विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने के पश्चात से अंतिम आज्ञप्ति पारित होने तक की कार्यवाही में न्यायालय के कर्तव्य एंव कार्य

        विभाजन संबंधी दावो में  प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने के पश्चात से अंतिम आज्ञप्ति पारित होने तक की कार्यवाही  में न्यायालय के कर्तव्य एंव कार्य 

        सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-2-की उपधारा-2 जिसे आगे संहिता से संबोधित किया गया है, उसके अनुसार डिक्री से अभिप्राय ऐसे न्याय निर्णयन की प्ररूपित अभिव्यक्ति है जो जहां तक कि वह उसे अभिव्यक्त करने वाले न्ययालय से संबंधित है । वाद में के सभी या किन्हीं विवादग्रस्त विषयों के संबंध में पक्षकारो के अधिकारों का निश्चायक रूप से अवधारण करता है और वह या तो प्रारंभिक या अंतिम हो सकेगी ।


        डिक्री तब प्रारंभिक होती हे जब वाद के पूर्ण रूप से निपटा दिए जा सकने से पहले आगे और कार्यवाहियां की जानी है वह तब अंतिम होती है जब कि ऐसा न्यायनिर्णयन वाद को पूर्ण रूप से निपटा देता है ।


        डिक्री अपील योग्य होती है । अतः संहिता की धारा-97 के अनुसार जहां इस संहिता के प्रारंभ के पश्चात पारित प्रारम्भिक डिक्री से व्यक्ति केाई पक्षकार ऐसी डिक्री की अपील नहीं करता है वहां वह उसकी शुद्धता के बारे में अंतिम डिक्री के विरूद्ध की गई अपील में विवाद करने से प्रवारित रहेगा ।


        विभाजन संबंधी दावो में प्रारंभिक आज्ञप्ति पारित होने की स्थिति- संहिता के आदेश 20 नियम 18 के अनुसार जब न्यायालय सम्पत्ति के विभाजन के लिए या उनमें के अंश पर पृथक कब्जे के लिए वाद में डिक्री पारित करता है तब सम्पत्ति के भेद के आधार पर डिक्री पारित करता है ।
    

  1.    वह सम्पत्ति जिस पर सरकार द्वारा राजस्व निर्धारित किया गया है

    2.    वह सम्पत्ति जिस पर विभाजन बिना अतिरिक्त जांच के नहीं किया     जा सकता ।


        यदि सम्पत्ति का राजस्व निर्धारित किया गया है तो न्यायालय डिक्री की सम्पत्ति में हितबद्ध पक्षकार के अधिकारो की घोषणा डिक्री में करेगा, और यह निर्देश दिया जायेगा कि धारा-54 के प्रावधानोे के अनुसार सम्पत्ति का विभाजन या पृथककरण कलेक्टर द्वारा या उसके द्वारा प्रतिनियुक्त राजपत्रित  अधीनस्थ अधिकारी के द्वारा किया जाएगा ।


        इस संबंध में संहिता की धारा-54 अवलोकनीय है जिसके अनुसार -जहां डिक्री किसी ऐसी अविभक्त सम्पदा के विभाजन के लिए है, जिस पर सरकार को दिए जाने के लिए राजस्व निर्धारित है, या ऐसी सम्पदा के अंश के पृथक कब्जे के लिए है वहां सम्पदा का विभाजन या अंश का पृथक्करण कलेक्टर के ऐसे किसी राजपत्रिक अधीनस्थ द्वारा जिसे उसने इस निमित्त प्रति नियुक्त किया हो ऐसी सम्पदाओ के विभाजन या अंशों के पृथक् कब्जे से संबंधित  तत्समय प्रवृत्त विधि यदि कोई हो के अनुसार किया जाएगा ।


        दूसरी दशा में अन्य स्थावर या  सम्पत्ति के संबंध में जिसका विभाजन या पृथककरण सुविधापूर्वक नहंी किया जा सकता है। वहा पर न्यायालय का कर्तव्य है कि वह-


    1    उस सम्पत्ति से संबंधित पक्षकारो के अधिकारो की घोषणा करने वाली प्रारंभिक डिक्री पारित की जायेगी जिसमें


    2    अतिरिक्त जांच करने के लिए या जो अपेक्षित हो वैसे निर्देश दिये जावेगें ।


        न्यायालय आदेश 26 नियम 13 के अंतर्गत स्थावर सम्पत्ति के विभाजन अथवा पृथककरण के लिए कमीशन निकाल सकता है । 


जिसके संबंध में प्रावधान निम्नलिखित है -

1-    जहां विभाजन करने के लिए प्रारंभिक डिक्री पारित की गई है वहां न्यायालय किसी भी मामले में जिसके लिए धारा 54 द्वारा उपबन्ध नहीं किया गया है, ऐसी डिक्री में घोषित अधिकारो के अनुसार विभाजन या पृथककरण करने के लिए ऐसे व्यक्ति के नाम जिसे वह ठीक समझे कमीशन निकाल सकेगा ।


2-    न्यायालय द्वारा कमीशन निकाले जाने के बाद कमीश्नर आदेश 26 नियम 14 के अनुसार जांच की प्रक्रिया अपनायेगा जो निम्नलिखित है ।


आदेश 26 नियम 14 उपनियम 1 के अनुसार


    1    कमिश्नर ऐसी जांच करने के पश्चात जो आवश्यक हो, सम्पत्ति को उतने अंशो में विभाजित करेगा जितने उस आदेश द्वारा निर्दिष्ट हो जिसके अधीन  कमीशन निकाला गया था ।


    2    ऐसे अंशो का पक्षकारो में आवंटन कर देगा


    3    और यदि उसे उक्त आदेश द्वारा ऐसा करने के लिए प्राधिकृत किया जाता है तो वह अशों के मूल्य को बराबर करने के प्रयोजन के लिए दी जाने वाली राशियां अधिनिर्णीत कर सकेगा ।


आदेश 26 नियम 14 उपनियम 2 के अनुसार-



    1    तब हर एक पक्षकार का अंश नियत करके और यदि उक्त आदेश द्वारा ऐसा करने के लिए निर्देश दिया जाता है तो हर एक अंश को माप और सीमांकन करके कमिश्नर अपनी रिपोर्ट तैयार और हस्ताक्षरित करेगा ।
  
   2    या जहां कमीशन एक से अधिक व्यक्तियों के नाम निकाला गया था और वे परस्पर सहमत नहीं हो सके है वहां कमिश्नर पृथक पृथक रिपोर्ट तैयार करेगे और हस्ताक्षरित करेंगे ।


    3    ऐसी रिपोर्ट या ऐसी रिपोर्टे कमीशन के साथ उपाबंध की जाएगी और न्यायालय को प्रस्तुत की जाएगी।


    4    और पक्षकार जो कोई आक्षेप रिपोर्ट या रिपोर्टो पर करे न्यायालय उन्हे सुनने के पश्चात से या उन्हें पृष्ट करेगा उसमें या उनमें फेरफार  करेगा या उसे या उन्हे अपास्त करेगा ।


आदेश 26 नियम 14-उप नियम-3 के अनुसार


    1    जहां न्यायालय रिपोर्ट या रिपोर्टो को पुष्ट करता है ।
    2    या उसमें या उनमें फेरफार करता है ।
    3    वहां वह उसके पुष्ट या फेरफार किए गए रूप के अनुसार डिक्री पारित करेगा ।
    4    किन्तु जहां न्यायालय रिपोर्ट या रिपोर्टो को अपास्त कर देता है वहां वह या तो नया कमीशन निकालेगा


    5    या ऐसा अन्य आदेश करेगा जो वह ठीक सकझे ।


    इस प्रकार किसी भी विभाजन के बाद में दी गई  प्रारम्भिक डिक्री में घोषित अधिकारों के अनुसार विभाजन या पृथक्करण के लिए न्यायालय जिसे उचित समझे, आयुक्त नियुक्त कर सकेगा, जो नियम 14 के अनुसार कार्यवाही करेगा । उसकी रिपोर्ट में परिवर्तन या पुष्टि करने के बाद अंतिम डिक्री पारित की जावेगी।
 

     आयुक्त के प्रस्ताव उसी रूप में पक्षकारो पर बाध्य कर नही है। आदेश 26 नियम 10 तथा 12 के विपरीत नियम 14 में इसलिए इस बात पर जोर नहीं दिया गया है कि आयुक्त की रिपोर्ट वाद में स्वतः ही साक्ष्य के एक भाग का रूप बन जाएगी और इसी कारण नियम 14 न्यायालय को आयुक्त की रिपोर्ट को पुष्ट करने, बदलने या अपास्त करने और नया आयुक्त भी जारी करने की विशिष्ट शक्ति प्रदान करता है

न्यायालय का कर्तव्य और कार्य 


 ‘‘शुबकरन भुवना उर्फ शुबकरन विरूद्ध सीताशरण भुवना एवं अन्य 2009 पार्ट-9 एस.सी.सी. 689‘‘ मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है जिसमे माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया है कि

1-- एक बार यदि न्यायालय ने प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी तब यह न्यायालय का कर्तव्य है कि वह मामले को विभाजन के लिए कलेक्टर अथवा कमिश्नर के पास भेजना सुनिश्चित करे जब तक कि स्वयं पक्षकार ही विभाजन के लिए सहमत न हो जाए यह कर्तव्य न्यायालय द्वारा प्रारम्भिक डिक्री पारित करने के बाद लगातार क्रमबद्ध रूप से अपनाया जाना चाहिए


2-- कभी कभी या तो लम्बित प्रकरणों के कारण या अन्य परिस्थितियों मे न्यायालय द्वारा संहिता के आदेश 20 नियम 18-1 के तहत डिक्री अथवा आदेश 20 नियम 18-2 के तहत प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी जाती है और मामला एक तरफ रख दिया जाता है जब तक कि पक्षकार द्वारा उक्त संबंध में आवेदन प्रस्तुत कर न्यायालय का ध्यान इस ओर न दिला जाए कि मामले को कलेक्टर अथवा कमिश्नर के पास सम्पत्ति के वास्तविक विभाजन हेतु भेजा जाना है

 उक्त मामले मे ही माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा विभाजन संबंधी वादों हेतु निम्न सिद्धांत प्रतिपादित किये हैः-

        1-    सम्पदा से संबंधित ऐसे मामलों में जिनमें सरकार को राजस्व संदेय(कृषि भूमि) किया जाता है न्यायालय के लिए आवश्यक है कि  केवल एक डिक्री पारित करे जिसमें सम्पदा से संबंधित पक्षकारों के      अधिकार घोषित किये जाए और कलेक्टर को निदेशित किया जाए कि  वह उक्त डिक्री में वर्णित घोषित अंश के आधार पर संहिता की धारा             54 के अनुसार सम्पत्ति का वास्तविक विभाजन या पृथक्करण करे और 

                                       
  तत्पश्चात् पक्षकारों को उस अंश पर कब्जा प्रदान करें तत्पश्चात् जहाॅ  कलेक्टर द्वारा उक्त डिक्री के अनुसार कार्य सम्पादित किया जाता है   तब उक्त मामलान्यायालय मे वापिस नही आएगा एवं कलेक्टर द्वारा   किये जाने वाले विभाजन मेन्यायालय द्वारा हस्तक्षेप नही किया                                                              जाएगा   जब तक कि कोई तीसरा पक्ष विभाजन के संबंध मे कोई   शिकायत न करे। 


        2- अचल सम्पत्ति  (ऐसी कृषि भूमि से भिन्न जिसका राजस्व संदेय    है) जैसे कि निर्माण, प्लाॅट या चल सम्पत्ति के संबंध मे:-



        अ- जहाॅ कि न्यायालय सुविधा पूर्वक और बिना किसी जाॅच के बिना कमिश्नर की सहायता के विभाजन कर सकता है, या 


        जहाॅ पक्षकार समझौते पर स्वयं ही सहमत हो गये हो, तब उक्त स्थितियों में न्यायालय केवल एक डिक्री पारित करेगा जिसमें प्राथमिक   और अंतिम दोनो डिक्रियाॅ समाविष्ट होगी एवं प्राथमिक डिक्री  के रूप  मे पक्षकारों के अधिकारों की घोषणा की जाएगी और अंतिम डिक्री  के रूप में पक्षकारों के अंश का मीट्स एण्ड बाउन्डस के आधार पर  विभाजन किया जाएगा । 



        ब- जहाॅ कि, मीटस एण्ड बाउन्डस के  आधार पर विभाजन अतरिक्त    जाॅच के बिना नही किया जा सकता वहाॅ न्यायालय प्राथमिक       डिक्री पारित करेगा जिसमें पक्षकारों के अधिकारों में घोषणा की जावेगी और ऐसे अतिरिक्त निर्देश देगा जो कि ऐसे विभाजन को प्रभावशील बनाने के लिए आवश्यक है ऐसे वादों मे सामान्य रूप से एक कमिश्नर  (सामान्यतः इंजीनियर, नक्शा नवीस, आर्किटेक्ट या अधिवक्ता) की   नियुक्ति की जाती है जो कि भौतिक रूप से विभाजित की जाने  वाली सम्पत्ति का परीक्षण करता है और विभाजन किस तरीके से हो  सकता है इस पर अपनी रिपोर्ट देता है तब न्यायालय पक्षकारों को   कमिश्नर रिपोर्ट पर सुनता है और मीट्स एण्ड बाउन्डस विभाजन के       लिए अंतिम डिक्री पारित करता है।


        स. प्राथमिक डिक्री मे घोषित किये गये अधिकारों के आधार पर             विभाजन अथवा पृथक्करण करने का कार्य कमिश्नर मे निहित होता है         जिसमें सम्पत्ति का निरीक्षण करना और उपयोग एवं मौके की स्थिति         के आधार पर विभिन्न विकल्पों का परीक्षण करना शामिल होता है जब         कमिश्नर विभाजन के तरीके पर अपनी रिपोर्ट देता है तब रिपोर्ट मे             दिये गये विभाजन के प्रस्तावों पर न्यायालय विचार करता है और यदि         रिपोर्ट पर कोई आपत्ति आई है तो उन्हे सुनने के पश्चात् अंतिम डिक्री         पारित करता है जिसके द्वारा वाद में लिये गये अनुतोष के अनुसार             सम्पत्ति मीट्स एण्ड बाउन्डस के आधार पर विभाजित की जाती             है। यह भी संभव है कि सम्पत्ति उचित विभाजन योग्य न हो तब             न्यायालय सम्पत्ति के विक्रय का आदेश कर सकता है और प्राप्त धन         को घोषित किये गये अंश के आधार पर पक्षकारों के बीच वितरित कर         सकता है।


        द.अधिकारों अथवा अंश की घोषणा विभाजन के दावे की पहली स्टेज         होती है अतः प्राथमिक डिक्री पारित कर देने से वाद समाप्त नही हो             जाता वाद तब तक लम्बित रहता है तब तक मीट्स एण्ड बाउन्डस             आधार पर किये गये विभाजन की अंतिम डिक्री पारित न कर दी जाए।         न्यायालय के समक्ष यदि आवेदन प्रस्तुत कर अनुरोध किया जाता है             कि अंतिम डिक्री पारित करने के संबंध में प्रारम्भिक डिक्री के आधार             पर आवश्यक कदम उठाए जाए तब ऐसा आवेदन जिसके माध्यम से             न्यायालय से यह अनुरोध किया जाता है कि प्राथमिक डिक्री के आधार         पर विभाजन हेतु अंतिम डिक्री पारित करने हेतु आवश्यक कदम             उठाए जाए, न तो निष्पादन के लिए आवेदन है और न ही नया             अनुतोष चाहने बावत् आवेदन है ऐसा आवेदन केवल एक स्मरण पत्र             की तरह माना जाएगा जो कि न्यायालय को यह स्मरण दिलाएगा कि         वह अपने कर्तव्य अनुसार कमिश्नर नियुक्त करे, रिपोर्ट प्राप्त करे और         तत्पश्चात् लम्बित वाद में अंतिम डिक्री पारित करे ताकि वाद का             उचित रूप से समापन किया जा सके।

        न्याय दृष्टांत शुबकरन (पूर्व वर्णित) मे ही यह विधि प्रतिपादित की है कि यदि प्राथमिक डिक्री पारित करने के बाद अंतिम डिक्री पारित करने हेतु न्यायालय में कोई आवेदन दिया जाता है तो वह केवल एक स्मरण पत्र है और चूंकि वाद अंतिम डिक्री पारित होने तक लम्बित रहता है इसलिए ऐसे आवेदन के लिए परिसीमा अवधि की बाधा नही जाएगी। 




        इस प्रकार उक्त वर्णित विधि से यह स्पष्ट हो जाता है कि संहिता के आदेश 20 नियम 18 उपनियम 2 की स्थिति होने पर प्रारम्भिक आज्ञप्ति पारित की जाएगी यदि विभाजन हेतु अतिरिक्त जाॅच की आवश्कता है तो आदेश 26 नियम 13 के अनुसार कमिश्नर नियुक्त किया जाएगा और कमिश्नर रिपोर्ट के आधार पर मीट्स एण्ड बाउन्डस विभाजन की अंतिम डिक्री पारित की जाएगी


 यदि अतिरिक्त जाॅच की आवश्यकता नही होती है तब केवल एक डिक्री पारित की जाएगी जिसमे प्रारम्भिक एवं अंतिम दोनो डिक्रियाॅ समाविष्ट होगी एवं प्रारम्भिक डिक्री के रूप मे पक्षकारों के अंश की घोषणा की जावेगी एवं अंतिम डिक्री के रूप मे मीट्स एण्ड बाउन्डस विभाजन की डिक्री पारित की जाएगी।


        नियम 18-1 के तहत केवल एक डिक्री पारित की जाएगी जो पक्षकारों के अधिकार की घोषणा करेगी और कलेक्टर को निर्देश देगी कि सहिता की धारा 54 के अनुसार सम्पदा का विधिवत बटवारा करे और फिर ऐसा मामला न्यायालय के समक्ष नही रखा जाएगा और न ही न्यायालय कलेक्टर के कार्य मे कोई हस्तक्षेप करेगा। हस्तक्षेप न करने के संबंध में न्याय दृष्टांत ‘‘लच्छी राम जसराम विरूद्ध नानवा धानाजी एआईआर 1946 नागपुर 353‘‘ एवं ‘‘धर्मसिंह विरूद्ध देवसिंह सीताराम एआईआर 1950 नागपुर 102‘‘ मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है।
      
        यदि कलेक्टर द्वारा धारा 54 के तहत की जाने वाले विभाजन पर कोई आपत्ति है तो उक्त संबंध मे संबंधित राजस्व अधिकारी के समक्ष कलेक्टर के आदेश की अपील की जा सकती है या फिर न्यायालय के समक्ष सिविल वाद प्रस्तुत किया जा सकता है, धारा 47 सिप्रसं के तहत आपत्ति सुनवाई योग्य नही होगी क्योंकि डिक्री का निष्पादन करने वाली न्यायालय डिक्री पारित करने वाला न्यायालय नही होता उक्त संबंध में न्याय दृष्टांत ‘‘प्रकाश नाथयावा घोषले विरूद्ध लक्ष्मण गनावा घोषले एआईआर 2003 बाम्बे 41 मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है 



        इस स्तर पर न्याय दृष्टांत ‘‘बिमल कुमार एवं अन्य विरूद्ध शकुन्तला देवी एवं अन्य एआईआर 2012 एससी 1586 मे प्रतिपादित विधि अवलोकनीय है जिसमें माननीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा यह विधि प्रतिपादित की गयी है कि विभाजन डिक्री चाहे वह प्रारम्भिक हो या अंतिम यदि समझौतों की शर्तो के अनुसार पारित की गई है और यह स्पष्ट रूप से दर्शाती है कि पक्षकार घोषित अंश के अनुसार दी गयी सम्पत्ति पर पृथक एवं पूर्ण रूप से कब्जे में है, तो वह अंतिम डिक्री होगी ।


 न्याय दृष्टांत शुबकरन (पूर्व वर्णित) मे भी इसी आशय का मत दिया गया है कि जहाॅ पक्षकार समझौते पर स्वयं ही सहमत हो गये है उक्त स्थिति मे केवल एक डिक्री पारित होगी।


        यह ध्यान रखे जाने योग्य है यदि किसी कारण नियम 18-2 के तहत कोई प्रारम्भिक डिक्री पारित कर दी गई है तब उस पर कार्यवाही करते हुए आदेश 26 नियम 13 एवं नियम 14 के अनुसार कमीशनर रिपोर्ट के पश्चात अंतिम डिक्री पारित की जानी चाहिए यदि प्रारम्भिक डिक्री के निष्पादन हेतु कोई आवेदन लम्बित है या पेश किया जाता है तो वह केवल न्यायालय के लिए एक स्मरण पत्र के रूप मे माना जाएगा, क्योंकि अंतिम डिक्री पारित होने तक वाद लम्बित रहता है और ऐसी स्थिति में प्रारम्भिक डिक्री निष्पादन योग्य नही होती अपितु अंतिम डिक्री निष्पादन हेतु योग्य होती है



 इस संबंध मे म0प्र0सिविल न्यायालय नियम 1961 नियम 171 भी अवलोकनीय है जिसके अनुसार जिन वादों में अंतिम निर्णय के पश्चात प्रारम्भिक डिक्री बनती है तब ऐसी अंतिम आज्ञप्ति अंतिम निर्णय के निर्देशों के अनुसार बनाई जायेगी, क्योंकि अंतिम डिक्री वाद के पूर्ण निराकरण तथा पक्षकारों के स्वत्वों से अंतिम रूप से निर्धारित करने का न्याय निर्णय है अतः वह अपने स्वयं मे पूर्ण एवं संपूर्ण होना चाहिए ताकि प्रारम्भिक डिक्री के संदर्भ के बिना वह समझे जाने और निष्पादन योग्य हो जावे।

1-.    यदि किसी पक्षकार के अधिकार और हिस्से की बावत प्रारंभिक             डिक्री     में घोषणा नहीं की जाती हे तो ऐसी दशा में आयुक्त वादगत         सम्पत्ति में     से ऐेसे पक्षकार के हिस्से का विभाजन या पृथक् रूप         से आवंटन करने के     लिए तब तक सक्षम नहीं होगा जब तक कि         अपील या पुनर्विलोकन में     प्रारंभिक डिक्री में उस आशय का             विनिर्दिष्ट रूप से उपान्तरण ना कर दिया     गया हो ।


2-     यदि पक्षकारो के अंशो को     घोषित करते हुये प्रारभिक डिक्री पारित         की गई । विभाजन आयुक्त को     उक्त संपति कापक्षकारों के वीच         करार के आधार पर विभाजन बंटवारा करने के लिये आवश्यक             कदम उठाने के लिये कहा गया। ऐसे करार पर     ध्यान दिये बिना         आयुक्त की  रिपोर्ट  शून्य व अकृत है,


3-    विभाजन आयुक्त   न्यायालय की इच्छाओं के विपरीत रिपोर्ट प्रस्तुत         करता है तो ऐसी रिपोर्ट पर  अंतिम डिक्री पारित नहीं कि जा             सकती।


अंतिम डिक्री पारित करनेके पूर्व न्यायालय का यह कर्तव्य है कि वह देखेकि-


1-    जब तक पक्षकारो के स्थल पर अधिकारो का अवधारण निर्णय करने         वाली     डिक्री     पारित नहीं हो जाती और वह स्टांप पेपर पर नहीं         बन जाती तब तक कोई निष्पादन योग्य डिक्री अस्तित्व में नहीं             आती ।           
2-    बिना स्टांप पेपर के अंतिम     डिक्री नहीं बन सकती ।


3- उपरोक्त दोनों शर्ते पुरी होने पर आदेश 20 उपनियम 18 के अर्तंगत         अंतिम  डिग्री पारित होती है।


4- परिसीमा अंतिम डिक्री स्टांप पेपर पर बल जाने के बाद ही प्रारंभ             होती है ।


          मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा ए0आई0आर0  सु0को0 1211 श्ंाकर बलवंत लोखण्डे मृतक विरूद्ध एल0आर0 एस0चन्द्रकांन्त शंकर लोखण्डे व अन्य  में अभिनिर्धारित किया है कि यही दोनो कार्य एक         अंतिम डिक्री का गठन करते हैं ।


5-    यदि विभाजन के बाद में इच्छापत्र के अधीन सम्पत्ति का व्ययन         किया जाता है तो इच्छा पत्र के वैधता की जांच उसी न्यायालय         द्वारा की जाएगी 



6-    जहां कृषि भूमि का अन्य सम्पत्तियों के विभाजन के लिए वाद लाया         जाता है, वहां डिक्री को तब तक प्रारंभिक डिक्री समझी जाएगी,         जब तक कि उस कृषि भूमि का विभाजन करके कब्जा न दे दिया         जाये ।
 

    7-    जब एक बार प्रारंभिक डिक्री पारित कर दी गई, तो न्यायालय उस         वाद को व्यतिक्रम के कारण खारिज नहीं कर सकता।

    8-    यदि वादी प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद कोई कदम नहीं             उठाता है तो न्यायालय अनिश्चितकाल के लिए कार्यवाही को             स्थगित कर     सकता है और संबंधित पक्षकारों को यह छूट दे             सकता है कि वे उचित कार्यवाही कर उस वाद को सक्रिय करें ।


    9-    विभाजन वाद में प्रारंभिक डिक्री द्वारा निर्णीत बातों पर पक्षकारों को         विबन्ध का सिद्धांत लागू होगा और वे किसी दूसरे वाद में उन             बिन्दुओं को     पूर्व न्याय के सिद्धांत से वर्जित होने के कारण नही         उठा सकेंगे ।


    10-    सम्पत्ति में वादी को उसके अंश भाग का कब्जा देने के लिए             भुगतान करने की शर्त प्रांम्भिक डिक्री में दी गई थी । अतः जब         तक सम्पत्ति के विभाजन की अंतिम डिक्री पारित नहीं हो जाती,         इस शर्त के अनुसार     प्रारंम्भिक डिक्री का निष्पादन नहीं हो सकता


    11-    प्रारंम्भिक डिक्री की शर्त के अनुसार अंतिम डिक्री पारित करने के         लिए देरी से किया गया आवेदन वर्जित नहीं है ।


    12-    एक विभाजन वाद में पक्षकारो के अंशों का निर्धारण उस दिनांक         को किया जावेगा, जिस दिनांक को प्रारंम्भिक डिक्री पारित की गई         है ।


    13-    यदि उस दिनांक को एक सहदायिकी का आधा अंश एक नीलाम         क्रेत द्वारा खरीद लिया गया तो वह नीलाम क्रेता उस आधे अंश के         लिए     डिक्री अपने पक्ष में करवाने का हकदार होगा ।

    14-.    विभाजन वाद में अंतिम डिक्री प्रारंभिक डिक्री में संशोधन नहीं कर         सकती और न उसकी पृष्ठभूमि में जा सकती है , जो मामले उस         प्रारंभिक डिक्री में तय किये जा चुके है उन पर पुनः विचार नहीं         किया जा सकता ।
    यह सिद्वांत ए0आई0आर0 1977 सु0को0 292 एम0अययना बनाम         एम0जुग्गारा में अभिनिर्धारित किया गया है।


    15-    यदि .विभाजन वाद में प्रारंम्भिक डिक्री अंतः कालीन लाभों के बारे में         शांत     है, फिर भी अंतिम डिक्री तैयार करते समय अन्तः कालीन         लाभो के बारे में निर्देश दिया जा सकता है यद्यपि वाद पत्र में             इसके लिए कोई प्रार्थना ना की गई हो।


    16-    .सम्पत्ति के अंग भागीदारो की अपनी सम्पत्ति है और वे उन अंशों         को वादी के पक्ष में अभ्यर्पित कर सकते है । अतः जहां एक वाद में         भागीदारो ने अपने अंशों का अभ्यर्पण कर दिया तो न्यायालय को         विभाजन वाद के विचारण में उसे प्रभावशील करना होगा । यह             सिद्वंात ए0आई0आर0 1977 सु0को02027 अनार कुमारी बनाम जमुना         प्रसाद में अभिनिर्धारित किया गया है।


     17-    .वादी एक हिन्दू संयुक्त कुटुम्ब के सदस्य के रूप में प्रतिवादियों    द्वारा     प्राप्त किये गये लाभों के बारे मंे जांच करने के लिए अंतिम         डिक्री की तैयारी के प्रक्रम पर पर आवेदन करने के लिए हकदार         होगा, क्योंकि विभाजन के लिए प्रत्येक वाद उसके संस्थित करने के         दिनांक को लेखे के लिए वाद भी होता है ।
 

   18-.    ऐसी जांच की मांग करना पक्षकारो के बीच समस्याआंे के समाधान         के लिए आवश्यक है । अतः यह न्यायालय के विवेकाधिकार के             भीतर है कि प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों के आधार पर         ऐसी प्रार्थना की अनुमति दे ।

    19-    विभाजन वाद में पारित की गई अंतिम डिक्री का निष्पादन होगा ।         समझौता कर लेने से पक्षकार अंतिम डिक्री के निष्पादन से और         सम्पत्ति पर कब्जे के परिदान से वंचित नहीं हो जाते ।


     20-    .प्रारंभिक डिक्री पारित करने के बाद अपील का केवल लंबित             रहना विचारण न्यायालय को पक्षकारों के पक्षान्तरण तथा व्यक्तिगत         अंशों के निर्धारण करने के लिए आवेदन ग्रहण करने के लिए कोई         बाधा नहीं करेगा।


      21-    .आवेदन परिसीमा अधिनियम के किसी उपंबध से शासित             नहीं होता । ऐसा आवेदन  लंबित वाद मंे एक आवेदन के रूप             में जाना जाएगा इसलिए, परिसीमा का कोई प्रावधान  लागू नहीं         होगा।


     22-     यदि संयुक्त परिवार की संपति में दो भाईयों का बराबर हिस्सा है         और विभाजन इस शर्त पर होगा कि इस बंधक का मोचन करवाया         जावेगा ।अतः पहले     प्रारंभिक डिक्री दो हिस्सो के विभाजन की             होगी और अंतिम डिक्री पारित करने से पहले वाला ऋृण चुका कर         बन्धक का मोचन करवा सकेगा।

    23-    यदि परिवार की संपतियों के विभाजन के समय अवयस्क रहे सदस्य         ने वयस्क होने पर विभाजन के लिये और अपने हिस्से की संपति         का अलग से     कब्जा दिलाने के लिये वाद किया, परन्तु आवश्यक         न्यायालय फीस देकर विभाजन प्रलेख को रद्द करवाने की प्राथर््ाना         नहीं की ऐसी     स्थिति में विभाजन प्रलेख को अभिखडिंत नहीं किया         जा सकता ।


    24-     विभाजन के बाद का किरायेदार पर कोई प्रभाव नहीं पडता है यदि         वाद में किरायेदार को भी पक्षकार बनाया जाए     परन्तु विभाजन         डिक्री     पारित करने के बाद भी किरायेदार के कब्जे में हस्तक्षेप नहीं         किया जा सकता । इसके लिये किराया नियेत्रण विधि के अधीन         बेदखली की     कार्यवाही फाइल करनी होगी ।


    25-     यदि यह साबित नहीं किया गया कि अवयस्क की संपत्ति             उसके कल्याणके लिये या संयुक्त कुटुम्ब की विधिक आवश्यक्ता के         लिये     निधि फण्ड बनाने के लिये काम में ली गई । ऐसी स्थिति में         अवयस्क वादियों की और से उनकी माता द्वारा फाइल किया गया         विभाजन वाद     संधारणीय है ।


    26-    यदि संयुक्त     परिवार की     संपत्ति का कुछ भाग अनुसूचि में             शामिल नहीं किया गया ऐसा वाद खारिज किये जाने योग्य है।


        इस प्रकार प्रारभिंक डिक्री से अंतिम डिक्री पारित होने के मध्य सहिंता के आदेश 20 नियम 18 आदेश 26 नियम 13, 14 और धारा 54 के प्रावधानो के अनुसार कार्यवाही की जाती है।
                                उमेश कुमार गुप्ता
                              





       

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

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