यदि संविधान के अनुसार कार्य किया जाये तो सामाजिक न्याय दूर की बात नहीं है । शाम के अंधेरे के बाद सुबह होती है । रास्ता भूले लोग अपने घर वापिस आते हैं । यदि व्यक्तिगत हित छोडकर देश हित में संविधान के अनुसार कार्य किया जाये तो सामाजिक न्याय परिलोक की बात नहीं है ।
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha ]
2010भाग-3 म0प्र0लाॅ0ज0 151 म0प्र0 आकांक्षा बनाम वीरेन्द्र, एं 2000 भाग-1 म0प्र0 लाॅ0ज0 86ः2000 भाग-1 एम0पी0जे0आर0 148 मधु उर्फ संजीव कुमार बनाम श्रीमती ललिता बाई में अभिनिर्धारित किया था कि अंतरिम भरण पोषण का आदेश सारवान तौर पर दोनो पक्षों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है । यह स्वीकृत स्थिति है कि यदि पति इसका पालन नहीं करता है तो उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकता है अथवा उसको जेल भेजा जा सकता है । अतः अंतरिम भरण पोषण के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलनशील है ।
2010भाग-3 म0प्र0लाॅ0ज0 151 म0प्र0 आकांक्षा बनाम वीरेन्द्र, एं 2000 भाग-1 म0प्र0 लाॅ0ज0 86ः2000 भाग-1 एम0पी0जे0आर0 148 मधु उर्फ संजीव कुमार बनाम श्रीमती ललिता बाई में अभिनिर्धारित किया था कि अंतरिम भरण पोषण का आदेश सारवान तौर पर दोनो पक्षों की आर्थिक स्थिति को प्रभावित करता है । यह स्वीकृत स्थिति है कि यदि पति इसका पालन नहीं करता है तो उसकी सम्पत्ति को कुर्क किया जा सकता है अथवा उसको जेल भेजा जा सकता है । अतः अंतरिम भरण पोषण के विरूद्ध पुनरीक्षण प्रचलनशील है ।
दण्ड अपराध के समानुपातिक
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
. आरोपी को दिया गया दण्ड उसके अपराध के समानुपातिक होना चाहिए:-
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बार-बार यह निर्दिष्ट किया गया है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो,
संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
. आरोपी को दिया गया दण्ड उसके अपराध के समानुपातिक होना चाहिए:-
माननीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा बार-बार यह निर्दिष्ट किया गया है कि अधिरोपित दण्ड का अपराध की गम्भीरता के साथ समानुपातिक होना आवष्यक है, ताकि उसका यथोचित प्रभाव पड़े एवं समाज में भी सुरक्षा की भावना उत्पन्न हो,
संदर्भ:- मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध संतोष कुमार, 2006 (6) एस.एस.सी.-1.
’अधिनियम’ की धारा-163 (क)
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha)
’अधिनियम’ की धारा-163 (क)के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ-
1- राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147.
ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए ।
2- कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58.
’अधिनियम’ की धारा-163 (क)के अंतर्गत प्रतिकर संबंधित उत्तरदायित्व निर्धारण के लिए यह स्थापित किया जाना पर्याप्त है कि संबंधित वाहन से आवेदक को शारीरिक क्षति कारित हुई अथवा किसी व्यक्ति की मृत्यु हुई । ऐसे मामलों में यह प्रमाणित किया जाना आवश्यक नहीं है कि दुर्घटना किसी की लापरवाही के कारण हुई। संदर्भ-
1- राजस्थन स्टेट रोडवेज कार्पोशन वि. पीडित महिला अनीता आदि 2001 (3) एम.पी.एल.जे. 147.
ऐसे मामले में प्रतिकर निर्धारण के लिए अधिनियम के अंतग्रत दी गई अनुसूची का उपयोग किया जाना चाहिए ।
2- कैलाश विरूद्ध ओमप्रकाश यादव- 2003 (3) एम.पी.एच.टी.-58.
अग्रक्रय अधिकार
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
अग्रक्रय अधिकार
अग्रक्रय का अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 जिसे आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा 22 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति का बंटवारा होने के पहले यदि उत्तराधिकार में हक व अधिकार प्राप्त होता है और उनमें से कोई एक सदस्य संपत्ति का विक्रय करना चाहता है तो अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 में विनिर्दिष्ट वारिस अग्रक्रय का दावा कर सकते हैं।
अग्रक्रय अधिकार लागू किये जाने के लिये आवश्यक शर्ते:-
1. यह कि विवादित संपत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति होना चाहिये।
2. यह कि अनुसूची एक के वारिसों में कम से कम दो या दो से अधिक वारिस होना चाहिये।
3. यह कि विवादित संपत्ति का बंटवारा नहीं होना चाहिये।
4. यह कि संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होना चाहिये।
5. यह कि संपत्ति उत्तरजीविता के आधार पर अधिनियम की धारा 6 के अनुसार उत्तरजीवी सहदायिकों को उत्तरजीविता के आधार पर प्राप्त नहीं होना चाहिये।
6. यह कि सहस्वामी के द्वारा अचल संपत्ति में अपना हित हस्तांतरण करने के बाद दूसरा सहस्वामी अग्रक्रय अधिकार के आधार पर क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में दावा पेश कर सकता है।
7. यह कि जिस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के अन्दर संपत्ति स्थिति होगी उसे वाद और आवेदन क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा।
8. यह कि वादकारण संपत्ति की बिक्री के बाद उत्पन्न होता है।
9. यह कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 97 के अनुसार जब खरीददार बिक्रीसुदा संपत्ति पर कब्जा करता है अथवा रजिस्टर्ड विक्रयपत्र का निष्पादन होता है उसके एक साल के अन्दर आवेदन/दावा पेश होना चाहिये।
10. यह कि वर्ग-1 के वारिसों ने निर्वसीयति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है तभी यह धारा लागू होगी।
11. यह कि संपत्ति का मूल्य निर्धारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया जावेगा और न्यायालय संपत्ति का मूल्य निर्धारित करेगा।
12. यह कि जो भी हिस्सेदार सबसे ज्यादा मूल्य देगा वही अग्रक्रय के अधिकार में संपत्ति प्राप्त करेगा।
13. यह कि हिस्सेदार न्यायालय द्वारा निर्धारित मूल्य पर संपत्ति नहीं खरीदता है तो वह आवेदन का खर्च देगा और उत्तराधिकारी संपत्ति बाहरी व्यक्ति को बिक्री करने के लिये स्वतंत्र होगा।
14. इसी प्रकार व्यापार कारोबार की बिक्री एवं अधिकार हेतु आवेदन व दावा प्रस्तुत किया जावेगा।
15. इस धारा के अधीन आवेदन पर पारित आदेश अपील योग्य नहीं होगा। लेकिन वाद में पारित आदेश अपीलयोग्य होगा।
16. यह कि बिक्री के बाद दावा पेश होगा , अधिनियम की धारा 22(1) के अन्तर्गत आवेदन पेश नहीं होगा।
17. यह कि धारा 164 म0प्र0.भू राजस्व संहिता के संशोधन के बाद अधिनियम की धारा 22 के प्रावधान लागू होंगे। कृपया देखें ए0आई0आर0 1978 सुप्रीम कोर्ट 793(तीन जज का निर्णय) भजया वि0 श्रीमती गोपिका बाई एवं अन्य। उसमें ए0आई0आर0 1974 म0प्र0 पेज 141 फुल बैंच, चरणलाल साहू वि0 नंदकिशोर भट्ट को मान्यता प्रदान की गई है।
एवं अधिनियम की धारा-4 में संशोधन के बाद धारा 22 के प्रावधान कृषि भूमि पर लागू होंगे।
18. यह कि म0प्र0सीलिंग एक्ट के अन्तर्गत अधिग्रहित भूमि पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
19. यह कि धारा 22 के अतिक्रमण में सहउत्तराधिकारी द्वारा किया गया हित का अन्तरण शून्य न होकर अन्य सह उत्तराधिकारियों के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है।
अग्रक्रय अधिकार
अग्रक्रय का अधिकार हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम 1956 जिसे आगे अधिनियम से संबोधित किया गया है की धारा 22 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार संयुक्त हिन्दू परिवार की संपत्ति का बंटवारा होने के पहले यदि उत्तराधिकार में हक व अधिकार प्राप्त होता है और उनमें से कोई एक सदस्य संपत्ति का विक्रय करना चाहता है तो अधिनियम की अनुसूची के वर्ग-1 में विनिर्दिष्ट वारिस अग्रक्रय का दावा कर सकते हैं।
अग्रक्रय अधिकार लागू किये जाने के लिये आवश्यक शर्ते:-
1. यह कि विवादित संपत्ति संयुक्त हिन्दू परिवार की उत्तराधिकार में प्राप्त संपत्ति होना चाहिये।
2. यह कि अनुसूची एक के वारिसों में कम से कम दो या दो से अधिक वारिस होना चाहिये।
3. यह कि विवादित संपत्ति का बंटवारा नहीं होना चाहिये।
4. यह कि संपत्ति उत्तराधिकार में प्राप्त होना चाहिये।
5. यह कि संपत्ति उत्तरजीविता के आधार पर अधिनियम की धारा 6 के अनुसार उत्तरजीवी सहदायिकों को उत्तरजीविता के आधार पर प्राप्त नहीं होना चाहिये।
6. यह कि सहस्वामी के द्वारा अचल संपत्ति में अपना हित हस्तांतरण करने के बाद दूसरा सहस्वामी अग्रक्रय अधिकार के आधार पर क्षेत्राधिकार वाले न्यायालय में दावा पेश कर सकता है।
7. यह कि जिस न्यायालय की स्थानीय सीमाओं के अन्दर संपत्ति स्थिति होगी उसे वाद और आवेदन क्षेत्राधिकार प्राप्त होगा।
8. यह कि वादकारण संपत्ति की बिक्री के बाद उत्पन्न होता है।
9. यह कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 97 के अनुसार जब खरीददार बिक्रीसुदा संपत्ति पर कब्जा करता है अथवा रजिस्टर्ड विक्रयपत्र का निष्पादन होता है उसके एक साल के अन्दर आवेदन/दावा पेश होना चाहिये।
10. यह कि वर्ग-1 के वारिसों ने निर्वसीयति की संपत्ति को उत्तराधिकार में प्राप्त किया है तभी यह धारा लागू होगी।
11. यह कि संपत्ति का मूल्य निर्धारण करने के लिये सक्षम न्यायालय में आवेदन प्रस्तुत किया जावेगा और न्यायालय संपत्ति का मूल्य निर्धारित करेगा।
12. यह कि जो भी हिस्सेदार सबसे ज्यादा मूल्य देगा वही अग्रक्रय के अधिकार में संपत्ति प्राप्त करेगा।
13. यह कि हिस्सेदार न्यायालय द्वारा निर्धारित मूल्य पर संपत्ति नहीं खरीदता है तो वह आवेदन का खर्च देगा और उत्तराधिकारी संपत्ति बाहरी व्यक्ति को बिक्री करने के लिये स्वतंत्र होगा।
14. इसी प्रकार व्यापार कारोबार की बिक्री एवं अधिकार हेतु आवेदन व दावा प्रस्तुत किया जावेगा।
15. इस धारा के अधीन आवेदन पर पारित आदेश अपील योग्य नहीं होगा। लेकिन वाद में पारित आदेश अपीलयोग्य होगा।
16. यह कि बिक्री के बाद दावा पेश होगा , अधिनियम की धारा 22(1) के अन्तर्गत आवेदन पेश नहीं होगा।
17. यह कि धारा 164 म0प्र0.भू राजस्व संहिता के संशोधन के बाद अधिनियम की धारा 22 के प्रावधान लागू होंगे। कृपया देखें ए0आई0आर0 1978 सुप्रीम कोर्ट 793(तीन जज का निर्णय) भजया वि0 श्रीमती गोपिका बाई एवं अन्य। उसमें ए0आई0आर0 1974 म0प्र0 पेज 141 फुल बैंच, चरणलाल साहू वि0 नंदकिशोर भट्ट को मान्यता प्रदान की गई है।
एवं अधिनियम की धारा-4 में संशोधन के बाद धारा 22 के प्रावधान कृषि भूमि पर लागू होंगे।
18. यह कि म0प्र0सीलिंग एक्ट के अन्तर्गत अधिग्रहित भूमि पर अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होंगे।
19. यह कि धारा 22 के अतिक्रमण में सहउत्तराधिकारी द्वारा किया गया हित का अन्तरण शून्य न होकर अन्य सह उत्तराधिकारियों के विकल्प पर शून्यकरणीय होता है।
न्यायालय में मामले के निराकरण
भारतीय न्याय व्यवस्था न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-
1. यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।
2. यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।
जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।
3. यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।
इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।
4. यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।
5. यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।
6. यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।
इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।
7. यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।
8. यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
9. यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10. यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।
11. यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।
1. यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।
2. यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।
जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।
3. यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।
इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।
4. यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।
5. यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।
6. यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।
इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।
7. यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।
8. यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
9. यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10. यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।
11. यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।
‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन प्रक्रिया
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन प्रक्रिया
1. सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 114 एवं आदेश 47 में पुनर्विलोकन के संबंध में प्रावधान किये गये हैं।
धारा 114 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार पुनर्विलोकन के लिये अपने को जो व्यक्ति व्यथित मानता है वह निम्नलिखित आधार पर डिक्री पारित करने वाले या आदेश करने वाले न्यायालय से निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन कर सकेगा और न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे ।
(क) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात है, किन्तु जिसकी कोई अपील नहीं की गयी है,
(ख) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात नहीं है, अथवा
(ग) ऐसे विनिश्चिय से जो लघुवाद न्यायालय के निर्देश पर किया गया है।
व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 47 पुनर्विलोकन से संबंधित है जिसके अनुसार किसी डिक्री या आदेश के विरूद्ध निम्नलिखित दशाओं में उसी न्यायालय में पुनर्विलोकन हेतु आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा
1. कोई ऐसी नई और महत्वपूर्ण बात या
2. साक्ष्य के पता चलने से जो सम्यक तत्परता के प्रयोग के पश्चात् उस समय जब डिक्री/आदेश पारित किया गया था उसके ज्ञान में नहीं था या
3. या उसके द्वारा पेश नहीं किया जा सकता था या
4. किसी भूल या गलती के कारण जो अभिलेख के देखने से ही प्रकट होती हो, या
5. या किसी अन्य पर्याप्त कारण से पुनर्विलोकन के लिए आवेदन किया जा सकेगा।
आदेश 47 नियम 1 के उपनियम 2 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार-
1. वह पक्षकार जो डिक्री या आदेश की अपील नहीं कर रहा है निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन इस बात के होते हुये भी कि किसी अन्य पक्षकार द्वारा की गई अपील लंबित है वहाॅ के सिवाय कर सकेगा जहाॅ ऐसी अपील का आधार आवेदक और अपीलार्थी दोनों के बीच सामान्य है
2. या जहाॅ प्रत्यर्थी होते हुये वह अपील न्यायालय में वह मामला उपस्थित कर सकता है जिसके आधार पर वह पुनर्विलोकन के लिये आवेदन करता है।
3. पुनर्विलोकन के समय यह बात ध्यान रखने योग्य है कि आदेश 47 नियम 2 के स्पष्टीकरण के अनुसार - यह तथ्य की किसी विधि -प्रश्न का विनिश्चय जिस पर न्यायालय का निर्णय आधारित है, किसी अन्य मामले में वरिष्ठ न्यायालय के पश्चातवर्ती विनिश्चय द्वारा उलट दिया गया है या उपान्तरित कर दिया गया है, उस निर्णय के पुनर्विलोकन के लिए आधार नहीं होगा।
इस प्रकार पुनर्विलोकन के तीन बातें महत्वपूर्ण हैं :-
(1) यदि निर्णय अभिलेख के मुख पर प्रकट त्रुटि द्वारा दूषित हो गया हो। प्रकट त्रुटि का अर्थ यह है कि तर्क-वितर्क लंबी पद्धति के अपनाये बिना, अभिलेख को केवल देखने मात्र से ही प्रकट हो जाती है।
(2) यदि कार्यवाही में गंभीर अनियमितता है, यथा नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन, तो पुनर्विलोकन का आवेदन ग्रहण किया जा सकता है।
(3) यदि तथ्य की किसी गलत धारणा के द्वारा कोई गलती/त्रुटि हो गई है, जिसे बनाये रखने पर न्याय की हत्या हो जावेगी, तो भी पुनर्विलोकन किया जा सकता है।
इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.नागराज बनाम कर्नाटक राज्य, 1993 सप्लीमेंट (4) सु.को.के. 595 , (जादूनाथ जेना बनाम बसुपुर पंचायत, ए.आई.आर 2004 उडीसा 81 (खंडपीठ) अवलोकनीय हैं जिनमें उपरोक्त सिद्धांत अभिनिर्धारित किये गये हैं।
पुनर्विलोकन के लिये आवेदन
1. पुनर्विलोकन के लिये आवेदन का प्रारूप अपील करने के प्रारूप के समान होगा जो आवश्यक परिवर्तन सहित लागू होगा।
2. पुनर्विलोकन के लिये आवेदन प्रस्तुत किये जाने पर वह व्यवहार न्यायालय नियम 1961 के नियम 372 के उपनियम 16 के अनुसार विविध न्यायिक प्रकरणों के रजिस्टर में पंजीबद्ध होगा।
3. पुनर्विलोकन के लिये आवेदन पर न्याय फीस अधिनियम 1870 के अनुसार न्याय शुल्क देय होगा ।
न्याय फीस अधिनियम 1870 की अनुसूची एक के क्रमांक 04 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन या उसके पश्चात् उपस्थापित किया गया है तथा क्रमांक 05 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन के पूर्व उपस्थापित किया गया है।
4. आदेश 47 नियम 4(1) के अनुसार पुनर्विलोकन के पर्याप्त आधार नहीं होने पर आवेदन नामंजूर किया जावेगा और न्यायालय की राय में पुनर्विलोकन केलिये आवेदन मंजूर होने की दशा में निम्नलिखित कदम उठाये जाएंगे:
1. ऐसा कोई भी आवेदन विरोधी पक्षकार को ऐसी पूर्ववर्ती सूचना दिये बिना मंजूर नहीं किया जायेगा जिससे वह उपसंजात होने और उस डिक्री या आदेश के जिसके पुनर्विलोकन के लिये आवेदन किया गया है, समर्थन में सुने जाने के लिये समर्थ हो जायें तथा
2. ऐसा कोई भी आवेदन ऐसी नई बात या साक्ष्य के पता चलने के आधार पर जिसके बारे में आवेदन अभिकथन करता है कि वह उस समय जब डिक्री पारित की गई थी या आदेश किया गया था, उसके ज्ञान में नहीं थी या उसके द्वारा पेश नहीं किया गया जा सकता था, ऐसे अभिकथन के पूर्ण सबूत के बिना मंजूर नहीं किया जायेगा।
3. आवेदन मंजूर कर लिया जाता है तो उसका उल्लेख रजिस्टर में किया जायेगा और न्यायालय मामले को तुरन्त फिर सुन सकेगा या फिर से सुनवाई के बारे में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।
4. पुनर्विलोकन के आवेदन पर किये गये आदेश के या पुनर्विलोकन में पारित डिक्री या आदेश के पुनर्विलोकन के लिये कोई भी आवेदन ग्रहण नहीं किया जायेगा।
5. पुनर्विलोकन नामंजूरी का आदेश अपील योग्य नहीं होगा।
6. पुनर्विलोकन मंजूरी का आदेश अपील योग्य होगा।
7. जहाॅ आवेदन पक्षकार की अनुपस्थिति में खारिज हुआ है वहाॅ पर्याप्त हेतुक के आधार पर आवेदन पुनः सुनवाई में विरोधी पक्षकार को सूचना देकर ग्रहण किया जा सकेगा।
8. जहाॅ दो या दो अधिक न्यायाधीशों द्वारा गठित न्यायालय द्वारा आदेश दिया गया है वहाॅ उपस्थित किसी भी एक न्यायाधीश के समक्ष ही पुनर्विलोकन आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा, जब तक कि वे आगामी 06 माह तक आवेदन पर सुनवाई हेतु उपस्थित हैं ऐसी दशा में किसी अन्य न्यायाधीश के समक्ष आवेदन की सुनवाई नहीं होगी।
:ः पुनर्विलाकन की सीमायें:ः
1. विधि की त्रुटि के आधार पर भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता है।
2. यदि पूर्णपीठ किसी फैसले को भी उलट दें, तब भी किसी आदेश का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता,
3. यदि विधि या गुणागुण पर भी किसी प्रकार की कोई गलती हो तो भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।
4. - यदि उच्च मंच (ीपहीमत वितनउ) के निर्णय को समझने की त्रुटि (मततवत वित नदकमतेजंदकपदह) रही हो, तो भी इस आधार पर किसी निर्णय का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।
5. साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन नहीं किया जा सकता - पुनर्विलोकन की सीमा अपील की भांति व्यापक न होकर बहुत सीमित होती है और वह बताये गये आधारों पर ही किया जा सकता है। अभिलेख के देखने से प्रकट होने वाली भूल (त्रुटि) वह होती है, जो अभिलेख देखने मात्र से ही प्रकट हो जाये। जिस निष्कर्ष को गलत बताने के लिए सारे साक्ष्य का मूल्यांकन अपेक्षित हो, वह ऐसी भूल नहीं मानी जा सकती। तदानुसार पुनर्विलोकन में साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन करके दिया गया नया निर्णय अपास्त किया गया। इस सम्बन्ध में अवलोकनीय (ए.आई.आर. 1979 सु.को. 1047 तथा ए.आई.आर 1960 सु.को.137 है )
6. नया कथन जो द्वितीय अपील में नहीं उठाया गया, पुनर्विलोकन में पहली बार नहीं उठाया जा सकता ।
7. आदेश 47, नियम 1 की शर्तो के अनुसार निर्देश न्यायालय अपने पूर्वनिर्णय का पुनर्विलोकन कर सकता है, यदि वहाॅ अभिलेख के मुख पर कोई प्रकट त्रुटि हो। परन्तु आदेश की शुद्धता पर विचार नहीं किया जा सकता। इस संबंध में न्यायदृष्टांत जयचंद्र महामात्र ब. लैण्ड एक्वीजिशन आॅफिसर रायगढ, ए.आई.आर 2005 सु.केा. 4165 अवलोकनीय है।
8. आवेदक के पुनर्विलोकन याचिका के रूप में गुणागुण पर नए सिरे से संपूर्ण मामले पर तर्क करने का अवसर नहीं दिया जा सकता। इस संबंध में । आर.बी.ठक्कर एंड कंपनी (में) विरूद्ध शत्रुघन लालसिन्हा, 2010 (5) एम.पी.एच.टी 91 (सी.जी.) अवलोकनीय है।
9. गलत विनिश्चिय के लिए यह अनुज्ञेय नहीं है कि उसकी फिर से सुनवाई की जाये और उसे ठीक किया जाये। (1997) 8 एस.सी.सी.715, अनुसरित। इस संबंध में न्यायदृष्टांत म.प्र. राज्य विरूद्ध एस.एस.भदौरिया, 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ)त्र2001(1) एम.पी.एल.जे. 72 अवलोकनीय है।
10. कोई आदेश गलत होने से पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता- इस संबंध में न्यायदृष्टांत धर्माबाई ठाकुर (श्रीमती) विरूद्ध उषारानी दीक्षित (श्रीमती) 2004,(4)एम.पी.एच.टी. 417 अवलोकनीय है।
11. आदेश 47 नियम 1, सि.प्र.सं. के अधीन शक्तियों का केवल भूलों को ठीक करने के लिए किया जाता है-जो अभिलेख को देखने से ही प्रकट होती है। 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ) 2001(1) एम.पी.एल.जे.72 मदनसिंह विरूद्ध शांतिबाई 2005(1) एम.पी.एच.टी. 480 अवलोकनीय है।
12. गलत निष्कर्ष, पुनर्विलोकन किये जाने का आधार नहीं है-अवैध या गलत निष्कर्ष, चाहे तथ्यों पर हो या विधि में हो इसके सम्बन्ध में पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार पुनर्विलोकन की सीमायें निश्चित हैं अभिलेख से प्रगट गल्ती और किसी नई बात पर ही पुनर्विलोकन उसी न्यायालय में जिसने डिक्री आदेश पारित किया है उस दिनांक से परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 124 के अनुसार तीस दिन के अन्दर उच्चतम न्यायालय को छोड़कर किया जा सकता है।
‘‘किसी आज्ञप्ति या आदेश के पुनर्विलोकन प्रक्रिया
1. सिविल प्रक्रिया संहिता 1908 की धारा 114 एवं आदेश 47 में पुनर्विलोकन के संबंध में प्रावधान किये गये हैं।
धारा 114 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार पुनर्विलोकन के लिये अपने को जो व्यक्ति व्यथित मानता है वह निम्नलिखित आधार पर डिक्री पारित करने वाले या आदेश करने वाले न्यायालय से निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन कर सकेगा और न्यायालय उस पर ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे ।
(क) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात है, किन्तु जिसकी कोई अपील नहीं की गयी है,
(ख) किसी ऐसी डिक्री या आदेश से जिसकी अपील अनुज्ञात नहीं है, अथवा
(ग) ऐसे विनिश्चिय से जो लघुवाद न्यायालय के निर्देश पर किया गया है।
व्यवहार प्रक्रिया संहिता का आदेश 47 पुनर्विलोकन से संबंधित है जिसके अनुसार किसी डिक्री या आदेश के विरूद्ध निम्नलिखित दशाओं में उसी न्यायालय में पुनर्विलोकन हेतु आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा
1. कोई ऐसी नई और महत्वपूर्ण बात या
2. साक्ष्य के पता चलने से जो सम्यक तत्परता के प्रयोग के पश्चात् उस समय जब डिक्री/आदेश पारित किया गया था उसके ज्ञान में नहीं था या
3. या उसके द्वारा पेश नहीं किया जा सकता था या
4. किसी भूल या गलती के कारण जो अभिलेख के देखने से ही प्रकट होती हो, या
5. या किसी अन्य पर्याप्त कारण से पुनर्विलोकन के लिए आवेदन किया जा सकेगा।
आदेश 47 नियम 1 के उपनियम 2 व्यवहार प्रक्रिया संहिता के अनुसार-
1. वह पक्षकार जो डिक्री या आदेश की अपील नहीं कर रहा है निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन इस बात के होते हुये भी कि किसी अन्य पक्षकार द्वारा की गई अपील लंबित है वहाॅ के सिवाय कर सकेगा जहाॅ ऐसी अपील का आधार आवेदक और अपीलार्थी दोनों के बीच सामान्य है
2. या जहाॅ प्रत्यर्थी होते हुये वह अपील न्यायालय में वह मामला उपस्थित कर सकता है जिसके आधार पर वह पुनर्विलोकन के लिये आवेदन करता है।
3. पुनर्विलोकन के समय यह बात ध्यान रखने योग्य है कि आदेश 47 नियम 2 के स्पष्टीकरण के अनुसार - यह तथ्य की किसी विधि -प्रश्न का विनिश्चय जिस पर न्यायालय का निर्णय आधारित है, किसी अन्य मामले में वरिष्ठ न्यायालय के पश्चातवर्ती विनिश्चय द्वारा उलट दिया गया है या उपान्तरित कर दिया गया है, उस निर्णय के पुनर्विलोकन के लिए आधार नहीं होगा।
इस प्रकार पुनर्विलोकन के तीन बातें महत्वपूर्ण हैं :-
(1) यदि निर्णय अभिलेख के मुख पर प्रकट त्रुटि द्वारा दूषित हो गया हो। प्रकट त्रुटि का अर्थ यह है कि तर्क-वितर्क लंबी पद्धति के अपनाये बिना, अभिलेख को केवल देखने मात्र से ही प्रकट हो जाती है।
(2) यदि कार्यवाही में गंभीर अनियमितता है, यथा नैसर्गिक न्याय के सिद्धांतों का उल्लंघन, तो पुनर्विलोकन का आवेदन ग्रहण किया जा सकता है।
(3) यदि तथ्य की किसी गलत धारणा के द्वारा कोई गलती/त्रुटि हो गई है, जिसे बनाये रखने पर न्याय की हत्या हो जावेगी, तो भी पुनर्विलोकन किया जा सकता है।
इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा एस.नागराज बनाम कर्नाटक राज्य, 1993 सप्लीमेंट (4) सु.को.के. 595 , (जादूनाथ जेना बनाम बसुपुर पंचायत, ए.आई.आर 2004 उडीसा 81 (खंडपीठ) अवलोकनीय हैं जिनमें उपरोक्त सिद्धांत अभिनिर्धारित किये गये हैं।
पुनर्विलोकन के लिये आवेदन
1. पुनर्विलोकन के लिये आवेदन का प्रारूप अपील करने के प्रारूप के समान होगा जो आवश्यक परिवर्तन सहित लागू होगा।
2. पुनर्विलोकन के लिये आवेदन प्रस्तुत किये जाने पर वह व्यवहार न्यायालय नियम 1961 के नियम 372 के उपनियम 16 के अनुसार विविध न्यायिक प्रकरणों के रजिस्टर में पंजीबद्ध होगा।
3. पुनर्विलोकन के लिये आवेदन पर न्याय फीस अधिनियम 1870 के अनुसार न्याय शुल्क देय होगा ।
न्याय फीस अधिनियम 1870 की अनुसूची एक के क्रमांक 04 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन या उसके पश्चात् उपस्थापित किया गया है तथा क्रमांक 05 के अनुसार निर्णय के पुनर्विलोकन के लिये आवेदन, यदि वह डिक्री की तारीख से तीसवें दिन के पूर्व उपस्थापित किया गया है।
4. आदेश 47 नियम 4(1) के अनुसार पुनर्विलोकन के पर्याप्त आधार नहीं होने पर आवेदन नामंजूर किया जावेगा और न्यायालय की राय में पुनर्विलोकन केलिये आवेदन मंजूर होने की दशा में निम्नलिखित कदम उठाये जाएंगे:
1. ऐसा कोई भी आवेदन विरोधी पक्षकार को ऐसी पूर्ववर्ती सूचना दिये बिना मंजूर नहीं किया जायेगा जिससे वह उपसंजात होने और उस डिक्री या आदेश के जिसके पुनर्विलोकन के लिये आवेदन किया गया है, समर्थन में सुने जाने के लिये समर्थ हो जायें तथा
2. ऐसा कोई भी आवेदन ऐसी नई बात या साक्ष्य के पता चलने के आधार पर जिसके बारे में आवेदन अभिकथन करता है कि वह उस समय जब डिक्री पारित की गई थी या आदेश किया गया था, उसके ज्ञान में नहीं थी या उसके द्वारा पेश नहीं किया गया जा सकता था, ऐसे अभिकथन के पूर्ण सबूत के बिना मंजूर नहीं किया जायेगा।
3. आवेदन मंजूर कर लिया जाता है तो उसका उल्लेख रजिस्टर में किया जायेगा और न्यायालय मामले को तुरन्त फिर सुन सकेगा या फिर से सुनवाई के बारे में ऐसा आदेश कर सकेगा जो वह ठीक समझे।
4. पुनर्विलोकन के आवेदन पर किये गये आदेश के या पुनर्विलोकन में पारित डिक्री या आदेश के पुनर्विलोकन के लिये कोई भी आवेदन ग्रहण नहीं किया जायेगा।
5. पुनर्विलोकन नामंजूरी का आदेश अपील योग्य नहीं होगा।
6. पुनर्विलोकन मंजूरी का आदेश अपील योग्य होगा।
7. जहाॅ आवेदन पक्षकार की अनुपस्थिति में खारिज हुआ है वहाॅ पर्याप्त हेतुक के आधार पर आवेदन पुनः सुनवाई में विरोधी पक्षकार को सूचना देकर ग्रहण किया जा सकेगा।
8. जहाॅ दो या दो अधिक न्यायाधीशों द्वारा गठित न्यायालय द्वारा आदेश दिया गया है वहाॅ उपस्थित किसी भी एक न्यायाधीश के समक्ष ही पुनर्विलोकन आवेदन प्रस्तुत किया जायेगा, जब तक कि वे आगामी 06 माह तक आवेदन पर सुनवाई हेतु उपस्थित हैं ऐसी दशा में किसी अन्य न्यायाधीश के समक्ष आवेदन की सुनवाई नहीं होगी।
:ः पुनर्विलाकन की सीमायें:ः
1. विधि की त्रुटि के आधार पर भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता है।
2. यदि पूर्णपीठ किसी फैसले को भी उलट दें, तब भी किसी आदेश का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता,
3. यदि विधि या गुणागुण पर भी किसी प्रकार की कोई गलती हो तो भी पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।
4. - यदि उच्च मंच (ीपहीमत वितनउ) के निर्णय को समझने की त्रुटि (मततवत वित नदकमतेजंदकपदह) रही हो, तो भी इस आधार पर किसी निर्णय का पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।
5. साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन नहीं किया जा सकता - पुनर्विलोकन की सीमा अपील की भांति व्यापक न होकर बहुत सीमित होती है और वह बताये गये आधारों पर ही किया जा सकता है। अभिलेख के देखने से प्रकट होने वाली भूल (त्रुटि) वह होती है, जो अभिलेख देखने मात्र से ही प्रकट हो जाये। जिस निष्कर्ष को गलत बताने के लिए सारे साक्ष्य का मूल्यांकन अपेक्षित हो, वह ऐसी भूल नहीं मानी जा सकती। तदानुसार पुनर्विलोकन में साक्ष्य का पुनः मूल्यांकन करके दिया गया नया निर्णय अपास्त किया गया। इस सम्बन्ध में अवलोकनीय (ए.आई.आर. 1979 सु.को. 1047 तथा ए.आई.आर 1960 सु.को.137 है )
6. नया कथन जो द्वितीय अपील में नहीं उठाया गया, पुनर्विलोकन में पहली बार नहीं उठाया जा सकता ।
7. आदेश 47, नियम 1 की शर्तो के अनुसार निर्देश न्यायालय अपने पूर्वनिर्णय का पुनर्विलोकन कर सकता है, यदि वहाॅ अभिलेख के मुख पर कोई प्रकट त्रुटि हो। परन्तु आदेश की शुद्धता पर विचार नहीं किया जा सकता। इस संबंध में न्यायदृष्टांत जयचंद्र महामात्र ब. लैण्ड एक्वीजिशन आॅफिसर रायगढ, ए.आई.आर 2005 सु.केा. 4165 अवलोकनीय है।
8. आवेदक के पुनर्विलोकन याचिका के रूप में गुणागुण पर नए सिरे से संपूर्ण मामले पर तर्क करने का अवसर नहीं दिया जा सकता। इस संबंध में । आर.बी.ठक्कर एंड कंपनी (में) विरूद्ध शत्रुघन लालसिन्हा, 2010 (5) एम.पी.एच.टी 91 (सी.जी.) अवलोकनीय है।
9. गलत विनिश्चिय के लिए यह अनुज्ञेय नहीं है कि उसकी फिर से सुनवाई की जाये और उसे ठीक किया जाये। (1997) 8 एस.सी.सी.715, अनुसरित। इस संबंध में न्यायदृष्टांत म.प्र. राज्य विरूद्ध एस.एस.भदौरिया, 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ)त्र2001(1) एम.पी.एल.जे. 72 अवलोकनीय है।
10. कोई आदेश गलत होने से पुनर्विलोकन का आधार नहीं हो सकता- इस संबंध में न्यायदृष्टांत धर्माबाई ठाकुर (श्रीमती) विरूद्ध उषारानी दीक्षित (श्रीमती) 2004,(4)एम.पी.एच.टी. 417 अवलोकनीय है।
11. आदेश 47 नियम 1, सि.प्र.सं. के अधीन शक्तियों का केवल भूलों को ठीक करने के लिए किया जाता है-जो अभिलेख को देखने से ही प्रकट होती है। 2000(4) एम.पी.एच.टी. 263(खंड न्यायपीठ) 2001(1) एम.पी.एल.जे.72 मदनसिंह विरूद्ध शांतिबाई 2005(1) एम.पी.एच.टी. 480 अवलोकनीय है।
12. गलत निष्कर्ष, पुनर्विलोकन किये जाने का आधार नहीं है-अवैध या गलत निष्कर्ष, चाहे तथ्यों पर हो या विधि में हो इसके सम्बन्ध में पुनर्विलोकन नहीं किया जा सकता।
इस प्रकार पुनर्विलोकन की सीमायें निश्चित हैं अभिलेख से प्रगट गल्ती और किसी नई बात पर ही पुनर्विलोकन उसी न्यायालय में जिसने डिक्री आदेश पारित किया है उस दिनांक से परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद 124 के अनुसार तीस दिन के अन्दर उच्चतम न्यायालय को छोड़कर किया जा सकता है।
भारत में विधि का शासन
भारत में विधि का शासन
एडवर्ड काक के द्वारा प्रतिपादित विधि के शासन को प्रोफेसर डायसी ने विस्तृत व्याख्या कर अर्थ स्पष्ट किया और प्रायः दुनिया के सभी देशों मंे उनके अभिमत को स्वीकार कर अपने संविधान का अभिन्न अंग बनाया है।
विधि के शासन में सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान है और सभी का संरक्षण विधि बिना किसी भेदभाव के करती है लेकिन इसमें वर्ग विभेद को विधि के विपरीत नहीं माना गया है और एक वर्ग विशेष और व्यक्ति के लिए भिन्न कानून और व्यवस्था की जा सकती है, जिसे युक्तियुक्त वर्गीकरण कहा जाता है ।
विधि के शासन के अंतर्गत राज्य का प्रत्येक अधिकारी अपने आप को विधि के अधीन समझेगा और कानून का पालन करेगा । इसमें राज्य के तीनों अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों कानून के अनुसार कार्यवाही किए जाने के लिए बाध्य है ।
विधि के शासन के अंतर्गत व्यक्ति संबंधी सभी स्वतंत्रताऐं इसमें शामिल मानी गई है और इसे संविधान का महत्वपूर्ण अंग माना गया है । विधि के शासन के अंतर्गत राज्य कर्मचारियों के द्वारा संवैधानिक सीमाओं के अंदर अपनी कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग किया जाएगा । यदि उनकेे द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है या सीमा से अधिक किया जाता है तो जनता उनके आचरण को चुनौती दे सकती है और न्यायालय उनके आचरण में सुधार करेगें ।
विधि के शासन के अंतर्गत सरकारी अधिकारियों को मनमाना विवेकाधिकार प्राप्त नहीं होंता है, किसी भी व्यक्ति के पास विवेकाधिकार की असीमित शक्तियां नहीं होती हैं। सभी व्यक्तियों को विवेकाधिकार का प्रयोग विधि के अनुसार दी गई शक्तियों के अंतर्गत करना होता है ।
विधि के शासन के अंतर्गत सभी विधि के उल्लंघन करने वाले को दण्डित किया जाता है । सभी व्यक्तियों पर देश का संपूर्ण कानून लागू बराबरी से लागू होता है, कोई भी व्यक्ति विधि के उपर नहीं माना जाता है, किसी भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, नेता को विशेष छूट नहीं होती है ।
इस संबंध में 1959 में दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कमीशन आॅफ ज्यूरिस में भारत के संबंध में विधि के शासन को लागू किए जाने के लिए कमेटीयां बनाई गई थीं, जो निम्नलिखित हैं:-
(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा विधि का शासन
(2) राज्य के संबंध में विधि का शासन
(3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन
(4) सुनवाई तथा परीक्षण के संबध्ंा में विधि का शासन
(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विधि का शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-
1. राज्य पक्षपातपूर्ण विधि नहीं बनाएगा,
2.राज्य धार्मिक विश्वास पर हस्तक्षेप नहीं करेंगे,
3. राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाऐंगे ।
(2) राज्य के संबंध में विधि का शासन लागू करने के संबध्ंा में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-
1.राज्य द्वारा प्रभावशाली सरकार दी जाएगी,
2.राज्य सरकार विधि के अनुसार चलेगी,
3. राज्य सरकार व्यक्ति की सुरक्ष देगी,
4. राज्य द्वारा बुराईयों का अंत किया जाएगा ।
(3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-
1.बिना विधिक प्रावधानों के गिरफतार नहीं किया जाएगा,
2. आरोप साबित होने पर जांच एजेन्सी व्यक्ति को निर्दोष मानेगी
3. युक्ति को अपने विरूद्ध आरोप में सुनवाई का पूरा अवसर दिया जाएगा
4. व्यक्ति का परीक्षण विधि अनुसार होगा ।
(4) सुनवाई तथा परीक्षण करने के संबध्ंा में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-ः-
1. न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगी ।
2. न्यायालय और न्यायाधीश निष्पक्ष और निर्भिक होकर न्याय प्रदान करेंगे ।
3. .विधि का व्यवसाय स्वतंत्र रूप से किया जाएगा ।
इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय प्रशासन द्वारा न्याय प्रदान करना ही विधि का शासन है, जिसमें बिना डर, दबाव, पक्षपात के न्याय प्रदान किया जाएगा । इसके अंतर्गत कानून किसी के साथ विभेद नहीं करेगा, सभी पर समान रूप से लागू होंगा और सभी को समान और संपूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाएगा ।
पूर्व निर्णीत प्रकरणों के संबंध में
पूर्व निर्णीत प्रकरणों के संबंध में
माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ में पाच जजो ने 2003 भाग-1 जे0एल0जे0 105 में पूर्व निर्णय के संबंध में सिद्धांत अभिनिर्धारित किये है, जिसमें मान्नीय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा बलवीर सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में पूर्ण न्यायपीठ के विनिश्चय में, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय की दो समान अधिकारयुक्त न्यायपीठो के दृष्टिकोण में विरोध हो तब उच्च न्यायालय द्वारा उस निणर्य का अनुसरण किया जाना होगा जिसमें से प्रतीत हो कि विधि अधिक विस्तृत रूप और अधिक सही और अधिनियम की योजना के अनुरूप अभिकथित हैं, जिसे सही विधि न मानते हुए उसे इस बिंदु पर उलटा गया है । अतः 2001 रा नि 343त्र 2001 (2) एम पी एल जे 644 (पूर्ण न्यायपीठ) द्वारा उलटा गया ।
इसके बाद ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 752 सेन्ट्र्ल बोर्ड आॅफ द्विवेदी बोरा कमेटी विरूद्ध महाराष्ट्र् राज्य के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के पाच न्यायाधीशगण के द्वारा पूर्व निर्णय के संबंध में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किए हैं।
1- उच्च न्यायालय के बारे में, एकल न्यायपीठ अन्य एकल न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं।
2- यदि एकल न्यायाधीश अन्य एकल न्यायपीठ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो तब उन्हें उस मामले को बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित करना चाहिए।
3- इसी प्रकार खंड न्यायपीठ, पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं ।
4- यदि वह पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से सहमत नहीं हो तब उसके द्वारा मामला बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित किया जाना चाहिए।
5- समान सामथ्र्य की दो खंड न्यायपीठो के विनिश्चयों में विरोध की दशा में पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय का अनुसार किया जाएगा, सिवाय तब जब उसे पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा स्पष्ट किया गया हो , जिस दिशा में पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होगा ।
6- बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय, लघुतर न्यायपीठों के लिए बाध्यकर हैं।
7- उच्चतम न्यायालय के दो विनिश्चयों में विरोध की दशा में, जब न्यायपीठों में न्यायाधीशों की संख्या समान हो तब पूर्वतर न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होता हैं, सिवाय तब जब समान संख्या की पश्चात्वर्ती न्यायपीठ द्वारा स्पष्टीकृत हो, जिस दशा में पश्चात्वर्ती विनिश्चय बाध्यकर होता हैं।
8- बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय लघुतर न्यायपीठों के लिये बाध्यकर होता हैं। अतः पूर्वतर खंड न्यायपीठ का विनिश्चय, जब तब पश्चत्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा प्रभेदित नहीं हो, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकर है।
9- इसी प्रकार, जब खंड न्यायपीठ के विनिश्चय तथा बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय विद्यमान हो तब उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय बाध्यकर हैं।
10- उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विनिश्चयों में जो सामान्य सूत्र हैं वह यह हैं कि उस पूर्व निर्णय को अत्यधिक मूल्य दिया जाना होता हैं जो न्यायालय के विनिश्चयों में सामंजस्य तथा सुनिश्चितता के प्रयोजनार्थ न्यायालय द्वारा अनुसरित विनिर्णय के रूप में प्रवर्तित हो गया हैं । जब तक पूर्व निर्णय के रूप में प्रस्तुत किए गए विनिश्चय को न्यायालय द्वारा स्पष्टतः प्रभेदित नहीं किया जा सका हो अथवा वह कुछ ऐसे पूर्व निर्णयों को विचार में लिय बिना,अनवधानता के कारण दिया गया हो जिनसे न्यायालय सहमत हो।
माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ में पाच जजो ने 2003 भाग-1 जे0एल0जे0 105 में पूर्व निर्णय के संबंध में सिद्धांत अभिनिर्धारित किये है, जिसमें मान्नीय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा बलवीर सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में पूर्ण न्यायपीठ के विनिश्चय में, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय की दो समान अधिकारयुक्त न्यायपीठो के दृष्टिकोण में विरोध हो तब उच्च न्यायालय द्वारा उस निणर्य का अनुसरण किया जाना होगा जिसमें से प्रतीत हो कि विधि अधिक विस्तृत रूप और अधिक सही और अधिनियम की योजना के अनुरूप अभिकथित हैं, जिसे सही विधि न मानते हुए उसे इस बिंदु पर उलटा गया है । अतः 2001 रा नि 343त्र 2001 (2) एम पी एल जे 644 (पूर्ण न्यायपीठ) द्वारा उलटा गया ।
इसके बाद ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 752 सेन्ट्र्ल बोर्ड आॅफ द्विवेदी बोरा कमेटी विरूद्ध महाराष्ट्र् राज्य के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के पाच न्यायाधीशगण के द्वारा पूर्व निर्णय के संबंध में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किए हैं।
1- उच्च न्यायालय के बारे में, एकल न्यायपीठ अन्य एकल न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं।
2- यदि एकल न्यायाधीश अन्य एकल न्यायपीठ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो तब उन्हें उस मामले को बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित करना चाहिए।
3- इसी प्रकार खंड न्यायपीठ, पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं ।
4- यदि वह पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से सहमत नहीं हो तब उसके द्वारा मामला बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित किया जाना चाहिए।
5- समान सामथ्र्य की दो खंड न्यायपीठो के विनिश्चयों में विरोध की दशा में पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय का अनुसार किया जाएगा, सिवाय तब जब उसे पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा स्पष्ट किया गया हो , जिस दिशा में पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होगा ।
6- बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय, लघुतर न्यायपीठों के लिए बाध्यकर हैं।
7- उच्चतम न्यायालय के दो विनिश्चयों में विरोध की दशा में, जब न्यायपीठों में न्यायाधीशों की संख्या समान हो तब पूर्वतर न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होता हैं, सिवाय तब जब समान संख्या की पश्चात्वर्ती न्यायपीठ द्वारा स्पष्टीकृत हो, जिस दशा में पश्चात्वर्ती विनिश्चय बाध्यकर होता हैं।
8- बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय लघुतर न्यायपीठों के लिये बाध्यकर होता हैं। अतः पूर्वतर खंड न्यायपीठ का विनिश्चय, जब तब पश्चत्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा प्रभेदित नहीं हो, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकर है।
9- इसी प्रकार, जब खंड न्यायपीठ के विनिश्चय तथा बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय विद्यमान हो तब उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय बाध्यकर हैं।
10- उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विनिश्चयों में जो सामान्य सूत्र हैं वह यह हैं कि उस पूर्व निर्णय को अत्यधिक मूल्य दिया जाना होता हैं जो न्यायालय के विनिश्चयों में सामंजस्य तथा सुनिश्चितता के प्रयोजनार्थ न्यायालय द्वारा अनुसरित विनिर्णय के रूप में प्रवर्तित हो गया हैं । जब तक पूर्व निर्णय के रूप में प्रस्तुत किए गए विनिश्चय को न्यायालय द्वारा स्पष्टतः प्रभेदित नहीं किया जा सका हो अथवा वह कुछ ऐसे पूर्व निर्णयों को विचार में लिय बिना,अनवधानता के कारण दिया गया हो जिनसे न्यायालय सहमत हो।
विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका
विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका
विधि के शासन का अर्थ विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निष्पक्ष, निडर होकर पक्षपातरहित ढंग से न्याय प्रदान करना विधि का शासन कहलाता है, न्यायालय को संहिताबद्ध विधि भारतीय दण्ड संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि के पालन में कोई बाधा नहीं है । जिसमें न्यायालय लिखित विधि के अनुसार कार्य कर विधि का शासन प्रदान करते हंै।
लेकिन हमारे देश में अनेक जाति, धर्म भाषा के लोग हैं, जिनमें अनेक रूढी प्रथा और रीति-रिवाज विद्धमान है, जो विधि का रूप रखते ंहै, जैसे मुस्लिम विधि संहिताबद नहीं है, लेकिन मुस्लिम धर्म ग्रन्थ शरियत और कुरान के आधार पर कानून पर आधारित है । इसी प्रकार गौड़-भील, आदिवासी आदी जनजातियांें में भी सामाजिक रूढी प्रथा रीतिरिवाज प्रचलित हैं, जिसके अनुसार उनके यहां विवाह, तलाक, दत्तक, उत्तराधिकार की कार्यवाही होती है, जो न्यायालय में प्रमाणित होने पर विधि का रूप रखते हैं ।
इसलिए जब न्यायालय द्वारा असंहिताबद्ध रूढीगत विधि को लागू किया जाता है तब न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल और कानूनी अधिकारों का ध्यान रखते हुए विधि के समक्ष समता-समानता-संरक्षण, वर्ग विभेद, लिंगभेद, जातिभेद धर्मभेद को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्राकृतिक न्याय तथा मानव अधिकार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्याय प्रदान करे, यही विधि का शासन है ।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबध् में मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्ति को मूल अधिकारों के संबध् में संविधान के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है और भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय रिट जारी कर उनके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं ।
न्याय प्रशासन में विधि का शासन लागू करने में वरिष्ठ न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका है और वे समय-समय पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गिरफतारी, संरक्षण आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर न्यायालय, पुलिस प्रशासन आदि से संबंधित संस्थाओं को सचेत करते रहते है, उनके द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों को लागू करना अधीनस्थ न्यायालय और राज्य का कर्तव्य है ।
न्यायालयों में विधि का शासन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका राज्य के प्रमुख अंग जिला कलेक्टर, न्यायिक मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट, पुलिस आदि की रहती है और सर्वप्रथम संज्ञेय अपराध घटित होने पर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य है और उसके पश्चात् उसकी जांच कर अभियोग पत्र पेश करना सुरक्षा एजेन्सीयों का काम है और प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकरण के साथ उसकी प्रतिलिपि धारा 157 द.प्र.सं. के अंतर्गत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने के साथ ही विधि का शासन और संरक्षण प्रभावशील हो जाता है ।
आरोपी के गिरफतार होने पर उसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा डी.के.बसु के मामले में दी गई गाईडलाईन के अनुसार पुलिस के द्वारा गिरफतार किया जाता है, उसे गिरफतारी के कारणों की सूचना दी जाती है । उसके सगे-संबंधियों को गिरफतारी की सूचना से अवगत कराया जाता है और उसे पसंद के अधिवक्ता से सलाह लेने की छूट दी जाती है, इसके बाद उसे 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है । उसके साथ गिरफतारी के दौरान अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाता है, हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाती है । उसे मारपीट कर प्रताडि़त नहीं किया जाता है ।
आरोपी के गिरफतार होने के बाद व्व्यक्ति को जब सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वह आरोपी से पूछतांछ करता है, यदि उसके शरीर पर कोई चोट है, तो उसका मेडीकल करवाता है या वह अपना चिकित्सीय परीक्षण कराना चाहता है तो उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाता है । इसके बाद उसे और अभियेाजन को सुनकर न्यायिक अभिरक्षा अथवा पुलिस अभिरक्षा में विधिक प्रावधानों के अनुसार भेजा जाता है ।
मजिस्ट्रेट के द्वारा यदि गिरफतारी के दौरान मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता है तो उसका परिवाद मानव अधिकार न्यायालय के समक्ष मानवअधिकार अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत प्रस्तुत कर सकता है । निर्धारित समय अवधि के लिए न्यायिक रिमांड और पुलिस रिमांड दिए जाने के साथ ही साथ जमानत के सबंध में आरोपी को सुना जाता है और उसे विधिक प्रावधानों के अनुसार जमानत प्रदान की जाती है अथवा निरस्त की जाती है ।
उसके बाद न्यायालय में चालान पेश होने पर आरोपी को चालान की नकल दी जाती है । यदि प्रार्थी इलाज के लिए सहायता चाहता है तो उसे सरकारी खर्च पर न्यायालय द्वारा इलाज कराने की सुविधा दी जाती है । आरोपी और प्रार्थी दोनों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना अभिरक्षा के विचारण का सामना न कर सके ।
उसके बाद आरोप लगाए जाने के साथ ही विचारण प्रारंभ होता है और विचारण भी शीघ्र किए जाने पर ही विधि का शासन प्रभावशील होता है । विधि के शासन के अनुसार शीघ्र विचारण होना चाहिए, विचारण प्रारंभ होने के दौरान साक्ष्य अभिलेखन न्यायालय द्वारा किया जाता है और यह एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले साक्षियों की साक्ष्य घटना के संबध् में अभिलिखित की जाती है ।
न्यायालय में उपस्थित साक्षियां को आने- जाने का खर्च दिया जाता है । अभियोजन साक्षी बिना डर दबाव के अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करें इसलिए उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है । इसके बाद आरोपी को आरोपी को बचाव का पर्याप्त अवसर दिया जाता है और उसे भी अपनी तरफ से बचाव साक्ष्य पेश करने का अवसर प्राप्त होता है । विचारण के दौरान उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है, जब तक कि वह दोषी नहीं ठहराया जाए, उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है । दस दोषी छूट जाऐं, परंतु एक निर्दोष को दोषी नहीं ठहराया जाए, इस बात को ध्यान में रखते हुए न्यायिक विचारण किया जाता है ।
आरोपी के निर्दोष होने की उपधारणा के बाद विचारण प्रारंभ होने के बाद उसे बचाव और प्रतिरक्षा का पर्याप्त अवसर देकर उसके विरूद्ध आई साक्ष्य से अभियुक्त परीक्षण में अवगत कराकर उससे बचाव में साक्ष्य देने का अवसर प्रदान किया जाता है । यदि उसे लिखित में अंतिम तर्क प्रस्तुत किए जाने और उसे खुद की बाध्यता के साथ बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के प्रावधानों के साथ साक्ष्य का विश्लेषण कर निणर््ाय पारित किया जाता है ।
निणर््ाय पारित होने के बाद आरोपी और प्रार्थी दोनों के हितों को ध्यान में रखते हुए दण्डादेश पारित किया जाता है, जिसमें प्रार्थी को हुए नुकसान के लिए प्रतिकर और खर्च दिलाया जाता हैे । आरोपी को दण्ड इस उददेश्य के साथ दिया जाता है कि अपराध की पुनर्रावृत्ति न हो और उसे देखकर समाज में सुधार हो और अन्य कोई व्यक्ति पुनः इस प्रकार का अपराध करने की न सोचे ।
विचारण के समय महिला संबंधी अपराधों में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा साक्षी के मामले में प्रतिपादित गाईडलाईन का ध्यान रखा जाता है । प्रार्थी का नाम उजागर न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए कैमरा ट्रायल की जाती है । विचारण के दौरान सुलह, समझौता, राजीनामा का प्रयास किया जाता है ताकि पक्षकारों में आपसी सामन्जस्य स्थापित हो और उनमें व्याप्त दुश्मनी, वैमनस्यता समाप्त हो ।
इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित न्यायालय विधिक प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करते हुए विधि का शासन स्थापित करते हैं ।
विधि के शासन का अर्थ विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निष्पक्ष, निडर होकर पक्षपातरहित ढंग से न्याय प्रदान करना विधि का शासन कहलाता है, न्यायालय को संहिताबद्ध विधि भारतीय दण्ड संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि के पालन में कोई बाधा नहीं है । जिसमें न्यायालय लिखित विधि के अनुसार कार्य कर विधि का शासन प्रदान करते हंै।
लेकिन हमारे देश में अनेक जाति, धर्म भाषा के लोग हैं, जिनमें अनेक रूढी प्रथा और रीति-रिवाज विद्धमान है, जो विधि का रूप रखते ंहै, जैसे मुस्लिम विधि संहिताबद नहीं है, लेकिन मुस्लिम धर्म ग्रन्थ शरियत और कुरान के आधार पर कानून पर आधारित है । इसी प्रकार गौड़-भील, आदिवासी आदी जनजातियांें में भी सामाजिक रूढी प्रथा रीतिरिवाज प्रचलित हैं, जिसके अनुसार उनके यहां विवाह, तलाक, दत्तक, उत्तराधिकार की कार्यवाही होती है, जो न्यायालय में प्रमाणित होने पर विधि का रूप रखते हैं ।
इसलिए जब न्यायालय द्वारा असंहिताबद्ध रूढीगत विधि को लागू किया जाता है तब न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल और कानूनी अधिकारों का ध्यान रखते हुए विधि के समक्ष समता-समानता-संरक्षण, वर्ग विभेद, लिंगभेद, जातिभेद धर्मभेद को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्राकृतिक न्याय तथा मानव अधिकार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्याय प्रदान करे, यही विधि का शासन है ।
व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबध् में मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्ति को मूल अधिकारों के संबध् में संविधान के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है और भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय रिट जारी कर उनके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं ।
न्याय प्रशासन में विधि का शासन लागू करने में वरिष्ठ न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका है और वे समय-समय पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गिरफतारी, संरक्षण आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर न्यायालय, पुलिस प्रशासन आदि से संबंधित संस्थाओं को सचेत करते रहते है, उनके द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों को लागू करना अधीनस्थ न्यायालय और राज्य का कर्तव्य है ।
न्यायालयों में विधि का शासन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका राज्य के प्रमुख अंग जिला कलेक्टर, न्यायिक मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट, पुलिस आदि की रहती है और सर्वप्रथम संज्ञेय अपराध घटित होने पर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य है और उसके पश्चात् उसकी जांच कर अभियोग पत्र पेश करना सुरक्षा एजेन्सीयों का काम है और प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकरण के साथ उसकी प्रतिलिपि धारा 157 द.प्र.सं. के अंतर्गत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने के साथ ही विधि का शासन और संरक्षण प्रभावशील हो जाता है ।
आरोपी के गिरफतार होने पर उसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा डी.के.बसु के मामले में दी गई गाईडलाईन के अनुसार पुलिस के द्वारा गिरफतार किया जाता है, उसे गिरफतारी के कारणों की सूचना दी जाती है । उसके सगे-संबंधियों को गिरफतारी की सूचना से अवगत कराया जाता है और उसे पसंद के अधिवक्ता से सलाह लेने की छूट दी जाती है, इसके बाद उसे 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है । उसके साथ गिरफतारी के दौरान अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाता है, हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाती है । उसे मारपीट कर प्रताडि़त नहीं किया जाता है ।
आरोपी के गिरफतार होने के बाद व्व्यक्ति को जब सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वह आरोपी से पूछतांछ करता है, यदि उसके शरीर पर कोई चोट है, तो उसका मेडीकल करवाता है या वह अपना चिकित्सीय परीक्षण कराना चाहता है तो उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाता है । इसके बाद उसे और अभियेाजन को सुनकर न्यायिक अभिरक्षा अथवा पुलिस अभिरक्षा में विधिक प्रावधानों के अनुसार भेजा जाता है ।
मजिस्ट्रेट के द्वारा यदि गिरफतारी के दौरान मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता है तो उसका परिवाद मानव अधिकार न्यायालय के समक्ष मानवअधिकार अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत प्रस्तुत कर सकता है । निर्धारित समय अवधि के लिए न्यायिक रिमांड और पुलिस रिमांड दिए जाने के साथ ही साथ जमानत के सबंध में आरोपी को सुना जाता है और उसे विधिक प्रावधानों के अनुसार जमानत प्रदान की जाती है अथवा निरस्त की जाती है ।
उसके बाद न्यायालय में चालान पेश होने पर आरोपी को चालान की नकल दी जाती है । यदि प्रार्थी इलाज के लिए सहायता चाहता है तो उसे सरकारी खर्च पर न्यायालय द्वारा इलाज कराने की सुविधा दी जाती है । आरोपी और प्रार्थी दोनों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना अभिरक्षा के विचारण का सामना न कर सके ।
उसके बाद आरोप लगाए जाने के साथ ही विचारण प्रारंभ होता है और विचारण भी शीघ्र किए जाने पर ही विधि का शासन प्रभावशील होता है । विधि के शासन के अनुसार शीघ्र विचारण होना चाहिए, विचारण प्रारंभ होने के दौरान साक्ष्य अभिलेखन न्यायालय द्वारा किया जाता है और यह एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले साक्षियों की साक्ष्य घटना के संबध् में अभिलिखित की जाती है ।
न्यायालय में उपस्थित साक्षियां को आने- जाने का खर्च दिया जाता है । अभियोजन साक्षी बिना डर दबाव के अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करें इसलिए उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है । इसके बाद आरोपी को आरोपी को बचाव का पर्याप्त अवसर दिया जाता है और उसे भी अपनी तरफ से बचाव साक्ष्य पेश करने का अवसर प्राप्त होता है । विचारण के दौरान उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है, जब तक कि वह दोषी नहीं ठहराया जाए, उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है । दस दोषी छूट जाऐं, परंतु एक निर्दोष को दोषी नहीं ठहराया जाए, इस बात को ध्यान में रखते हुए न्यायिक विचारण किया जाता है ।
आरोपी के निर्दोष होने की उपधारणा के बाद विचारण प्रारंभ होने के बाद उसे बचाव और प्रतिरक्षा का पर्याप्त अवसर देकर उसके विरूद्ध आई साक्ष्य से अभियुक्त परीक्षण में अवगत कराकर उससे बचाव में साक्ष्य देने का अवसर प्रदान किया जाता है । यदि उसे लिखित में अंतिम तर्क प्रस्तुत किए जाने और उसे खुद की बाध्यता के साथ बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के प्रावधानों के साथ साक्ष्य का विश्लेषण कर निणर््ाय पारित किया जाता है ।
निणर््ाय पारित होने के बाद आरोपी और प्रार्थी दोनों के हितों को ध्यान में रखते हुए दण्डादेश पारित किया जाता है, जिसमें प्रार्थी को हुए नुकसान के लिए प्रतिकर और खर्च दिलाया जाता हैे । आरोपी को दण्ड इस उददेश्य के साथ दिया जाता है कि अपराध की पुनर्रावृत्ति न हो और उसे देखकर समाज में सुधार हो और अन्य कोई व्यक्ति पुनः इस प्रकार का अपराध करने की न सोचे ।
विचारण के समय महिला संबंधी अपराधों में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा साक्षी के मामले में प्रतिपादित गाईडलाईन का ध्यान रखा जाता है । प्रार्थी का नाम उजागर न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए कैमरा ट्रायल की जाती है । विचारण के दौरान सुलह, समझौता, राजीनामा का प्रयास किया जाता है ताकि पक्षकारों में आपसी सामन्जस्य स्थापित हो और उनमें व्याप्त दुश्मनी, वैमनस्यता समाप्त हो ।
इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित न्यायालय विधिक प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करते हुए विधि का शासन स्थापित करते हैं ।
//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
विधि द्वारा स्थापित न्यायालयों को विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में विधि का शासन लागू किए जाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण न्याय प्रशासन प्रभावित होता हैं । उपरोक्त कठिनायां निम्नलिखित हैंः-
1. न्यायालय में कार्य की अधिकता ।
2. न्यायालय में सभी गवाहों को खर्च नहीं दिया जाता है क्योंकि वह कम होने के कारण जल्दी समाप्त हो जाता है ।
3. निःशुल्क विधिक सहायता , अप्रशिक्षित, पैनल लायर के माध्यम से दी जाती है ।
4. सरकारी अधिवक्ता राजनैतिक प्रभाव से बनाए जाते हैं इसलिए एक ही दिन में 15-20 प्रकरणों में कार्यवाही किए जाने हेतु सक्षम नहीं होते हैं ।
5. न्यायालय के पास प्रतिकर अदायगी हेतु खुद का कोई फण्ड नहीं है, इसलिए प्रार्थी को इलाज हेतु पर्याप्त राशि प्रदान नहीं की जा सकती है ।
6. न्यायालय में फाईलों की संख्या अत्यधिक है, जिसके कारण न्यायाधीश निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही नहंी कर पाते हैं ।
7. न्यायालय और न्यायाधीश राजनीति, मीडिया, प्रमोशन के लालच में डर दबाव के कारण काम करते हैं ।
8. बाल न्यायालय भी औपचारिकतापूर्ण एक दिन लगाया जाता है, उसमें विशेषज्ञ की नियुक्ति नहीं होती है ।
9. ग्राम न्यायालय भी केवल एक दिन लगाए जाते हैं और ग्राम न्यायालय के अनुरूप ग्रामों में जाकर न्यायाधीश सुविधाओं के अभाव के कारण न्याय प्रदान नहीं करते हैं ।
10. शासकीय गवाहों को सुरक्षा प्रदान नहंी की जाती है, जिसके कारण वे डर दबाव के कारण अभियोजन का पक्ष समर्थन नहीं करते हैं, जिसके कारण दोषी व्यक्ति न्यायालय में छूट जाते हैं ।
11.न्यायालय और न्यायाधीश पर डर दबाव बनाए जाने के लिए झंूठे आरोप और शिकायतें की जाती हैं, जिसके कारण न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाते हैं ।
पारिवारिक व्यवस्था पत्र
पारिवारिक व्यवस्था पत्र
पारिवारिक व्यवस्था पत्र को भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की धारा 2-24 में व्यवस्थापन के रूप में इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि:-
किसी जंगम या स्थावर संपत्ति का ऐसा लिखत जिसमें अवसीयती व्ययन अभिप्रेत है, जिसमें व्यवस्थापन की सपंत्ति उनके कुटुम्ब के या उन व्यक्तियों के बीच जिनके लिए वह व्यवस्था करना चाहता है, वितरित करने के प्रयोजन के लिए या उस पर आश्रित व्यक्तियों के लिए व्यवस्था करने के प्रयोजन के लिए किया गया है ।
इसके अंतर्गत विवाह के प्रतिफल के लिए किया गया व्यवस्थापन और धार्मिक या पूर्त प्रयोजन के लिए किया गया व्यवस्थापन शामिल है । इसके अंतर्गत ऐसा व्ययन लिखित में नहीं किया गया है, वहां किसी प्रयोजनके निबन्धनों को चाहे वह न्यास की घोषणा के तौर पर या अन्य प्रकार का हो, अभिलिखित करने वाली कोई लिखत है ।
भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की अनुसूची 1-क के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन की लिखत पर उचित स्टाम्प शुल्क व्यवस्थापित संपत्ति की रकम के बाजार मूल्य के राशि के बंध पत्र के अनुसार लगाया जाएगा और अनुसूची के क्रमांक 12 के अनुसार प्रतिभूत रकम या मूल्य का चार प्रतिशत स्टाम्प शुल्क अदा किया जाएगा ।
अनुसूची के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन के लिखित के अंतर्गत महर विलेख शामिल है । लेकिन इसे विवाह के अवसर पर मुसलमानों के बीच निष्पादित किया गया महर विलेख चाहे ऐसा विलेख विवाह के पूर्व या विवाह के पश्चात् निष्पादित किया गया हो, उसे छूट प्रदान की गई है ।
व्यवस्थापन का प्रतिसंहरण 100/-रूपये के स्टाम्प के शुल्क पर होगा तथा जहां कि व्यवस्थापन के लिए करार व्यवस्थापन की लिखत के लिए अपेक्षित स्टाम्प से स्टाम्पित है और ऐसे करार के अनुसरण में व्यवस्थापन संबंधी लिखत तत्पश्चात् निष्पादित की गई है, वहां ऐसी लिखत पर शुल्क 100/-रूपये से अधिक नहीं होगा ।
पारिवारिक व्यवस्था पत्र के संबंध में यह सुस्थापित विधि है कि वह धारा 25 संविदा अधिनियम के अंतर्गत बिना प्रतिफल के अंतरण माना जाता है, जो धारा 23 संविदा अधिनियम के अंतर्गत प्रवर्तनीय है, जो धारा 2 (डी) संविदा अधिनियम के अंतर्गत एक वैध संविदा है और धारा 5 और 9 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत एक प्रकरण का अंतरण है । जो धारा 118 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विबंध के रूप में लागू होते हैं ।
पारिवारिक व्यवस्था पत्र कुटुम्ब के सदस्यों के बीच विवाद न बढ़े और उन्हें अनावश्यक खर्च न उठाना पड़े, इसके लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति के संबंध में संयुक्त परिवार के सदस्यों को आपसी समझौता के आधार पर बने कुटुम्ब प्रबंध को पारिवारिक व्यवस्था पत्र कहा गया है । इसके लिए आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं कि:-
(1) पूरे परिवार के हित में परिवार के सदस्यों के बीच संदेहास्पद या विवादित दावों के राजीनामा के संबंध में उसी प्रकार के सदस्यों के बीच यह एक इकरार है ।
(2) कौटुम्बिक प्रबंध करने के लिए परिवार में ऐसी परिस्थितियां होनी चाहिए, जिसके कारण ऐसा प्रबन्ध करना पड़ा ।
(3) कौटुम्बिक प्रबन्ध की वैधता को स्वीकार करने के लिए यह शर्त आवश्यक है कि वर्तमान में या भविष्य में वैधानिक दावों पर विवाद हो जाना संभावित हो या सद्भावपूर्वक विवाद की स्थिति हो या भविष्य में हो जाने की संभावना हो ।
(4) यदि अचल संपत्ति पर किसी का स्वत्व वर्तमान में स्थापित करना हो तो उनके पक्ष में कौटुम्बिक प्रबन्ध का पंजीकरण किया जाना आवश्यक है, परंतु ऐसा स्वत्व स्थापित न हो तो बिना पंजीकरण के ही कौटुम्बिक प्रबन्ध वैध माना जाएगा ।
(5) यदि सद्भावनापूर्वक कौटुम्बिक प्रबन्ध किया गया हो और उसकी शर्तें भी उचित हों तो ऐसे कौटुम्बिक प्रबन्ध को न्यायालय स्वीकार करते हुए प्रभावी करेगी ।
किसी भी पारिवारिक व्यवस्था पत्र की वैधानिकता के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैंः-
(1) पारिवारिक प्रबन्ध सदभावपूर्वक होना चाहिए, जिससे कि परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच संयुक्त परिवार की संपत्ति का उचित एवं साम्यापूर्ण बंटवारा हो और पारिवारिक विवाद और परस्पर विरोधी दावे समाप्त हो जाऐं ।
(2) पारिवारिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है और ज्ञापन (यादगार) के रूप में लिखे गए दस्तावेज का पंजीकरण आवश्यक नहीं है ।
(3) ऐसा पारिवारिक प्रबन्ध स्वेच्छा से किया गया हो और धोखा, कूटरचना या अनुचित प्रभाव से न किया हो ।
(4) यदि पूर्व में कर लिए गए मौखिक पारिवारिक प्रबन्ध का ज्ञापन तैयार किया जाता है जो न्यायालय को प्रमाणीकरण की सूचना के लिए या जानकारी के लिए हो तो उसका पंजीकरण आवश्यक नहीं है परंतु यदि पारिवारिक प्रबंध करते समय ही दस्तावेज लिखा जाता है ताकि उसका उपयोग सबूत के लिए किया जा सके तो पंजीकरण आवश्यक है ।
(5) पारिवारिक प्रबन्ध में जो पक्षकार हों, उनका संयुक्त संपत्ति में पूर्व से स्वामित्व, दावा या हित हो या भावी दावा हो, जिसे सभी पक्षकार स्वीकार करते हों । यदि पारिवारिक प्रबन्ध के एक पक्षकार का संयुक्त संपत्ति में कोई स्वामित्व न हो परन्तु अन्य पक्षकार उसके पक्ष में अपने हित को छोड़ता हो और उसको पूर्णस्वामी देता हो, को उस व्यक्ति का पूर्व का ही स्वामित्व माना जायेगा और न्यायालय भी इस पारिवारिक प्रबन्ध को मान्यता देगा।
(6) संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच सद्भावपूर्वक हुए कौटुम्बिक प्रबन्ध जो उचित और साम्यापूर्ण हो और जिसमें विधिक दावा शामिल न हो तो वह कौटुम्बिक प्रबन्ध में शामिल पक्षकारों के लिए बन्धनकारी होगा ।
कौटुम्बिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है लेकिन यदि उसे ज्ञापन के रूप में अभिलिखित किया जाता है और उससे पारिवार की संपत्ति का बंटवारा होता है, ऐसे दस्तावेज का पंजीयन कराना आवश्यक है क्योंकि इससे संपत्ति पर पक्षकारों के कब्जे और अधिकार की घोषणा होती है और यह उनके स्वामित्व को दर्शाने वाला दस्तावेज होता है ।
लेकिन यदि पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार पहले से लोग अपनी-अपनी संपत्ति पर शांतिपूर्ण रूप से व्यवस्था बनाकर रहते हैं और बाद में उसका विवरण लिखा जाता है तो इस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था का पंजीयन आवश्यक नहीं है अर्थात ऐसा दस्तावेज जिसे लिखे जाने के दिनांक से हक और अधिकार सृजित होता है, उस दस्तावेज का पंजीयन आवश्यक है और ऐसे दस्तावेज लिख् जाने से पूर्व पारिवारिक हक व अधिकार की पुष्टि होती है । इस प्रकार के पारिवारिक व्यवस्था पत्र का पंजीयन आवश्यक नहीं है ।
यदि पारिवारिक व्यवस्था पत्र रजिस्टर्ड नहीं है तो वह रजिस्टीकरण अधिनियम 1908 की धारा 48 और 49 के अनुसार संपाश्र्वििक प्रयोजन के लिए उपयोग में लाएगा, इस संबंध में रजिस्टीकरण अधिनियम की धारा 49 प्रावधानों की:- जो जो लिखत अभिलिखित रजिस्ट्रीकृत लिखित द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षित हों, रजिस्ट्रीकृत न की गई हों, ऐसी दस्तावेज साम्पाशर्वक संव्यवहार के साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकती है
साम्पाशर्विक सहव्यवहार वह सह व्यवहार होगा जो उस दस्तावेज में दिए गए कथनों को विभाजित कर दे, अलग रूप से पढा जा सके और जिसका उल्लेख उसमें न हो । जैसे कि कब्जा प्रदान किया जाना, दस्तावेज के अनुसार कार्य करना आदि ।
पारिवारिक व्यवस्था पत्र को भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की धारा 2-24 में व्यवस्थापन के रूप में इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि:-
किसी जंगम या स्थावर संपत्ति का ऐसा लिखत जिसमें अवसीयती व्ययन अभिप्रेत है, जिसमें व्यवस्थापन की सपंत्ति उनके कुटुम्ब के या उन व्यक्तियों के बीच जिनके लिए वह व्यवस्था करना चाहता है, वितरित करने के प्रयोजन के लिए या उस पर आश्रित व्यक्तियों के लिए व्यवस्था करने के प्रयोजन के लिए किया गया है ।
इसके अंतर्गत विवाह के प्रतिफल के लिए किया गया व्यवस्थापन और धार्मिक या पूर्त प्रयोजन के लिए किया गया व्यवस्थापन शामिल है । इसके अंतर्गत ऐसा व्ययन लिखित में नहीं किया गया है, वहां किसी प्रयोजनके निबन्धनों को चाहे वह न्यास की घोषणा के तौर पर या अन्य प्रकार का हो, अभिलिखित करने वाली कोई लिखत है ।
भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की अनुसूची 1-क के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन की लिखत पर उचित स्टाम्प शुल्क व्यवस्थापित संपत्ति की रकम के बाजार मूल्य के राशि के बंध पत्र के अनुसार लगाया जाएगा और अनुसूची के क्रमांक 12 के अनुसार प्रतिभूत रकम या मूल्य का चार प्रतिशत स्टाम्प शुल्क अदा किया जाएगा ।
अनुसूची के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन के लिखित के अंतर्गत महर विलेख शामिल है । लेकिन इसे विवाह के अवसर पर मुसलमानों के बीच निष्पादित किया गया महर विलेख चाहे ऐसा विलेख विवाह के पूर्व या विवाह के पश्चात् निष्पादित किया गया हो, उसे छूट प्रदान की गई है ।
व्यवस्थापन का प्रतिसंहरण 100/-रूपये के स्टाम्प के शुल्क पर होगा तथा जहां कि व्यवस्थापन के लिए करार व्यवस्थापन की लिखत के लिए अपेक्षित स्टाम्प से स्टाम्पित है और ऐसे करार के अनुसरण में व्यवस्थापन संबंधी लिखत तत्पश्चात् निष्पादित की गई है, वहां ऐसी लिखत पर शुल्क 100/-रूपये से अधिक नहीं होगा ।
पारिवारिक व्यवस्था पत्र के संबंध में यह सुस्थापित विधि है कि वह धारा 25 संविदा अधिनियम के अंतर्गत बिना प्रतिफल के अंतरण माना जाता है, जो धारा 23 संविदा अधिनियम के अंतर्गत प्रवर्तनीय है, जो धारा 2 (डी) संविदा अधिनियम के अंतर्गत एक वैध संविदा है और धारा 5 और 9 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत एक प्रकरण का अंतरण है । जो धारा 118 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विबंध के रूप में लागू होते हैं ।
पारिवारिक व्यवस्था पत्र कुटुम्ब के सदस्यों के बीच विवाद न बढ़े और उन्हें अनावश्यक खर्च न उठाना पड़े, इसके लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति के संबंध में संयुक्त परिवार के सदस्यों को आपसी समझौता के आधार पर बने कुटुम्ब प्रबंध को पारिवारिक व्यवस्था पत्र कहा गया है । इसके लिए आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं कि:-
(1) पूरे परिवार के हित में परिवार के सदस्यों के बीच संदेहास्पद या विवादित दावों के राजीनामा के संबंध में उसी प्रकार के सदस्यों के बीच यह एक इकरार है ।
(2) कौटुम्बिक प्रबंध करने के लिए परिवार में ऐसी परिस्थितियां होनी चाहिए, जिसके कारण ऐसा प्रबन्ध करना पड़ा ।
(3) कौटुम्बिक प्रबन्ध की वैधता को स्वीकार करने के लिए यह शर्त आवश्यक है कि वर्तमान में या भविष्य में वैधानिक दावों पर विवाद हो जाना संभावित हो या सद्भावपूर्वक विवाद की स्थिति हो या भविष्य में हो जाने की संभावना हो ।
(4) यदि अचल संपत्ति पर किसी का स्वत्व वर्तमान में स्थापित करना हो तो उनके पक्ष में कौटुम्बिक प्रबन्ध का पंजीकरण किया जाना आवश्यक है, परंतु ऐसा स्वत्व स्थापित न हो तो बिना पंजीकरण के ही कौटुम्बिक प्रबन्ध वैध माना जाएगा ।
(5) यदि सद्भावनापूर्वक कौटुम्बिक प्रबन्ध किया गया हो और उसकी शर्तें भी उचित हों तो ऐसे कौटुम्बिक प्रबन्ध को न्यायालय स्वीकार करते हुए प्रभावी करेगी ।
किसी भी पारिवारिक व्यवस्था पत्र की वैधानिकता के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैंः-
(1) पारिवारिक प्रबन्ध सदभावपूर्वक होना चाहिए, जिससे कि परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच संयुक्त परिवार की संपत्ति का उचित एवं साम्यापूर्ण बंटवारा हो और पारिवारिक विवाद और परस्पर विरोधी दावे समाप्त हो जाऐं ।
(2) पारिवारिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है और ज्ञापन (यादगार) के रूप में लिखे गए दस्तावेज का पंजीकरण आवश्यक नहीं है ।
(3) ऐसा पारिवारिक प्रबन्ध स्वेच्छा से किया गया हो और धोखा, कूटरचना या अनुचित प्रभाव से न किया हो ।
(4) यदि पूर्व में कर लिए गए मौखिक पारिवारिक प्रबन्ध का ज्ञापन तैयार किया जाता है जो न्यायालय को प्रमाणीकरण की सूचना के लिए या जानकारी के लिए हो तो उसका पंजीकरण आवश्यक नहीं है परंतु यदि पारिवारिक प्रबंध करते समय ही दस्तावेज लिखा जाता है ताकि उसका उपयोग सबूत के लिए किया जा सके तो पंजीकरण आवश्यक है ।
(5) पारिवारिक प्रबन्ध में जो पक्षकार हों, उनका संयुक्त संपत्ति में पूर्व से स्वामित्व, दावा या हित हो या भावी दावा हो, जिसे सभी पक्षकार स्वीकार करते हों । यदि पारिवारिक प्रबन्ध के एक पक्षकार का संयुक्त संपत्ति में कोई स्वामित्व न हो परन्तु अन्य पक्षकार उसके पक्ष में अपने हित को छोड़ता हो और उसको पूर्णस्वामी देता हो, को उस व्यक्ति का पूर्व का ही स्वामित्व माना जायेगा और न्यायालय भी इस पारिवारिक प्रबन्ध को मान्यता देगा।
(6) संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच सद्भावपूर्वक हुए कौटुम्बिक प्रबन्ध जो उचित और साम्यापूर्ण हो और जिसमें विधिक दावा शामिल न हो तो वह कौटुम्बिक प्रबन्ध में शामिल पक्षकारों के लिए बन्धनकारी होगा ।
कौटुम्बिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है लेकिन यदि उसे ज्ञापन के रूप में अभिलिखित किया जाता है और उससे पारिवार की संपत्ति का बंटवारा होता है, ऐसे दस्तावेज का पंजीयन कराना आवश्यक है क्योंकि इससे संपत्ति पर पक्षकारों के कब्जे और अधिकार की घोषणा होती है और यह उनके स्वामित्व को दर्शाने वाला दस्तावेज होता है ।
लेकिन यदि पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार पहले से लोग अपनी-अपनी संपत्ति पर शांतिपूर्ण रूप से व्यवस्था बनाकर रहते हैं और बाद में उसका विवरण लिखा जाता है तो इस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था का पंजीयन आवश्यक नहीं है अर्थात ऐसा दस्तावेज जिसे लिखे जाने के दिनांक से हक और अधिकार सृजित होता है, उस दस्तावेज का पंजीयन आवश्यक है और ऐसे दस्तावेज लिख् जाने से पूर्व पारिवारिक हक व अधिकार की पुष्टि होती है । इस प्रकार के पारिवारिक व्यवस्था पत्र का पंजीयन आवश्यक नहीं है ।
यदि पारिवारिक व्यवस्था पत्र रजिस्टर्ड नहीं है तो वह रजिस्टीकरण अधिनियम 1908 की धारा 48 और 49 के अनुसार संपाश्र्वििक प्रयोजन के लिए उपयोग में लाएगा, इस संबंध में रजिस्टीकरण अधिनियम की धारा 49 प्रावधानों की:- जो जो लिखत अभिलिखित रजिस्ट्रीकृत लिखित द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षित हों, रजिस्ट्रीकृत न की गई हों, ऐसी दस्तावेज साम्पाशर्वक संव्यवहार के साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकती है
साम्पाशर्विक सहव्यवहार वह सह व्यवहार होगा जो उस दस्तावेज में दिए गए कथनों को विभाजित कर दे, अलग रूप से पढा जा सके और जिसका उल्लेख उसमें न हो । जैसे कि कब्जा प्रदान किया जाना, दस्तावेज के अनुसार कार्य करना आदि ।
अंतरिम व्यादेष
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
(1) यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
1 अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, ए.आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107,
2 बैंक आफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368
3ं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995
(1) यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
1 अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, ए.आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107,
2 बैंक आफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368
3ं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995
मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
(1) निम्नलिखित न्यायदृष्टांतों में यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’ का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था ।
2लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल ला जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4
वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र.
(3) ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है
1 - ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971
2 - यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460
3 नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514
4 कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में
यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ट्रैक्टर पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है ।
(5) कोई अभिवचन अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत-
1- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है
(6) वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त
1- नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281
(7) मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त
1- सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्सपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104
के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
अ. मृतक की आयु .
ब. मृतक की आय
स. मृतक के आश्रितों की संख्या.
2-. उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है
3- मा ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।
4-. जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी मा है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है
5- प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
यह विधि सुस्थापित है कि मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
6-. इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 25000/-रूपयें 10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।
7-. आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।
8- न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये।
9- इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता।
10- वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है।
इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित
1- सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.
3- न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.)
(11)- पै एंड रिकवर का सिद्धांत-
1सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.)
मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पै एंड रिकवर का सिद्धांत को प्रयोज्य नहीं माना गया।
3- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा।
समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत
पै एंड रिकवर का सिद्धांत-सिद्धांत लागू
12- 1नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
, 2नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1
3न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
4 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
13- ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 में यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
14- राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी घटना संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।
15- वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.)
4-. सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोे
रेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
5-. अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा न्याय दृष्टांतअषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892 में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
6- बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम,
2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) पै एंड रिकवर का सिद्धांत लागू
7- वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा।
उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके।
दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो।
निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
8- न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहा प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहा इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है
9- व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडित पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये
प्रथम-वित्तीय क्षति,
द्वितीय-विषेष क्षति।
इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं।
जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय।
विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता,
जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि
उक्त परिप्रेक्ष्य में दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।
मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
(1) निम्नलिखित न्यायदृष्टांतों में यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’ का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था ।
2लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल ला जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4
वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र.
(3) ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है
1 - ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971
2 - यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460
3 नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514
4 कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में
यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ट्रैक्टर पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है ।
(5) कोई अभिवचन अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत-
1- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है
(6) वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त
1- नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281
(7) मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त
1- सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्सपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104
के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
अ. मृतक की आयु .
ब. मृतक की आय
स. मृतक के आश्रितों की संख्या.
2-. उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है
3- मा ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।
4-. जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी मा है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है
5- प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
यह विधि सुस्थापित है कि मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
6-. इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 25000/-रूपयें 10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।
7-. आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।
8- न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये।
9- इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता।
10- वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है।
इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित
1- सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.
3- न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.)
(11)- पै एंड रिकवर का सिद्धांत-
1सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.)
मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पै एंड रिकवर का सिद्धांत को प्रयोज्य नहीं माना गया।
3- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा।
समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत
पै एंड रिकवर का सिद्धांत-सिद्धांत लागू
12- 1नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
, 2नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1
3न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
4 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
13- ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 में यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
14- राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी घटना संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।
15- वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.)
4-. सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोे
रेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
5-. अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा न्याय दृष्टांतअषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892 में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
6- बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम,
2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) पै एंड रिकवर का सिद्धांत लागू
7- वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा।
उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके।
दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो।
निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
8- न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहा प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहा इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है
9- व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडित पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये
प्रथम-वित्तीय क्षति,
द्वितीय-विषेष क्षति।
इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं।
जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय।
विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता,
जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि
उक्त परिप्रेक्ष्य में दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।
’अधिनियम’ की धारा 138
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
’अधिनियम’ की धारा 138
1 धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-
’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था।
इस संबंध मं न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
2. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-
उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।
3. धारा 138 के संबध् में:-
न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।
इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि
’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।
4.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
4. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया ।
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।
’अधिनियम’ की धारा 138
1 धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-
’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था।
इस संबंध मं न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
2. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-
उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।
3. धारा 138 के संबध् में:-
न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।
इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि
’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।
4.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।
4. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया ।
उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।
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