मृत्यु कालीन कथन

                     मृत्यु कालीन कथन

                                                    चिकित्सीय न्याय शास्त्र के अनुसार मृत्यु विज्ञान को थैनेटालाजी थैनेटास-मृत्यु लाजी विज्ञान कहते है । इस विषय के अंतर्गत मृत्यु का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जिसके अनुसार मृत्यु के पहले शारीरिक या आंगिक मृत्यु होती है । 

                           तत्पश्चात आण्विक मालीक्यूलर या कोशिकाओ सेल्यूलर की  मृत्यु होती है । ।         इसमें शरीर के विभिन्न अंग जैसे मस्तिष्क, हृदय, फेफडे आदि का कार्य स्थाई रूप से बंद हो जाता है और उसे शारीरक मृृत्यु कहते हैं। इस शारीरिक मृत्यु के समय शरीर की कोशिकाओं की उसी समय मृत्यु नहीं हो जाती है और शारीािक मृत्यु के कुछ समय पश्चात तक  कोशिकाएं जीवित रहती है और आक्सीजन के अभाव में शनैः शनैः उनकी मृत्यु शारीरिक मृत्यु के बाद होती है । मस्तिष्क की कोशिकाएं पहले मृत होती है और अन्य कोशिकाएं बाद में । जब कोशिकाएं भी मृत हो जाती है तब इसे आण्विक मृत्यु कहते हैं । शारीरिक मृत्यु के 3-4 घंटों के बाद आण्विक मृत्यु आरंभ हो जाती है । शरीरिक मृत्यु में भले की शरीर जीवित न हो किन्तु उतको में रासायनिक अनुक्रिया हो सकती । 


        शरीर मृत्यु के उसी समय के चिन्ह है-अचैतन्य और विद्युत मस्तिष्क चित्राकन न होना हृदय और रक्त परिसंचरण बंद होना और श्वसन क्रिया का बंद होना। यदि पांच मिनिट तक मस्तिष्क चित्रांकन के कुछ चिन्ह न हो तो समझना चाहिये कि मृत्यु हो गई या हृदय का स्टेथोस्कोप रखकर हृदय गति पांच मिनिट तक सुनाई न दे तो इसे मृत्यु होना माना जा सकता है । ऐसी स्थिति में श्वसन ओर हृदय गति ठीक से ज्ञात न हो तो वह मृत्यु का परिचायक है ।

        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-32-1 में मृत्यु कालिक कथन को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार वह कथन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया है जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई तब उन मामलो में जिनमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है ।

    ऐसे कथन सुसंगत है, चाहे उस व्यक्ति को जिसने उन्हें किया है, उस  समय जब वे किये गये थे, मृत्यु की प्रत्याशंका थी या नहीं और चाहे उस कार्यवाही जिसमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है, प्रकृति कैसी ही क्यों न हो ।
इस विषय में विधि के तहत यह व्यवस्थापित स्थिति की है कि यह साक्ष्य में ग्राहय है । यहां तक कि सम्पुष्टि की तब तक कोई आवश्यकता नहीं होती है जब तक किसी प्रकार की दोर्बल्यता से ग्रसित नहीं है ।

    मृत्यु कालीन कथन के संबध में यह सुस्थापित सिद्धांत है कि एक मात्र मृत्यु कालीन कथन के आधार पर दोष सिद्धि की जा सकती है । इस संबंध में मान्ननीय उच्चतम न्यायालय के पांच जजो की खण्डपीठ ने ताराचंद कामूसतार विरूद्व महाराष्ट् राज्य 1962 भाग-2 ए0सी0आर0 775, ए0आई0आर0 1962 सुप्रीम कोर्ट 130 मे विनिश्चय किया गया है कि मृत्यु कालीन कथन को एक बार स्वीकार  कर लेने पर किसी संपुष्टि के बिना उस पर कार्यवाही की जा सकती है । 

        इसी प्रकार खुशाल राव विरूद्ध राज्य ए0आई0आर 1958 एस0सी0 -22 में मृत्यु कालीन घोषणाओं के संबंध में निम्नलिखित सिद्धंात प्रतिपादित किये गये हैं:-
    1-    यह कि जहाॅ कानून के एक आत्यन्तिक नियम का उल्लेख किया जा    सकता है कि एक मृत्यु कालीन घोषणा दोषसिद्ध के मात्र आधार को             विरचित कर सकता है जब तक कि इसकी संपुष्टि नहीं कर दी जाती है 

    2-    यह कि इस प्रकार प्रत्येक मामले को परिस्थ्तिियों की दृष्टिकोण से तथ्यों         के आधार पर अवश्यमेव निर्धारित किया जाना चाहिये जिसमें मृत्यु कालीन         घोषणा की गई हो ।

    3-    यह कि यह एक सामान्य प्रतिवादना के रूप में उल्लेखित किया जा              सकता है कि मृत्यकालीन घोषणा साक्ष्य के अन्य भाग की तुलना में एक         कमजोर साक्ष्य होती है।

    4-    यह कि मृत्यकालीन घोषणा चतुर्दिक परिस्थ्तिियाॅ तथा साक्ष्य का मूल्याकन         कर शासन करने वाले सिद्धांतो के संदर्भ में निर्णित किया जाना होता है ।

    5-    यह कि एक मृत्य कालीन घोषणा जिसे उचित तरीके से एक सक्षम              मजिस्ट्ेट द्वारा अभिलिखित किया जा चुका है प्रश्न और उत्तर के प्रारूप         में कहना होता है और यथासंभव मृत्यु कालीन घोषणा करने वाले शब्दो में         मृत्युकालीन  घोषणा  की अपेक्षाकृत अधिक प्भाव रखता है जो मोखिक         साक्ष्य पर निर्भर करता है जो6-    यह कि मृत्यु कालीन घोषणा को परीक्षण करने के लिये न्यायालय को             प्रेक्षण के लिये मरणासन व्यक्ति के समान अवसर को दृष्टिगत रखना             होता है ।

 उदहारणार्थ
 क्या वहां पर्याप्त प्रकाश था, जहां अपराध किया         जाता था,
 क्या कथित तथ्यों को याद करने के लिये व्यक्ति की सामथ्र्य         को उस समय  क्षीण्र नहीं किया गय था, जब वह कथन कर रहा था।     

    अपने नियंत्रण के परे परिस्थ्तिियों द्वारा यह कथन कि सम्पूर्तया संगत     किया जा चुका था 

। यदि वह इसके राजकीय अभिलेख से पृथक             मृत्यकालीन घोषणा करने के लिये     अनेक अवसर मिले थे और उस कथन         को सबसे पहले घोषित किया गया जो कि हितबद्ध पक्षकारों द्वारा             सिखाये-पढ़ाये जाने के परिणाम स्वरूप हुआ था । 

        मृत्यु कालीन कथन के लिए फिट स्टेट आॅफ माईन्ड में होना आवश्यक  है।  2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह, 2007 भाग-3 क्राईम्स -57 एस0सी0 स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध वाकटांग, ए0आई0आर0 1999 एस0सी0 3455 पापारा म्बिका विरूद्व आन्ध्र प्रदेश राज्य में

 यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि घायल की स्थिति स्टेबिल नहीं हैे और वह मानसिक रूप से सक्षम नहीं है फिट स्टेट आॅफ माईन्ड नहीं है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है । 


        करनसिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य आई0एल0आर0 2008 एम0पी0 2698 में अभिनिर्धारित  किया गया है कि यदि मृत स्वस्थ मानसिक स्थिति में नहीं था और प्रत्यक्षदर्शी साक्षी और चिकित्सीय साक्ष्य में विरोधाभास है तो ऐसे कथन  पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है । इसके लिए आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन जो व्यक्ति ले रहा है उसे खुद समाधान करना चाहिये कि शपथकर्ता की मानसिंक दशा ठीक है तथा वह पहुंची चोट के संबंध में कथन करने में पूर्णतः होश में है । 


        विधि के सुस्थापित सिद्धांत के अनुसार मान्नीय उच्चतम न्यायालय की बडी बेंच ने अभिनिर्धारित किया है कि अर्द्ध चेतन अवस्था में भी मृत्यु कालीन कथन दर्ज किया जा सकता है, किन्तु इसके लिए फिट स्टेट आफ माइण्ड होना चाहिए ।

        2011 भाग-10 सु0कोर्ट केसेस-173 सुरेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, 2006 क्रि0लाॅ जनरल 589 सुनील काशीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्, 2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार यदि यह पाया जाता है कि मृत्यु कालीन कथन देते समय मृतक के रिश्तेदार उसके पास मौजूद थे और उसे सिखाये पढ़ाये  जाने के अवसर है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित  नहीं है । 


    मृत्यु कालीन कथन प्रश्न उत्तर के रूप में लिखा जाना अनिवार्य नहीं है,परन्तु सावधानी के नियम के तौर पर यह आवश्यक है कि वह मृतक के शब्दो में लिखा जावे । यह आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन मृतक की भाषा में होना चाहिये । विधि का यह नियम है कि मृतक न्यायालय के समक्ष जो रहस्य उजागर करना चाहा है वह न्यायालय को प्रगट होना चाहिये ।


     मुन्नुराजा बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1976 जे0एल0जे0 599 एस0सी0 में सम्प्रकाशित के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया है-

    यह सुव्यवस्थापित है कि यद्यपि मृत्युकालिक कथन का अर्थान्वयन इस     कारण से सावधानीपूर्वक करना चाहिए कि कथन के करने वाले की प्रति     परीक्षा नहीं की जा सकती है न तो विधि का यह नियत है न दरदर्शिता     का नियम है जो विधि के नियम में परिपक्व हो चुका है कि मृत्युकालिक     कथन को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक इसकी     सम्पुष्टि नहीं की जा सकती है । इस प्रकार न्यायालय को तब तक     सम्पुष्टि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए जब तक वह इस निष्कर्ष तक नहीं     पहंुचता कि मृत्युकालिक कथन किसी दौर्बल्यता से ग्रसित है,जिसके     कारण सम्पुष्टि की अपेक्षा करना आवश्यक था 

    मृत्यु कालीन कथन के संबंध में यह सुस्थापित सिद्धांत है किं मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य कोमहत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए । जो निम्न लिखित है । 


    ए-    इस संबंध मे न्यायालय को यह सावधानी और सतर्कता बरतनी चाहिए कि         मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी             परिकल्पना का परिणाम नहीं था । 

    बी-    न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का         चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी             पहचान करने का अवसर था ।

    सी-    इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के         लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में         था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए  

    डी-    न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और  स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक  कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है ।


    इसी प्रकार केशव बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 1971 एस0सी0 953 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया था । यदि मृतक की मानसिक दशा के बारे में चिकित्सक से चिकित्सीय अभिमत मांगा गया था, तो मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य पूर्णतया विश्वसनीय है और उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है । साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 32-1 का उपबन्ध अनुश्रुत नियम की ग्राहता के विरूद्ध नियम का अपवाद है और यदि मृत्युकालिक कथन विश्वसनीय है तो उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है ।    

   
    नारायण सिंह और अन्य बनाम हरियाणा राज्य 2004 भाग-13 एस0सी0सी0 264 हस्तगत मामले में यह पाया गया है कि मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य उपलब्ध है, और वह ग्राहय है और स्वीकार की जाने योग्य है । इसलिए चक्षुदर्शी साक्षीगण द्वारा प्रस्तुत की गयी अन्य कहानी विश्वसनीय नहीं है एंव दोषसिद्धि के लिए आधार नहीं हो सकती ।

    इस मामले में अभियोजन दो विरोधाभासी कहानियों के साथ आया एक मृत्युकालिक कथन के अनुसार और दूसरी चक्षुदर्शी साक्षी के अनुसार इस कारण से कि मृत्युकालिक कथन नायब तहसीलदार द्वारा अभिलिखित किया गया था जो चिकित्सक के प्रमाण पत्र पर स्वतंत्र साक्षी है इसलिए मृत्युकालिक कथन चक्षुदर्शी साक्षियों की तुलना में अधिक विश्वसनीय है और उक्त साक्ष्य के प्रकाश में अपीलार्थीगण के विद्वान काउंसेल का यह तर्क वजन रखता है कि देहाती नालिसी समय से अभिलिखित नहीं की गई थी एंव यह एक पश्चातवर्ती सोच दस्तावेज है एंव कोई सबूत नहीं है कि इसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 के तहत यथा अपेक्षित तुरंत न्यायालय को अग्रेषित किया गया था । इसलिए ऐसा प्रतीत होता हे कि चक्षुदर्शी साक्षियों के वृत्तान्त गढे गये है ।


        रवि कुमार उर्फ बनाम तमिलनाडु राज्य भाग 1 के मामले में इस न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य को महत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए । 


        न्यायालय को सदैव यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं था । न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी पहचान करने का अवसर था 


        इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए । न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है । 


        यह एक आत्यांतिक विधि के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि मृत्युकालिक कथन दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता जब तक इसकी संपुष्टि नहीं हो जाती । संपुष्टि की अपेक्षा करने वाले नियम मात्र प्रज्ञा का नियम है ।

        यदि मजिस्ट्रेट जिसने मृत्यु कालिक कथन अभिलिखित किया है ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त दर्द से पीडित थी और वह हस्ताक्षर करने की स्थिति में नहीं थी और इसलिए उसके अंगूठे की छाप ली गई थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त प्रश्नों का उत्तर देने में समय ले रही थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया कि क्षतिग्रस्त घोर पीडा से ग्रस्त थी । इन तथ्यों के बावजूद यह प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने क्षतिग्रस्त से यह सीधा प्रश्न न पूछकर कि क्या वह कोई कथन करने के लिए समर्थ है । गम्भीर अनियमितता कारित की प्रतीत होती है ।


    राजस्थान राज्य बनाम पारथू वाले मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि दोषसिद्धि का निर्णय अकेले मृत्युकालिक कथन के आधारपर अभिलिखित किया जा सकता है यदि न्यायालय की इस बावत संतुष्टि हो जाती है कि यह सत्य और स्वेच्छिक है । मृत्यु कालिक कथन की सत्यता या स्वेच्छिकता सुनिश्चित करने के प्रयोजन के लिए न्यायालय अन्य परिस्थितियों को भी विचार में ले सकता है । 


    मृत्यु कालीन कथन के संबंध में मान्नीय उच्च न्यायालय द्वारा 2011 भाग-2 मनीसा-92 एम0पी0 मिजाजी लाल विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य में अभिनिर्धारित कि यद्यपि मृतक का मृत्युकालीन कथन किसी अभिपुष्टि के बिना व्यवहत किया जा सकता है फिर भी न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिये कि वह सत्य है, एंव मृतक के व्दारा किया स्वेच्छिक कथन है । 


        मुथु कुटटी और अन्य बनाम राज्य व्दारा इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस तामिलनाडू ,ए0आई0आर0 2005 सुप्रीम कोर्ट पृष्ठ-1473 में सम्प्रेक्षित किया गया कि मृत्युकालीन कथन केवल बिना जांच किये साक्ष्य का एक भाग होता है और किसी अन्य साक्ष्य जैसा होना चाहिये , न्यायालय की संतुष्टि करता है कि इसमे जो कहा गया है । पवित्र सत्य है और यह कि यह अविलम्ब लेने के लिये सुरक्षित होता है ।

विधिक प्रतिनिधि

                                                                     विधिक प्रतिनिधि

    आदेष 22 नियम 4 के अनुसार जब दो या दो से अधिक प्रतिवादी होने से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद लाने का अधिकार अकेला वादी के विरूद्ध बचा रहता है वहां पर न्यायालय मृत प्रतिवादी के  को पक्षकार बनाएगा । आदेष 22 नियम 4 उप नियम 2 के अनुसार इस प्रकार  पक्षकार बनाया गया कोई भी व्यक्ति जो मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि के नाते अपनी हेसियत के लिए समुचित प्रतिरक्षा कर सेंकेंगे ।

        सिविल प्रक्रिया संहिता के संषोधन अधिनियम 1976 की धारा-73‘4‘ के द्वारा उप नियम 4 एंव उप नियम 5 नयेसंषोधन किये गये है जो 1/फरवरी/1977 से लागू हुये हैं ।

        संषोधन के पूर्व में जो प्रतिवादी वादोत्तर प्रस्तुत नहीं करता था अथवा वादोत्तर प्रस्तुति के बाद वाद में कभी उपस्थित नहीं होता था उसकी मृत्यु के बाद इस नियम के अधीन वादी को उसके विधिक प्रतिनिधि के संबंध में कार्यवाही करना आवष्यक हो जाता है । 

        संषोधन के पष्चात इस उपनियम के अधीन वादी को ऐसे प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को अभिलेख पर लाये जाने के संबंध में न्यायालय छूट दे सकता है ।     

        यदि मृत प्रतिवादी ने समुचित प्रतिरक्षा नहीं की है तो वह अपनी प्रतिरक्षा कर सकता है ।यदि मृत प्रतिवादी ने उसके अधिकारो के विरूद्ध प्रतिरक्षा की हैे तो वह अपने अधिकारो के संबंध में लिखित कथन पेष कर सकता है । 

        इस प्रकार यदि मृत प्रतिवादी ने अपने हितो का ध्यान नहीं रखा है तो वह अपने हितो के संरक्षण के लिए अतिरिक्त कथन प्रस्तुत कर सकता है। इस प्रकार मृत प्रतिवादी का विधिक प्रतिनिधि सम्पूर्ण बचाव पेष कर सकता है । यह आवष्यक नहीं है कि वह मृत प्रतिवादी की प्रतिरक्षा के अनुसार ही बचाव पेष करे लेकिन वहमृत प्रतिवादी के व्यक्तिगत अधकारो के संबंध में अलग से कोई बचाव पेष नहीं कर सकता है । और उनके सामूहिक हित के संबंध में ही कोई विपरीत प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं कर सकता है ं।

        आदेष 7 नियम 8 के अंतर्गत प्रतिवादी के लिखित कथन के पष्चात कोई भी लिखित कथन न्यायालय की इजाजत से प्रस्तुत किया जा सकता है । और प्रतिरक्षा का कोई भी आधार जो वाद संस्थित किये जाने के बाद पैदा हुआ है और प्रतिवादी आदेष 7 नियम 8 के अंतर्गत प्रतिरक्षा नहीं उठा सकता है । 

         सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-11 जो पूर्व न्याय से संबंधित है उसका स्पष्टीकरण 4 के अनुसार ऐसे किसी भी विषय के बारे में जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था और बनायाजाना चाहिये था । यदि मृत प्रतिवादी के द्वारा इस प्रकार का कोईा आधार नहीं उठाया गया है तो धारा-11 के स्पष्टीकरण 4 के अनुसार विधिक प्रतिनिधि प्रतिरक्षा का ऐसे आधार से उठा सकता है ताकि उनका मामला पूर्व न्याय के सिद्धात के अनुसार वर्जित नहीं माना जाये ।
        इस प्रकार एक अधिकार के रूप में मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि अपने बचाव प्रस्तुत कर सकते हैं ए0आई0आर0 1972 सुप्रीम कोर्ट 2528 में यह बात स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया गया है । 

        यदि मूल प्रतिवादी पूर्व से एक पक्षीय हो तो मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को अभिलेख में षामिल करना आवष्यक नहीं है ।

        प्रस्तुत प्रष्न के अनुसार विधिक प्रतिनिधि प्रतिवादी द्वारा उठाये गये बचाव के संबंध में अभिवाक ले सकता है अपना नया अभिवाक प्रस्तुत नहीं कर सकता है । यह सिद्धांत थ परन्तु विधिक प्रतिनिधि अपनी प्रतिरक्षा में समुचित बचाव कर सकता है अपने खुद का उचित अभिवाक ले सकता है । किन्तु मृत के व्यक्तिगत संबंध में अभिवाक नहीं लिया जा सकता है ं

        जब वाद किसी मृत किरायेदार से संबंध मे हो तो उसके वारिस केवल वे ही अभिवाक ले सकते हैं और मृतक किरायेदार के द्वारा लिये गये थे उनसे भिन्न अभिवाक किरायेदार के विधिक प्रतिनिधि नहीं लिये जा सकते हैं । मृतक के व्यकितगत अभिवाक विधिक प्रतिनिधि नहींले सकता प्रतिनिधि स्वरूप जो कथन हो वे कर सकने के लिए स्वतंत्र है ।

        ए0आई0आर0 1972 2526जे0सी0 चटर्जी विरूद्ध श्रीकिषन टंडन समुचित प्रतिरक्षा प्रस्तुत कर सकता था वह अपनी व्यक्तिगत हैसियत से बचाव प्रस्तुत कर सकता है । मानो उसके विरूद्ध दावा प्रस्तुत किया गया है ।

        माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा ए0आई0आर0 1992 दिल्ली सैययद सिराजुल हसन विरूद्ध सैययद मुर्तुजा अली खान के मामले में यह अभिनिर्धातिर किया गया है कि प्रतिवादी अपनी समुचित प्रतिरक्षा अतिरिक्त परिवाद पत्र प्रस्तुत कर सकता है ।
       

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 umesh

                घरेलू हिंसा
        हमारा भारत सदियों से पुरूष प्रधान समाज रहा है । जहां पर महिलाओं को अनउपयोगी मानते हुए घर और परिवार में पैरो की जूती मानते हुये हमेशा से प्रताडि़त किया गया है और उन्हे ं  घर के अंदर रहकर कामकाज करने वाली और परिवार, बच्चों का भरण-पोषण करने वाली वस्तु माना गया है और यही कारण है कि इनके साथ घर के अंदर घरेलू ंिहंसा की जाती है जिससे घर के आस-पास रहने वाले और उनके परिवार के सदस्यों को ज्ञान नहीं होता है । ऐसी घरेलू हिंसा से निपटने के लिये जो कुटुम्ब के भीतर होने वाली जो ंिहंसा से पीडि़त है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 बनाया गया है जो 26 अक्टूबर 2006 से लागू  किया गया है ।

        इस अधिनियम की धारा 3 में घरेलू हिंसा को परिभाषित किया गया है जिसके अंतर्गत अनावेदक का कोई कार्य या लोप, आचरण घरेलू हिंसा घटित करेगा जिनसे व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ, सुरक्षा जीवन को हानि पहुंचती है तो क्षति पहुंचाने वाला संकट उत्पन्न करता है तो उसके विरूद्ध शारीरिक, लैंगिक मौखिक रूप से उत्पीडि़त करना शामिल है । 

किसी से दहेज व अन्य संपत्ति की मांग करने पर उसकी पूर्ति के लिये उत्पीडि़त करना घरेलू ंिहसा कहलायेगी ।
    1-    शारीरिक दुरूपयोग:- से ऐसा कोई कार्य या आचरण अभिप्रेत है जो ऐसी प्रकृति का है जो व्यथित व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा अपहानि या उसके जीवन अंग स्वास्थ को खतरा  कारित करता हे या उसके अधिक स्वास्थ या विकास का हाॅस होता है और इसके अंतर्गत हमला,आप0 अभित्रास और आपराधिक बल भी है ।       

    2-    लैंगिक दुरूपयोग:-  से लैंकिग प्रकृति का कोई आचरण ,अभिप्रेत है जो महिला की गरिमा का दुरूपयोग ,अपमान, त्रिस्कार, करता है या उसका अन्यथा अतिक्रमण करता है ।

    3-    मौखिक और भावनात्मक दुरूपयोग के अन्तर्गत निम्नलिखित है-

    क-    अपमान, उपहास, तिरस्कार गाली और विशेष रूप से संतान या नर बालक के न होने के संबंध में अपमान या उपहास और
    ख-    किसी ऐेसे व्यक्ति को शारीरिक पीडा कारित करने की लगातार धमकिया देना, जिसमें व्यथित व्यक्ति हितबद्ध है,
    4-    आर्थिक दुरूपयोग के अंतर्गत निम्नलिखित है ।

    क-    ऐसे सभी या किन्हीं आर्थिक या वित्तीय संसाधनों जिनके लिए व्यथित व्यक्ति किसी विधि या रूढि के अधीन
 हकदार है, चाहे वे किसी न्यायालय के किसी आदेश के अधीन या अन्यथा संदेय हो या जिनकी व्यथित व्यक्ति किसी आवश्यकता के लिए जिसके अंतर्गत व्यथित व्यक्ति और उसके बालकों यदि कोई हों, के घरेलू आवश्यकताएं भी हैं, किन्तु जो उन तक सीमित नहीं है, स्त्रीधन, व्यथित द्वारा संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्व वाली सम्पत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित भाटक के संदाय, से वंचित करना,

    ख-    गृहस्थी की चीजबस्त का व्ययन, आस्तियों का चाहे वे जंगम हो या स्थावर, मूल्यवान वस्तुओं, शेयरों , प्रतिभूतियों बंधपत्रों और इसके सदृश या अन्य सम्पत्ति का कोई अन्य संक्रामण, जिसमें व्यथित व्यक्ति काई हित रखता है या घरेलू नातेदारी के आधार पर उनके प्रयोग के लिए हकदार है या जिसकी व्यथित व्यक्ति  या उसकी संतानो द्वारा युक्तियुक्त रूप से अपेक्षा की जा सकती है या उसका स्त्रीधन या व्यथित व्यक्ति द्वारा संयुक्तः या पृथकतः धारित करने वाली कोई अन्य संपत्ति और

    ग-    ऐसे संसाधनों या सुविधाओं तक जिनका घरेलू नातेदारी के आधार पर कोई व्यथित व्यक्ति, उपयोग या उपभोग करने के लिए हकदार है, जिसके अंतर्गत साझी गृहस्थी तक पहंुच भी है , लगातार पहंुच के लिए प्रतिषेध या निर्बन्धन ।
    स्पष्टीकरण 2-यह अवधारित करने के प्रयोजन के लिए कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कार्य, लोप या कुछ करना या आचरण इस धारा के अधीन ’’घरेलू हिंसा’’ का गठन करता है, मामले के सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार किया जाएगा ।

        घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत धारा  12 के अंतर्गत मजिस्ट्ेट को आवेदन दिये जाने पर या संरक्षण अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त होने पर न्यायालय द्वारा एक आदेश जारी किया जावेगा जो अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत संरक्षण आदेश जारी किया जावेगा जिसमें घरेलू हिंसा के कार्यो को रोकने के आदेश दिये जावेगें तथा आदेश धारा 19 के अंतर्गत पारित किया जा सकता है ।

   





















   

ग्राम न्यायालय umesh

                ग्राम न्यायालय

        भारत 120 करोड़ वाला देश है । जहां पर अधिकांश आबादी गांव में
रहकर अपना जीवनयापन करती है ।  शिक्षा, अज्ञानता, परम्परावादी, रूढीवादी  होने के कारण इनमें आपस में विवाद होते रहते हैं । प्राचीन परम्पराओं के चलते गांव के मामले गांव में निपट जाते थे । गाॅव में पंचायत व्यवस्था थी ।  पंच को परमेश्वर मानकर विवादो का निपटारा हो जाता था । पंच भी जुम्मन शेख और अलगू चैधरी  के बीच में हिन्दु,मुस्लिम, सिख, इसाई का अंतर न रखते हुए जाति, धर्म, भाषा का भेदभाव भुलाकर न्यायोचित फैसला देते थे ।

        इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुये भारत में ग्राम न्यायालय की स्थापना की गई । गांव के लोग गांव  में ही न्याय प्राप्त कर सकें और उन्हें न्याय पाने के लिये अपनेे दिन भर का काम-धंधा छोड़कर शहर के चक्कर न काटने पड़े, नागरिकों को उनके घरों तक न्याय उपलब्ध हो । इस प्रयोजन से ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अंतर्गत ग्राम न्यायालय की स्थापना की गई है । 

        ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 में इस बात का ध्यान रखा गया है कि किसी भी नागरिक को सामाजिक, आर्थिक या अन्य निःशक्त्ता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित नहीं किया जाए । इसके लिए अधिनियम में विधिक सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है । 

        ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अंतर्गत राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद अधिसूचना द्वारा किसी जिले में माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक पंचायत या पंचायतो के समूह या ग्राम पंचायतो के समूह के लिये एक ग्राम न्यायालय स्थापित करेगी । जिसका मुख्यालय उस पंचायत में स्थित होगा । प्रत्येक न्यायालय के लिये न्याय अधिकारी के रूप में प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी  को नियुक्त किया जावेगा जिसमें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति स़्त्री तथा अन्य वर्ग के समुदाय के सदस्यों को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया जावेगा । 

        न्याय अधिकारी का कर्तव्य होगा कि वह अपनी अधिकारिता के अंतर्गत आने वाले ग्रामों के अंदर दौरा करें और ऐसे स्थान पर विचारण या कार्यवाही संचालित  करे जिसे वह उस स्थान से निकट समझते हो जहां पक्षकार निवास करते हो ,ग्राम न्यायालय को मुख्यालय से बाहर चलित न्यायालय लगाने की भी शक्ति प्राप्त है । गाम न्यायालय को सिविल ओर दांडिक दोनो प्रकरणों की अधिकारिता प्रदान की गई है ।

         ग्राम न्यायालय में अधिनियम की अनुसूची-1 के अनुसार दिये गये दांडिक प्रकरणों का एंव दूसरी अनुसूची में दिये गये सिविल प्रकरणों का निराकरण  किया जावेगा । 

        आपराधिक मामलो में भारतीय दण्ड संहिता 1860 के अंतर्गत निम्नलिखित अपराध ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकार में रखे गये है । जिन्हें अनुसूची एक में दर्शाया गया है ।  

1.    ऐेसे अपराध जो मृत्यु दण्ड आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक अवधि     के कारावास से दण्डनीय नहीं है,
2.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-379, धारा 380 या धारा-381के अधीन,     चोरी, जहां चुराई गई सम्पत्ति का मूल्य  बीस हजार रूपये से अधिक हीं है,
3.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-411 के अधीन, चुराई गयी     सम्पत्ति को प्राप्त करना या प्रतिधारित करना, जहां ऐसी सम्पत्ति का मूल्य     बीस हजार रूपये से अधिक नहीं है,
4.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-41 के अधीन, चुराई गई     सम्पत्ति को     छुपाने या उसका व्ययन करने में सहायता करना, जहां ऐसी सम्पत्ति का     मूल्य बीस हजार रूपये से अधिक नहीं है,
5.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-454 और धारा-456 के अधीन अपराध,
6.    धारा-504 के अधीन शांति के भंग का प्रकोपन करने के आशय से अपमान     और भारतीय दण्ड संिहता 1860 का 45 की धारा-506 के अधीन ऐसी अवधि     के, जो दो वर्ष तक की हो सकेगी, कारावास से या जुर्माने से या क्षेत्रों से     दण्डनीय आपराधिक अभित्रास,
7.    पूर्वोक्त अपराधों में से कोई अपराध करने का प्रयत्न, जब ऐसा प्रयत्न अपराध     हो,

        इसके अलावा अन्य केन्द्रीय अधिनियमों के अधीन अपराध और अनुतोष संबंधि मामले रखे गये है जो निम्नलिखित हैः-

1.    ऐसे किसी कार्य द्वारा गठित कोई अपराध, जिसकी बावत पशु अतिचार     अधिनियम, 1871 कर 1 की धारा-20 के अधीन परिवाद किया जा सकेगा,
2.    मजदूरी संदाय अधिनियम 1936 का 34,
3.    न्यूनतम मजदरूी अधिनियम 1948 का 11,
4.    सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 का,
5.    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973-1974 का 2 के अध्याय 9 के अधीन पत्नियों,     बालकों और माता-पिता के भरण-पोषण के लिए आदेश,
6.    बन्धित श्रम पद्धति उत्सादन अधिनियम, 1976 का 19,
7.    समान पारिश्रमिक अधिनियम,1976 का 25,
8..    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 20058 का 43,

        दांडिक मामलो का विचारण करते समय ग्राम न्यायालय दं0प्र0सं0 मेंदी गई संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुुसरण करेगें और संक्षिप्त प्रक्रिया अपनाते हुये मामलों का निपटारा करेगें। इस संबंध में सौदा अभिवाक् से संबंधित अध्याय 21क दं0प्र0सं0 के प्रावधान पूर्णतः ग्राम न्यायालय को लागू होगें । सरकार की तरफ से ग्राम न्यायालय में दांडिक मामलो का संचालन करने के लिये सहायक लोक अभियोजन अधिकारी कार्य कर सकेंगे और न्यायालय की इजाजत से परिवादी अपना अधिवक्ता नियुक्त कर सकते हैं ।

        ग्राम न्यायालय विधिक सेवा प्रणिकरण के माध्यम से पक्षकारो को निशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायेगी और मामले के निर्णय की निःशुल्क प्रति तत्काल दोनो पक्षकारो को दी जावेगी । निर्णय विचारण समाप्ति के 15 दिन के अन्दर सुनाया जाएगा । ग्राम न्यायालय में भारतीय साक्ष्य अधिनियम कठोरता से लागू नहीं की जाएगी । साक्षियों की साक्ष्य विस्तार से अभिलिखित न कर संक्षेप में लिपिबद्ध की जाएगी । औपचारिक प्रकृृति  की साक्ष्य को शपथ पत्र पर प्रकट किए जाने की अनुमति दी जाएगी। 

        ग्राम न्यायालय द्वारा प्रत्येक सिविल विवादो में विशेष प्रक्रिया का पालन किया जावेगा, 100/-कोर्टफीस के साथ दावा ग्राम न्यायालय में प्रस्तुत किया जावेगा, सिविल वाद का निराकरण 6 माह की अवधि के अंदर किया जावेगा और तर्क सुनने के ठीक 15 दिन के अंदर निर्णय पारित किया जावेगा, निर्णय की प्रतिलिपि तीन दिन के अंदर निःशुल्क दी जावेगी ग्राम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय डिक्री का निष्पादन सिविल प्रक्रिया के तहत होगा लेकिन इसमें नैसर्गिक न्याय के सिद्वांतो का अनुरण किया जावेगा । 

        ग्राम न्यायालय अनुसूची दो में दिये गये सिविल प्रकृति के मामले में सुनवाई करेगी ।

1-    सिविल विवाद-क-सम्पत्ति क्रय करने का अधिकार, ख-    आम चारागाहों का     उपयोग, ग-सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय,
2-    सम्पत्ति विवाद-क-ग्राम और फार्म हाउस कब्जा, ख-जलसरणियां, ग-    कुंए या नलकूप से जल लेने का अधिकार,
3-    अन्य विवाद-
क-    मजदूरी संदाय अधिनियम 1948 के अधीन दावे,
ख-    न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के अधीन दावे,
ग-    व्यापार संव्यवहार या साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी वाद,
घ-    भूमि पर कृषि में भागीदारी से उद्भूत विवाद,
ड-    ग्राम पंचायतों के निवासियों द्वारा वन उपज के उपयोग के संबंध में विवाद,

        केन्द्री और राज्य सरकार द्वारा इस अधिनियम के धारा-14 की उपधारा-1 के अधीन अधिसूचित केन्द्रीय और राज्य अधिनियमों के अधीन दावे और विवाद ।

        ग्राम न्यायालय प्रथम दो अवसर पर यह प्रयास करेगी कि प्रत्येक वाद या कार्यवाही समझौते से निपटाई जावे । पक्षकारो के बीच समझौता कराये जाने का प्रयास किया जायेगा । इसके लिये सुलाहदारों की नियुक्ति जिला मजिस्ट्ेट के परामर्श से की जावेगी । 

        ग्राम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी से भिन्न राज्य भाषाओं में से एक राज्य भाषा होगी ,भारत के संविधान की अनुसूची-8 में 22 भाषा राज्य भाषा के रूप में शामिल हैं। जिनमें असमी, बांगला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड, कश्मीरी, कोकंडी  मैथली, मलयालयम्, मणीपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु, उर्दू, शामिल है ।

        ग्राम न्यायालय के किसी भी निर्णय दंडाज्ञा या आदेश के विरूद्ध अपील सेंशन न्यायालय में 30 दिन के अंदर होगी जिसे सेंशन न्यायालय 6 माह के अंदर निपटाएगी । सेंशन न्यायालय के निर्णय या विश्लेषण के विरूद्व अपील नहीं होगी रिट याचिका को वर्जित नहीं किया गया है ।

        अपराधिक प्रकरण में यदि आरोपी ने अपराध स्वीकार किया है तो उस दोषसिद्धी के विरूद्ध अपील नहीं होगी । इसी प्रकार ग्राम न्यायालय एक हजार रूपये से कम का जुर्माना किया है तो उसके विरूद्ध अपील नहीं होगी ।

        सिविल मामलो में अन्तर्वती आदेश को छोड़कर अंतिम आदेश के विरूद्ध जिला न्यायाधीश के न्यायालय में 30 दिन के अंदर अपील होगी, जिला न्यायालय 6 माह के अंदर सिविल अपील का निपटारा करेंगे । अपील न्यायालय के आदेश के विरूद्ध कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं होगी । सिविल मामलों में यदि  कोई आदेश पक्षकारो की सहमति से पारित किया गया है तो विवादित  विषय वस्तु का मूल्य एक हजार रूपये से कम है तो वहां अपील नहीं होगी यदि विवादित विषय वस्तु का मूल्य पांच हजार रूपये से कम है तो विधि के प्रश्न पर अपील होगी ।

        ग्राम न्यायालय पुलिस सहायता प्राप्त कर सकेगी अपने कृत्यों के निर्वहन के लिये राजस्व अधिकारियों, सरकारी सेवक की सहायता प्राप्त कर सकती हैं । न्यायाधिकारी और कर्मचारी को लोक सेवक समझा जावेगा, प्रत्येक 6 माह में एक बार ग्राम न्यायालय का वरिष्ठ अधिकारी निरीक्षण करेगें 

        इस प्रकार न्याय प्राणाली को मजबूत करने और जन स्तर तक न्याय पहुंचाने के लिये तथा समाज के व्यक्तियों को त्वरित और सस्ता सुलभ न्याय  उपलब्ध हो सके इसके लिये ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 की स्थापना की गई है।

सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक परिचय umeshgupta

    सूचना का अधिकार अधिनियम-2005-एक    परिचय             
        भारत के संविधान मंे लोकतंत्रात्मक गणराज्य की स्थापना की गई है, जिसमें जनता में से जनता के द्वारा जनता के लिए, चुने व्यक्तियों द्वारा राज्य किया जाता है । इस प्रकार जनता का राज्य होता है । ऐसे राज्य मंे प्रत्येक नागरिक, वर्ग, को यह जानने का अधिकार है कि उसके खून-पसीने की कमाई से एकत्र किये गये टैक्स को सरकार किस प्रकार खर्च कर रही है । उससे प्राप्त राशि का किस प्रकार लोक  प्राधिकारी लोक संस्थाएं उपयोग कर रही है । ऐसी सूचना की पारदर्शिता की अपेक्षा प्रत्येक व्यक्ति सरकार से करता है । इसी पारदर्शिता को लागू करने के लिए सूचना अधिकार अधिनियम 2005 की स्थापना की गई है । जिसे आगे संक्षिप्त में आर.टी.आई. कानून कहा गया है ।

        लोक सूचना अधिनियम की धारा-1 की उपधारा-(3) के अनुसार राष्ट्रपति महोदय की स्वीकृति 15 जून, 2005 को होने के पश्चात् 21 जून, 2005 को भारत के असाधारण राजपत्र भाग-प्प् खण्ड-1 पार्ट-प्प्, अनुसार-1 दिल्ली में प्रकाशित होने के तत्काल प्रभाव से इसकी धारायें धारा 4 की उपधारा- (1) तथा धारा-5 की उपधारा- (1) और  (2),  धारायें 12,13,15,16,24,27,28 लागू हो गई थीं, शेष धारायें इसके अधिनियमित होने के 120  (एक सौ बीस दिन बाद) प्रवृत्त हो गई है । मध्य प्रदेश में यह कानून 12 अक्टूबर 2005 को लाग हुआ है ।

        इस अधिनियम में 31 धारायें है । अधिनियम की धारा-27 के अंतर्गत राज्य सरकार को नियम बनाने की शक्ति दी गई है जिसके अंतर्गत सूचना अधिकार  (फीस और लागत का विनियमन) नियम, 2005 बनाया गया है । जिसके अंतर्गत 10 रूपये आवेदन के साथ फीस दी जायेगी जो नगद मांग देय, ड्राफट या बेंकर चैक के रूप में लोक प्राधिकरण के लेखाधिकारी को संदेय होगा । 

        नियम 4 के अनुसार धारा-7 की उपधारा (1) के अधीन किसी सूचना को
उपलब्ध कराने के लिए फीस, निम्नलिखित दर पर, जो समुचित रसीद के विरूद्ध नकद के रूप में या मांग देय ड्राफट या बैंकर चैक के रूप में होगी जो लोक प्राधिकरण के किसी लेखा अधिकारी को संदेय हागा, प्रभारित की जाएगीः-

     (क)    तैयार किए गए या प्रतिलिपि किए गए प्रत्येक  (ए-4 या ए-3 आकार)
        कागज के लिये दो रूपये,
     (ख)    बडे आकार के कागज में किसी प्रतिलिपि का वास्तविक प्रभार या लागात            कीमत,
     (ग)    नमूनो या माडलों के लिए वास्तविक लागत या कीमत, और
     (घ)    अभिलेखों के निरीक्षण के लिए, पहले घंटे के लिए कोई फीस नहीं, तथा
        उसकेे पश्चात प्रत्येक घंटे  (या उसके भाग) के लिए रूपये पांच,

        नियम 5 के अनुसार धारा-7 की उपधारा (5) के अधीन किसी सूचना को उपलब्ध कराने के लिए फीस, निम्नलिखित दर पर, जो समुचित रसीद के विरूद्ध नकद के रूप में या मांग देय ड्राफट या बैंकर चैक के रूप में होगी जो लोक प्राधिकरण के किसी लेखा अधिकारी को संदेय हागा, प्रभारित की जाएगीः-

     (क)    डिस्केट या फ्लाॅपी में सूचना उपलब्ध कराने के लिए, प्रति डिस्केट या     फ्लाॅपी,          पचास रूपये, और
     (ख)    मुद्रित प्ररूप में दी गई सूचना के लिए, ऐसे प्रकाशन के लिए नियत कीमत
        पर या ऐसे प्रकाशन से उद्धरणें की फोटो प्रति के प्रति पृष्ठ के लिए दो
        रूपये ।

इस अधिनियम की धारा-2एफ के अनुसार सूचना से अभिप्राय किसी इलेक्ट्ानिक रूप में धारित 

अभिलेख,
दस्तावेज,
ज्ञापन,
ई-मेल,
मत,
सलाह,
प्रेस विज्ञप्ति,
परिपत्र,
आदेश,
लागबुक,
संविदा,
रिपोर्ट,
कागजपत्र,
नमूने,
माडल,
आंकडो, सबंधी सामग्री

और किसी प्राइवेट निकाय से संबंधित ऐसी सूचना सहित, जिस तक तत्समय प्रवृत्त, किसी अन्य विधि के अधीन किसी लोक प्राधिकारी की पहंुच हो सकती है, किसी रूप में कोई सामग्री अभिप्रेत है ।

        इस प्रकार सूचना के अंतर्गत मूल्यांकन उत्तरपुस्तिका , फाइल की टिप्पणी 

आदि शामिल है । लोक प्राधिकारी में शामिल हैे । कृषि उपज मण्डी समिति, गैर सरकारी संगठन सोसायटी जिनका सरकार द्वारा वित्त पोषण होता है ।

        अधिनियम के उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी नागरिकों को सूचना का अधिकार होगा सूचना के अधिकार को धारा-2आई में परिभाषित किया गया है ।

        जिसके अनुसार सूचना का अधिकार से अभिप्रेत है इस अधिनिमय के अधीन पहंुच योग्य सूचना का जो किसी लोक प्राधिकारी द्वारा या उसके नियंत्रणाधीन धारित है, अधिकार अभिप्रेत है और जिसमें निम्नलिखित का अधिकार सम्मिलित है-
    1-    कृति, दस्तावेजो, अभिलेखों का निरीक्षण,
    2-    दस्तावेजो या अभिलेखों के टिप्पण, उद्धरण या प्रमाणित प्रतिलिपि लेना,
    3-    सामग्री के प्रमाणित नमूने लेना,
    4-    डिस्केट, फलापी, टेप, वीडियों कैसेट के रूप में या किसी अन्य इलेक्ट्ानिक             रीति में
        या प्रिंटआउट के माध्यम से सूचना को, जहां ऐसी सूचना किसी कम्प्यूटर
        या किसी अन्य युक्ति में भण्डारित है,
        अभिप्राप्त करना,
        अधिनियम की धारा-8 में सूचना के प्रकट किये जाने से छूट प्रदान की गई है जिसमें लोक प्राधिकारियों को सूचना देने की बाध्यता नहीं होगी । वह निम्नलिखित है-
    क-    सूचना जिसके प्रकटन से
        भारत की प्रभुता और अखण्डता,
        राज्य की सुरक्षा, रणनीति, वैज्ञानिक या आर्थिक हित, विदेश से संबध पर             प्रतिकूल प्रभाव पडता हो
         या किसी अपराध को करने का उददीपन होता हो,
        अपराध के उद्दीपन को भा.द.सं. की धारा-383 में परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार जो कोई किसी व्यक्ति को स्वयं उस व्यक्ति को या किसी अन्य व्यक्ति को कोई क्षति करने के भय में साशय डालता है, और तद्द्वारा इस प्रकार भय मे डाले गए  व्यक्ति को, कोई सम्पत्ति या मूल्यवान प्रतिभूमि या य हस्ताक्षरित या मुद्रांतिक कोई चीज, जिसे मूल्यवान प्रतिभूति में परिवर्तित किया जा सके, किसी व्यक्ति को परिदत करने के लिए बेईमानी से उत्प्रेरित करता है, वह उद्दापन करता है ।
        इस प्रकार यदि अवैध वसूली के लिए कोई जानकारी मांगी जाती है तो वह उद्दीपन की श्रेणी में आएगी ।
        भा.दं.सं. की धारा-384 से लेकर 389 तक में उद्दीपन को विभिन्न रूपांे में दण्डित किया है जिसमें  उदद्पन करने के लिए किसी व्यक्ति को क्षति के भय में डालना, किसी व्यक्ति को मृत्यु का घोर उपहति के भय में डालकर उदद्पन, उदद्पन करने के लिए किसी व्यक्ति को मृत्यु या घोर उपहति के भय में डालना, मृत्यु या आजीवन कारावास, आदि से दण्डनीय अपराध का अभियोग लगाने की धमकी देकर उदद्पन, उदद्पन करने के लिए किसी व्यक्ति को अपराध का अभियोग लगाने के भय में डालना शामिल है ।
    ख-    सूचना, जिसके प्रकाशन को किसी न्यायालय
        या अधिकरण द्वारा अभिव्यक्त रूप से निषिद्ध किया गया है
        या जिसके प्रकटन से न्यायालय का अवमान होता है ।
    ग-    सूचना जिसके प्रकटन से
        संसद
        या किसी राज्य के विधान मण्डल 
        के विशेषाधिकार का भंग कारित होगा,
    घ-    सूचना जिसमें वाणिज्यिक विश्वास, व्यापार गोपनीयता
        या बौद्धिक संपदा सम्मिलित है,
        जिसके प्रकटन से किसी पर व्यक्ति की प्रतियोगी स्थिति को
        नुकसान होता है,
        जब तक कि सक्षम प्राधिकारी का यह समाधान नहीं हो
        जाता है कि ऐसी सूचना के प्रकटन से विस्तृत लोक हित का समर्थन     होता है,
    ड-    किसी व्यक्ति को उसकी वैश्वासिक नातेदारी में उपलब्ध सूचना,
        जब तक
        कि सक्षम प्राधिकारी का यह समाधान नहीं हो जाता है
        कि ऐसी सूचना के प्रकटन से विस्तृत लोक हित का समर्थन होता है,
    च-    किसी विदेश सरकार से विश्वास में प्राप्त सूचना,
    छ-    सूचना जिसका प्रकट करना किसी व्यक्ति के जीवन या शारीरिक सुरक्षा को             खतरे में डालेगा
        या जो विधि प्रवर्तन
        या सुरक्षा प्रयोजनो के लिए विश्वास में दी गई किसी सूचना
        या सहायता के स्त्रोत की पहचान करेगा,
    ज-    सूचना, जिससे अपराधियों के अन्वेषण, पकडे जाने
        या अभियोजन की क्रिया में अडचन पडेगी,
    झ-    मंत्रिमण्डल के कागजपत्र,
        जिसमें मंत्रिपरिषद, सचिवों और अन्य अधिकारियों के विचार विमर्श के अभिलेख         सम्मिलित है,
        परन्तु यह कि मंत्रिपरिषद के विनिश्चय, उनके कारण तथा वह सामग्री जिसके         आधार पर विनिश्चय किए गए थे,

        विनिश्चय किए जाने और विषय के पूरा या समाप्त होने के पश्चात जनता को         उपलब्ध कराए जाएगे,
        परन्तु यह और कि वे विषय जो इस धारा में विनिर्दिष्ट छूटों के अंतर्गत आते हैं         प्रकट नहीं किए जाएगें,

    ञ-    सूचना जो व्यक्तिगत सूचना से संबंधित है,
        जिसका प्रकटन किसी लोक    क्रियाकलाप
        या हित से सबंध नहीं रखता है
        या जिससे व्यक्ति की एकांतता पर अनावश्यक अतिक्रमण होगा,
        जब तक कि, यथास्थिति केन्द्रीय लोक सूचना अधिकारी या राज्य लोक सूचना         अधिकारी   
        या अपील प्राधिकारी का यह समाधान नहीं हो जाता है
        कि ऐसी सूचना का प्रकटन विस्तृत लोक हित में न्यायोचित है,
        परन्तु ऐसी सूचना के लिए, जिसको, यथास्थिति, संसद
        या किसी विधान- मण्डल को देने से इंकार नहीं किया जा सकता है, किसी             व्यक्ति का इंकार नहीं किया जा सकेगा ।


2-        शासकीय गुप्त बात अधिनियम 1923- 1923 का 19 में उपधारा-1 के     अनुसार         अनुज्ञेय किसी छूट में किसी बात के होते हुए भी,
        किसी लोक प्राधिकारी को सूचना तक पहंुच अनुज्ञात की जा सकेगी,
        यदि सूचना के प्रकट में लोकहित, संरक्षित हितों के नुकसान से अधिक है 

3-        उपधारा-1 के खण्ड क, खण्ड ग, और खण्ड झ के उपबंधों के अधीन रहते             हुए, किसी ऐसी घटना, वृत्तांत या विषय से संबंधित कोई सूचना जो उस             तारीख से, जिसको धारा-6 के अधीन कोई अनुरोध किया जाता है, बीस वर्ष             पूर्व घटित हुई थी या हुआ था उस धारा के अधीन अनुरोध करने वाले किसी             व्यक्ति को उपलब्ध कराई जाएगी ।

        परन्तु यह कि जहां उस तारीख के बारे में, जिससे बीस वर्ष की उक्त     अवधि             को संगठित किया जाता है, कोई प्रश्न उदभूत होता है, वहां इस अधिनियम में         उसके लिए उपबंधित प्रायिक अपीलों के अधीन रहते हुए केन्द्रीय सरकार का             विनिश्चय अंतिम होगा ।

        अधिनियम की धारा-9 के अनुसार वहां पर भी सूचना नहीं दी जायेगी जहां             राज्य से भिन्न किसी व्यक्ति के अस्तित्वयुक्त प्रतिलिप्यधिकार का उल्लंघन             अन्तर्वलित करेगा । 


        अधिनियम की धारा-10 के अनुसार जितने भाग की सूचना अधिनियम में नहीं दी जा सकती है । उस भाग को छोडकर शेष भाग की सूचना पृथककरण कर के दी जाएगी।

        अधिनियम की धारा-11 के अनुसार परव्यक्ति के संबंध में सूचना उससे पांच दिन के अंदर जानकारी ली जाने के बाद की क्या वह सूचना प्रकट की जानी चाहिए या नहीं। यदि वह गोपनीय रखने कहता है तो तीसरे पक्ष के हित का ध्यान रखते हुए सूचना दी जाएगी । अधिनियम की धारा-19 के अनुसार तीसरे पक्ष को अपील का अधिकार प्राप्त है । चालीस दिन का समय तीसरे पक्ष को दिया जाएगा ।

        अधिनियम की धारा-6 के अंतर्गत सूचना प्राप्त करने के लिए लिखित मे  अनुरोध किया जाएगा । अनुरोध प्राप्ति के 30 दिन के भीतर ऐसी फीस संदाय किये जाने पर सूचना उपलब्ध कराई जाएगी । 

        यदि जानकारी किसी व्यक्ति के जीवन या स्वतंत्रता से संबंधित है तो वह 48   घंटे के अंदर उपलब्ध कराई जायेगी ।
         अधिनियम की धारा-19 के अंतर्गत 30 दिन के अंदर अपील की जाएगी। दूसरी अपील 90 दिन के अंदर केन्द्रीय सूचना आयोग या राज्य सूचना आयोग को दी जाएगी।


         अधिनियम की धारा-20 के अंतर्गत बिना किसी युक्तियुक्त कारण के सूचना न देने पर कोई आवेदन प्राप्त किये जाने पर निश्चित समय पर सूचना न दिये जाने पर असदभावना पूर्वक सूचना दिये जाने पर, जानबूझकर गलत, अपूर्ण या भ्रामक सूचना दी है या उस सूचना को नष्ट कर दिया है, जो अनुरोध का विषय थी या किसी रीति से सूचना देने में बाधा डाली है तो वह ऐसे प्रत्येक दिन के लिए जब तक आवेदन प्राप्त किया जाता है या सूचना दी जाती है, दो सौ पचास रूपये की शास्ति अधिरोपित करेगा, तथापि ऐसी शास्ति की कुल रकम पच्चीस हजार रूपये से अधिक नहीं होगी ।
         अधिनियम को अध्यारोही प्रभाव दिया गया है । अन्य न्यायालय की अधिकारिता वर्जित की गई है । 

        आम व्यक्ति को लोकहित में सूचना का अधिकार प्रदान किया गया है । जो विषय वस्तु लोकहित से संबंधित है । वह सूचना के अधिकार में शामिल है । सूचना के अधिकार से आम जनता को यह लाभ प्राप्त है कि लोक प्राधिकारी जो कार्य करेंगे उसकी जानकारी रहेगी । यदि वह मनमाने तौर पर काम करते है तो उस पर रोक लगाई जा सकेगी । यदि उनके द्वारा सरकारी कार्य करने में हीला हवाला किया जाता है, वे कार्य में उपेक्षा बरतते है, जिससे शासकीय कार्य में मनमानी भ्रष्टाचार, लालफीताशाही, भाई-भतीजावाद को बढावा देते है तो उन पर रोक लगाई जा सकेगी ।   
     
        आर.टी.आई एक्ट से यह भी लाभ है कि लोकहित के कार्यो की सुनवाई समय पर हो सकेगी । समुचित राहत आम नागरिकों को समय पर प्राप्त होगी। सराकरी सेवको में कर्तव्य परायणता, जनसेवा की भावना जागृत होगी । जो इस अधिनियम का मूल्य उददेश्य है।

        सूचना के अधिकार से देश को यह लाभ है कि लोक प्राधिकारी के कृत्यों में पारदर्शिता आएगी तथा नागरिकों के प्रति जवाबदेही बढेगी । उचित ढंग से कार्य करने की भावना/मानसिकता विकसित होगी ।    

        देश को स्वच्छ प्रशासन प्राप्त होगा । नागरिकों की सामान्य सुविधाए प्राप्त करने के लिए ज्यादा प्रयास नहीं करना पडेगा लोकहित में मानक स्तर के कार्य होंगे । घटिया निर्माण कार्य पर रोक लगेगी । यही कारण है कि सूचना का अधिकार ’’सुशासन की कुंजी’’ माना गया है । इसके लिए आवश्यक है कि सरकारी रिकार्ड चुस्त दुरूस्त सूची बद्ध कम्प्यूटरीकृत रखे जावे ।

आर.टी.आई. कानून लागू होने के बाद सरकारी विभागों से मांगी जा रही सूचनाओं के कारण अनेक घोटालों का पर्दाफास हुआ है । घोटालो में  फसने वाले नेताओं और अफसरों की नींद हराम हुई है । आर.टी.आई. की सूचना जुटाकर घोटालों का भंडफोड करने में अनेक लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पडा है । पुलिस प्रशासन द्वारा उन्हें समय-समय पर डराया धमकाया जाता है । समाज के संगठन काम करने वाले ऐसे आर.टी.आई. कार्यकताओं की सुरक्षा की अत्यन्त आवश्यकता है । सरकार ऐसे कार्यकर्ताओं को सुरक्षा प्रदान करें ।

        आर.टी.आई. कानून ने भ्रष्ट नेता और अफसरों की नाक में दम कर रखा है । सही कारण है कि अवैध खनन करने वालो के कारनामों को उजागर करने वाले गुजरात के अमित जेठवा जमीन घोटालों का सच सामने लाने वाले पुणें के सतीश सेठी औरअहमदाबाद के नदीम सैयद जैसे तमाम कार्यकर्ताओं को अपनी जान तक गवानी पडी है । सूचना का अधिकार कानून जैसे-जैसे सशक्त बन कर उभर रहा है । वैसे-वैसे भ्रष्ट लोगों की लाॅबी भी सामने आ रही है । लेकिन चंद लोगों की हत्या या कुछ लोगों को डराने धमकाने से सूचना के अधिकार की मुहीम रूकने वाली नहीं है ।

        जरूरत है तो ऐसे लोगों का साथ देने का और ऐसे प्रशासन पर दबाव बनाने की कि वह भ्रष्ट नेता, अफसरों, के प्रभाव में आकर ऐसा कोई काम न करने पायें जिससे कानून से खिलवाड होता दिखाई दे            

क्रूरता

                                          क्रूरता    

            अभिव्यक्ति  ’’कू्ररता’’ को किसी अधिनियम में परिभाषित नहीं किया है ।जब ेकि यह हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-13 के अंतर्गत विवाह विच्छेद का महत्वपूर्ण आधार है और धारा-498ए भा.द.सं. में इसे किसी स्त्री को उसके पति अथवा निकटतम संबंधियों द्वारा कू्ररता पूर्ण व्यवहार करने पर दण्डित किया गया है ।


        कू्ररता शारीरिक या मानसिक हो सकती है । क्रूरता जो विवाह विघटन हेतु एक आधार है, को ऐसी प्रकृति के स्वैच्छिक एंव अन्यायोचित आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकेगा जो जीवन, अंगत या स्वास्थ्य, शारीरिक या मानसिक को खतरा कारित करे या ऐसे खतरे की  युक्तियुक्त शंका को उत्पत्ति प्रदत्त करें । मानसिक कू्ररता के प्रश्न को, विशिष्ट समाज जिसमें पक्षकारगण संबद्ध हैं, के वैवाहिक बंधनों के आदर्शों, उनके सामाजिक गुणों, दर्जो, वातावरण जिसमें वे रहते हैं, के प्रकाश में विचारण किया जाना चाहिए । 

        क्रूरता में यथा उपर नोट किया गया, मानसिक क्रूरता सम्मिलित होती है जो वैवाहिक दोष के अधिकार-क्षेत्र के भीतर आती है ।कू्ररता शारीरिक होना आवश्यक नहीं है ।यदि उसके पति या पत्नी के आचरण से वह स्थापित की जाती है और/या कोई अनुमान वैधानिक रूप से निकाला जा सकता है कि पति या पत्नी का व्यवहार ऐसा है कि यह दूसरे पति या पत्नी के मस्तिष्क में, उसके मानसिक कल्याण के बारे में आशंका कारित करता है तो यह आचरण क्रूरता समझा जाता है।


        विवाह जैसे नाजुक मानव रिश्ते में, हमें अधिसंभाव्यताओं को देखना चाहिए । शंका की छाया से परे सबूत के सिद्धांत को आपराधिक परीक्षणों को लागू करना चाहिए और सिविल मामलो में नहीं और निश्चित रूप से पति और पत्नी के ऐसे नाजुक संबंध वाले मामलों में नहीं लागू करना चाहिए । 


        इसलिए हमे देखना चाहिए कि प्रकरण में क्या अधिसंभाव्यताएं हैं और विधिक कू्ररता का पता न केवल तथ्य के मामले के रूप में लगाया जाना चाहिए बल्कि फरियादी पति या पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव के रूप में, दूसरे के कृत्यांे या कारित करने के कारण से । 


        क्रूरता भौतिक या शारीरिक या मानसिक हो सकेगी । भौतिक कू्ररता में दृश्यमान और प्रत्येक साक्ष्य होती है, परंतु, मानसिक कू्ररता में कभी-कभी प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगी । ऐसे प्रकरण मे जहां, कोई प्रत्यक्ष साक्ष्य नहीं होती है तो न्यायालयों से घटनों की मानसिक प्रक्रिया और मानसिक प्रभाव की जांच करने की उपेक्षा की जाती है जिनको साक्ष्य में लाया जाता है । यह इस रूप में है कि हमे वैवाहिक विवादों में साक्ष्य का विचारण करना चाहिए । 


        अभिव्यक्ति ’’कू्ररता’’ को मानव आचरण या मानव व्यवहार के संबंध में प्रयुक्त किया गया है । यह वैवाहिक कर्तव्यांे और उत्तरदायित्वों के संबंध में या के बारे में आचरण है । कू्ररता कोई अनुक्रम या आचरण है जो दूसरे पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता मानसिक या शारीरिक, स्वैच्छिक या अस्वैच्छिक हो सकेगी । यदि यह शारीरिक है तो इसका विनिश्चय करने मे न्यायालय को कोई कठिनाई नहीं होगी । यह तथ्य और माप का प्रश्न है । यदि यह मानसिक है तो कठिनाई होती है ।


        प्रथम कू्रर व्यवहार की प्रकृति के बारे में जांच प्रारंभ की जानी चाहिए, द्वितीय ऐसे व्यवहार का पति या पत्नी के मस्तिष्क पर प्रभाव, चाहे इससे युक्तियुक्त आशंका कारित हुई थी कि यह दूसरे के साथ रहने के लिए नुकसानदायक या क्षतिकारक होगी । आत्यंतिक रूप से यह फरियादी पति या पत्नी पर आचरण की प्रकृति और इसके प्रभाव को ध्यान में रखते हुए निकाला जाने वाला अनुमान का एक मामला है परन्तु ऐसा मामला हो सकेगा जहां शिकायत किया गया आचरण स्वयंमेव ही अत्यधिक बुरा और स्वतः अवैध या अविधिक है । तब दूसरे पति या पत्नी पर प्रभाव या क्षतिकारक प्रभाव की जांच या विचारण करने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता स्थापित होगी यदि आचरण स्वयंमेव साबित हो जाता है या स्वीकार किया जाता है । 


        कू्ररता घटित करने के लिए शिकायत किया गया आचरण ’’घोर और वजनदार’’ होना चाहिए ताकि इस निष्कर्ष पर पहंुचे कि याचिकाकर्ता पति या पत्नी से दूसरे पति या पत्नी के साथ युक्तियुक्त रूप से रहने की अपेक्षा नहीं की जा सकती । इसको ’’ वैवाहिक जीवक की सामान्य टूट-फूट’’ से और अधिक गंभीर होनी चाहिए ।


        आचरण की जांच परिस्थितियों और पृष्ठभूमि को विचारण में लेते हुए इस निष्कर्ष पर पहंुचने के लिए जांच की जानी चाहिए, क्या शिकायत किया गया आचरण वैवाहिक विधि में कू्ररता समझा जाता है। आचरण का, यथा उपर नोट किया गया, विभिन्न कारकों की पृष्ठभूमि में विचारण किया जाना चाहिए, जैसे, पक्षकारगण की सामाजिक हैसियत, उनकी शिक्षा, शारीरिक और मानसिक दशाएं , रीति और रिवाज, परिस्थितियां, जो कू्ररता घटित करेंगी, की यथार्थ परिभाषा प्रतिपादित करना या परिपूर्ण विवरण देना कठिन है ।

        यह इस प्रकार की आवश्यक होनी चाहिए कि न्यायालय की अंतरात्मा का समाधान कर सके कि पक्षकारगण के मध्य संबंध, दूसरे पति या पत्नी के आचरण के कारण इस सीमा तक खराब हो चुके थे कि विवाह-विच्छेद अभिप्राप्त करने के लिए शिकायतकर्ता पति या पत्नी को हकदार करने के लिए मानसिक वेदना, प्रताडना या दुःख के बिना उनके लिए एक साथ रहना असंभव होगा । कृप्या देखें-शोभरानी बनाम मधुकर रेडडी ए.आई.आर. 1988, सुप्रीम कोर्ट 121.

        कू्ररता गठित करने के लिए शारीरिक हिंसा आत्यंतिक रूप से अनावश्यक नहीं हैं और अमान्यनीय मानसिक वेदना और प्रताडना कारित करते हुए आचरण का सतत अनुक्रम अधिनियम की धारा-10 के आशय के भीतर कू्ररता को सुगठित कर सकेगी । मानसिक कू्ररता दूसरे व्यक्ति की मानसिक शांति की सतत बाधा में परिणित होते हुए भददी और गंदी भाषा का प्रयोग करने के द्वारा मौखिक गालियों और अपमानों से गठित हो सकेगी ।
       
        क्रूरता के आधार पर विवाह-विच्छेद के लिए याचिका को व्यवहृत करने वाली न्यायालय को ध्यान में रखना चाहिए कि इसके समक्ष समस्याएं मनुष्यों की हैं और विवाह-विच्छेद की याचिका का निपान करने क पूर्व पति या पत्नी के आचरण में मनोवैज्ञानिक परिवर्तनों को ध्यान में रखना चाहिए । चाहे कितना ही अमरत्वपूर्ण या तुच्छ हो, ऐसाआचरण दूसरे के मस्तिष्क में दर्द कारित कर सकेगा । परन्तु ऐसे आचरण को कू्ररता कह सकने के पूर्व, इसे गम्भीरता की कुछ सीमा को अवश्य छूना चाहिए । गंभीरता का माप करना न्यायालय पर निर्भर करता है ।

        यह देखा जाना चाहिए क्या आचरण ऐसा था कि कोई भी युक्तियुक्त व्यक्ति इसको सहन नहीं करेगा । यह विचारण किया जाना चाहिए कि क्या परिवादी से सामान्य मानव जीवन के एक भाग के रूप में वहन करने की अर्ज की जानी चाहिए । 

        प्रत्येक वैवाहिक आचरण, जो दूसरे को क्षोभ कारित कर सकेगा, को कू्ररता नही समझा जा सकेगा । पतियों या पत्नीयों के बीच मात्र तुच्छ नोंक-झोंक, झगडे जो दिन प्रतिदिन के वैवाहिक जीवन मे ंघटित होते हैं, को भी कू्ररता नहीं समझा जा सकेगा । वैवाहिक जीवन में कू्ररता अनाधारित प्रकार की हो सकेगी । जो नाजुक या बर्बर हो सकती है । यह शब्द, संकेत या मात्र चुप्पी, हिंसा या अहिंसा हो सकेगी ।


        मजबूत विवाह की आधारशीला, सहनशीलता, समायोजन और एक दूसरे के प्रति आदर हैे । कुछ सहन करने की सीमा तक एक-दूसरे की त्रुटि के प्रति आदर है । कुछ सहन करने की सीमा तक एक-दूसरे की त्रुटि के प्रति सहनशीलता प्रत्येक विवाह में अंतर्निहित होनी चाहिए । छोटी-छोटी नोंक-झोंक, तुच्छ भिन्नताओं को बढ़ाया नहीं जाना चाहिए और जो स्वर्ग में बनाया गया होना कहा गया है, को नष्ट करने के लिए फैलाना नहीं चाहिए ।

        सभी झगडों को प्रत्येक विशिष्ट प्रकरण में जो कू्ररता गठित करते हैं, को विनिश्चित करने में उस दृष्टिकोण से मापा जाना चाहिए और यथा उपर नोट किया गया । पक्षकारगण की शारीरिक व मानसिक दशाओं, उनका चरित्र और सामाजिक दर्जा को सदा ही ध्यान में रखते हुए मापा जाना चाहिए ।

        ेअत्यधिक तकनीकी और अत्यधिक संवेदनशील दृष्टिकोण विवाह के संस्थान पर प्रतिकूल प्रभाव डालेगा । न्यायालयों को आदर्श पतियों और आदर्श पत्नियों को व्यवहन नहीं करना चाहिए । इनको इनके समक्ष विशिष्अ पुरूष और स्त्री को व्यवहन करना है । आदर्श युगल या मात्र आदर्श युगल को संभवतः वैवाहिक न्यायालय के पास जाने का अवसर नहीं मिलेगा ।कृप्या देखें- दास्ताने बनाम दास्ताने ए.आई.आर. 1975 सुप्रीम कोर्ट 1534.

         क्रूरता के संबध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली 2006 भाग-4 एस.सी.सी. 558 में मानसिक कू्ररता की संकल्पना के विकास और उद्गम की जांच की थी कि विवाह-विच्छेद की अर्जी मुख्य रूप से कू्ररता के आधार पर फाइल की गई थी । यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद का दावा करने के लिए कू्ररता का आधार नहीं था। यह केवल अधिनियम की धारा-10 के अधीन संशोधन द्वारा कू्ररता को विवाह-विच्छेद का एक आधार बनाया गया था और वेशब्द जो धारा-10 से लोप किए गए इस प्रकार हैं ’’जिससे याची के मस्तिष्क मे युक्तियुक्त आशंका कारित हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना याची के लिए नुकसानदेह या हानिकर होगा’’ । इसलिए, विवाह- विच्छेद का दावा करने वाले पक्षकार के लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकृति का है जिससे यह आशंका- युक्तियुक्त आशंका हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना उसके लिए नुकसान देह या हानिकर होगा ।’’

        शोभा रानी बनाम मधुकर रेडडी 1988 भाग-1 एस.सी.सी. 105 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  मत व्यक्त किया गया है ’’ कू्ररता शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में परिभाषित नहीं किया गया है ं इसका प्रयोग अधिनियम की धारा-’13-1-1क  में वैवाहिक कर्तव्यों या दायित्वों की बावत या सबंधित मानवीय आचरण या व्यवहार के संदर्भ में किया गया है । यह ऐसा आचारण है जो अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता, मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय हो सकती है । यदि यह शारीरिक है तो यह तथ्य और कोटि का प्रश्न है । 

        यदि यह मानसिक है तो जांच कू्रर बर्ताव की प्रकृति और तत्पश्चात ऐसे बर्ताव का दम्पत्ति पर प्रभाव के संबंध से आरंभ होनी चाहिए । क्या यह युक्तियुक्त आशंका पैदा करती है कि इसके कारण दूसरे पक्षकार के साथ रहना नुकसानदेह या हानिकर होगा, अंततः शिकायत करने वाले पति/पत्नी पर इसके प्रभाव और आचरण की प्रकृति पर ध्यान देते हुए मामले का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । 


        तथापि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण अत्यंत बुरा और स्वतः विधिविरूद्ध या अवैध है । तब दूसरे पक्षकार पर इसके प्रभाव या हानिकर प्रभाव की जांच या विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता तभी सिद्ध हो जाएगी यदि आचरण स्वतः साबित या स्वीकृत है । 

        आशय का अभाव मामले में कोई अंतर पैदा नहीं करता यदि मानवीय क्रियाकलाप के मामूली अर्थ में शिकायत किया गया कार्य, अन्यथा कू्ररता माना जाता है । क्रूरता में आशय आवश्यक घटक नहीं है । पक्षकार को अनुतोष इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि जानबूझकर या सोच-समझकर कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया है ।

        वी. भगत बनाम डी. भगत 1994 भाग-1 एस.सी.सी.337 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा  मत व्यक्त किया गया है ’’धारा-13-1-1क में मानसिक कू्ररता को मौटे तौर पर ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता जिससे अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा और यातना पहुंचे कि उस पक्षकार के लिए अन्य पक्षकार के साथ रहना संभव न हो । दूसरे शब्दो मे मानसिक कू्ररता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि पक्षकारो से युक्तियुक्त रूप से यह प्रत्याशा न की जा सके कि वे साथ-साथ रह सकें । ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि उस पक्षकार से जिसके साथ दुव्र्यवहार किया गया है । 

        युक्तियुक्त रूप से यह न कहा जा सके कि वह दूसरे पक्षकार के ऐस आचरण को सहन कर ले और उसके साथ जीवन बिताए । यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे आवेदक के स्वास्थ्य को क्षति कारित ही हो । ऐसे निष्कर्ष निकालते समय, पक्षकारांे की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज जिसमें वे रहते हैं, 

पक्षकारेा की यदि वे पहले से ही अलग रह रहे हैं साथ रहने की संभावना या असंभावना और अन्य ऐसे सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनका सम्पूर्ण रूप से उल्लेख करना न तो संभव है और न ही वांछनीय । 

        एक मामले में जो कार्य कू्ररता है वही कार्य दूसरे मामले मे कू्ररता की कोटि में नहीं भी आ सकता । यह ऐसा विषय है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनिश्चय किया जाना चाहिए । यदि यह अभियोगों और अभिकथनों का मामला है तब उस संदर्भ पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें वे किए गए थे ।’’    
   
             इस प्रकार कू्ररता के सबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा जो मत ’एन.जी.दास्तने बनाम एस.दास्तने 1975 भाग-2 एस.सी.सी. 326 में व्यक्त किया गया है कि’’इस सबंध में जांच की जानी चाहिए कि क्या कू्ररता के रूप मंे आरोपित आचरण ऐसी प्रकृति का है जिससे याची के चित्त में यह युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि उसका प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकर या क्षतिपूर्ण होगा।’ यह महत्वपूर्ण है ।   
                                                                         (उमेश कुमार गुप्ता)

                            1.        नवीन कोहली बनाम नीलू कोहली 2006 भाग-4 एस.सी.सी. 558 में  माननीय उच्च्तम न्यायालय द्वारा मानसिक कू्ररता की संकल्पना के विकास और उद्गम की जांच की थी कि विवाह-विच्छेद की अर्जी मुख्य रूप से कू्ररता के आधार पर फाइल की गई थी । यह उल्लेख करना प्रासंगिक है कि हिन्दू विवाह अधिनियम के अधीन विवाह-विच्छेद का दावा करने के लिए कू्ररता का आधार नहीं था। यह केवल अधिनियम की धारा-10 के अधीन न्यायिक पृथक्करण का दावा करने के लिए ही आधार था । 1976 के संशोधन द्वारा कू्ररता को विवाह-विच्छेद का एक आधार बनाया गया था और वे शब्द जो धारा-10 से लोप किए गए इस प्रकार हैं ’’जिससे याची के मस्तिष्क मे युक्तियुक्त आशंका कारित हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना याची के लिए नुकसानदेह या हानिकर होगा’’ । इसलिए, विवाह- विच्छेद का दावा करने वाले पक्षकार के लिए यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि क्रूरता का व्यवहार ऐसी प्रकृति का है जिससे यह आशंका- युक्तियुक्त आशंका हो कि दूसरे पक्षकार के साथ रहना उसके लिए नुकसान देह या हानिकर होगा ।’’

2.        एन.जी.दास्तने बनाम एस.दास्तने 1975 भाग-2 एस.सी.सी. 326
में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’इस सबंध में जांच की जानी चाहिए कि क्या कू्ररता के रूप मंे आरोपित आचरण ऐसी प्रकृति का है जिससे याची के चित्त में यह युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न हो कि उसका प्रत्यर्थी के साथ रहना हानिकर या क्षतिपूर्ण होगा।’’    


3.        शाभा रानी बनाम मधुकर रेडडी 1988 भाग-1 एस.सी.सी. 105 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’ कू्ररता शब्द को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 में परिभाषित नहीं किया गया है ं इसका प्रयोग अधिनियम की धारा-’13-1-1क  में वैवाहिक कर्तव्यों या दायित्वों की बावत या सबंधित मानवीय आचरण या व्यवहार के संदर्भ में किया गया है । यह ऐसा आचारण है जो अन्य व्यक्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डालता है । क्रूरता, मानसिक या शारीरिक, साशय या बिना आशय हो सकती है । यदि यह शारीरिक है तो यह तथ्य और कोटि का प्रश्न है । यदि यह मानसिक है तो जांच कू्रर बर्ताव की प्रकृति और तत्पश्चात ऐसे बर्ताव का दम्पत्ति पर प्रभाव के संबंध से आरंभ होनी चाहिए । क्या यह युक्तियुक्त आशंका पैदा करती है कि इसके कारण दूसरे पक्षकार के साथ रहना नुकसानदेह या हानिकर होगा, अंततः शिकायत करने वाले पति/पत्नी पर इसके प्रभाव और आचरण की प्रकृति पर ध्यान देते हुए मामले का निष्कर्ष निकाला जाना चाहिए । तथापि, ऐसे मामले भी हो सकते हैं जहां स्वयं शिकायत किया गया आचरण अत्यंत बुरा और स्वतः विधिविरूद्ध या अवैध है । तब दूसरे पक्षकार पर इसके प्रभाव या हानिकर प्रभाव की जांच या विचार किए जाने की आवश्यकता नहीं है । ऐसे मामलो में कू्ररता तभी सिद्ध हो जाएगी यदि आचरण स्वतः साबित या स्वीकृत है । आशय का अभाव मामले में कोई अंतर पैदा नहीं करता यदि मानवीय क्रियाकलाप के मामूली अर्थ में शिकायत किया गया कार्य, अन्यथा कू्ररता माना जाता है । क्रूरता में आशय आवश्यक घटक नहीं है । पक्षकार को अनुतोष इस आधार पर इनकार नहीं किया जा सकता है कि जानबूझकर या सोच-समझकर कोई बुरा बर्ताव नहीं किया गया है ।

4.        वी. भगत बनाम डी. भगत 1994 भाग-1 एस.सी.सी.337 में  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा निम्न मत व्यक्त किया गया है ’’धारा-13-1-1क में मानसिक कू्ररता को मौटे तौर पर ऐसे आचरण के रूप में परिभाषित किया जा सकता जिससे अन्य पक्षकार को ऐसी मानसिक पीडा और यातना पहुंचे कि उस पक्षकार के लिए अन्य पक्षकार के साथ रहना संभव न हो । दूसरे शब्दो मे मानसिक कू्ररता ऐसी प्रकृति की होनी चाहिए कि पक्षकारो से युक्तियुक्त रूप से यह प्रत्याशा न की जा सके कि वे साथ-  साथ रह सकें ।ऐसी स्थिति होनी चाहिए कि उस पक्षकार से जिसके साथ दुव्र्यवहार किया गया है । युक्तियुक्त रूप से यह न कहा जा सके कि वह दूसरे पक्षकार के ऐस आचरण को सहन कर ले और उसके साथ जीवन बिताए । यह साबित करना आवश्यक नहीं है कि मानसिक क्रूरता ऐसी हो जिससे आवेदक के स्वास्थ्य को क्षति कारित ही हो । ऐसे निष्कर्ष निकालते समय, पक्षकारांे की सामाजिक प्रास्थिति, शैक्षणिक स्तर, समाज जिसमें वे रहते हैं, पक्षकारेा की यदि वे पहले से ही अलग रह रहे हैं साथ रहने की संभावना या असंभावना और अन्य ऐसे सभी सुसंगत तथ्यों और परिस्थितियों पर भी विचार किया जाना चाहिए जिनका सम्पूर्ण रूप से उल्लेख करना न तो संभव है और न ही वांछनीय । एक मामले में जो कार्य कू्ररता है वही कार्य दूसरे मामले मे कू्ररता की कोटि में नहीं भी आ सकता । यह ऐसा विषय है जो प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए विनिश्चय किया जाना चाहिए । यदि यह अभियोगों और अभिकथनों का मामला है तब उस संदर्भ पर विचार किया जाना चाहिए जिसमें वे किए गए थे ।’’

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta