mediation मध्यस्थता (उमेश कुमार गुप्ता)

                                                                 मध्यस्थता
                                 (उमेश कुमार गुप्ता)

        मध्यस्थता सुलह कि वह अबाद्धकारी, गोपनीय, सस्ती, अनऔपचारिक, किफायती प्रक्रिया है । जिसमें मध्यस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष होकर गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखते हुए विवाद को हल करने का आधार भूत रास्ता उपलब्ध कराता है । इसमें पक्षकारो के द्वारा सुझाये गये रास्तो से ही विवाद का हल निकाला जाता है।  मध्यस्थ के द्वारा उन पर समझौता आरोपित नहीं किया जाता है। इसमें दोनो पक्षकारो की जीत होती है । कोई भी पक्षकार अपने को हारा हुआ या ठगा महसूस नहीं करता है। 


                                मध्यस्थता बातचीत की एक प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष  मध्यस्थता अधिकारी विवाद और झगडे में लिप्त पक्षांे के बीच सुलह कराने में मदद करता है । यह  मध्यस्थता अधिकारी बातचीत की विशेष शैली और सूचना विधि का प्रयोग करते हुए समझौते का आधार तैयार करता है तथ वादी और प्रतिवादी को समझौते के द्वारा विवाद समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है। 

                       मध्यस्थता विवादो को निपटाने के लिए मुकदमेबाजी की तुलना में कहीं अधिक संतोषजनक तरीका है । जिसके माध्यम से निपटाये गए मामलो में अपील और पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं होती है और सभी विवाद पूरी तरह निपट जाते हैं। इस पद्धति के द्वारा विवादोें का जल्द से जल्द निपटारा होता है जो कि खर्च रहित है । यह मुकदमो के झंझटो से मुक्त है । साथ ही साथ न्यायालयों पर बढते मुकदमों का बोझ भी कम होता है । 

         मध्यस्थता विवादो को निपटाने की  सरल एव् निष्पक्ष आधुनिक प्रक्रिया है। इसके द्वारा  मध्यस्थ अधिकारी दबावरहित वातावरण में विभिन्न पक्षों के विवादो का निपटारा करते है । सभी पक्ष अपनी इच्छा से सद्भावपूर्ण वातावरण में विवाद का समाधान निकालते हैं। उसे स्वेच्छा से अपनाते है ।  मध्यस्थता के दौरान विभिन्न पक्ष  अपने विवाद को जिस तरीके से निपटाते हैं वह सभी पक्षों को मान्य होता है, वे उसे  अपनाते है । 
  
        मध्यस्थता में मामले सुलाह, समझौते, समझाइश, सलाह के आधार पर निपटते हैं दोनो पक्ष जिस ढंग से विवाद सुलझाना चाहते है उसी ढंग से विवाद का निराकरण किया जाता है । इसमें विवाद की जड तक पहंुचकर विवाद के कारणों का पता लगाकर विवाद का हल निकाला जाता है । 

         मध्यस्थता माध्यस्थम् से अलग है । माध्यस्थम् में दोनो पक्षकार को सुनकर विवाद का हल निकाला जाता है । इसके लिए करार में माध्यस्थम् की शर्त होना अनिवार्य है। माध्यस्थम् में विवाद से बाहर की विषय वस्तु पर विचार नहीं किया जाता है और न ही उसके आधार पर विवाद का निराकरणा किया जा सकता है । 

        मध्यस्थता पंचायत से भी अलग है। पंचायत में समाज में व्याप्त रूढियों, प्रथाओं, मान्यताओं, को ध्यान में रखते हुए निर्णय जबरदस्ती पक्षकारो पर थोपे जाते हैं। पंचायत में सामाजिक प्रथाओ को ध्यान मंे रखकर दबाव वश निर्णय लिये जाते हैं । समस्या की जड तक पहंुचकर समस्या को जड से समाप्त नहीं किया जाता है । 

         मध्यस्थता लोक अदालत से भी अलग है । लोक अदालत में कानून के अनुसार केवल राजीनामा योग्य मामले रखे जाते हैं । इसमे पक्षकारो का सामाजिक आर्थिक हित होते हुए भी कानून में प्रावधान न होने के कारण कोई सहायता प्रदान नहीं की जा सकती। केवल कानून के दायरे में रहते ही लोक अदालत में निर्णय पारित किया जाता है । 

        मध्यस्थता न्यायिक सुलह से भी अलग है ।न्यायिक सुलह में सुलहकर्ता न्यायिक दायरे मंे रहते हुए दोनो पक्षकारो को सुनकर विवाद का हल बताता है । जो प्रचलित कानून की सीमा के अंतर्गत होता है । 

         मध्यस्थता समझौते से भी अलग है। समझौते में किसी पक्षकार को कुछ मिलता है । किसी को कुछ त्यागना पडता है । किसी को परिस्थितिवश समझौता करना पडता है । इसमें दोनो पक्षकार संतुष्ट नहीं होते है । एक न एक पक्षकार असंतुष्ट बना रहता है । 

         मध्यस्थता में जो रास्ते उपलब्ध है उन्हीं 
रास्ते में समस्या  का हल निकाला जाता है । मध्यस्थता में व्यक्तिगत राय  मध्यस्थ नही थोपता है । न ही कानून बताकर कानून के अनुसार कानून के दायरे में रहकर समस्या का हल निकालने को कहा जाता है । इसमें वैकल्पिक न्यायिक उपचार निकाले जाते है जो विवाद से संबंधित भी हो सकते हैं और विवाद की विषय वस्तु से अलग भी हो सकते हैं । इसमें वैचारिक मत भेद समाप्त कर दोनो पक्षकारो को पूर्ण संतोष एंव पूर्ण संतुष्टि प्रदान की जाती है ।


        मध्यस्थता में मध्यस्थ तठस्थ रहकर विवादों का निराकरण करवाता है । इसमें गोपनीयता महत्वपूर्ण है । किसी भी पक्षकार की गोपनीय तथ्य बिना उसकी सहमति के दूसरे पक्ष को नहीं बताये जाते हैं । इसमें तठस्थता भी महत्वपूर्ण है । तठस्थ रहकर बिना किसी पक्षकार का पक्ष लिए समझौते का हल निकाला जाता है । इसमें  मध्यस्थ के द्वारा कोई पहल नही की जाती है, कोई सुझाव नही दिया जाता है। दोनो पक्षों की बातचीत के आधार पर हल निकाला जाता है। 

        मध्यस्थता के निम्नलिखित चार चरण हैंः-

    1.    परिचय- मध्यस्थता में सर्व प्रथम पक्षकारो का परिचय लिया जाता है । परिचय के दौरान पक्षकारो को मध्यस्थता के आधारभूत सिद्धात बताये जाते है जिसमें मध्यस्थता के फायदे, गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखे जाने, सस्ता सुलभ शीघ्र न्याय प्राप्त होने, न्यायशुल्क की वापसी होने आदि बाते बताई जाती है । 

    2.    संयुक्त सत्र-परिचय के बाद संयुक्त सत्र में दोनो पक्षों को उनके अधिवक्ताओ के साथ आमने सामने बैठाकर क्रम से उनका पक्ष सुना जाता है। इसमें पक्षकारो कोआपस में वाद विवाद करने, लडने की मनाही रहती है। स्वस्थ वातावरण में दोनो पक्षों की बातचीत  मध्यस्थ सुनता है । इसमें बिना  मध्यस्थ की अनुमति के दोनो पक्षकार आपस में वाद विवाद नहीं कर सकते है जो भी बात कहनी है वह  मध्यस्थ के माध्यम से कही जायेगी। इसमें विवाद के प्रति जानकारी प्राप्त की जाती है एंव विवाद के निपटारे के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है ।

    3.    पृथक सत्र- संयुक्त सत्र के बाद अलग सत्र होता है जिसमें एक एक पक्षकार को उनके अधिवक्ताओ के साथ अलग-अलग सुना जाता है । इसमें  मध्यस्थ तथ्यों की जानकारी एकत्र करता है । पक्षकारो की गोपनीय बाते सुनता समझता है ।झगडे के कारणो से अवगत होता है । समस्या का यदि कोई हल हो तो वह खुद पक्ष्कार  मध्यस्थ को बताते है । इस सत्र में मध्यस्थ अधिकारी विवाद की जड तक पहुंचता हैं । 

    4.    समझौता-विवाद के निवारण उपरांत मध्यस्थ अधिकारी सभी पक्षों से समझौते की पुष्टि करवाता है तथा उसकी शर्ते स्पष्ट करवाता है । इस समझौते को लिखित रूप से अंकित किया जाता है ।जिस पर सभी पक्ष अधिवक्ताओं सहित हस्ताक्षर करते हैं ।  
      
            मध्यस्थ अधिकारी की भूमिका और कार्य 

                                    मध्यस्थ अधिकारी विवादित पक्षों के बीच समझौते की आधार भूमि तैयार करता है। पक्षकारो के बीच आपसी बातचीत और विचारो का माध्यम बनता है । समझौते के दौरान आने वाली बाधाओं का पता लगाता है । बातचीत से उत्पन्न विभिन्न समीकरणों को पक्षों के समक्ष रखता है ।सभी पक्षों के हितों की पहचान करवाता है । समझौते की शर्ते स्पष्ट करवाता है तथा ऐसी व्यवस्था करता है कि सभी पक्ष स्वेच्छा से समझौते को अपना सके ।

        एक मध्यस्थ फैसला नहीं करता क्या न्याससंगत और उपयुक्त है, संविभजित निन्दा नहीं करता, ना ही किसी गुण या सफलता को संभावना की राय देता है । 

        एक मध्यस्थ उत्प्रेरक की तरह दोनो पक्षों को एक साथ लाकर परिणामों की व्याख्या करके एंव बाधाओ को सीमित करते हुए विचार विमर्श द्वारा समझौता कराने का कार्य करता है। 

        इस प्रकार मध्यस्थ का कर्तव्य है कि वह पक्षकारो को इस गलत फहमी से निकाले 

         
         मध्यस्थता के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है । 


1-        धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रकरण में किसी ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य हो सकता है वहां न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका टिप्पणी के लिए देगा और पक्षकारों की टीका टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय संभव समझौते के निबंधनपुनः तैयार कर सकेगा और उन्हें निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट करें- 

    क-    माध्यस्थम्,
    ख-    सुलह,
    ग-    न्यायिक समझौते,जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी
        शामिल है,
    घ-    बीच-बचाव, 

