मृत्यु कालीन कथन
चिकित्सीय न्याय शास्त्र के अनुसार मृत्यु विज्ञान को थैनेटालाजी थैनेटास-मृत्यु लाजी विज्ञान कहते है । इस विषय के अंतर्गत मृत्यु का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जिसके अनुसार मृत्यु के पहले शारीरिक या आंगिक मृत्यु होती है ।
तत्पश्चात आण्विक मालीक्यूलर या कोशिकाओ सेल्यूलर की मृत्यु होती है । । इसमें शरीर के विभिन्न अंग जैसे मस्तिष्क, हृदय, फेफडे आदि का कार्य स्थाई रूप से बंद हो जाता है और उसे शारीरक मृृत्यु कहते हैं। इस शारीरिक मृत्यु के समय शरीर की कोशिकाओं की उसी समय मृत्यु नहीं हो जाती है और शारीािक मृत्यु के कुछ समय पश्चात तक कोशिकाएं जीवित रहती है और आक्सीजन के अभाव में शनैः शनैः उनकी मृत्यु शारीरिक मृत्यु के बाद होती है । मस्तिष्क की कोशिकाएं पहले मृत होती है और अन्य कोशिकाएं बाद में । जब कोशिकाएं भी मृत हो जाती है तब इसे आण्विक मृत्यु कहते हैं । शारीरिक मृत्यु के 3-4 घंटों के बाद आण्विक मृत्यु आरंभ हो जाती है । शरीरिक मृत्यु में भले की शरीर जीवित न हो किन्तु उतको में रासायनिक अनुक्रिया हो सकती ।
शरीर मृत्यु के उसी समय के चिन्ह है-अचैतन्य और विद्युत मस्तिष्क चित्राकन न होना हृदय और रक्त परिसंचरण बंद होना और श्वसन क्रिया का बंद होना। यदि पांच मिनिट तक मस्तिष्क चित्रांकन के कुछ चिन्ह न हो तो समझना चाहिये कि मृत्यु हो गई या हृदय का स्टेथोस्कोप रखकर हृदय गति पांच मिनिट तक सुनाई न दे तो इसे मृत्यु होना माना जा सकता है । ऐसी स्थिति में श्वसन ओर हृदय गति ठीक से ज्ञात न हो तो वह मृत्यु का परिचायक है ।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-32-1 में मृत्यु कालिक कथन को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार वह कथन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया है जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई तब उन मामलो में जिनमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है ।
ऐसे कथन सुसंगत है, चाहे उस व्यक्ति को जिसने उन्हें किया है, उस समय जब वे किये गये थे, मृत्यु की प्रत्याशंका थी या नहीं और चाहे उस कार्यवाही जिसमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है, प्रकृति कैसी ही क्यों न हो ।
इस विषय में विधि के तहत यह व्यवस्थापित स्थिति की है कि यह साक्ष्य में ग्राहय है । यहां तक कि सम्पुष्टि की तब तक कोई आवश्यकता नहीं होती है जब तक किसी प्रकार की दोर्बल्यता से ग्रसित नहीं है ।
मृत्यु कालीन कथन के संबध में यह सुस्थापित सिद्धांत है कि एक मात्र मृत्यु कालीन कथन के आधार पर दोष सिद्धि की जा सकती है । इस संबंध में मान्ननीय उच्चतम न्यायालय के पांच जजो की खण्डपीठ ने ताराचंद कामूसतार विरूद्व महाराष्ट् राज्य 1962 भाग-2 ए0सी0आर0 775, ए0आई0आर0 1962 सुप्रीम कोर्ट 130 मे विनिश्चय किया गया है कि मृत्यु कालीन कथन को एक बार स्वीकार कर लेने पर किसी संपुष्टि के बिना उस पर कार्यवाही की जा सकती है ।
इसी प्रकार खुशाल राव विरूद्ध राज्य ए0आई0आर 1958 एस0सी0 -22 में मृत्यु कालीन घोषणाओं के संबंध में निम्नलिखित सिद्धंात प्रतिपादित किये गये हैं:-
1- यह कि जहाॅ कानून के एक आत्यन्तिक नियम का उल्लेख किया जा सकता है कि एक मृत्यु कालीन घोषणा दोषसिद्ध के मात्र आधार को विरचित कर सकता है जब तक कि इसकी संपुष्टि नहीं कर दी जाती है
2- यह कि इस प्रकार प्रत्येक मामले को परिस्थ्तिियों की दृष्टिकोण से तथ्यों के आधार पर अवश्यमेव निर्धारित किया जाना चाहिये जिसमें मृत्यु कालीन घोषणा की गई हो ।
3- यह कि यह एक सामान्य प्रतिवादना के रूप में उल्लेखित किया जा सकता है कि मृत्यकालीन घोषणा साक्ष्य के अन्य भाग की तुलना में एक कमजोर साक्ष्य होती है।
4- यह कि मृत्यकालीन घोषणा चतुर्दिक परिस्थ्तिियाॅ तथा साक्ष्य का मूल्याकन कर शासन करने वाले सिद्धांतो के संदर्भ में निर्णित किया जाना होता है ।
5- यह कि एक मृत्य कालीन घोषणा जिसे उचित तरीके से एक सक्षम मजिस्ट्ेट द्वारा अभिलिखित किया जा चुका है प्रश्न और उत्तर के प्रारूप में कहना होता है और यथासंभव मृत्यु कालीन घोषणा करने वाले शब्दो में मृत्युकालीन घोषणा की अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव रखता है जो मोखिक साक्ष्य पर निर्भर करता है जो6- यह कि मृत्यु कालीन घोषणा को परीक्षण करने के लिये न्यायालय को प्रेक्षण के लिये मरणासन व्यक्ति के समान अवसर को दृष्टिगत रखना होता है ।
उदहारणार्थ
क्या वहां पर्याप्त प्रकाश था, जहां अपराध किया जाता था,
क्या कथित तथ्यों को याद करने के लिये व्यक्ति की सामथ्र्य को उस समय क्षीण्र नहीं किया गय था, जब वह कथन कर रहा था।
अपने नियंत्रण के परे परिस्थ्तिियों द्वारा यह कथन कि सम्पूर्तया संगत किया जा चुका था
। यदि वह इसके राजकीय अभिलेख से पृथक मृत्यकालीन घोषणा करने के लिये अनेक अवसर मिले थे और उस कथन को सबसे पहले घोषित किया गया जो कि हितबद्ध पक्षकारों द्वारा सिखाये-पढ़ाये जाने के परिणाम स्वरूप हुआ था ।
मृत्यु कालीन कथन के लिए फिट स्टेट आॅफ माईन्ड में होना आवश्यक है। 2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह, 2007 भाग-3 क्राईम्स -57 एस0सी0 स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध वाकटांग, ए0आई0आर0 1999 एस0सी0 3455 पापारा म्बिका विरूद्व आन्ध्र प्रदेश राज्य में
यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि घायल की स्थिति स्टेबिल नहीं हैे और वह मानसिक रूप से सक्षम नहीं है फिट स्टेट आॅफ माईन्ड नहीं है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है ।
करनसिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य आई0एल0आर0 2008 एम0पी0 2698 में अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि मृत स्वस्थ मानसिक स्थिति में नहीं था और प्रत्यक्षदर्शी साक्षी और चिकित्सीय साक्ष्य में विरोधाभास है तो ऐसे कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है । इसके लिए आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन जो व्यक्ति ले रहा है उसे खुद समाधान करना चाहिये कि शपथकर्ता की मानसिंक दशा ठीक है तथा वह पहुंची चोट के संबंध में कथन करने में पूर्णतः होश में है ।
विधि के सुस्थापित सिद्धांत के अनुसार मान्नीय उच्चतम न्यायालय की बडी बेंच ने अभिनिर्धारित किया है कि अर्द्ध चेतन अवस्था में भी मृत्यु कालीन कथन दर्ज किया जा सकता है, किन्तु इसके लिए फिट स्टेट आफ माइण्ड होना चाहिए ।
2011 भाग-10 सु0कोर्ट केसेस-173 सुरेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, 2006 क्रि0लाॅ जनरल 589 सुनील काशीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्, 2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार यदि यह पाया जाता है कि मृत्यु कालीन कथन देते समय मृतक के रिश्तेदार उसके पास मौजूद थे और उसे सिखाये पढ़ाये जाने के अवसर है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है ।
मृत्यु कालीन कथन प्रश्न उत्तर के रूप में लिखा जाना अनिवार्य नहीं है,परन्तु सावधानी के नियम के तौर पर यह आवश्यक है कि वह मृतक के शब्दो में लिखा जावे । यह आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन मृतक की भाषा में होना चाहिये । विधि का यह नियम है कि मृतक न्यायालय के समक्ष जो रहस्य उजागर करना चाहा है वह न्यायालय को प्रगट होना चाहिये ।
मुन्नुराजा बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1976 जे0एल0जे0 599 एस0सी0 में सम्प्रकाशित के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया है-
यह सुव्यवस्थापित है कि यद्यपि मृत्युकालिक कथन का अर्थान्वयन इस कारण से सावधानीपूर्वक करना चाहिए कि कथन के करने वाले की प्रति परीक्षा नहीं की जा सकती है न तो विधि का यह नियत है न दरदर्शिता का नियम है जो विधि के नियम में परिपक्व हो चुका है कि मृत्युकालिक कथन को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक इसकी सम्पुष्टि नहीं की जा सकती है । इस प्रकार न्यायालय को तब तक सम्पुष्टि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए जब तक वह इस निष्कर्ष तक नहीं पहंुचता कि मृत्युकालिक कथन किसी दौर्बल्यता से ग्रसित है,जिसके कारण सम्पुष्टि की अपेक्षा करना आवश्यक था
मृत्यु कालीन कथन के संबंध में यह सुस्थापित सिद्धांत है किं मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य कोमहत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए । जो निम्न लिखित है ।
ए- इस संबंध मे न्यायालय को यह सावधानी और सतर्कता बरतनी चाहिए कि मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं था ।
बी- न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी पहचान करने का अवसर था ।
सी- इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए
डी- न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है ।
इसी प्रकार केशव बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 1971 एस0सी0 953 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया था । यदि मृतक की मानसिक दशा के बारे में चिकित्सक से चिकित्सीय अभिमत मांगा गया था, तो मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य पूर्णतया विश्वसनीय है और उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है । साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 32-1 का उपबन्ध अनुश्रुत नियम की ग्राहता के विरूद्ध नियम का अपवाद है और यदि मृत्युकालिक कथन विश्वसनीय है तो उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है ।
नारायण सिंह और अन्य बनाम हरियाणा राज्य 2004 भाग-13 एस0सी0सी0 264 हस्तगत मामले में यह पाया गया है कि मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य उपलब्ध है, और वह ग्राहय है और स्वीकार की जाने योग्य है । इसलिए चक्षुदर्शी साक्षीगण द्वारा प्रस्तुत की गयी अन्य कहानी विश्वसनीय नहीं है एंव दोषसिद्धि के लिए आधार नहीं हो सकती ।
इस मामले में अभियोजन दो विरोधाभासी कहानियों के साथ आया एक मृत्युकालिक कथन के अनुसार और दूसरी चक्षुदर्शी साक्षी के अनुसार इस कारण से कि मृत्युकालिक कथन नायब तहसीलदार द्वारा अभिलिखित किया गया था जो चिकित्सक के प्रमाण पत्र पर स्वतंत्र साक्षी है इसलिए मृत्युकालिक कथन चक्षुदर्शी साक्षियों की तुलना में अधिक विश्वसनीय है और उक्त साक्ष्य के प्रकाश में अपीलार्थीगण के विद्वान काउंसेल का यह तर्क वजन रखता है कि देहाती नालिसी समय से अभिलिखित नहीं की गई थी एंव यह एक पश्चातवर्ती सोच दस्तावेज है एंव कोई सबूत नहीं है कि इसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 के तहत यथा अपेक्षित तुरंत न्यायालय को अग्रेषित किया गया था । इसलिए ऐसा प्रतीत होता हे कि चक्षुदर्शी साक्षियों के वृत्तान्त गढे गये है ।
रवि कुमार उर्फ बनाम तमिलनाडु राज्य भाग 1 के मामले में इस न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य को महत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए ।
न्यायालय को सदैव यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं था । न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी पहचान करने का अवसर था
इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए । न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है ।
यह एक आत्यांतिक विधि के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि मृत्युकालिक कथन दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता जब तक इसकी संपुष्टि नहीं हो जाती । संपुष्टि की अपेक्षा करने वाले नियम मात्र प्रज्ञा का नियम है ।
यदि मजिस्ट्रेट जिसने मृत्यु कालिक कथन अभिलिखित किया है ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त दर्द से पीडित थी और वह हस्ताक्षर करने की स्थिति में नहीं थी और इसलिए उसके अंगूठे की छाप ली गई थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त प्रश्नों का उत्तर देने में समय ले रही थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया कि क्षतिग्रस्त घोर पीडा से ग्रस्त थी । इन तथ्यों के बावजूद यह प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने क्षतिग्रस्त से यह सीधा प्रश्न न पूछकर कि क्या वह कोई कथन करने के लिए समर्थ है । गम्भीर अनियमितता कारित की प्रतीत होती है ।
राजस्थान राज्य बनाम पारथू वाले मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि दोषसिद्धि का निर्णय अकेले मृत्युकालिक कथन के आधारपर अभिलिखित किया जा सकता है यदि न्यायालय की इस बावत संतुष्टि हो जाती है कि यह सत्य और स्वेच्छिक है । मृत्यु कालिक कथन की सत्यता या स्वेच्छिकता सुनिश्चित करने के प्रयोजन के लिए न्यायालय अन्य परिस्थितियों को भी विचार में ले सकता है ।
मृत्यु कालीन कथन के संबंध में मान्नीय उच्च न्यायालय द्वारा 2011 भाग-2 मनीसा-92 एम0पी0 मिजाजी लाल विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य में अभिनिर्धारित कि यद्यपि मृतक का मृत्युकालीन कथन किसी अभिपुष्टि के बिना व्यवहत किया जा सकता है फिर भी न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिये कि वह सत्य है, एंव मृतक के व्दारा किया स्वेच्छिक कथन है ।
मुथु कुटटी और अन्य बनाम राज्य व्दारा इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस तामिलनाडू ,ए0आई0आर0 2005 सुप्रीम कोर्ट पृष्ठ-1473 में सम्प्रेक्षित किया गया कि मृत्युकालीन कथन केवल बिना जांच किये साक्ष्य का एक भाग होता है और किसी अन्य साक्ष्य जैसा होना चाहिये , न्यायालय की संतुष्टि करता है कि इसमे जो कहा गया है । पवित्र सत्य है और यह कि यह अविलम्ब लेने के लिये सुरक्षित होता है ।
चिकित्सीय न्याय शास्त्र के अनुसार मृत्यु विज्ञान को थैनेटालाजी थैनेटास-मृत्यु लाजी विज्ञान कहते है । इस विषय के अंतर्गत मृत्यु का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जिसके अनुसार मृत्यु के पहले शारीरिक या आंगिक मृत्यु होती है ।
तत्पश्चात आण्विक मालीक्यूलर या कोशिकाओ सेल्यूलर की मृत्यु होती है । । इसमें शरीर के विभिन्न अंग जैसे मस्तिष्क, हृदय, फेफडे आदि का कार्य स्थाई रूप से बंद हो जाता है और उसे शारीरक मृृत्यु कहते हैं। इस शारीरिक मृत्यु के समय शरीर की कोशिकाओं की उसी समय मृत्यु नहीं हो जाती है और शारीािक मृत्यु के कुछ समय पश्चात तक कोशिकाएं जीवित रहती है और आक्सीजन के अभाव में शनैः शनैः उनकी मृत्यु शारीरिक मृत्यु के बाद होती है । मस्तिष्क की कोशिकाएं पहले मृत होती है और अन्य कोशिकाएं बाद में । जब कोशिकाएं भी मृत हो जाती है तब इसे आण्विक मृत्यु कहते हैं । शारीरिक मृत्यु के 3-4 घंटों के बाद आण्विक मृत्यु आरंभ हो जाती है । शरीरिक मृत्यु में भले की शरीर जीवित न हो किन्तु उतको में रासायनिक अनुक्रिया हो सकती ।
शरीर मृत्यु के उसी समय के चिन्ह है-अचैतन्य और विद्युत मस्तिष्क चित्राकन न होना हृदय और रक्त परिसंचरण बंद होना और श्वसन क्रिया का बंद होना। यदि पांच मिनिट तक मस्तिष्क चित्रांकन के कुछ चिन्ह न हो तो समझना चाहिये कि मृत्यु हो गई या हृदय का स्टेथोस्कोप रखकर हृदय गति पांच मिनिट तक सुनाई न दे तो इसे मृत्यु होना माना जा सकता है । ऐसी स्थिति में श्वसन ओर हृदय गति ठीक से ज्ञात न हो तो वह मृत्यु का परिचायक है ।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-32-1 में मृत्यु कालिक कथन को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार वह कथन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया है जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई तब उन मामलो में जिनमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है ।
ऐसे कथन सुसंगत है, चाहे उस व्यक्ति को जिसने उन्हें किया है, उस समय जब वे किये गये थे, मृत्यु की प्रत्याशंका थी या नहीं और चाहे उस कार्यवाही जिसमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है, प्रकृति कैसी ही क्यों न हो ।
इस विषय में विधि के तहत यह व्यवस्थापित स्थिति की है कि यह साक्ष्य में ग्राहय है । यहां तक कि सम्पुष्टि की तब तक कोई आवश्यकता नहीं होती है जब तक किसी प्रकार की दोर्बल्यता से ग्रसित नहीं है ।
मृत्यु कालीन कथन के संबध में यह सुस्थापित सिद्धांत है कि एक मात्र मृत्यु कालीन कथन के आधार पर दोष सिद्धि की जा सकती है । इस संबंध में मान्ननीय उच्चतम न्यायालय के पांच जजो की खण्डपीठ ने ताराचंद कामूसतार विरूद्व महाराष्ट् राज्य 1962 भाग-2 ए0सी0आर0 775, ए0आई0आर0 1962 सुप्रीम कोर्ट 130 मे विनिश्चय किया गया है कि मृत्यु कालीन कथन को एक बार स्वीकार कर लेने पर किसी संपुष्टि के बिना उस पर कार्यवाही की जा सकती है ।
इसी प्रकार खुशाल राव विरूद्ध राज्य ए0आई0आर 1958 एस0सी0 -22 में मृत्यु कालीन घोषणाओं के संबंध में निम्नलिखित सिद्धंात प्रतिपादित किये गये हैं:-
1- यह कि जहाॅ कानून के एक आत्यन्तिक नियम का उल्लेख किया जा सकता है कि एक मृत्यु कालीन घोषणा दोषसिद्ध के मात्र आधार को विरचित कर सकता है जब तक कि इसकी संपुष्टि नहीं कर दी जाती है
2- यह कि इस प्रकार प्रत्येक मामले को परिस्थ्तिियों की दृष्टिकोण से तथ्यों के आधार पर अवश्यमेव निर्धारित किया जाना चाहिये जिसमें मृत्यु कालीन घोषणा की गई हो ।
3- यह कि यह एक सामान्य प्रतिवादना के रूप में उल्लेखित किया जा सकता है कि मृत्यकालीन घोषणा साक्ष्य के अन्य भाग की तुलना में एक कमजोर साक्ष्य होती है।
4- यह कि मृत्यकालीन घोषणा चतुर्दिक परिस्थ्तिियाॅ तथा साक्ष्य का मूल्याकन कर शासन करने वाले सिद्धांतो के संदर्भ में निर्णित किया जाना होता है ।
5- यह कि एक मृत्य कालीन घोषणा जिसे उचित तरीके से एक सक्षम मजिस्ट्ेट द्वारा अभिलिखित किया जा चुका है प्रश्न और उत्तर के प्रारूप में कहना होता है और यथासंभव मृत्यु कालीन घोषणा करने वाले शब्दो में मृत्युकालीन घोषणा की अपेक्षाकृत अधिक प्रभाव रखता है जो मोखिक साक्ष्य पर निर्भर करता है जो6- यह कि मृत्यु कालीन घोषणा को परीक्षण करने के लिये न्यायालय को प्रेक्षण के लिये मरणासन व्यक्ति के समान अवसर को दृष्टिगत रखना होता है ।
उदहारणार्थ
क्या वहां पर्याप्त प्रकाश था, जहां अपराध किया जाता था,
क्या कथित तथ्यों को याद करने के लिये व्यक्ति की सामथ्र्य को उस समय क्षीण्र नहीं किया गय था, जब वह कथन कर रहा था।
अपने नियंत्रण के परे परिस्थ्तिियों द्वारा यह कथन कि सम्पूर्तया संगत किया जा चुका था
। यदि वह इसके राजकीय अभिलेख से पृथक मृत्यकालीन घोषणा करने के लिये अनेक अवसर मिले थे और उस कथन को सबसे पहले घोषित किया गया जो कि हितबद्ध पक्षकारों द्वारा सिखाये-पढ़ाये जाने के परिणाम स्वरूप हुआ था ।
मृत्यु कालीन कथन के लिए फिट स्टेट आॅफ माईन्ड में होना आवश्यक है। 2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह, 2007 भाग-3 क्राईम्स -57 एस0सी0 स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध वाकटांग, ए0आई0आर0 1999 एस0सी0 3455 पापारा म्बिका विरूद्व आन्ध्र प्रदेश राज्य में
यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि घायल की स्थिति स्टेबिल नहीं हैे और वह मानसिक रूप से सक्षम नहीं है फिट स्टेट आॅफ माईन्ड नहीं है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है ।
करनसिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य आई0एल0आर0 2008 एम0पी0 2698 में अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि मृत स्वस्थ मानसिक स्थिति में नहीं था और प्रत्यक्षदर्शी साक्षी और चिकित्सीय साक्ष्य में विरोधाभास है तो ऐसे कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है । इसके लिए आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन जो व्यक्ति ले रहा है उसे खुद समाधान करना चाहिये कि शपथकर्ता की मानसिंक दशा ठीक है तथा वह पहुंची चोट के संबंध में कथन करने में पूर्णतः होश में है ।
विधि के सुस्थापित सिद्धांत के अनुसार मान्नीय उच्चतम न्यायालय की बडी बेंच ने अभिनिर्धारित किया है कि अर्द्ध चेतन अवस्था में भी मृत्यु कालीन कथन दर्ज किया जा सकता है, किन्तु इसके लिए फिट स्टेट आफ माइण्ड होना चाहिए ।
2011 भाग-10 सु0कोर्ट केसेस-173 सुरेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, 2006 क्रि0लाॅ जनरल 589 सुनील काशीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्, 2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार यदि यह पाया जाता है कि मृत्यु कालीन कथन देते समय मृतक के रिश्तेदार उसके पास मौजूद थे और उसे सिखाये पढ़ाये जाने के अवसर है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है ।
मृत्यु कालीन कथन प्रश्न उत्तर के रूप में लिखा जाना अनिवार्य नहीं है,परन्तु सावधानी के नियम के तौर पर यह आवश्यक है कि वह मृतक के शब्दो में लिखा जावे । यह आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन मृतक की भाषा में होना चाहिये । विधि का यह नियम है कि मृतक न्यायालय के समक्ष जो रहस्य उजागर करना चाहा है वह न्यायालय को प्रगट होना चाहिये ।
मुन्नुराजा बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1976 जे0एल0जे0 599 एस0सी0 में सम्प्रकाशित के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया है-
यह सुव्यवस्थापित है कि यद्यपि मृत्युकालिक कथन का अर्थान्वयन इस कारण से सावधानीपूर्वक करना चाहिए कि कथन के करने वाले की प्रति परीक्षा नहीं की जा सकती है न तो विधि का यह नियत है न दरदर्शिता का नियम है जो विधि के नियम में परिपक्व हो चुका है कि मृत्युकालिक कथन को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक इसकी सम्पुष्टि नहीं की जा सकती है । इस प्रकार न्यायालय को तब तक सम्पुष्टि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए जब तक वह इस निष्कर्ष तक नहीं पहंुचता कि मृत्युकालिक कथन किसी दौर्बल्यता से ग्रसित है,जिसके कारण सम्पुष्टि की अपेक्षा करना आवश्यक था
मृत्यु कालीन कथन के संबंध में यह सुस्थापित सिद्धांत है किं मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य कोमहत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए । जो निम्न लिखित है ।
ए- इस संबंध मे न्यायालय को यह सावधानी और सतर्कता बरतनी चाहिए कि मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं था ।
बी- न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी पहचान करने का अवसर था ।
सी- इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए
डी- न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है ।
इसी प्रकार केशव बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 1971 एस0सी0 953 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया था । यदि मृतक की मानसिक दशा के बारे में चिकित्सक से चिकित्सीय अभिमत मांगा गया था, तो मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य पूर्णतया विश्वसनीय है और उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है । साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 32-1 का उपबन्ध अनुश्रुत नियम की ग्राहता के विरूद्ध नियम का अपवाद है और यदि मृत्युकालिक कथन विश्वसनीय है तो उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है ।
नारायण सिंह और अन्य बनाम हरियाणा राज्य 2004 भाग-13 एस0सी0सी0 264 हस्तगत मामले में यह पाया गया है कि मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य उपलब्ध है, और वह ग्राहय है और स्वीकार की जाने योग्य है । इसलिए चक्षुदर्शी साक्षीगण द्वारा प्रस्तुत की गयी अन्य कहानी विश्वसनीय नहीं है एंव दोषसिद्धि के लिए आधार नहीं हो सकती ।
इस मामले में अभियोजन दो विरोधाभासी कहानियों के साथ आया एक मृत्युकालिक कथन के अनुसार और दूसरी चक्षुदर्शी साक्षी के अनुसार इस कारण से कि मृत्युकालिक कथन नायब तहसीलदार द्वारा अभिलिखित किया गया था जो चिकित्सक के प्रमाण पत्र पर स्वतंत्र साक्षी है इसलिए मृत्युकालिक कथन चक्षुदर्शी साक्षियों की तुलना में अधिक विश्वसनीय है और उक्त साक्ष्य के प्रकाश में अपीलार्थीगण के विद्वान काउंसेल का यह तर्क वजन रखता है कि देहाती नालिसी समय से अभिलिखित नहीं की गई थी एंव यह एक पश्चातवर्ती सोच दस्तावेज है एंव कोई सबूत नहीं है कि इसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 के तहत यथा अपेक्षित तुरंत न्यायालय को अग्रेषित किया गया था । इसलिए ऐसा प्रतीत होता हे कि चक्षुदर्शी साक्षियों के वृत्तान्त गढे गये है ।
रवि कुमार उर्फ बनाम तमिलनाडु राज्य भाग 1 के मामले में इस न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य को महत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए ।
न्यायालय को सदैव यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं था । न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी पहचान करने का अवसर था
इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए । न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है ।
यह एक आत्यांतिक विधि के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि मृत्युकालिक कथन दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता जब तक इसकी संपुष्टि नहीं हो जाती । संपुष्टि की अपेक्षा करने वाले नियम मात्र प्रज्ञा का नियम है ।
यदि मजिस्ट्रेट जिसने मृत्यु कालिक कथन अभिलिखित किया है ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त दर्द से पीडित थी और वह हस्ताक्षर करने की स्थिति में नहीं थी और इसलिए उसके अंगूठे की छाप ली गई थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त प्रश्नों का उत्तर देने में समय ले रही थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया कि क्षतिग्रस्त घोर पीडा से ग्रस्त थी । इन तथ्यों के बावजूद यह प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने क्षतिग्रस्त से यह सीधा प्रश्न न पूछकर कि क्या वह कोई कथन करने के लिए समर्थ है । गम्भीर अनियमितता कारित की प्रतीत होती है ।
राजस्थान राज्य बनाम पारथू वाले मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि दोषसिद्धि का निर्णय अकेले मृत्युकालिक कथन के आधारपर अभिलिखित किया जा सकता है यदि न्यायालय की इस बावत संतुष्टि हो जाती है कि यह सत्य और स्वेच्छिक है । मृत्यु कालिक कथन की सत्यता या स्वेच्छिकता सुनिश्चित करने के प्रयोजन के लिए न्यायालय अन्य परिस्थितियों को भी विचार में ले सकता है ।
मृत्यु कालीन कथन के संबंध में मान्नीय उच्च न्यायालय द्वारा 2011 भाग-2 मनीसा-92 एम0पी0 मिजाजी लाल विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य में अभिनिर्धारित कि यद्यपि मृतक का मृत्युकालीन कथन किसी अभिपुष्टि के बिना व्यवहत किया जा सकता है फिर भी न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिये कि वह सत्य है, एंव मृतक के व्दारा किया स्वेच्छिक कथन है ।
मुथु कुटटी और अन्य बनाम राज्य व्दारा इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस तामिलनाडू ,ए0आई0आर0 2005 सुप्रीम कोर्ट पृष्ठ-1473 में सम्प्रेक्षित किया गया कि मृत्युकालीन कथन केवल बिना जांच किये साक्ष्य का एक भाग होता है और किसी अन्य साक्ष्य जैसा होना चाहिये , न्यायालय की संतुष्टि करता है कि इसमे जो कहा गया है । पवित्र सत्य है और यह कि यह अविलम्ब लेने के लिये सुरक्षित होता है ।
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