भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई हैं तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा ।
इस प्रकार प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी भी मृत्यु दण्ड, अजीवन कारावास, दो वर्ष से अधिक दण्डनीय अपराध के संबंध में की गई वह पहली सूचना हैं जिसके आधार पर अभियोजन द्वारा जाॅच प्रारंभ की जाती हैं ।
यदि रिपोर्टकर्ता थाने जाकर रिपोर्ट करने की स्थिति में नहीं हैं तो उसे मौके पर देहाती नालिस के रूप में दर्ज किया जाता हैं । इसी प्रकार यदि संबंधित क्षेत्राधिकार के बाहर रिपोर्ट की जाती हैं तो उसे शून्य पर कायम कर संबंधित थाने को भेजा जाता हैं । प्रथम सूचना रिपोर्ट को परिभाषित नहीं किया गया हैं, यह एक जानकारी मात्र हैं, जो अनवेषण अधिकारी को मामला फाइल करने के पूर्व अथवा पश्चात् के सभी विषय को खोजने के लिये प्राधिकृत करने हेतु समुचित होती हैं।
घटना के बाबत् धुंधले प्रकार का संदेश प्रथम सूचना रिपोर्ट के समतुल्य नहीं माना गया हैं ।(कृपया देखें पताई उर्फ कृष्ण कुमार बनाम स्टेट आॅफ यू.पी.,2010 क्रि.लाॅ.ज. 2815 सु.को.) ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलम्ब का परिणाम
प्रथम सूचना रिपोर्ट यदि विलम्ब से की गई हैं तो उस संबंध मे ंदिया गया स्पष्टीकरण तर्कपूर्ण व साख पूर्ण होना चाहिए यदि स्पष्टीकरण विलम्ब के संबंध में पर्याप्त नहीं हैं तो ऐसी रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित नहीं हैं ।
विलंब से मामले के वृत्तांत में परिवर्तन होने की संभावना रहती हैं। इसीलिए अपेक्षा की जाती हैं कि आरंभिक अवसर में न्यायालय के समक्ष पहुंच की जाए। यदि पुलिस के समक्ष पहुॅंच करने में अथवा न्यायालय के समक्ष पहॅुंच करने में विलंब होता हैं तो ऐसी स्थिति में न्यायालय लांछनों को
संदेह की निगाह से देखेगा और वह इस संबंध में निः संकोच संतोषप्रद स्पष्टीकरण की मांग करेगा । यदि ऐसा स्पष्टीकरण नहीं पाया जाता हैं तो उस विलंब को अभियोजन के मामले के लिये घातक माना जाएगा ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट को त्वरित तौर पर दर्ज कराने के पीछे निहित भावना यह होती हैं कि विलंब किए जाने पर घटना बढ़ाए चढ़ाए जाने की संभावना हो सकती हैं ।
रंजिश के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब को अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा गया हैं और असामान्य विलंब को संतोषजनक नहीं माना गया हैं । (कृपया देखें -रमेश बाबूराव देवास्कर बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, 2007 क्रि.लाॅ.ज. 851ः2008 क्रि.लाॅ.ज. 372ः2007(4) करेन्ट क्रिमिनल रिपोर्टर्स 272ः2007 (12) स्केल 272ः 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 6475 सु.को. )
प्रत्येक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट विलंब से करना संदेहास्पद नहीं होता हैं। यह मामले के तथ्य और परिस्थितियों के आधार पर उसके विलंब से किये जाने के प्रभाव को ध्यान में रखकर विचार किया जाना चाहिए । इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा रविन्द्र कुमार बनाम स्टेट
आफ पंजाब 2007 भाग-7 एस.एस.सी. 690 में कुछ परिस्थितियाॅं बताई हैं जो निम्नलिखित हैं ।
1- भारतीय परिवेश में ग्रामवासियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह घटना के उपरांत तत्काल पुलिस को सूचना देंगें ।
2- मानवीय स्वभाव होता हैं कि मृतक के नाते-रिश्तेदार जिन्होने
घटना देखी हैं उनसे शीघ्रता से रिपोर्ट किये जाने की आशा नहीं की जा सकती ।
3- इसके अलावा ग्रामीण व्यक्ति बिना समय गंवाए अपराध की पुलिस को जानकारी देने की आवश्यकता के तथ्य से अनभिज्ञ हो सकता हैं। 4- इस तरह की स्थिति शहरी व्यक्तियों के साथ भी हो सकती हैं जो तत्काल पुलिस स्टेशन जाने की नहीं सोचते हैं।
5- सूचना देने वाले व्यक्ति को पुलिस स्टेशन पहुंचने तक समुचित परिवहन सुविधाओं का अभाव ।
6- मृतक के नाते-रिश्तेदारों को कतिपय स्तर की मस्तिष्क की प्रशांति को पुनः हासिल करने में समय लग सकता हैं ।
7- जो व्यक्ति ऐसी सूचना देने वाले समझे जाते हैं उनकी शारीरिक दशा अपने आप में इतनी बिगडी होने की स्थिति में हो सकती हैं कि पुलिस को दुर्घटना के बाबत् कतिपय जानकारी हासिल करने के लिए उनके पास तक पुलिस को पहॅुंचना पड़ा हो ।
इस प्रकार सूचनादाता की दशा, कारित क्षतियों की प्रकृति, आहतों की संख्या, पुनः चिकित्सीय सहायता पहुॅंचाने के संबंध में किए गए प्रयास, अस्पताल की दूरी, पुलिस स्टेशन की दूरी आदि तथ्य व परिस्थितियों के आधार पर विलंब प्रथम सूचना रिपोर्ट का आकलन किया जाना चाहिए।उसे अपने आप विलंब के आधार पर संदेहास्पद नहीं माना जाना चाहिए । ( कृपया देखे- अमरसिंह बनाम बलविंदर सिंह,2003 (2) सु.को.के. 518ः2003 ए.आई.आर. डब्ल्यू 717, साहिब राव बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 2006 क्रिं.लाॅ.ज. 2881 सु.को.), ऐसा कोई अंकगणितीय फार्मूला नहीं हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब के आधार पर किसी भी ओर अनुमान निकाला जा सके ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्यिक मूल्य
प्रथम सूचना रिपोर्ट को सारवान साक्ष्य के भाग के रूप में होना नहीं समझा जा सकता है। अतः इसके आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा। इसका उपयोग इसको करने वाले व्यक्ति के खंडन अथवा समथर््ान के लिये ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा- 145 और 157 के अनुसार किया जा सकता हैं । कृपया देखें-अर्जुनसिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी.,1997 (1)म.प्र.वी.नो. 194 (स्टेट आॅफ एम.पी. बनाम के.के.पाण्डे,2007 (3) म.प्र.वी.नो. 21 म.प्र.)
प्रथम सूचना रिपोर्ट के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को इनसाइक्लोपीडिया होना आवश्यक नहीं होता हैं, इसलिये अभियोजन
घटना की सभी तथ्यों का इसमें समावेश होना आवश्यक नहीं हैं,ं परन्तु प्रथम सूचना रिपोर्ट में घटना की प्रथम जानकारी के बाबत अत्याधिक महत्वपूर्ण सामग्री होती हैं। इसके वृत्तांत में परिवर्तन किए जाने व सुधार किए जाने की संभावना होती है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट मात्र विधि को गतिशील करने के लिए की जाती हैं। इसे विस्तृत होना अवश्यक नहीं हैं अपितु इसमें आवश्यक लांछन जिससे कि संज्ञेय अपराध कागठन होना होता हो पर्याप्त माना गया। इसमें यदि सभी चक्षुदर्शी साक्षीगण के नाम वर्णित न हो सके तो यह तथ्य असारवान होगा। (चारू किशोर मेहता बनाम (श्रीमति) बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, क्रि.लाॅ.ज. 1486 बम्बई ) आनंद सिंह बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. 2010 क्रि.लाॅ.ज. एन.ओ.सी. 334 इलाहाबाद मनोज बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 1999 (4)सु.को.के. 268.सुजाय सेन बनाम स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल, 2007 (2) म.प्र.वी.नो. 89 सु.को. )
यदि एन्टी-टाइम व एन्टी- डेटेड रिपोर्ट के आधार पर मामला रजिस्टर्ड किया जाए और इसी कारण द.प्र.सं. की धारा- 157 के प्रावधान का पालन नहीं किया गया था । ऐसी स्थिति में प्रथम सूचना रिपोर्ट को महत्व प्रदान नहीं किया गया।
यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट न केवल एन्टी-टाइम थी अपितु यह एन्टी-डेटेड भी थी, तो ऐसी देहाती नालिश में मामले को गढ़े जाने की संभावना मानी गयी। (छबिलाल बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2009 (1) जे.एल.जे. 167 म.प्र. ) (रामाधार बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. आई.एल.आर.2011 म.प्र. नोट 32)
यदि साक्षी का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में होना नहीं पाया गया। घटना स्थल पर भीड़ थी और इसलिए प्रथम सूचना दाता से युक्तियुक्त तौर पर इस बात की प्रत्याशा नहीं की जाती थी कि वह प्रत्येक देखने वाले व्यक्ति के नाम को प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित करें ऐसी स्थिति में साक्षी की साक्ष्य को इस आधार पर त्यक्त नहीं किया जा सकता कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में उसका नाम नहीं था। (कृपया देखें- पिल्लू उर्फ प्रहलाद बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2010 (2) जे.एल.जे. 309 म.प्र.)
इसी प्रकार यदि घायल साक्षी के नाम भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में न हो तो इस आधार पर भी उसे संदेहास्पद नहीं माना जा सकता । ऐसी कोई विधिक अपेक्षा नहीं हैं कि सभी साक्षीगण का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में हो ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्राॅवधानिक मुद्रित प्रारूप में होना चाहिए । यदि इस रूप में नहीं हैं तो उसे विश्वास योग्य नहीं माना जा सकता । पुलिस अधिकारी के द्वारा स्टेशन हाउस की डायरी में दर्ज सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जा सकता हैं। इसे केवल धारा- 162 के अंतर्गत अभिलिखत कथन माना जाएगा ।
इसी प्रकार तार संदेश से दी गई अस्पष्ट सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। टेलीफोन से दी गई व्यर्थ सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत करना प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार हैं ।
एक ही घटना के संबंध में दी गई द्वितीय सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट के रूप में दर्ज नहीं की जा सकती। एक मामले में केवल एक ही एफ.आई.आर. हो सकती है।
यदि आरोपी के द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाई गई हैं तो उसमें की गई संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धारा- 25 के अंतर्गत साक्ष्य में ग्रा्ह्य नहीं होगी लेकिन धारा- 8 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत आचरण के रूप में उसे मान्यता प्रदान की जाएगी ।
यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में ओवहर राईटिंग की जाती हैं तो इस बात की संभावना हैं कि वह एंटी डेटेड थी अथवा एंटी टाइम थी । यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित वृत्तांत सत्य होना नहीं पाया जाता हैं और उसका चिकित्सीय एवं मौखिक साक्ष्य से भी समर्थन नहीं होता हैं तो ऐसी रिपोर्ट के आधार पर दोषसिद्धी नहीं दी जा सकती हैं ।
‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई हैं तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा ।
इस प्रकार प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी भी मृत्यु दण्ड, अजीवन कारावास, दो वर्ष से अधिक दण्डनीय अपराध के संबंध में की गई वह पहली सूचना हैं जिसके आधार पर अभियोजन द्वारा जाॅच प्रारंभ की जाती हैं ।
यदि रिपोर्टकर्ता थाने जाकर रिपोर्ट करने की स्थिति में नहीं हैं तो उसे मौके पर देहाती नालिस के रूप में दर्ज किया जाता हैं । इसी प्रकार यदि संबंधित क्षेत्राधिकार के बाहर रिपोर्ट की जाती हैं तो उसे शून्य पर कायम कर संबंधित थाने को भेजा जाता हैं । प्रथम सूचना रिपोर्ट को परिभाषित नहीं किया गया हैं, यह एक जानकारी मात्र हैं, जो अनवेषण अधिकारी को मामला फाइल करने के पूर्व अथवा पश्चात् के सभी विषय को खोजने के लिये प्राधिकृत करने हेतु समुचित होती हैं।
घटना के बाबत् धुंधले प्रकार का संदेश प्रथम सूचना रिपोर्ट के समतुल्य नहीं माना गया हैं ।(कृपया देखें पताई उर्फ कृष्ण कुमार बनाम स्टेट आॅफ यू.पी.,2010 क्रि.लाॅ.ज. 2815 सु.को.) ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलम्ब का परिणाम
प्रथम सूचना रिपोर्ट यदि विलम्ब से की गई हैं तो उस संबंध मे ंदिया गया स्पष्टीकरण तर्कपूर्ण व साख पूर्ण होना चाहिए यदि स्पष्टीकरण विलम्ब के संबंध में पर्याप्त नहीं हैं तो ऐसी रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित नहीं हैं ।
विलंब से मामले के वृत्तांत में परिवर्तन होने की संभावना रहती हैं। इसीलिए अपेक्षा की जाती हैं कि आरंभिक अवसर में न्यायालय के समक्ष पहुंच की जाए। यदि पुलिस के समक्ष पहुॅंच करने में अथवा न्यायालय के समक्ष पहॅुंच करने में विलंब होता हैं तो ऐसी स्थिति में न्यायालय लांछनों को
संदेह की निगाह से देखेगा और वह इस संबंध में निः संकोच संतोषप्रद स्पष्टीकरण की मांग करेगा । यदि ऐसा स्पष्टीकरण नहीं पाया जाता हैं तो उस विलंब को अभियोजन के मामले के लिये घातक माना जाएगा ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट को त्वरित तौर पर दर्ज कराने के पीछे निहित भावना यह होती हैं कि विलंब किए जाने पर घटना बढ़ाए चढ़ाए जाने की संभावना हो सकती हैं ।
रंजिश के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब को अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा गया हैं और असामान्य विलंब को संतोषजनक नहीं माना गया हैं । (कृपया देखें -रमेश बाबूराव देवास्कर बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, 2007 क्रि.लाॅ.ज. 851ः2008 क्रि.लाॅ.ज. 372ः2007(4) करेन्ट क्रिमिनल रिपोर्टर्स 272ः2007 (12) स्केल 272ः 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 6475 सु.को. )
प्रत्येक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट विलंब से करना संदेहास्पद नहीं होता हैं। यह मामले के तथ्य और परिस्थितियों के आधार पर उसके विलंब से किये जाने के प्रभाव को ध्यान में रखकर विचार किया जाना चाहिए । इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा रविन्द्र कुमार बनाम स्टेट
आफ पंजाब 2007 भाग-7 एस.एस.सी. 690 में कुछ परिस्थितियाॅं बताई हैं जो निम्नलिखित हैं ।
1- भारतीय परिवेश में ग्रामवासियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह घटना के उपरांत तत्काल पुलिस को सूचना देंगें ।
2- मानवीय स्वभाव होता हैं कि मृतक के नाते-रिश्तेदार जिन्होने
घटना देखी हैं उनसे शीघ्रता से रिपोर्ट किये जाने की आशा नहीं की जा सकती ।
3- इसके अलावा ग्रामीण व्यक्ति बिना समय गंवाए अपराध की पुलिस को जानकारी देने की आवश्यकता के तथ्य से अनभिज्ञ हो सकता हैं। 4- इस तरह की स्थिति शहरी व्यक्तियों के साथ भी हो सकती हैं जो तत्काल पुलिस स्टेशन जाने की नहीं सोचते हैं।
5- सूचना देने वाले व्यक्ति को पुलिस स्टेशन पहुंचने तक समुचित परिवहन सुविधाओं का अभाव ।
6- मृतक के नाते-रिश्तेदारों को कतिपय स्तर की मस्तिष्क की प्रशांति को पुनः हासिल करने में समय लग सकता हैं ।
7- जो व्यक्ति ऐसी सूचना देने वाले समझे जाते हैं उनकी शारीरिक दशा अपने आप में इतनी बिगडी होने की स्थिति में हो सकती हैं कि पुलिस को दुर्घटना के बाबत् कतिपय जानकारी हासिल करने के लिए उनके पास तक पुलिस को पहॅुंचना पड़ा हो ।
इस प्रकार सूचनादाता की दशा, कारित क्षतियों की प्रकृति, आहतों की संख्या, पुनः चिकित्सीय सहायता पहुॅंचाने के संबंध में किए गए प्रयास, अस्पताल की दूरी, पुलिस स्टेशन की दूरी आदि तथ्य व परिस्थितियों के आधार पर विलंब प्रथम सूचना रिपोर्ट का आकलन किया जाना चाहिए।उसे अपने आप विलंब के आधार पर संदेहास्पद नहीं माना जाना चाहिए । ( कृपया देखे- अमरसिंह बनाम बलविंदर सिंह,2003 (2) सु.को.के. 518ः2003 ए.आई.आर. डब्ल्यू 717, साहिब राव बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 2006 क्रिं.लाॅ.ज. 2881 सु.को.), ऐसा कोई अंकगणितीय फार्मूला नहीं हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब के आधार पर किसी भी ओर अनुमान निकाला जा सके ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्यिक मूल्य
प्रथम सूचना रिपोर्ट को सारवान साक्ष्य के भाग के रूप में होना नहीं समझा जा सकता है। अतः इसके आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा। इसका उपयोग इसको करने वाले व्यक्ति के खंडन अथवा समथर््ान के लिये ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा- 145 और 157 के अनुसार किया जा सकता हैं । कृपया देखें-अर्जुनसिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी.,1997 (1)म.प्र.वी.नो. 194 (स्टेट आॅफ एम.पी. बनाम के.के.पाण्डे,2007 (3) म.प्र.वी.नो. 21 म.प्र.)
प्रथम सूचना रिपोर्ट के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को इनसाइक्लोपीडिया होना आवश्यक नहीं होता हैं, इसलिये अभियोजन
घटना की सभी तथ्यों का इसमें समावेश होना आवश्यक नहीं हैं,ं परन्तु प्रथम सूचना रिपोर्ट में घटना की प्रथम जानकारी के बाबत अत्याधिक महत्वपूर्ण सामग्री होती हैं। इसके वृत्तांत में परिवर्तन किए जाने व सुधार किए जाने की संभावना होती है।
प्रथम सूचना रिपोर्ट मात्र विधि को गतिशील करने के लिए की जाती हैं। इसे विस्तृत होना अवश्यक नहीं हैं अपितु इसमें आवश्यक लांछन जिससे कि संज्ञेय अपराध कागठन होना होता हो पर्याप्त माना गया। इसमें यदि सभी चक्षुदर्शी साक्षीगण के नाम वर्णित न हो सके तो यह तथ्य असारवान होगा। (चारू किशोर मेहता बनाम (श्रीमति) बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, क्रि.लाॅ.ज. 1486 बम्बई ) आनंद सिंह बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. 2010 क्रि.लाॅ.ज. एन.ओ.सी. 334 इलाहाबाद मनोज बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 1999 (4)सु.को.के. 268.सुजाय सेन बनाम स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल, 2007 (2) म.प्र.वी.नो. 89 सु.को. )
यदि एन्टी-टाइम व एन्टी- डेटेड रिपोर्ट के आधार पर मामला रजिस्टर्ड किया जाए और इसी कारण द.प्र.सं. की धारा- 157 के प्रावधान का पालन नहीं किया गया था । ऐसी स्थिति में प्रथम सूचना रिपोर्ट को महत्व प्रदान नहीं किया गया।
यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट न केवल एन्टी-टाइम थी अपितु यह एन्टी-डेटेड भी थी, तो ऐसी देहाती नालिश में मामले को गढ़े जाने की संभावना मानी गयी। (छबिलाल बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2009 (1) जे.एल.जे. 167 म.प्र. ) (रामाधार बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. आई.एल.आर.2011 म.प्र. नोट 32)
यदि साक्षी का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में होना नहीं पाया गया। घटना स्थल पर भीड़ थी और इसलिए प्रथम सूचना दाता से युक्तियुक्त तौर पर इस बात की प्रत्याशा नहीं की जाती थी कि वह प्रत्येक देखने वाले व्यक्ति के नाम को प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित करें ऐसी स्थिति में साक्षी की साक्ष्य को इस आधार पर त्यक्त नहीं किया जा सकता कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में उसका नाम नहीं था। (कृपया देखें- पिल्लू उर्फ प्रहलाद बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2010 (2) जे.एल.जे. 309 म.प्र.)
इसी प्रकार यदि घायल साक्षी के नाम भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में न हो तो इस आधार पर भी उसे संदेहास्पद नहीं माना जा सकता । ऐसी कोई विधिक अपेक्षा नहीं हैं कि सभी साक्षीगण का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में हो ।
प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्राॅवधानिक मुद्रित प्रारूप में होना चाहिए । यदि इस रूप में नहीं हैं तो उसे विश्वास योग्य नहीं माना जा सकता । पुलिस अधिकारी के द्वारा स्टेशन हाउस की डायरी में दर्ज सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जा सकता हैं। इसे केवल धारा- 162 के अंतर्गत अभिलिखत कथन माना जाएगा ।
इसी प्रकार तार संदेश से दी गई अस्पष्ट सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। टेलीफोन से दी गई व्यर्थ सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत करना प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार हैं ।
एक ही घटना के संबंध में दी गई द्वितीय सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट के रूप में दर्ज नहीं की जा सकती। एक मामले में केवल एक ही एफ.आई.आर. हो सकती है।
यदि आरोपी के द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाई गई हैं तो उसमें की गई संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धारा- 25 के अंतर्गत साक्ष्य में ग्रा्ह्य नहीं होगी लेकिन धारा- 8 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत आचरण के रूप में उसे मान्यता प्रदान की जाएगी ।
यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में ओवहर राईटिंग की जाती हैं तो इस बात की संभावना हैं कि वह एंटी डेटेड थी अथवा एंटी टाइम थी । यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित वृत्तांत सत्य होना नहीं पाया जाता हैं और उसका चिकित्सीय एवं मौखिक साक्ष्य से भी समर्थन नहीं होता हैं तो ऐसी रिपोर्ट के आधार पर दोषसिद्धी नहीं दी जा सकती हैं ।
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