न्याय तक पहुंच में- भारतीय न्याय व्यवस्था उमेश कुमार गुप्ता

न्याय तक पहुंच में- भारतीय न्याय व्यवस्था 
                                                              उमेश कुमार गुप्ता
        भारतीय न्याय प्रणाली जो प्राचीन काल में न्याय के सामान्य सिद्धांत पर आधारित थी। भारत में प्रत्येक गांव गणतंत्र में बटा हुआ था । गण का प्रधान गणाध्यक्ष कहलाता था। जिसका कार्य गण की रक्षा करना और लोगो से इस कार्य हेतु लगान राजस्व वसूलना तथा उन्हें न्याय प्रदान करना था। यहीं गण बाद में समूह के रूप में संगठित होकर राजा-महाराजा, जमीदार, कहलाये । इनका कार्य भी लोगो से राजस्व वसूलना उनकी चोर, डकैत, लूटेरो से रक्षा करना तथा उन्हें न्याय प्रदान करना था। भारतीय धर्मशास्त्र के अनुसार राजा का न्याय करना धार्मिक तथा नैतिक कर्तव्य था। उसके न्याय प्रदान करने के कार्य में पण्डित और मौलवी उसका साथ देते थे । वे प्रचलित व्यक्तिगत विधि से राजा को अवगत कराते थे । 
        यह न्याय व्यवस्था भारत में विदेशी आक्रमण तक लागू रही । उसके बाद विदेशीयों का राज्य होने पर प्रतिशोधात्मक न्यायव्यवस्था प्रारंभ हुई । जिसमें मुगलकालीन अपराधिक दण्ड व्यवस्था एक लम्बे समय तक भारत में प्रचलनशील रही है । मुगल कालीन न्यायव्यवस्था पूरी तरह से रेगिस्तान की तपती धूप में निर्मित होने के कारण  कठोरात्मक थी । जिसमें किसा(जैसे को तैसा), दिया(क्षतिपूर्ति) हद, (निश्चित दण्ड), ताजिर (स्वविवेकानुसार), जैसे दण्ड दिये जाते थे।
        उस समय सिविल विधि के मामले में हिन्दुओ पर शास्त्र पर आधारित हिन्दू विधि और मुस्लिम पर कुरान पर आधारित शरियत मुस्लिम व्यक्तिगत कानून लागू होता था। लेकिन दाण्डिक मामलो में कोई भेद भाव नहीं था। काजी की अदालते थी । काजी द्वारा ही न्याय प्रदान किया जाता था। राजा-महाराजा भी अपने घर के बाहर न्याय का घण्टा टांगकर न्याय की पूर्ति किया करते थे।
         इसके बाद सन् 1600 में अंग्रेजों के आने के बाद लगभग 1858 तक मुस्लिम अपराध कानून देश में लागू था। लेकिन उसमें समय-समय पर अंग्रेजों द्वारा कुछ परिवर्तन किए थे। लेकिन  समय के साथ वह अपनी व्यवहारिकता खोता जा रहा था। उसमें कई कमियां थीं। काजी मनमाजी करते थे। वह स्त्रियों के प्रति

 अमानवीय था। अतः पहली क्रांति असफल हो जाने के बाद जब 1858 में  भारत का सम्पूर्ण शासन इंगलेड के सम्राट के हाथ में गया, तब भारतीय न्याय व्यवस्था में एक नये युग की शुरूआत हुई । अंग्रेजो द्वारा ही उस समय  वर्तमान न्यायव्यवस्था नीव रखी गई । इस काल में अंग्रेजो के द्वारा विभिन्न अधिनियम बनाये गये । जिनमें से कुछ अधिनियम आज तक प्रचलन में है । जिनमें समयानुसार कोई परिवर्तन नहीं हुए हैं । पहली बार अंग्रेजो के द्वारा विधि का संहिता करण कर उसे साक्ष्य पर आधारित लंबी प्रक्रियात्मक  विधि बनाया गया है।
        अंग्रेजो द्वारा भारत में सभी भारतियों के लिए अपराधिक मामलो में एक समान आपराधिक कानून भारतीय दण्ड संहिता 1860 बनाकर सब पर लागू किया गया । जो आज तक प्रचलनशील है । लेकिन सिविल मामलो में वहीं पुरानी व्यक्तिगत विधि की न्यायिक व्यवस्था में लागू रही । सन् 1908 मेे सिविल प्रक्रिया संहिता की रचना की थी। अंग्रेजी न्याय व्यवस्था में मुन्सिफ मजिस्ट्रेट न्याय प्रदान करते थे । उनके आदेश और निर्णय के विरूद्ध अपील का प्रावधान था ।
        अंग्रेजी न्याय व्यवस्था का मूल उद्देश्य राजस्व वसूली करना अपने व्यक्तियों, व्यापार और राज्य की रक्षा करना जमीदारी कर वसूलना था। इसलिए उन्होंने भारतीयों के व्यक्तिगत कानून पर कोई ध्यान नहीं दिया और भारतीय परिवेश में न्याय व्यवस्था की स्थापना नहीं की गई। अंग्रेजांे ने प्रशासन की बागडोर उनके हाथ में रहे इसलिये न्याय व्यवस्था में पुलिस को अधिक शक्तिशाली बनाया, ताकि पुलिस का दमन चक्र चलाकर अपना राज्य स्थापित कर सकें।
        आज आजाद हुए हमें 60 साल से ज्यादा हो गये है। हमने संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय की गारंटी दी है । उसे विचार मत अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता दी  है। उसे अवसर की समानता, बंधुता की गारंटी दी है । लेकिन आज हम अपने नागरिकों को न्याय प्रदान नहीं कर पा रहे हैं। वे सामाजिक आर्थिक, राजनैतिक न्याय के लिए नेताओं,सरकारी संस्थाओं, के सामने भटक रहे हैं । विचार, मत, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के लिए सूचना के अधिकार प्राप्त हो जाने के बाद भी संघर्ष जारी है । समाज में हर स्तर पर असामानता भेदभाव, उंच-नीच की दीवार कायम है । गरीबी और अमीरी के बीच एक लम्बी खाई है। आसमानता, अलगाववाद, आतंकवाद, से देश पीडित है ।
        आज भारत के न्यायालय मुकदमों के बोझ से दब गये हैं। समय पर न्याय मिलना टेढ़ी खीर है। न्याय में विलंब होने के कारण लोगों का कानून से डर समाप्त हो गया। दादा मुकदमा दायर करता है । नाती उसका फल प्राप्त करता है। न्याय महंगा होने के कारण गरीबांे के लिए दुर्भर हो गया है। इस कारण लोगों का न्याय पर से विश्वास डगमगाना प्रारंभ हो गया है। आज लोग धन की वसूली, मकान खाली कराना, संविदा का पालन कराना, जैसे न्यायिक  कार्य, असामाजिक ढंग से कराने के बाध्य हो गये हैं। इसलिए बहुत आवश्यक है कि जनसंख्या के अनुपात के आधार पर न्यायालय की स्थापना की जाये, नहीं तो न्याय आम जनता के लिए प्राप्त करना एंवरेस्ट की चोटी पर फतह करने के समान हो जायेगा।

        देश के न्यायालयों में आज भी करोड़ों रुपये खर्च किये जाने के बाद बुनियादी सुविधाओ, भवन, बिजली, कम्प्यूटर, प्रशिक्षित कर्मचारी, एकांउटेंट, लाइब्रेरियन आदि का अभाव है।ं इसलिए आवश्यक है कि प्रशिक्षित कर्मचारियों की भर्ती कर उन्हें न्यायिक प्रक्रिया से अवगत कराया जाये। देश के न्यायालय ई कोर्ट क्रांति के कारण करोडो रूपये खर्च किये जाने के बाद कम्प्यूटर, लेपटॅाप, इंटरनेट, वीडियो कानफ्रेसिंग जैसी सुविधाआंे से लैस होकर हाइटेक न्यायालय बन गये है । लेकिन इसके बाद भी बिजली आपूर्ति के अभाव में वे अपंगता महसूस करते हैं ।

        आज इतनी सुविधाओ के बाद भी कोई व्यक्ति घर में बैठकर इंटरनेट पर अपने केस की स्थिति ज्ञात नहीं कर सकता है। उसे अपने केस की नकल निकलवाने निर्णय की प्रतिलिपि प्राप्त करने, आज भी अन्य पर निर्भय होना पडता है । अतः आवश्यक है कि न्यायालय में मूलभूत बुनियादी सुविधायें, प्रशिक्षित कर्मचारी बिजली व्यवस्था, बिल्डिंग, फंड, आदि उपलब्ध कराया जावे।



        आज भारत कम्प्यूटर युग, साइबर क्राइम आतंकवाद, मॉलकल्चर के दौर से गुजर रहा है । लेकिन आज भी हम सैकडो साल पुरानी अंग्रेजों द्वारा निर्मित सिविल और दांडिक न्याय प्रणाली को अपनाये हुए है। हम जानते है कि अंग्रेजो द्वारा निर्मित न्यायव्यवस्था में भारतीय परिवेश के अनुसार कानून शामिल नहीं है। इसके बाद भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं करना चाहते हैं । यही कारण है कि आज हमें रोज नये-नये कानून,अधिनियम, अध्यादेश बनाने पड़ रहे हैं।

        न्याय में विलम्ब, न्याय की हानि और न्याय में जल्दी न्याय की हार मानी गई है । लेकिन उसके बाद भी ऐसे नियम कानून अध्यादेश, बन रहे है जिनमें दी गई प्रक्रिया के अनुसार निर्धारित समयावधि में कार्यवाही किया जाना संभव नहीं है । अतः इस संबंध मेंविचार किया जाना चाहिए कि ऐसे प्रावधान न बनाये जाने जिनका पालन प्रयोगिक रूप से देश में अदालतों की कमी एवं काम की अधिकता के कारण सम्भव नहीं है । 


        न्याय प्रणाली में सुधार के लिए आवश्यक है कि भारत में व्याप्त समाजिक आर्थिक, पारिवारकि, राजनैतिक परिवेश को देखते हुए आतंकवाद, साइबर क्राइम, चेक बाउंस, मैच फिक्सिंग, देशद्रोह, आर्थिकअपराध,राजनैतिक घोटाले को देखते हुये अलग-अलग कानून बनाये जाये।  भारतीय न्याय व्यवस्था में सुधार के लिये यह भी आवश्यक है कि सन् 1860 की भारतीय दंड संहिता की जगह शरीर, संपत्ति, राज्य, लोक सेवक, निर्वाचन, लोक स्वास्थ्य, धर्म, विवाह, सेवा-संविदा, स्त्री-बच्चे, बृद्ध पुरुष, महिला, यातायात, खाद्य सामग्री, वितरण प्रणाली, पर्यावरण आदि के संबंध में अगल-अलग विधान बनाये जाये ।


        आज एक ही विषय पर कई अलग-अलग अपराधिक कानून प्रचलित है ।  अतः आवश्यक है कि इन सभी प्रचलित कानूनो को जो किं एक ही विषय से संबंधित है । उन्हें एक ही विधान में सम्मिलित किया जाये। प्रत्येक अपराध के लिए विशेष न्यायालय, न्यायाधीश की नियुक्ति की जाये। केस निर्धारण के लिए समय सीमा नियत की जाये। प्रत्येक न्यायालय के लिये सुनवाई योग्य प्रकरणों की संख्या सीमित की जाये।समय के अनुसार सजा अर्थदण्ड, क्षतिपूर्ति, प्रतिकर की राशि मंे वृद्धि की जावे । 

        आज दस रूपये में कोई शराब प्राप्त नही ंहोती है । लेकिन शराब पीकर दंगा किये जाने पर धारा 510 भारतीय दण्ड संहिता मंे 10 रूपये अर्थ दण्ड का प्रावधान है । जो समय के अनुसार उचित नही है । लापरवाही, उपेक्षापूर्वक वाहन चलाने पर बहुत कम अर्थ दण्ड का प्रावधान है । यदि अर्थ दण्ड का प्रावधान बढा दिया जाये ।  क्षतिपूर्ति निश्चित कर दी जाये तो मोटर यान अधिनियम के अंतर्गत प्रतिकर के दावो की संख्या पर रोक लगाई जा सकती है ।

        मोटरयान अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत होने वाले प्रतिकर के मामलों में बीमा कम्पनी बीमा होने के बाद भी बीमा की शर्तो के भंग न होने  पर भी अपने जवाब में वह प्रचलित मापदण्ड के अनुसार कितनी प्रतिकर देने तैयार है । इस बात का उल्लेख नहीं करती है । जब कि बीमा कम्पनी को अपने जवाब के साथ प्रतिकर का चेक संलग्न कर जवाब देना चाहिए । इससे प्रतिकर के मामले शीघ्रता से निपट सकते हैं ।

        यदि पराक्रम लिखत अधिनियम के अंतर्गत चेक प्रदान करने वाला व्यक्ति चेक काटने की तुरन्त सूचना बैंक को दे दे तो बैंक में चेक काटने की प्रविष्टि हो जाने के बाद ब्लेंक चेक, सुरक्षा के लिए दिये गये जाली चेक, बेक डेटेड चेक के संबंध में जो मुकदमों की बाढ आई है । वह रोकी जा सकती है । सन् 1881 के इस कानून में इस प्रकार के संशोधन किये जाने की आवश्यकता है । 

        भारत में राजद्रोह संबंधी कई विधिया जैसे राजद्रोहात्मक सभाओ का निवारण अधिनियम 1911 आदि प्रचलित है । जो अंग्रेजी शासन काल की रक्षा के लिए बनायी गई है । जिनकी कोई आवश्यकता नहीं है । उन्हें समाप्त किया जाना चाहिए । राजद्रोह की परिभाषा में आतंकवाद, जासूसी, देश के विरूद्ध की जाने वाली आपराधिक गतिविधिया, देश की एकता, अखण्डता, को खण्डित करने वाले कार्य भारतीय तिरंगे के अंतर्गत खेलते हुए की जा रही मैच फिक्सिंग को भी शामिल करना चाहिए।

        भारत मंे गुलामी को प्रदर्शित करते कई ऐसे कानून प्रचलित है जिनकी आज कोई आवश्यकता नहीं है । भारत में जाति, निर्याेग्यता अधिनियम 1850 । नाट्य प्रदर्शन अधिनियम 1876। सराय अधिनियम 1867। शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923। जैसे कई अधिनियम चलन में है । उन्हें समाप्त किये जाने की आवश्यकता है । 

        आजादी के कई साल बीत जाने के बाद भी कई कानूनो में पुरानी दण्ड व्यवस्था को कायम रखा गया है जैसे विस्फोटक पदार्थ अधिनियम 1908 में आज भी धारा-4ख, में निर्वासन के दण्ड का उल्लेख है । विस्फोटक अधिनियम 1884 में समय के अनुसार परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता है । भोपाल गैस त्रासदी में हजारो लोगों की अकाल मृत्यु हो जाने पर भी हम उचित दण्ड दोषियों को नहीं दे सके ।यह समय के अनुसार न्याय व्यवस्था न बदलने का परिणाम है । 
        भारतीय दंड व्यवस्था जो पूरी तरह से पुलिस दंड व्यवस्था  अथवा पुलिस प्रताडना संहिता है। उसमें व्यापक परिवर्तन किये जाने की आवश्यकता है । एफ.आई.आर., विचारण, जांच, तलाशी, गिरफ्तारी, कथन, जमानत में जो तांडव देखने को मिलता है। उससे आज हम सब परिचित है। हम ऐसी न्याय व्यवस्था में जी रहे हैं। जिसमें देश की शीर्ष अन्वेषण एजेंसी राजनैतिक प्रभाव में मुकदमें गढ़ रही है। इसलिए हमंे ऐसी स्वतंत्र जांच एजेसी की आवश्यकता है। जिस पर न्याय पालिका के अलावा किसी का नियंत्रण न हो।

     आज जो न्याय प्रणाली है । उससे न तो आरोपी खुश है न तो प्रार्थी खुश है । वादी नाराज है तो प्रतिवादी तंग है। ऐसी सिविल-दाण्डिक न्याय प्रणाली को पूरी तरह बदलने की आवश्यकता है। हमारी न्याय प्रणाली में आज एक बार जिस व्यक्ति के विरुद्ध झूठी-सच्ची, चढ़ा-बढ़ा कर एफ.आई.आर. दर्ज हो जाये या जिसकी संपत्ति के विरुद्ध कोई वाद झूठा प्रस्तुत हो जाए तो उसके बाद उसकी कोई सूनने वाला कोई कानून नहीं है । उसे एक लंबी महंगी न्यायिक प्रक्रिया से गुजरने के बाद ही न्याय प्राप्त हो सकता है। 

         आकड़े बताते है कि 90 प्रतिशत दहेज प्रताड़ता की रिपोर्ट में दूर के रिश्तेदारों को झूठा फंसाया जाता है। जमीन बिक्री के बाद प्रतिफल प्राप्त हो जाने के बाद में मूल्य वृद्धि हो जाने पर विक्रय पत्र को अवैध और शून्य घोषित जानबूझकर कराया जाता है। इसके लिए आवश्यक है कि न्यायालय में प्रकरण प्रस्तुति के पूर्व उसकी सत्यता की जानकारी एक समीति के द्वारा संक्षिप्त जांच कर की जाये और उस समीति के द्वारा ही मुकदमें के परिणाम से संभावित कानून को ध्यान में रखते हुए पक्षकारों को अवगत कराया जाये।उसके बाद ही यदि मुकदमे में दम हो तो उसे न्यायालय में प्रस्तुत कराया जाये ।
       

       
        हमारी न्याय व्यवस्था में प्रमाणित, साबित स्वयं सिद्ध, अकाटय् तथ्यों को भी न्यायालय में बार-बार आकर साबित करना पड़ता है। जिसके कारण सालों मुकदमें लंबित रहते हैं। सच्ची बातें झूठी साबित हो जाती है। इसके लिए आवश्यक है कि अन्वेषण के प्रत्येक प्रक्रम पर वैज्ञानिक तरीके से जांच की जाये, आरोपी और प्रार्थी दोनों को सुनवाई का पर्याप्त अवसर देते हुए यदि घटनास्थल, चिकित्सीय परीक्षण रिपोर्ट, एफ.एस.एल. रिपोर्ट, हथियार की जप्ती, साक्षिणें के कथन अंकित आदि किये जाने की कार्यवाही की जाये तो इन सब बातों को बार-बार न्यायालय में आकर प्रमाणित करने की आवश्यकता नहीं है । 

        26.11. के हमले की घटना को देश के लाखो-करोडो लोगो ने अपनी आंख से देखा है । उसमें मरने वाले लोगो को देखा है । उस घटना में हुए नुकसान को देखा है । घटना करने वाले व्यक्तियों को देखा है । इसके बाद भी सालो करोडो रूपये खर्च करके उस घटना में घटित अपराध का विचारण किया गया और आरोपी को दण्डित किया गया है । ऐसे मामलो में यदि किसी आपराधिक घटना में यह पाया जाता है कि घटना की जीवन्त रिकार्डिंग बिना किसी छेड छाड के की गई है जिसकी सार्वजनिक रूप से पुष्टि हो रही है, तो ऐसे मिडिया रिकार्डिंग को सर्व प्रथम महत्व देते हुए इस प्रकार के प्रकरणो को उसी रिकार्डिंग के आधार पर तत्काल निपटाना चाहिए । उसमें ज्यादा श्रम, समय, बरबाद किये जाने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए । इसलिए वैज्ञानिक ढंग से की गई घटना की रिकार्डिंग को न्याय व्यस्था में निश्चित प्रमाण माने जाने संबंधी संशोधन साक्ष्य अधिनियम में किया जाना चाहिए । 

         हमारी न्याय व्यवस्था में न्याय महंगा है। इसलिए दुर्लभ है। जबकि न्यायालय को पीड़ित तक खुद पहंुचना चाहिये । संपूर्ण न्याय व्यवस्था निःशुल्क और निष्पक्ष होना चाहिये । गरीबों के लिए उच्च और उच्च्तम न्यायालय जाना चार धाम की यात्रा की तरह नहीं होना चाहिए । गरीबी के कारण आज कई पक्षकार पूरी जिंदगी इन न्यायालयों से सहायाता प्राप्त नहीं कर पाते हैं। उनकी देहरी तक छू नहीं पाते हैं। 


        इनके लिए निःशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध कराने विधिक सेवा प्राधिकरण की जिला  तालुका स्तर पर रचना की गई है । लेकिन इनकें कार्यलय, प्रचार प्रसार सामग्री केवल जिलो तक सीमित होने के कारण वास्तविक जरूरतमंद व्यक्ति को निःशुल्क विधिक सहायता प्राप्त नहीं हो पा रही है । निःशुल्क विधिक सहायता हम आरोपी अथवा प्रार्थी को अथवा न्यायालय में उपस्थित पक्षकार को देते है । लेकिन जो व्यक्ति न्यायालय आना चाहता है । जो गरीबी के कारण न्यायालय नहीं आ पा रहा है । उनकी तरफ ये संस्थाये देखती तक नहीं है । जबकि वास्तव में वही निशुल्क विधिक सहायता पाने का पहला हकदार व्यक्ति है ।

        हमारे देश में नामी-गिरामी, प्रशिक्षित, प्रवीण, वकीलांे की फीस फिल्म के हीरों और क्रिकेट खिलाड़ियों के पारिश्रमिक की तरह है । इसलिये प्रत्येक व्यक्ति को उसकी पसंद का अधिवक्ता संविधान के अनुसार प्राप्त नहीं हो पाता है। इसलिये आवश्यक है कि न्याय व्यवस्था को सस्ता, सुलभ, शीघ,्र पारदर्शित,  बनाने जाने के लिये उसे निःशुल्क कर दिया जाये । 

        उसके लिए आवश्यक है कि सरकार न्यायालय में प्रस्तुत होने वाले प्रत्येक सिविल और दांडिक मुकदमें में उपस्थित होने वाले अधिवक्ता को नियत फीस दे और खुद मुकदमें का खर्च सरकार को व्ययन करना चाहिये। हमारी न्याय व्यवस्था में सिविल और दांडिक केस निपटने के बाद प्रतिकर की बात कही जाती है। जबकि आवश्यक है कि जमानत के साथ ही आरोपी से प्रतिकर राशि वसूल की जाये ताकि वह तत्काल प्रार्थी के इलाज, राहत में काम आ सके। इसी प्रकार सिविल मामलों में मुकदमा दायर होते ही निर्णय का पालन किया जाएगा इस बात की जामानत ली जानी चाहिये और क्षतिपूर्ति भरवाना चाहिए ताकि निष्पादन की लंबी प्रक्रिया से बचा जा सके।

        हमारी न्याय प्रणाली में निष्पादन से वास्तविक न्यायिक लड़ाई प्रारंभ होती है । जबकि वास्तव में जब एक बार किसी आदेश, निर्णय की वरिष्ठ न्यायालय द्वारा पुष्टि हो जाती है तो उसके बाद निष्पादन की प्रक्रिया अन्य कोई कानूनी उपचार उपलब्ध न होने के कारण नहीं चाहिये। वरिष्ठ न्यायालय द्वारा ही उसका निष्पादन संपन्न करा देना चाहिये। 

        हमारी न्याय प्रणाली में सरकार जनता की तरफ से आपराधिक प्रकरण लड़ती है । सरकार की तरफ से एक दिन में 100-100 मुकदमें मे एक सरकारी वकील पैरवी करता है। उसकी  योग्यता क्षमता, से हम सब परिचित है । इस प्रकार सरकार पक्षकारों पर सरकारी वकील थोपकर पीड़ित को न्याय प्रदान नहीं कर पाती है । अधिकांश मुकदमें सही ढंग से लड़े न जाने के कारण छूट जाते हैं । जिसका जनता में रोष देखा जा सकता है। 

        इसके लिए आवश्यक है कि पीड़ित को अपनी तरफ से अधिवक्ता नियुक्ति की छूट देकर उसके माध्यम से संपूर्ण अभियोजन कार्यवाही पूर्ण करानी चाहिये और उसके अधिवक्ता का शुल्क सरकार के द्वारा अदा करना चाहिये। इस संबध में दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 24 और 301 में  यह संशोधन किया जाना चाहिए ।
        इसके अलावा हमारे यहां परिवाद पंजीबद्ध हो जाने के बाद एफ0आई0आर0 दर्ज हो जाने के तत्काल बाद आरोपी को उस संबध में सुने जाने और अपना बचाव तत्काल प्रस्तुत किये जाने की अनुमति दी जानी चाहिए । प्रार्थी को दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा-207 के अंतर्गत चालान की नकल दी जाना चाहिए । इसी प्रकार परिवाद पंजीबद्ध हो जाने के बाद केवल परिवाद की प्रतिलिपि देने का प्रावधान है । जबकि परिवाद पत्र के अलावा धारा-200,202 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत अंकित कथन एंव परिवाद के साथ प्रस्तुत दस्तावेज भी संमस के साथ भेजे जाने चाहिए अथवा न्यायालय में उपस्थित होने पर दिये जाने चाहिए ।   

        हमारे देश में सालो आपराधिक प्रकरण चलते हैं । प्रार्थी को उसके साथ घटित घटना में आरोपी के विरूद्ध क्या न्यायालयीन कार्यवाही हुई है । इसकी उसे कोई जानकारी नहीं रहती है। वह केवल सरकारी गवाह के रूप में उपस्थित होता है । घर चला जाता है । उसके बाद उसके प्रकरण में क्या हुआ इसकी उसे कोई जानकारी नहीं दी जाती है । इसलिए आवश्यक है कि उसे चालान पेश होने के समय चालान की नकल दी जाये, ताकि वह यह जान सके कि उसकी रिपोर्ट पर किस प्रकार का मामला प्रस्तुत किया गया है । निर्णय हो जाने के बाद उसे अपील की सुविधा दी गई है, इसलिए निर्णय की जानकारी भी दी जानी चाहिए । 

        हमारे यहां चालान के साथ आरोपी, साक्षी, जमानतदार, आदि से संबंधित दस्तावेज प्रस्तुत किये जाते हैं परन्तु उनकी पहचान के संबंध में कोई दस्तावेज नहीं रहता है । जिसके कारण बाद मेंउन्हें तलाशने में समय गवाना पडता है । इसलिए आवश्यक है कि इन सबके फोटोग्राफ उनके बयान के साथ नाम,पता,व्यवसाय, मोबाइल नंबर सहित अंकित किया जाना चाहिए । 

        हमारे देश में सबसे बड़ी मुकदमें बाज सरकार है । जो हर छोटी से छोटी बात को बड़ी से बडी अदालत में ले जाना उचित समझती है। यदि सरकार न्यायलय में मुकदमा प्रस्तुत करने के पहले उसकी जांच एक कमेटी से करवा ले और यह पाये कि आदेश प्रचलित नियम कानून के अनुरूप है, तो सरकार मुकदमेंबाजी में लोकधन बर्बाद करने से बच सकती है और अपनी जनता को न्याय प्रदान कर सकती है। 

        हमारी न्याय व्यवस्था में विधि के सिद्धांत वैज्ञानिक एंव सुनिश्चित नहीं है । एक ही बिन्दु पर कई पक्ष विपक्ष में अभिमत प्राप्त हो सकते हैं । विधि नियमो की बाहुल्यता है  । इस कारण न्यायालयो को कार्य करने में असुविधा होती है । अतः आवश्यक है कि प्रत्येक न्यायालय मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा दिये दिशानिर्देश के अनुरूप कार्य करे और अनुच्छेद 141 के अंतर्गत उसे विधि मानकर उसका पालन करें ।

        भारत में न्यायिक सेवा भी देश की उच्चत्तर सेवाओं में सदस्यों को प्राप्त वेतन, सुविधा के कारण शामिल हो गई है। लेकिन इसके बाद भी जिनता व्यय सरकार के द्वारा न्यायिक सेवा पर और विश्वास जनता के द्वारा  किया जाता है। उस सुविधा और विश्वास के अनुरूप प्रतिफल प्रदान करने में न्यायिक संस्थान असफल है। एक अदालत दुसरी अदालत को राहत देने की जिम्मेदारी यह कहकर टाल देती है कि उन्होंने ही पूरे न्यायादान का ठेका नहीं ले रखा है। जबकि प्रचलित कानून के अनुसार वह खुद न्यायादान प्रदान कर सकते है। जिसके कारण न्याय में विलंब और खीजता पक्षकारों में उत्पन्न होती है। इस न्यायिक आचरण में भी त्वरित न्याय प्रदान करने सुधार की आवश्यकता है।
       
        भारतीय न्याय व्यवस्था में न्यायिक प्रक्रिया में सुधार हेतु न्यायिक प्रशिक्षण संस्थान एवं  अनुसंधान केन्द्र खोले गये हैं। इन संस्थाओं द्वारा समय-समय पर प्रशिक्षण कार्यक्रम, रेफ्रेसर कोर्स आयोजित किए जाते है। लेकिन इसके बाद भी न्यायाधीशगण नवनीनतम कानून और प्रक्रिया से लम्बे समय तक अनभिज्ञ देखे गये हैं। इसके लिए आवश्यक है कि न्यायिक प्रशिक्षण संस्थान पुरानी विधियों को लेकर की जा रही घिसी पिटी प्रशिक्षण प्रक्रिया से हटकर कुछ नया सोचे, समझे और करे। 

        हमारे देश में न्यायिक प्रक्रिया नए दौर से गुजर रहे हैं। समयानुसार रोज नये कानून विधान, नियम अध्यादेश बन रहे हैं। प्रचलित कानूनों में संशोधन हो रहा है। जिनका वास्तविक ज्ञान न्यायालयों को विलम्ब से होता है। उन्हें किस रूप में कानून लागू करना है। यह बात समय पर समझ नहीं आती है। ऐसी स्थिति में आवश्यक है कि प्रशिक्षण संस्थान इन नये कानूनों पर क्रेन्द्रित होकर अपना कार्य करे और नवीनतम विधि प्रक्रिया से न्यायालय को अवगत कराये।

        न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों को एक ही विषय पर प्रचलित विरोधाभाषी, कानून, मत, अभिमत, न्यायदृष्टांत का अध्ययन कर यह बताना चाहिए कि कौन सा कानून अब अधिक उचित और तर्क संगत है। किसे लागू किया जाना चाहिए, इस संबंध मंे अभिमत देना चाहिए । इसके साथ  वैज्ञानिक ढंग से शोध कर वैज्ञानिक तरीके से प्रचलित विधि से अवगत कराकर उसमें क्या सुधार, संशोधन, न्यायहित, लोकहित में प्रकरण के शीघ्र निराकरण हेतु हो सकता है। इन सब विषयवस्तु पर कार्य किया जाना चाहिए तभी उनकी सार्थकता सिद्ध हो सकती है।

        इन न्यायिक प्रशिक्षण संस्थानों में सर्वसुविधाआंे से युक्त, नवनियुक्त न्यायाधीशों में भी काम के प्रति लगन, निष्ठा, कार्यक्षमता जगाकर उनमें प्रचलित विधि के अनुसार न्यायदान करने की क्षमता का विकास करना चाहिए। ये न्यायाधीश विधि के ज्ञाता,  विशेषज्ञ जानकार हैं, इसलिए लाखों में से चुनकर आए हैं। यह मानते हुए उन्हें वही अध्ययन पुनः न कराकर उनके कार्यक्षेत्र संबंधी व्यवहारिक प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।

        प्रत्येक नवनियुक्त न्यायाधीश को प्रशिक्षण काल में ही कार्यरत न्यायालयों में जोड़कर उन न्यायालयों में लम्बित फाइलों के अनुसार आदेश, निर्णय आदि लेखन कराकर प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए ताकि प्रशिक्षण बाद उन्हें किसी व्यवहारिक कठिनाई का सामना न करना पड़े और वह व्यवहारिक रूप से न्याय प्रदान करें। 

        हमारी न्याय व्यवस्था में बहुत सी कमियां अधीनस्थ न्यायिक कर्मचारियों में भी हैं। जो न्याय प्रदान में बाधक है। वे पूर्णतः प्रशिक्षित नहीं है। उनमंे कम्प्यूटर में कार्य करने की समयानुसार  क्षमता नहीं है। उन्हंे भी न्यायिक अधिकारियों की तरह समय-समय पर प्रशिक्षित किये जाने की आवश्यकता है।     
  
        इस प्रकार आज हमारे देश में बदलते सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक परिवेश को देखते हुए न्याय व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन करने की आवश्यकता है।आज देश मे न्यायालय के अलावा न्यायालय के बाहर न्यायिकेत्तर उपाय से प्रकरण सुलझाने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है कि न्यायालय के अलावा कुछ संस्था, प्राइवेट एजेंसी, एन.जी.ओ. को न्यायिक अधिकार प्रदान किये जाये कि वे ज्यादा से ज्यादा मुकदमंे सुलह,, समझाइश , समझौते, मध्यस्थता, के माध्यम से न्यायालय के बाहर निपटाये। 

         यदि न्यायालय पर बढ़ते हुए मुकदमों के बोझ को कम नहीं किया गया और विलंब से न्याय प्रदान किया गया तो देश में न्याय तक पहंुच वाली न्याय व्यवस्था पर से लोगांे का विश्वास उठ जाएगा और जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय निर्मित नहीं किये गये तो न्याय कछुआ और मुकदमें खरगोश की चाल से बढ़ते हुए इस देश की न्याय व्यवस्था को चौपट कर देंगे।
       
                                   उमेश कुमार गुप्ता
                                    















भारतकासंविधानऔरपर्यावरसंरक्षण

       भारतकासंविधानऔरपर्यावरसंरक्षण                                                                                                      
                      
                                      देश में आर्थिक विकास के साथ पर्यावरण प्रदूषण की समस्या उत्पन्न हुई है। चैड़ी सड़कों के लिये पेड़ काटे जा रहे हैं। औद्योगिकरण विकास के लिये नये कारखाने स्थापित हो रहे हैं। शहर कांकरीट के जंगल बनते जा रहे हैं। जिसके कारण जल, वायु, धरती तीनों में प्रदूषण बढ़ रहा है। जिसके कारण लोगों का जीवन जीना दूभर हो गया है। प्रदूषण के कारण ही बहरापन, विकलांगता, अंधापन, केंसर, अस्थमा आदि बीमारिया से लोग ग्रसित हो रहे हैं।
                                               हमारे संविधान के आर्टिकल-48-अ में कहा गया कि ष् राज्य देश के पर्यावरण संरक्षण तथा संवर्धन का और वनों तथा वन्य जीवों की रक्षा करने का प्रयास करेगा। इसी प्रकार आर्टिकल-51-अ में पर्यावरण संरक्षण को नागरिकों का मूल कत्र्तव्य मानते हुये यह प्रावधान किया गया है कि- भारत के प्रत्येक नागरिक का यह कत्र्तव्य होगा कि वह प्राकृतिक पर्यावरण की जिसके अंतर्गत वन, झील, नदी और वन्य जीव हैं, रक्षा करं और उनका संवर्धन करें तथा प्राणी मात्र के प्रति दया भाव रखें।
                                 संविधान के इन्हीं प्रावधानों को देखते हुए पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986, जल प्रदूषण अधिनियम 1974, वायु प्रदूषण अधिनियम 1981, राष्ट्रीय पर्यावरण अधिनियम 1995, ध्वनि प्रदूषण नियम 2000, रसायन दुर्घटना आपात योजना तैयारी और अनुक्रिया नियम 1996 जैसे अलग-अलग अधिनियमों की रचना की गई है।
                                   संविधान के अनुच्छेद-21 में जीवन जीने के अधिकार में मानव स्वास्थ्य क्षेम के लिए पर्यावरण को माना गया है। पर्यावरण संरक्षण सरकार एवं न्यायालय का दायित्व बताया गया है।
                  अनुच्छेद21 के अंतर्गत सफाई एवं पर्यावरण शुद्धाता को शामिल करते हुये यह निर्धारित किया गया है कि पर्यावरण प्रदूषण से पीडि़त एवं प्रभावित व्यक्ति प्रतिकार पाने का हकदार है।
                               इन्हीं सब बातों को ध्यान में रखते हुये 19 नवम्बर 1986 में पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986 की रचना की गई। इसके अनुसार पर्यावरण प्रदूषण से तात्पर्य पर्यावरण में किसी भी पर्यावरणीय प्रदूषण का विद्यमान होना शमिल है, तथा पर्यावरण से अभिप्राय जल, हवा और भूमि तथा जल, भूमि और हवा तथा मानवीय प्राणी अन्य जीवित प्राणी, पौधे, सुक्ष्म जीवाणु तथा संपत्ति में और उनके बीच विद्यमान अंतर्संबंध शामिल है।
                                 इस अधिनियम की धारा-3 में केन्द्र सरकार को शक्ति दी गई है कि अधिनियम के उपबंधों के अंतर्गत पर्यावरण की गुणवत्ता में सुधार लाने तथा संरक्षण के लिए और पर्यावरणीय प्रदूषण के निवारण, नियंत्रण, अपशमन के लिये उपाय करें। जिसमें पर्यावरण के मानक निर्धारित करना और प्रदूषण को दूर करने के उपाय शामिल हैं। इस संबंध में न्यायालय द्वारा भी समय-समय पर नोटिस जारी किए गए हैं। जिसके उल्लंघन पर धारा 15, 16 में दण्ड के प्रावधान दिये गये हैं।
                                      न्यायालय द्वारा पर्यावरण प्रदूषण से हुई नुकसानी के लिए राहत और प्रतिकर देने, दुर्घटना से प्रभावी रूप से शीघ्र निपटने के लिए राष्ट्रीय पर्यावरण अधिकरण अधिनियम 1995 को राष्ट्रपति के द्वारा दिनांक-17.06.1995 को स्वीकृति प्रदान की गई है। जिसके अंतर्गत पर्यावरण दुर्घटना से हुए नुकसान की क्षतिपूर्ति संबंधी विधि की व्यवस्था की गई है। इसके अंतर्गत अधिकरण की स्थापना की जायेगी जो दावों की सुनवाई करेगी।
                            
                                                         पर्यावरण संरक्षण के लिए अनेक मामलों में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा समय-समय पर दिशा निर्देश जारी किए गए हैं न्यायालय द्वारा दिल्ली के राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में ईंटों के कारखानों से कारित प्रदूषण को रोकने के लिये ऐसे कारखानों को बंद करने अथवा अन्यत्र ले जाने का आदेश दिया गया। न्यायालय द्वारा ही निर्धारित किया गया है कि प्रदूषण का पता लगाने तथा रोकने के उपाय करने का कार्य बोर्ड का है। यमुना के जल को प्रदूषित होने से रोकने के लिए दिल्ली एवं हरियाणा के कई उद्योगों पर प्रतिबंध लगाये गये हैं। ताजमहल को प्रदूषण से बचाने के लिए वहां से अतिक्रमण को हटाने तथा उस क्षेत्र को हल्का औद्योगिक क्षेत्र घोषित नहीं करने का आदेश दिया गया।
                                     एल. सी. मेहता विरूद्ध भारत सरकार संघ ए.आई.आर 2001 एस.सी. 3262 में न्यायालय ने अधिनिर्धारित किया कि आर्टिकल 51 क (छ) के अंतर्गत केंद्र सरकार का यह कत्र्तव्य है कि वह             देश की शिक्षण संस्थाओं में एक  घंटे पर्यावरण संरक्षण की शिक्षा देने का निर्देश दे।
                                   माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रदूषण रहित जल और वायु के उपभोग को अनुच्छद 21 में मूल अधिकार माना गया। पेट्रोल और डीजल से चलित वाहनों के कारण प्रदूषण को रोकने विशेष उपाय किये जाने सरकार को निर्देशित किया गया है।
                                                 इन री ध्वनि प्रदूषण ए.आई.आर 2005 एस.सी 3036 के महत्वपूर्ण और ऐतिहासिक निर्णय में उच्चतम न्यायालय ने सरकार को ध्वनि प्रदूषण रोकने निर्देश दिया है कि देश भर में व्याप्त ध्वनि प्रदूषण को रोकने के लिए उससे संबंधित कानूनों को कड़ाई से लागू करें।
               
                                                 उच्चतम न्यायालय ने अधिनिर्धारित किया है कि आर्टिकल 21 के अंतर्गत सभी व्यक्ति को मानव गरिमा से जीने का मूल अधिकार प्राप्त है। मानव जीवन का आकर्षण सुख पूर्ण जीवन जीना है। प्रत्येक व्यक्ति को आर्टिकल 21 के अंतर्गत ध्वनि प्रदूषण रहित वातावरण में जीवन बिताने का अधिकार है। जिसको अनुच्छेद 19-1-अ में प्रदत्त अधिकार का प्रयोग करने में विफल नहीं किया जा सकता है।
                                              आर्टिकल 19-1-अ में प्रदत्त अधिकार आन्यत्रिक नहीं है। उस पर आर्टिकल 19-2 के अंतर्गत युक्तियुक्त निर्बन्धन लागू किए जा सकते हैं। कोई भी व्यक्ति लाउडस्पीकर और आधुनिक ध्वनि विस्तारकों द्वारा किसी को उसकी आवाज सुनने के लिए बाध्य नहीं कर सकता है।

                             इन री ध्वनि प्रदूषण ए.आई.आर 2005 एस.सी 3036 में न्यायालय ने निम्नलिखित निर्देश दिये हैं -
    1.    पटाखों की ध्वनि स्तर वर्तमान मूल्यांकन प्रणाली  के अनुसार करना चाहिए। जब तक कि इससे अच्छी प्रणाली न खोज ली जाए।
    2.    ध्वनि करने वाले पटाखो के प्रयोग पर 10 बजे रात से 6 बजे सुबह तक पूर्ण रोक होगी।
    3.    पटाखों को दो भागों में बांटना चाहिए। एक घरेलू प्रयोग के लिए और दूसरा निर्यात के लिए। दोनों के रंग अलग होना चाहिए। घरेलू पटाखों पर रासायनिक तत्वों की जानकारी प्रकाशित होनी चाहिए।

               
    4.    लाउडस्पीकर आदि यंत्रों का ध्वनि विस्तार 10 डेसिबल-ए से अधिक नहीं होगा।
    5.    आवासीय क्षेत्रों मंे कारों के हाॅर्न का प्रयोग वर्जित होगा।
    6.    जब तक सरकार समुचित कानून नहीं बनाती तब तक उपर्युक्त निर्देश कानून की तरह माने जायेंगे।

                                       एम.सी. मेहता बनाम भारत संघ ए.आई.आर 1991-सुप्रीम कोर्ट     ..............के एक लोकहित वाद में उच्चतम न्यायालय ने  केंद्र और राज्य सरकारों को निम्नलिखित निर्देश पर्यावरण के संबंध में दिये हैं ?
    1.    वे सभी सिनेमाघरों भ्रमणकारी सिनेमाघरों में प्रत्येक शो के पूर्व प्रदूषण संबंधी कम से कम 2 स्लाइड अवश्य दिखाये। यह उन्हें लाइसेंस की एक शर्त होनी चाहिये।
    2.    फरवरी 1992 से प्रत्येक दिन सिनेमाघरांे में थोड़ी अवधि की प्रदूषण संबंधी फिल्म दिखाई जानी चाहिए।
    3.     रेडियो और दूरदर्शन से प्रत्येक दिन 5 से 7 मिनिट का प्रोग्राम प्रसारित किया जाना चाहिए तथा सप्ताह में एक बार इस पर एक लंबा प्रोग्राम दिखाया जाना चाहिए।
    4.    स्कूल, काॅलेजों, विश्वविद्यालयों में प्रदूषण एक अनिवार्य विंषय के रूप में पढ़ाया जाना चाहिए ताकि छात्रों को इसकी जानकारी हो सके और वे इसे अपना लें।
    कांउसिल फाॅर इन विरो लीगल एक्शन विरूद्ध यूनियन आॅफ इण्डिया ए.आई.आर 1996-5-एस.सी. 281 के मामले में उच्चतम न्यायालय ने भारत के समुद्री तट क्षेत्रों में स्थित कारखानों द्वारा
               
                                               पारिस्थितिकी और पर्यावरण को होने वाली क्षति से संरक्षण प्रदान करने के लिए आवश्यक निर्देश दिये हैं जिससे संबंधित अधिनियमों के प्रावधानों को प्रभावी रूप से लागू किया जा सके। न्यायालय द्वारा  संबंधित उच्च न्यायालयों में हरी पीठ ग्रीन बेंच की स्थापना का सुझाव दिया जो इस प्रकार के मामलो की सुनवाई करे और निपटावे।
                                माननीय उच्चतम न्यायालय के सुझाव को ध्यान में रखते हुये 02 जून 2010 को राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 (ग्रीन ट्रिब्यूनल) की स्थापना की गई। इसका मूल उद्देश्य भारतीय संविधान के आर्टिकल 21 के अंतर्गत स्वास्थ्य पर्यावरण भारत के नागरिकों का मूल अधिकार होने के कारण पर्यावरण की सुरक्षा रहत और व्यक्तियों और संपत्ति के नुकसान के लिए मुआवजा देने संबंधी मामलों को शीघ्र और प्रभावी ढ़ंग से निपटाना है।


    राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 की धारा 14 में दी गई अनुसूची के अनुसार निम्नलिखित 06 अधिनियम से संबंधित मामलों का निपटारा किया जायेगा।
    1.    जल प्रदूषण का निवारण अधिनियम 1976।
    2.    जल प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण उपकर  अधिनियम 1977।
    3.    वन संरक्षण अधिनियम 1980।
    4.    वायु प्रदूषण का निवारण और नियंत्रण अधिनियम   1981।
    5.    पर्यावरण संरक्षण अधिनियम 1986।
    6.    सार्वजनिक देयता बीमा अधिनियम 1991 और जैव  विविधता    अधिनियम 2002।




                   
राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण अधिनियम 2010 (ग्रीन ट्रिब्यूनल) की मुख्य विशेषतायेंः-
    1.़    ग्रीन ट्रिव्यूनल में एक अध्यक्ष होगा, 10 राज्य स्तर पर         गठित और 20 केंद्र स्तर पर गठित अधिकरण में             विशेषज्ञ सदस्यों की नियुक्ति की जायेगी।
    2.    आवश्यकता पड़ने पर विशेष ज्ञान और विशेषज्ञता         वाले व्यक्तियों को निमंत्रित किया जाएगा।
    3.    सर्वप्रथम पाॅंच राज्यों में कलकत्ता, नई दिल्ली, पूने,         भोपाल, चेन्नई में अधिकरण की स्थापना की गई है।
    4.    पूणे सर्किट बेंच का क्षेत्राधिकार महाराष्ट्र, गुजरात,         गोवा, दमन दीव में होगा।
    5.    अधिकारण 06 माह में निर्णय देगी।   
    6.    90 दिन में सुप्रीम कोर्ट में अपील हो सकती है।
    7.    पर्यावरण संबंधी 6 अधिनियमों के आदेश की 30 दिन         के अंदर न्यायधिकरण में अपील होगी।
    8.    सिविल कोर्ट की डिग्री की तरह निष्पादन होगा।
    9.    सिविल कोर्ट अधिकर होंगे।
    10.    अधिनियम की धारा-15 के अंतर्गत वाद कारण             दिनाॅक से 5 वर्ष के अंदर आवेदन किया जायेगा।
    11.    विशेष कारण से 60 दिन और आवेदन की अवधि             बढ़ाई जा सकती।
    12.    पर्यावरण संबंधी 6 अधिनियमों की अपीलीय             अधिकारिता का प्रयोग करेगा।
    13.    दुनियाॅ का भारत तीसरा देश आस्ट्र्ेेलिया, न्यूजीलैण्ड         के बाद है जिसने इस न्यायाधिकरण की रचना की।
             
    14.    यह न्यायाधिकरण प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों पर         कार्य करेगा।
    15.    यह एक फास्ट टे्र्क अर्द्ध न्यायिक न्यायालय है
    16.    इससे उच्च न्यायालयों में मुकद्मों का बोझ कम             होगा।
    17.    इसकी स्थापना में मान0 न्यायमूर्ति स्वतंत्र कुमार का         विशेष योगदान है।

                         उमेश कुमार गुप्ता
                         

प्रायवेट प्रतिरक्षा

उच्चतम न्यायलय ने पूरणसिंह और अन्स बनाम राज्य;ए0आई0आर01975 सुप्रीम कोर्ट 1674द्ध के मामले में संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अबलम्बन लेने के लिये चार परिस्थितियॉ उपदर्शित की थी एंप पैरा 11 मेंइस प्रकार सम्प्रेक्षित किया था



 1त्र       ष्ष् कब्जे की प्रकृतिए जो अतिचारी संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा
               के अधिकार का अनुप्रेयोग करने का हकदार बना सकेगी में निम्नलिखित
               गुण होना चाहियेरू.

     1.    अतिचारी के पास पर्याप्त रूप से लम्बे समय से संपति का वास्तविक
             भौतिक कब्जा होना चाहिये ।

     2.    कब्जा मालिक के अभिव्यक्त या विवक्षित ज्ञान में छिपाने के किसी प्रयास

            के बिना होना चाहिये ओर जो कब्जे का आशय का तत्व अन्तर्वलित करता है ।
            अतिचारी के कब्जे की प्रकृति प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एंव
            परिस्थितियों पर विनिश्चित किये जाने वाला विषय होगा ।

    3.    अतिचारी द्वारा वास्तविक मालिक के वेकब्जे की प्रक्रिया पूर्ण और अंतिम

           होनी चाहिये एंव वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और

    4.    व्यवस्थापितकजे की गुणबत्ता अवधारित करने के लिये प्रायिक परीक्षाओं

        में से एक खेती योग्य भूमि की दशा में यह होगी कि क्या अतिचारी कटजा
        प्राप्त करने के पश्चात कोई फसल उगा चुका था या नहीं ।
        यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी थी तब  यहां तक कि वास्तविक
        मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई
        अधिकार नहीं है उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का
        अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई
        अधिकार नहीं होगा ।





 ।





    2त्र    काशीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0.290
         निर्दिष्ट किया गया. आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार
        अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है जितना कि अभियोजन
        का होता है और यह कि जवकि अभियोजन को उसका मामला युक्ति.
        युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता नहीं होती है।
 अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है ओरया तो  उस अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके उसके भार का निवर्हन कर सकेगा ।
        अभियोजन साक्षीगण के प्रति.परीक्षण में या वचाव साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा;
      सली  जिया बनाम उततर प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1979 एस0सी0.391  अबलंबितद्ध






3.      प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों
        में नहीं मापा जा सकता ;अमजद खान बनाम मध्यप्रदेश राज्यए0आई0आर
        1952 एस0सी0165 अबलबित चूकि अपीलार्थी का भगवान की हत्या     
        करने  का कोई आशय नहीं थाएउसका कार्य धारा 308 के तहत अपराध
        समझा गया था जवकि उसके द्वारा वहन की गई क्षतियो ने पलिस        
        पदाधिकारीगण को भा0दं0सं0 की धारा 325 के तहत अपराध के लिये        
        उत्तरदायी ठहराया था । इस प्रकार तथ्यों पर भी यह निष्कर्ष निकालना
        संभव नहीं है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार कप अतिक्रमण किया गया
        था ।





4.      एक मात्र प्रश्न जो विचारण किये जाने योग्य है वह है प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अभिकथित अनुप्रयोग । धारा 96 भा0दं0सं0 उपबंधित
        करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा अभियव्यक्ति प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार को परिभाषित नहीं करती एयह मात्र इंगित करती
        है कि कोई भी कार्य नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किय  जाता है



5      क्या परिस्थितियों के एक विशिष्ट समूह में किसी व्यक्ति ने बैघ
       रूप से प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कार्य किया था   
       प्रत्येक प्रकरण केतथ्यों एंव परिस्थितियों पर अबधारित किये जाने वाला
       तथ्य का एक प्रश्न है । ऐसे प्रश्न को अबधारित करने के लिये
     काल्पनिक  रूप से परीक्षाप्रतिपादित नहीं की जा सकती ।



5त्र  तथ्य के इस प्रश्न क  अबधारित करने में न्यायालय को समस्त आस
     पास की परिस्थितियो क विचारण में लेना चाहिये । अभियुक्त के लिये कई
    शब्दो में अभिवच करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है कि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा
     में कार्य  किया था यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के
     अधिकार का बैध रूप से अनुप्रयोग किया था तो न्यायालय ऐसे अभिवचन
     का विचारण करने में स्वंतत्र होती हे । प्रदत्त मामले में न्यायालय इसका
     विचारण करसकती है एयहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है
     यहां तक कि यदि वह अभिलेखगत सामग्री से विचारण के लिये उपलव्ध
     हे।


6त्रत्र भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के
     तहत सबूत का भार अभियुक्त पर होता है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का        
     अभिवचन  उठाता है और सबूत के अभाव में न्यायालय के लिये आत्मरक्षा
     के अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है ।        
     न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। अभियुक्त के
     द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा या अभियोजन
     के लिये जांचे गये साक्षियों से आवश्यक तथ्य निकालने के द्वारा अभिलेख
        पर आवश्यक सामग्री रखना निर्भर करता है ।




       प्रायवेट प्रतिरक्षा के  अधिकार का अभिवचन करने वाला अभियुक्त को
     आवश्यक रूप से साक्ष्य बलाने की कोई आवश्यक्ता नहीं हे वह उसके
     अभिवचन को अभियोज  साक्ष्य स्वयमेव से प्रकट करती हुई परिस्थितियों
       का संदर्भ लेकर उसके अभिचवन को स्थपित कर सकता है । ऐसे मामले
     में प्रश्न अभियोजन  साक्ष्य के सत्य प्रभाव के निर्धारण करने का प्रश्न होगा और अभियुक्त
       द्वारा कोई भार का निवर्हन करने का प्रश्न नहीं  होगा
     

 जहां प्रायवेट प्रति रक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त
 और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि
  अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानी हमले को बिफल करने के लिये या
  अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के        
  लिये आवश्यक थी आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है
  और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में
  संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा उन्मोचित किया गया स्थित         
  होता है।



।;मुंशीराम ंव अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन 1968 .2 एस0सी0आर 455ए

गुजरात राज्य बनाम बाई फातमाए1975.3एसण्सीण्आरण् 993
 उत्तर  प्रदेश राज्य बनाम मो0 मुशिर खान ए0आई0आर0 1977 एस0सी02226
        और
 मोहिन्दर पाल जोली बनाम पंजाब राज्य 1979.2 एस0सी0आर0 805
        धाराऐ 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित        
       करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट
        रक्षा का अधिकार प्राप्त है एतो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक धारा
        100 के तहत विस्तारित होता है यदि युक्तियुक्त आंयाका हो कि मृत्य या
        घोर उपहति हमले का परिणाम होगी

       सलीम जिया बनाम उ0प्र0राज्य1979.2 एसण्सीण्आरण्.394 में
इस न्यायालय का अक्सर प्रोद्वरित सम्प्रेक्षण
        निम्नानुसार हैरू.
           यह असत्य है कि आत्मरक्षा का अभिवचन स्थापित करने का
            अभियुक्तो पर भार इतना अधिक दुर्भर नहीं है जितना अभियोजन
            होता है और यह कि जवकि अभियोजन से अपना मामला यूक्ति.
            युक्त शंका से परे प्रमाणित  करने की अपेक्षाकी जाती है तो अभि.
            युक्त को इस अभिवचन को मुठिया तक साबित करने की आवश्क्ता
            नहीं है और उसका भार या तो अभियोजन साक्षीगण के प्रतिपरीक्षण
            में उस अभिवचन के लिये आधार रखने के द्वारा या वचाव साक्ष्य
            प्रस्तुत करने के द्वारा संभावनाओं की मात्र वाहुल्यता स्थापित करने
            के द्वारा उन्मोचित किया जा सकेगा। ष्ष्
            अभियुक्त को युक्तियुक्त शंका से परे प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के
            अस्तित्व को साबित करने की आवश्यक्ता नहीं है । उसे यह दर्शानो के       
            लिये पर्याप्त होगा एयथा सिविल मामले में उसके अभिवचन के हित में
            संभावनाओं की वाहुल्यता होती है ।


        7. यह अबधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था सुरक्षित मानदंड
        सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । इसे सर्वभोमिक नियम के रूप
        में चर्णित नहीं किया जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर
        क्षतियॉ पाई जाती है तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि
        अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी    
       बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस
        प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
        घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की     
       गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है परन्तु    
       अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन प्रक्रम को
        बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकेगा  यह सिद्धान्त उन मामलों में लागू
        होता है जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है और उपरी 
        तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट ओर अकाटस है।
        इतने अधिक स्वतंत्र एंव हितबद्ध नहीं है इतने अधिक संभाव्य सुसगंत और
        विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये        
       अभियोजन के द्वारा लोप के प्रभाव को दवा देता है
    । लक्ष्मीसिंह बनाम  बिहार राज्य ए0आई0आर0 1976 एस0सी0.2263ए



        प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया
        जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
      अभियुक्त को उपलव्ध है तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर
      घोर एंव धातक क्षति करने का अवसर  मिला होगा ।
      यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को
        उपलव्ध है तो सम्पूर्ण घटना की साबधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये
        और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
       धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यवहत करती है ।
   


 अधिकार का अभिवचन

1. अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के            या
 2. किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है और




        यह अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद् व किसी अपराध की दशा में
         किया जा सकेगा एंव चारी लूट रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों
         और संपति के संबंध्स में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा  .99
         प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।


 धारा 96
        और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का
         अधिकार प्रदत्त करती है । धाराओं 96 से 98 के तहत प्रदत्त किये गये
         अधिकार और 100 से 106 तकए धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।



        स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये
        कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के
        लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पत्ति प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ
        अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट 
        प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था







        धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा 
        परिभाषित करती है।
.    धाराऐं 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपति क्रमशः की    
       प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यवहत करती है




        अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही  शरीर ािक अपराध कारित
        करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है ।
       यद्यपि अपराध नहीं किया होगा एपरन्तु उस समय तक नहीं जब
        युकितयुक्त आंशका नहीं होती है । यह अधिकार तब तक बना रहता है
        जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।





        जयदेव बनाम पंजाब राज्य 1963 .3 एसण्सीण्आरण्489 में यह सम्प्रेक्षित
        किया गया था कि ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता 
        है और धमकी या तो समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है एतो
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का कोई अवसर नहीं
        हो सकता ।
   


   9.    यह पता करने के लिये क क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
        उपलव्ध है या नहीं अभियुकतों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षाको धमकी
        की आंशकाएअभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या
        अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारी गण के पास जाने का समय था और
        समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।



 एक समान  अभिमत इस न्यायालय द्वारा बिरनसिंह बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण्
             1975    एसण्सीण्.87
देखो
 वासन सिंह बनाम पंजाब राज्य पुलिस निरीक्षक
        तामिलनाडु द्वारा प्रतिनिधित्व एजेण्टीण् 2002 .8 एसण्सीण्.21
.2002 .8
        एसण्सीण्सीण्.354



        10. बूटासिह बनाम पंजाब राज्य जेण्टीण् 1991 .5 एसण्सीण् 366 ए

ए0आई0 आर0 1991 एसण्सीण्.1316 मंे
 यथा नोट किया गया कि कोई व्यक्ति

 एजो
        मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है एको उस क्षण में और
        परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों एजो हथियारों स लैस थेए को
        निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों मेंमापा
        नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में
        पक्षकार गण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव
        उसे आशकित खतरे के समनरूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल
        का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता हेए जहां हमला बल का
        प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने
        के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन
        जाती है । ऐसी स्थितियों को साकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये
        और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्कीसी या मामूली सी गल्ती का
        पता लगाने के लिये दूरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । यह विचारण
        करने में उसे सम्यक महत्व दिया जाना चाहिये ओर अति तकनीकी दृष्टि
        कोण नहीं अपनाना चाहिये कि धटना स्थल पर क्षणिक आवेश में क्या
        हो जाता है एंव साधारण मानव प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुये तथा
        आचरण को ध्यान मेंरखते हुये एजहां आत्मरक्षा सर्वोपरि विचारण होता हे
        वरन्तु यदि तथ्यात्मक स्थति यह दर्शाती है कि आत्रक्षा के भेष में वास्तव
        जो किया जा चुका है वह  है मूल आक्रामक पर हमला करना एयहंा
        तक कि युक्तियुक्त आश्ंाका का कारण समाप्त हो जाने के पश्चातए आत्म
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन को बैध रूप से नामंजूर किया जा सकता
        है । इस अभिवचन को व्यवहत करने वाली न्यायालय को इस निष्कर्ष पर
        पहंुचने के लिये सामग्री का मूल्याकन करना चाहिये कि क्या वह            
  अभिवचन स्वीकार किये जाने योग्य है । यथा उपर नोट किया एआवश्यक
        रूप से यह तथ्य का नष्कर्ष है ।





        11. आत्मरक्षा का अधिकार अति महत्वपूर्ण अधिकार हैएजो सामाजिक
        प्रयोजन की सेवा करता है और इसका संकुचित रूप से अर्थान्वयन नहीं 
        किया    जाना चाहिये । ;देखिये विद्यासिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0
        आर0 1971 एवण्सीण्1857एद्ध ।



       स्थितियांे का आकलन जोखिम की सिथति से सामना करके
       क्षण भर के समीपी आवेश ओर भ्रम में संबंधित अभियुक्त के विषय
     परक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये तथा किसी दूरबीन से
       नहीं । इस प्रश्न को आंकलित करने के में कि क्या आपश्यक से अधिक
       बल विद्यमान परिस्थितियों में घटना स्थल पर प्रस्तुत किया गया था तो
        विलग वस्तुनिष्ठता द्वारा परीक्षाऐं अपनाने के लियेए इस न्यायालय द्वारा
        यथा ठहराया गया अनुपयुक्त होगाए जो न्यायालयीन कक्ष में अत्यधिक
        नैसर्गिक होगा या यह कि जो पूर्णतः वहां तिद्यमान एशांतएव्यक्ति के लिये
        आत्यंतिक रूप से आवश्यक होना प्रतीत होगा । व्यक्ति जो स्वंय को     
        धमकी की युक्तियुक्त आंशका का सामना कर रहा है एसे साधारण समय
        में या साधारण परिस्थितियों के अधीनए जो व्यक्ति की सोेंच में अपेक्षित    
        होता हैए केवल उतना वास्तविक रूप से किसी गणित के समान सीढी दर
        सीढी उसकी प्रतिरक्षा को अपनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।






        12.  रसेल ;रसेल ऑन क्राईमए ग्यारहवां संस्करण भाग.1 पृष्ठ 49द्धके
        दैदिप्यमान शब्दो मेंरू
          ष्ष्ण्ण्ण्ण्ण् कोई भी व्यक्ति बल द्वाराकिसी भी व्यकित का विरोध करन में
        न्यायसंगत होताहै ए जो प्रकट रूप से हिंसा द्वारा या तोउसके शरीर या
        वासा या संपति के विरूद्व कोई विदित महा अपराध कारित करने के लिय
        आश्चर्य आशयित करता है ओर प्रयास करता है । इन मामलों में उससे
        वापस लोटने की अपेक्षा नही की जाती और मात्र हमले का विरोध नहीं    
        कर सकेगा एजहां तक वह खड़ा हुआ है एपरन्तु वास्तव में उसकी    
        विपत्तियों ये सामना करेा जब तक कि खतरासमाप्त नहीं हो जाता और
        यदि उनके मध्य लड़ाई में वह उसके हमलावर कीहत्या कर देता हैए तो
        ऐसी हत्या करना न्यायसंगत है





        13. प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शासित विधान अर्थात भाण्दंण्संण् द्वारा        
        जनित आवश्यक रूप से प्रतिरक्षात्मक अधिकार है एजो केवल उस समय
        उपलव्ध होता है एजब परस्थितियॉ उसे सपष्ट रूप से न्यायसंगत ठहराती
        हैं । इसे अभिवचन करन के लिये या बदला लेने के लिये या अपराध को
        कारित करने क प्रयोजन के लिये बहाने के रूप मंे प्रयोग करने हेतु        
       अनुज्ञात नही किया जाना चाहिये । यह प्रतिरक्षा का अधिकार है प्रतिकार
        का नहीं जिससे अबैध आक्रमण को  दूर हटाने की अपेक्षा की जाती है
        और बदला लेने के उपाय के रूप में नहीं । अधिकार के अनुप्रयोग के     
        लिये उपबंधित करते समय भाण्दण्संण् में सावधानी वरती गयी है एऐसा कोई
        तंत्र उपबंधित नहीं करे और कोई युकित नहीं निकाले एजिसके द्वारा        
       आक्रमण हत्या करने क  बहाना हो । प्रतिरक्षा करने का अधिकार कोई
        अपराध संस्थित करने का अधिकार शामिल नही करताए विशेषकर  जब
        प्रतिरक्षा करने की आवश्यक्ता अब शेष न बची हो ।
 ;देखो वी0 सुब्रमणी
        व अन्य बनाम तामिलनाडू राज्य एजे0टी0 2005द्ध;3द्धएस0सी0.82ए 2005;10द्ध
        एस0सी0सी0.358










        19.    बिस्ना उर्फ बिस्वदेब महतो एंव अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य ए
        जे0टी0 2005 ;9द्धएसण्सीण्.290 में
 इस न्यायालय ने ठहराया है कि ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
        उत्तेजना के क्षणों और अव्यवस्थित संतुलन में पक्षकारगण से संतुलन
        बनाये रखने और वास्तविक रूप से उसे आंशकित खतरे के समनुरूप
        बदले में केबल उतने ही बल का उपयोग करने की अपेक्षा करना अक्सर
        कठिन होता है एजहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा सन्निकट होता
        है । समस्त परिस्थितियों को ठीक से देखने की आवश्यक्ता हाती है और
        अति तकनीकी दृष्टिकोण टालना चाहिये ।




        20.    प्रायवेट प्रतिरक्षा किसे कहा जायेगा को निम्नलिखित निबन्धनो में
        तद्धीन बर्णित किया गया था .
            ष्ष् प्रायवेट प्रतिरक्षा का उपयोग अबैध बल को रोकने एअबैध बल को
        प्रवरित करने एअबैध पिरोध को टालने ओर ऐसे निरोध से बवने के लिये
        किया जा सकता है । जहां तक अतिचारी के विरूद्व भूमि की प्रतिरक्षा का
        संबंध हैए तो व्यक्तिए अतिचारी को बेदखल करने के लिये या अतिचार
        प्रवरित करने के लिये आवश्यक और मध्यम प्रकार के बल का उपयोग
        करने का हकदार है । पूर्वोक्त प्रयोजनो के लिये बल का प्रयोग न्यूनतम
        आवश्यक या युक्तियुक्त रूप से आवश्यक होने का विश्वास करना चाहिये
        युक्तियुक्त प्रतिरक्षा के अनुपातिक अभिरक्षा अभिप्रेत होगी । साधारणतया
        अतिचारी से पहले प्रस्थान करने के लिये कहा जायेगा और दि अतिचारी
        वापस लड़ाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग कर सकता है ।
        परन्तु निवासीय मकान की प्रतिरक्षा भिन्न आधार परस्थित होती है । विधि
        को हमेशा व्यक्ति जो उसके निवास स्थान की उन व्यक्तियों के विरूद्व        
       प्रतिरक्षा कर रहा है एजो अबैध रूप से उसे बेदखल कर देगें एपर विशेष
        लिप्त्ता के साथ प्रत्येक व्यक्ति का घर उसके लिये उसका गढ़ और
        किला होता हैए के समान देखी जाती है । ।




        21.    यह राय दी गई कि प्रायवेट प्रतिरक्षा और अपराध का निवारण
        कभी कभी अविभेदकारी होताहे । यह ठहराया गया था कि ऐसे अधिकार
        का अनुप्रयोग किया जा सकता थाए क्योकि दुःसाहस को प्रवरित करने के
        लिये अपरिचतों के मध्य यथा साधारण स्वतंत्रता होती है ।






        22.    बलराम बनाम राजस्थान राज्य जेण्टीण् 2005;10द्धएसण्सीण्168 में इस
        न्यायालय ने यह अवेक्षा करने पर कि अपीलार्थी ने कृषि भूमियों से गुस्से
        में बे कब्जा कर दिया था और आगे एतस्मिन अपीलार्थी द्वारा मृतक के
        माथे पर केवल एक मुक्का मारा गया था एतो उसकी प्रायवेट प्रतिरक्षा  के
        अधिकार को स्वीकार किया गया एपरन्तु यह अभिनिर्धारित करते हुये राय
        दी गई कि उसने उक्त अधिकार से अधिक कार्य किया था ।
        28.    इस प्रकरण के तथ्य और परिस्थितियों में और उनके द्वारा की गई
        प्रतिरक्षा के आलेक में हम इस अभिमत के हैं कि अभियोजन के लिये
        अपीलार्थीगण के शरीर पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करना अनिवार्य था ।
        बिस्ना उर्फ बीस्वदेव महतो एव अन्य में इस न्यायालय ने ठहराया ।

            ष्ष् अभियुक्त पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करने की बिफलता के बारे
        में तथ्य प्रकरण दर प्रकरण भिन्न होते हैं । जबकि अभियुक्त द्वारा वहन
        की क्षतियों का अस्पष्टीकरण वचाव बृतांत को संभावित करता है कि
        अभियोजन पक्ष ने पहले हमला किया था एकिसी प्रदत्त स्थिति में यह
        ठहराना भी संभव हो सकेगा कि अभियुक्त द्वारा उसकी क्षति के बारे में
        दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं है और अभियोजन साक्षीगणके
        कथन उन्हें पूर्णतः स्पष्ट करते हैं और इस प्रकार का ठहराना संभव है
        कि अभियुक्त ने वह अपराध कारित किया थाए जिसके लिये उसे आरोपित
        किया गया था । जहां दोनो तरफ के लोगो द्वारा क्षतियॉ वहन की गई
        हों और जब दोनो पक्षकारगण ने घटना की उत्पत्ति के कारण को
        छिपाया हो या जहां आशिक सत्य प्रकटकिया गया होए वहां अभियोजन
        विफन हो सकेगा । परन्तु साधारण निबन्धनो में कोई भी विधि इस
        निमित्त प्रतिपादित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक प्रकरणएजाहे अभियोजन
        अभियुक्त के शरीर पर लगी प्रत्येक क्षतियों को स्पष्ट करने में बिफल हो
        जाता है तो उसे आगे कोई जांच किये बिना निरस्त कर देना चाहिये ।




        बांकेलाल एंव अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एण्आईण्आरण् 1971 एसण्सीण्
ृ      2233 ओर मोहरराय बनाम बिहार राज्य 1968.3 एण्सीण्आरण्552 ।





        29.    परन्तु उस स्थिति में क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक
        नहीं होना ठहराया गया था एक्योंकि तदधीन अपीलार्थीगण भारतीय दंड
        सहिता की धारा 148 के तहत अपराध कारित करने के दोषी पाये गये थे
        वर्तमान प्रकरण में एअभियोजन समस्त युक्तियुक्त शंका से परे यह साबित
        करने में समर्थ नहीं रहा है कि अपीलार्थीगण आक्रामकगण थे । अभियोजन
        अपीलार्थीगण द्वारा व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये कोई सामान्य
        आशय स्थापित करने में भी समर्थ नही रहा है ।


 मुन्ना चंदा बनाम  आसाम राज्य जेण्टीण् 2006 .3 एसण्सीण्36 में इस न्यायालय ने ठहराया ।





        ष्ष् इस प्रकार यह साबित करना आवश्यक है कि धारा 149 की मदद से
        अपराध के साथ आरोपित किये जाने ईप्सा किया गया व्यक्ति उस समय
        जब अपराध कारित किया गया थाए विधि विरूद्व का जमाव का एक
        सदस्य था ।
        एतस्मिन अपीलार्थीगण हथियारों से लेस नहीं थे भुटटू को छोड़कर एवे
        विवाद के समस्त तीनो प्रक्रमों पर पक्षकारगण नहीं थे । झगड़े के तृतीय
        प्रक्रम पर वे मृतक और अन्य लोगों को पाठ पढ़ाना चाहते थे । भुटटू ने
        झगड़ा करने के लिये वे उत्तेजित हो गये थे और मोती से क्षमा याचना
        की थी । स्वीकार्यतः ऐसा निर्मल की प्रेरणा पर किया गया था एभुटटू
        द्वारामोती पर हमला रतन की प्रेरणा से किया गया था । परन्तु यह नहीं
        कहा जा सकता कि वे मृतक की साशय हत्या करने का साधारण अभि.
        प्राय रखते थे । परन्तु मोती पर हमला करते समय वह स्वयं को
        अपीलार्थी की पकड़ से छुड़ा सकता था और परिदृष्य से ओझल हो
        सकता था। मृमक का न केवल एतस्मिन अपीलार्थीगण द्वारा पीछा किया
        गया थाए बल्कि कई अन्य लोगो के द्वारा भी । अगली सुबह वह मृत पाया
        गया था । एपरन्तु यह दर्शाने के लिये कुछ नही है कि अपीलार्थीगण या
        तो सामूहिक रूप से या पृथक पृथक कोन सी भूमिका निभाई गई थी ।
        यह भी विदित नहीं हे कि क्या कोई एक या समस्त अपीलार्थीगण हाजिर
        थे एजब अंतिम प्रहार किया गया था । वे कौन लोग थे एमृमक पर किसने
        हमला किया थाए भी विदित नहीं है किसके हाथो से उसे क्षतियॉ लगी थी
        पुनः एक रहस्य है । इसलिये भारतीय दंड सहिता की न तो धारा 34 न
        धारा 149 आकर्षित हाेेती है ।


 धरमपाल एंव अन्य बनाम हरियाणा राज्य 1978 एसण्सीण्सीण्.440 और
 शम्भू  कुंअर बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण् 1982 एसण्सीण्1228
        परन्तु हम यह नहीं भूलते हें कि

 बिस्ना उर्फ विस्वदेव महतो एंव अन्य
        बनाम वश्चिम बंगाल राज्य जेण्टीण्2005 .9 एसण्सीण्290 में यह कहा गया
        था ।
        ष्ष् धारा 149 और या 34 भाण्दंण्संण् आकर्षित करने के प्रयोजन के लिये
        अभियुक्त के द्वारा कोई विनिर्दिष्ट खुला कृत्य आवश्यक नही है । वह
        प्रतिक्षा कर सकेगा और अभियुक्त के द्वारा अकर्मण्यता को देख सकेगा
        कभी कभी यह ठहराने में बहुत मदद कर सकेगा कि उसने अन्य लोगों के
        साथ सामान्य अभिप्राय में भाग लिया था ष्ष् ।


                                                        उमेष कुमार गुप्ता













उच्चतम न्यायलय ने पूरणसिंह और अन्स बनाम राज्य;ए0आई0आर01975 सुप्रीम कोर्ट 1674द्ध के मामले में संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अबलम्बन लेने के लिये चार परिस्थितियॉ उपदर्शित की थी एंप पैरा 11 मेंइस प्रकार सम्प्रेक्षित किया थारू.



 1त्र       ष्ष् कब्जे की प्रकृतिए जो अतिचारी संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा
               के अधिकार का अनुप्रेयोग करने का हकदार बना सकेगी में निम्नलिखित
               गुण होना चाहियेरू.
     1.    अतिचारी के पास पर्याप्त रूप से लम्बे समय से संपति का वास्तविक
             भौतिक कब्जा होना चाहिये ।

     2.    कब्जा मालिक के अभिव्यक्त या विवक्षित ज्ञान में छिपाने के किसी प्रयास
            के बिना होना चाहिये ओर जो कब्जे का आशय का तत्व अन्तर्वलित करता है ।
            अतिचारी के कब्जे की प्रकृति प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एंव
            परिस्थितियों पर विनिश्चित किये जाने वाला विषय होगा ।

    3.    अतिचारी द्वारा वास्तविक मालिक के वेकब्जे की प्रक्रिया पूर्ण और अंतिम
           होनी चाहिये एंव वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और

    4.    व्यवस्थापितकजे की गुणबत्ता अवधारित करने के लिये प्रायिक परीक्षाओं
        में से एक खेती योग्य भूमि की दशा में यह होगी कि क्या अतिचारी कटजा
        प्राप्त करने के पश्चात कोई फसल उगा चुका था या नहीं ।
        यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी थी तब  यहां तक कि वास्तविक
        मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई
        अधिकार नहीं है उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का
        अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई
        अधिकार नहीं होगा ।





 ।




    2त्र    काशीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0.290
         निर्दिष्ट किया गया. आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार
        अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है जितना कि अभियोजन
        का होता है और यह कि जवकि अभियोजन को उसका मामला युक्ति.
        युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता नहीं होती है।
 अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है ओरया तो  उस अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके उसके भार का निवर्हन कर सकेगा ।
        अभियोजन साक्षीगण के प्रति.परीक्षण में या वचाव साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा;
      सली  जिया बनाम उततर प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1979 एस0सी0.391  अबलंबितद्ध






3.      प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों
        में नहीं मापा जा सकता ;अमजद खान बनाम मध्यप्रदेश राज्यए0आई0आर
        1952 एस0सी0165 अबलबित चूकि अपीलार्थी का भगवान की हत्या     
        करने  का कोई आशय नहीं थाएउसका कार्य धारा 308 के तहत अपराध
        समझा गया था जवकि उसके द्वारा वहन की गई क्षतियो ने पलिस        
        पदाधिकारीगण को भा0दं0सं0 की धारा 325 के तहत अपराध के लिये        
        उत्तरदायी ठहराया था । इस प्रकार तथ्यों पर भी यह निष्कर्ष निकालना
        संभव नहीं है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार कप अतिक्रमण किया गया
        था ।





4.      एक मात्र प्रश्न जो विचारण किये जाने योग्य है वह है प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अभिकथित अनुप्रयोग । धारा 96 भा0दं0सं0 उपबंधित
        करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा अभियव्यक्ति प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार को परिभाषित नहीं करती एयह मात्र इंगित करती
        है कि कोई भी कार्य नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किय  जाता है



5      क्या परिस्थितियों के एक विशिष्ट समूह में किसी व्यक्ति ने बैघ
       रूप से प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कार्य किया था   
       प्रत्येक प्रकरण केतथ्यों एंव परिस्थितियों पर अबधारित किये जाने वाला
       तथ्य का एक प्रश्न है । ऐसे प्रश्न को अबधारित करने के लिये
     काल्पनिक  रूप से परीक्षाप्रतिपादित नहीं की जा सकती ।



5त्र  तथ्य के इस प्रश्न क  अबधारित करने में न्यायालय को समस्त आस
     पास की परिस्थितियो क विचारण में लेना चाहिये । अभियुक्त के लिये कई
    शब्दो में अभिवच करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है कि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा
     में कार्य  किया था यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के
     अधिकार का बैध रूप से अनुप्रयोग किया था तो न्यायालय ऐसे अभिवचन
     का विचारण करने में स्वंतत्र होती हे । प्रदत्त मामले में न्यायालय इसका
     विचारण करसकती है एयहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है
     यहां तक कि यदि वह अभिलेखगत सामग्री से विचारण के लिये उपलव्ध
     हे।


6त्रत्र भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के
     तहत सबूत का भार अभियुक्त पर होता है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का        
     अभिवचन  उठाता है और सबूत के अभाव में न्यायालय के लिये आत्मरक्षा
     के अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है ।        
     न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। अभियुक्त के
     द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा या अभियोजन
     के लिये जांचे गये साक्षियों से आवश्यक तथ्य निकालने के द्वारा अभिलेख
        पर आवश्यक सामग्री रखना निर्भर करता है ।




       प्रायवेट प्रतिरक्षा के  अधिकार का अभिवचन करने वाला अभियुक्त को
     आवश्यक रूप से साक्ष्य बलाने की कोई आवश्यक्ता नहीं हे वह उसके
     अभिवचन को अभियोज  साक्ष्य स्वयमेव से प्रकट करती हुई परिस्थितियों
       का संदर्भ लेकर उसके अभिचवन को स्थपित कर सकता है । ऐसे मामले
     में प्रश्न अभियोजन  साक्ष्य के सत्य प्रभाव के निर्धारण करने का प्रश्न होगा और अभियुक्त
       द्वारा कोई भार का निवर्हन करने का प्रश्न नहीं  होगा
     

 जहां प्रायवेट प्रति रक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त
 और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि
  अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानी हमले को बिफल करने के लिये या
  अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के        
  लिये आवश्यक थी आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है
  और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में
  संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा उन्मोचित किया गया स्थित         
  होता है।



।;मुंशीराम ंव अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन 1968 .2 एस0सी0आर 455ए

गुजरात राज्य बनाम बाई फातमाए1975.3एसण्सीण्आरण् 993
 उत्तर  प्रदेश राज्य बनाम मो0 मुशिर खान ए0आई0आर0 1977 एस0सी02226
        और
 मोहिन्दर पाल जोली बनाम पंजाब राज्य 1979.2 एस0सी0आर0 805
        धाराऐ 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित        
       करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट
        रक्षा का अधिकार प्राप्त है एतो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक धारा
        100 के तहत विस्तारित होता है यदि युक्तियुक्त आंयाका हो कि मृत्य या
        घोर उपहति हमले का परिणाम होगी

       सलीम जिया बनाम उ0प्र0राज्य1979.2 एसण्सीण्आरण्.394 में
इस न्यायालय का अक्सर प्रोद्वरित सम्प्रेक्षण
        निम्नानुसार हैरू.
           यह असत्य है कि आत्मरक्षा का अभिवचन स्थापित करने का
            अभियुक्तो पर भार इतना अधिक दुर्भर नहीं है जितना अभियोजन
            होता है और यह कि जवकि अभियोजन से अपना मामला यूक्ति.
            युक्त शंका से परे प्रमाणित  करने की अपेक्षाकी जाती है तो अभि.
            युक्त को इस अभिवचन को मुठिया तक साबित करने की आवश्क्ता
            नहीं है और उसका भार या तो अभियोजन साक्षीगण के प्रतिपरीक्षण
            में उस अभिवचन के लिये आधार रखने के द्वारा या वचाव साक्ष्य
            प्रस्तुत करने के द्वारा संभावनाओं की मात्र वाहुल्यता स्थापित करने
            के द्वारा उन्मोचित किया जा सकेगा। ष्ष्
            अभियुक्त को युक्तियुक्त शंका से परे प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के
            अस्तित्व को साबित करने की आवश्यक्ता नहीं है । उसे यह दर्शानो के       
            लिये पर्याप्त होगा एयथा सिविल मामले में उसके अभिवचन के हित में
            संभावनाओं की वाहुल्यता होती है ।


        7. यह अबधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था सुरक्षित मानदंड
        सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । इसे सर्वभोमिक नियम के रूप
        में चर्णित नहीं किया जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर
        क्षतियॉ पाई जाती है तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि
        अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी    
       बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस
        प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
        घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की     
       गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है परन्तु    
       अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन प्रक्रम को
        बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकेगा  यह सिद्धान्त उन मामलों में लागू
        होता है जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है और उपरी 
        तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट ओर अकाटस है।
        इतने अधिक स्वतंत्र एंव हितबद्ध नहीं है इतने अधिक संभाव्य सुसगंत और
        विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये        
       अभियोजन के द्वारा लोप के प्रभाव को दवा देता है
    । लक्ष्मीसिंह बनाम  बिहार राज्य ए0आई0आर0 1976 एस0सी0.2263ए



        प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया
        जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
      अभियुक्त को उपलव्ध है तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर
      घोर एंव धातक क्षति करने का अवसर  मिला होगा ।
      यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को
        उपलव्ध है तो सम्पूर्ण घटना की साबधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये
        और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
       धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यवहत करती है ।
   


 अधिकार का अभिवचन

1. अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के            या
 2. किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है और




        यह अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद् व किसी अपराध की दशा में
         किया जा सकेगा एंव चारी लूट रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों
         और संपति के संबंध्स में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा  .99
         प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।


 धारा 96
        और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का
         अधिकार प्रदत्त करती है । धाराओं 96 से 98 के तहत प्रदत्त किये गये
         अधिकार और 100 से 106 तकए धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।



        स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये
        कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के
        लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पत्ति प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ
        अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट 
        प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था







        धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा 
        परिभाषित करती है।
.    धाराऐं 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपति क्रमशः की    
       प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यवहत करती है




        अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही  शरीर ािक अपराध कारित
        करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है ।
       यद्यपि अपराध नहीं किया होगा एपरन्तु उस समय तक नहीं जब
        युकितयुक्त आंशका नहीं होती है । यह अधिकार तब तक बना रहता है
        जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।





        जयदेव बनाम पंजाब राज्य 1963 .3 एसण्सीण्आरण्489 में यह सम्प्रेक्षित
        किया गया था कि ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता 
        है और धमकी या तो समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है एतो
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का कोई अवसर नहीं
        हो सकता ।
   


   9.    यह पता करने के लिये क क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
        उपलव्ध है या नहीं अभियुकतों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षाको धमकी
        की आंशकाएअभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या
        अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारी गण के पास जाने का समय था और
        समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।



 एक समान  अभिमत इस न्यायालय द्वारा बिरनसिंह बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण्
             1975    एसण्सीण्.87
देखो
 वासन सिंह बनाम पंजाब राज्य पुलिस निरीक्षक
        तामिलनाडु द्वारा प्रतिनिधित्व एजेण्टीण् 2002 .8 एसण्सीण्.21
.2002 .8
        एसण्सीण्सीण्.354



        10. बूटासिह बनाम पंजाब राज्य जेण्टीण् 1991 .5 एसण्सीण् 366 ए

ए0आई0 आर0 1991 एसण्सीण्.1316 मंे
 यथा नोट किया गया कि कोई व्यक्ति

 एजो
        मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है एको उस क्षण में और
        परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों एजो हथियारों स लैस थेए को
        निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों मेंमापा
        नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में
        पक्षकार गण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव
        उसे आशकित खतरे के समनरूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल
        का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता हेए जहां हमला बल का
        प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने
        के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन
        जाती है । ऐसी स्थितियों को साकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये
        और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्कीसी या मामूली सी गल्ती का
        पता लगाने के लिये दूरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । यह विचारण
        करने में उसे सम्यक महत्व दिया जाना चाहिये ओर अति तकनीकी दृष्टि
        कोण नहीं अपनाना चाहिये कि धटना स्थल पर क्षणिक आवेश में क्या
        हो जाता है एंव साधारण मानव प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुये तथा
        आचरण को ध्यान मेंरखते हुये एजहां आत्मरक्षा सर्वोपरि विचारण होता हे
        वरन्तु यदि तथ्यात्मक स्थति यह दर्शाती है कि आत्रक्षा के भेष में वास्तव
        जो किया जा चुका है वह  है मूल आक्रामक पर हमला करना एयहंा
        तक कि युक्तियुक्त आश्ंाका का कारण समाप्त हो जाने के पश्चातए आत्म
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन को बैध रूप से नामंजूर किया जा सकता
        है । इस अभिवचन को व्यवहत करने वाली न्यायालय को इस निष्कर्ष पर
        पहंुचने के लिये सामग्री का मूल्याकन करना चाहिये कि क्या वह            
  अभिवचन स्वीकार किये जाने योग्य है । यथा उपर नोट किया एआवश्यक
        रूप से यह तथ्य का नष्कर्ष है ।





        11. आत्मरक्षा का अधिकार अति महत्वपूर्ण अधिकार हैएजो सामाजिक
        प्रयोजन की सेवा करता है और इसका संकुचित रूप से अर्थान्वयन नहीं 
        किया    जाना चाहिये । ;देखिये विद्यासिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0
        आर0 1971 एवण्सीण्1857एद्ध ।



       स्थितियांे का आकलन जोखिम की सिथति से सामना करके
       क्षण भर के समीपी आवेश ओर भ्रम में संबंधित अभियुक्त के विषय
     परक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये तथा किसी दूरबीन से
       नहीं । इस प्रश्न को आंकलित करने के में कि क्या आपश्यक से अधिक
       बल विद्यमान परिस्थितियों में घटना स्थल पर प्रस्तुत किया गया था तो
        विलग वस्तुनिष्ठता द्वारा परीक्षाऐं अपनाने के लियेए इस न्यायालय द्वारा
        यथा ठहराया गया अनुपयुक्त होगाए जो न्यायालयीन कक्ष में अत्यधिक
        नैसर्गिक होगा या यह कि जो पूर्णतः वहां तिद्यमान एशांतएव्यक्ति के लिये
        आत्यंतिक रूप से आवश्यक होना प्रतीत होगा । व्यक्ति जो स्वंय को     
        धमकी की युक्तियुक्त आंशका का सामना कर रहा है एसे साधारण समय
        में या साधारण परिस्थितियों के अधीनए जो व्यक्ति की सोेंच में अपेक्षित    
        होता हैए केवल उतना वास्तविक रूप से किसी गणित के समान सीढी दर
        सीढी उसकी प्रतिरक्षा को अपनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।






        12.  रसेल ;रसेल ऑन क्राईमए ग्यारहवां संस्करण भाग.1 पृष्ठ 49द्धके
        दैदिप्यमान शब्दो मेंरू
          ष्ष्ण्ण्ण्ण्ण् कोई भी व्यक्ति बल द्वाराकिसी भी व्यकित का विरोध करन में
        न्यायसंगत होताहै ए जो प्रकट रूप से हिंसा द्वारा या तोउसके शरीर या
        वासा या संपति के विरूद्व कोई विदित महा अपराध कारित करने के लिय
        आश्चर्य आशयित करता है ओर प्रयास करता है । इन मामलों में उससे
        वापस लोटने की अपेक्षा नही की जाती और मात्र हमले का विरोध नहीं    
        कर सकेगा एजहां तक वह खड़ा हुआ है एपरन्तु वास्तव में उसकी    
        विपत्तियों ये सामना करेा जब तक कि खतरासमाप्त नहीं हो जाता और
        यदि उनके मध्य लड़ाई में वह उसके हमलावर कीहत्या कर देता हैए तो
        ऐसी हत्या करना न्यायसंगत है





        13. प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शासित विधान अर्थात भाण्दंण्संण् द्वारा        
        जनित आवश्यक रूप से प्रतिरक्षात्मक अधिकार है एजो केवल उस समय
        उपलव्ध होता है एजब परस्थितियॉ उसे सपष्ट रूप से न्यायसंगत ठहराती
        हैं । इसे अभिवचन करन के लिये या बदला लेने के लिये या अपराध को
        कारित करने क प्रयोजन के लिये बहाने के रूप मंे प्रयोग करने हेतु        
       अनुज्ञात नही किया जाना चाहिये । यह प्रतिरक्षा का अधिकार है प्रतिकार
        का नहीं जिससे अबैध आक्रमण को  दूर हटाने की अपेक्षा की जाती है
        और बदला लेने के उपाय के रूप में नहीं । अधिकार के अनुप्रयोग के     
        लिये उपबंधित करते समय भाण्दण्संण् में सावधानी वरती गयी है एऐसा कोई
        तंत्र उपबंधित नहीं करे और कोई युकित नहीं निकाले एजिसके द्वारा        
       आक्रमण हत्या करने क  बहाना हो । प्रतिरक्षा करने का अधिकार कोई
        अपराध संस्थित करने का अधिकार शामिल नही करताए विशेषकर  जब
        प्रतिरक्षा करने की आवश्यक्ता अब शेष न बची हो ।
 ;देखो वी0 सुब्रमणी
        व अन्य बनाम तामिलनाडू राज्य एजे0टी0 2005द्ध;3द्धएस0सी0.82ए 2005;10द्ध
        एस0सी0सी0.358










        19.    बिस्ना उर्फ बिस्वदेब महतो एंव अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य ए
        जे0टी0 2005 ;9द्धएसण्सीण्.290 में
 इस न्यायालय ने ठहराया है कि ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
        उत्तेजना के क्षणों और अव्यवस्थित संतुलन में पक्षकारगण से संतुलन
        बनाये रखने और वास्तविक रूप से उसे आंशकित खतरे के समनुरूप
        बदले में केबल उतने ही बल का उपयोग करने की अपेक्षा करना अक्सर
        कठिन होता है एजहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा सन्निकट होता
        है । समस्त परिस्थितियों को ठीक से देखने की आवश्यक्ता हाती है और
        अति तकनीकी दृष्टिकोण टालना चाहिये ।




        20.    प्रायवेट प्रतिरक्षा किसे कहा जायेगा को निम्नलिखित निबन्धनो में
        तद्धीन बर्णित किया गया था .
            ष्ष् प्रायवेट प्रतिरक्षा का उपयोग अबैध बल को रोकने एअबैध बल को
        प्रवरित करने एअबैध पिरोध को टालने ओर ऐसे निरोध से बवने के लिये
        किया जा सकता है । जहां तक अतिचारी के विरूद्व भूमि की प्रतिरक्षा का
        संबंध हैए तो व्यक्तिए अतिचारी को बेदखल करने के लिये या अतिचार
        प्रवरित करने के लिये आवश्यक और मध्यम प्रकार के बल का उपयोग
        करने का हकदार है । पूर्वोक्त प्रयोजनो के लिये बल का प्रयोग न्यूनतम
        आवश्यक या युक्तियुक्त रूप से आवश्यक होने का विश्वास करना चाहिये
        युक्तियुक्त प्रतिरक्षा के अनुपातिक अभिरक्षा अभिप्रेत होगी । साधारणतया
        अतिचारी से पहले प्रस्थान करने के लिये कहा जायेगा और दि अतिचारी
        वापस लड़ाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग कर सकता है ।
        परन्तु निवासीय मकान की प्रतिरक्षा भिन्न आधार परस्थित होती है । विधि
        को हमेशा व्यक्ति जो उसके निवास स्थान की उन व्यक्तियों के विरूद्व        
       प्रतिरक्षा कर रहा है एजो अबैध रूप से उसे बेदखल कर देगें एपर विशेष
        लिप्त्ता के साथ प्रत्येक व्यक्ति का घर उसके लिये उसका गढ़ और
        किला होता हैए के समान देखी जाती है । ।




        21.    यह राय दी गई कि प्रायवेट प्रतिरक्षा और अपराध का निवारण
        कभी कभी अविभेदकारी होताहे । यह ठहराया गया था कि ऐसे अधिकार
        का अनुप्रयोग किया जा सकता थाए क्योकि दुःसाहस को प्रवरित करने के
        लिये अपरिचतों के मध्य यथा साधारण स्वतंत्रता होती है ।






        22.    बलराम बनाम राजस्थान राज्य जेण्टीण् 2005;10द्धएसण्सीण्168 में इस
        न्यायालय ने यह अवेक्षा करने पर कि अपीलार्थी ने कृषि भूमियों से गुस्से
        में बे कब्जा कर दिया था और आगे एतस्मिन अपीलार्थी द्वारा मृतक के
        माथे पर केवल एक मुक्का मारा गया था एतो उसकी प्रायवेट प्रतिरक्षा  के
        अधिकार को स्वीकार किया गया एपरन्तु यह अभिनिर्धारित करते हुये राय
        दी गई कि उसने उक्त अधिकार से अधिक कार्य किया था ।
        28.    इस प्रकरण के तथ्य और परिस्थितियों में और उनके द्वारा की गई
        प्रतिरक्षा के आलेक में हम इस अभिमत के हैं कि अभियोजन के लिये
        अपीलार्थीगण के शरीर पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करना अनिवार्य था ।
        बिस्ना उर्फ बीस्वदेव महतो एव अन्य में इस न्यायालय ने ठहराया ।

            ष्ष् अभियुक्त पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करने की बिफलता के बारे
        में तथ्य प्रकरण दर प्रकरण भिन्न होते हैं । जबकि अभियुक्त द्वारा वहन
        की क्षतियों का अस्पष्टीकरण वचाव बृतांत को संभावित करता है कि
        अभियोजन पक्ष ने पहले हमला किया था एकिसी प्रदत्त स्थिति में यह
        ठहराना भी संभव हो सकेगा कि अभियुक्त द्वारा उसकी क्षति के बारे में
        दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं है और अभियोजन साक्षीगणके
        कथन उन्हें पूर्णतः स्पष्ट करते हैं और इस प्रकार का ठहराना संभव है
        कि अभियुक्त ने वह अपराध कारित किया थाए जिसके लिये उसे आरोपित
        किया गया था । जहां दोनो तरफ के लोगो द्वारा क्षतियॉ वहन की गई
        हों और जब दोनो पक्षकारगण ने घटना की उत्पत्ति के कारण को
        छिपाया हो या जहां आशिक सत्य प्रकटकिया गया होए वहां अभियोजन
        विफन हो सकेगा । परन्तु साधारण निबन्धनो में कोई भी विधि इस
        निमित्त प्रतिपादित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक प्रकरणएजाहे अभियोजन
        अभियुक्त के शरीर पर लगी प्रत्येक क्षतियों को स्पष्ट करने में बिफल हो
        जाता है तो उसे आगे कोई जांच किये बिना निरस्त कर देना चाहिये ।




        बांकेलाल एंव अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एण्आईण्आरण् 1971 एसण्सीण्
ृ      2233 ओर मोहरराय बनाम बिहार राज्य 1968.3 एण्सीण्आरण्552 ।





        29.    परन्तु उस स्थिति में क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक
        नहीं होना ठहराया गया था एक्योंकि तदधीन अपीलार्थीगण भारतीय दंड
        सहिता की धारा 148 के तहत अपराध कारित करने के दोषी पाये गये थे
        वर्तमान प्रकरण में एअभियोजन समस्त युक्तियुक्त शंका से परे यह साबित
        करने में समर्थ नहीं रहा है कि अपीलार्थीगण आक्रामकगण थे । अभियोजन
        अपीलार्थीगण द्वारा व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये कोई सामान्य
        आशय स्थापित करने में भी समर्थ नही रहा है ।


 मुन्ना चंदा बनाम  आसाम राज्य जेण्टीण् 2006 .3 एसण्सीण्36 में इस न्यायालय ने ठहराया ।





        ष्ष् इस प्रकार यह साबित करना आवश्यक है कि धारा 149 की मदद से
        अपराध के साथ आरोपित किये जाने ईप्सा किया गया व्यक्ति उस समय
        जब अपराध कारित किया गया थाए विधि विरूद्व का जमाव का एक
        सदस्य था ।
        एतस्मिन अपीलार्थीगण हथियारों से लेस नहीं थे भुटटू को छोड़कर एवे
        विवाद के समस्त तीनो प्रक्रमों पर पक्षकारगण नहीं थे । झगड़े के तृतीय
        प्रक्रम पर वे मृतक और अन्य लोगों को पाठ पढ़ाना चाहते थे । भुटटू ने
        झगड़ा करने के लिये वे उत्तेजित हो गये थे और मोती से क्षमा याचना
        की थी । स्वीकार्यतः ऐसा निर्मल की प्रेरणा पर किया गया था एभुटटू
        द्वारामोती पर हमला रतन की प्रेरणा से किया गया था । परन्तु यह नहीं
        कहा जा सकता कि वे मृतक की साशय हत्या करने का साधारण अभि.
        प्राय रखते थे । परन्तु मोती पर हमला करते समय वह स्वयं को
        अपीलार्थी की पकड़ से छुड़ा सकता था और परिदृष्य से ओझल हो
        सकता था। मृमक का न केवल एतस्मिन अपीलार्थीगण द्वारा पीछा किया
        गया थाए बल्कि कई अन्य लोगो के द्वारा भी । अगली सुबह वह मृत पाया
        गया था । एपरन्तु यह दर्शाने के लिये कुछ नही है कि अपीलार्थीगण या
        तो सामूहिक रूप से या पृथक पृथक कोन सी भूमिका निभाई गई थी ।
        यह भी विदित नहीं हे कि क्या कोई एक या समस्त अपीलार्थीगण हाजिर
        थे एजब अंतिम प्रहार किया गया था । वे कौन लोग थे एमृमक पर किसने
        हमला किया थाए भी विदित नहीं है किसके हाथो से उसे क्षतियॉ लगी थी
        पुनः एक रहस्य है । इसलिये भारतीय दंड सहिता की न तो धारा 34 न
        धारा 149 आकर्षित हाेेती है ।


 धरमपाल एंव अन्य बनाम हरियाणा राज्य 1978 एसण्सीण्सीण्.440 और
 शम्भू  कुंअर बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण् 1982 एसण्सीण्1228
        परन्तु हम यह नहीं भूलते हें कि

 बिस्ना उर्फ विस्वदेव महतो एंव अन्य
        बनाम वश्चिम बंगाल राज्य जेण्टीण्2005 .9 एसण्सीण्290 में यह कहा गया
        था ।
        ष्ष् धारा 149 और या 34 भाण्दंण्संण् आकर्षित करने के प्रयोजन के लिये
        अभियुक्त के द्वारा कोई विनिर्दिष्ट खुला कृत्य आवश्यक नही है । वह
        प्रतिक्षा कर सकेगा और अभियुक्त के द्वारा अकर्मण्यता को देख सकेगा
        कभी कभी यह ठहराने में बहुत मदद कर सकेगा कि उसने अन्य लोगों के
        साथ सामान्य अभिप्राय में भाग लिया था ष्ष् ।


                                                        उमेष कुमार गुप्ता













उच्चतम न्यायलय ने पूरणसिंह और अन्स बनाम राज्य;ए0आई0आर01975 सुप्रीम कोर्ट 1674द्ध के मामले में संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अबलम्बन लेने के लिये चार परिस्थितियॉ उपदर्शित की थी एंप पैरा 11 मेंइस प्रकार सम्प्रेक्षित किया थारू.



 1त्र       ष्ष् कब्जे की प्रकृतिए जो अतिचारी संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा
               के अधिकार का अनुप्रेयोग करने का हकदार बना सकेगी में निम्नलिखित
               गुण होना चाहियेरू.
     1.    अतिचारी के पास पर्याप्त रूप से लम्बे समय से संपति का वास्तविक
             भौतिक कब्जा होना चाहिये ।

     2.    कब्जा मालिक के अभिव्यक्त या विवक्षित ज्ञान में छिपाने के किसी प्रयास
            के बिना होना चाहिये ओर जो कब्जे का आशय का तत्व अन्तर्वलित करता है ।
            अतिचारी के कब्जे की प्रकृति प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एंव
            परिस्थितियों पर विनिश्चित किये जाने वाला विषय होगा ।

    3.    अतिचारी द्वारा वास्तविक मालिक के वेकब्जे की प्रक्रिया पूर्ण और अंतिम
           होनी चाहिये एंव वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और

    4.    व्यवस्थापितकजे की गुणबत्ता अवधारित करने के लिये प्रायिक परीक्षाओं
        में से एक खेती योग्य भूमि की दशा में यह होगी कि क्या अतिचारी कटजा
        प्राप्त करने के पश्चात कोई फसल उगा चुका था या नहीं ।
        यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी थी तब  यहां तक कि वास्तविक
        मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई
        अधिकार नहीं है उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का
        अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई
        अधिकार नहीं होगा ।





 ।




    2त्र    काशीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0.290
         निर्दिष्ट किया गया. आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार
        अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है जितना कि अभियोजन
        का होता है और यह कि जवकि अभियोजन को उसका मामला युक्ति.
        युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता नहीं होती है।
 अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है ओरया तो  उस अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके उसके भार का निवर्हन कर सकेगा ।
        अभियोजन साक्षीगण के प्रति.परीक्षण में या वचाव साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा;
      सली  जिया बनाम उततर प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1979 एस0सी0.391  अबलंबितद्ध






3.      प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों
        में नहीं मापा जा सकता ;अमजद खान बनाम मध्यप्रदेश राज्यए0आई0आर
        1952 एस0सी0165 अबलबित चूकि अपीलार्थी का भगवान की हत्या     
        करने  का कोई आशय नहीं थाएउसका कार्य धारा 308 के तहत अपराध
        समझा गया था जवकि उसके द्वारा वहन की गई क्षतियो ने पलिस        
        पदाधिकारीगण को भा0दं0सं0 की धारा 325 के तहत अपराध के लिये        
        उत्तरदायी ठहराया था । इस प्रकार तथ्यों पर भी यह निष्कर्ष निकालना
        संभव नहीं है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार कप अतिक्रमण किया गया
        था ।





4.      एक मात्र प्रश्न जो विचारण किये जाने योग्य है वह है प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अभिकथित अनुप्रयोग । धारा 96 भा0दं0सं0 उपबंधित
        करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा अभियव्यक्ति प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार को परिभाषित नहीं करती एयह मात्र इंगित करती
        है कि कोई भी कार्य नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किय  जाता है



5      क्या परिस्थितियों के एक विशिष्ट समूह में किसी व्यक्ति ने बैघ
       रूप से प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कार्य किया था   
       प्रत्येक प्रकरण केतथ्यों एंव परिस्थितियों पर अबधारित किये जाने वाला
       तथ्य का एक प्रश्न है । ऐसे प्रश्न को अबधारित करने के लिये
     काल्पनिक  रूप से परीक्षाप्रतिपादित नहीं की जा सकती ।



5त्र  तथ्य के इस प्रश्न क  अबधारित करने में न्यायालय को समस्त आस
     पास की परिस्थितियो क विचारण में लेना चाहिये । अभियुक्त के लिये कई
    शब्दो में अभिवच करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है कि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा
     में कार्य  किया था यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के
     अधिकार का बैध रूप से अनुप्रयोग किया था तो न्यायालय ऐसे अभिवचन
     का विचारण करने में स्वंतत्र होती हे । प्रदत्त मामले में न्यायालय इसका
     विचारण करसकती है एयहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है
     यहां तक कि यदि वह अभिलेखगत सामग्री से विचारण के लिये उपलव्ध
     हे।


6त्रत्र भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के
     तहत सबूत का भार अभियुक्त पर होता है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का        
     अभिवचन  उठाता है और सबूत के अभाव में न्यायालय के लिये आत्मरक्षा
     के अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है ।        
     न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। अभियुक्त के
     द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा या अभियोजन
     के लिये जांचे गये साक्षियों से आवश्यक तथ्य निकालने के द्वारा अभिलेख
        पर आवश्यक सामग्री रखना निर्भर करता है ।




       प्रायवेट प्रतिरक्षा के  अधिकार का अभिवचन करने वाला अभियुक्त को
     आवश्यक रूप से साक्ष्य बलाने की कोई आवश्यक्ता नहीं हे वह उसके
     अभिवचन को अभियोज  साक्ष्य स्वयमेव से प्रकट करती हुई परिस्थितियों
       का संदर्भ लेकर उसके अभिचवन को स्थपित कर सकता है । ऐसे मामले
     में प्रश्न अभियोजन  साक्ष्य के सत्य प्रभाव के निर्धारण करने का प्रश्न होगा और अभियुक्त
       द्वारा कोई भार का निवर्हन करने का प्रश्न नहीं  होगा
     

 जहां प्रायवेट प्रति रक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त
 और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि
  अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानी हमले को बिफल करने के लिये या
  अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के        
  लिये आवश्यक थी आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है
  और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में
  संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा उन्मोचित किया गया स्थित         
  होता है।



।;मुंशीराम ंव अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन 1968 .2 एस0सी0आर 455ए

गुजरात राज्य बनाम बाई फातमाए1975.3एसण्सीण्आरण् 993
 उत्तर  प्रदेश राज्य बनाम मो0 मुशिर खान ए0आई0आर0 1977 एस0सी02226
        और
 मोहिन्दर पाल जोली बनाम पंजाब राज्य 1979.2 एस0सी0आर0 805
        धाराऐ 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित        
       करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट
        रक्षा का अधिकार प्राप्त है एतो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक धारा
        100 के तहत विस्तारित होता है यदि युक्तियुक्त आंयाका हो कि मृत्य या
        घोर उपहति हमले का परिणाम होगी

       सलीम जिया बनाम उ0प्र0राज्य1979.2 एसण्सीण्आरण्.394 में
इस न्यायालय का अक्सर प्रोद्वरित सम्प्रेक्षण
        निम्नानुसार हैरू.
           यह असत्य है कि आत्मरक्षा का अभिवचन स्थापित करने का
            अभियुक्तो पर भार इतना अधिक दुर्भर नहीं है जितना अभियोजन
            होता है और यह कि जवकि अभियोजन से अपना मामला यूक्ति.
            युक्त शंका से परे प्रमाणित  करने की अपेक्षाकी जाती है तो अभि.
            युक्त को इस अभिवचन को मुठिया तक साबित करने की आवश्क्ता
            नहीं है और उसका भार या तो अभियोजन साक्षीगण के प्रतिपरीक्षण
            में उस अभिवचन के लिये आधार रखने के द्वारा या वचाव साक्ष्य
            प्रस्तुत करने के द्वारा संभावनाओं की मात्र वाहुल्यता स्थापित करने
            के द्वारा उन्मोचित किया जा सकेगा। ष्ष्
            अभियुक्त को युक्तियुक्त शंका से परे प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के
            अस्तित्व को साबित करने की आवश्यक्ता नहीं है । उसे यह दर्शानो के       
            लिये पर्याप्त होगा एयथा सिविल मामले में उसके अभिवचन के हित में
            संभावनाओं की वाहुल्यता होती है ।


        7. यह अबधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था सुरक्षित मानदंड
        सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । इसे सर्वभोमिक नियम के रूप
        में चर्णित नहीं किया जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर
        क्षतियॉ पाई जाती है तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि
        अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी    
       बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस
        प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
        घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की     
       गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है परन्तु    
       अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन प्रक्रम को
        बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकेगा  यह सिद्धान्त उन मामलों में लागू
        होता है जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है और उपरी 
        तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट ओर अकाटस है।
        इतने अधिक स्वतंत्र एंव हितबद्ध नहीं है इतने अधिक संभाव्य सुसगंत और
        विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये        
       अभियोजन के द्वारा लोप के प्रभाव को दवा देता है
    । लक्ष्मीसिंह बनाम  बिहार राज्य ए0आई0आर0 1976 एस0सी0.2263ए



        प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया
        जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
      अभियुक्त को उपलव्ध है तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर
      घोर एंव धातक क्षति करने का अवसर  मिला होगा ।
      यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को
        उपलव्ध है तो सम्पूर्ण घटना की साबधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये
        और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
       धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यवहत करती है ।
   


 अधिकार का अभिवचन

1. अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के            या
 2. किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है और




        यह अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद् व किसी अपराध की दशा में
         किया जा सकेगा एंव चारी लूट रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों
         और संपति के संबंध्स में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा  .99
         प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।


 धारा 96
        और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का
         अधिकार प्रदत्त करती है । धाराओं 96 से 98 के तहत प्रदत्त किये गये
         अधिकार और 100 से 106 तकए धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।



        स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये
        कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के
        लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पत्ति प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ
        अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट 
        प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था







        धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा 
        परिभाषित करती है।
.    धाराऐं 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपति क्रमशः की    
       प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यवहत करती है




        अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही  शरीर ािक अपराध कारित
        करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है ।
       यद्यपि अपराध नहीं किया होगा एपरन्तु उस समय तक नहीं जब
        युकितयुक्त आंशका नहीं होती है । यह अधिकार तब तक बना रहता है
        जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।





        जयदेव बनाम पंजाब राज्य 1963 .3 एसण्सीण्आरण्489 में यह सम्प्रेक्षित
        किया गया था कि ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता 
        है और धमकी या तो समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है एतो
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का कोई अवसर नहीं
        हो सकता ।
   


   9.    यह पता करने के लिये क क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
        उपलव्ध है या नहीं अभियुकतों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षाको धमकी
        की आंशकाएअभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या
        अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारी गण के पास जाने का समय था और
        समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।



 एक समान  अभिमत इस न्यायालय द्वारा बिरनसिंह बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण्
             1975    एसण्सीण्.87
देखो
 वासन सिंह बनाम पंजाब राज्य पुलिस निरीक्षक
        तामिलनाडु द्वारा प्रतिनिधित्व एजेण्टीण् 2002 .8 एसण्सीण्.21
.2002 .8
        एसण्सीण्सीण्.354



        10. बूटासिह बनाम पंजाब राज्य जेण्टीण् 1991 .5 एसण्सीण् 366 ए

ए0आई0 आर0 1991 एसण्सीण्.1316 मंे
 यथा नोट किया गया कि कोई व्यक्ति

 एजो
        मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है एको उस क्षण में और
        परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों एजो हथियारों स लैस थेए को
        निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों मेंमापा
        नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में
        पक्षकार गण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव
        उसे आशकित खतरे के समनरूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल
        का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता हेए जहां हमला बल का
        प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने
        के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन
        जाती है । ऐसी स्थितियों को साकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये
        और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्कीसी या मामूली सी गल्ती का
        पता लगाने के लिये दूरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । यह विचारण
        करने में उसे सम्यक महत्व दिया जाना चाहिये ओर अति तकनीकी दृष्टि
        कोण नहीं अपनाना चाहिये कि धटना स्थल पर क्षणिक आवेश में क्या
        हो जाता है एंव साधारण मानव प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुये तथा
        आचरण को ध्यान मेंरखते हुये एजहां आत्मरक्षा सर्वोपरि विचारण होता हे
        वरन्तु यदि तथ्यात्मक स्थति यह दर्शाती है कि आत्रक्षा के भेष में वास्तव
        जो किया जा चुका है वह  है मूल आक्रामक पर हमला करना एयहंा
        तक कि युक्तियुक्त आश्ंाका का कारण समाप्त हो जाने के पश्चातए आत्म
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन को बैध रूप से नामंजूर किया जा सकता
        है । इस अभिवचन को व्यवहत करने वाली न्यायालय को इस निष्कर्ष पर
        पहंुचने के लिये सामग्री का मूल्याकन करना चाहिये कि क्या वह            
  अभिवचन स्वीकार किये जाने योग्य है । यथा उपर नोट किया एआवश्यक
        रूप से यह तथ्य का नष्कर्ष है ।





