रहना नुकसानदेह या हानिकर होगा, अंततः शिकायत करने वाले पति/पत्नी पर इसके प्रभाव और आचरण की प्रकृति पर ध्यान देते हुए मामले का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । 


        तथापि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण अत्यंत बुरा और स्वतः विधिविरूद्ध या अवैध है । तब दूसरे पक्षकार पर इसके प्रभाव या हानिकर प्रभाव की जांच या विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता तभी सिद्ध हो जाएगी यदि आचरण स्वतः साबित या स्वीकृत है । 

        आशय का अभाव मामले में कोई अंतर पैदा नहीं करता यदि मानवीय क्रियाकलाप के मामूली अर्थ में शिकायत किया गया कार्य, अन्यथा कू्ररता माना जाता है । क्रूरता में आशय आवश्यक घटक नहीं है । पक्षकार को अनुतोष इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि जानबूझकर या सोच-समझकर कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया है ।

        वी. भगत बनाम डी. भगत 1994 भाग-1 एस.सी.सी.337 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  मत व्यक्त किया गया है ’’धारा-13-1-1क में मानसिक कू्ररता को मौटे तौर पर ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता जिससे अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा और यातना पहुंचे कि उस पक्षकार के लिए अन्य पक्षकार के साथ रहना संभव न हो । दूसरे शब्दो मे मानसिक कू्ररता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि पक्षकारो से युक्तियुक्त रूप से यह प्रत्याशा न की जा सके कि वे साथ-साथ रह सकें । ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि उस पक्षकार से जिसके साथ दुव्र्यवहार किया गया है । 

        युक्तियुक्त रूप से यह न कहा जा सके कि वह दूसरे पक्षकार के ऐस आचरण को सहन कर ले और उसके साथ जीवन बिताए । यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे आवेदक के स्वास्थ्य को क्षति कारित ही हो । ऐसे निष्कर्ष निकालते समय, पक्षकारांे की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज जिसमें वे रहते हैं, 

पक्षकारेा की यदि वे पहले से ही अलग रह रहे हैं साथ रहने की संभावना या असंभावना और अन्य ऐसे सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनका सम्पूर्ण रूप से उल्लेख करना न तो संभव है और न ही वांछनीय । 

        एक मामले में जो कार्य कू्ररता है वही कार्य दूसरे मामले मे कू्ररता की कोटि में नहीं भी आ सकता । यह ऐसा विषय है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनिश्चय किया जाना चाहिए । यदि यह अभियोगों और अभिकथनों का मामला है तब उस संदर्भ पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें वे किए गए थे ।’’    
   
             इस प्रकार कू्ररता के सबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जो मत ’एन.जी.दास्तने बनाम एस.दास्तने 1975 भाग-2 एस.सी.सी. 326 में व्यक्त किया गया है कि’’इस सबंध में जांच की जानी चाहिए कि क्या कू्ररता के रूप मंे आरोपित आचरण ऐसी प्रकृति का है जिससे याची के चित्त में यह युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि उसका प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकर या क्षतिपूर्ण होगा।’ यह महत्वपूर्ण है ।   
                                                                         (उमेश कुमार गुप्ता)

                            1.        नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली 2006 भाग-4 एस.सी.सी. 558 में  माननीय उच्च्तम न्यायालय द्वारा मानसिक कू्ररता की संकल्पना के विकास और उद्गम की जांच की थी कि विवाह-विच्छेद की अर्जी मुख्य रूप से कू्ररता के आधार पर फाइल की गई थी । यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद का दावा करने के लिए कू्ररता का आधार नहीं था। यह केवल अधिनियम की धारा-10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण का दावा करने के लिए ही आधार था । 1976 के संशोधन द्वारा कू्ररता को विवाह-विच्छेद का एक आधार बनाया गया था और वे शब्द जो धारा-10 से लोप किए गए इस प्रकार हैं ’’जिससे याची के मस्तिष्क मे युक्तियुक्त आशंका कारित हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना याची के लिए नुकसानदेह या हानिकर होगा’’ । इसलिए, विवाह- विच्छेद का दावा करने वाले पक्षकार के लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकृति का है जिससे यह आशंका- युक्तियुक्त आशंका हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना उसके लिए नुकसान देह या हानिकर होगा ।’’

2.        एन.जी.दास्तने बनाम एस.दास्तने 1975 भाग-2 एस.सी.सी. 326
में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’इस सबंध में जांच की जानी चाहिए कि क्या कू्ररता के रूप मंे आरोपित आचरण ऐसी प्रकृति का है जिससे याची के चित्त में यह युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि उसका प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकर या क्षतिपूर्ण होगा।’’    


3.        शाभा रानी बनाम मधुकर रेडडी 1988 भाग-1 एस.सी.सी. 105 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’ कू्ररता शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में परिभाषित नहीं किया गया है ं इसका प्रयोग अधिनियम की धारा-’13-1-1क  में वैवाहिक कर्तव्यों या दायित्वों की बावत या सबंधित मानवीय आचरण या व्यवहार के संदर्भ में किया गया है । यह ऐसा आचारण है जो अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता, मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय हो सकती है । यदि यह शारीरिक है तो यह तथ्य और कोटि का प्रश्न है । यदि यह मानसिक है तो जांच कू्रर बर्ताव की प्रकृति और तत्पश्चात ऐसे बर्ताव का दम्पत्ति पर प्रभाव के संबंध से आरंभ होनी चाहिए । क्या यह युक्तियुक्त आशंका पैदा करती है कि इसके कारण दूसरे पक्षकार के साथ रहना नुकसानदेह या हानिकर होगा, अंततः शिकायत करने वाले पति/पत्नी पर इसके प्रभाव और आचरण की प्रकृति पर ध्यान देते हुए मामले का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । तथापि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण अत्यंत बुरा और स्वतः विधिविरूद्ध या अवैध है । तब दूसरे पक्षकार पर इसके प्रभाव या हानिकर प्रभाव की जांच या विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता तभी सिद्ध हो जाएगी यदि आचरण स्वतः साबित या स्वीकृत है । आशय का अभाव मामले में कोई अंतर पैदा नहीं करता यदि मानवीय क्रियाकलाप के मामूली अर्थ में शिकायत किया गया कार्य, अन्यथा कू्ररता माना जाता है । क्रूरता में आशय आवश्यक घटक नहीं है । पक्षकार को अनुतोष इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि जानबूझकर या सोच-समझकर कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया है ।

4.        वी. भगत बनाम डी. भगत 1994 भाग-1 एस.सी.सी.337 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’धारा-13-1-1क में मानसिक कू्ररता को मौटे तौर पर ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता जिससे अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा और यातना पहुंचे कि उस पक्षकार के लिए अन्य पक्षकार के साथ रहना संभव न हो । दूसरे शब्दो मे मानसिक कू्ररता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि पक्षकारो से युक्तियुक्त रूप से यह प्रत्याशा न की जा सके कि वे साथ-  साथ रह सकें ।ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि उस पक्षकार से जिसके साथ दुव्र्यवहार किया गया है । युक्तियुक्त रूप से यह न कहा जा सके कि वह दूसरे पक्षकार के ऐस आचरण को सहन कर ले और उसके साथ जीवन बिताए । यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे आवेदक के स्वास्थ्य को क्षति कारित ही हो । ऐसे निष्कर्ष निकालते समय, पक्षकारांे की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज जिसमें वे रहते हैं, पक्षकारेा की यदि वे पहले से ही अलग रह रहे हैं साथ रहने की संभावना या असंभावना और अन्य ऐसे सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनका सम्पूर्ण रूप से उल्लेख करना न तो संभव है और न ही वांछनीय । एक मामले में जो कार्य कू्ररता है वही कार्य दूसरे मामले मे कू्ररता की कोटि में नहीं भी आ सकता । यह ऐसा विषय है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनिश्चय किया जाना चाहिए । यदि यह अभियोगों और अभिकथनों का मामला है तब उस संदर्भ पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें वे किए गए थे ।’’

’‘ अभियुक्त के आचरण की सुसंगतता

’‘ अभियुक्त के आचरण की सुसंगतता के संदर्भ में साक्ष्य अधिनियम की धारा-8के विस्तार को समझाईए । ‘‘

        भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा-8 के अनुसार कोई भी तथ्य, जो किसी विवाद्यक तथ्य या सुसगंत तथ्य का हेतु या तैयारी का या पश्चात का दर्शित या गठित करता है , सुसंगत है । 

        किसी वाद या कार्यवाही के किसी पक्षकार या किसी पक्षकार के अभिकर्ता का ऐसे वाद  या कार्यवाही के बारे में या उसमें विवाद्यक तथ्य या उससे सुसगंत किसी तथ्य के बारे में आचरण और किसी ऐसेे व्यक्ति का आचरण जिसके विरूद्ध कोई अपराध किसी कार्यवाही का विषय है ,सुसंगत है । यदि ऐसा आचरण किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य को प्रभावित करता  है या उससे प्रभावित होता है, चाहे वह उससे पूर्व का हो  या पश्चात का।

    स्पष्टीकरण 1- इस धारा में ’’आचरण’’ शब्द के अतंर्गत कथन नहीं आते, जब तक
कि वे कथन उन कथनो से भिन्न कार्यो के साथ-साथ और उन्हें स्पष्ट करने वाले न हो ,किन्तु इस अधिनियम के किसी अन्य धारा के अधीन उन कथनो की सुसगंति पर इस स्पष्टीकरण का प्रभाव नहीं पड़ेगा ।

    स्पष्टीकरण 2- जब किसी व्यक्ति का आचरण सुसंगत है, तब उसस,े या उसकी उपस्थिति और श्रवणगोचरता में किया गया कोई भी कथन, जो उस आचरण पर प्रभाव डालता है, सुसंगत है ।

         किसी व्यक्ति के ‘आचरण’ से तात्पर्य उसके बाहरी व्यवहार से है जो कि चरित्र से बिल्कुल भिन्न है । किसी अभियुक्त का अपराध के पूर्व अथवा पश्चात् कोई आचरण प्रकरण में परिस्थिति जन्य साक्ष्य होने के नाते सुसंगत हो सकता है क्योंकि इससे न्यायालय किसी तथ्य के संबंध में एक अवधारणा सृजित कर सकता है और किसी निष्कर्ष पर पहॅुच सकता है । अतः ऐसे प्रकरणों में जहाॅ कि साक्ष्य स्पष्ट एवं प्रत्यक्ष न हो वहाॅ धारा 8 के संदर्भ में अभियुक्त का आचरण अतिमहत्वपूर्ण हो जाता है । 

        धारा-8 के अंतर्गत आचरण सुसगंत हैः-
         किसी  कार्यवाही के  
    1-     किसी पक्षकार का ,
    2-    उसके अभिकर्ता का
    3-    उसके अभियुक्त का,
         आचरण ऐसी कार्यवाही के संबंध में विवाद्यक तथ्य या सुसंगत है ।
    1-    आचरण जो पूर्वतन है,           
    2-    आचरण जो पश्चातवर्ती है,   
 
        किसी ऐसे व्यक्ति का आचरण जिसके विरूद्ध कोई अपराध  किसी कार्यवाही की विषय वस्तु है । जब आचरण किसी विवाद्यक तथ्य या सुसंगत तथ्य पर प्रभाव  डालता हो, या वह उससे प्रभावित होता हो ।इस धारा के अंतर्गत आचरण सुसगंत तथ्यों और आचरण के विवाद्यक व सुसगंत तथ्यों के संबंध में या उनसे प्रभावित होना चाहिये ।

        आचरण के अंतर्गत कथन और कार्य दोनो आते हैं ,लेकिन विशेष परिस्थितियों में कथन तब तक नहीं आते है, जब तक वे किसी कार्य का स्पष्टीकरण न करे और कार्य तथा कथन दोनो साथ हो । केवल कथन मात्र आचरण नहीं है । 

        आचरण चाहे वे तथ्य के पहले का हो या बाद का हो दोनो दशाओं में सुसंगत है । उसे साबित किया जा सकता है । लेकिन उसके लिये आवश्यक है तथ्य से आचरण प्रभावित हुआ है या आचरण से तथ्य प्रभावित  हुआ है । 

        प्रथम सूचना रिपोर्ट इस धारा के अंतर्गत आचरण के रूप में ग्राहय है ।  अपराध किये जाने के विषयक में  दी गई । प्रथम इत्तला रिपोर्ट से यह मालूम होता है कि विचाराधीन मामले की जांच जिस विषय वस्तु के आधार पर प्रारंभ की गई और घटना के  संबंध में उस रिपोर्ट  में उस समय क्या कहा गया इसलिये केवल घटना के पक्षकार के आचरण साक्ष्य में ग्राहय है ।

        जहाॅ अपनी ही पत्नी की हत्या करने के बाद अभियुक्त ने पुलिस को यह सूचना दी कि उसने आत्महत्या कर ली थी और उसने ऐसा कथन किया जो उसके पक्ष में था इस प्रकार ऐसी प्रथम सूचना रिपोर्ट धारा 8 के अधीन सुसंगत है क्योंकि इससे दोषी व्यक्ति का आचरण स्पष्ट होता है । 

        आचरण के संबंध में ग्राहयता कि आरोपी का आचरण केवल उसके दोषी करने के लिये सुसगंत तथ्य है । अपराध में फसने वाले आचरण संबंधी उसी बात को माना जा सकता है जिसके बारे में उसके द्वारा कोई युक्तियुक्त स्पष्टीकरण न दिया गया हो कि अभियुक्त दोषी है ।     

        धारा-8 के स्पष्टीकरण-एक के अनुसार  कहे गये कथन किसी दशा में सुसंगत होगें तब वे आचरण को करते समय कहे गये या ऐसे आचरण की व्याख्या करते हैं । यदि कोई   घायल व्यक्ति हमलावर का नाम बताते हैं । घटना विवरण देते भाग रहा था । उसके कथन और कार्य दोनो आचरण के रूप में धारा-8 के स्पष्टीकरण ’एक के अनुसार सुसगंत  है  ।

        इसी प्रकार स्पष्टीकरण-दो के अनुसार पक्षकार को या उसकी उपस्थिति में उसे सुनाया, कहे गये कथन जो उसके आचरण को प्रभावित करते है सुसंगत है । यदि किसी व्यक्ति पर आरोप लगाया जाता है, जिसका वह असत्य होने का विरोध कर सकता है, किन्तु वह आरोप सुनकर मौन रहता है अथवा भाग जाता है या झूंठा कथत करता है । ऐसा आचरण उसके कथन के साथ सुसगंत है ।

         संकेतो को मौखिक साक्ष्य मानते हुये ग्राहय किया जा सकता है, किन्तु उन्हें आचरण की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है । यदि किसी व्यक्ति के साथ कोई अपराध किया जाता है और घटना के शीघ्र पश्चात वह परिवाद करता है तो परिवाद करने का कार्य आचरण के रूप में सुसंगत है किन्तु यदि व्यक्ति परिवाद नही करता मात्र कथन करता है तो धारा-8 के अधीन कथन संुसगत नहीं है क्योकि वह आचरण का स्पष्टीकरण नहीं करता है।


        धारा 8 के अंतर्गत  पक्षकार , उसके अभिकर्ता ऐसा व्यक्ति जिसके विरूद्ध कोई अपराध की किसी कार्यवाही के अनुसरण में उनके आचरण धारा 8 के सुसगंत तथ्य है यदि एक व्यक्ति आरोपी है और अपराध के तुरन्त पश्चात वह घर से फरार हो जाता है तो धारा 8 के अधीन उसका फरार हो जाना आचरण के विपरीत सुसगंत तथ्य है । 


        इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ए.आई.आर. 1971 सुप्रीम कोर्ट 1871 थिम्मा विरूद्ध स्टेट आफ मेसूर में निर्धारित किया है कि


 ज्ीवनही जीम बवदकनबज व िंबबनेमक पद ंइेबवदकपदह पउउमकपंजमसल ंजिमत जीम वबबनततमदबम व िजीम वििमदबम पे तमसमअंदज मअपकमदबमए ंे पदकपबंजपदह जव ेवउम मगजमदज ीपे हनपसजल उपदकए पज पे दवज बवदबसनेपअम व िजींज ंिबज इमबंनेम मअमद पददवबमदज चमतेवद ूीमद ेनेचमबजमक उंल इम जमउचजमक जव ेनबी बवदकनमज जव ंअवपक ंततमेज
        ण्‘‘फरार’’ (ंइेबवदकपदह) शब्द का अर्थ अपने को छिपाना है जिसे स्पष्ट करते हुए, माननीय उच्चतम न्यायालय ने ए.आई.आर. 1976 सुप्रीम कोर्ट 76 कार्तिकेय विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी. में अभिनिर्धारित किया है कि ज्व इम ंद ंइेबवदकमतए पद जीम मलम व िसंूए पज पे दवज दमबमेेंतल जींज ं चमतेवद ेीवनसक ींअम तनद ंूंल तिवउ ीपे ीवउमए पज पे ेनििपबपमदज प िीम ीपकमे ीपउेमस िजव मअंकम जीम चतवबमेे व िसंूए मअमद प िजीम ीपकपदह चसंबम इम ीपे वूद ीवउमण्    



        इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा ए.आई.आर. 1972 सुप्रीम कोर्ट 110 रेहमान विरूद्ध स्टेट आफ यू.पी में अभिनिर्धारित किया है कि ैनइेमुनमदज बवदकनबज व िंबबनेमक ।इेबवदकपदह इल पजेमस िपे दवज बवदबसनेपअम मपजीमत व िहनपसज वत व िहनपसजल बवदेबपमदबमण्इस प्रकार केवल ऐसे आचरण कि साक्ष्य अर्थात जो उसकी निर्दोषिता की  उपधारणा समाप्त कर दे ।


        परंतु घटना के उपरांत अभियुक्त की अनुपस्थिति यदि स्पष्ट कर दी जाए तो उसका यह आचरण उसके अभियोजन के विरूद्ध ढाल के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है । भारतीय साक्ष्यअधिनियम की धारा 9 के दृष्टांत (ग) के अनुसार
        क एक अपराध का अभियुक्त है ।


        यह तथ्य कि उस अपराध के किये जाने के तुरंत पश्चात क अपने घर से फरार हो गया, धारा-8 के अधीन विवावद्यक तथ्यों के पश्चातवर्ती और उनसे प्रभावित आचरण के रूप में सुसंगत है ।


        यह तथ्य कि उस समय, जब वह घर से चला था, उसका उस स्थान में, जहा वह गया था, अचानक और अर्जेन्ट कार्य था, उसके अचानक घर से चले जाने के तथ्य के स्पष्टी करण की प्रवृत्ति रखने के कारण सुसंगत है । जिस काम के लिए वह चला उसका ब्यौरा सुसंगत नहेीं है सिवाय इसके कि जहां तक वह यह दर्शित करने के लिए आवश्यक हो कि वह काम अचानक और अर्चेन्ट था।   

            
        इसी प्रकार यदि किसी की हत्या की गई है और यह तथ्य किसी अन्य व्यक्ति के व्दारा  पूर्व में हत्या करने वाले व्यक्ति की इस जानकारी से लोप विलुप्त करने की धमकी देता है । धन प्राप्त करता है । तो उसका यह कार्य आचरण के विपरीत है । जैसे अपराध किये जाने के पश्चात नष्ट किया जाना, छिपाना मिथ्या साबित करना, आचरण के विपरीत सुसंगत है । अपराध किये जाने के बाद पत्र प्राप्त होना कि अपराध की जांच की जा रही है। इसके बाद फरार हो जाना । उस पत्र की अन्तर्वस्तु आचरण  के विपरीत सुसगंत है ।


         प्रकाश चंद विरूद्ध दिल्ली राज्य ए0आई0आर1979 एस0सी0-400 में मान्नीय सर्वोच्य न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित  किया गया है कि आरोपी के द्वारा पुलिस  को उस स्थान पर ले जाकर जहां चुराई गई वस्तु या हथियार जिनका उपयोग अपराध में किया गया है । छिपाना धारा 8 के अधीन  आचरण के रूप में ग्राहय है । भले ही उसका कथन धारा 27 की परिधि में न आता हो ।

        न्यायालय के अनुसार ज्ीमतम पे ं बसमंत कपेजपदबजपवद इमजूममद जीम बवदकनबज व िं चमतेवद ंहंपदेज ूीवउ ंद वििमदबम पे ंससमहमकए ूीपबी पे ंकउपेेपइसम नदकमत ैमबजपवद 8 व िजीम म्अपकमदबम ।बजए प िेनबी बवदकनबज पे पद. सिनमदबमक इल ंदल ंिबज पद पेेनम वत तमसमअंदज ंिबज ंदक जीम ेजंजमउमदज उंकम जव ं च्वसपबम व्ििपबमत पद जीम बवनतेम व िंद पदअमेजपहंजपवद ूीपबी पे ीपज इल ैमबजपवद 162 ब्तपउपदंस च्तवबमकनतम ब्वकमण् ॅींज पे मगबसनकमक इल ैमबजपवद 162ए ब्तपउपदंस च्तवबमकनतम ब्वकम पे जीम ेजंजमउमदज उंकम जव ं च्वसपबम व्ििपबमत पद जीम बवनतेम व िपदअमेजपहंजपवद ंदक दवज जीम मअपकमदबम तमसंजपदह जव जीम बवदकनबज व िंद ंबबनेमक चमतेवद ;दवज ंउवनदजपदह जव ं ेजंजउमदजद्ध ूीमद बवदतिवदजमक वत ुनमेजपवदमक इल ं च्वसपबम व्ििपबमत कनतपद जीम बवनतेम व िंद पदअमेजपहंजपवदण् थ्वत मगंउचसमए जीम मअपकमदबम व िजीम बपतबनउेजंदबमए ेपउचसपबपजमतए जींज ंद ंबबनेमक चमतेवद समक ं च्वसपबम व्ििपबमत ंदक चवपदजमक वनज जीम चसंबम ूीमतम ेजवसमद ंतजपबसमे वत ूमंचवदे ूीपबी उपहीज ींअम इममद नेमक पद जीम बवउउपेेपवद व िजीम वििमदबम ूमतम विनदक ीपककमदए ूवनसक इम ंकउपेेपइसम ंे बवदकनबजए नदकमत ैमबजपवद 8 व िजीम म्अपकमदबम ।बजए पततमेचमबजपअम व िूीमजीमत ंदल ेजंजमउमदज इल जीम ंबबनेमक बवदजमउचवतंदमवनेसल ूपजी वत ंदजमबमकमदज जव ेनबी बवदकनबज ंिससे ूपजीपद जीम चनतअपमू व िैमबजपवद 27 व िजीम म्अपकमदबम ।बजण्
        ।बजण् ।प्त् 1969 ।दकीण्च्तंण् 271 क्पेजपदहए ।प्त् 1972 ैब् 975 ंदक ।प्त् 1954 ैब् 15 ंदक ।प्त् 1954 ैब् 322 ंदक ।प्त् 1958 ैब् 61 त्मसण् वद
        ए.आई.आर. 1975 सुप्रीम कोर्ट 972 हिमाचल प्रदेश प्रशासन विरूद्ध ओमप्रकाश के मामले में  अभिनिर्धारित किया है कि । ंिबज कपेबवअमतमक ूपजीपद जीम उमंदपदह व िैमबजपवद27 उनेज तममित जव ं उंजमतपंस तंबज जव ूीपबी जीम पदवितउंजपवद कपतमबजसल तमसंजमेण् ज्ींज पदवितउंजपवद ूीपबी कवमे दवज कपेजपदबजसल बवददमबज ूपजी जीम ंिबज कपेबवअमतमक वत जींज चवतजपवद व िजीम पदवितउंजपवद ूीपबी उमतमसलमगचसंपदे जीम उंजमतपंस जीपदह कपेबवअमतमक पे दवज ंकउपेेपइसम नदकमत ैमबजपवद 27 ंदक बंददवज इम चतवअमकण् बंेम संू कपेबनेेमकण्


        अपराध में फसाने वाला पश्चातवर्ती आचरण - किसी अभियुक्त के अपराध में फसाने वाले पश्चातवर्ती आचरण का श्री वाई0यू0एच0 राव ने अपनी पुस्तक मंे इस प्रकार विश्लेषण  किया है -


    1-     अपराध के पश्चात अपनी अनन्यता छिपाना
    2-     अपराध के पश्चात फरार हो जाना
    3-     सच्चा साक्ष्य सामने न आने देना
    4-     परिवर्तीत रूप धारण करना
    5-     झूंठा साक्ष्य गढ़ना
    6-     अपराध की परिस्थितियोंके बारे में विरोधात्मक या मिथ्या कथन करना          इसके अंतर्गत न्यायिक परिप्रश्न के उत्तर में किये गये प्रश्न नहीं आते हैं
    7-     अपराध में धन मिलने के कारण अकस्मात धनी हो जाना
    8-     ससंर्ग किये जाने पर या संसर्ग का आभास होने पर भाग जाना और संसर्ग         न होने देना
    9-     प्रश्नो का उत्तर न देना और उनके पूंछे जाने पर मौन रहना
    10-     अपराध से ससक्त सम्पतियो लिखतो और अन्य वस्तुओं को प्रस्तुत  नकरना
    11-     प्रश्न किये जाने पर भय और उत्तेजित भावं- भंगिमा  प्रदर्शित करना
    12-     अपराध से संसक्त स्थानो संपत्तियों लिखतो और अन्य वस्तुओं का भेद         देना
    13-     अपराध के फलस्वरूप पाई गई वस्तऐ अभियुक्त के कब्जे में होना ,इसके         अंतर्गत  वे वस्तुऐ नहीं आती है जो विधि के अनुसार तलाशी के परिणाम         स्वरूप अभियुक्त के पास मिलती है
    14-     अपराध से संबंधित औजार आदि का अभियुक्त के कब्जे में होना, इसके         अतर्गत वे औजार या वस्तुऐ नहीं आयेगी जो विधि के अनुसार तलाशी के         परिणाम स्वरूप अभियुक्त के पास  मिलती है
    15-     अन्वेषण को निष्फल बनाना
    16-     स्वांग करना
    17-     अभियोजन का तोड फोड करना ।

        अधिनियम की धारा 8 में हेतु संबोधित तथ्य आचरण के संबधित सुसगंत तथ्य माने गये हैं । हेतु वह मानसिंक दशा है जिसके अधीन अपराधी सचेत होता है । इसका पता लगाया जाना कठिन कार्य है । क्योंकि केवल कर्ता को ही सर्वोत्तम ज्ञान होता है । शत्रुता, बैमनुष्य, धन का लालच ,कामुकता उत्तेजना आदि महत्वपूर्ण घटक जो हेतु का निर्माण करते हैं । 


        सीधे शब्दो में हेतु वह है जिसके कारण मनुष्य किसी कार्य को करने के लिये विवश होता है ,हेतु अपराध को साबित करने की महत्वपूर्ण कड़ी है परन्तु अपराध का महत्वपूर्ण अंग नहीं होता , इसलिये अभियोजन का मामला संदेह से परे सिद्ध होने पर हेतु की असफलता अभियोजन मामले को प्रभावित  नहीं करती है । इस प्रकार हेतु की साक्ष्य धारा 8 के अंतर्गत आचरण की सुंसगता है।

        अधिनियम की धारा-8 के अंतर्गत एक तथ्य जो किसी विवाद्यक तथ्य पर सुंसगत तथ्य के लिये तैयारी करने के लिये गठित करते हैं । आचरण के रूप में सुंसगत है। अपराध के आवश्यक तथ्य अपराध करने का आशय उस अपराध करने की तैयारी और उसे करने के लिये प्रयत्न इन तीन बातों से अपराध पूर्ण होता है और तैयारी के अंतर्गत वे सभी बातें और कार्य आते हैं जो अपराध करने के लिये आवश्यक साक्ष्य जुटाने से संबधित है अथवा अपराध करने के लिये उपायों को ढूंढने सेसंबंधित हैं । 

        अपराध करने के काम में आने वाली वस्तुओं ओैर सामान जैसे जहर , हथियार आदि पर किसी व्यक्ति का अधिकार दिखाने के लिये कि आरोपी ने अपराध करने के लिये तैयारी की थी । सदैव आचरण के रूप में ग्राहय है। अपराध करने के बाद  उस अपराध को छिपाने और अपने को बचाने की तैयारी भी धारा-8 में आचरण के रूप में सुसगंत हैं । 

        उदाहरण के लिये क द्वारा ख की हत्या करने के लिये क का विचारण किया जा रहा है जिसमें यह तथ्य सुसंगत है कि मृत्यु के बाद ख को मार दिया जैसे विष दिया था। 

        इसी प्रकार यदि प्रश्न है कि क्या प्रमुख दस्तावेज क की वसीयत है तो यह तथ्य सुसंगत है कि उस वसीयत की तारीख से थोड़े दिन पहले बाद में वकीलों से परामर्श किया , प्रारूप बनवाये जिन्हें उन्हें पंसद नहीं किया ।

        साक्ष्य अधिनियम की धारा 6,7,8 जो प्रत्यक्ष साक्ष्य से संबंधित नहीं है जिसमें एक ही सहव्यवहार के भाग न होने वाले तथ्यों की सुसगंति दर्शाई गई है। उसी कड़ी में हेतु तैयारी और पूर्व के पश्चात का आचरण अधिनियम की धारा-8 में सुंसगंत माना गया और उसके संबंध में साक्ष्य दी जा सकती है ।
       
   
   








चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में आपराधिक दायित्व

      चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में आपराधिक दायित्व 

                                                                     माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अनेक मामलों में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब तक डाक्टर के द्वारा घोर उपेक्षा जानबूझकर घोर लापरवाही न की जाए तब तक उसके काम को अपराध की श्रेणी में नहीं माना जा सकता है।
                                                                         घोर उपेक्षा को भा0दं0सं0 में परिभाषित नहीं किया गया है माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इसे चिकित्सीय उपेक्षा के मामले में परिभाषित किया गया है। सामान्य अर्थ में उपेक्षा का अर्थ उस सतर्कता का अभाव है जिसको कि उन विशिष्ट परिस्थितियों में प्रयुक्त करना विधिक कत्र्तव्य होता है। उपेक्षा आशय के विपरीत एक मानसिक अवस्था को प्रदर्शित करती है जिसमें कि किसी विशिष्ट परिणाम कारित करने की इच्छा का अभाव रहता है। इसका अर्थ प्रमाद अथवा असावधानी ही है।
उपेक्षा में वह परिणाम की इच्छा नहीं की जाती है न ही उसके उत्पन्न करने के लिए कार्य किया

जाता है जो परिणाम उत्पन्न होते है संक्षेप में उपेक्षा का अर्थ दोषपूर्ण असावधानी है। उपेक्षा के मामले में पक्षकार वह कार्य नहीं करता है जिसके करने के लिए वह सक्षम है वह एक निश्चात्मक कत्र्तव्य का उल्लघन करता है यहां वह उस कार्य की ओर ध्यान नहीं देता है जिसको करना
उसका कत्र्तव्य है।
इसलिए अनुचित चिकित्सा उपचार जिसमें कि सामान्य ज्ञान और कुशलता का अभाव होगा और जो सद्भावना पूर्वक नहीं किया गया हो वही चिकित्सीय उपचार उपेक्षा की श्रेणी में आता है। यदि कोई डाक्टर
द्वारा अनुचित अशुद्ध उपचार सद्भावनापूर्वक सामान्य ज्ञान तथा कुशलतापूर्वक किया गया है तो वह कार्य अपराध की श्रेणी में नहीं आता है और केवल सिविल दायित्व ही उत्पन्न करता है। 

भा0दं0वि0 की धारा -88 92 93 में चिकित्सक द्वारा उनके समान अंन्य प्रोफेशनल व्यक्तियों को विशेष परिस्थितियों में कार्य किए जाने के लिए संरक्षण प्रदान किया गया है।


माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा चिकित्सक के कार्य को तब तक अपराधिक कार्य नहीं माना जा सकता है जब तक उसके द्वारा इलाज करने में तीव्र उपेक्षा व उच्च स्तर की लापरवाही नहीं बरती गयी है।
माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा सुरेश गुप्ता बनाम राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली (2004)6 एस0सी0सी0-422 मे पारित दिशा निर्देशों के अनुसार चिकित्सीय उपचार के दौरान प्रत्येक दुघZटना या मृत्यु के लिए चिकित्सीय व्यक्ति के खिलाफ सजा के लिए कार्यव्राही नहीं की जा सकती। उनके दोष को इंगित करते हुए पर्याप्त चिकित्सीय अभिमत के बिना चिकित्सगण का दांडिक अभियोजन समुदाय में आम जनता की गलत सेवा होगी, क्योंकि यदि न्यायालयें, अस्पतालों और चिकित्सकों पर प्रत्येक बात जो गलत होती है, के लिए दांडिक दायित्व अधिरोपित किया जाता है, तो चिकित्सकगण उनके रोगियों का सर्वोत्तम उपचार करने की अपेक्षा उनके स्वयं की सुरक्षा के बारे में अधिक चितिंत होगें। यह चिकित्सक और रोगी के मध्य आपसी विश्वास हिल जाने में परिणित होगा। 


चिकित्सक के अस्पताल या दवाखाना में प्रत्येक दुघZटना या दुर्भाग्य उसका सदोष उपेक्षा के अपराध के लिए परीक्षण करने के लिए उपेक्षा का घोर कृत्य नहीं है। ृ इसी प्रकार माननीय उच्चतम न्यायालय
ेद्वारा जैकब मैथ्यु बनाम स्टेट ऑफ पंजाब, ए0आई0आर0 2005, सु0को0-3180 में यह अभिनिर्धारित किया है कि प्रोफेशनल व्यक्ति को उपेक्षा के लिए दो आधारों पर दायी माना जा सकता है। या तो उसके पास वह अपेक्षित कौशल न हो जिसके होने के संबंध में वह दर्शाता है अथवा उसके द्वारा युक्तियुक्त सक्षमता से कौशल न किया गया हो। यह निणीZत करने के लिए कि व्यक्ति उपेक्षा का दोषी था अथवा नहीं मानक यह होगा कि क्या साधारण सक्षम व्यक्ति की तरह उस पेशे के साधारण कौशल का
उपयोग किया गया था। यह स्पष्ट किया गया कि प्रत्येक प्रोफेशनल के लिए उस ब्रांच मे जिसमें कि वह प्रेक्टिस करता है उच्च स्तर की विशेषज्ञता को धारण करना अथवा कौशल को धारण करना संभव नहीं होता है।
इसी प्रकरण में माननीय उच्चतम न्यायालय

द्वारा आगे यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जब मरीज चिकित्सीय इलाज अथवा सर्जिकल ऑपरेशन के लिए सहमत होता है तो मेडिकल मेन के प्रत्येक उपेक्षावान कृत्य को आपराधिक होना नहीं कहा जा सकता है। इसे उस
दशा में ही आपराधिक होना कहा जा सकता है जबकि चिकित्सकीय व्यक्ति घोर अक्षमता वाला प्रदर्शित करे अथवा उसके द्वारा घोर लापरवाही की गयी हो। मात्र अनवधानता अथवा कतिपय डिग्री की पर्याप्त केयर एवं सर्तकता का अभाव होने पर सिविल दायित्व ही सृजित होगांं। इस आधार पर आपराधिक दायित्व सृजित नहीं होगा।
डा0 उषा बाधवा बनाम स्टेट ऑफ एम0पी0 2003 (2) एम0पी0डब्ल्यु0एन0 -92,
 रूपलेखा बनाम स्टेट ऑफ एम0पी0 2006 (3) एम0पी0एल0जे0- 120
 डा0 अशोक लोधा बनाम स्टेट ऑफ एम0 पी02005(3)एम0पी0एल0जे0-281
हसमुख बनाम स्टेट ऑफ एम0पी0-2005 क्रि0लॉ0रि0-844
 खुशलदास बनाम स्टेट 1959 एम0पी0एल0जे0-966 म0प्र0 1959 जे0एल0जे0-602 म0प्र0 ए0आई0आर0-1960 म0प्र0-50 आादि मामले में


म0प्र0 उच्च न्यायालय द्वारा उपरोक्त अभिनिर्धारित सिद्धांतों के आधार पर चिकित्सीय उपेक्षा को विर्णत किया है।
इस प्रकार चिकित्सीय कार्य तभी आपराधिक उपेक्षा की श्रेणी में आएगा :-

1 जब चिकित्सीय व्यक्ति घोर अक्षमता प्रदर्शित करें।
2 जब चिकित्सीय व्यक्ति द्वारा घोर उच्च स्तर की लापरवाही बरती जाए।
3 जब चिकित्सक के द्वारा युक्तियुक्त सक्षमता से उस कौशल का उपयोग न किया गया हो, जिसे वह धारण करता है।
4 जब चिकित्सक के द्वारा किए गए कार्य और निकाले गए इलाज केे परिणाम का प्रत्यक्ष निकटतम संबंध हो।
5 जब उसके द्वारा साधारण व्यक्ति की तरह अपने पेशे में धारण कौशल का साधारण तरीके से उपयोग किया गया है।
6 जब चिकित्सीय रिपोर्ट या अन्य चिकित्सक की 7
यह राय हो कि उचित इलाज नहीं हुआ है और चिकित्सक की राय के अनुसार कार्य तीव्रतापूर्वक अथवा अत्यधिक उपेक्षापूर्ण कृत्य की कोटि में आता है।
7 चिकित्सीय उपेक्षा में आपराधिक दायित्व के लिए रे ईप्सा लाक्यूटर (घटना स्वयं बोलती है) का सिद्धांत लागू नहीं होता है। क्योंकि यह नियम साक्ष्य की विषय वस्तु है और इसके आधार पर केवल सिविल दायित्व अपेक्षित किया जा सकता है
8 चिकित्सीय उपेक्षा का टेस्ट बॉलम टेस्ट बोलम बनाम फीयर अस्पताल प्रबंधन समिति 1957 (2) ऑल0ई0आर0 118 में निर्धारित मानकों के अनुसार करना चाहिए अर्थात यदि कोई व्यक्ति चिकित्सीय विज्ञान से अथवा सर्जरी की प्रेक्टिस से पूरी तरह अनभिज्ञ हो ओैर वह इलाज करे अथवा ऑपरेशन करे तो उसके इस कृत्य के संबंध में गंभीर उपेक्षा अथवा तीव्रता का अनुमान 8
लगाया जा सकता है।
9 सिविल दायित्व और आपराधिक दायित्व में अंतर होता है कोई उपेक्षा सिविल दायित्व उत्पन्न कर सकती है, जरूरी नहीं कि वह आपराधिक दायित्व उत्पन्न करे। कतिपय डिग्री की पर्याप्त केयर एवं सर्तकता का अभाव होने पर सिविल दायित्व होता है। मात्र आवश्यक सर्तकता ध्यान देने या कोैशल अपनाने की मात्र कमी होने पर सिविल दायित्व उत्पन्न होताहै।

उपरोक्त दशाओं में चिकित्सक का कार्य अपराध की श्रेणी में आता है।
यही कारण है कि माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जैकब मैथ्यू के मामले में देश में बढ़ते डाक्टरों के विरूद्ध आपराधिक मामलों की संख्या को देखते हुए तथा ऐसे मामले मे डाक्टरों की अकारण गिरफतारी तथा डाक्टरों एवं मरीजों के बीच बढ़ते अविश्वास को देखते हुए सरकार को नियम बनाने निर्देशित किया गया है कि मेडिकल कौसिंल ऑफ इंडिया के साथ मिलकर उसेनियम बनाना चाहिए और मानक निर्धारित किया जाना चाहिए कि किस स्तर की उपेक्षा एवं लापरवाही अपराध दायित्व की श्रेणी में आती है।इस संबंध में डाक्टरों की ऐसे मामलों में अकारणगिरफतारी न की जाए ऐसे दिशा निर्देश भी दिए गए है।

घरेलू हिंसा umesh

                          घरेलू हिंसा
                                   
        हमारा भारतीय समाज सदियों से पुरूष प्रधान समाज रहा है । जहां पर  महिलाओं को घर के अंदर रहकर कामकाज करने वाली और परिवार, बच्चों का भरण-पोषण करने वाली अनउपयोगी वस्तु मानते हुए अनादर की दृष्टि से देखते हुए उसे घर और परिवार के लोगो के द्वारा हमेशा से प्रताड़ित किया गया है। इनके साथ घर के अंदर ऐसी घरेलू ंिहंसा की जाती है जिसे किसी कानून में अपराध घोषित किया जाना रिश्तो की नाजुकता के कारण मुश्किल है और जिसका उनके परिवार के सदस्यों  और घर के आस-पास रहने वाले को ज्ञान भी नहीं होता है।  

      ऐसी  कुटुम्ब के भीतर होने वाली घरेलू हिंसा से निपटने के लिये घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 बनाया गया है जो 26 अक्टूबर 2006 से प्रभावशील हुआ है । अधिनियम को प्रभावी ढंग में लागू किये जाने के लिए घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत नियम भी बनाये गये हैं।

        घरेलू हिंसा से तात्पर्य कोई कार्य या हरकत जो किसी पीड़ित महिला एवं बच्चों (18 वर्ष से कम उम्र के बालक एवं बालिका) के स्वास्थ्य, सुरक्षा जीवन को खतरा/संकट की स्थिति, आर्थिक नुकसान, क्षति जो असहनीय हो तथा जिससे महिला बच्चे दुखी व अपमानित हो से है । इसके अंतर्गत शारीरिक  मौखिक व भावनात्मक  लैंगिग व आर्थिक हिंसा या धमकी देना आदि शामिल है।

        घरेलू हिंसा के अंतर्गत हमला,आपराधिक अभित्रास, बल, महिला की गरिमा का दुरूपयोग ,अपमान, उपहास, तिरस्कार और विशेष रूप से संतान नर बालक के न होने के संबंध में ताना और हितबद्ध व्यक्ति को शारीरिक पीडा कारित करने की लगातार धमकिया देना, स्त्रीधन, व्यथित द्वारा संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्व वाली सम्पत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित भाटक के संदाय, से वंचित करना, स्थावर, मूल्यवान वस्तुओं, शेयरों , प्रतिभूतियों बंधपत्रों और इसके सदृश या अन्य सम्पत्ति का कोई अन्य संक्रामण, साझी गृहस्थी तक पहंुच  के लिए प्रतिषेध या निर्बन्धन आदि शामिल है ।

        अधिनियम के अंतर्गत पीडित पक्षकार में विवाहित, अविवाहित के अलावा अन्य रिश्तों में रह रही विवाहित, विधवा, मॉ, बहन, बेटी, बहूंॅ, शादी के बगैर साथ रह रही महिला या दूसरी पत्नी के रूप में रह रही या रह चुकी महिला। धोखे से किया गया विवाह/अवैध विवाह वाली महिला शामिल है। 

        अधिनियम में किसी भी व्यस्क पुरुष सदस्य के खिलाफ, जिसके साथ महिला बच्चे का घरेलू रिश्ता है या था, के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई जा सकती है। घरेलू से तात्पर्य एक ही छत/घर के  नीचे संयुक्त परिवार/ एकल परिवार के पारिवारिक सदस्य जो समरक्तता/संगोत्रता/दस्तक/विवाह द्वारा बनाये गए रिश्ते के रूप में रह रहे या रह चुके महिला एंव बच्चे ।

        पूर्व में इस संबंध में मतभेद था कि क्या पति या पुरूष साथी के महिला रिश्तेदार को प्रत्यर्थी बनाया जा सकता है या नहीं और इस संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा न्यायदृष्टांत 2011 ए0आई0आर0 एस0सी0डब्ल्यू 1327 संध्या मनोज वानखेडे विरूद्ध मनोज वामनराव वानखेडे में यह प्रतिपादित किया गया है कि व्यथित पत्नी या विवाह के प्रकृति के संबंध में रहने वाली महिला पति या पुरूष साथी के किसी भी रिश्तेदार के विरूद्ध परिवाद ला सकती है चाहे वह रिश्तेदार महिला हो या पुरूष हो अर्थात महिला के विरूद्ध भी शिकायत की जा सकती है ।

                अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषताएं

01.    इस कानून के तहत् घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए न्यायालय को धारा 12 में आवेदन प्राप्त होने के 03 दिन के भीतर पहली सुनवाई में न्यायाधीश बचावकारी आदेश दे सकते हैं।

02.    न्यायालय प्रत्येक आवेदन की प्रथम सुनवाई की तारीख से 60 दिनों के अन्दर निपटारा करने का प्रयास करेगा।
03.    अधिनियम घरेलू रिश्तों में रहते हुए भी आपत्तिजनक व्यवहारों को सुधारने का पूरा मौका देता है।

04.    यह कानून महिलाओं बच्चों को अपने घर में स्वतंत्र व सुरक्षित रहने का अधिकार देता है, भले ही उस घर पर उनका मालिकाना हक हो या न हो।

05.    यह एक दिवानी कानून है। इस कानून में दोषी को सजा दिलाने के बजाय पीड़ित के संरक्षण एवं बचाव पर जोर दिया गया है ।

06.    न्यायालय का आदेश न मानने पर दोषी व्यक्ति को एक साल तक की अवधि की सजा या रुपये 20 हजार तक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।

07.    इस कानून के अनुसार महिला के साथ हुई घरेलू हिंसा के साक्ष्य के प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। एकमात्र महिला द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों एवं बयानों को ही विश्वसनीय माना जावेगा तथा उस आधार पर ही न्यायाधीश आदेश दे सकते हैं कि हिंसा रोकी जावे और महिला को संरक्षण प्रदान किया जावे। 

08.    पीड़िता को, न्यायालय, द्वारा पारित सभी आदेशों की प्रतियां निःशुल्क प्रदाय की जाएगी।

09.    यदि न्यायाधीश ऐसा समझते हैं कि परिस्थितियों के कारण मामले की सुनवाई बंद कमरे में किया जाना आवश्यक है तो या पीड़ित पक्ष ऐसी मांग करे तो मामले की कार्यवाही बंद कमरे में की जा सकेगी। 

10.    यदि न्यायाधीश को पीड़ित व्यक्ति या दोषी से आवेदन प्राप्त होने पर यह समाधान हो जाता है कि परिस्थितियों में सुधार हुआ है तो पूर्व आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्त कर सकते हैं। 

11.    पीड़िता के पूर्व में चल रहे अदालत के केस के अतिरिक्त भी इस कानून में संरक्षण एवं सहायता प्रदान की जा सकती है । घरेलू हिंसा के केस के साथ अन्य कानून के अंतर्गत चल रही कार्यवाही एक साथ चल सकती है।
12.    महिला घटना स्थल या वर्तमान में जहंा निवासरत है, वहां केस दर्ज करा सकती है। पीड़िता जहंा उचित समझे उस क्षेत्र के मजिस्टेªट को आवेदन दे सकती है। 

अधिनियम के अंतर्गत मिलने वाली सहायता एंव राहत

01.    न्यायाधीश यह समझता है कि नियम के तहत किसी पीड़ित व हिंसाकर्ता को अकेले या संयुक्त रूप से सेवा प्रदाता (पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र) के किसी सदस्य को परामर्श देने की पात्रता और अनुभव रखते हों तो उससे परामर्श लेने का निर्देश दे सकते हैं।
02.    परामर्श में हुए समझौते की कार्यवाही अनुसार मजिस्टे््र्रट संरक्षण एवं सहायता के आदेश जारी कर सकते हैं।
03.    यदि न्यायाधीश को लगता है कि घरेलू हिंसा हुई है और पीड़ित व्यक्ति को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, ऐसी स्थिति में संरक्षण आदेश धारा-18 में दे सकता है ।
04.    संरक्षण आदेश घरेलू हिंसा करने, हिंसा में सहयोग करने या प्रेरित करने से रोकने दिये जा सकते हैं।
05.    हिंसाकर्ता को पीड़ित द्वारा उपयोग किए जाने वाले घर में प्रवेश पर रोक, लगाई जा सकती है ।
06.    अगर पीड़ित की रिपोर्ट से जज को ऐसा लगता है कि पीड़ित को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, तो हिंसाकर्ता (पुरुष) को घर के बारह रहने का आदेश भी  दिया जा सकता है या
07.    घर के जिस भाग में पीड़ित व्यक्ति का निवास है या विद्यालय/महाविद्यालय में जाने से हिंसाकर्ता को मना कर सकता है।
08.    किसी भी पुरुष से व्यक्तिगत, मौखिक, लिखित टेलीफोन या अन्य इलेक्ट्रॉनिक माध्यम से सम्पर्क करने से मना किया जा सकता है ।
09.    पीड़ित पर आश्रित व्यक्ति बच्चों या सहायता करने वाले व्यक्तियों पर हिंसा से रोकना। आदेश दिया जा सकता है ।
10.    संयुक्त या जिस संपत्ति पर पीड़ित का हक बनता है ऐसी संपत्तियों का लेन-देन या संचालन पर रोक। लगाई जा सकती है ।
11.    स्त्री धन, आभूषण, कपड़ों इत्यादि पर कब्जा देना।
12.     आपसी विवाह के संबंध में बात करने या उनकी पसंद के किसी व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर न करना।
13.    दहेज की मांग के लिए परेशान करने से रोकना।
14.     न्यायालय के आदेश के बिना बैंक में संधारित लॉकर्स एवं संयुक्त बैंक खातों से राशि, सामग्री हिंसाकर्ता नहींे निकाल सकेगा।
15.    पीड़िता और उसके बच्चों की सुरक्षा के लिए कोई अन्य उपाय।
16.     पीड़ित को साझी गृहस्थी में रहने का आदेश दिया जा सकता है । चाहे उसमें उसका मालिकाना हक न हो।
17.    अगर जरूरत महसूस हो तो आदालत आरोपी को यह आदेश दे सकती है कि पीड़िता जैसी सुविधा में साझे रूप में निवास कर रही थी वैसा ही किराए का घर उसे रहने के लिए उपलब्ध करावें।
18.    पीड़िता एवं उसके बच्चे घर में या घर के किसी भाग में निवास करते हैं, या कर चुके हैं, तो उसे घर के उस भाग में रहने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है।
19.    हिंसाकर्ता उस मकान को न तो बेच सकता है न उस पर ऋण ले सकता है न ही किसी के नाम से हस्तांतरित कर सकता है।
20.     न्यायालय पीड़िता की मांग पर उसे उसके बच्चों को अभिरक्षा में देने का अस्थायी आदेश दे सकता है।
21.    पीड़िता की रिपार्ट से न्यायाधीश यह समझते हैं कि हिंसाकर्ता के बच्चे से मिलने/भंेट करने से खतरा उत्पन्न हो सकता है तो वह हिंसाकर्ता को कहीं भी बच्चों से नहीं मिलने का ओदश दे सकते हैं।
22.    पीड़िता और उसके बच्चों का भरण-पोषण, चिकित्सीय खर्च, कपड़े, हिंसा की वजह से हुए किसी सम्पत्ति का नुकसान या हटाए जाने के कारण हुए नुकसान का मुआवजा देने का ओदश देगा।
23.    अदालत मानसिक यातना और भावनात्मक पीड़ा जो रिस्पॉडेंट द्वारा घरेलू हिंसा के कृत्यों द्वारा पहुंचायी गई है उसकि क्षतिपूर्ति और जीविका की क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए दोषी को आदेश दे सकेगी।
24.    सुरक्षा की दृष्टि से या अन्य कारणों से यदि पीड़िता अपने परिवार के साथ रहना नहीं चाहती है, तो ऐसी स्थिति में राज्य शासन निःशुल्क आश्रय की सुविधा उपलब्ध करायेगा।
25.    शासन द्वारा अधिकृत चिकित्सा सुविधा प्रदाता पीड़िता की प्रार्थना/आवेदन पर चिकित्सा सहायता उपलब्ध करायेगा
26.    घरेलू हिंसा की रिपोर्ट न दर्ज होने पर भी चिकित्सा सहायता या परीक्षण के लिए चिकित्सक मना नहीं करेगा और उसकी रिपोर्ट स्थानीय पुलिस थाना एवं संरक्षण अधिकारी (परियोजना अधिकारी, महिला एवं बाल विकास) को भेजेगा।
27.    ’’घरेलू हिंसा’’ का अर्थ मामले के सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार करके निकाला जाएगा ।
28.    अधिनियम के अंतर्गत एक पक्षीय अंतरिम आदेश न्यायालय तत्काल पारित कर सकता है ।
29.    अधिनियम के अंतर्गत पारित आदेश के विरूद्ध 30 दिन के अंदर व्यथित पक्षकार सत्र न्यायालय में अपील कर सकता है ।
30.    अधिनियम के अंतर्गत अपराध सज्ञेय एंव अजामनतीय है ।
31.     अधिनियम के अंतर्गत पारित आदेश के पालन हेतु पुलिस सहायता दी जा सकती है ।
32.    पुलिस में घरेलू हिंसा की रिपोर्ट किये जाने पर यदि भारतीय दण्ड संहिता या अन्य विधि के अधीन किया गया अपराध प्रकट होता है तो नियमानुसार पुलिस द्वारा कार्यवाही की जाएगी ।
33.    यदि पुलिस को घरेलू ंिहंसा की जानकारी मिलती है तो वे तत्काल घटना स्थल पर जाएगें और घरेलू दुर्घटना की रिपोर्ट तैयार करेगें ।
34.     इस अधिनियम के अधीन समुचित आदेश प्राप्त करने के लिए उस रिपोर्ट को पुलिस द्वारा अविलम्ब मजिस्ट्रेट को भेजी जाएगी ।
35.    संरक्षण अधिकारी के द्वारा कर्तव्य का निर्वाहन न करने पर उसे दण्डित किये जाने के प्रावधान है ।
36.    अधिनियम में पीडिता को निःशुल्क विधिक सहायता दिलाये जाने का प्रावधान भी किया गया है ।
37.    अधिनियम के प्रावधान प्रचलित विधियो के अतिरिक्त होगे उनके अन्यूनीकरण नहीं करेंगे ।

                सरकार के कर्तव्य

        इस अधिनियम में न केवल पुलिस अधिकारी, सरंक्षण अधिकारी, सेवा प्रदाता, मजिस्ट्रेट पर कर्तव्य अधिरोपित किये गये हैं । बल्कि राज्य सरकार और केन्द्र सरकार पर भी कर्तव्य अधिरोपित किये गये है ।जो निम्नलिखित है-

01.    ऐसे उपाय करना जिससे इस अधिनियम के उपबंधो का जन संचार के माध्यम से व्यापक प्रचार हो सके जैसे टेलीविजन, रेडियों और प्रिंट मिडिया के माध्यम से नियमित अंतराल में प्रचार करना ।
02.    पुलिस अधिकारी और न्यायिक सेवा के सदस्यों को जो इस अधिनियम से संबंधित है उन्हें समय समय पर प्रशिक्षण देना ताकि वे अधिनियम से संबंधित विषयो की जानकारी और उनके बारे में संवेदनशील हो सके ।
03.    विभिन्न मंत्रालयों के बीच प्रभावी समन्वय स्थापित करना जो कि इस अधिनियम से संबंध रखते है ।
04.    यह देखना की महिलाओ को इस अधिनियम के अधीन उपलब्ध सेवाएं मिल सके इसके लिए विभिन्न मंत्रालयों में प्रोटोकाल की व्यवस्था और न्यायालय स्थापित करना शामिल है ।

        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा महिला एंव बाल विकास विभाग मंत्रालय, भोपाल ने दिनांक 09 जनवरी 2007 के आदेश द्वारा विकास खण्ड/परियोजन स्तर पर शहरी और ग्रामीण आदिवासी परियोजनाओ के बाल विकास परियोजना अधिकारियों को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है जहां बाल विकास परियोजना स्वीकृत नहीं है उन क्षेत्रो में जिला कार्यक्रम अधिकारी/जिला महिला एंव बाल विकास अधिकारी को संरक्षण अधिकारी नियुक्त किया है ।

        घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत बनाये गये नियम में संरक्षण अधिकारी के निम्नलिखित कर्तव्य बताये गये है-

01.    पीडिता की ओर से घरेलू हिंसा की रिपोर्ट प्रारूप 1 मे तैयार करना और स्थानीय पुलिस थाना सेवा प्रदाता, विधिक सहायता अधिकारी एंव मजिस्ट्रेट को भेजना ।
02.    पीडित व्यक्ति के अनुरोध पर आश्रय गृह एंव चिकित्सा सुविधा उपलब्ध करवाना।
03.    कोर्ट आने जाने, आश्रय गृह आदि के लिए परिवहन की निःशुल्क व्यवस्था उपलब्ध करवाना ।
04.    न्यायालय में आवेदन फाईल करने के लिए भारत सरकार के निर्धारित प्रारूप 2,3, एंव 5 में आवेदन तैयार करने में सहयोग करना ।
05.    पीडित व्यक्ति को राज्य विधिक सहायता प्राधिकरण द्वारा निःशुल्क सहायता उपलब्ध करवाना ।
06.    न्यायालय के संमस/नोटिस तामील करवाना।
07.    मजिस्ट्रेट के निर्देश पर घरेलू हिंसा की घटना की जांच कर रिपोर्ट देना ।

        इस प्रकार संरक्षण अधिकारी मजिस्ट्रेट और पीडिता के बीच की कडी के रूप में कार्य करेगा और उसकी जिम्मेदारी है कि वह सभी कानूनी सहायता निःशुल्क पीडित महिला और उसके बच्चो को प्रदान करे एंव उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखे । 

        अधिनियम के अंतर्गत पीडिता शिकायत सीधे क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट के पास, स्थानीय पुलिस थाना, संरक्षण अधिकारी परियोजना अधिकारी, महिला एंव बाल विकास विभाग, सेवा प्रदाता-पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र एंव पंजीकृत आश्रय गृह में कर सकती है। 

                उषा किरण योजना 

        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 एंव घरेलू हिंसा में महिलाओ का संरक्षण नियम 2006 के अंतर्गत  एक नये विश्वास की किरण जगाते हुए उषा किरण योजना पारित हुई है जिसमें पीडिता को अधिनियम एंव नियमो के प्रावधान के तहत सभी सहायता निःशुल्क उपलब्ध कराई जाएगी ।
        अब कानून से सुरक्षा शोषण के विरूद्ध और चुप्पी तोडो घरेलू हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज उठाओ । जैसे नारे बुलन्द करते हुए मध्य प्रदेश सरकार के द्वारा 1091 टोल फ्री नंबर पर घरेलू हिंसा की तत्काल शिकायत किये जाने की सलाह देते हुए उषा किरण योजना बनाई गई है । जिसमें निःशुल्क विधिक सहायता पीडिता को हर प्रकार की दी गई है ।
                         उमेश कुमार गुप्ता
                   



भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

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