अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के अंतर्गत मजिस्टेªट को जमानत की अधिकारिता

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 अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के अंतर्गत मजिस्टेªट को जमानत देने की अधिकारिता 

                            अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 एक विशेष अधिनियम है और इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के विचारण के लिये विशेष न्यायालय का गठन किया गया है।

                                 अधिनियम को धारा-3 के अंतर्गत वर्णित अपराधों में कम से कम छह माह एवं अधिकतम 05 वर्ष तथा कुछ अपराधों में मृत्यु दण्ड तथा आजीवन कारावास तक की सजा के प्रावधान दिये गये हैं।

                           इस संहिता में जमानत के संबंध में धारा-18 के अंतर्गत केवल यह प्रावधान दिया गया है, कि दं0प्र0सं0 की धारा-438 के प्रावधान इस अधिनियम के अधीन अपराध करने के अभियोग पर किसी गिरफ्तारी के किसी मामले के संबंध में लागू नहीं होंगें।


                                  इसके अलावा जमानत के संबंध में कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। ऐसी दशा में सुस्थापित सिद्धांत है, कि जब विशेष अधिनियम में जमानत के संबंध में कोई प्रावधान न दिये गये हो, तो दं0प्र0सं0 के प्रावधान लागू होंगे।

                                    दं0प्र0सं0 के    23 की अनुसूचि-2 के अनुसार अन्य विधियों के विरूद्ध अपराधों में 03 वर्ष से कम की सजा या केवल जुर्माने से दण्डनीय अपराध जमानतीय माने गये हैं और तीन वर्ष से अधिक की सजा के अपराध अजमानतीय माने गये हैं। 


                                    ऐसी दशा में जब विशेष अधिनियम में जमानत संबंधी कोई प्रावधान नहीं है, तो दं0प्र0सं0 के प्रावधान लागू होते हैं। 


        इस संबंध में मानन0उच्च न्यायालय द्वारा मिर्ची उर्फ राकेशवि.एम.पी.राज्य2001(3)एम0पी0एल0जे0-356 में यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि अनुसूचित जाति तथा जनजाति अधिनियम के तहत होने वाले मामले में विशेष न्यायालय द्वारा धारा-439 दं0प्र0सं0 के तहत जमानत प्रदान करने में सक्षम होता है। 


                          इसी प्रकार धारा-437 दं0प्र0सं0 के प्रावधान के अनुसार मजिस्टेªट केवल मृत्यु दण्ड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों को छोड़कर सभी मामलों में उसे जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।


                            इस संबंध में सानू वि0 स्टेट बैंक आॅफ केरल राज्य 2001 क्राइम्स 292, रामभरोस वि0 उत्तरप्रदेश राज्य 2004 (2) क्राइम्स 651 तथा संजय वि0 महाराष्ट्र राज्य क्रि0ला0जनरल 2984 बाम्बे में स्पष्ट रूप से यह अभिनिर्धारित किया गया है कि:-


                                       उन मामलों में सिवाय जिनमें कि व्यक्ति को मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध में विचारित किया जाना हो न्यायालय के मजिस्ट््रेट को अभियुक्त को जमानत प्रदान करने अथवा इंकार करने के संबंध में विस्तृत शक्ति प्राप्त होती है, इनका उपयोग न्यायिक तौर पर किया जाना चाहिए।


                                       जमानत प्रदान करने में मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त गंभीर प्रकृति के अपराध को करने के संबंध में अभियुक्त है, जमानत प्रदान करने में सम्पूर्ण प्रतिषेध नहीं होता है। 

                                            धारा-209 दं0प्र0सं0 के अलावा जो कि कमिटल कार्यवाही को व्यक्त करती है मजिस्टे््रेट को जमानत प्रदान करने अथवा इंकार करने की शक्तियों पर र्को वर्जन अधिरोपित नहीं किया गया है।



                                            यह भी स्पष्ट किया गया है, कि अपराध को विचारण करने के संबंध में मजि0 को शक्ति का अभाव है। आगे यह स्पष्ट किया गया है कि जब तक विशेष विधान को जो कि विशेष न्यायालय को इसके अधीन होने वाले अपराधों के विचारण के बाबत् अनन्य अधिकारिता प्रदान करता है,

                                    जैसा कि स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा-36 (क) में प्रावधान है, जिसमें कि मजि0 को आरोपीगण को ऐसे अपराध कारित करने के संबंध में जमानत प्रदान करने से अपवर्जित किया गया हो, उसके सिवाए जमानत प्रदान करने के संबंध में मजि0 को शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।

                               मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त 1989 के अनु0जाति0जनजाति अत्या0निवारण अधिनियम में अभियुक्त है, जब तक कि अपराध मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दण्डनीय ना हो। 

                                               इस संबंध में ए0एम0अली वि0 केरल राज्य 2000 क्रि0ला0जनरल 2721 में प्रतिपादित किया गया है, कि यदि कुछ अपराध साधारण प्रकृति के और कुछ अपराध गंभीर किस्म के अपराध हो, तो ऐसी स्थिति में भी मजिस्टेªट को सामान्य सिद्धांत के अनुसार धारा-437 दं0प्र0सं0 के तहत एस0सी0एस0टी0 एक्ट में जमानत देने की क्षेत्राधिकारिता प्राप्त है। 



                                  गंागुला अशोक वि0 आंध्रप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 -2000 एस0सी0डब्ल्यू0 279 मंे यह भी अभिनिर्धारित किया गया है, कि ‘‘विशेष न्यायालय बिना कमिटल के अपराध का विचारण नहीं कर सकता है और मजिस्टेªट के धारा-209 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत उपार्पण करने के उपरान्त प्रकरण का विचारण विशेष न्यायालय करती है और धारा-209 (ख) में स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया गया है, कि जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए विचारण के दौरान और समाप्त होने पर अभियुक्त को अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित किया जायेगा


                               इस प्रकार धारा-209 (ख) सहपठित धारा-437 के प्रावधानों के अनुसार भी मजिस्टेªट को विशेष अधिनियम मंे जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

                                                 खाली गवार वि0 राज्य 1974 क्रि0ला0जनरल 526 एस0के0 और आफताब अहमद वि0 यू0पी0 राज्य 1990 क्रि0ला0जनरल 1636 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि मजिस्टेªट को जमानत देने का अधिकार उसके प्रकरण के विचारण करने के अधिकार से संबंधित नहीं है।


                            जमानत का अधिकार आरोपित अपराध मंे सजा से संबंधित है और धारा-437 के प्रावधान के अनुसार मृत्यु दण्ड और आजीवन कारावास से दंडनय अपराध को छोड़कर शेष सभी मामलों में मजिस्टेªट द्वारा जमानत दी जा सकती है।

                                ऐसी दशा में मान0उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों में धारा-437, 209 दं0प्र0सं0 के प्रावधान को देखते हुए  मजिस्टेªट को इस विशेष अधिनियम के अंतर्गत जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

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umesh gupta