        11. आत्मरक्षा का अधिकार अति महत्वपूर्ण अधिकार हैएजो सामाजिक
        प्रयोजन की सेवा करता है और इसका संकुचित रूप से अर्थान्वयन नहीं 
        किया    जाना चाहिये । ;देखिये विद्यासिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0
        आर0 1971 एवण्सीण्1857एद्ध ।



       स्थितियांे का आकलन जोखिम की सिथति से सामना करके
       क्षण भर के समीपी आवेश ओर भ्रम में संबंधित अभियुक्त के विषय
     परक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये तथा किसी दूरबीन से
       नहीं । इस प्रश्न को आंकलित करने के में कि क्या आपश्यक से अधिक
       बल विद्यमान परिस्थितियों में घटना स्थल पर प्रस्तुत किया गया था तो
        विलग वस्तुनिष्ठता द्वारा परीक्षाऐं अपनाने के लियेए इस न्यायालय द्वारा
        यथा ठहराया गया अनुपयुक्त होगाए जो न्यायालयीन कक्ष में अत्यधिक
        नैसर्गिक होगा या यह कि जो पूर्णतः वहां तिद्यमान एशांतएव्यक्ति के लिये
        आत्यंतिक रूप से आवश्यक होना प्रतीत होगा । व्यक्ति जो स्वंय को     
        धमकी की युक्तियुक्त आंशका का सामना कर रहा है एसे साधारण समय
        में या साधारण परिस्थितियों के अधीनए जो व्यक्ति की सोेंच में अपेक्षित    
        होता हैए केवल उतना वास्तविक रूप से किसी गणित के समान सीढी दर
        सीढी उसकी प्रतिरक्षा को अपनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।






        12.  रसेल ;रसेल ऑन क्राईमए ग्यारहवां संस्करण भाग.1 पृष्ठ 49द्धके
        दैदिप्यमान शब्दो मेंरू
          ष्ष्ण्ण्ण्ण्ण् कोई भी व्यक्ति बल द्वाराकिसी भी व्यकित का विरोध करन में
        न्यायसंगत होताहै ए जो प्रकट रूप से हिंसा द्वारा या तोउसके शरीर या
        वासा या संपति के विरूद्व कोई विदित महा अपराध कारित करने के लिय
        आश्चर्य आशयित करता है ओर प्रयास करता है । इन मामलों में उससे
        वापस लोटने की अपेक्षा नही की जाती और मात्र हमले का विरोध नहीं    
        कर सकेगा एजहां तक वह खड़ा हुआ है एपरन्तु वास्तव में उसकी    
        विपत्तियों ये सामना करेा जब तक कि खतरासमाप्त नहीं हो जाता और
        यदि उनके मध्य लड़ाई में वह उसके हमलावर कीहत्या कर देता हैए तो
        ऐसी हत्या करना न्यायसंगत है





        13. प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शासित विधान अर्थात भाण्दंण्संण् द्वारा        
        जनित आवश्यक रूप से प्रतिरक्षात्मक अधिकार है एजो केवल उस समय
        उपलव्ध होता है एजब परस्थितियॉ उसे सपष्ट रूप से न्यायसंगत ठहराती
        हैं । इसे अभिवचन करन के लिये या बदला लेने के लिये या अपराध को
        कारित करने क प्रयोजन के लिये बहाने के रूप मंे प्रयोग करने हेतु        
       अनुज्ञात नही किया जाना चाहिये । यह प्रतिरक्षा का अधिकार है प्रतिकार
        का नहीं जिससे अबैध आक्रमण को  दूर हटाने की अपेक्षा की जाती है
        और बदला लेने के उपाय के रूप में नहीं । अधिकार के अनुप्रयोग के     
        लिये उपबंधित करते समय भाण्दण्संण् में सावधानी वरती गयी है एऐसा कोई
        तंत्र उपबंधित नहीं करे और कोई युकित नहीं निकाले एजिसके द्वारा        
       आक्रमण हत्या करने क  बहाना हो । प्रतिरक्षा करने का अधिकार कोई
        अपराध संस्थित करने का अधिकार शामिल नही करताए विशेषकर  जब
        प्रतिरक्षा करने की आवश्यक्ता अब शेष न बची हो ।
 ;देखो वी0 सुब्रमणी
        व अन्य बनाम तामिलनाडू राज्य एजे0टी0 2005द्ध;3द्धएस0सी0.82ए 2005;10द्ध
        एस0सी0सी0.358










        19.    बिस्ना उर्फ बिस्वदेब महतो एंव अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य ए
        जे0टी0 2005 ;9द्धएसण्सीण्.290 में
 इस न्यायालय ने ठहराया है कि ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
        उत्तेजना के क्षणों और अव्यवस्थित संतुलन में पक्षकारगण से संतुलन
        बनाये रखने और वास्तविक रूप से उसे आंशकित खतरे के समनुरूप
        बदले में केबल उतने ही बल का उपयोग करने की अपेक्षा करना अक्सर
        कठिन होता है एजहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा सन्निकट होता
        है । समस्त परिस्थितियों को ठीक से देखने की आवश्यक्ता हाती है और
        अति तकनीकी दृष्टिकोण टालना चाहिये ।




        20.    प्रायवेट प्रतिरक्षा किसे कहा जायेगा को निम्नलिखित निबन्धनो में
        तद्धीन बर्णित किया गया था .
            ष्ष् प्रायवेट प्रतिरक्षा का उपयोग अबैध बल को रोकने एअबैध बल को
        प्रवरित करने एअबैध पिरोध को टालने ओर ऐसे निरोध से बवने के लिये
        किया जा सकता है । जहां तक अतिचारी के विरूद्व भूमि की प्रतिरक्षा का
        संबंध हैए तो व्यक्तिए अतिचारी को बेदखल करने के लिये या अतिचार
        प्रवरित करने के लिये आवश्यक और मध्यम प्रकार के बल का उपयोग
        करने का हकदार है । पूर्वोक्त प्रयोजनो के लिये बल का प्रयोग न्यूनतम
        आवश्यक या युक्तियुक्त रूप से आवश्यक होने का विश्वास करना चाहिये
        युक्तियुक्त प्रतिरक्षा के अनुपातिक अभिरक्षा अभिप्रेत होगी । साधारणतया
        अतिचारी से पहले प्रस्थान करने के लिये कहा जायेगा और दि अतिचारी
        वापस लड़ाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग कर सकता है ।
        परन्तु निवासीय मकान की प्रतिरक्षा भिन्न आधार परस्थित होती है । विधि
        को हमेशा व्यक्ति जो उसके निवास स्थान की उन व्यक्तियों के विरूद्व        
       प्रतिरक्षा कर रहा है एजो अबैध रूप से उसे बेदखल कर देगें एपर विशेष
        लिप्त्ता के साथ प्रत्येक व्यक्ति का घर उसके लिये उसका गढ़ और
        किला होता हैए के समान देखी जाती है । ।




        21.    यह राय दी गई कि प्रायवेट प्रतिरक्षा और अपराध का निवारण
        कभी कभी अविभेदकारी होताहे । यह ठहराया गया था कि ऐसे अधिकार
        का अनुप्रयोग किया जा सकता थाए क्योकि दुःसाहस को प्रवरित करने के
        लिये अपरिचतों के मध्य यथा साधारण स्वतंत्रता होती है ।






        22.    बलराम बनाम राजस्थान राज्य जेण्टीण् 2005;10द्धएसण्सीण्168 में इस
        न्यायालय ने यह अवेक्षा करने पर कि अपीलार्थी ने कृषि भूमियों से गुस्से
        में बे कब्जा कर दिया था और आगे एतस्मिन अपीलार्थी द्वारा मृतक के
        माथे पर केवल एक मुक्का मारा गया था एतो उसकी प्रायवेट प्रतिरक्षा  के
        अधिकार को स्वीकार किया गया एपरन्तु यह अभिनिर्धारित करते हुये राय
        दी गई कि उसने उक्त अधिकार से अधिक कार्य किया था ।
        28.    इस प्रकरण के तथ्य और परिस्थितियों में और उनके द्वारा की गई
        प्रतिरक्षा के आलेक में हम इस अभिमत के हैं कि अभियोजन के लिये
        अपीलार्थीगण के शरीर पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करना अनिवार्य था ।
        बिस्ना उर्फ बीस्वदेव महतो एव अन्य में इस न्यायालय ने ठहराया ।

            ष्ष् अभियुक्त पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करने की बिफलता के बारे
        में तथ्य प्रकरण दर प्रकरण भिन्न होते हैं । जबकि अभियुक्त द्वारा वहन
        की क्षतियों का अस्पष्टीकरण वचाव बृतांत को संभावित करता है कि
        अभियोजन पक्ष ने पहले हमला किया था एकिसी प्रदत्त स्थिति में यह
        ठहराना भी संभव हो सकेगा कि अभियुक्त द्वारा उसकी क्षति के बारे में
        दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं है और अभियोजन साक्षीगणके
        कथन उन्हें पूर्णतः स्पष्ट करते हैं और इस प्रकार का ठहराना संभव है
        कि अभियुक्त ने वह अपराध कारित किया थाए जिसके लिये उसे आरोपित
        किया गया था । जहां दोनो तरफ के लोगो द्वारा क्षतियॉ वहन की गई
        हों और जब दोनो पक्षकारगण ने घटना की उत्पत्ति के कारण को
        छिपाया हो या जहां आशिक सत्य प्रकटकिया गया होए वहां अभियोजन
        विफन हो सकेगा । परन्तु साधारण निबन्धनो में कोई भी विधि इस
        निमित्त प्रतिपादित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक प्रकरणएजाहे अभियोजन
        अभियुक्त के शरीर पर लगी प्रत्येक क्षतियों को स्पष्ट करने में बिफल हो
        जाता है तो उसे आगे कोई जांच किये बिना निरस्त कर देना चाहिये ।




        बांकेलाल एंव अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एण्आईण्आरण् 1971 एसण्सीण्
ृ      2233 ओर मोहरराय बनाम बिहार राज्य 1968.3 एण्सीण्आरण्552 ।





        29.    परन्तु उस स्थिति में क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक
        नहीं होना ठहराया गया था एक्योंकि तदधीन अपीलार्थीगण भारतीय दंड
        सहिता की धारा 148 के तहत अपराध कारित करने के दोषी पाये गये थे
        वर्तमान प्रकरण में एअभियोजन समस्त युक्तियुक्त शंका से परे यह साबित
        करने में समर्थ नहीं रहा है कि अपीलार्थीगण आक्रामकगण थे । अभियोजन
        अपीलार्थीगण द्वारा व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये कोई सामान्य
        आशय स्थापित करने में भी समर्थ नही रहा है ।


 मुन्ना चंदा बनाम  आसाम राज्य जेण्टीण् 2006 .3 एसण्सीण्36 में इस न्यायालय ने ठहराया ।





        ष्ष् इस प्रकार यह साबित करना आवश्यक है कि धारा 149 की मदद से
        अपराध के साथ आरोपित किये जाने ईप्सा किया गया व्यक्ति उस समय
        जब अपराध कारित किया गया थाए विधि विरूद्व का जमाव का एक
        सदस्य था ।
        एतस्मिन अपीलार्थीगण हथियारों से लेस नहीं थे भुटटू को छोड़कर एवे
        विवाद के समस्त तीनो प्रक्रमों पर पक्षकारगण नहीं थे । झगड़े के तृतीय
        प्रक्रम पर वे मृतक और अन्य लोगों को पाठ पढ़ाना चाहते थे । भुटटू ने
        झगड़ा करने के लिये वे उत्तेजित हो गये थे और मोती से क्षमा याचना
        की थी । स्वीकार्यतः ऐसा निर्मल की प्रेरणा पर किया गया था एभुटटू
        द्वारामोती पर हमला रतन की प्रेरणा से किया गया था । परन्तु यह नहीं
        कहा जा सकता कि वे मृतक की साशय हत्या करने का साधारण अभि.
        प्राय रखते थे । परन्तु मोती पर हमला करते समय वह स्वयं को
        अपीलार्थी की पकड़ से छुड़ा सकता था और परिदृष्य से ओझल हो
        सकता था। मृमक का न केवल एतस्मिन अपीलार्थीगण द्वारा पीछा किया
        गया थाए बल्कि कई अन्य लोगो के द्वारा भी । अगली सुबह वह मृत पाया
        गया था । एपरन्तु यह दर्शाने के लिये कुछ नही है कि अपीलार्थीगण या
        तो सामूहिक रूप से या पृथक पृथक कोन सी भूमिका निभाई गई थी ।
        यह भी विदित नहीं हे कि क्या कोई एक या समस्त अपीलार्थीगण हाजिर
        थे एजब अंतिम प्रहार किया गया था । वे कौन लोग थे एमृमक पर किसने
        हमला किया थाए भी विदित नहीं है किसके हाथो से उसे क्षतियॉ लगी थी
        पुनः एक रहस्य है । इसलिये भारतीय दंड सहिता की न तो धारा 34 न
        धारा 149 आकर्षित हाेेती है ।


 धरमपाल एंव अन्य बनाम हरियाणा राज्य 1978 एसण्सीण्सीण्.440 और
 शम्भू  कुंअर बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण् 1982 एसण्सीण्1228
        परन्तु हम यह नहीं भूलते हें कि

 बिस्ना उर्फ विस्वदेव महतो एंव अन्य
        बनाम वश्चिम बंगाल राज्य जेण्टीण्2005 .9 एसण्सीण्290 में यह कहा गया
        था ।
        ष्ष् धारा 149 और या 34 भाण्दंण्संण् आकर्षित करने के प्रयोजन के लिये
        अभियुक्त के द्वारा कोई विनिर्दिष्ट खुला कृत्य आवश्यक नही है । वह
        प्रतिक्षा कर सकेगा और अभियुक्त के द्वारा अकर्मण्यता को देख सकेगा
        कभी कभी यह ठहराने में बहुत मदद कर सकेगा कि उसने अन्य लोगों के
        साथ सामान्य अभिप्राय में भाग लिया था ष्ष् ।


                                                        उमेष कुमार गुप्ता













उच्चतम न्यायलय ने पूरणसिंह और अन्स बनाम राज्य;ए0आई0आर01975 सुप्रीम कोर्ट 1674द्ध के मामले में संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अबलम्बन लेने के लिये चार परिस्थितियॉ उपदर्शित की थी एंप पैरा 11 मेंइस प्रकार सम्प्रेक्षित किया थारू.



 1त्र       ष्ष् कब्जे की प्रकृतिए जो अतिचारी संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा
               के अधिकार का अनुप्रेयोग करने का हकदार बना सकेगी में निम्नलिखित
               गुण होना चाहियेरू.
     1.    अतिचारी के पास पर्याप्त रूप से लम्बे समय से संपति का वास्तविक
             भौतिक कब्जा होना चाहिये ।

     2.    कब्जा मालिक के अभिव्यक्त या विवक्षित ज्ञान में छिपाने के किसी प्रयास
            के बिना होना चाहिये ओर जो कब्जे का आशय का तत्व अन्तर्वलित करता है ।
            अतिचारी के कब्जे की प्रकृति प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एंव
            परिस्थितियों पर विनिश्चित किये जाने वाला विषय होगा ।

    3.    अतिचारी द्वारा वास्तविक मालिक के वेकब्जे की प्रक्रिया पूर्ण और अंतिम
           होनी चाहिये एंव वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और

    4.    व्यवस्थापितकजे की गुणबत्ता अवधारित करने के लिये प्रायिक परीक्षाओं
        में से एक खेती योग्य भूमि की दशा में यह होगी कि क्या अतिचारी कटजा
        प्राप्त करने के पश्चात कोई फसल उगा चुका था या नहीं ।
        यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी थी तब  यहां तक कि वास्तविक
        मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई
        अधिकार नहीं है उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का
        अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई
        अधिकार नहीं होगा ।





 ।




    2त्र    काशीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0.290
         निर्दिष्ट किया गया. आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार
        अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है जितना कि अभियोजन
        का होता है और यह कि जवकि अभियोजन को उसका मामला युक्ति.
        युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता नहीं होती है।
 अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है ओरया तो  उस अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके उसके भार का निवर्हन कर सकेगा ।
        अभियोजन साक्षीगण के प्रति.परीक्षण में या वचाव साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा;
      सली  जिया बनाम उततर प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1979 एस0सी0.391  अबलंबितद्ध






3.      प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों
        में नहीं मापा जा सकता ;अमजद खान बनाम मध्यप्रदेश राज्यए0आई0आर
        1952 एस0सी0165 अबलबित चूकि अपीलार्थी का भगवान की हत्या     
        करने  का कोई आशय नहीं थाएउसका कार्य धारा 308 के तहत अपराध
        समझा गया था जवकि उसके द्वारा वहन की गई क्षतियो ने पलिस        
        पदाधिकारीगण को भा0दं0सं0 की धारा 325 के तहत अपराध के लिये        
        उत्तरदायी ठहराया था । इस प्रकार तथ्यों पर भी यह निष्कर्ष निकालना
        संभव नहीं है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार कप अतिक्रमण किया गया
        था ।





4.      एक मात्र प्रश्न जो विचारण किये जाने योग्य है वह है प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अभिकथित अनुप्रयोग । धारा 96 भा0दं0सं0 उपबंधित
        करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा अभियव्यक्ति प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार को परिभाषित नहीं करती एयह मात्र इंगित करती
        है कि कोई भी कार्य नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किय  जाता है



5      क्या परिस्थितियों के एक विशिष्ट समूह में किसी व्यक्ति ने बैघ
       रूप से प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कार्य किया था   
       प्रत्येक प्रकरण केतथ्यों एंव परिस्थितियों पर अबधारित किये जाने वाला
       तथ्य का एक प्रश्न है । ऐसे प्रश्न को अबधारित करने के लिये
     काल्पनिक  रूप से परीक्षाप्रतिपादित नहीं की जा सकती ।



5त्र  तथ्य के इस प्रश्न क  अबधारित करने में न्यायालय को समस्त आस
     पास की परिस्थितियो क विचारण में लेना चाहिये । अभियुक्त के लिये कई
    शब्दो में अभिवच करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है कि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा
     में कार्य  किया था यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के
     अधिकार का बैध रूप से अनुप्रयोग किया था तो न्यायालय ऐसे अभिवचन
     का विचारण करने में स्वंतत्र होती हे । प्रदत्त मामले में न्यायालय इसका
     विचारण करसकती है एयहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है
     यहां तक कि यदि वह अभिलेखगत सामग्री से विचारण के लिये उपलव्ध
     हे।


6त्रत्र भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के
     तहत सबूत का भार अभियुक्त पर होता है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का        
     अभिवचन  उठाता है और सबूत के अभाव में न्यायालय के लिये आत्मरक्षा
     के अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है ।        
     न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। अभियुक्त के
     द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा या अभियोजन
     के लिये जांचे गये साक्षियों से आवश्यक तथ्य निकालने के द्वारा अभिलेख
        पर आवश्यक सामग्री रखना निर्भर करता है ।




       प्रायवेट प्रतिरक्षा के  अधिकार का अभिवचन करने वाला अभियुक्त को
     आवश्यक रूप से साक्ष्य बलाने की कोई आवश्यक्ता नहीं हे वह उसके
     अभिवचन को अभियोज  साक्ष्य स्वयमेव से प्रकट करती हुई परिस्थितियों
       का संदर्भ लेकर उसके अभिचवन को स्थपित कर सकता है । ऐसे मामले
     में प्रश्न अभियोजन  साक्ष्य के सत्य प्रभाव के निर्धारण करने का प्रश्न होगा और अभियुक्त
       द्वारा कोई भार का निवर्हन करने का प्रश्न नहीं  होगा
     

 जहां प्रायवेट प्रति रक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त
 और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि
  अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानी हमले को बिफल करने के लिये या
  अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के        
  लिये आवश्यक थी आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है
  और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में
  संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा उन्मोचित किया गया स्थित         
  होता है।



।;मुंशीराम ंव अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन 1968 .2 एस0सी0आर 455ए

गुजरात राज्य बनाम बाई फातमाए1975.3एसण्सीण्आरण् 993
 उत्तर  प्रदेश राज्य बनाम मो0 मुशिर खान ए0आई0आर0 1977 एस0सी02226
        और
 मोहिन्दर पाल जोली बनाम पंजाब राज्य 1979.2 एस0सी0आर0 805
        धाराऐ 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित        
       करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट
        रक्षा का अधिकार प्राप्त है एतो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक धारा
        100 के तहत विस्तारित होता है यदि युक्तियुक्त आंयाका हो कि मृत्य या
        घोर उपहति हमले का परिणाम होगी

       सलीम जिया बनाम उ0प्र0राज्य1979.2 एसण्सीण्आरण्.394 में
इस न्यायालय का अक्सर प्रोद्वरित सम्प्रेक्षण
        निम्नानुसार हैरू.
           यह असत्य है कि आत्मरक्षा का अभिवचन स्थापित करने का
            अभियुक्तो पर भार इतना अधिक दुर्भर नहीं है जितना अभियोजन
            होता है और यह कि जवकि अभियोजन से अपना मामला यूक्ति.
            युक्त शंका से परे प्रमाणित  करने की अपेक्षाकी जाती है तो अभि.
            युक्त को इस अभिवचन को मुठिया तक साबित करने की आवश्क्ता
            नहीं है और उसका भार या तो अभियोजन साक्षीगण के प्रतिपरीक्षण
            में उस अभिवचन के लिये आधार रखने के द्वारा या वचाव साक्ष्य
            प्रस्तुत करने के द्वारा संभावनाओं की मात्र वाहुल्यता स्थापित करने
            के द्वारा उन्मोचित किया जा सकेगा। ष्ष्
            अभियुक्त को युक्तियुक्त शंका से परे प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के
            अस्तित्व को साबित करने की आवश्यक्ता नहीं है । उसे यह दर्शानो के       
            लिये पर्याप्त होगा एयथा सिविल मामले में उसके अभिवचन के हित में
            संभावनाओं की वाहुल्यता होती है ।


        7. यह अबधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था सुरक्षित मानदंड
        सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । इसे सर्वभोमिक नियम के रूप
        में चर्णित नहीं किया जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर
        क्षतियॉ पाई जाती है तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि
        अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी    
       बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस
        प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
        घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की     
       गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है परन्तु    
       अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन प्रक्रम को
        बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकेगा  यह सिद्धान्त उन मामलों में लागू
        होता है जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है और उपरी 
        तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट ओर अकाटस है।
        इतने अधिक स्वतंत्र एंव हितबद्ध नहीं है इतने अधिक संभाव्य सुसगंत और
        विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये        
       अभियोजन के द्वारा लोप के प्रभाव को दवा देता है
    । लक्ष्मीसिंह बनाम  बिहार राज्य ए0आई0आर0 1976 एस0सी0.2263ए



        प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया
        जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
      अभियुक्त को उपलव्ध है तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर
      घोर एंव धातक क्षति करने का अवसर  मिला होगा ।
      यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को
        उपलव्ध है तो सम्पूर्ण घटना की साबधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये
        और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
       धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यवहत करती है ।
   


 अधिकार का अभिवचन

1. अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के            या
 2. किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है और




        यह अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद् व किसी अपराध की दशा में
         किया जा सकेगा एंव चारी लूट रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों
         और संपति के संबंध्स में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा  .99
         प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।


 धारा 96
        और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का
         अधिकार प्रदत्त करती है । धाराओं 96 से 98 के तहत प्रदत्त किये गये
         अधिकार और 100 से 106 तकए धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।



        स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये
        कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के
        लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पत्ति प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ
        अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट 
        प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था







        धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा 
        परिभाषित करती है।
.    धाराऐं 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपति क्रमशः की    
       प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यवहत करती है




        अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही  शरीर ािक अपराध कारित
        करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है ।
       यद्यपि अपराध नहीं किया होगा एपरन्तु उस समय तक नहीं जब
        युकितयुक्त आंशका नहीं होती है । यह अधिकार तब तक बना रहता है
        जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।





        जयदेव बनाम पंजाब राज्य 1963 .3 एसण्सीण्आरण्489 में यह सम्प्रेक्षित
        किया गया था कि ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता 
        है और धमकी या तो समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है एतो
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का कोई अवसर नहीं
        हो सकता ।
   


   9.    यह पता करने के लिये क क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
        उपलव्ध है या नहीं अभियुकतों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षाको धमकी
        की आंशकाएअभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या
        अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारी गण के पास जाने का समय था और
        समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।



 एक समान  अभिमत इस न्यायालय द्वारा बिरनसिंह बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण्
             1975    एसण्सीण्.87
देखो
 वासन सिंह बनाम पंजाब राज्य पुलिस निरीक्षक
        तामिलनाडु द्वारा प्रतिनिधित्व एजेण्टीण् 2002 .8 एसण्सीण्.21
.2002 .8
        एसण्सीण्सीण्.354



        10. बूटासिह बनाम पंजाब राज्य जेण्टीण् 1991 .5 एसण्सीण् 366 ए

ए0आई0 आर0 1991 एसण्सीण्.1316 मंे
 यथा नोट किया गया कि कोई व्यक्ति

 एजो
        मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है एको उस क्षण में और
        परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों एजो हथियारों स लैस थेए को
        निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों मेंमापा
        नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में
        पक्षकार गण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव
        उसे आशकित खतरे के समनरूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल
        का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता हेए जहां हमला बल का
        प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने
        के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन
        जाती है । ऐसी स्थितियों को साकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये
        और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्कीसी या मामूली सी गल्ती का
        पता लगाने के लिये दूरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । यह विचारण
        करने में उसे सम्यक महत्व दिया जाना चाहिये ओर अति तकनीकी दृष्टि
        कोण नहीं अपनाना चाहिये कि धटना स्थल पर क्षणिक आवेश में क्या
        हो जाता है एंव साधारण मानव प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुये तथा
        आचरण को ध्यान मेंरखते हुये एजहां आत्मरक्षा सर्वोपरि विचारण होता हे
        वरन्तु यदि तथ्यात्मक स्थति यह दर्शाती है कि आत्रक्षा के भेष में वास्तव
        जो किया जा चुका है वह  है मूल आक्रामक पर हमला करना एयहंा
        तक कि युक्तियुक्त आश्ंाका का कारण समाप्त हो जाने के पश्चातए आत्म
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन को बैध रूप से नामंजूर किया जा सकता
        है । इस अभिवचन को व्यवहत करने वाली न्यायालय को इस निष्कर्ष पर
        पहंुचने के लिये सामग्री का मूल्याकन करना चाहिये कि क्या वह            
  अभिवचन स्वीकार किये जाने योग्य है । यथा उपर नोट किया एआवश्यक
        रूप से यह तथ्य का नष्कर्ष है ।





        11. आत्मरक्षा का अधिकार अति महत्वपूर्ण अधिकार हैएजो सामाजिक
        प्रयोजन की सेवा करता है और इसका संकुचित रूप से अर्थान्वयन नहीं 
        किया    जाना चाहिये । ;देखिये विद्यासिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0
        आर0 1971 एवण्सीण्1857एद्ध ।



       स्थितियांे का आकलन जोखिम की सिथति से सामना करके
       क्षण भर के समीपी आवेश ओर भ्रम में संबंधित अभियुक्त के विषय
     परक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये तथा किसी दूरबीन से
       नहीं । इस प्रश्न को आंकलित करने के में कि क्या आपश्यक से अधिक
       बल विद्यमान परिस्थितियों में घटना स्थल पर प्रस्तुत किया गया था तो
        विलग वस्तुनिष्ठता द्वारा परीक्षाऐं अपनाने के लियेए इस न्यायालय द्वारा
        यथा ठहराया गया अनुपयुक्त होगाए जो न्यायालयीन कक्ष में अत्यधिक
        नैसर्गिक होगा या यह कि जो पूर्णतः वहां तिद्यमान एशांतएव्यक्ति के लिये
        आत्यंतिक रूप से आवश्यक होना प्रतीत होगा । व्यक्ति जो स्वंय को     
        धमकी की युक्तियुक्त आंशका का सामना कर रहा है एसे साधारण समय
        में या साधारण परिस्थितियों के अधीनए जो व्यक्ति की सोेंच में अपेक्षित    
        होता हैए केवल उतना वास्तविक रूप से किसी गणित के समान सीढी दर
        सीढी उसकी प्रतिरक्षा को अपनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।






        12.  रसेल ;रसेल ऑन क्राईमए ग्यारहवां संस्करण भाग.1 पृष्ठ 49द्धके
        दैदिप्यमान शब्दो मेंरू
          ष्ष्ण्ण्ण्ण्ण् कोई भी व्यक्ति बल द्वाराकिसी भी व्यकित का विरोध करन में
        न्यायसंगत होताहै ए जो प्रकट रूप से हिंसा द्वारा या तोउसके शरीर या
        वासा या संपति के विरूद्व कोई विदित महा अपराध कारित करने के लिय
        आश्चर्य आशयित करता है ओर प्रयास करता है । इन मामलों में उससे
        वापस लोटने की अपेक्षा नही की जाती और मात्र हमले का विरोध नहीं    
        कर सकेगा एजहां तक वह खड़ा हुआ है एपरन्तु वास्तव में उसकी    
        विपत्तियों ये सामना करेा जब तक कि खतरासमाप्त नहीं हो जाता और
        यदि उनके मध्य लड़ाई में वह उसके हमलावर कीहत्या कर देता हैए तो
        ऐसी हत्या करना न्यायसंगत है





        13. प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शासित विधान अर्थात भाण्दंण्संण् द्वारा        
        जनित आवश्यक रूप से प्रतिरक्षात्मक अधिकार है एजो केवल उस समय
        उपलव्ध होता है एजब परस्थितियॉ उसे सपष्ट रूप से न्यायसंगत ठहराती
        हैं । इसे अभिवचन करन के लिये या बदला लेने के लिये या अपराध को
        कारित करने क प्रयोजन के लिये बहाने के रूप मंे प्रयोग करने हेतु        
       अनुज्ञात नही किया जाना चाहिये । यह प्रतिरक्षा का अधिकार है प्रतिकार
        का नहीं जिससे अबैध आक्रमण को  दूर हटाने की अपेक्षा की जाती है
        और बदला लेने के उपाय के रूप में नहीं । अधिकार के अनुप्रयोग के     
        लिये उपबंधित करते समय भाण्दण्संण् में सावधानी वरती गयी है एऐसा कोई
        तंत्र उपबंधित नहीं करे और कोई युकित नहीं निकाले एजिसके द्वारा        
       आक्रमण हत्या करने क  बहाना हो । प्रतिरक्षा करने का अधिकार कोई
        अपराध संस्थित करने का अधिकार शामिल नही करताए विशेषकर  जब
        प्रतिरक्षा करने की आवश्यक्ता अब शेष न बची हो ।
 ;देखो वी0 सुब्रमणी
        व अन्य बनाम तामिलनाडू राज्य एजे0टी0 2005द्ध;3द्धएस0सी0.82ए 2005;10द्ध
        एस0सी0सी0.358










        19.    बिस्ना उर्फ बिस्वदेब महतो एंव अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य ए
        जे0टी0 2005 ;9द्धएसण्सीण्.290 में
 इस न्यायालय ने ठहराया है कि ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
        उत्तेजना के क्षणों और अव्यवस्थित संतुलन में पक्षकारगण से संतुलन
        बनाये रखने और वास्तविक रूप से उसे आंशकित खतरे के समनुरूप
        बदले में केबल उतने ही बल का उपयोग करने की अपेक्षा करना अक्सर
        कठिन होता है एजहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा सन्निकट होता
        है । समस्त परिस्थितियों को ठीक से देखने की आवश्यक्ता हाती है और
        अति तकनीकी दृष्टिकोण टालना चाहिये ।




        20.    प्रायवेट प्रतिरक्षा किसे कहा जायेगा को निम्नलिखित निबन्धनो में
        तद्धीन बर्णित किया गया था .
            ष्ष् प्रायवेट प्रतिरक्षा का उपयोग अबैध बल को रोकने एअबैध बल को
        प्रवरित करने एअबैध पिरोध को टालने ओर ऐसे निरोध से बवने के लिये
        किया जा सकता है । जहां तक अतिचारी के विरूद्व भूमि की प्रतिरक्षा का
        संबंध हैए तो व्यक्तिए अतिचारी को बेदखल करने के लिये या अतिचार
        प्रवरित करने के लिये आवश्यक और मध्यम प्रकार के बल का उपयोग
        करने का हकदार है । पूर्वोक्त प्रयोजनो के लिये बल का प्रयोग न्यूनतम
        आवश्यक या युक्तियुक्त रूप से आवश्यक होने का विश्वास करना चाहिये
        युक्तियुक्त प्रतिरक्षा के अनुपातिक अभिरक्षा अभिप्रेत होगी । साधारणतया
        अतिचारी से पहले प्रस्थान करने के लिये कहा जायेगा और दि अतिचारी
        वापस लड़ाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग कर सकता है ।
        परन्तु निवासीय मकान की प्रतिरक्षा भिन्न आधार परस्थित होती है । विधि
        को हमेशा व्यक्ति जो उसके निवास स्थान की उन व्यक्तियों के विरूद्व        
       प्रतिरक्षा कर रहा है एजो अबैध रूप से उसे बेदखल कर देगें एपर विशेष
        लिप्त्ता के साथ प्रत्येक व्यक्ति का घर उसके लिये उसका गढ़ और
        किला होता हैए के समान देखी जाती है । ।




        21.    यह राय दी गई कि प्रायवेट प्रतिरक्षा और अपराध का निवारण
        कभी कभी अविभेदकारी होताहे । यह ठहराया गया था कि ऐसे अधिकार
        का अनुप्रयोग किया जा सकता थाए क्योकि दुःसाहस को प्रवरित करने के
        लिये अपरिचतों के मध्य यथा साधारण स्वतंत्रता होती है ।






        22.    बलराम बनाम राजस्थान राज्य जेण्टीण् 2005;10द्धएसण्सीण्168 में इस
        न्यायालय ने यह अवेक्षा करने पर कि अपीलार्थी ने कृषि भूमियों से गुस्से
        में बे कब्जा कर दिया था और आगे एतस्मिन अपीलार्थी द्वारा मृतक के
        माथे पर केवल एक मुक्का मारा गया था एतो उसकी प्रायवेट प्रतिरक्षा  के
        अधिकार को स्वीकार किया गया एपरन्तु यह अभिनिर्धारित करते हुये राय
        दी गई कि उसने उक्त अधिकार से अधिक कार्य किया था ।
        28.    इस प्रकरण के तथ्य और परिस्थितियों में और उनके द्वारा की गई
        प्रतिरक्षा के आलेक में हम इस अभिमत के हैं कि अभियोजन के लिये
        अपीलार्थीगण के शरीर पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करना अनिवार्य था ।
        बिस्ना उर्फ बीस्वदेव महतो एव अन्य में इस न्यायालय ने ठहराया ।

            ष्ष् अभियुक्त पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करने की बिफलता के बारे
        में तथ्य प्रकरण दर प्रकरण भिन्न होते हैं । जबकि अभियुक्त द्वारा वहन
        की क्षतियों का अस्पष्टीकरण वचाव बृतांत को संभावित करता है कि
        अभियोजन पक्ष ने पहले हमला किया था एकिसी प्रदत्त स्थिति में यह
        ठहराना भी संभव हो सकेगा कि अभियुक्त द्वारा उसकी क्षति के बारे में
        दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं है और अभियोजन साक्षीगणके
        कथन उन्हें पूर्णतः स्पष्ट करते हैं और इस प्रकार का ठहराना संभव है
        कि अभियुक्त ने वह अपराध कारित किया थाए जिसके लिये उसे आरोपित
        किया गया था । जहां दोनो तरफ के लोगो द्वारा क्षतियॉ वहन की गई
        हों और जब दोनो पक्षकारगण ने घटना की उत्पत्ति के कारण को
        छिपाया हो या जहां आशिक सत्य प्रकटकिया गया होए वहां अभियोजन
        विफन हो सकेगा । परन्तु साधारण निबन्धनो में कोई भी विधि इस
        निमित्त प्रतिपादित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक प्रकरणएजाहे अभियोजन
        अभियुक्त के शरीर पर लगी प्रत्येक क्षतियों को स्पष्ट करने में बिफल हो
        जाता है तो उसे आगे कोई जांच किये बिना निरस्त कर देना चाहिये ।




        बांकेलाल एंव अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एण्आईण्आरण् 1971 एसण्सीण्
ृ      2233 ओर मोहरराय बनाम बिहार राज्य 1968.3 एण्सीण्आरण्552 ।





        29.    परन्तु उस स्थिति में क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक
        नहीं होना ठहराया गया था एक्योंकि तदधीन अपीलार्थीगण भारतीय दंड
        सहिता की धारा 148 के तहत अपराध कारित करने के दोषी पाये गये थे
        वर्तमान प्रकरण में एअभियोजन समस्त युक्तियुक्त शंका से परे यह साबित
        करने में समर्थ नहीं रहा है कि अपीलार्थीगण आक्रामकगण थे । अभियोजन
        अपीलार्थीगण द्वारा व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये कोई सामान्य
        आशय स्थापित करने में भी समर्थ नही रहा है ।


 मुन्ना चंदा बनाम  आसाम राज्य जेण्टीण् 2006 .3 एसण्सीण्36 में इस न्यायालय ने ठहराया ।





        ष्ष् इस प्रकार यह साबित करना आवश्यक है कि धारा 149 की मदद से
        अपराध के साथ आरोपित किये जाने ईप्सा किया गया व्यक्ति उस समय
        जब अपराध कारित किया गया थाए विधि विरूद्व का जमाव का एक
        सदस्य था ।
        एतस्मिन अपीलार्थीगण हथियारों से लेस नहीं थे भुटटू को छोड़कर एवे
        विवाद के समस्त तीनो प्रक्रमों पर पक्षकारगण नहीं थे । झगड़े के तृतीय
        प्रक्रम पर वे मृतक और अन्य लोगों को पाठ पढ़ाना चाहते थे । भुटटू ने
        झगड़ा करने के लिये वे उत्तेजित हो गये थे और मोती से क्षमा याचना
        की थी । स्वीकार्यतः ऐसा निर्मल की प्रेरणा पर किया गया था एभुटटू
        द्वारामोती पर हमला रतन की प्रेरणा से किया गया था । परन्तु यह नहीं
        कहा जा सकता कि वे मृतक की साशय हत्या करने का साधारण अभि.
        प्राय रखते थे । परन्तु मोती पर हमला करते समय वह स्वयं को
        अपीलार्थी की पकड़ से छुड़ा सकता था और परिदृष्य से ओझल हो
        सकता था। मृमक का न केवल एतस्मिन अपीलार्थीगण द्वारा पीछा किया
        गया थाए बल्कि कई अन्य लोगो के द्वारा भी । अगली सुबह वह मृत पाया
        गया था । एपरन्तु यह दर्शाने के लिये कुछ नही है कि अपीलार्थीगण या
        तो सामूहिक रूप से या पृथक पृथक कोन सी भूमिका निभाई गई थी ।
        यह भी विदित नहीं हे कि क्या कोई एक या समस्त अपीलार्थीगण हाजिर
        थे एजब अंतिम प्रहार किया गया था । वे कौन लोग थे एमृमक पर किसने
        हमला किया थाए भी विदित नहीं है किसके हाथो से उसे क्षतियॉ लगी थी
        पुनः एक रहस्य है । इसलिये भारतीय दंड सहिता की न तो धारा 34 न
        धारा 149 आकर्षित हाेेती है ।


 धरमपाल एंव अन्य बनाम हरियाणा राज्य 1978 एसण्सीण्सीण्.440 और
 शम्भू  कुंअर बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण् 1982 एसण्सीण्1228
        परन्तु हम यह नहीं भूलते हें कि

 बिस्ना उर्फ विस्वदेव महतो एंव अन्य
        बनाम वश्चिम बंगाल राज्य जेण्टीण्2005 .9 एसण्सीण्290 में यह कहा गया
        था ।
        ष्ष् धारा 149 और या 34 भाण्दंण्संण् आकर्षित करने के प्रयोजन के लिये
        अभियुक्त के द्वारा कोई विनिर्दिष्ट खुला कृत्य आवश्यक नही है । वह
        प्रतिक्षा कर सकेगा और अभियुक्त के द्वारा अकर्मण्यता को देख सकेगा
        कभी कभी यह ठहराने में बहुत मदद कर सकेगा कि उसने अन्य लोगों के
        साथ सामान्य अभिप्राय में भाग लिया था ष्ष् ।


                                                        उमेष कुमार गुप्ता













उच्चतम न्यायलय ने पूरणसिंह और अन्स बनाम राज्य;ए0आई0आर01975 सुप्रीम कोर्ट 1674द्ध के मामले में संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अबलम्बन लेने के लिये चार परिस्थितियॉ उपदर्शित की थी एंप पैरा 11 मेंइस प्रकार सम्प्रेक्षित किया थारू.



 1त्र       ष्ष् कब्जे की प्रकृतिए जो अतिचारी संपति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा
               के अधिकार का अनुप्रेयोग करने का हकदार बना सकेगी में निम्नलिखित
               गुण होना चाहियेरू.
     1.    अतिचारी के पास पर्याप्त रूप से लम्बे समय से संपति का वास्तविक
             भौतिक कब्जा होना चाहिये ।

     2.    कब्जा मालिक के अभिव्यक्त या विवक्षित ज्ञान में छिपाने के किसी प्रयास
            के बिना होना चाहिये ओर जो कब्जे का आशय का तत्व अन्तर्वलित करता है ।
            अतिचारी के कब्जे की प्रकृति प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एंव
            परिस्थितियों पर विनिश्चित किये जाने वाला विषय होगा ।

    3.    अतिचारी द्वारा वास्तविक मालिक के वेकब्जे की प्रक्रिया पूर्ण और अंतिम
           होनी चाहिये एंव वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और

    4.    व्यवस्थापितकजे की गुणबत्ता अवधारित करने के लिये प्रायिक परीक्षाओं
        में से एक खेती योग्य भूमि की दशा में यह होगी कि क्या अतिचारी कटजा
        प्राप्त करने के पश्चात कोई फसल उगा चुका था या नहीं ।
        यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी थी तब  यहां तक कि वास्तविक
        मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई
        अधिकार नहीं है उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का
        अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई
        अधिकार नहीं होगा ।





 ।




    2त्र    काशीराम बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0.290
         निर्दिष्ट किया गया. आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार
        अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है जितना कि अभियोजन
        का होता है और यह कि जवकि अभियोजन को उसका मामला युक्ति.
        युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता नहीं होती है।
 अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है ओरया तो  उस अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके उसके भार का निवर्हन कर सकेगा ।
        अभियोजन साक्षीगण के प्रति.परीक्षण में या वचाव साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा;
      सली  जिया बनाम उततर प्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1979 एस0सी0.391  अबलंबितद्ध






3.      प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों
        में नहीं मापा जा सकता ;अमजद खान बनाम मध्यप्रदेश राज्यए0आई0आर
        1952 एस0सी0165 अबलबित चूकि अपीलार्थी का भगवान की हत्या     
        करने  का कोई आशय नहीं थाएउसका कार्य धारा 308 के तहत अपराध
        समझा गया था जवकि उसके द्वारा वहन की गई क्षतियो ने पलिस        
        पदाधिकारीगण को भा0दं0सं0 की धारा 325 के तहत अपराध के लिये        
        उत्तरदायी ठहराया था । इस प्रकार तथ्यों पर भी यह निष्कर्ष निकालना
        संभव नहीं है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार कप अतिक्रमण किया गया
        था ।





4.      एक मात्र प्रश्न जो विचारण किये जाने योग्य है वह है प्रायवेट प्रतिरक्षा
        के अधिकार का अभिकथित अनुप्रयोग । धारा 96 भा0दं0सं0 उपबंधित
        करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा अभियव्यक्ति प्रायवेट
        प्रतिरक्षा का अधिकार को परिभाषित नहीं करती एयह मात्र इंगित करती
        है कि कोई भी कार्य नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किय  जाता है



5      क्या परिस्थितियों के एक विशिष्ट समूह में किसी व्यक्ति ने बैघ
       रूप से प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कार्य किया था   
       प्रत्येक प्रकरण केतथ्यों एंव परिस्थितियों पर अबधारित किये जाने वाला
       तथ्य का एक प्रश्न है । ऐसे प्रश्न को अबधारित करने के लिये
     काल्पनिक  रूप से परीक्षाप्रतिपादित नहीं की जा सकती ।



5त्र  तथ्य के इस प्रश्न क  अबधारित करने में न्यायालय को समस्त आस
     पास की परिस्थितियो क विचारण में लेना चाहिये । अभियुक्त के लिये कई
    शब्दो में अभिवच करने की कोई आवश्यक्ता नहीं है कि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा
     में कार्य  किया था यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के
     अधिकार का बैध रूप से अनुप्रयोग किया था तो न्यायालय ऐसे अभिवचन
     का विचारण करने में स्वंतत्र होती हे । प्रदत्त मामले में न्यायालय इसका
     विचारण करसकती है एयहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है
     यहां तक कि यदि वह अभिलेखगत सामग्री से विचारण के लिये उपलव्ध
     हे।


6त्रत्र भारतीय साक्ष्य अधिनियम 1872 साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के
     तहत सबूत का भार अभियुक्त पर होता है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का        
     अभिवचन  उठाता है और सबूत के अभाव में न्यायालय के लिये आत्मरक्षा
     के अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है ।        
     न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। अभियुक्त के
     द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करने के द्वारा या अभियोजन
     के लिये जांचे गये साक्षियों से आवश्यक तथ्य निकालने के द्वारा अभिलेख
        पर आवश्यक सामग्री रखना निर्भर करता है ।




       प्रायवेट प्रतिरक्षा के  अधिकार का अभिवचन करने वाला अभियुक्त को
     आवश्यक रूप से साक्ष्य बलाने की कोई आवश्यक्ता नहीं हे वह उसके
     अभिवचन को अभियोज  साक्ष्य स्वयमेव से प्रकट करती हुई परिस्थितियों
       का संदर्भ लेकर उसके अभिचवन को स्थपित कर सकता है । ऐसे मामले
     में प्रश्न अभियोजन  साक्ष्य के सत्य प्रभाव के निर्धारण करने का प्रश्न होगा और अभियुक्त
       द्वारा कोई भार का निवर्हन करने का प्रश्न नहीं  होगा
     

 जहां प्रायवेट प्रति रक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त
 और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि
  अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानी हमले को बिफल करने के लिये या
  अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के        
  लिये आवश्यक थी आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है
  और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में
  संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा उन्मोचित किया गया स्थित         
  होता है।



।;मुंशीराम ंव अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन 1968 .2 एस0सी0आर 455ए

गुजरात राज्य बनाम बाई फातमाए1975.3एसण्सीण्आरण् 993
 उत्तर  प्रदेश राज्य बनाम मो0 मुशिर खान ए0आई0आर0 1977 एस0सी02226
        और
 मोहिन्दर पाल जोली बनाम पंजाब राज्य 1979.2 एस0सी0आर0 805
        धाराऐ 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित        
       करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट
        रक्षा का अधिकार प्राप्त है एतो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक धारा
        100 के तहत विस्तारित होता है यदि युक्तियुक्त आंयाका हो कि मृत्य या
        घोर उपहति हमले का परिणाम होगी

       सलीम जिया बनाम उ0प्र0राज्य1979.2 एसण्सीण्आरण्.394 में
इस न्यायालय का अक्सर प्रोद्वरित सम्प्रेक्षण
        निम्नानुसार हैरू.
           यह असत्य है कि आत्मरक्षा का अभिवचन स्थापित करने का
            अभियुक्तो पर भार इतना अधिक दुर्भर नहीं है जितना अभियोजन
            होता है और यह कि जवकि अभियोजन से अपना मामला यूक्ति.
            युक्त शंका से परे प्रमाणित  करने की अपेक्षाकी जाती है तो अभि.
            युक्त को इस अभिवचन को मुठिया तक साबित करने की आवश्क्ता
            नहीं है और उसका भार या तो अभियोजन साक्षीगण के प्रतिपरीक्षण
            में उस अभिवचन के लिये आधार रखने के द्वारा या वचाव साक्ष्य
            प्रस्तुत करने के द्वारा संभावनाओं की मात्र वाहुल्यता स्थापित करने
            के द्वारा उन्मोचित किया जा सकेगा। ष्ष्
            अभियुक्त को युक्तियुक्त शंका से परे प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के
            अस्तित्व को साबित करने की आवश्यक्ता नहीं है । उसे यह दर्शानो के       
            लिये पर्याप्त होगा एयथा सिविल मामले में उसके अभिवचन के हित में
            संभावनाओं की वाहुल्यता होती है ।


        7. यह अबधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था सुरक्षित मानदंड
        सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । इसे सर्वभोमिक नियम के रूप
        में चर्णित नहीं किया जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर
        क्षतियॉ पाई जाती है तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि
        अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी    
       बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस
        प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
        घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की     
       गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है परन्तु    
       अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन प्रक्रम को
        बिल्कुल भी प्रभावित नहीं कर सकेगा  यह सिद्धान्त उन मामलों में लागू
        होता है जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है और उपरी 
        तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट ओर अकाटस है।
        इतने अधिक स्वतंत्र एंव हितबद्ध नहीं है इतने अधिक संभाव्य सुसगंत और
        विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये        
       अभियोजन के द्वारा लोप के प्रभाव को दवा देता है
    । लक्ष्मीसिंह बनाम  बिहार राज्य ए0आई0आर0 1976 एस0सी0.2263ए



        प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया
        जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
      अभियुक्त को उपलव्ध है तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर
      घोर एंव धातक क्षति करने का अवसर  मिला होगा ।
      यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को
        उपलव्ध है तो सम्पूर्ण घटना की साबधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये
        और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
       धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यवहत करती है ।
   


 अधिकार का अभिवचन

1. अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के            या
 2. किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है और




        यह अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद् व किसी अपराध की दशा में
         किया जा सकेगा एंव चारी लूट रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों
         और संपति के संबंध्स में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा  .99
         प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।


 धारा 96
        और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का
         अधिकार प्रदत्त करती है । धाराओं 96 से 98 के तहत प्रदत्त किये गये
         अधिकार और 100 से 106 तकए धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।



        स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के
        अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये
        कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के
        लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पत्ति प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ
        अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट 
        प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था







        धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा 
        परिभाषित करती है।
.    धाराऐं 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपति क्रमशः की    
       प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यवहत करती है




        अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही  शरीर ािक अपराध कारित
        करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है ।
       यद्यपि अपराध नहीं किया होगा एपरन्तु उस समय तक नहीं जब
        युकितयुक्त आंशका नहीं होती है । यह अधिकार तब तक बना रहता है
        जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।





        जयदेव बनाम पंजाब राज्य 1963 .3 एसण्सीण्आरण्489 में यह सम्प्रेक्षित
        किया गया था कि ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता 
        है और धमकी या तो समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है एतो
        प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का कोई अवसर नहीं
        हो सकता ।
   


   9.    यह पता करने के लिये क क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार
        उपलव्ध है या नहीं अभियुकतों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षाको धमकी
        की आंशकाएअभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या
        अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारी गण के पास जाने का समय था और
        समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।



 एक समान  अभिमत इस न्यायालय द्वारा बिरनसिंह बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण्
             1975    एसण्सीण्.87
देखो
 वासन सिंह बनाम पंजाब राज्य पुलिस निरीक्षक
        तामिलनाडु द्वारा प्रतिनिधित्व एजेण्टीण् 2002 .8 एसण्सीण्.21
.2002 .8
        एसण्सीण्सीण्.354



        10. बूटासिह बनाम पंजाब राज्य जेण्टीण् 1991 .5 एसण्सीण् 366 ए

ए0आई0 आर0 1991 एसण्सीण्.1316 मंे
 यथा नोट किया गया कि कोई व्यक्ति

 एजो
        मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है एको उस क्षण में और
        परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों एजो हथियारों स लैस थेए को
        निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों मेंमापा
        नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में
        पक्षकार गण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव
        उसे आशकित खतरे के समनरूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल
        का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता हेए जहां हमला बल का
        प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने
        के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन
        जाती है । ऐसी स्थितियों को साकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये
        और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्कीसी या मामूली सी गल्ती का
        पता लगाने के लिये दूरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । यह विचारण
        करने में उसे सम्यक महत्व दिया जाना चाहिये ओर अति तकनीकी दृष्टि
        कोण नहीं अपनाना चाहिये कि धटना स्थल पर क्षणिक आवेश में क्या
        हो जाता है एंव साधारण मानव प्रतिक्रिया को ध्यान में रखते हुये तथा
        आचरण को ध्यान मेंरखते हुये एजहां आत्मरक्षा सर्वोपरि विचारण होता हे
        वरन्तु यदि तथ्यात्मक स्थति यह दर्शाती है कि आत्रक्षा के भेष में वास्तव
        जो किया जा चुका है वह  है मूल आक्रामक पर हमला करना एयहंा
        तक कि युक्तियुक्त आश्ंाका का कारण समाप्त हो जाने के पश्चातए आत्म
        रक्षा के अधिकार का अभिवचन को बैध रूप से नामंजूर किया जा सकता
        है । इस अभिवचन को व्यवहत करने वाली न्यायालय को इस निष्कर्ष पर
        पहंुचने के लिये सामग्री का मूल्याकन करना चाहिये कि क्या वह            
  अभिवचन स्वीकार किये जाने योग्य है । यथा उपर नोट किया एआवश्यक
        रूप से यह तथ्य का नष्कर्ष है ।





        11. आत्मरक्षा का अधिकार अति महत्वपूर्ण अधिकार हैएजो सामाजिक
        प्रयोजन की सेवा करता है और इसका संकुचित रूप से अर्थान्वयन नहीं 
        किया    जाना चाहिये । ;देखिये विद्यासिंह बनाम मध्य प्रदेश राज्य ए0आई0
        आर0 1971 एवण्सीण्1857एद्ध ।



       स्थितियांे का आकलन जोखिम की सिथति से सामना करके
       क्षण भर के समीपी आवेश ओर भ्रम में संबंधित अभियुक्त के विषय
     परक दृष्टिकोण से किया जाना चाहिये तथा किसी दूरबीन से
       नहीं । इस प्रश्न को आंकलित करने के में कि क्या आपश्यक से अधिक
       बल विद्यमान परिस्थितियों में घटना स्थल पर प्रस्तुत किया गया था तो
        विलग वस्तुनिष्ठता द्वारा परीक्षाऐं अपनाने के लियेए इस न्यायालय द्वारा
        यथा ठहराया गया अनुपयुक्त होगाए जो न्यायालयीन कक्ष में अत्यधिक
        नैसर्गिक होगा या यह कि जो पूर्णतः वहां तिद्यमान एशांतएव्यक्ति के लिये
        आत्यंतिक रूप से आवश्यक होना प्रतीत होगा । व्यक्ति जो स्वंय को     
        धमकी की युक्तियुक्त आंशका का सामना कर रहा है एसे साधारण समय
        में या साधारण परिस्थितियों के अधीनए जो व्यक्ति की सोेंच में अपेक्षित    
        होता हैए केवल उतना वास्तविक रूप से किसी गणित के समान सीढी दर
        सीढी उसकी प्रतिरक्षा को अपनाने की अपेक्षा नहीं की जा सकती ।






        12.  रसेल ;रसेल ऑन क्राईमए ग्यारहवां संस्करण भाग.1 पृष्ठ 49द्धके
        दैदिप्यमान शब्दो मेंरू
          ष्ष्ण्ण्ण्ण्ण् कोई भी व्यक्ति बल द्वाराकिसी भी व्यकित का विरोध करन में
        न्यायसंगत होताहै ए जो प्रकट रूप से हिंसा द्वारा या तोउसके शरीर या
        वासा या संपति के विरूद्व कोई विदित महा अपराध कारित करने के लिय
        आश्चर्य आशयित करता है ओर प्रयास करता है । इन मामलों में उससे
        वापस लोटने की अपेक्षा नही की जाती और मात्र हमले का विरोध नहीं    
        कर सकेगा एजहां तक वह खड़ा हुआ है एपरन्तु वास्तव में उसकी    
        विपत्तियों ये सामना करेा जब तक कि खतरासमाप्त नहीं हो जाता और
        यदि उनके मध्य लड़ाई में वह उसके हमलावर कीहत्या कर देता हैए तो
        ऐसी हत्या करना न्यायसंगत है





        13. प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शासित विधान अर्थात भाण्दंण्संण् द्वारा        
        जनित आवश्यक रूप से प्रतिरक्षात्मक अधिकार है एजो केवल उस समय
        उपलव्ध होता है एजब परस्थितियॉ उसे सपष्ट रूप से न्यायसंगत ठहराती
        हैं । इसे अभिवचन करन के लिये या बदला लेने के लिये या अपराध को
        कारित करने क प्रयोजन के लिये बहाने के रूप मंे प्रयोग करने हेतु        
       अनुज्ञात नही किया जाना चाहिये । यह प्रतिरक्षा का अधिकार है प्रतिकार
        का नहीं जिससे अबैध आक्रमण को  दूर हटाने की अपेक्षा की जाती है
        और बदला लेने के उपाय के रूप में नहीं । अधिकार के अनुप्रयोग के     
        लिये उपबंधित करते समय भाण्दण्संण् में सावधानी वरती गयी है एऐसा कोई
        तंत्र उपबंधित नहीं करे और कोई युकित नहीं निकाले एजिसके द्वारा        
       आक्रमण हत्या करने क  बहाना हो । प्रतिरक्षा करने का अधिकार कोई
        अपराध संस्थित करने का अधिकार शामिल नही करताए विशेषकर  जब
        प्रतिरक्षा करने की आवश्यक्ता अब शेष न बची हो ।
 ;देखो वी0 सुब्रमणी
        व अन्य बनाम तामिलनाडू राज्य एजे0टी0 2005द्ध;3द्धएस0सी0.82ए 2005;10द्ध
        एस0सी0सी0.358










        19.    बिस्ना उर्फ बिस्वदेब महतो एंव अन्य बनाम पश्चिम बंगाल राज्य ए
        जे0टी0 2005 ;9द्धएसण्सीण्.290 में
 इस न्यायालय ने ठहराया है कि ण्ण्ण्ण्ण्ण्ण्
        उत्तेजना के क्षणों और अव्यवस्थित संतुलन में पक्षकारगण से संतुलन
        बनाये रखने और वास्तविक रूप से उसे आंशकित खतरे के समनुरूप
        बदले में केबल उतने ही बल का उपयोग करने की अपेक्षा करना अक्सर
        कठिन होता है एजहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा सन्निकट होता
        है । समस्त परिस्थितियों को ठीक से देखने की आवश्यक्ता हाती है और
        अति तकनीकी दृष्टिकोण टालना चाहिये ।




        20.    प्रायवेट प्रतिरक्षा किसे कहा जायेगा को निम्नलिखित निबन्धनो में
        तद्धीन बर्णित किया गया था .
            ष्ष् प्रायवेट प्रतिरक्षा का उपयोग अबैध बल को रोकने एअबैध बल को
        प्रवरित करने एअबैध पिरोध को टालने ओर ऐसे निरोध से बवने के लिये
        किया जा सकता है । जहां तक अतिचारी के विरूद्व भूमि की प्रतिरक्षा का
        संबंध हैए तो व्यक्तिए अतिचारी को बेदखल करने के लिये या अतिचार
        प्रवरित करने के लिये आवश्यक और मध्यम प्रकार के बल का उपयोग
        करने का हकदार है । पूर्वोक्त प्रयोजनो के लिये बल का प्रयोग न्यूनतम
        आवश्यक या युक्तियुक्त रूप से आवश्यक होने का विश्वास करना चाहिये
        युक्तियुक्त प्रतिरक्षा के अनुपातिक अभिरक्षा अभिप्रेत होगी । साधारणतया
        अतिचारी से पहले प्रस्थान करने के लिये कहा जायेगा और दि अतिचारी
        वापस लड़ाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग कर सकता है ।
        परन्तु निवासीय मकान की प्रतिरक्षा भिन्न आधार परस्थित होती है । विधि
        को हमेशा व्यक्ति जो उसके निवास स्थान की उन व्यक्तियों के विरूद्व        
       प्रतिरक्षा कर रहा है एजो अबैध रूप से उसे बेदखल कर देगें एपर विशेष
        लिप्त्ता के साथ प्रत्येक व्यक्ति का घर उसके लिये उसका गढ़ और
        किला होता हैए के समान देखी जाती है । ।




        21.    यह राय दी गई कि प्रायवेट प्रतिरक्षा और अपराध का निवारण
        कभी कभी अविभेदकारी होताहे । यह ठहराया गया था कि ऐसे अधिकार
        का अनुप्रयोग किया जा सकता थाए क्योकि दुःसाहस को प्रवरित करने के
        लिये अपरिचतों के मध्य यथा साधारण स्वतंत्रता होती है ।






        22.    बलराम बनाम राजस्थान राज्य जेण्टीण् 2005;10द्धएसण्सीण्168 में इस
        न्यायालय ने यह अवेक्षा करने पर कि अपीलार्थी ने कृषि भूमियों से गुस्से
        में बे कब्जा कर दिया था और आगे एतस्मिन अपीलार्थी द्वारा मृतक के
        माथे पर केवल एक मुक्का मारा गया था एतो उसकी प्रायवेट प्रतिरक्षा  के
        अधिकार को स्वीकार किया गया एपरन्तु यह अभिनिर्धारित करते हुये राय
        दी गई कि उसने उक्त अधिकार से अधिक कार्य किया था ।
        28.    इस प्रकरण के तथ्य और परिस्थितियों में और उनके द्वारा की गई
        प्रतिरक्षा के आलेक में हम इस अभिमत के हैं कि अभियोजन के लिये
        अपीलार्थीगण के शरीर पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करना अनिवार्य था ।
        बिस्ना उर्फ बीस्वदेव महतो एव अन्य में इस न्यायालय ने ठहराया ।

            ष्ष् अभियुक्त पर लगी क्षतियों को स्पष्ट करने की बिफलता के बारे
        में तथ्य प्रकरण दर प्रकरण भिन्न होते हैं । जबकि अभियुक्त द्वारा वहन
        की क्षतियों का अस्पष्टीकरण वचाव बृतांत को संभावित करता है कि
        अभियोजन पक्ष ने पहले हमला किया था एकिसी प्रदत्त स्थिति में यह
        ठहराना भी संभव हो सकेगा कि अभियुक्त द्वारा उसकी क्षति के बारे में
        दिया गया स्पष्टीकरण संतोषजनक नहीं है और अभियोजन साक्षीगणके
        कथन उन्हें पूर्णतः स्पष्ट करते हैं और इस प्रकार का ठहराना संभव है
        कि अभियुक्त ने वह अपराध कारित किया थाए जिसके लिये उसे आरोपित
        किया गया था । जहां दोनो तरफ के लोगो द्वारा क्षतियॉ वहन की गई
        हों और जब दोनो पक्षकारगण ने घटना की उत्पत्ति के कारण को
        छिपाया हो या जहां आशिक सत्य प्रकटकिया गया होए वहां अभियोजन
        विफन हो सकेगा । परन्तु साधारण निबन्धनो में कोई भी विधि इस
        निमित्त प्रतिपादित नहीं की जा सकती कि प्रत्येक प्रकरणएजाहे अभियोजन
        अभियुक्त के शरीर पर लगी प्रत्येक क्षतियों को स्पष्ट करने में बिफल हो
        जाता है तो उसे आगे कोई जांच किये बिना निरस्त कर देना चाहिये ।




        बांकेलाल एंव अन्य बनाम उत्तर प्रदेश राज्य एण्आईण्आरण् 1971 एसण्सीण्
ृ      2233 ओर मोहरराय बनाम बिहार राज्य 1968.3 एण्सीण्आरण्552 ।





        29.    परन्तु उस स्थिति में क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये आवश्यक
        नहीं होना ठहराया गया था एक्योंकि तदधीन अपीलार्थीगण भारतीय दंड
        सहिता की धारा 148 के तहत अपराध कारित करने के दोषी पाये गये थे
        वर्तमान प्रकरण में एअभियोजन समस्त युक्तियुक्त शंका से परे यह साबित
        करने में समर्थ नहीं रहा है कि अपीलार्थीगण आक्रामकगण थे । अभियोजन
        अपीलार्थीगण द्वारा व्यक्ति की मृत्यु कारित करने के लिये कोई सामान्य
        आशय स्थापित करने में भी समर्थ नही रहा है ।


 मुन्ना चंदा बनाम  आसाम राज्य जेण्टीण् 2006 .3 एसण्सीण्36 में इस न्यायालय ने ठहराया ।





        ष्ष् इस प्रकार यह साबित करना आवश्यक है कि धारा 149 की मदद से
        अपराध के साथ आरोपित किये जाने ईप्सा किया गया व्यक्ति उस समय
        जब अपराध कारित किया गया थाए विधि विरूद्व का जमाव का एक
        सदस्य था ।
        एतस्मिन अपीलार्थीगण हथियारों से लेस नहीं थे भुटटू को छोड़कर एवे
        विवाद के समस्त तीनो प्रक्रमों पर पक्षकारगण नहीं थे । झगड़े के तृतीय
        प्रक्रम पर वे मृतक और अन्य लोगों को पाठ पढ़ाना चाहते थे । भुटटू ने
        झगड़ा करने के लिये वे उत्तेजित हो गये थे और मोती से क्षमा याचना
        की थी । स्वीकार्यतः ऐसा निर्मल की प्रेरणा पर किया गया था एभुटटू
        द्वारामोती पर हमला रतन की प्रेरणा से किया गया था । परन्तु यह नहीं
        कहा जा सकता कि वे मृतक की साशय हत्या करने का साधारण अभि.
        प्राय रखते थे । परन्तु मोती पर हमला करते समय वह स्वयं को
        अपीलार्थी की पकड़ से छुड़ा सकता था और परिदृष्य से ओझल हो
        सकता था। मृमक का न केवल एतस्मिन अपीलार्थीगण द्वारा पीछा किया
        गया थाए बल्कि कई अन्य लोगो के द्वारा भी । अगली सुबह वह मृत पाया
        गया था । एपरन्तु यह दर्शाने के लिये कुछ नही है कि अपीलार्थीगण या
        तो सामूहिक रूप से या पृथक पृथक कोन सी भूमिका निभाई गई थी ।
        यह भी विदित नहीं हे कि क्या कोई एक या समस्त अपीलार्थीगण हाजिर
        थे एजब अंतिम प्रहार किया गया था । वे कौन लोग थे एमृमक पर किसने
        हमला किया थाए भी विदित नहीं है किसके हाथो से उसे क्षतियॉ लगी थी
        पुनः एक रहस्य है । इसलिये भारतीय दंड सहिता की न तो धारा 34 न
        धारा 149 आकर्षित हाेेती है ।


 धरमपाल एंव अन्य बनाम हरियाणा राज्य 1978 एसण्सीण्सीण्.440 और
 शम्भू  कुंअर बनाम बिहार राज्य एण्आईण्आरण् 1982 एसण्सीण्1228
        परन्तु हम यह नहीं भूलते हें कि

 बिस्ना उर्फ विस्वदेव महतो एंव अन्य
        बनाम वश्चिम बंगाल राज्य जेण्टीण्2005 .9 एसण्सीण्290 में यह कहा गया
        था ।
        ष्ष् धारा 149 और या 34 भाण्दंण्संण् आकर्षित करने के प्रयोजन के लिये
        अभियुक्त के द्वारा कोई विनिर्दिष्ट खुला कृत्य आवश्यक नही है । वह
        प्रतिक्षा कर सकेगा और अभियुक्त के द्वारा अकर्मण्यता को देख सकेगा
        कभी कभी यह ठहराने में बहुत मदद कर सकेगा कि उसने अन्य लोगों के
        साथ सामान्य अभिप्राय में भाग लिया था ष्ष् ।


                                                        उमेष कुमार गुप्ता













भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta