युक्तियुक्त संदेह

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
                                                                 युक्तियुक्त संदेह   
        विधि का यह सामान्य सिद्धांत है, कि किसी भी निर्दाेष को सजा न हो इसलिए यदि संदेह उत्पन्न होता है, तो संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए। लेकिन संदेह किसी कल्पना, अटकलों और अंदाज के आधार पर आधारित न होकर मजबूर आधारांे पर आधारित होना चाहिए।

        युक्तियुक्त संदेह साधारण तौर पर संदेह की वह श्रेणी है जो किसी न्यायसंगत और युक्तियुक्त व्यक्ति को कोई निष्कर्ष निकालने की अनुमति देगी। संदेह का औचित्य अन्वेषण किये जाने वाले अपराध की प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए। संदेह का लाभ देने के नियम को लागू करने की अत्यधिक लगन ऐसी काल्पनिक शंकाओं अथवा चिरकालिक सन्देहों को प्रोत्साहन न दें, जिनके द्वारा सामाजिक प्रतिरक्षा का विनाश हो जाए। न्याय को इस अभिवाक् पर निष्फल नहीं किया जा सकता है, कि किसी निर्दोष को दंड देने की बनिस्बत सैकड़ो दोषी व्यक्तियों को बचकर निकलने देना अधिक अच्छा है। दोषी को बचकर निकलने देना विधि के अनुसार न्याय करना नहीं है।


        दाण्डिक विधि विनश्चिायक सबूत की अपेक्षा नहीं करती। वह केवल युक्तियुक्त संदेह से परे सबूत की अपेक्षा करती है।  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उ.प्र. राज्य बनाम रांझा राम आदि (1986) 4 एस.सी.सी. 99} के.गोपाल रेड्डी बनाम आंध्रप्रदेश राज्य, 1979 उम.नि.प. 893 मंे अभिनिर्धारित किया है, कि   युक्तियुक्त सन्देह से किसी भी समय किसी विवाद के बारे में हम में से किसी के दिमाग से उत्पन्न होने वाला कोई तुच्छ, हवाई या सारहीन सन्देह अभिप्रेत नहीं है, इससे ऐसा सन्देह अभिप्रेत नहीं है, जो दोषसिद्धि में हिचकिचाहट की भावना से उत्पन्न हुआ है। इससे युक्तियुक्तता पर आधारित वास्तविक संदेह अभिपे्रत है।


        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा खमकरण और अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 1567 एवं इन्दरसिंह व अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन, 1979-1 उम.नि.प. 1443 में अभिनिर्धारित किया है, कि केवल सम्भाव्यताएॅ या क्षीण सम्भाव्यताएॅ या मात्र सन्देह, जो युक्तियुक्त नहीं है। न्याय के प्रशासन को खतरे में डाले बिना, उस दशा में अभियुक्त व्यक्ति की दोषमुक्ति का आधार नहीं बन सकते, जब अन्यथा उचित रूप से विश्वसनीय परिसाक्ष्य है। 


    माननीय उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट अभिमत है    कि ‘‘यह आवश्यक है, कि सभी दाण्डिक मामलों में युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत दिया जाना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि यह परिपूर्ण हो। यदि कोई मामला पूर्ण रूप से साबित कर दिया गया है तो यह दलील दी जाती है, कि यह कृत्रिम है। यदि किसी मामले में कुछ दोष रह गये हैं, जो मानव के त्रुटि उन्मुख होने के कारण अनिवार्य हैं तो यह दलील दी जाती है कि यह बहुत अपूर्ण है। यह आश्चर्य     होता है कि क्या किसी निर्दाेष व्यक्ति को सजा दिलाने से बचाने के लिये अत्यधिक तर्क, अतिसंवेदिता में बहुत से दोषी व्यक्तियों को     निर्दयता से छूट दे दी जाए। युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत मार्गदर्शन है न कि कोई जादू टोना।‘‘ 


            अब्दुलगानी बनाम म.प्र. राज्य ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 753 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि  न्यायालय में साक्ष्य देते समय कभी-कभी कोई साक्षी भ्रमित हो जाता है। कोई साक्षी पूर्णतः सत्यवादी होने के बावजूद न्यायालय के वातावरण और बीधने वाली प्रति-परीक्षण से आतंकित हो सकता है। ऐसी असंगतियों को जो मामले की जड़ तक नहीं पहुंचती और मामले की मूल विशेषताओं को नष्ट नहीं करती। असम्यक महत्व नहीं दिया जा सकता। 


        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उप्र. राज्य बनाम अनिल सिंह, 1989-1 उम.नि.प. 977 के मामले में न्यायालयों की साक्ष्य में फर्क होने की दशा में सारे मामले को झूंठा मानकर अस्वीकार करते हुए सुगम मार्ग अपनाने की भत्र्सना की है। न्यायालय का कर्तव्य यह है, कि वह वास्तविक सच्चाई का पता लगावे। न्यायाधीश मात्र इसलिए दाण्डिक विचारण में पीठासन नहीं होता है, कि वह यह सुनिश्चित करें कि किसी निर्दाेष व्यक्ति को दंडित न किया जाए। न्यायाधीश इसलिए भी पीठासीन होता है-जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई दोषी व्यक्ति दंडित होने से न बच जाए। दोनों ही महत्वपूर्ण कर्तव्य हैं, जिनका न्यायाधीशांें को पालन करना होता है।


    कालीराम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य ए.आई.आर.1973    में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त के दोष के बारे में कोई युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न हो जाए तो उसके लाभ से अभियुक्त को वंचित नहीं किया जा सकता है। यदि न्यायालय अभियुक्त को संदेह का लाभ न दें, तो यह न्यायोचित न होगा, लेकिन दोषमुक्ति से विधि और व्यवस्था की स्थिति पर प्रभाव पड़ सकता है या इससे समाज के ऐसे सदस्यों में एक प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो सकती है, जो यह विश्वास करते हैं, कि अभियुक्त दोषी है। अभियुक्त के दोष पर इस तथ्य की दृष्टि से विचार नहीं किया जाना चाहिए कि बहुसंख्यक व्यक्ति यह विश्वास करते हैं, कि वह दोषी  है,  अपितु  इस दृष्टि से कि क्या उसका दोष अभिलेख पर लाई गई साक्ष्य द्वारा सिद्ध कर दिया गया है। वास्तव में अभ्ज्ञियुक्त के रूप में दोषारोपित व्यक्ति के दोष का निर्णय करने के लिये न्यायालयों के पास शायद ही और कोई मापदंड या सामग्री है।
      
        कभी-कभी लोकहित और अभियुक्त के हित के विरोध का उल्लेख किया जाता है। यह निःसंदेह सही है, कि गलत दोष-मुक्ति अवांछनीय है और इससे न्याय पद्धति में आम जनता का विश्वास शिथिल पड़ सकता है। तथापि निर्दोष व्यक्ति की गलत दोषसिद्धि इससे कहीं अधिक बुरी है। निर्दोष व्यक्ति की दोषसिद्धि के परिणाम कहीं अधिक गंभीर होते हैं और इसकी प्रतिक्रियाएॅ अवश्यंभावी  रूप से सभ्य समाज में अनुभव की जा सकती है।

        आरोपी/अभियुक्त के विरूद्ध कितना भी प्रबल संदेह हो और न्यायाधीश का कितना भी प्रबल नैतिक विश्वास एवं निश्चय हों, परन्तु जब तक वैध साक्ष्य तथा अभिलेख की विषय वस्तु के आधार पर युक्तियुक्त शंका के परे दोषारोप सिद्ध नहीं होता है, तब तक उसे दण्डित नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से अभियोजन कथा सत्य हो सकती है, परन्तु ‘‘हो सकती है‘‘ और ‘‘होना चाहिए‘‘ के मध्य एक लंबी दूरी है और आरोपी को वैध विश्वसनीय एवं अकाट्य साक्ष्य के माध्यम से इस दूरी को पार करना अनिवार्य है।


        शिवाजी साहब राय व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2622, बर्की जोसफ बनाम केरल राज्य, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 1892 पैरा-1, 2, आशीष बाथम बनाम म.प्र. राज्य, 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 1 एस.सी. वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह ठहराया है, कि निश्चय ही यह एक प्राथमिक सिद्धांत है, कि इससे पहले कि न्यायालय अभियुक्त को दोषसिद्ध कर सके, अभियुक्त दोषी ‘‘होना चाहिए‘‘ न कि केवल ‘‘दोषी हो सकता है‘‘। ‘‘हो सकता है तथा ‘‘होना चाहिए‘‘ के बीच वास्तविक अन्तर बहुत लम्बा है जो अस्पष्ट अटकलों को निश्चित निष्कर्षाें से अलग करता है।

        हमें इस बात से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत की कोटि उससे अधिक कड़ी होती है जितनी सिविल कार्यवाहियों में अपेक्षित होती है। किसी दाण्डिक विचारण में मामले के तथ्य और परिस्थितियाॅ चाहे कितनी ही पेचीदा क्यांे न हो, फिर भी अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को सभी युक्तियुक्त सन्देहों से परे साबित किया जाना चाहिए और सबूत की अपेक्षा को कल्पनाओं और अनुमानों के आधार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। हालांकि न्यायालय की अंतश्चेतना की इस संबंध में तुष्टि हो जानी चाहिए कि अभियुक्त को ऐसी स्थिति में दोषी अभिनिर्धारित नहीं किया गया है।

                      जब अभिकथित अपराधों के संबंध में अभियुक्त के निर्दोष होने के बाबत् युक्तियुक्त संदेह है, फिर भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत के लिये कोई पूर्ण स्तरमान नहीं है और यह प्रश्न कि क्या अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोप किसी युक्तियुक्त संदेह से परे साबित हो गये हैं। प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर तथा उस मामले में प्रस्तुत की गई साक्ष्य की श्रेणी ओर अभिलेख पर रखी गई सामाग्री पर निर्भर करता है। 


        गुरूवचन सिंह बनाम सतपाल सिंह व अन्य, ए0आई0आर0 1990 एस0सी0 209 वाले मामले मंे यह उपदर्शित किया है, कि न्यायालय की अंतश्चेतना को किसी नियम द्वारा आबद्ध नहीं किया जा सकता, बल्कि वह स्वयं किसी निर्णय को देने में सत्यता और बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए यह कार्य करती है।


        अंत में यह निष्कर्ष निकलता है, कि न्याय दर्शन भारतीय दर्शन की धुरी है। इसमें न केवल आर्य विचारधारा प्रभावित हुई, बल्कि जैन, बौद्ध एवं समस्त उपनिषदीय चिंतन का स्वरूप भी निश्चित हुआ। संसार में सत्य केवल साधारण कथन से मान्य नहीं होता है। उसे तर्क आधारित होना पड़ता है। केवल तर्कांे से भी कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। तर्क तो खोपड़ी की खुजलाहट मात्र है, जो बुद्धि के चातुर्य से प्रकट होता है। तर्क से हम दिन को रात व रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं। हर तर्क को अपने पक्ष में प्रमाण लाना पड़ता है। शुद्ध ज्ञान तर्कशील प्रमाणों का विवेचन विश्लेषण है। अतः युक्तियुक्त संदेह को कल्पना, अटकलों और संभावनाओं पर न तौलते हुए मजबूत आधार सबूत, निश्चयात्मक तथ्यों के आधार पर तौलना चाहिए।





कोई टिप्पणी नहीं:

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta