भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
हितबद्ध साक्षी
माननीय उच्चतम न्यायालय ने कुलेश मंडल बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य (2007) 59 ए.सी.सी. 798) वाले मामले में दिलीपसिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में पारित निर्णय को उद्दत करते हुए इस प्रकार मत व्यक्त किया:-
‘‘हम उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों के इस मत से असहमत हैं, कि दोनों प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के परिसाक्ष्य की पुष्टीकरण की आवश्यकता है। यदि ऐसे किसी मत के लिये आधार इस तथ्य पर आधारित हैं, कि साक्षी स्त्रिया हैं और उनकी परिसाक्ष्य के उपर सात व्यक्तियों का भाग्य आधारित है, हमारी जानकारी में ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि यह बात इस तर्क पर आधारित है, कि वे मृतक के निकट के नातेदार हैं, तो हम इस मत से सहमत नहीं हैं। अनेक दांडिक मामलों के लिये यह एक सामान्य भ्रामकताः है और इस न्यायालय की एक अन्य न्यायपीठ ने एक मामले में इस भ्रामकता को दूर करने का प्रयत्न किया है। तथापि, हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि दुर्भाग्यवश यह अवस्थिति अभी तक मौजूद है और यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो किसी भी प्रकार से काउंसेलों की दलीलों में।‘‘
मसालती और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य (ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 202):- वाले मामले में न्यायालय ने इस प्रकार मत व्यक्त किया था:- ‘‘किन्तु हमारा यह मत है, कि यह दलील तर्कयुक्त नहीं है कि साक्षियों द्वारा दिए गए साक्ष्य को मात्र इस आधार पर व्यक्त किया जाना चाहिए कि यह साक्ष्य पक्षपाती या हितबद्ध साक्षी का साक्ष्य है............। ऐसे एकमात्र आधार पर कि यह एक विफल करने वाली होगी। इस बारे में कोई पक्का नियम अभिकथित नहीं किया जा सकता कि कितने साक्ष्य को स्वीकार किया जाना चाहिए ? न्यायिक मत ऐसे साक्ष्य पर विचार करने में सतर्कता बरतने की उपेक्षा करता है, किन्तु यह दलील है, कि ऐसे साक्ष्य को खारिज किया जाना चाहिए, क्योंकि यह एक पक्षपाती साक्षी का साक्ष्य है, सही होना स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘‘
हितबद्ध साक्षी
माननीय उच्चतम न्यायालय ने कुलेश मंडल बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य (2007) 59 ए.सी.सी. 798) वाले मामले में दिलीपसिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में पारित निर्णय को उद्दत करते हुए इस प्रकार मत व्यक्त किया:-
‘‘हम उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों के इस मत से असहमत हैं, कि दोनों प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के परिसाक्ष्य की पुष्टीकरण की आवश्यकता है। यदि ऐसे किसी मत के लिये आधार इस तथ्य पर आधारित हैं, कि साक्षी स्त्रिया हैं और उनकी परिसाक्ष्य के उपर सात व्यक्तियों का भाग्य आधारित है, हमारी जानकारी में ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि यह बात इस तर्क पर आधारित है, कि वे मृतक के निकट के नातेदार हैं, तो हम इस मत से सहमत नहीं हैं। अनेक दांडिक मामलों के लिये यह एक सामान्य भ्रामकताः है और इस न्यायालय की एक अन्य न्यायपीठ ने एक मामले में इस भ्रामकता को दूर करने का प्रयत्न किया है। तथापि, हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि दुर्भाग्यवश यह अवस्थिति अभी तक मौजूद है और यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो किसी भी प्रकार से काउंसेलों की दलीलों में।‘‘
मसालती और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य (ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 202):- वाले मामले में न्यायालय ने इस प्रकार मत व्यक्त किया था:- ‘‘किन्तु हमारा यह मत है, कि यह दलील तर्कयुक्त नहीं है कि साक्षियों द्वारा दिए गए साक्ष्य को मात्र इस आधार पर व्यक्त किया जाना चाहिए कि यह साक्ष्य पक्षपाती या हितबद्ध साक्षी का साक्ष्य है............। ऐसे एकमात्र आधार पर कि यह एक विफल करने वाली होगी। इस बारे में कोई पक्का नियम अभिकथित नहीं किया जा सकता कि कितने साक्ष्य को स्वीकार किया जाना चाहिए ? न्यायिक मत ऐसे साक्ष्य पर विचार करने में सतर्कता बरतने की उपेक्षा करता है, किन्तु यह दलील है, कि ऐसे साक्ष्य को खारिज किया जाना चाहिए, क्योंकि यह एक पक्षपाती साक्षी का साक्ष्य है, सही होना स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘‘
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