धारा-157 द.प्र.सं.के अंतर्गत एफ.आई.आर. की प्रतिलिपि

धारा-157 द.प्र.सं.के अंतर्गत   एफ.आई.आर. की प्रतिलिपि

  मान्नीय उच्चतम न्यायायल द्वारा सवरन ंिसह विरूद्ध पंजाब राज्य ए.आई. आर. 1976 सुप्रीम कोर्ट 2304 

पाला ंिसह बनाम स्टेट आफ पंजार्ब ए.आइ. आर. 1972 सुप्रीम कोर्ट 2679,

 रामबिहारी विरूद्ध स्टेट आफ बिहार ए.आइ.आर. 1998 सुप्रीम कोर्ट 1850,

 में अभिनिर्धारित किया है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्रेषित करने में विलम्ब मात्र ऐसी परिस्थिति नहीं मानी जा सकती जिसके आधार पर सम्पूर्ण अभियोजन मामले का परित्याग किया जाये। 

        ऐसी स्थिति मे आरोपीगण को धारा-157 द.प्र.सं.के अंतर्गत संबधित न्यायिक दण्डाधिकारी को एफ.आई.आर. की प्रतिलिपि प्राप्त न होने पर धारा-157 दं.प्र.सं. के अंतर्गत कोई प्रतिकूल प्रभाव इस मामले में न पडने के कारण अभियोजन मामले पर अविश्वास नहीं किया जा सकता है ।

  न्यायदृष्टांत 2001 भाग-2 म.प्र.वि.नो. क्र. 64 में प्रतिपादित दिशानिर्देशों से कोई लाभ प्राप्त नही होता है ।                   









      

धारा-157 द.प्र.सं.

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

 इस संबंध मे मान्नीय उच्चतम न्यायायल द्वारा सवरन ंिसह विरूद्ध पंजाब राज्य ए.आई. आर. 1976 सुप्रीम कोर्ट 2304 पाला ंिसह बनाम स्टेट आफ पंजार्ब ए.आइ. आर. 1972 सुप्रीम कोर्ट 2679, रामबिहारी विरूद्ध स्टेट आफ बिहार ए.आइ.आर. 1998 सुप्रीम कोर्ट 1850, में अभिनिर्धारित किया है कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्रेषित करने में विलम्ब मात्र ऐसी परिस्थिति नहीं मानी जा सकती जिसके आधार पर सम्पूर्ण अभियोजन मामले का परित्याग किया जाये।]


        ऐसी स्थिति मे आरोपीगण को धारा-157 द.प्र.सं.के अंतर्गत संबधित न्यायिक दण्डाधिकारी को एफ.आई.आर. की प्रतिलिपि प्राप्त न होने पर धारा-157 दं.प्र.सं. के अंतर्गत कोई प्रतिकूल प्रभाव इस मामले में न पडने के कारण अभियोजन मामले पर अविश्वास नहीं किया जा सकता है । अतः आरोपीगण को प्रस्तुत न्यायदृष्टांत 2001 भाग-2 म.प्र.वि.नो. क्र. 64 में प्रतिपादित दिशानिर्देशों से कोई लाभ प्राप्त नही होता है ।                         आपराधिक षडयंत्र

        ’’आपराधिक षडयंत्र’’  का अपराध भारतीय दण्ड संहिता की धाा-120क में परिभाषित है, जबकि संहिता की धारा-120ख उक्त अपराध के लिए दण्ड उपबन्धित करती है । आपराधिक षडयंत्र के अपराध की आधारशिला दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य किसी अवैध कृत्य या कोई कृत्य, जो स्वयं अवैध नहीं है, अवैध  साधनों के माध्यम से पूर्ण/करने के लिए सहयोग हेतु अनुबंध होता है । ऐसा अनुबंध या मस्तिष्कां का मिलन एंव सबूत का संबंध या कारित करने हेतु मुख्य अपराध अन्यथ, जो षडयंत्र हो सकेगा, आपराधिक षडयंत्र का अपराध कारित किया स्थित होता है।
        आपराधिक षडयंत्र के अपराध का प्रत्यक्ष सबूत से अधिक नहीं उपलब्ध होगा और ऐसे अपराध का सबूत दिये प्रकरण की स्थापित परिस्थितियों से अनुमान की प्रक्रिया द्वारा विनिश्चित किया जाना चाहिए । उक्त अपराध के आवश्यक संषटक, इसके कारित करने के सबूत की अनुज्ञेय रीति एंव इस संबंध में न्यायालयों की पहंुच निःशेषित रूप से इस न्यायालय द्वारा कई उद्घोषणाओ में विचारण की गई है, जो दृष्टांत रूप से ई.के चन्द्रसेनन बनाम केरल राज्य, 1995 भाग-2 एस.सी.सी. 99, केहर सिंह और अन्य बनाम राज्य दिल्ली प्रशासन, 1988  भाग-3 एस.सी.सी. 60, अजय अग्रवाल बनाम भारत का संघ, 1993 भाग-3 एस.सी.सी. 609 और यश पाल मित्तल बनाम पंजाब राज्य, 1977 भाग-4 एस.सी.सी. 540 में संन्दर्भित किये जा सके ।
        विवि की प्रतिपादनाएं जो उपर्युक्त प्रकरणांे से निकली है, किसी रूप से आधारात्मक रूप से भिन्न नहीं है, जो हमारे द्वारा एतस्मिन उपर कहा गया । आपराधिक षडयंत्र का अपराध अपराध के कारित करने का या विधिपूर्ण उददेश्य अविधिपूर्ण साधनों सेप्राप्त करने का  अनुबंध होता है । ऐसा षडयंत्र कभी-कभार खुला होगा एंव इसलिए प्रत्यक्ष साक्ष्य इसे स्थापित करने हमेशा उपलब्धनहीं होगा । ऐसे षडयंत्र का सबूत या अन्यथा अनुमान का मामला है एंव न्यायालय को ऐसा अनुमान लगाने में यह विचारण करना चाहिए कि क्या मूल तथ्य अर्थात परिस्थितियां जिनसे अनुमान लगाना चाहिए, समस्त युक्तियुक्त शंका से परे साबित है एंव इसके पश्चात क्या ऐसी साबित एंव स्थापित परिस्थितियों से कोई अन्य निष्कर्ष सिवाये इसके कि अभियुक्त अपराध कारित करने के लिए सहमत था, निकाला जा सकता है। प्राकृतिक रूप से अभियुक्त के प्रतिकूल किसी अनुमान लगाने के प्रयोजनो हेतु साबित परिस्थियां मूल्यांकित करते हुए, किसी शंका का लाभ जो आ सकेगा, अभियुक्त् को जाना चाहिए ।
        के.भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन 1997-7 एस.सी.सी.510    में संहिता की धारा-357-3को विचारणकरते हुए, इस न्यायालय ने अभिव्यक्त किया कि यदि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्ेट जुर्माने में से प्रतिकर परिवादी को परिवादी को हानि उठाने वाला महसूस करके संदत्त करना आदेशित करते थे, जब राशिउक्त सीमा से अधिक थी । ऐसे प्रकरण में परिवादी केवल अधिकतम रूपये पंाच हजार की राशि प्राप्त    करेगा, क्योकि न्यायिक मजिस्टे्रट प्रथम श्रेणी संहिता की धारा- 29-2 के अनुसार तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए कारावास का दण्डादेश या 5,000 रूपये से अधिक जुर्माना या दोनों उक्त राशि अब 10,000 तक बढौतरी की गई है, पारित कर सकता है । इस न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे प्रकरणों में मजिस्ट्रेट संहिता की धारा-357-3 से आश्रय लेने के द्वारा परिवादी की व्यथा कम कर सकता है।
        अभियुक्त को परिवादी को प्रतिकर संदाय करने के लिए निदेशित करते हुए आयडिया उसको तुरंत अनुतोष उसकी व्यथा कम करने के लिए देना है । धारा- 357-3 के निबंधनों में, प्रतिकर अभियुक्त के कृत्य के कारण उस व्यक्ति द्वारा वहन की गई नुकसानी या क्षति के लिए अधिनिर्र्णीत किया जाता है, जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया है । यदि मात्र प्रतिकर निदेशित करते हुए आदेश पारित किया जाता है, यह पूर्णतः अप्रभावकारी होगा । यह बिना भय दिखाकर या इसके अनुपालन के प्रकरण में तुरंत प्रतिकूल परिणामों की आशंका का आदेश होगा ।
            संहिता की धारा-357-3 के तहत परिवादी को अनुतोष देने का सम्पूर्ण प्रयोजन हतोत्साहित होगा, यदि वह संहिता की धारा-421 का आश्रय लेते हुए जाता है । धारा-357-3 के तहत आदेश इसका अनुपालन संरक्षित करने का सामथ्र्य से होना चाहिए । यह बिना भय दिखाकर केवल व्यतिक्रम दण्डादेश के लिए उपबंधित करने के द्वारा आदेश में प्रेरित हो सकता है । यदि संहिता की धारा-421 न्यायालय द्वारा संदत्त किया जाना आदेशित प्रतिकर जुर्माने के साथ रखती है, जहां तक वसूली की रीति का संबंध है, तब कोई कारण नहीं है कि क्यों न्यायालय प्रतिकर के भुगतान के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता, यथा यह भा.द.सं. की धारा-64 के तहत जुर्माने के संदाय के व्यतिक्रम में किया जा सकता है । यह स्पष्ट होता हैकि इसके आलोक में, विजयन में, इस न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त वर्णित उपबंध न्यायालय को प्रतिकर के संदाय के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए समर्थ करते हैं और निवेदन निरस्त किया कि आश्रय केवल प्रतिकर के आदेश को प्रवृत्त करने के लिए संहिता की धारा-421 का हो सकता था। सम्बद्ध रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि इस न्यायालय द्वारा हरिसिंह में किये सम्प्रेक्षण आज उतने महत्वपूर्ण हैं, यथा वे तब थे, जब वे किये गये थे । निष्कर्ष, इसलिए है कि प्रतिकर संदाय करने का आदेश व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिनिर्णीत करने के द्वारा प्रवृत्त किया जा सकेगा ।


     

                           इस संबंध में मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा बंटी बनाम मध्यप्रदेश राज्य ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 261 2004 एस.सी.सी. 41 वाले मामले में  अभिनिर्धारित किया था जहां तक साक्षियों की विलम्ब से की गई परीक्षा का संबंध है । इस न्यायालय ने अनेक विनिश्चियों में यह अभिनिर्धारित किया है कि जब तक कि अन्वेषक अधिकारी से स्पष्ट रूप से यह न पूछ लिया जाए कि साक्षियों की परीक्षा करने में विलम्ब क्यों हुआ है, प्रतिरक्षा पक्ष इस बात से कोई फायदा नहीं उठा सकता । इसे हर जगह लागू होने वाले नियम के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि यदि किसी विशिष्ट साक्षी की परीक्षा में कोई विलम्ब हुआ है तब अभियोजन पक्ष कथन संदेहास्पद बन जाएगा क्यों कि यह बात बहुत से संघटको पर निर्भर करती है । यदि परीक्षा में हुए विलम्ब की बावत् दिया गया स्पष्टीकरण तर्क संगत और स्वीकार्य है और न्यायालय भी इसे तर्क सम्मत स्वीकार करता है तब निष्कर्ष में हस्तक्षेप करने का कोई कारण नहीं है ।         ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना आरोपी पर धारा- 363,366,376, भा.द.वि. के अपराध के प्रमाणन के लिए प्रार्थीया की आयु महत्वपूर्ण स्थान रखती है । यदि प्रार्थीया की उम्र 18 वर्ष से कम है तो ऐसे अपराधो मे उसकी सम्मति कोई महत्व नहीं रखती है और यह साबित हो जाता है कि  प्रार्थीया 18 वर्ष से कम उम्र की है तो उसके विधिपूर्ण संरक्षण होने की दशा में सरंक्षण की सम्मति के बिना ले जाने या फुसलाकर ले जाने पर धारा-363 का अपराध प्रमाणित माना जाता है ।
        विधिपूर्ण संरक्षण के अंतर्गत ऐसे व्यक्ति आते है जिस पर ऐसे अवयस्क या व्यक्ति की देखरेख या अभिरक्षा का भार न्यस्त किया जाता है । धारा-361 भा.द.सं. में विधिपूर्ण संरक्षकता में से व्यपहरण परिभाषित किया गया है और धारा-363 भा.द.वि. में इसे दण्डित किया गया है ।
        जहां तक आयु प्रमाणन की बात है । इस संबंध में सुस्थापित सिद्धंात है कि उसे माता पिता के कथन स्कूल का प्रवेश रजिस्टर तथा नगर पालिका का जन्म रजिस्टर के द्वारा उसे प्रमाणित किया जाता है । इस प्रकार की साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से अधिक विश्वसनीय होती है क्यों कि चिकित्सीय साक्ष्य जलवायु के परिवर्तन, खानपान, वंश, परम्परा तथा अन्य बातो पर निर्भर करती है।
        इसलिए आयु निर्धारण का कोई मानक निर्धारित नहीं किया जा सकता। परन्तु ऐसी परिस्थितियों में आयु का निश्चयात्मक साक्ष्य उसका आयु प्रमाण पत्र होता है। प्रस्तुत प्रकरण में पेश मार्कशीट को प्रमाणित नहीं किया गया है । इसलिए आयु के सबंध में मौखिक साक्ष्य और अस्थि परीक्षण रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित है ।
        चिकित्सीय न्यायशास्त्र में अस्थि विकास परीक्षण का आयु निर्धारण के लिए एक्स-रे परीक्षण किया जाता है और आयु निर्धारण में अस्थि विकास परीक्षण को सर्वाधिक मान्यता प्रदान की गई है । प्रस्ुतत प्रकरण में अभियोजन के द्वारा डाक्टरी सुझाव के बाद अस्थि विकास परीक्षण रिपोर्ट प्रस्तुत की गई है । जिसके अनुसार प्रार्थीया वंदना की उम्र 18 वर्ष से अधिक बताई गई है ।
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        विधिपूर्ण संरक्षकता में से ऐसे सरक्षण की सम्मति के बिना ले जाना  या बहलाकर ले जाने के कारण को दंडनीय माना गया है औरले जाना शब्द या बहलाकर ले जाने का कार्य किसी लालच प्रलोभन या बल के द्वारा किया जा सकता है किन्तु ले जाने के लिए किसी बल की अपेक्षा नहीं की गई है ।
शिवनाथ गयार विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन 1998(1) करंट क्रिमिनल जजमेंट एम.पी. 196,
प्रदीप मंगल विरूद्ध मध्य प्रदेश शासन 1996 करंट क्रिमिनल रिपोर्टर एम.पी. 158
मध्य प्रदेश राज्य विरूद्ध नरेन्द्र कुमार 2000(1)करंट क्रिमिनल जजमेंट 263 एम.पी.
        ले जाना और बहलाकर ले जाना तथा चले जाना को यदि हम देखे तो जब तक कि आरोपी की ओर से कोई ऐसा सक्रिय कार्य ना किया जाए जिससे कोई लडकी उसके साथ जाने का विचार बनाए या आरोपी उसे ना बहकाये तो ऐसी दशा में आरोपी को लडकी ले जाने की परिकल्पना की जा सकती है
            आरोपी की तरफ से वास्तव में ऐसा लालच दिया जाए जिससे उसका मस्तिष्क परिवर्तित हो जाए तो उसे बहकाकर ले जाना कहते है ।
     किन्तु यदि लडकी की इच्छाओ के विरूद्ध आरोपी कोई कार्य करता है तो वह चले जाना कहलाएगा और उसे दोषी ठहराया नही जा सकता ।
        इस प्रकार ले जाने मे अल्प वयस्क की इच्छा कोई महत्व नहीं रखती है ।
    जब कि बहकाकर ले जाने या फुसलाने में अवयस्क की इच्छा अपना प्रभाव रखती है और आरोपी के कार्य के साथ ही साथ भागने वाली की इच्छा का भी उसमें समावेश होता है । जो लालच, धमकी, भय, छल-कपट आदि से प्राप्त किया जाता है ।
         जब कि ले जाने में अवयस्क की सहमति बिलकुल नहीं होती ।
.         इस प्रकार ले जाने के शब्द के अंतर्गत व्यक्ति की इच्छा की कमी और इच्छा की अनुपस्थित में शामिल रहते हैं और बहकाकर ले जाने में आरोपी की मानसिक अवस्था को आरोपी द्वारा प्रेरणा, प्रलोभन, लोभ-लालच उत्पे्रेरित किया जाता है । जिससे उसके साथ जाने की अवयस्क के मन मे आशा और इच्छा जाग्रत होती है ।
        धारा-361 भा.द.वि. का उद्देश्य अवयस्क को सुरक्षा और संरक्षण प्रदान करने की धारा-361 में दण्डित किये जाने के पूर्व बालिका की समक्ष उसकी बौद्धिक क्षमता तथा मामले की परिस्थिति पर विचार किया जाना चाहिए।
    यदि आरोपी के अनुनेय विनय पर बालिका आरोपी के साथ जाने के लिए स्वयं तैयार हो जाती है तो तब भी व्यपहरण का अपराध होता है । इसमें लडकी का चाल चलन और चरित्र हीनता का बचाव नहीं किया जा सकता है
    और यदि आरोपी सक्रिय भूमिका अदा करता है तो व्यपहरण का अपराध होता है ।      
      
     
        ऐसा कोई आदेश जो कि व्यक्ति के अधिकार को सारवान तौर पर प्रभावित करता है अथवा या सारवान तौर पर प्रतिकूलता कारित करता है तो इसे अंतर्वर्ती आदेश होना नहीं कहा जा सकता है । अंतरिम भरण पोषण का आदेश जो कि पक्षकारों के अधिकारों को सारवान तौर पर प्रभावित करता है उसे अंतर्वर्ती होना नहीं माना गया ।
    धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
  
2012 भाग-3 एल.एस.सी.टी. सुप्रीम कोर्ट 57  में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2003) 1 एस.सी.सी. 240 में निर्धारित किया है कि ‘‘ यह आवश्यक न्याय का नियम है कि जब कभी विरोधी ने उसके प्रकरण में प्रति-परीक्षण में उसको स्वयं को उपस्थित रखने से इन्कार किया , यह अनुसरण करता है कि उस विषय पर रखा साक्ष्य स्वीकार किया जाना चाहिए । ’’
        हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य , (2008) 15 एस.सी.सी. 652 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है कि धारा-311  का उद्देश्य किसी पक्षकार की अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लेने या साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए बात के लाने की गलती के कारण न्याय की असफलता रोकना है। इस न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया ।
        ‘‘ यह समर्थ करते हुए एक पूरक उपबंध है एवं कतिपय परिस्थितियाॅं न्यायालय पर अधिरोपित करते हुए , तात्विक साक्षी की जाॅच करने का कर्तव्य , जो इसके पूर्व अन्यथा नहीं लाया जाएगा । यह वृहद संभव निबन्धनों में रखा गया है एवं किसी परिसीमा हेतु नहीं कहता , या तो प्रक्रम के संबंध में , जो न्यायालय की शक्तियाॅ अनुप्रयोग किया जाना चाहिए या रीति के संबंध में , जिसमें यह अनुप्रयोग किया जाना चाहिए । यह केवल परमाधिकार नहीं है , बल्कि न्यायालय की ऐसे साक्षियों की जाॅच करने का सादा कर्तव्य है यथा राज्य एवं विषय के मध्य न्याय करने के लिए स्पष्टतः आवश्यक विचारण किया जाता है । न्यायालय पर समस्त विधिपूर्ण अर्थों से सत्य पर पहॅुचने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है एवं ऐसे अर्थों में से एक इसके स्वयं के साक्षियों की जाॅच है , जब कतिपय स्पष्ट कारण हेतु कोई पक्षकार साक्षियों को बुलाने के लिए तैयार नहीं करता , जो महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य बोलने की स्थिति में होते हैं ।
        ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।
        धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है ।
        धारा-311 में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि ‘‘ इस संहिता के तहत् जाॅच या परीक्षण या किसी कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ’’ है। यह परन्तु मस्तिष्क में उठता है कि जबकि धारा न्यायालय साक्षियों को समनित करने के लिए अत्यंत वृहद शक्ति प्रदत्त  करती है , प्रदत्त विवेकाधिकार न्यायिक रूप से अनुप्रयोग होना चाहिए , क्योंकि शक्ति की वृहदता न्यायिक मस्तिष्क की प्रयोज्यता की आवश्यकता से वृहद है । ’’
        हाॅफमेन एन्ड्र्ेस बनाम इंस्पेक्टर आॅफ कस्टम्स , अमृतसर , (2000)10 एस.सी.सी. 430 में अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘ ऐसी परिस्थितियों में , यदि नये काउंसेल तात्विक साक्षियों को आगे जाॅच करना सोचते हैं , न्यायालय नरम एवं उदार रूप न्याय के हित में अपना सकता था , विशिष्ट रूप से जब न्यायालय को यथा संहिता की धारा-311 में निहित मामले में शक्तियाॅ हैं । अखिरकार परीक्षण मूल रूप से कैदियों के लिए है और न्यायालयों को उनको निष्पक्ष संभव रीति में अवसर प्रदान करना चाहिए । ’’
        मोहन लाल शामजी सोनी बनाम भारत का संघ एवं अन्य , 1991 सप्ली. (1) 271 में  उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्प्रेक्षित कियाः-
        ‘‘ विधि का सिद्धांत , जो इस न्यायालय द्वारा उपर्युक्त विनिश्चयों में अभिव्यक्त अभिमतों से निकलता है , है कि दाण्डिक न्यायालय के पास किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समनित करने या पुनः बुलाने एवं किसी ऐसे व्यक्ति को जाॅच करने की प्रचुर शक्ति है , यहाॅ तक कि दोनों तरफ केक साक्ष्य समाप्त हो गये हैं एवं न्यायालय की अधिकारिता से निकाली जानी चाहिए एवं निष्पक्ष एवं अच्छा अर्थ केवल सुरक्षित मार्गदर्शनों में प्रतीत होता है एवं यह कि न्याय की अपेक्षाएॅ किसी व्यक्ति की जाॅच करती है , जो प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा । ’’
        सत्य की खोज करना किसी भी परीक्षण या जाॅच का आवश्यक प्रयोजन है ,माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशगण की न्यायपीठ ने मारिया मार्गरीडा स्केरिया फर्नांडिस बनाम एरास्मो जेक डे स्केरिया द्वारा विधिक प्रतिनिधिगण , 2012  (3) स्केल 550 में सम्प्रेषित किया । उस पवित्र कर्तव्य का समय-समय पर स्मरण निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:-
        ‘‘ जो लोग अपेक्षित करते हैं कि न्यायालय को यह पता करने की इसकी बाध्यता से निर्मुक्ति चाहिए ,जहाॅ वस्तुतः सत्य ठहरता है । न्यायिक प्रणाली के प्रारम्भ में यह अपेक्षित किया गया है कि खोज , दोष-प्रक्षालन एवं सत्य की स्थापना न्याय के न्यायालयों के रेखांकित अस्तित्व के मुख्य प्रयोजन हैं । ’’
        हमें इस तथ्य का भान हैं कि साक्षियों का पुनः आहुत करना , उनके  घटना के बारे में मुख्य-परीक्षण में जाॅचे  जाने के लगभग चार वर्ष पश्चात् निदेशत करते हुए , जो लगभग सात वर्ष पुरानी है । विलम्ब मानवीय स्मृति पर प्रबल भार रखता है , युक्तियुक्त रूप से समयावधि के भीतर प्रकरणों को विनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रणाली की शुद्धता के बारे में शिष्टता से अलग होती है । इस सीमा तक श्री रावल द्वारा अभिव्यक्त आशंका कि अभियोजन विलम्बित पुनः बुलाने के कारण प्रभाव वहन कर सकेगा । यह कहते हुए कि , हम इस अभिमत के हैं कि कारणों की समानता पर एवं साक्षियों को प्रति-परीक्षण हेतु अवसर के इन्कार के परिणामों को देखते हुए , हम अपीलार्थी के पक्ष में उसके पक्ष में सम्भावित प्रभाव के विरूद्ध अभियोजन संरक्षित करने के मुकाबले अवसर देते हुए निर्दिष्ट करेंगे । परीक्षण की निष्पक्षता इस आधार पर है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अलंघनीय है एवं कोई मूल्य उस आधार को संरक्षित करने हेतु अत्यंत प्रबल नहीं है । अभियोजन को सम्भावित प्रभाव यहाॅ तक कि इस मूल्य पर भी नहीं है , एक मात्र अनुमति , जो अभियुक्त को उसको स्वयं की प्रतिरक्षा हेतु निष्पक्ष अवसर का इंकार न्यायसंगत करेगी ।
      

      
        इस संबंध में सुस्थापित सिद्धांत है कि द.प्र.सं. की धारा-313 के अधीन की गई परीक्षा मात्र औपचारिकता नहीं है इसका प्रयोजन अभियुक्त के अभियोगो को सिद्ध करने के लिए अभियोजन पक्ष द्वारा अभिलेख पर प्रस्तुत तथ्य समग्री को उसकी जानकारी देना होता है। अभियुक्त को उसके विरूद्ध अपराध में फंसाने वाली जो परिस्थितियां है उन्हें स्पष्ट करने का अवसर प्रदान किया जाता है और अभियोजन पक्ष द्वारा अभिलेख पर प्रस्तुत किये गये साक्ष्य की पृृष्ठभूमि में उसमें अपनी बात कही जाती है ।         विधि का सुस्थापित सिद्वांत है कि काउन्टर प्रकरण का एक साथ निराकरण किया जाना चाहिये । अपीलार्थीगण को चोट पहुंची है जिसका अभियोजन के द्वारा कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है जबकि बचाव में अपीलार्थीगण के द्वारा घटना दिनांक को  उनको चोट पहुंचना प्रमाणित किया है और प्रार्थीगण के द्वारा अपराध स्वीकार किया गया है और उन्हें ग्राम न्यायालय द्वारा 50-50 रूपये के अर्थदंड से दंडित किया गया है ।
        प्रकरण में अपीलार्थी साहब सिंह के द्वारा दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट डी0/3 से यह प्रमाणित होता है कि जब वह अपने घर आ रहा था तब प्रार्थी बाबूलाल और शंकर लाल ने उसे गालियां दी हे । जान से मारने की धमकी दी है। जिसके फलस्वरूप घटना घटित हुई है ।
        ऐसी स्थिति में यह स्पष्ट होता है कि प्रार्थीगण के द्वारा अपीलार्थीगण को गालियां दी गई है । भारत में शब्द और अंग विक्षेप भी उक्त परिस्थितियों में गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित कर सकते हैं । अपीलार्थीगण के द्वारा बिना पूर्व चिन्तन के आत्म नियंत्रण खोकर उत्तेजित होकर मारपीट की गई है । जिसके फलस्वरूप घटना घटित हुई है । अपीलार्थीगण के द्वारा भी झगडा टालने का प्रयास नहीं किया गया है और मारपीट की गई है । इसलिये उन्हें प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदान नहीं किया जा सकता और उनके द्वारा आत्म नियंत्रण खोकर प्रतिरक्षा अधिकार का  अतिक्रमण कर गम्भीर और अचानक प्रकोपन के बाद कार्य करते हुए प्रार्थी शंकरलाल को राजाचैहान और रणवीर सिंह के द्वारा गंभीर चोट और सामान्य आशय की पूर्ति में साहब सिंह उनका साथ दिया है । तथाा बाबूलाल को साधरण चोट साहब सिंह के द्वारा पहंुचाई गई है । और राजाचैहान और रणवीर सिंह के द्वारा  सामान्य आश्या की पूर्ति में उनका साथ दिया गया है ।
        ऐसी स्थिति में विचारण न्यायालय के द्वारा काउन्टर प्रकरण को ध्यान में न रखते हुये अपीलार्थीगण को दडित किये जाने में विधि एंव तथ्यों की गंभीर भूल की गई । अतः विचारण न्यायालय के द्वारा की गई दोषसिद्वि दण्डाज्ञा अपास्त की जाती है ।
         अपीलार्थीगण के द्वारा प्रार्थीगण के साथ अचानक और गम्भीर प्रकोपन के बाद मारपीट की गई है ।ऐसी स्थिति में अपीलार्थी साहबसिह को धारा 324 की जगह धारा 334 भ0दं0वि0 के अपराध के आरोप में तथा धारा 325/34 भा0दं0वि0 के आरोप के स्थान पर ध्ंाारा 335/34 भा0दं0वि0 के आरोप मेे तथा अपीलार्थीगण रणबीर एंव राजा चैहान को धारा 324/34 की जगह धारा- 334/34 और धारा 325 भा0दं0वि0 के स्थान पर धारा 335 भा0दं0वि0 के अपराध आरोप में दोषसिद्व ठहराया जाता है । अतःविचारण न्यायालय द्वारा की गई दोषसिद्वि एंव दंडाज्ञा को अपास्त किया जाता है ।
        अपीलार्थीगण प्रथम अपराधी है । कोई पूर्व दोषसिद्धि प्रमाणित नहीं है । किन्तु उनके द्वारा आत्मसंयम खोकर तलवार और लाठी से मारपीट की गई है । इसलिए उन्हें परिवीक्षा अधिनियम का लाभ देना उचित नहीं है । किन्तु पारिवारिक स्थिति को देखते हुए धारा 334 भ0दं0वि0 के अपराध के आरोप में पांच सौ रूपये के अर्थ दण्ड तथा ध्ंाारा 335/34 भा0दं0वि0 के आरोप मेे दो हजार रूपये के अर्थ दण्ड, अपीलार्थीगण रणबीर एंव राजा चैहान को  धारा- 334/34 पांच सौ रूपये के अर्थ और धारा 335 भा0दं0वि0 के अपराध आरोप में दो हजार रूपये के अर्थ दण्ड से दण्डित किया जाता है । अर्थदंड अदा न करने पर एक-एक माह का कठोर कारावास भुगताया जावे ।

        धारा-300 के अपवाद 1 के पठन मात्र से यह स्पष्ट है कि अपवाद का फायदा अभिप्राप्त करने के लिए यह साबित किया जाना चाहिए कि-
    1-    मृतक अभियुक्त को कार्यों या शब्दो द्वारा क्षति पहंुचाई और इस प्रकार प्रकोपन कारित किया ।
    2-    प्रकोपन को गम्भीर और अचानक दोनो होना चाहिए।
    3-    प्रकोपन ऐसा होना चाहिए जिससे कि युक्तियुक्त मनुष्य आत्म नियत्रण की शक्ति खो दे और यह कि इससे अभियुक्त ने वास्तव में अचानक और अस्थायी रूप से आत्म नियंत्रण खो दिया।
        जांच करने के संबंध में भारतीय विधि

    1-    गम्भीर और अचानक प्रकोपन की कसौटी यह है कि क्या समाज के उसी वर्ग को होने वाला जिसका अभियुक्त है, कोई युक्तियुक्त मनुष्य उसी स्थिति में रख दिये जाने पर, जिसमें कि अभियुक्त था, उतना प्रकोपित हो जाएगा कि वह अपना आत्म विश्वास खो देगा ।
    2-    भारत मे ंशब्द और अंग विक्षेप भी कतिपय परिस्थितियों मे किसी अभ्यिुक्त को गम्भीर ओर अचानक प्रकोपन कारित कर सकते है जिससे कि उसका कृत्य भारतीय दण्ड संहिता की धारा 300 के प्रथम अपवाद के भीतर आ जाए।
    3-    घटना ग्रस्त व्यक्ति के पूर्व कृत्यों द्वारा सृष्ट मानसिक पृष्ठभूमि को अभिनिश्चित करने के लिए विचार में लिया जा सकता है कि क्या पश्चात्वर्ती कृत्य ने उस अपराध को करने के लिए गम्भीर और अचानक प्रकोपन कारित किया था।
    4-    घातक वार को उस प्रकोपन से उद्भूत रोष के प्रभाव से स्पष्टतः सम्बद्ध होना चाहिए न कि उस समय होना चाहिए, जब कि समय बीत जाने से रोष शान्त हो गया है या अन्या पूर्वाचिन्तन और विचारके लिए अवसर या गुंजाइश दिया । चांद सिंह बनाम राजस्थान राज्य निर्णय पत्रिका 1971 राजस्थान 261 ।




धारा-24 हिन्दूु विवाह अधिनियम


                              धारा-24 हिन्दूु विवाह अधिनियम 


    बानी पति प्रकाश सिंह बनाम प्रकाश सिंह  में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया है । निःसंदेह पत्नी इस राशि की वसूली के लिए आदेश 21 नियम 37 सी0पी0सी0 के तहत याचिका दाखिल कर सकती है और पति को पूर्वोक्त न्यायालयीन आदेश की अवज्ञा के लिए न्यायालय के अवमान के तहत दोषी ठहराया जा सकता है परन्तु अधिनियम की धारा 24 वैवाहिक न्यायला को वाद लंबित रहने के दौरान भरण पोषण के लिएऔर ऐसे पति या पत्नी जिसको आवश्यकता है और जो अकिंचन है को कार्यवाहियों के व्यय के लिए आदेश करने के लिए सशक्त करती है ।

 यदि यह राशि आवेदक को उपलब्ध नहीं करायी जाती है तो इस उपबंध के उददेश्य एंव प्रयोजन पराजित होना स्थित है । पत्नी इस राशि की वसूली के लिए समय लगने वाली निष्पादन कार्यवाहियों को करने के लिए लगने वाली निष्पादन कार्यवाहियों को कहने के लिए विवश नहीं की जा सकती । प्रत्यर्थी पति का आचरणअवमानना समझा जाता है ।

 विधि इतनी शक्तिविहिन नहीं है कि पति को अभियोजित नहीं किया जा सके यदि पति भरण पोषण और मुकदमें के व्यय का पत्नी को संदाय करने के लिए विफल हो चुका है तो उसकी प्रतिरक्षा समाप्त की जा सकती है ं निःसंदेह इस अपील में वह प्रत्यर्थी है । उसकी प्रतिरक्षा अधिनियम की धारा 13 के तहत दाखिल उसकी याचिका में अंतर्वलित है ।


     इस न्यायालय के विभिन्न निर्णयों

 श्रीमती स्वर्णो देवी बनाम प्यारा राम, 1975 हिन्दू एल.आर0 15 

गुरूदेव कौर बनाम दलीप सिंह 1980 हिन्दू एल0आर0 240,

 श्रीमती सुरिन्दर कोर बनाम बलदेव सिंह , 1980 हिन्द एल0आर0 541,

 शीला देवी बनाम मदनलाल, 1981 हिन्दू एल0आ0 126 

और सुमारती देवी बनाम जयप्रकाश 1985 भाग-1 हिन्दू एल0आर0 84

 में यह ठहराया गया है कि जब पति पत्नी को भरण पोषण एंव मुकदमा व्यय संदाय करने में विफल हो जाता है तब उसकी प्रतिरक्षा समाप्त कर दी जानी चाहिए ।


    बानी पति प्रकाश सिंह बनाम प्रकाश सिंह  में उच्च न्यायला ने न केवल पति की अधिनियम की धारा-13 के तहत याचिका में प्रतिरक्षा समाप्त करना आदेशित किया है बल्कि विवाह विच्छेद के लिए डिक्री अपास्त करते हुए अपील भी मंजूर की है ।

 वनमाला बनाम मारूति शम्भाजी हटकर में और बाम्बे उच्च न्यायालय ने भी यह अभिमत लिया है कि अधिनिमय की धार-24 के तहत पारित आदेश का अनुपालन नहीं करने पर व्यतिक्रमी पक्षकार की प्रतिरक्षा समाप्त की जा सकती है ।


                 

विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने के पश्चात से अंतिम आज्ञप्ति पारित होने तक की कार्यवाही में न्यायालय के कर्तव्य एंव कार्य

        विभाजन संबंधी दावो में  प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने के पश्चात से अंतिम आज्ञप्ति पारित होने तक की कार्यवाही  में न्यायालय के कर्तव्य एंव कार्य 

        सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-2-की उपधारा-2 जिसे आगे संहिता से संबोधित किया गया है, उसके अनुसार डिक्री से अभिप्राय ऐसे न्याय निर्णयन की प्ररूपित अभिव्यक्ति है जो जहां तक कि वह उसे अभिव्यक्त करने वाले न्ययालय से संबंधित है । वाद में के सभी या किन्हीं विवादग्रस्त विषयों के संबंध में पक्षकारो के अधिकारों का निश्चायक रूप से अवधारण करता है और वह या तो प्रारंभिक या अंतिम हो सकेगी ।


        डिक्री तब प्रारंभिक होती हे जब वाद के पूर्ण रूप से निपटा दिए जा सकने से पहले आगे और कार्यवाहियां की जानी है वह तब अंतिम होती है जब कि ऐसा न्यायनिर्णयन वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है ।


        डिक्री अपील योग्य होती है । अतः संहिता की धारा-97 के अनुसार जहां इस संहिता के प्रारंभ के पश्चात पारित प्रारम्भिक डिक्री से व्यक्ति केाई पक्षकार ऐसी डिक्री की अपील नहीं करता है वहां वह उसकी शुद्धता के बारे में अंतिम डिक्री के विरूद्ध की गई अपील में विवाद करने से प्रवारित रहेगा ।


        विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने की स्थिति- संहिता के आदेश 20 नियम 18 के अनुसार जब न्यायालय सम्पत्ति के विभाजन के लिए या उनमें के अंश पर पृथक कब्जे के लिए वाद में डिक्री पारित करता है तब सम्पत्ति के भेद के आधार पर डिक्री पारित करता है ।
    

  1.    वह सम्पत्ति जिस पर सरकार द्वारा राजस्व निर्धारित किया गया है

    2.    वह सम्पत्ति जिस पर विभाजन बिना अतिरिक्त जांच के नहीं किया     जा सकता ।


        यदि सम्पत्ति का राजस्व निर्धारित किया गया है तो न्यायालय डिक्री की सम्पत्ति में हितबद्ध पक्षकार के अधिकारो की घोषणा डिक्री में करेगा, और यह निर्देश दिया जायेगा कि धारा-54 के प्रावधानोे के अनुसार सम्पत्ति का विभाजन या पृथककरण कलेक्टर द्वारा या उसके द्वारा प्रतिनियुक्त राजपत्रित  अधीनस्थ अधिकारी के द्वारा किया जाएगा ।


        इस संबंध में संहिता की धारा-54 अवलोकनीय है जिसके अनुसार -जहां डिक्री किसी ऐसी अविभक्त सम्पदा के विभाजन के लिए है, जिस पर सरकार को दिए जाने के लिए राजस्व निर्धारित है, या ऐसी सम्पदा के अंश के पृथक कब्जे के लिए है वहां सम्पदा का विभाजन या अंश का पृथक्करण कलेक्टर के ऐसे किसी राजपत्रिक अधीनस्थ द्वारा जिसे उसने इस निमित्त प्रति नियुक्त किया हो ऐसी सम्पदाओ के विभाजन या अंशों के पृथक् कब्जे से संबंधित  तत्समय प्रवृत्त विधि यदि कोई हो के अनुसार किया जाएगा ।


        दूसरी दशा में अन्य स्थावर या  सम्पत्ति के संबंध में जिसका विभाजन या पृथककरण सुविधापूर्वक नहंी किया जा सकता है। वहा पर न्यायालय का कर्तव्य है कि वह-


    1    उस सम्पत्ति से संबंधित पक्षकारो के अधिकारो की घोषणा करने वाली प्रारंभिक डिक्री पारित की जायेगी जिसमें


    2    अतिरिक्त जांच करने के लिए या जो अपेक्षित हो वैसे निर्देश दिये जावेगें ।


        न्यायालय आदेश 26 नियम 13 के अंतर्गत स्थावर सम्पत्ति के विभाजन अथवा पृथककरण के लिए कमीशन निकाल सकता है । 


जिसके संबंध में प्रावधान निम्नलिखित है -

1-    जहां विभाजन करने के लिए प्रारंभिक डिक्री पारित की गई है वहां न्यायालय किसी भी मामले में जिसके लिए धारा 54 द्वारा उपबन्ध नहीं किया गया है, ऐसी डिक्री में घोषित अधिकारो के अनुसार विभाजन या पृथककरण करने के लिए ऐसे व्यक्ति के नाम जिसे वह ठीक समझे कमीशन निकाल सकेगा ।


2-    न्यायालय द्वारा कमीशन निकाले जाने के बाद कमीश्नर आदेश 26 नियम 14 के अनुसार जांच की प्रक्रिया अपनायेगा जो निम्नलिखित है ।


आदेश 26 नियम 14 उपनियम 1 के अनुसार


    1    कमिश्नर ऐसी जांच करने के पश्चात जो आवश्यक हो, सम्पत्ति को उतने अंशो में विभाजित करेगा जितने उस आदेश द्वारा निर्दिष्ट हो जिसके अधीन  कमीशन निकाला गया था ।


    2    ऐसे अंशो का पक्षकारो में आवंटन कर देगा


    3    और यदि उसे उक्त आदेश द्वारा ऐसा करने के लिए प्राधिकृत किया जाता है तो वह अशों के मूल्य को बराबर करने के प्रयोजन के लिए दी जाने वाली राशियां अधिनिर्णीत कर सकेगा ।


आदेश 26 नियम 14 उपनियम 2 के अनुसार-



    1    तब हर एक पक्षकार का अंश नियत करके और यदि उक्त आदेश द्वारा ऐसा करने के लिए निर्देश दिया जाता है तो हर एक अंश को माप और सीमांकन करके कमिश्नर अपनी रिपोर्ट तैयार और हस्ताक्षरित करेगा ।
  
   2    या जहां कमीशन एक से अधिक व्यक्तियों के नाम निकाला गया था और वे परस्पर सहमत नहीं हो सके है वहां कमिश्नर पृथक पृथक रिपोर्ट तैयार करेगे और हस्ताक्षरित करेंगे ।


    3    ऐसी रिपोर्ट या ऐसी रिपोर्टे कमीशन के साथ उपाबंध की जाएगी और न्यायालय को प्रस्तुत की जाएगी।


    4    और पक्षकार जो कोई आक्षेप रिपोर्ट या रिपोर्टो पर करे न्यायालय उन्हे सुनने के पश्चात से या उन्हें पृष्ट करेगा उसमें या उनमें फेरफार  करेगा या उसे या उन्हे अपास्त करेगा ।


आदेश 26 नियम 14-उप नियम-3 के अनुसार


    1    जहां न्यायालय रिपोर्ट या रिपोर्टो को पुष्ट करता है ।
    2    या उसमें या उनमें फेरफार करता है ।
    3    वहां वह उसके पुष्ट या फेरफार किए गए रूप के अनुसार डिक्री पारित करेगा ।
    4    किन्तु जहां न्यायालय रिपोर्ट या रिपोर्टो को अपास्त कर देता है वहां वह या तो नया कमीशन निकालेगा


    5    या ऐसा अन्य आदेश करेगा जो वह ठीक सकझे ।


    इस प्रकार किसी भी विभाजन के बाद में दी गई  प्रारम्भिक डिक्री में घोषित अधिकारों के अनुसार विभाजन या पृथक्करण के लिए न्यायालय जिसे उचित समझे, आयुक्त नियुक्त कर सकेगा, जो नियम 14 के अनुसार कार्यवाही करेगा । उसकी रिपोर्ट में परिवर्तन या पुष्टि करने के बाद अंतिम डिक्री पारित की जावेगी।
 

     आयुक्त के प्रस्ताव उसी रूप में पक्षकारो पर बाध्य कर नही है। आदेश 26 नियम 10 तथा 12 के विपरीत नियम 14 में इसलिए इस बात पर जोर नहीं दिया गया है कि आयुक्त की रिपोर्ट वाद में स्वतः ही साक्ष्य के एक भाग का रूप बन जाएगी और इसी कारण नियम 14 न्यायालय को आयुक्त की रिपोर्ट को पुष्ट करने, बदलने या अपास्त करने और नया आयुक्त भी जारी करने की विशिष्ट शक्ति प्रदान करता है

न्यायालय का कर्तव्य और कार्य 


 ‘‘शुबकरन भुवना उर्फ शुबकरन विरूद्ध सीताशरण भुवना एवं अन्य 2009 पार्ट-9 एस.सी.सी. 689‘‘ मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है जिसमे माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया है कि

1-- एक बार यदि न्यायालय ने प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी तब यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह मामले को विभाजन के लिए कलेक्टर अथवा कमिश्नर के पास भेजना सुनिश्चित करे जब तक कि स्वयं पक्षकार ही विभाजन के लिए सहमत न हो जाए यह कर्तव्य न्यायालय द्वारा प्रारम्भिक डिक्री पारित करने के बाद लगातार क्रमबद्ध रूप से अपनाया जाना चाहिए


2-- कभी कभी या तो लम्बित प्रकरणों के कारण या अन्य परिस्थितियों मे न्यायालय द्वारा संहिता के आदेश 20 नियम 18-1 के तहत डिक्री अथवा आदेश 20 नियम 18-2 के तहत प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी जाती है और मामला एक तरफ रख दिया जाता है जब तक कि पक्षकार द्वारा उक्त संबंध में आवेदन प्रस्तुत कर न्यायालय का ध्यान इस ओर न दिला जाए कि मामले को कलेक्टर अथवा कमिश्नर के पास सम्पत्ति के वास्तविक विभाजन हेतु भेजा जाना है

 उक्त मामले मे ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभाजन संबंधी वादों हेतु निम्न सिद्धांत प्रतिपादित किये हैः-

        1-    सम्पदा से संबंधित ऐसे मामलों में जिनमें सरकार को राजस्व संदेय(कृषि भूमि) किया जाता है न्यायालय के लिए आवश्यक है कि  केवल एक डिक्री पारित करे जिसमें सम्पदा से संबंधित पक्षकारों के      अधिकार घोषित किये जाए और कलेक्टर को निदेशित किया जाए कि  वह उक्त डिक्री में वर्णित घोषित अंश के आधार पर संहिता की धारा             54 के अनुसार सम्पत्ति का वास्तविक विभाजन या पृथक्करण करे और 

                                       
  तत्पश्चात् पक्षकारों को उस अंश पर कब्जा प्रदान करें तत्पश्चात् जहाॅ  कलेक्टर द्वारा उक्त डिक्री के अनुसार कार्य सम्पादित किया जाता है   तब उक्त मामलान्यायालय मे वापिस नही आएगा एवं कलेक्टर द्वारा   किये जाने वाले विभाजन मेन्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नही किया                                                              जाएगा   जब तक कि कोई तीसरा पक्ष विभाजन के संबंध मे कोई   शिकायत न करे। 


        2- अचल सम्पत्ति  (ऐसी कृषि भूमि से भिन्न जिसका राजस्व संदेय    है) जैसे कि निर्माण, प्लाॅट या चल सम्पत्ति के संबंध मे:-



        अ- जहाॅ कि न्यायालय सुविधा पूर्वक और बिना किसी जाॅच के बिना कमिश्नर की सहायता के विभाजन कर सकता है, या 


        जहाॅ पक्षकार समझौते पर स्वयं ही सहमत हो गये हो, तब उक्त स्थितियों में न्यायालय केवल एक डिक्री पारित करेगा जिसमें प्राथमिक   और अंतिम दोनो डिक्रियाॅ समाविष्ट होगी एवं प्राथमिक डिक्री  के रूप  मे पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा की जाएगी और अंतिम डिक्री  के रूप में पक्षकारों के अंश का मीट्स एण्ड बाउन्डस के आधार पर  विभाजन किया जाएगा । 



        ब- जहाॅ कि, मीटस एण्ड बाउन्डस के  आधार पर विभाजन अतरिक्त    जाॅच के बिना नही किया जा सकता वहाॅ न्यायालय प्राथमिक       डिक्री पारित करेगा जिसमें पक्षकारों के अधिकारों में घोषणा की जावेगी और ऐसे अतिरिक्त निर्देश देगा जो कि ऐसे विभाजन को प्रभावशील बनाने के लिए आवश्यक है ऐसे वादों मे सामान्य रूप से एक कमिश्नर  (सामान्यतः इंजीनियर, नक्शा नवीस, आर्किटेक्ट या अधिवक्ता) की   नियुक्ति की जाती है जो कि भौतिक रूप से विभाजित की जाने  वाली सम्पत्ति का परीक्षण करता है और विभाजन किस तरीके से हो  सकता है इस पर अपनी रिपोर्ट देता है तब न्यायालय पक्षकारों को   कमिश्नर रिपोर्ट पर सुनता है और मीट्स एण्ड बाउन्डस विभाजन के       लिए अंतिम डिक्री पारित करता है।


        स. प्राथमिक डिक्री मे घोषित किये गये अधिकारों के आधार पर             विभाजन अथवा पृथक्करण करने का कार्य कमिश्नर मे निहित होता है         जिसमें सम्पत्ति का निरीक्षण करना और उपयोग एवं मौके की स्थिति         के आधार पर विभिन्न विकल्पों का परीक्षण करना शामिल होता है जब         कमिश्नर विभाजन के तरीके पर अपनी रिपोर्ट देता है तब रिपोर्ट मे             दिये गये विभाजन के प्रस्तावों पर न्यायालय विचार करता है और यदि         रिपोर्ट पर कोई आपत्ति आई है तो उन्हे सुनने के पश्चात् अंतिम डिक्री         पारित करता है जिसके द्वारा वाद में लिये गये अनुतोष के अनुसार             सम्पत्ति मीट्स एण्ड बाउन्डस के आधार पर विभाजित की जाती             है। यह भी संभव है कि सम्पत्ति उचित विभाजन योग्य न हो तब             न्यायालय सम्पत्ति के विक्रय का आदेश कर सकता है और प्राप्त धन         को घोषित किये गये अंश के आधार पर पक्षकारों के बीच वितरित कर         सकता है।


        द.अधिकारों अथवा अंश की घोषणा विभाजन के दावे की पहली स्टेज         होती है अतः प्राथमिक डिक्री पारित कर देने से वाद समाप्त नही हो             जाता वाद तब तक लम्बित रहता है तब तक मीट्स एण्ड बाउन्डस             आधार पर किये गये विभाजन की अंतिम डिक्री पारित न कर दी जाए।         न्यायालय के समक्ष यदि आवेदन प्रस्तुत कर अनुरोध किया जाता है             कि अंतिम डिक्री पारित करने के संबंध में प्रारम्भिक डिक्री के आधार             पर आवश्यक कदम उठाए जाए तब ऐसा आवेदन जिसके माध्यम से             न्यायालय से यह अनुरोध किया जाता है कि प्राथमिक डिक्री के आधार         पर विभाजन हेतु अंतिम डिक्री पारित करने हेतु आवश्यक कदम             उठाए जाए, न तो निष्पादन के लिए आवेदन है और न ही नया             अनुतोष चाहने बावत् आवेदन है ऐसा आवेदन केवल एक स्मरण पत्र             की तरह माना जाएगा जो कि न्यायालय को यह स्मरण दिलाएगा कि         वह अपने कर्तव्य अनुसार कमिश्नर नियुक्त करे, रिपोर्ट प्राप्त करे और         तत्पश्चात् लम्बित वाद में अंतिम डिक्री पारित करे ताकि वाद का             उचित रूप से समापन किया जा सके।

        न्याय दृष्टांत शुबकरन (पूर्व वर्णित) मे ही यह विधि प्रतिपादित की है कि यदि प्राथमिक डिक्री पारित करने के बाद अंतिम डिक्री पारित करने हेतु न्यायालय में कोई आवेदन दिया जाता है तो वह केवल एक स्मरण पत्र है और चूंकि वाद अंतिम डिक्री पारित होने तक लम्बित रहता है इसलिए ऐसे आवेदन के लिए परिसीमा अवधि की बाधा नही जाएगी। 




        इस प्रकार उक्त वर्णित विधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि संहिता के आदेश 20 नियम 18 उपनियम 2 की स्थिति होने पर प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित की जाएगी यदि विभाजन हेतु अतिरिक्त जाॅच की आवश्कता है तो आदेश 26 नियम 13 के अनुसार कमिश्नर नियुक्त किया जाएगा और कमिश्नर रिपोर्ट के आधार पर मीट्स एण्ड बाउन्डस विभाजन की अंतिम डिक्री पारित की जाएगी


 यदि अतिरिक्त जाॅच की आवश्यकता नही होती है तब केवल एक डिक्री पारित की जाएगी जिसमे प्रारम्भिक एवं अंतिम दोनो डिक्रियाॅ समाविष्ट होगी एवं प्रारम्भिक डिक्री के रूप मे पक्षकारों के अंश की घोषणा की जावेगी एवं अंतिम डिक्री के रूप मे मीट्स एण्ड बाउन्डस विभाजन की डिक्री पारित की जाएगी।


        नियम 18-1 के तहत केवल एक डिक्री पारित की जाएगी जो पक्षकारों के अधिकार की घोषणा करेगी और कलेक्टर को निर्देश देगी कि सहिता की धारा 54 के अनुसार सम्पदा का विधिवत बटवारा करे और फिर ऐसा मामला न्यायालय के समक्ष नही रखा जाएगा और न ही न्यायालय कलेक्टर के कार्य मे कोई हस्तक्षेप करेगा। हस्तक्षेप न करने के संबंध में न्याय दृष्टांत ‘‘लच्छी राम जसराम विरूद्ध नानवा धानाजी एआईआर 1946 नागपुर 353‘‘ एवं ‘‘धर्मसिंह विरूद्ध देवसिंह सीताराम एआईआर 1950 नागपुर 102‘‘ मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है।
      
        यदि कलेक्टर द्वारा धारा 54 के तहत की जाने वाले विभाजन पर कोई आपत्ति है तो उक्त संबंध मे संबंधित राजस्व अधिकारी के समक्ष कलेक्टर के आदेश की अपील की जा सकती है या फिर न्यायालय के समक्ष सिविल वाद प्रस्तुत किया जा सकता है, धारा 47 सिप्रसं के तहत आपत्ति सुनवाई योग्य नही होगी क्योंकि डिक्री का निष्पादन करने वाली न्यायालय डिक्री पारित करने वाला न्यायालय नही होता उक्त संबंध में न्याय दृष्टांत ‘‘प्रकाश नाथयावा घोषले विरूद्ध लक्ष्मण गनावा घोषले एआईआर 2003 बाम्बे 41 मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है 



        इस स्तर पर न्याय दृष्टांत ‘‘बिमल कुमार एवं अन्य विरूद्ध शकुन्तला देवी एवं अन्य एआईआर 2012 एससी 1586 मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह विधि प्रतिपादित की गयी है कि विभाजन डिक्री चाहे वह प्रारम्भिक हो या अंतिम यदि समझौतों की शर्तो के अनुसार पारित की गई है और यह स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि पक्षकार घोषित अंश के अनुसार दी गयी सम्पत्ति पर पृथक एवं पूर्ण रूप से कब्जे में है, तो वह अंतिम डिक्री होगी ।


 न्याय दृष्टांत शुबकरन (पूर्व वर्णित) मे भी इसी आशय का मत दिया गया है कि जहाॅ पक्षकार समझौते पर स्वयं ही सहमत हो गये है उक्त स्थिति मे केवल एक डिक्री पारित होगी।


        यह ध्यान रखे जाने योग्य है यदि किसी कारण नियम 18-2 के तहत कोई प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी गई है तब उस पर कार्यवाही करते हुए आदेश 26 नियम 13 एवं नियम 14 के अनुसार कमीशनर रिपोर्ट के पश्चात अंतिम डिक्री पारित की जानी चाहिए यदि प्रारम्भिक डिक्री के निष्पादन हेतु कोई आवेदन लम्बित है या पेश किया जाता है तो वह केवल न्यायालय के लिए एक स्मरण पत्र के रूप मे माना जाएगा, क्योंकि अंतिम डिक्री पारित होने तक वाद लम्बित रहता है और ऐसी स्थिति में प्रारम्भिक डिक्री निष्पादन योग्य नही होती अपितु अंतिम डिक्री निष्पादन हेतु योग्य होती है



 इस संबंध मे म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 नियम 171 भी अवलोकनीय है जिसके अनुसार जिन वादों में अंतिम निर्णय के पश्चात प्रारम्भिक डिक्री बनती है तब ऐसी अंतिम आज्ञप्ति अंतिम निर्णय के निर्देशों के अनुसार बनाई जायेगी, क्योंकि अंतिम डिक्री वाद के पूर्ण निराकरण तथा पक्षकारों के स्वत्वों से अंतिम रूप से निर्धारित करने का न्याय निर्णय है अतः वह अपने स्वयं मे पूर्ण एवं संपूर्ण होना चाहिए ताकि प्रारम्भिक डिक्री के संदर्भ के बिना वह समझे जाने और निष्पादन योग्य हो जावे।

1-.    यदि किसी पक्षकार के अधिकार और हिस्से की बावत प्रारंभिक             डिक्री     में घोषणा नहीं की जाती हे तो ऐसी दशा में आयुक्त वादगत         सम्पत्ति में     से ऐेसे पक्षकार के हिस्से का विभाजन या पृथक् रूप         से आवंटन करने के     लिए तब तक सक्षम नहीं होगा जब तक कि         अपील या पुनर्विलोकन में     प्रारंभिक डिक्री में उस आशय का             विनिर्दिष्ट रूप से उपान्तरण ना कर दिया     गया हो ।


2-     यदि पक्षकारो के अंशो को     घोषित करते हुये प्रारभिक डिक्री पारित         की गई । विभाजन आयुक्त को     उक्त संपति कापक्षकारों के वीच         करार के आधार पर विभाजन बंटवारा करने के लिये आवश्यक             कदम उठाने के लिये कहा गया। ऐसे करार पर     ध्यान दिये बिना         आयुक्त की  रिपोर्ट  शून्य व अकृत है,


3-    विभाजन आयुक्त   न्यायालय की इच्छाओं के विपरीत रिपोर्ट प्रस्तुत         करता है तो ऐसी रिपोर्ट पर  अंतिम डिक्री पारित नहीं कि जा             सकती।


अंतिम डिक्री पारित करनेके पूर्व न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह देखेकि-


1-    जब तक पक्षकारो के स्थल पर अधिकारो का अवधारण निर्णय करने         वाली     डिक्री     पारित नहीं हो जाती और वह स्टांप पेपर पर नहीं         बन जाती तब तक कोई निष्पादन योग्य डिक्री अस्तित्व में नहीं             आती ।           
2-    बिना स्टांप पेपर के अंतिम     डिक्री नहीं बन सकती ।


3- उपरोक्त दोनों शर्ते पुरी होने पर आदेश 20 उपनियम 18 के अर्तंगत         अंतिम  डिग्री पारित होती है।


4- परिसीमा अंतिम डिक्री स्टांप पेपर पर बल जाने के बाद ही प्रारंभ             होती है ।


          मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ए0आई0आर0  सु0को0 1211 श्ंाकर बलवंत लोखण्डे मृतक विरूद्ध एल0आर0 एस0चन्द्रकांन्त शंकर लोखण्डे व अन्य  में अभिनिर्धारित किया है कि यही दोनो कार्य एक         अंतिम डिक्री का गठन करते हैं ।


5-    यदि विभाजन के बाद में इच्छापत्र के अधीन सम्पत्ति का व्ययन         किया जाता है तो इच्छा पत्र के वैधता की जांच उसी न्यायालय         द्वारा की जाएगी 



6-    जहां कृषि भूमि का अन्य सम्पत्तियों के विभाजन के लिए वाद लाया         जाता है, वहां डिक्री को तब तक प्रारंभिक डिक्री समझी जाएगी,         जब तक कि उस कृषि भूमि का विभाजन करके कब्जा न दे दिया         जाये ।
 

    7-    जब एक बार प्रारंभिक डिक्री पारित कर दी गई, तो न्यायालय उस         वाद को व्यतिक्रम के कारण खारिज नहीं कर सकता।

    8-    यदि वादी प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद कोई कदम नहीं             उठाता है तो न्यायालय अनिश्चितकाल के लिए कार्यवाही को             स्थगित कर     सकता है और संबंधित पक्षकारों को यह छूट दे             सकता है कि वे उचित कार्यवाही कर उस वाद को सक्रिय करें ।


    9-    विभाजन वाद में प्रारंभिक डिक्री द्वारा निर्णीत बातों पर पक्षकारों को         विबन्ध का सिद्धांत लागू होगा और वे किसी दूसरे वाद में उन             बिन्दुओं को     पूर्व न्याय के सिद्धांत से वर्जित होने के कारण नही         उठा सकेंगे ।


    10-    सम्पत्ति में वादी को उसके अंश भाग का कब्जा देने के लिए             भुगतान करने की शर्त प्रांम्भिक डिक्री में दी गई थी । अतः जब         तक सम्पत्ति के विभाजन की अंतिम डिक्री पारित नहीं हो जाती,         इस शर्त के अनुसार     प्रारंम्भिक डिक्री का निष्पादन नहीं हो सकता


    11-    प्रारंम्भिक डिक्री की शर्त के अनुसार अंतिम डिक्री पारित करने के         लिए देरी से किया गया आवेदन वर्जित नहीं है ।


    12-    एक विभाजन वाद में पक्षकारो के अंशों का निर्धारण उस दिनांक         को किया जावेगा, जिस दिनांक को प्रारंम्भिक डिक्री पारित की गई         है ।


    13-    यदि उस दिनांक को एक सहदायिकी का आधा अंश एक नीलाम         क्रेत द्वारा खरीद लिया गया तो वह नीलाम क्रेता उस आधे अंश के         लिए     डिक्री अपने पक्ष में करवाने का हकदार होगा ।

    14-.    विभाजन वाद में अंतिम डिक्री प्रारंभिक डिक्री में संशोधन नहीं कर         सकती और न उसकी पृष्ठभूमि में जा सकती है , जो मामले उस         प्रारंभिक डिक्री में तय किये जा चुके है उन पर पुनः विचार नहीं         किया जा सकता ।
    यह सिद्वांत ए0आई0आर0 1977 सु0को0 292 एम0अययना बनाम         एम0जुग्गारा में अभिनिर्धारित किया गया है।


    15-    यदि .विभाजन वाद में प्रारंम्भिक डिक्री अंतः कालीन लाभों के बारे में         शांत     है, फिर भी अंतिम डिक्री तैयार करते समय अन्तः कालीन         लाभो के बारे में निर्देश दिया जा सकता है यद्यपि वाद पत्र में             इसके लिए कोई प्रार्थना ना की गई हो।


    16-    .सम्पत्ति के अंग भागीदारो की अपनी सम्पत्ति है और वे उन अंशों         को वादी के पक्ष में अभ्यर्पित कर सकते है । अतः जहां एक वाद में         भागीदारो ने अपने अंशों का अभ्यर्पण कर दिया तो न्यायालय को         विभाजन वाद के विचारण में उसे प्रभावशील करना होगा । यह             सिद्वंात ए0आई0आर0 1977 सु0को02027 अनार कुमारी बनाम जमुना         प्रसाद में अभिनिर्धारित किया गया है।


     17-    .वादी एक हिन्दू संयुक्त कुटुम्ब के सदस्य के रूप में प्रतिवादियों    द्वारा     प्राप्त किये गये लाभों के बारे मंे जांच करने के लिए अंतिम         डिक्री की तैयारी के प्रक्रम पर पर आवेदन करने के लिए हकदार         होगा, क्योंकि विभाजन के लिए प्रत्येक वाद उसके संस्थित करने के         दिनांक को लेखे के लिए वाद भी होता है ।
 

   18-.    ऐसी जांच की मांग करना पक्षकारो के बीच समस्याआंे के समाधान         के लिए आवश्यक है । अतः यह न्यायालय के विवेकाधिकार के             भीतर है कि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर         ऐसी प्रार्थना की अनुमति दे ।

    19-    विभाजन वाद में पारित की गई अंतिम डिक्री का निष्पादन होगा ।         समझौता कर लेने से पक्षकार अंतिम डिक्री के निष्पादन से और         सम्पत्ति पर कब्जे के परिदान से वंचित नहीं हो जाते ।


     20-    .प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद अपील का केवल लंबित             रहना विचारण न्यायालय को पक्षकारों के पक्षान्तरण तथा व्यक्तिगत         अंशों के निर्धारण करने के लिए आवेदन ग्रहण करने के लिए कोई         बाधा नहीं करेगा।


      21-    .आवेदन परिसीमा अधिनियम के किसी उपंबध से शासित             नहीं होता । ऐसा आवेदन  लंबित वाद मंे एक आवेदन के रूप             में जाना जाएगा इसलिए, परिसीमा का कोई प्रावधान  लागू नहीं         होगा।


     22-     यदि संयुक्त परिवार की संपति में दो भाईयों का बराबर हिस्सा है         और विभाजन इस शर्त पर होगा कि इस बंधक का मोचन करवाया         जावेगा ।अतः पहले     प्रारंभिक डिक्री दो हिस्सो के विभाजन की             होगी और अंतिम डिक्री पारित करने से पहले वाला ऋृण चुका कर         बन्धक का मोचन करवा सकेगा।

    23-    यदि परिवार की संपतियों के विभाजन के समय अवयस्क रहे सदस्य         ने वयस्क होने पर विभाजन के लिये और अपने हिस्से की संपति         का अलग से     कब्जा दिलाने के लिये वाद किया, परन्तु आवश्यक         न्यायालय फीस देकर विभाजन प्रलेख को रद्द करवाने की प्राथर््ाना         नहीं की ऐसी     स्थिति में विभाजन प्रलेख को अभिखडिंत नहीं किया         जा सकता ।


    24-     विभाजन के बाद का किरायेदार पर कोई प्रभाव नहीं पडता है यदि         वाद में किरायेदार को भी पक्षकार बनाया जाए     परन्तु विभाजन         डिक्री     पारित करने के बाद भी किरायेदार के कब्जे में हस्तक्षेप नहीं         किया जा सकता । इसके लिये किराया नियेत्रण विधि के अधीन         बेदखली की     कार्यवाही फाइल करनी होगी ।


    25-     यदि यह साबित नहीं किया गया कि अवयस्क की संपत्ति             उसके कल्याणके लिये या संयुक्त कुटुम्ब की विधिक आवश्यक्ता के         लिये     निधि फण्ड बनाने के लिये काम में ली गई । ऐसी स्थिति में         अवयस्क वादियों की और से उनकी माता द्वारा फाइल किया गया         विभाजन वाद     संधारणीय है ।


    26-    यदि संयुक्त     परिवार की     संपत्ति का कुछ भाग अनुसूचि में             शामिल नहीं किया गया ऐसा वाद खारिज किये जाने योग्य है।


        इस प्रकार प्रारभिंक डिक्री से अंतिम डिक्री पारित होने के मध्य सहिंता के आदेश 20 नियम 18 आदेश 26 नियम 13, 14 और धारा 54 के प्रावधानो के अनुसार कार्यवाही की जाती है।
                                उमेश कुमार गुप्ता
                              





       

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

खुली अथवा अचानक लडाई धारा-34 और 149

               खुली अथवा अचानक लडाई



                                                             अभिनिर्धारित सिंद्धांतो के अनुसार अचानक


 पारस्पिरिक लडाई के मामले में भा00विकी 


धारा-34 

 और 149  दोनो लागू नहीं होती है । सभी व्यक्त 




 अपने अपने द्वारा किए गये कार्य के लिए 


उत्तरदायी ठहराये जाते हैं । उपस्थित हो जाने मात्र से 



सामान्य आशय का गठन नहीं होता है । इसके


 लिए पूर्व नियोजन आवश्यक है । मात्र अपराध के 




समय एक साथ रहने से यदि व्यक्ति अचानक कोई


 घटना कर बैठे तो व्यक्ति को 34, 149 में


 दोषी नही ठहराया जा सकता । इसके लिए




 उसका पूर्व नियोजित होना आवश्यक है ।






 


सामान्य उददेश्य का अभिनिर्धारण के लिए निम्नलिखित बातो को 

 देखा जाएगा-


1. समूह की प्रकृति

 
2. घटना स्थल पर ले जाये जाने वाले हथियार 

 
3. आरोपीगण का घटना के पूर्व व पश्चात का व्यवहार,


4. सदस्यों के कृत्य

 
5. सदस्यों द्वारा मौके पर ग्राहय आचरण 

 


एक समूह जो प्रारंभ में विधिपूर्ण था बाद में अविधिपूर्ण हो सकता

 है और मौके पर भी सामान्य आशय तथा उददेश्य का गठन किया जा सकता है । 

 
यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि 


मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन 

प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को चोट पहंुचाने के

 सबंध में मस्तिष्को के मिलने बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो


 धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

 
अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार 

किये जाते है । लडाई के लिए 

कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई 


अचानक होती है जिसके लिए 

दोनो पक्ष दोषी होते है 
 
सामान्य उददेश्य पूर्व मिलन की अपेक्षा नहीं करता इसके लिए 


जरूरी है कि 5 या 5 से अधिक 

सदस्य सामान्य उददेश्य बनाये और उस उददेश्य को हासिल 


करने उस समूह में स्वयं कृत्य करें 

यहां समूह का कृत्य ही सबको बराबर का उत्तरदायी बनाता है । 


इसकी प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं 

होती है । इसे आरोपीगण के कृत्य, आचरण सुसंगत परिस्थितियों 


के आधार पर देखा जाता है ।

 इसमें आरोपीगण के 

कृत्य पहंुचाई गई क्षतियां प्रयुक्त हथियार, कार्य की प्रकृति और


 आरोपीगण का आचरण मुख्य 

तथ्य है। इसके लिए समूह की प्रकृति, समूह के सदस्यों द्वारा ले

 जाए जाने वाले हथियार, घटना के


 समय अथवा घटना के नजदीक सदस्यों का व्यवहार देखा जाना

 चाहिए। 

 
अचानक लडाई के मामले में धारा-300 के भाग-4 के अंतर्गत 


मामला प्रमाणित माना जाता है । इस संबंध में यह सुस्थापित


 विधि है कि भा..सं. की धारा-300 के स्पष्टीकरण 4 को लागू

 किये जाने के लिए आवश्यक है कि आरोपी यह साबित करे कि 

जो लडाई हुई है 


वह-

- पूर्व चिंतन के बिना,



- अकस्मात लडाई में,



- अपराधी द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त किये बिना 


या कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य किये 


बिना 



और,



- मारे गये व्यक्ति के साथ लडाई होनी चाहिए ।





लडाई दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य आयुधो के



 साथ या बिना मुठ भेड होती है। यह संभव नहीं 



है




 कि इस बारे में कोई सामान्य नियम प्रतिपादित 




किया जाये कि अकस्मात झगडा किसको माना 


जाये । यह तथ्य का प्रश्न है और यह बात कि



 कोई झगडा अकस्मात हुआ या नहीं, आवश्यक


 रूप 



 से 



प्रत्येक मामले के साबित तथ्यों पर निर्भर होगा ।



अपवाद 4 को लागू करने के लिए यह दर्शित किया जाना पर्याप्त 


नहीं है कि अकस्मात झगडा हुआ


 था और उसके लिए पूर्व चिंतन नहीं किया गया था । यह भी 



दर्शित किया जाना चाहिए कि 

अपराधी ने अनुचित लाभ नहीं लिया या उसने कू्रर या 


अप्रायिक रीति में कार्य नहीं किया । 

अभिव्यक्ति अनुचित लाभ जैसा कि उपंबध में प्रयुक्त किया गया है


 का अर्थ है अऋजू लाभ । उपरोक्त 

सिद्धांत मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गलीवेंकटयया बनाम आंध्र


 प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 

 .सी.सी. 370 मंे प्रतिपादित किया है।



इस मामले में मान्नीय न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया 

है कि दंड संहिता की धारा-300 

 का चैथा अपवाद अकस्मात हाथापाई में किये गये कार्यो को 


आच्छादित करता है। यह अपवाद इसी 

सिद्धांत पर आधारित है कि दोनो में ही पूर्वचिंतन का अभाव है ।

जबकि अपवाद 1 के मामले में आत्म नियंत्रण का पूर्ण अभाव है

 और स्पष्टीकरण 4 के मामले में केवल 

आवेश की तीव्रता का उल्लेख है जो व्यक्तियों के सौम्य संतुलन को

 प्रभावित करती है और उनको 

उन कार्यो को करने के लिए प्रेरित करती है । जिन्हें वे अन्यथा 

नहीं करेंगे । अपवाद 4 में प्रकोपन 

को उपबंधित किया गया है ।जैसा कि अपवाद 1 में है किन्तु 

कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष 

परिणाम नही है ।

वास्तव में अपवाद 4 के अधीन ऐसे मामलो पर विचार किया गया 

है जिनमें इस बात के होते हुए भी

 कि प्रहार किया गया है या विवाद के उदगम में कुछ प्रकोपन 


दिया 

गया है या किसी भी रीति में 

झगडे से उत्पन्न हुआ है तथापि दोनो पक्षों का पश्चातवर्ती आचरण

 उनके अपराध के संबंध में समान


 आधार पर रख देता है । अकस्मात लडाई में एक दूसरे को 


प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार


 विवक्षित है । तब कारित मानववध स्पष्टतः एक पक्षीय प्रकोपन के


 अंतर्गत नहीं आता है और न ही 

ऐसे मामलो में सम्पूर्ण दोष किसी एक पक्ष पर डाला जा सकता है 


। ऐसा होता हो जो अपवाद 



अधिक उपयुक्त रूप से लागू होगा वह अपवाद 1 है । लडाई के

 लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या 

अवधारण नहीं होता है लडाई अचानक होती है जिसके लिए लगभग


दोनो ही पक्ष दोषी होते हैं । 


अचानक लडाई के मामले में जब परस्पर प्रकोपन का मामला हो

 यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि 


दोनो पक्षों में कौन ज्यादा जिम्मेदार है तो धारा 304 के अपवाद


 में मामला माना जायेगा । महेश 

विरूद्ध एम.पी.राज्य ए.आई.आर. 1996 सु.को. 3315 इसी प्रकार पूर्व


 चिंतन पूर्व रंजिश के अभाव में 

यदि क्षति पहंुचाई जाती है तो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में


 मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त 

नहीं है और चिकित्सीय सहायता द्वारा अभियुक्त को बचाया जा


 सकता था तो यह कार्य आपराधिक 

मानव वध माना जायेगा । 


 
धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध 


हेतु दण्ड व्यवहत करती है । जब

 कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की



 सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध 


करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष

 दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया 


गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए ।



 बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि 


विरूद्ध था । भा..सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित



 करने के पूर्व, भा..सं. की 


धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।


141 विधिविरूद्ध जमाव- पांच याअधिक व्यक्तियों का जमाव 


विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन

 व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य



 हो-


पहला- केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को 

या किसी राज्य के विधान मंडल

 को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की 



विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा 

हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा

 आतंकित करना अथवा

दूसरा- किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का 

प्रतिशेध करना अथवा

तीसरा- किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का 


रना अथवा

चैथा- किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के


 प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का 

कब्जा लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के


 अधिकार के उपभोग से या जल 

का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका


 वह कब्जा रखता हो, या उपभोग

 करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार



 को प्रवर्तित करना अथवा

पांचवा- आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा 


किसी व्यक्ति को वह करने के लिए

 जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप



 करने के लिए जिसे करने का वह 

वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

स्पष्टीकरण- कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था


 बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो 


सकेगा ।

धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए 




कि फंसाने वाला कृत्य विधि 



विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया 

या 

था और यह अन्य सदस्यों के 

ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए 



किया गया था और यह अन्य 

सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए । यथा सामान्य उददेश्य के 


अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । 

यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में



 कारित होते हुए विशिष्ट अपराध 

की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत


 इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

धारा-149 भा... के प्रमाणन के लिए दो बाते साबित की जाना 


आवश्यक है ।

पहला- किसी विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के द्वारा अपराध

 किया जाना चाहिए।


दूसरा- उस अपराध को उस समूह के सामान्य उददेश्य की


 अग्रसरता में होना चाहिए अथवा इस 

प्रकार होना चाहिए कि उस समूह के सभी सदस्य यह जानते थे 


कि यह कारित होना प्रतीत होता 


था।

सामान्य उददेश्य के अपराध के गठन के लिए आवश्यक है कि 



उसके सदस्यों द्वारा उसमें कोई भाग



 लिया गया है । मात्र उपस्थिति से इसकी उपधारणा नहीं की जा 


सकती है । यदि सदस्य को 

सामान्य उददेश्य की जानकारी नहीं है तो अपराध घटित नहीं हो 


सकता है । अतः विधि के 


सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार अचानक लडाई के मामले में 


पक्षकार एक दूसरे को प्रकोपन देते है 


और दोनो ओर से प्रहार किये जाते हैं । लडाई के लिए कोई पूर्व


 विचार विमर्श या चिन्तन का 


अभाव रहता है । लडाई अचानक होती है इसके लिए दोनो पक्ष 


दोषी होते हैं । अचानक पारस्पिरिक


 लडाई के मामले में भा00वि0 की धारा-34 और 149 दोनो लागू




 नहीं होती है ।


भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta