भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
(1) निम्नलिखित न्यायदृष्टांतों में यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’ का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था ।
2लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल ला जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4
वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र.
(3) ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है
1 - ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971
2 - यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460
3 नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514
4 कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में
यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ट्रैक्टर पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है ।
(5) कोई अभिवचन अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत-
1- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है
(6) वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त
1- नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281
(7) मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त
1- सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्सपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104
के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
अ. मृतक की आयु .
ब. मृतक की आय
स. मृतक के आश्रितों की संख्या.
2-. उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है
3- मा ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।
4-. जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी मा है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है
5- प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
यह विधि सुस्थापित है कि मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
6-. इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 25000/-रूपयें 10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।
7-. आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।
8- न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये।
9- इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता।
10- वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है।
इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित
1- सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.
3- न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.)
(11)- पै एंड रिकवर का सिद्धांत-
1सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.)
मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पै एंड रिकवर का सिद्धांत को प्रयोज्य नहीं माना गया।
3- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा।
समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत
पै एंड रिकवर का सिद्धांत-सिद्धांत लागू
12- 1नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
, 2नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1
3न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
4 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
13- ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 में यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
14- राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी घटना संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।
15- वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.)
4-. सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोे
रेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
5-. अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा न्याय दृष्टांतअषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892 में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
6- बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम,
2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) पै एंड रिकवर का सिद्धांत लागू
7- वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा।
उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके।
दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो।
निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
8- न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहा प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहा इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है
9- व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडित पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये
प्रथम-वित्तीय क्षति,
द्वितीय-विषेष क्षति।
इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं।
जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय।
विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता,
जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि
उक्त परिप्रेक्ष्य में दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।
मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत
(1) निम्नलिखित न्यायदृष्टांतों में यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’ का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था ।
2लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल ला जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4
वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र.
(3) ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है
1 - ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971
2 - यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460
3 नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514
4 कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में
यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ट्रैक्टर पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है ।
(5) कोई अभिवचन अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत-
1- रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया गया है कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है
(6) वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त
1- नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281
(7) मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त
1- सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्सपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104
के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
अ. मृतक की आयु .
ब. मृतक की आय
स. मृतक के आश्रितों की संख्या.
2-. उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है
3- मा ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।
4-. जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी मा है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है
5- प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
यह विधि सुस्थापित है कि मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
6-. इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 25000/-रूपयें 10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।
7-. आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।
8- न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये।
9- इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता।
10- वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है।
इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित
1- सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.
3- न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.)
(11)- पै एंड रिकवर का सिद्धांत-
1सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2- इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.)
मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा पै एंड रिकवर का सिद्धांत को प्रयोज्य नहीं माना गया।
3- नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा।
समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत
पै एंड रिकवर का सिद्धांत-सिद्धांत लागू
12- 1नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
, 2नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1
3न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
4 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
13- ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 में यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।
14- राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी घटना संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।
15- वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.)
4-. सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोे
रेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।
5-. अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा न्याय दृष्टांतअषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892 में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।
6- बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में किया जाना प्रमाणित हुआ है,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297,
नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम,
2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.) पै एंड रिकवर का सिद्धांत लागू
7- वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा।
उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके।
दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो।
निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।
8- न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहा प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहा इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है
9- व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडित पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये
प्रथम-वित्तीय क्षति,
द्वितीय-विषेष क्षति।
इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं।
जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय।
विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता,
जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि
उक्त परिप्रेक्ष्य में दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।
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