वैकल्पिक न्यायिकेतर उपाय के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 में नियम 1क, 1ख, और 1ग जोडे गये है जो इस प्रकार है- 

    आदेश 10-1क----वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का कोई एक तरीका अपनाने का न्यायालय का निर्देश-स्वीकृति और इन्कार को लेखबद्ध करने के बाद न्यायालय वाद से संबंधित पक्षकारो को धरा-89 की उपधारा 1 में उल्लिखित न्यायाल से बाहर सुलह समझौता के किसी तरीके का विकल्प देने का निर्देश देगा । पक्षकारो के विकल्प देने पर, न्यायालय ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख नियत करेगा, जैसा पक्षकारों ने विकल्प दिया है । 

    आदेश 10-1ख----सुलह/समझौता न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति-जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया हो तो उस वाद में सुलह करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष  उपस्थित होगे। 

    आदेश 10-1ग----सुलह के प्रयासो के असफल होने के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष  उपस्थिति- जहां नियम जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया है और उस सुलह न्यायमंच या प्राधिकारी का समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में उस मामले में आगे बढना उचित नहीं होगा, तो वह उस मामले को वापस उस न्यायालय को संदर्भित करेगा और पक्षकारो को उसके द्वारा नियत दिनाक को न्यायालय के समक्ष  उपस्थित होने का निर्देश देगा । 

    क-    माध्यस्थम्- जहां कोई मामला कोई माध्यस्थ् या सुलह के लिए निर्दिष्ट किया गया है वहां माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 का 26 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिए कार्यवाहिया उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिए निर्दिष्ट की गई थीं, इस अधिनियम की धारा-73 के अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान होने पर करार का निष्पादन किया जायेगा । 

    ख-    सुलह- सुलह के अंतर्गत कोई करार न होने की दशा में मामला किसी तीसरे पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक है कि एक पक्षकार के निमंत्रण पर दूसरा पक्षकार लिखित में आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए । सुलाह कर्ता का नियुक्ति सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से निपटाने में सहयोग प्रदान करेगा । 

    ग-    न्यायिक समझौते जिसमें लोक अदालत भी शामिल है- न्यायालय प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 की धारा-20 की उपधारा- 1 के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालतों को इस प्रकार निर्दिष्टि किए गए विवाद के संबंध में लागू होंगे, जहां न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था, 

        लोक अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय  विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 अधिनियम की धारा-21 के अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय की एक डिक्री माना जायेगा ।
    घ-    बीच-बचाव-बीच बचाव के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय पक्षकारो के बीच समझौता राजीनामा कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो विहित की जाए। 


        इस प्रकार धारा-89 सहपठित आदेश 10 नियम 1क, 1ख, 1ग, मंे न्यायालय के बाहर समझौता या राजीनामा के आधार पर विवाद निपटाने की नवीन व्यवस्था की गई है जिसमें मुकदमे बाजी को कम समय में आपसी मेल जोल के वातावरण में सद्भावना पूर्वक विवाद को निपटाया जाता है । धारा-89 के अंतर्गत राजीनामा समझौते से जो मामले निपटते है उनमें वादी को पूरी न्यायशुल्क की पूरी राशि वापिस की जाती है । इस संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण 1987 की धारा-20-1 के अनुसार किसी लोक अदालत में द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण कियाजाता है तो ऐसे मामले में संदत्त न्यायालय फीस, न्यायालय फीस अधिनियम 1870 का 7 के अधिन उपबंधित रीति में वापस की जायेगी । इस संबंध में न्यायालय जिला कलेक्टर को प्रमाण पत्र जारी करेगा। 

        मध्यस्थता धारा-89 के अंतर्गत सुलाह समझौते का एक महत्वपूर्ण आधार है । जिसके संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.एल.पी.नंबर-6000/2010 सी नंबर-760/2007 एफकाॅम इन्फ्रास्ट््रेेक्चर लिमि. विरूद्ध चेरियर वारके कार्पोरेशन प्राईवेट लिमि.2010 भाग-8 एस.एस.सी.24 के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया है जिसका पालन कराया जाना राजीनामा वाले मामलो में अनिवार्य है । इस मामले में भी ऐसे मामलो की सूचि दी गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले की प्रक्रिया का पालन कराया जाना चाहिए और यह भी बताया गया कि किन मामलो में इसका पालन आवश्यक नही है । 

        मध्यस्थता के लिए उपयुक्त मामलो में जैसे 

        1. दीवानी मामले, निषेधादेश या समादेश, विशिष्ट निष्पादन, दीवानी वसूली, मकान मालिक किरायेदार के मामले, बेदखली के मामले,
        2. श्रमिक विवाद
        3. मोटर दुर्घटना दावे,
        4. वैवाहिक मामले, बच्चो की अभिरक्षा के मामले, भरण-पोषण के मामले,
        5. अपराधिक मामले, जिनमें धारा-406,498ए भा.द.वि. एंव. पराक्रम लिखत अधि            नियम की धारा-138 के मामले, धारा-125 दं.प्र.स. भरण-पोषण क मामले, 


    निम्नलिखित मामले मध्यस्थता हेतु उपयुक्त नहीं पाये गयेः- 

        1. लोकहित मामले,
        2. ऐसे मामले जिनमें शासन एक तरफ से पक्षकार है ।
        3. आराजीनामा योग्य धारा-320 द.प्र.सं. के अवर्णित मामले 

         प्रत्येक प्रकरण में मध्यस्थ की प्रक्रिया अनिवार्य है लेकिन यदि आवश्यक तत्व न हो तो  मध्यस्थ को भेजा जाना प्रकरण को आवश्यक नहीं है । इसमें पक्षकारो के मध्य विभिन्न कोर्ट में लंबित सभी मामले एक साथ निपटते हैं । कोर्ट फीस वापिस होती है । आदेश की अपील नहीं होती है । 

        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा इस सबंध में 30.082006 के राजपत्र मंे नियम प्रकाशित किये गये हैं । दोनो पक्ष आपसी सहमति से एक मध्यस्थ को नियुक्त कर सकते है या मध्यस्थ द्वारा एक  मध्यस्थ विचाराधीन वाद के लिए नियुक्त किया जा सकता है।  मध्यस्थता हमेशा निर्णय लेने की क्षमता दोनो पक्षों को सौंप देती है । 

        सर्व प्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यस्थ केन्द्र की स्थापना की जायेगी । जिसका प्रभारी अधिकारी ए.डी.जे. स्तर का होगा । मध्यस्थ के लिए उपर्युक्त मामला पाये जाने पर संबंधित न्यायाधीश एक संक्षिप्त जानकारी सहित मामला मध्यस्थ जिले मे स्थापित मध्यस्थ केन्द्र के प्रभारी अधिकारी को भेजेगा । प्रभारी अधिकारी राष्ट््रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के  द्वारा नियुक्त एंव मान्यता प्राप्त मध्यस्थ को मामला सुपुर्द करेगा ।

        पक्षकारों को मध्यस्थ केन्द्र में उपस्थित होने की तारीख संबंधित न्यायाधीश   द्वारा दी जायेगी । मध्यस्थ द्वारा 60 के अंदर मामले को निराकृत करने का प्रयास किया जायेगा। पक्षकारो के विशेष अनुरोध पर 30 दिन ओर समयावधि बढाई जा सकती है । 90 दिन से ज्यादा समय मध्यस्थ कार्यवाही हेतु नहीं दिया जायेगा ।

        समझौता होने पर ज्ञापन मध्यस्थ कार्यालय में अभिलिखित किया जायेगा जिस पर केस नंबर, मध्यस्थ केन्द्र का केस नंबर, पक्षकारो के नाम, शर्तो का उल्लेख होगा और उस पर मध्यस्थ सहित सभी पक्षकार अधिवक्ताओ के हस्ताक्षर होगें । एक-एक प्रतिलिपि दोनो पक्षकारो को दी जायेगी । जो न्यायालय में प्रस्तुत करेंगे । तथा मध्यस्थ भी समझौते की एक प्रति न्यायालय को सीधे भेजेगी । न्यायालय विधि अनुसार समझौते के अनुसरण में समझौता डिक्री पारित करेगा । जिसकी अपील नही होगी ।




        जगदीश प्रसाद विरूद्ध संगम लाल आई.एल.आर. 2011 मध्य प्रदेश 3011 में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय लिगल सर्विस अधार्टी एक्ट 1987 की धारा-20 और 21 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की डिक्री की श्रेणी में आता है । 

        रमेशचंद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई एल.आर. 2012 मध्य प्रदेश 320 में अभिनिर्धारित कियागयाहै कि धारा-35 कोर्ट फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालत में राजी नामा होने पर सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी और लोक अदालत का निर्णय धारा-21 के अंतर्गत डिक्री की श्रेणी में आता है ।










विवाह का रजिस्ट्र्ेशन

                                                     विवाह का रजिस्ट्र्ेशन

                               माननीय  उच्चतम न्यायालय द्वारा  सीमा बनाम अश्विनी कुमार  के मामले में सभी धर्मो के लिये शादी का रजिस्टे्र्ेशन अनिवार्य कर दिया गया है । माननीय उच्चतम न्यायालय ने 2006 में सभी धर्मो के लिये विवाह पंजीकरण कानून बनाने के निर्देश दिये थे । पक्षकार किसी भी धर्म से संबंधित हो सभी का   विवाह पंजीयन अनिवार्य किया गया । इसके लिए केन्द्र सरकार ने जन्म एवं मृत्यु पंजीकरण कानून में संसोधन के द्वारा इसे शामिल किया


                                              नये कानून के आने पर सभी धर्मोके लोगों के लिए एक ही कानून जन्म, मृत्यु एवं विवाह पंजीयन अधिनियम के तहत्शादी पंजीकृत की जाएगी ।इससे उनके धार्मिक अधिकारों और प्रक्रियाओं पर कोई प्रभाव नहीं पडेगा ।शादी संबंधी किसी भी विवाद का निपटारा अपने अपने धर्मो क विवाह कानूनों के तहत्ही होगा


  शादी के रजिस्ट्र्ेशन से यह लाभ होगा कि:-
 

1-    वैवाहिक मामलों में महिलाओं को उत्पीडन से बचाया जा सकेगा ।
2-    बाल विवाह जैसी समस्याओं से भी निजात मिलेगी ।
3-    संबंधित पक्षों को अंधेरे में रख कर होने वाली शादियों पर पावंदी लगेगी
4-    गैर कानूनी बहुविवाह पर रोक लगाने में मदद मिलेगी ।
5-    विवाह के लिए न्यूनतम आयु की पावंदी लागू की जा सकेगी ।
6-    विवाहित स्त्रियों को अपने ससुराल में रखने का हक हांसिल करने में     आसानी होगी ।
7-    महिलाओं को विवाह का सबूत देने के लिए भटकना नहीं होगा ।
8-    देश में समान अचारसंहिता कि संविधान कि उपधारणा को े बढ़ावा मिलगा।

                                      इस संबंध में म0प्र0 सरकार ने म0प्र0 विवाहों का अनिवार्य रजिस्ट्रीकरण नियम, 2008 कि रचना कि है जो  23.01.2008 से प्रभावशील है। इसके नियम 3 के अनुसार इन नियमों के प्रारंभ होने पर, म0प्र0 के राज्य क्षेत्र के भीतर ऐसे विवाहों को प्रशासित करने वाली किसी विधि या रूढि़ के अधीन, भारत के नागरिकों के बीच अनुष्ठापित तथा संविदाकृत विवाह और इन नियमों के उपबंधों के अधीन रजिस्ट्रीकृत किया जाएगा। नियम 4 के अन्र्तगत रजिस्ट्रीकृत न  किए गए विवाह, विवाह के निश्चायक सबूत नहीं समझे जाएंगे।
                         राज्य सरकार इसके लिए एक रजिस्ट्रार कि नियुक्ति करेगी। जब तक रजिस्ट्रार कि नियुक्ति नहीं होती है। जन्म तथा मृत्यु रजिस्ट्रीकृत करने के लिए सक्षम व्यक्ति व्यवहार रजिस्ट्रार समझा जाएगा।
                                   नियम 7 के अनुसार विवाह का रजिस्ट्रीकरण प्रारूप 1 में ज्ञापन प्रस्तुत करने पर विवाह की तारीख से 30 दिन के भीतर दो प्रतियों अथवा रजिस्टर डाॅक से भेजे जाने पर  विवाह रजिस्टर में प्रविष्टि करेगा। रजिस्ट्रार दस्तावेजों कि जांच भी कर सकता है, आयु का सबूत मांग सकता है। उसके आदेश के विरूद्ध नियम 9 में जिला न्यायाधीश द्वारा 30 दिन में अपील होगी।

                                       नियम 10 के अनुसर रजिस्ट्रीकरण के सबंध में 30 रू. का भुगतान किए जाने का प्रारूप क्र 3 में प्रमाण पत्र दिया जाएगा। 

न्यायिकेतर उपाय

                             न्यायिकेतर उपाय

1-        धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रकरण में किसी ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य हो सकता है वहां न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका टिप्पणी के लिए देगा और पक्षकारों की टीका टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय संभव समझौते के निबंधनपुनः तैयार कर सकेगा और उन्हें निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट करें- 

    क-    माध्यस्थम्,
    ख-    सुलह,
    ग-    न्यायिक समझौते,जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी
        शामिल है,
    घ-    बीच-बचाव, 

वैकल्पिक न्यायिकेतर उपाय के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 में नियम 1क, 1ख, और 1ग जोडे गये है जो इस प्रकार है- 

    आदेश 10-1क----वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का कोई एक तरीका अपनाने का न्यायालय का निर्देश-स्वीकृति और इन्कार को लेखबद्ध करने के बाद न्यायालय वाद से संबंधित पक्षकारो को धरा-89 की उपधारा 1 में उल्लिखित न्यायाल से बाहर सुलह समझौता के किसी तरीके का विकल्प देने का निर्देश देगा । पक्षकारो के विकल्प देने पर, न्यायालय ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख नियत करेगा, जैसा पक्षकारों ने विकल्प दिया है । 

    आदेश 10-1ख----सुलह/समझौता न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति-जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया हो तो उस वाद में सुलह करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष  उपस्थित होगे। 

    आदेश 10-1ग----सुलह के प्रयासो के असफल होने के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष  उपस्थिति- जहां नियम जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया है और उस सुलह न्यायमंच या प्राधिकारी का समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में उस मामले में आगे बढना उचित नहीं होगा, तो वह उस मामले को वापस उस न्यायालय को संदर्भित करेगा और पक्षकारो को उसके द्वारा नियत दिनाक को न्यायालय के समक्ष  उपस्थित होने का निर्देश देगा । 

    क-    माध्यस्थम्- जहां कोई मामला कोई माध्यस्थ् या सुलह के लिए निर्दिष्ट किया गया है वहां माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 का 26 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिए कार्यवाहिया उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिए निर्दिष्ट की गई थीं, इस अधिनियम की धारा-73 के अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान होने पर करार का निष्पादन किया जायेगा । 

    ख-    सुलह- सुलह के अंतर्गत कोई करार न होने की दशा में मामला किसी तीसरे पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक है कि एक पक्षकार के निमंत्रण पर दूसरा पक्षकार लिखित में आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए । सुलाह कर्ता का नियुक्ति सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से निपटाने में सहयोग प्रदान करेगा । 

    ग-    न्यायिक समझौते जिसमें लोक अदालत भी शामिल है- न्यायालय प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 की धारा-20 की उपधारा- 1 के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालतों को इस प्रकार निर्दिष्टि किए गए विवाद के संबंध में लागू होंगे, जहां न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था,

        लोक अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय  विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 अधिनियम की धारा-21 के अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय की एक डिक्री माना जायेगा ।
    घ-    बीच-बचाव-बीच बचाव के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय पक्षकारो के बीच समझौता राजीनामा कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो विहित की जाए। 

        इस प्रकार धारा-89 सहपठित आदेश 10 नियम 1क, 1ख, 1ग, मंे न्यायालय के बाहर समझौता या राजीनामा के आधार पर विवाद निपटाने की नवीन व्यवस्था की गई है जिसमें मुकदमे बाजी को कम समय में आपसी मेल जोल के वातावरण में सद्भावना पूर्वक विवाद को निपटाया जाता है । धारा-89 के अंतर्गत राजीनामा समझौते से जो मामले निपटते है उनमें वादी को पूरी न्यायशुल्क की पूरी राशि वापिस की जाती है । इस संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण 1987 की धारा-20-1 के अनुसार किसी लोक अदालत में द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण कियाजाता है तो ऐसे मामले में संदत्त न्यायालय फीस, न्यायालय फीस अधिनियम 1870 का 7 के अधिन उपबंधित रीति में वापस की जायेगी । इस संबंध में न्यायालय जिला कलेक्टर को प्रमाण पत्र जारी करेगा। 

        मध्यस्थता धारा-89 के अंतर्गत सुलाह समझौते का एक महत्वपूर्ण आधार है । जिसके संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.एल.पी.नंबर-6000/2010 सी नंबर-760/2007 एफकाॅम इन्फ्रास्ट््रेेक्चर लिमि. विरूद्ध चेरियर वारके कार्पोरेशन प्राईवेट लिमि.2010 भाग-8 एस.एस.सी.24 के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया है जिसका पालन कराया जाना राजीनामा वाले मामलो में अनिवार्य है । इस मामले में भी ऐसे मामलो की सूचि दी गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले की प्रक्रिया का पालन कराया जाना चाहिए और यह भी बताया गया कि किन मामलो में इसका पालन आवश्यक नही है । 

        मध्यस्थता के लिए उपयुक्त मामलो में जैसे
        1. दीवानी मामले, निषेधादेश या समादेश, विशिष्ट निष्पादन, दीवानी वसूली, मकान मालिक किरायेदार के मामले, बेदखली के मामले, 

        2. श्रमिक विवाद 

        3. मोटर दुर्घटना दावे, 

        4. वैवाहिक मामले, बच्चो की अभिरक्षा के मामले, भरण-पोषण के मामले, 

        5. अपराधिक मामले, जिनमें धारा-406,498ए भा.द.वि. एंव. पराक्रम लिखत अधि            नियम की धारा-138 के मामले, धारा-125 दं.प्र.स. भरण-पोषण के मामले, 


    निम्नलिखित मामले मध्यस्थता हेतु उपयुक्त नहीं पाये गयेः-
        1. लोकहित मामले, 

        2. ऐसे मामले जिनमें शासन एक तरफ से पक्षकार है । 

        3. आराजीनामा योग्य धारा-320 द.प्र.सं. के अवर्णित मामले 


         प्रत्येक प्रकरण में मध्यस्थ की प्रक्रिया अनिवार्य है लेकिन यदि आवश्यक तत्व न हो तो  मध्यस्थ को भेजा जाना प्रकरण को आवश्यक नहीं है । इसमें पक्षकारो के मध्य विभिन्न कोर्ट में लंबित सभी मामले एक साथ निपटते हैं । कोर्ट फीस वापिस होती है । आदेश की अपील नहीं होती है । 


        मध्य प्रदेश शासन के द्वारा इस सबंध में 30.082006 के राजपत्र मंे नियम प्रकाशित किये गये हैं । दोनो पक्ष आपसी सहमति से एक मध्यस्थ को नियुक्त कर सकते है या मध्यस्थ द्वारा एक  मध्यस्थ विचाराधीन वाद के लिए नियुक्त किया जा सकता है।  मध्यस्थता हमेशा निर्णय लेने की क्षमता दोनो पक्षों को सौंप देती है । 

        सर्व प्रथम प्रत्येक जिले में एक मध्यस्थ केन्द्र की स्थापना की जायेगी । जिसका प्रभारी अधिकारी ए.डी.जे. स्तर का होगा । मध्यस्थ के लिए उपर्युक्त मामला पाये जाने पर संबंधित न्यायाधीश एक संक्षिप्त जानकारी सहित मामला मध्यस्थ जिले मे स्थापित मध्यस्थ केन्द्र के प्रभारी अधिकारी को भेजेगा । प्रभारी अधिकारी राष्ट््रीय विधिक सेवा प्राधिकरण के  द्वारा नियुक्त एंव मान्यता प्राप्त मध्यस्थ को मामला सुपुर्द करेगा । 

        पक्षकारों को मध्यस्थ केन्द्र में उपस्थित होने की तारीख संबंधित न्यायाधीश   द्वारा दी जायेगी । मध्यस्थ द्वारा 60 के अंदर मामले को निराकृत करने का प्रयास किया जायेगा। पक्षकारो के विशेष अनुरोध पर 30 दिन ओर समयावधि बढाई जा सकती है । 90 दिन से ज्यादा समय मध्यस्थ कार्यवाही हेतु नहीं दिया जायेगा । 

        समझौता होने पर ज्ञापन मध्यस्थ कार्यालय में अभिलिखित किया जायेगा जिस पर केस नंबर, मध्यस्थ केन्द्र का केस नंबर, पक्षकारो के नाम, शर्तो का उल्लेख होगा और उस पर मध्यस्थ सहित सभी पक्षकार अधिवक्ताओ के हस्ताक्षर होगें । एक-एक प्रतिलिपि दोनो पक्षकारो को दी जायेगी । जो न्यायालय में प्रस्तुत करेंगे । तथा मध्यस्थ भी समझौते की एक प्रति न्यायालय को सीधे भेजेगी । न्यायालय विधि अनुसार समझौते के अनुसरण में समझौता डिक्री पारित करेगा । जिसकी अपील नही होगी ।

                  जगदीश प्रसाद विरूद्ध संगम लाल आई.एल.आर. 2011 मध्य प्रदेश 3011 में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय लिगल सर्विस अधार्टी एक्ट 1987 की धारा-20 और 21 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की डिक्री की श्रेणी में आता है 


        रमेशचंद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई एल.आर. 2012 मध्य प्रदेश 320 में अभिनिर्धारित कियागयाहै कि धारा-35 कोर्ट फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालत में राजी नामा होने पर सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी और लोक अदालत का निर्णय धारा-21 के अंतर्गत डिक्री की श्रेणी में आता है ।







न्यायिककैतर वैकल्पिक उपचार A.D.R.

                                                              न्यायिककैतरवैकल्पिकउपचारA D R
                                                                
                               न्यायिककैतर वैकल्पिक उपचार के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है । 

1-        धारा-89 सिविल प्रक्रिया संहिता के अनुसार जहां न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि प्रकरण में किसी ऐसे समझौते के तत्व विद्यमान है जो दोनो पक्षकारो को स्वीकार्य हो सकता है वहां न्यायालय समझौते के निबंधन बनाएगा और उन्हें पक्षकारों को उनकी टीका टिप्पणी के लिए देगा और पक्षकारों की टीका टिप्पणी प्राप्त करने के पश्चात न्यायालय संभव समझौते के निबंधनपुनः तैयार कर सकेगा और उन्हें निम्न लिखित के लिए निर्दिष्ट करें-

    क-    माध्यस्थम्,

    ख-    सुलह,

    ग-    न्यायिक समझौते, जिसके अंतर्गत लोक अदालत के माध्यम से समझौता भी   शामिल है,

    घ-    बीच-बचाव,

वैकल्पिक न्यायिकेतर उपाय के सबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता के आदेश 10 में नियम 1क, 1ख, और 1ग जोडे गये है जो इस प्रकार है- 

    आदेश 10-1क----वैकल्पिक विवाद प्रस्ताव का कोई एक तरीका अपनाने का न्यायालय का निर्देश-स्वीकृति और इन्कार को लेखबद्ध करने के बाद न्यायालय वाद से संबंधित पक्षकारो को धरा-89 की उपधारा 1 में उल्लिखित न्यायाल से बाहर सुलह समझौता के किसी तरीके का विकल्प देने का निर्देश देगा । पक्षकारो के विकल्प देने पर, न्यायालय ऐसे न्यायमंच फोरम या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति की तारीख नियत करेगा, जैसा पक्षकारों ने विकल्प दिया है ।

    आदेश 10-1ख----सुलह/समझौता न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष उपस्थिति-जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया हो तो उस वाद में सुलह करने के लिए पक्षकार उस अधिकरण न्यायमंच या प्राधिकारी के समक्ष  उपस्थित होगे।

    आदेश 10-1ग----सुलह के प्रयासो के असफल होने के परिणामस्वरूप न्यायालय के समक्ष  उपस्थिति- जहां नियम जहंा नियम 1क के अधीन किसी वाद को संदर्भित किया गया है और उस सुलह न्यायमंच या प्राधिकारी का समाधान हो जाता है कि न्याय के हित में उस मामले में आगे बढना उचित नहीं होगा, तो वह उस मामले को वापस उस न्यायालय को संदर्भित करेगा और पक्षकारो को उसके द्वारा नियत दिनाक को न्यायालय के समक्ष  उपस्थित होने का निर्देश देगा ।

    क-    माध्यस्थम्- जहां कोई मामला कोई माध्यस्थ् या सुलह के लिए निर्दिष्ट किया गया है वहां माध्यस्थम् और सुलह अधिनियम 1996 का 26 के उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो माध्यस्थम् या सुलह के लिए कार्यवाहिया उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन समझौते के लिए निर्दिष्ट की गई थीं, इस अधिनियम की धारा-73 के अनुसार निपटारे के तथ्य विद्यमान होने पर करार का निष्पादन किया जायेगा । 

    ख-    सुलह- सुलह के अंतर्गत कोई करार न होने की दशा में मामला किसी तीसरे पक्षकार के समक्ष सुलह हेतु भेजा जायेगा । इसके लिए आवश्यक है कि एक पक्षकार के निमंत्रण पर दूसरा पक्षकार लिखित में आमंत्रण स्वीकार करना चाहिए । सुलाह कर्ता का नियुक्ति सहमति से की जायेगी ।सुलहकर्ता विवादो को मेत्री पूर्ण ढंग से स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से निपटाने में सहयोग प्रदान करेगा । 

    ग-    न्यायिक समझौते जिसमें लोक अदालत भी शामिल है- न्यायालय प्रकरण को विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 की धारा-20 की उपधारा- 1 के उपबंधों के अनुसार लोक अदालत को निर्दिष्ट करेगा और उस अधिनियम के सभी अन्य उपबंध लोक अदालतों को इस प्रकार निर्दिष्टि किए गए विवाद के संबंध में लागू होंगे, जहां न्यायिक समझौते के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय उसे किसी उपयुक्त संस्था या व्यक्ति को निर्दिष्ट करेगा और ऐसी संस्था या व्यक्ति लोक अदालत समझा जाएगा तथा विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 के सभी उपबंध ऐसे लागू होंगे मानो वह विवाद लोक अदालत को उस अधिनियम के उपबंधों के अधीन निर्दिष्ट किया गया था,
        लोक अदालत का प्रत्येक अधिनिर्णय  विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987 का 39 अधिनियम की धारा-21 के अंतर्गत किसी सिविल न्यायालय की एक डिक्री माना जायेगा ।
    घ-    बीच-बचाव-बीच बचाव के लिए निर्दिष्ट किया गया है, वहां न्यायालय पक्षकारो के बीच समझौता राजीनामा कराएगा और ऐसी प्रक्रिया का पालन करेगा जो विहित की जाए।
        इस प्रकार धारा-89 सहपठित आदेश 10 नियम 1क, 1ख, 1ग, मंे न्यायालय के बाहर समझौता या राजीनामा के आधार पर विवाद निपटाने की नवीन व्यवस्था की गई है जिसमें मुकदमे बाजी को कम समय में आपसी मेल जोल के वातावरण में सद्भावना पूर्वक विवाद को निपटाया जाता है ।
        धारा-89 के अंतर्गत राजीनामा समझौते से जो मामले निपटते है उनमें वादी को पूरी न्यायशुल्क की पूरी राशि वापिस की जाती है । इस संबंध में विधिक सेवा प्राधिकरण 1987 की धारा-20-1 के अनुसार किसी लोक अदालत में द्वारा कोई समझौता या परिनिर्धारण कियाजाता है तो ऐसे मामले में संदत्त न्यायालय फीस, न्यायालय फीस अधिनियम 1870 का 7 के अधिन उपबंधित रीति में वापस की जायेगी । इस संबंध में न्यायालय जिला कलेक्टर को प्रमाण पत्र जारी करेगा।   
        जगदीश प्रसाद विरूद्ध संगम लाल आई.एल.आर. 2011 मध्य प्रदेश 3011 में अभिनिर्धारित किया गया है कि प्रत्येक लोक अदालत का अधिनिर्णय लिगल सर्विस अथार्टी एक्ट 1987 की धारा-20 और 21 के अंतर्गत सिविल न्यायालय की डिक्री की श्रेणी में आता है।

        रमेशचंद विरूद्ध स्टेट आफ एम.पी. आई एल.आर. 2012 मध्य प्रदेश 320 में अभिनिर्धारित कियागयाहै कि धारा-35 कोर्ट फीस अधिनियम के अंतर्गत लोक अदालत में राजी नामा होने पर सम्पूर्ण राशि वापिस की जायेगी और लोक अदालत का निर्णय धारा-21 के अंतर्गत डिक्री की श्रेणी में आयेगा ।

        मध्यस्थता धारा-89 के अंतर्गत सुलाह समझौते का एक महत्वपूर्ण आधार है । जिसके संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.एल.पी.नंबर-6000/2010 सी नंबर-760/2007 एफकाम इन्फ्रास्ट्रेक्चर लिमि. विरूद्ध चेरियर वारके कार्पोरेशन प्राईवेट लिमि.2010 भाग-8 एस.एस.सी.24 के मामले में अभिनिर्धारित किया है कि यह एक महत्वपूर्ण न्यायिक प्रक्रिया है जिसका पालन कराया जाना राजीनामा वाले मामलो में अनिवार्य है । इस मामले में भी ऐसे मामलो की सूचि दी गई है जिनमें मध्यस्थ के मामले की प्रक्रिया का पालन कराया जाना चाहिए और यह भी बताया गया कि किन मामलो में इसका पालन आवश्यक नही है ।   

                                      उमेश कुमार गुप्ता
                            
   

मध्यस्थता

                            मध्यस्थता
    

                             मध्यस्थता सुलह कि वह अबाद्धकारी, गोपनीय, सस्ती, अनऔपचारिक, किफायती प्रक्रिया है । जिसमें मध्यस्थ, तटस्थ, निष्पक्ष होकर गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखते हुए विवाद को हल करने का आधार भूत रास्ता उपलब्ध कराता है । इसमें पक्षकारो के द्वारा सुझाये गये रास्तो से ही विवाद का हल निकाला जाता है।  मध्यस्थ के द्वारा उन पर समझौता आरोपित नहीं किया जाता है। इसमें दोनो पक्षकारो की जीत होती है । कोई भी पक्षकार अपने को हारा हुआ या ठगा महसूस नहीं करता है। 

                                                मध्यस्थता बातचीत की एक प्रक्रिया है जिसमें एक निष्पक्ष  मध्यस्थता अधिकारी विवाद और झगडे में लिप्त पक्षांे के बीच सुलह कराने में मदद करता है । यह  मध्यस्थता अधिकारी बातचीत की विशेष शैली और सूचना विधि का प्रयोग करते हुए समझौते का आधार तैयार करता है तथ वादी और प्रतिवादी को समझौते के द्वारा विवाद समाप्त करने के लिए प्रेरित करता है। 

                                               मध्यस्थता विवादो को निपटाने के लिए मुकदमेबाजी की तुलना में कहीं अधिक संतोषजनक तरीका है । जिसके माध्यम से निपटाये गए मामलो में अपील और पुनर्विचार की आवश्यकता नहीं होती है और सभी विवाद पूरी तरह निपट जाते हैं। इस पद्धति के द्वारा विवादोें का जल्द से जल्द निपटारा होता है जो कि खर्च रहित है । यह मुकदमो के झंझटो से मुक्त है । साथ ही साथ न्यायालयों पर बढते मुकदमों का बोझ भी कम होता है । 


                                                           मध्यस्थता विवादो को निपटाने की  सरल एव् निष्पक्ष आधुनिक प्रक्रिया है। इसके द्वारा  मध्यस्थ अधिकारी दबावरहित वातावरण में विभिन्न पक्षों के विवादो का निपटारा करते है। सभी पक्ष अपनी इच्छा से सद्भावपूर्ण वातावरण में विवाद का समाधान निकालते हैं। उसे स्वेच्छा से अपनाते है ।  मध्यस्थता के दौरान विभिन्न पक्ष  अपने विवाद को जिस तरीके से निपटाते हैं वह सभी पक्षों को मान्य होता है, वे उसे  अपनाते है ।  


                                                        मध्यस्थता में मामले सुलाह, समझौते, समझाइश, सलाह के आधार पर निपटते हैं दोनो पक्ष जिस ढंग से विवाद सुलझाना चाहते है उसी ढंग से विवाद का निराकरण किया जाता है। इसमें विवाद की जड तक पहंुचकर विवाद के कारणों का पता लगाकर विवाद का हल निकाला जाता है । 

                                             मध्यस्थता माध्यस्थम् से अलग है । माध्यस्थम् में दोनो पक्षकार को सुनकर विवाद का हल निकाला जाता है । इसके लिए करार में माध्यस्थम् की शर्त होना अनिवार्य है। माध्यस्थम् में विवाद से बाहर की विषय वस्तु पर विचार नहीं किया जाता है और न ही उसके आधार पर विवाद का निराकरणा किया जा सकता है । 


                                                    मध्यस्थता पंचायत से भी अलग है। पंचायत में समाज में व्याप्त रूढियों, प्रथाओं, मान्यताओं, को ध्यान में रखते हुए निर्णय जबरदस्ती पक्षकारो पर थोपे जाते हैं। पंचायत में सामाजिक प्रथाओ को ध्यान मंे रखकर दबाव वश निर्णय लिये जाते हैं । समस्या की जड तक पहंुचकर समस्या को जड से समाप्त नहीं किया जाता है । 


                                                 मध्यस्थता लोक अदालत से भी अलग है । लोक अदालत में कानून के अनुसार केवल राजीनामा योग्य मामले रखे जाते हैं । इसमे पक्षकारो का सामाजिक आर्थिक हित होते हुए भी कानून में प्रावधान न होने के कारण कोई सहायता प्रदान नहीं की जा सकती। केवल कानून के दायरे में रहते ही लोक अदालत में निर्णय पारित किया जाता है । 


                                           मध्यस्थता न्यायिक सुलह से भी अलग है ।न्यायिक सुलह में सुलहकर्ता न्यायिक दायरे मंे रहते हुए दोनो पक्षकारो को सुनकर विवाद का हल बताता है । जो प्रचलित कानून की सीमा के अंतर्गत होता है । 


                                                       मध्यस्थता समझौते से भी अलग है। समझौते में किसी पक्षकार को कुछ मिलता है । किसी को कुछ त्यागना पडता है । किसी को परिस्थितिवश समझौता करना पडता है । इसमें दोनो पक्षकार संतुष्ट नहीं होते है । एक न एक पक्षकार असंतुष्ट बना रहता है । 


                                                         मध्यस्थता में जो रास्ते उपलब्ध है उन्हीं रास्ते में समस्या  का हल निकाला जाता है। मध्यस्थता में व्यक्तिगत राय  मध्यस्थ नही थोपता है । न ही कानून बताकर कानून के अनुसार कानून के दायरे में रहकर समस्या का हल निकालने को कहा जाता है । इसमें वैकल्पिक न्यायिक उपचार निकाले जाते है जो विवाद से संबंधित भी हो सकते हैं और विवाद की विषय वस्तु से अलग भी हो सकते हैं । इसमें वैचारिक मत भेद समाप्त कर दोनो पक्षकारो को पूर्ण संतोष एंव पूर्ण संतुष्टि प्रदान की जाती है । 


                                   मध्यस्थता में मध्यस्थ तठस्थ रहकर विवादों का निराकरण करवाता है । इसमें गोपनीयता महत्वपूर्ण है । किसी भी पक्षकार की गोपनीय तथ्य बिना उसकी सहमति के दूसरे पक्ष को नहीं बताये जाते हैं । इसमें तठस्थता भी महत्वपूर्ण है । तठस्थ रहकर बिना किसी पक्षकार का पक्ष लिए समझौते का हल निकाला जाता है । इसमें  मध्यस्थ के द्वारा कोई पहल नही की जाती है, कोई सुझाव नही दिया जाता है। दोनो पक्षों की बातचीत के आधार पर हल निकाला जाता है।
        मध्यस्थता के निम्नलिखित चार चरण हैंः- 


    1.    परिचय- मध्यस्थता में सर्व प्रथम पक्षकारो का परिचय लिया जाता है । परिचय के दौरान पक्षकारो को मध्यस्थता के आधारभूत सिद्धात बताये जाते है जिसमें मध्यस्थता के फायदे, गोपनीय तथ्यों को गोपनीय रखे जाने, सस्ता सुलभ शीघ्र न्याय प्राप्त होने, न्यायशुल्क की वापसी होने आदि बाते बताई जाती है । 

    2.    संयुक्त सत्र-परिचय के बाद संयुक्त सत्र में दोनो पक्षों को उनके अधिवक्ताओ के साथ आमने सामने बैठाकर क्रम से उनका पक्ष सुना जाता है। इसमें पक्षकारो कोआपस में वाद विवाद करने, लडने की मनाही रहती है। स्वस्थ वातावरण में दोनो पक्षों की बातचीत  मध्यस्थ सुनता है । इसमें बिना  मध्यस्थ की अनुमति के दोनो पक्षकार आपस में वाद विवाद नहीं कर सकते है जो भी बात कहनी है वह  मध्यस्थ के माध्यम से कही जायेगी। इसमें विवाद के प्रति जानकारी प्राप्त की जाती है एंव विवाद के निपटारे के लिए अनुकूल वातावरण तैयार किया जाता है । 

    3.    पृथक सत्र- संयुक्त सत्र के बाद अलग सत्र होता है जिसमें एक एक पक्षकार को उनके अधिवक्ताओ के साथ अलग-अलग सुना जाता है । इसमें  मध्यस्थ तथ्यों की जानकारी एकत्र करता है । पक्षकारो की गोपनीय बाते सुनता समझता है ।झगडे के कारणो से अवगत होता है । समस्या का यदि कोई हल हो तो वह खुद पक्ष्कार  मध्यस्थ को बताते है । इस सत्र में मध्यस्थ अधिकारी विवाद की जड तक पहुंचता हैं । 

    4.    समझौता-विवाद के निवारण उपरांत मध्यस्थ अधिकारी सभी पक्षों से समझौते की पुष्टि करवाता है तथा उसकी शर्ते स्पष्ट करवाता है । इस समझौते को लिखित रूप से अंकित किया जाता है ।जिस पर सभी पक्ष अधिवक्ताओं सहित हस्ताक्षर करते हैं ।  
      
            मध्यस्थ अधिकारी की भूमिका और कार्य 

                                                           मध्यस्थ अधिकारी विवादित पक्षों के बीच समझौते की आधार भूमि तैयार करता है। पक्षकारो के बीच आपसी बातचीत और विचारो का माध्यम बनता है । समझौते के दौरान आने वाली बाधाओं का पता लगाता है । बातचीत से उत्पन्न विभिन्न समीकरणों को पक्षों के समक्ष रखता है ।सभी पक्षों के हितों की पहचान करवाता है । समझौते की शर्ते स्पष्ट करवाता है तथा ऐसी व्यवस्था करता है कि सभी पक्ष स्वेच्छा से समझौते को अपना सके ।
                                                      एक मध्यस्थ फैसला नहीं करता क्या न्याससंगत और उपयुक्त है, संविभाजित निन्दा नहीं करता, ना ही किसी गुण या सफलता को संभावना की राय देता है ।
                                            एक मध्यस्थ उत्प्रेरक की तरह दोनो पक्षों को एक साथ लाकर परिणामों की व्याख्या करके एंव बाधाओ को सीमित करते हुए विचार विमर्श द्वारा समझौता कराने का कार्य करता है।
                                            इस प्रकार मध्यस्थ का कर्तव्य है कि वह पक्षकारो को इस गलत फहमी से निकाले की
        भूल में गालिब, जिन्दगी भर करता रहा ।
        धूल चेहरे पर थी, आएना साफ करता रहा ।।    




                                             मध्यस्थता के संबंध में सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-89 में विशेष प्रावधान दिये गये है । जिसमें न्यायालय के बाहर विवादो का निपटारा किया जाता है ।

                                                                                                                                          (उमेश कुमारगुप्ता)
                         

नोट-        लेखक उमेश कुमार गुप्ता के द्वारा 14.07.2012 से 19.07.2012 तक विदिशा में आयोजित थ्वनदकंजपवद ज्तंपदपदह वद ज्मबीदपुनमे व िडमकपंजपवद में भाग लिया         है ।

























घरेलू हिंसा

                            घरेलू हिंसा

                                      घरेलू हिंसा यानि ऐसा कोई कार्य या हरकत जो किसी पीडित महिला एवं बच्चों (18 वर्ष से कम उम्र के बालक एवं बालिका) के स्वास्थ्य, सुरक्षा जीवन को खतरा/संकट की स्थिति, आर्थिक नुकसान, क्षति जो असहनीय हो तथा जिससे महिला व बच्चे दुखी व अपमानित होते हों। इसके तहत् शारीरिक हिंसा, मौखिक व भावनात्मक हिंसा, लैंगिग व आर्थिक हिंसा या धमकी देना आदि शामिल है।

पीडित महिला कौन है ?

    विवाहित, अविवाहित के अलावा अन्य रिश्तों में रह रही विवाहित, विधवा, माॅ, बहन, बेटी, बहूंॅ, शादी के बगैर साथ रह रही महिला या दूसरी पत्नी के रूप में रह रही या रह चुकी महिला। धोके से किया गया विवाह/अवैध विवाह वाली महिला का संरक्षण करता है।

शिकायत किसके खिलाफ करा सकते हैं ?

    किसी भी व्यस्क पुरुष सदस्य के खिलाफ, जिसके साथ महिला बच्चे का घरेलू रिश्ता है या था, के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई जा सकती है।

इस कानून की प्रकृति एवं विशेषता

1    यह एक दिवानी कानून है। इस कानून में दोषी को सजा दिलाने के बजाय पीडि़त के संरक्षण एवं बचाव की बात कही गई है। न्यायालय का आदेश न मानने पर दोषी व्यक्ति को एक साल तक की अवधि की सजा या रुपये 20 हजार तक जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।

2    इस कानून के तहत् घरेलू हिंसा की रोकथाम के लिए न्यायाधीश, न्यायालय को आवेदन प्राप्त होने के 03 दिन के भीतर पहली सुनवाई एवं बचावकारी आदेश दे सकते हैं।

3    घरेलू रिश्तों में रहते हुए भी आपत्तिजनक व्यवहारों को सुधारने का पूरा मौका देता है।

4    महिलायें सर छुपाने के लिए एक घर की चाह में बहुत से अनचाहे समझौते करती रहती हैं। यह कानून महिलाओं बच्चों को अपने घर में स्वतंत्र व सुरक्षित रहने का अधिकार देता है, चाहे उस घर पर उनका मालिकाना हक हो या न हो।

5    न्यायालय प्रत्येक आवेदन की प्रथम सुनवाई की तारीख से 60 दिनों के अन्दर निपटारा करने का प्रयास करेगा।

6इस कानून के अनुसार महिला के साथ हुई घरेलू हिंसा के साक्ष्य के प्रमाण प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं है। महिला द्वारा प्रस्तुत साक्ष्यों एवं बयानों को ही विश्वसनीय माना जावेगा तथा आधार पर ही न्यायाधीश आदेश दे सकते हैं कि हिंसा रोकी जावे और महिला को संरक्षण प्रदान किया जावे। 

7    इस धारा-32 (2) पीडि़ता को, न्यायालय, संबंधित सभी आदेशों की प्रतियां निःशुल्क प्रदाय की जाएगी।

8    यदि न्यायाधीश ऐसा समझते हैं कि परिस्थितियों के कारण मामले की सुनवाई बंद कमरे में किया जाना बेहतर और आवश्यक है तो या पीडि़त पक्ष ऐसी मांग करे तो मामले की कार्यवाही बंद कमरे में की जा सकेगी। 

9    यदि न्यायाधीश को पीडि़त व्यक्ति या दोषी से आवेदन प्राप्त होन पर यह समाधान हो जाता है कि परिस्थितियों में सुधार हुआ है तो पूर्व आदेश में परिवर्तन, संशोधन या निरस्त कर सकते हैं। 

10    पीडि़ता के पूर्व में चल रहे अदालत के केस के अतिरिक्त भी इस कानून की धारा 18 से 22 तक संरक्षण एवं सहायता प्राप्त कर सकते हैं। 

11    घरेलू हिंसा के केस के साथ अन्य कानून अंतर्गत कार्यवाही भी एक साथ चल सकती है।

12    महिला घटना स्थल या वर्तमान में जहंा निवासरत है, वहां केस दर्ज करा सकती है। पीडि़ता जहंा उचित समझे उस क्षेत्र के मजिस्टेªट को आवेदन दे सकती है।
   

इस कानून के तहत् मिलने वाली राहत

1    परामर्श - न्यायाधीश यह समझता है कि नियम के तहत किसी पीडि़त व हिंसाकर्ता को अकेले या संयुक्त रूप से सेवा प्रदाता (पुलिस परिवार परामर्श केन्द्र) के किसी सदस्य को परामर्श देने की पात्रता और अनुभव रखते हों से परामर्श लेने का निर्देश दे सकते हैं। परामर्श में हुए समझौते की कार्यवाही अनुसार मजिस्टे््र्रट संरक्षण एवं सहायता के आदेश जारी कर सकते हैं।

2    संरक्षण आदेश (धारा 18) - यदि न्यायाधीश को लगता है कि घरेलू हिंसा हुई है और पीडि़त व्यक्ति को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, ऐसी स्थिति में संरक्षण हेतु निम्नलिखित व्यवहारों से रोकने के आदेश हिंसाकर्ता को देगाः-

अ-    घरेलू हिंसा करने, हिंसा में सहयोग करने या प्रेरित करने से रोकना। पीडि़त द्वारा उपयोग किए जाने वाले घर में प्रवेश पर रोक, अगर पीडि़त की रिपोर्ट से जज को ऐसा लगता है कि पीडि़त को हिंसाकर्ता से आगे भी खतरा है, तो हिंसाकर्ता (पुरुष) को घर के बारह रहने का ओदश भी दे सकता है या घर के जिस भाग में पीडि़त व्यक्ति का निवास है या विद्यालय/महाविद्यालय में जाने से मना कर सकता है। 

ब-    किसी भी पुरुष से व्यक्तिगत, मौखिक, लिखित टेलीफोन या अन्य इलेक्ट्राॅनिक माध्यम से सम्पर्क करने से मना करना। 

स-    पीडि़त पर आश्रित व्यक्ति बच्चों या सहायता करने वाले व्यक्तियों पर हिंसा से रोकना। संयुक्त या 

द-    जिस संपत्ति पर पीडि़त का हक बनता है ऐसी संपत्तियों का लेन-देन या संचालन पर रोक। स्त्री धन, आभूषण, कपड़ों इत्यादि पर कब्जा देना।

क-     आपसी विवाह के संबंध में बात करने या उनकी पसंद के किसी व्यक्ति से विवाह के लिए मजबूर न करना। 

ख-    दहेज की मांग के लिए परेशान करने से रोकना।

ग-     न्यायालय के आदेश के बिना बैंक में संधारित लाॅकर्स एवं संयुक्त बैंक खातों से राशि, सामग्री नहींे निकाल सकेगा। 

घ-    पीडि़ता और उसके बच्चों की सुरक्षा के लिए कोई अन्य उपाय।


3-    निवास का आदेश (धारा 19) - पीडित का साझी गृहस्थी में रहना महिला का अधिकार है, चाहे उसमें उसका मालिकाना हक न हो। अगर जरूरत महसूस हो तो आदालत आरोपी को यह आदेश दे सकती है कि पीडिता जैसी सुविधा में साझे रूप में निवास कर रही थी वैसा ही किराए का घर उसे रहने के लिए उपलब्ध करावें। पीडिता एवं उसके बच्चे घर में या घर के किसी भाग में निवास करते हैं, या कर चुके हैं, तो उसे घर के उस भाग में रहने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता है। हिंसाकर्ता उस मकान को न तो बेच सकता है न उस पर ऋण ले सकता है न ही किसी के नाम से हस्तांतरित कर सकता है।


4-    बच्चों की अभिरक्षा का आदेश (धारा 21) - न्यायालय पीडि़ता की मांग पर उसे उसके बच्चों को अभिरक्षा में देने का अस्थायी आदेश दे सकता है। पीडि़ता की रिपार्ट से न्यायाधीश यह समझते हैं कि हिंसाकर्ता के बच्चे से मिलने/भंेट करने से खतरा उत्पन्न हो सकता है तो वह हिंसाकर्ता को कहीं भी बच्चों से नहीं मिलने का ओदश दे सकते हैं।


5-    आर्थिक राहत एवं क्षतिपूर्ति का आदेश - पीडिता और उसके बच्चों का भरण-पोषण, चिकित्सीय खर्च, कपड़े, हिंसा की वजह से हुए किसी सम्पत्ति का नुकसान या हटाए जाने के कारण हुए नुकसान का मुआवजा देने का ओदश देगा। अदालत मानसिक यातना और भावनात्मक पीड़ा जो रिस्पाडेंट द्वारा घरेलू हिंसा के कृत्याद्वार पहुंचायी गई है कि क्षतिपूर्ति और जीविका की क्षतिपूर्ति का भुगतान करने के लिए दोषी को आदेश दे सकेगी।

6-आश्रय गृह - सुरक्षा की दृष्टि से या अन्य कारणों से यदि पीडिता अपने परिवार के साथ रहना नहीं चाहती है, तो ऐसी स्थिति में राज्य शासन निःशुल्क आश्रय की सुविधा उपलब्ध करायेगा।

7-    चिकित्सा सुविधा - शासन द्वारा अधिकृत चिकित्सा सुविधा प्रदाता पीडि़ता की प्रार्थना/आवेदन पर चिकित्सा सहायता उपलब्ध करायेगा। घरेलू हिंसा की रिपोर्ट न दर्ज होने पर भी चिकित्सा सहायता या परीक्षण के लिए चिकित्सक मना नहीं करेगा और उसकी रिपोर्ट स्थानीय पुलिस थाना एवं संरक्षण अधिकारी (परियोजना अधिकारी, महिला एवं बाल विकास) को भेजेगा।

व्यस्क मताधिकार


                                                                 व्यस्क मताधिकार
                                                                    

                                              भारतीय संबिधान के अनुच्छेद 325 के अनुसार कोई भी व्यक्ति केवल धर्म मूलबंश जाति लिंग या इनमें से किसी भी आधार पर नामावली में सम्मलित होने से अपात्र नहीं समझा जावेगा । संविधान के अनुच्छेद 326 के अनुसार 18 वर्ष की अवस्था से कमनहीं है । निर्वाचक मतदाता के रूप में शामिल होने का हकदार है,। व्यस्क मताधिकार एक विधि द्वारा प्रदत्त कानूनी अधिकार  है। जो मूल अधिकार से अलग है इस पर विधि अनुसार मानसिंक चित्त विकृति , अपराध ,भ्रष्ट आचरण,या अबैध आचरण के आधार पर  रोक लगाई जा सकती है । इसी कारण जेल में सजा भुगत रहे केदी अथवा पुलिस अभिरक्षा में रह रहे व्यकित लोक प्रतिविधिक अधिनियम की धारा 62-5 के अंतर्गत रोक लगाई जा सकती है ।

                                            मान्नीय सर्वोच्य न्यायालय के द्वारा प्रत्याशी के पूर्व चरित्र जानने का अधिकार मतदाता को प्रदान किया गया है और प्रत्येक प्रत्याशी को अपना नामांकन भरते समय अपना रिकार्ड ,संपति ओर शैक्षणिक योग्यता के संबंध में जानकारी देने का पूर्ण अधिकार  बना दिया है ।

                                          मान्नीय सर्वोच्य न्यायालय के द्वारा मतदाता को सूचना का अधिकार संबिधान के अनुच्छेद 19 में प्रदत्त अभिव्यक्ति स्वतंत्रता के मूल अधिकार का एक अभिन्न अंग है । प्रत्याशी को नामांकन भरते समय निम्नलिखित पांच सूचनाऐं देना अनिवार्य किया गया है:-

    1-    क्या प्रत्याशी को पहले किसी आपराधिक मामले में दोषी
        ठहराया गया है ,दोषमुक्त किया गया है,अथवा बरी किया
        यदि ऐसा है तो क्या उसे जेल की सजा या जुर्माना किया
        गया है ।

    2-    नामांकन पत्र भरने से 6मास पहले क्या प्रत्याशी किसी ऐसे
        अपराध के मामले मेे आरोपी ठहराया गया है जिसमंे दो या
        दो से अधिक वर्ष के कारावास की सजा का प्रावधान है और
        जिसमें आरोप तय किये गये हो या न्यायालय द्वारा संज्ञान
        लिया गया हो यदि ऐसा है तो उसका विवरण ।

    3-    प्रत्याशी या उसके पति या पत्नि तथा आश्रितों की                       
  परिसंपतियाॅ चल,अचल,बैंक बेलेन्स आदि ।

    4-    प्रत्याशियों की दैनदारियाॅ और विशेषकर क्या किसी                       
  सार्वजनिक वित्तीय संस्थान अथवा सरकार की देनदारियाॅ
        बाकी हैं ।

    5-    प्रत्याशियों के शैक्षणिक योग्यता की जानकारी ।

                                                    लोगो का मानना है कि भारत में भीड़तंत्र है, यहां पर भीड़ के द्वारा भीड़ में से भीड़ जैसे लोग दंबगता के आधार पर चुने जाते हैं । अधिकांश मतदाता अशिक्षित हैं । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति के मतदान का उसकी शिक्षा के आधार पर मूल्यांकन होने पर ही बेदाग छबि वाले लोग चुने जा सकते हैं । दागदार छबि वाले लोग बाहूबल, धनबल, गनबल के आधार पर चुनकर आते हैं । जिसके कारण स्वच्छ और निर्मल छबि वाले लोग उनका सामना चुनाव में नहीं कर पाते इस कारण स्वच्छ छवि वाले लोग चुनकर नहीं आते हैं ।

                                                    भारतीय संबिधान में समानता का अधिकार दिया गया है ओर वर्ग विशेष के व्यक्तियों के मध्य समानता के आधार पर भेदभाव किया जा सकता है । भारतीय संबिधान  में शिक्षा के आधार पर विभेद बिहार राज्य विरूद्व बिहार राज्य प्रवकता संघ ए0आई0आर0 2007 एस0सी0 1948 जे0के0 मोहन विरूद्व भारत संघ एवं ए0आई0आर0 2008 एस0सी0-308 के अनुसार शिक्षा के आधार पर विभेद किया जाना युक्तियुक्त है वह संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लघंन नहीं करता है ।

                                                     ऐसी स्थिति मंे यदि भारतीय संबिधान में संशोधन द्वारा शिक्षा के आधार पर विभेद करते हुये बोट की गिनती की जाये तो भीड़तंत्र को लोकतंत्र में  बदला जा सकता हे । हमारे संबिधान में राष्टृपति के चुनाव के लिये अप्रत्यक्ष प्रक्रिया अपनाई जाती है जिसमें
वोट विधान सभा, संसद के निर्वाचित सदस्य और जन संख्या के आधार पर विभेद करते हुये राष्टृपति का चुनाव किया जाता है ।

                                                          भारतीय सबिधान में ऐसे कई उदाहरण है जहां शिक्षा और शिक्षा के आधार पर विभेद किया जाता है यदि बोट की गिनती भी शिक्षा के आधार पर की जावे तो बेदाग छबि वाले लोग सामने आयेगें और लोगो का शिक्षा के प्रति रूझान बड़ेगा । लोग अपने वोट के महत्व को समझते हुये अधिक से अधिक शिक्षा प्राप्ति का प्रयास करेंगे । लंेकिन इसके लिये एक लम्बी कानूनी बहस और कानूनी जंग की आवश्यक्ता है ।




विधि संबंधी लेख



                                      विधिक प्रतिपादनाएं

1 ----भ्रष्टाचार निवारण अधनियम
2----प्रतिरक्षा का अधिकार
3----धारा-24 हिन्दूु विवाह अधिनियम
4----अभियोजन चलाने की अनुमति
5----धारा-27 साक्ष्य अधिनियम
6===अचानक लडाई में धारा-34 और 149 आई0पी0सी0 का लागू न होना
7===सामान्य आशय    
8===धारा-306 और 107 भा0द0सं0
9---आपराधिक षडयंत्र
10---दान
11----पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881
12---सामान्य उददेश्य
13-----धारा-306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ-   
14---धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
15---ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना
16-----------बलात्कार एंव नापुन्सकता
17------------सहमति
18------------पराक्रम्य लिखत अधिनियम
19---------परिस्थितिजन्य साक्ष्य
20--------------सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा-3
21-----------धारा-149
22--------------सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक परिचय             
23-------------टी0पी0एक्ट
24--------कौटुम्बिक प्रबंध आपसी तथ्य -






















                                                   न्याय व्यवस्था


1-----------------भारतीय न्याय व्यवस्था-समस्या और समाधान
2-------------।ब्ब्म्ैै व्थ् प्छक्प्।छ श्रन्ैज्प्ब्म् ैल्ैज्म्ड ज्व् प्डच्।त्ज्डम्छज् व्थ् श्रन्ैज्प्ब्म्
3----------------न्याय तक पहुंच-कितने दूर कितने पास
4------------------भारत में अधिवक्ता व्यवसाय
5------------बबमेे जव जीम रनेजपबम  च्तवइसमउे पद प्दकपंद श्रनकपबपंस ैलेजमउ ंदक जीमतम ेवसनजपवद
6-------------भारतकासंविधानऔरपर्यावरणसंरक्षण   





                                                                                                 

                         विधि संबंधी लेख 



1------सामान्य आशय    
2-----सामान्य आशय, सामान्य उद्देश्य और खुली अथवा अचानक लडाई
3-----खुली अथवा अचानक लडाई
4---इलेक्ट्राॅनिक साक्ष्य
5------------सरकार द्वारा या उसके विरूद्व वाद
6-----------आचरण की साक्ष्य
7---------क्रूरता   
8-----------लोक न्यास
9=====जाली लाइसेंस एंव बीमा कम्पनी का क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायित्व
10मृ-------त्यु कालीन कथन









                               लेख
1-------व्यस्क मताधिकार
2-------------भारत का संविधान और समाजिक न्याय
3------------भारत में चुनाव सुधार और चुनाव आयोग के सामने चुनौतियां
















                             बाबा अम्बेडकर

1-------भारत के संविधान निर्माण में बाबा अम्बेडकर का योगदान   
2-----------डाॅ. भीमराव आम्बेडकर का जीवन और लक्ष्य
3-------बाबा आम्बेडकर और नारी उत्थान















                             विधि संबधी समस्याएं
1-------------------------मूल अधिकारों का संरक्षण ...... व्यादेश के द्वारा
2----------------आपराधिक मामले...... आयु निर्धारण
3-----------------बौद्धिक संपदा अधिकार
4------------------साक्ष्य अधिनियम ............निर्णयों की सुसंगता
5------------------संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन ............ आधिपत्य का अनुतोष एवं
6---------------आज्ञप्ति के निष्पादन में विक्रय के संबध में सामान्य प्रक्रिया
7-----------गर्भपात से संबंधित विधि................ महिला भ्रूण हत्या ’’
8---------------दण्ड विधि (संशोधन)अध्यादेशए 2013................ धारा 376-ई
9----------------गौ वंश
10----------------गनशाॅट इन्जुरी













                            बालक संबंधी विधि
1-----------------संविधान में बच्चों से संबंधित विशेष प्रावधान
2------------------निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम
3-------------------बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006
4------------------बाल मजदूरी
5------------बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005
6------------------किशोर न्याय ( बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण) अधिनियम 2000 एंव मध्य प्रदेश किशोर न्याय (बालको की देखरेख और संरक्षण) नियम, 2003 में बालको के कल्याण संबंधी दिये गये विशेष प्रावधान-
7------------------लापता बच्चों के संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश
8---------किशोर न्याय
9-------किशोर न्याय (बालकों की देख-रेख तथा संरक्षण)  अधिनियम 2000 एंव उसके नियमों के अधीन आयु निर्धारण














                              महिलाओं संबंधी विधि 

1----------संविधान में स्त्रीयों से संबंधित विशेष प्रावधान
2----------देश मंे महिलाओं की स्थिति
3----------महिलाओं की जन भागीधारी में संबिधान की भूमिका
4----------दुष्कर्म क्रूरता की जांच के संबंध मे दिशा निर्देश
5------------लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012
6--------महिला एंव बच्चो से संबधित कानून के क्र्रियान्वयन में आने वाली कठिनाई






                  महिलाओ एव बच्चो संबंधी महत्वपूर्ण विधि

1----------सूचना क्रांति   
2-----------घरेलू हिंसा
3---------ग्राम न्यायालय
4---------मोटर यान अधिनियम 1988
5-------विवाह का रजिस्ट्र्ेशन
6-------मानव अधिकार एंव आयोग

















   म.प्र. में महिला एंव बच्चो संबंधी कल्याणकारी योजनाएं
1
मध्य प्रदेश सरकार की बालकों एवं महिला कल्याण संबंधी योजनाएं

लोक अदालत संबंधी विधि
1
लोक अदालत के कार्य
2
न्यायिककैतर वैकल्पिक उपचार
3
मध्यस्थता
4
मध्यस्थ निर्देशन आदेश





                            ललित निबंध एंव व्यंगय
1
श्री जगजीत सिंह
2
हरि का दुखः हरि जाने
3
कबीर एक क्रांतिकारी कवि
4
मां
5
रोड इंस्पेक्टर
6
बिचैलिये
7
वेलेंटाइन-डे कानून
8
अफसर के रिटायरमेंट का दर्द
9
प्रेम एक, रोग अनेक
10
हडताल बिना जिंदगी अधूरी
11
कौन कहता है-भूत नहीं होता
12
इंडियन टाइम
13
अश्लीलता
14
चापलूसी
15
आ बैल मुझे मार
16
अस्पताल या पांच सितारा होटल
17
फिल्मों में भगवान उर्फ डाक्टर
18
विज्ञापन में नारी या नारी मंे विज्ञापन
19
राम तेरी गंगा मैली
(आत्मकथा)
20
पुरातनी और आधुनिकतम नारी
21
अंगे्रजी और आधुनिकता का भूत
22
गरीब-गरीब-गरीब कहां है
23
अंधविश्वास बनाम अन्धे विश्वास
24
युवाओं की अगाड़ी-सिनेमा ने पिछाड़ी
25
हीरो बने जीरो, हिरोईन बनी विषकन्या
26
बच्चे न होने का रोना
27
भगवान का व्यवसायीकरण
28
जिला बदल के हादसे
29
त्यौहारों का राजा होली
30
पेट दर्द
31
एक्जामिनेशन -फोबिया
32
शार्टकट
33
गुन्डा-टैक्स
34
ज्ञान का कूडादान
35
 आधुनिकता का पवित्रीकरण
36
 आंख के अंधे नाम नयन सुख
37
अंडरवल्र्ड के अंदर क्या है ?
38
छपास की बीमारी
39
मिस्त्री नियरै राखिए
40
हर मर्ज का इलाज......शिक्षा नहीं शिक्षक
41
लोग क्या कहेंगे ?
42
जानवर और नेता
43
क्रांति
44
स्वर्ग का द्वार
45
चूहे और नेता
46
हैप्पी भारत

क्र0
विधिक प्रतिपादनाएं
1
भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर विधिक प्रतिपादनाएं
2
प्रतिरक्षा का अधिकार
3
धारा.24 हिन्दूु विवाह अधिनियम
4
अभियोजन चलाने की अनुमति
5
धारा.27 साक्ष्य अधिनियम
6
अचानक लडाई में धारा.34 और 149 आई0पी0सी0 का लागू न होना
7
सामान्य आशय    
8
धारा.306 और 107 भा0द0सं0
9
आपराधिक षडयंत्र
10
दान
11
पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881
12
सामान्य उददेश्य
13
धारा.306 भा0द0सं0 के अंतर्गत माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित विधिक प्रतिपादनाऐ.   
14
धारा.311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
15
ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना
16
बलात्कार एंव नापुन्सकता
17
सहमति
18
पराक्रम्य लिखत अधिनियम
19
परिस्थितिजन्य साक्ष्य
20
सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा.3
21
धारा.149
22
सूचना का अधिकार अधिनियम.2005.एक परिचय             
23
टी0पी0एक्ट
24
कौटुम्बिक प्रबंध आपसी तथ्य .



                              न्याय व्यवस्था
1
भारतीय न्याय व्यवस्था.समस्या और समाधान
2
 ।ब्ब्म्ैै व्थ् प्छक्प्।छ श्रन्ैज्प्ब्म् ैल्ैज्म्ड ज्व् प्डच्।त्ज्डम्छज् व्थ् श्रन्ैज्प्ब्म्
3
न्याय तक पहुंच.कितने दूर कितने पास
4
भारत में अधिवक्ता व्यवसाय
5
।बबमेे जव जीम रनेजपबम  च्तवइसमउे पद प्दकपंद श्रनकपबपंस ैलेजमउ ंदक जीमतम ेवसनजपवद
6
भारत का संविधान और पर्यावरण संरक्षण                                                                                                    

                                      विधि संबंधी लेख
1
सामान्य आशय    
2
सामान्य आशयए सामान्य उद्देश्य और खुली अथवा अचानक लडाई
3
खुली अथवा अचानक लडाई
4
इलेक्ट्राॅनिक साक्ष्य
5
सरकार द्वारा या उसके विरूद्व वाद
6
आचरण की साक्ष्य
7
क्रूरता   
8
लोक न्यास
9
जाली लाइसेंस एंव बीमा कम्पनी का क्षति पूर्ति हेतु उत्तरदायित्व
10
मृत्यु कालीन कथन

                               लेख
1
व्यस्क मताधिकार
2
भारत का संविधान और समाजिक न्याय
3
भारत में चुनाव सुधार और चुनाव आयोग के सामने चुनौतियां

                             बाबा अम्बेडकर

1
भारत के संविधान निर्माण में बाबा अम्बेडकर का योगदान   
2
डाॅण् भीमराव आम्बेडकर का जीवन और लक्ष्य
3
बाबा आम्बेडकर और नारी उत्थान

                             विधि संबधी समस्याएं
1
 मूल अधिकारों का संरक्षण ण्ण्ण्ण्ण्ण् व्यादेश के द्वारा
2
आपराधिक मामलेण्ण्ण्ण्ण्ण् आयु निर्धारण
3
बौद्धिक संपदा अधिकार
4
 साक्ष्य अधिनियम ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्निर्णयों की सुसंगता
5
 संविदा के विनिर्दिष्ट अनुपालन ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् आधिपत्य का अनुतोष एवं
6
आज्ञप्ति के निष्पादन में विक्रय के संबध में सामान्य प्रक्रिया
7
ष्ष्गर्भपात से संबंधित विधिण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् महिला भ्रूण हत्या ष्ष्
8
दण्ड विधि ;संशोधनद्धअध्यादेशए 2013ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण् धारा 376.ई
9
गौ वंश
10
गनशाॅट इन्जुरी

                            बालक संबंधी विधि
1
संविधान में बच्चों से संबंधित विशेष प्रावधान
2
निशुल्क और अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम
3
बाल विवाह निषेध अधिनियम 2006
4
बाल मजदूरी
5
बालक अधिकार संरक्षण आयोग अधिनियम 2005
6
किशोर न्याय ; बालकों की देख.रेख तथा संरक्षणद्ध अधिनियम 2000 एंव मध्य प्रदेश किशोर न्याय ;बालको की देखरेख और संरक्षणद्ध नियमए 2003 में बालको के कल्याण संबंधी दिये गये विशेष प्रावधान.
7
लापता बच्चों के संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के दिशा निर्देश
8
किशोर न्याय
9
किशोर न्याय ;बालकों की देख.रेख तथा संरक्षणद्ध  अधिनियम 2000 एंव उसके नियमों के अधीन आयु निर्धारण

                              महिलाओं संबंधी विधि
1
संविधान में स्त्रीयों से संबंधित विशेष प्रावधान
2
 देश मंे महिलाओं की स्थिति
3
महिलाओं की जन भागीधारी में संबिधान की भूमिका
4
दुष्कर्म क्रूरता की जांच के संबंध मे दिशा निर्देश
5
लैगिक अपराधो से बालको का संरक्षण अधिनियम 2012
6
महिला एंव बच्चो से संबधित कानून के क्र्रियान्वयन में आने वाली कठिनाई

                  महिलाओ एव बच्चो संबंधी महत्वपूर्ण विधि
1---------------सूचना क्रांति   
2-------------घरेलू हिंसा
3----------------ग्राम न्यायालय
4-----------------मोटर यान अधिनियम 1988
5---------------------विवाह का रजिस्ट्र्ेशन
6--------------------मानव अधिकार एंव आयोगमण्प्रण् में महिला एंव बच्चो संबंधी कल्याणकारी योजनाएं

1---------------------मध्य प्रदेश सरकार की बालकों एवं महिला कल्याण संबंधी योजनाएंलोक अदालत संबंधी विधि

1-------------------लोक अदालत के कार्य
2-----------------न्यायिककैतर वैकल्पिक उपचार
3---------------मध्यस्थता
4-----------मध्यस्थ निर्देशन आदेश



                            ललित निबंध एंव व्यंगय

1----------------------री जगजीत सिंह
2-------------------हरि का दुखः हरि जाने
3-------------------कबीर एक क्रांतिकारी कवि
4-------------------मां
5------------------रोड इंस्पेक्टर
6-------------बिचैलिये
7--------------------वेलेंटाइन.डे कानून
8--------------------अफसर के रिटायरमेंट का दर्द
9----------------------प्रेम एकए रोग अनेक
10-----------------हडताल बिना जिंदगी अधूरी
11------------------------कौन कहता है.भूत नहीं होता
12-------------------इंडियन टाइम
13------------------अश्लीलता
14------------------चापलूसी
15-----------------आ बैल मुझे मार
16------------------अस्पताल या पांच सितारा होटल
17--------------फिल्मों में भगवान उर्फ डाक्टर
18------------------विज्ञापन में नारी या नारी मंे विज्ञापन
19------------------राम तेरी गंगा मैली;आत्मकथाद्ध
20----------------पुरातनी और आधुनिकतम नारी
21------------------अंगे्रजी और आधुनिकता का भूत
22---------------------गरीब.गरीब.गरीब कहां है
23----------------अंधविश्वास बनाम अन्धे विश्वास
24--------------------युवाओं की अगाड़ी.सिनेमा ने पिछाड़ी
25-----------------हीरो बने जीरोए हिरोईन बनी विषकन्या
26-------------------बच्चे न होने का रोना
27----------------भगवान का व्यवसायीकरण
28------------------जिला बदल के हादसे
29------------त्यौहारों का राजा होली
30---------------पेट दर्द
31-----------एक्जामिनेशन .फोबिया
32-----------शार्टकट
33-----------------गुन्डा.टैक्स
34---------------ज्ञान का कूडादान
35---------आधुनिकता का पवित्रीकरण
36-------------आंख के अंधे नाम नयन सुख
37--------------अंडरवल्र्ड के अंदर क्या है घ्
38----------छपास की बीमारी
39---------------मिस्त्री नियरै राखिए
40--------------र मर्ज का इलाजण्ण्ण्ण्ण्ण्शिक्षा नहीं शिक्षक
41----------------लोग क्या कहेंगे घ्
42---------------जानवर और नेता
43-------------------क्रांति

44---------------स्वर्ग का द्वार
45-------------चूहे और नेता
46--------------हैप्पी भारत

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta