खुली अथवा अचानक लडाई धारा-34 और 149

               खुली अथवा अचानक लडाई



                                                             अभिनिर्धारित सिंद्धांतो के अनुसार अचानक


 पारस्पिरिक लडाई के मामले में भा00विकी 


धारा-34 

 और 149  दोनो लागू नहीं होती है । सभी व्यक्त 




 अपने अपने द्वारा किए गये कार्य के लिए 


उत्तरदायी ठहराये जाते हैं । उपस्थित हो जाने मात्र से 



सामान्य आशय का गठन नहीं होता है । इसके


 लिए पूर्व नियोजन आवश्यक है । मात्र अपराध के 




समय एक साथ रहने से यदि व्यक्ति अचानक कोई


 घटना कर बैठे तो व्यक्ति को 34, 149 में


 दोषी नही ठहराया जा सकता । इसके लिए




 उसका पूर्व नियोजित होना आवश्यक है ।






 


सामान्य उददेश्य का अभिनिर्धारण के लिए निम्नलिखित बातो को 

 देखा जाएगा-


1. समूह की प्रकृति

 
2. घटना स्थल पर ले जाये जाने वाले हथियार 

 
3. आरोपीगण का घटना के पूर्व व पश्चात का व्यवहार,


4. सदस्यों के कृत्य

 
5. सदस्यों द्वारा मौके पर ग्राहय आचरण 

 


एक समूह जो प्रारंभ में विधिपूर्ण था बाद में अविधिपूर्ण हो सकता

 है और मौके पर भी सामान्य आशय तथा उददेश्य का गठन किया जा सकता है । 

 
यदि अचानक लडाई में घटना हुई हो तो अन्य अभियुक्तगण यदि 


मौके पर उपस्थित नहीं है तो विधि विरूद्ध जमाव का गठन 

प्रमाणित नहीं माना जा सकता । यदि आहत को चोट पहंुचाने के

 सबंध में मस्तिष्को के मिलने बावत तर्कपूर्ण साक्ष्य का अभाव है तो


 धारा-149 में दोष सिद्धि नही की जा सकती । 

 
अचानक लडाई में एक दूसरे को प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार 

किये जाते है । लडाई के लिए 

कोई पूर्व विचार विमर्श या चिन्तन आवश्यक नहीं होते हैं । लडाई 


अचानक होती है जिसके लिए 

दोनो पक्ष दोषी होते है 
 
सामान्य उददेश्य पूर्व मिलन की अपेक्षा नहीं करता इसके लिए 


जरूरी है कि 5 या 5 से अधिक 

सदस्य सामान्य उददेश्य बनाये और उस उददेश्य को हासिल 


करने उस समूह में स्वयं कृत्य करें 

यहां समूह का कृत्य ही सबको बराबर का उत्तरदायी बनाता है । 


इसकी प्रत्यक्ष साक्ष्य उपलब्ध नहीं 

होती है । इसे आरोपीगण के कृत्य, आचरण सुसंगत परिस्थितियों 


के आधार पर देखा जाता है ।

 इसमें आरोपीगण के 

कृत्य पहंुचाई गई क्षतियां प्रयुक्त हथियार, कार्य की प्रकृति और


 आरोपीगण का आचरण मुख्य 

तथ्य है। इसके लिए समूह की प्रकृति, समूह के सदस्यों द्वारा ले

 जाए जाने वाले हथियार, घटना के


 समय अथवा घटना के नजदीक सदस्यों का व्यवहार देखा जाना

 चाहिए। 

 
अचानक लडाई के मामले में धारा-300 के भाग-4 के अंतर्गत 


मामला प्रमाणित माना जाता है । इस संबंध में यह सुस्थापित


 विधि है कि भा..सं. की धारा-300 के स्पष्टीकरण 4 को लागू

 किये जाने के लिए आवश्यक है कि आरोपी यह साबित करे कि 

जो लडाई हुई है 


वह-

- पूर्व चिंतन के बिना,



- अकस्मात लडाई में,



- अपराधी द्वारा अनुचित लाभ प्राप्त किये बिना 


या कू्रर या अप्रायिक रीति में कार्य किये 


बिना 



और,



- मारे गये व्यक्ति के साथ लडाई होनी चाहिए ।





लडाई दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य आयुधो के



 साथ या बिना मुठ भेड होती है। यह संभव नहीं 



है




 कि इस बारे में कोई सामान्य नियम प्रतिपादित 




किया जाये कि अकस्मात झगडा किसको माना 


जाये । यह तथ्य का प्रश्न है और यह बात कि



 कोई झगडा अकस्मात हुआ या नहीं, आवश्यक


 रूप 



 से 



प्रत्येक मामले के साबित तथ्यों पर निर्भर होगा ।



अपवाद 4 को लागू करने के लिए यह दर्शित किया जाना पर्याप्त 


नहीं है कि अकस्मात झगडा हुआ


 था और उसके लिए पूर्व चिंतन नहीं किया गया था । यह भी 



दर्शित किया जाना चाहिए कि 

अपराधी ने अनुचित लाभ नहीं लिया या उसने कू्रर या 


अप्रायिक रीति में कार्य नहीं किया । 

अभिव्यक्ति अनुचित लाभ जैसा कि उपंबध में प्रयुक्त किया गया है


 का अर्थ है अऋजू लाभ । उपरोक्त 

सिद्धांत मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय द्वारा गलीवेंकटयया बनाम आंध्र


 प्रदेश राज्य 2008 भाग-6 

 .सी.सी. 370 मंे प्रतिपादित किया है।



इस मामले में मान्नीय न्यायालय द्वारा यह भी अभिनिर्धारित किया 

है कि दंड संहिता की धारा-300 

 का चैथा अपवाद अकस्मात हाथापाई में किये गये कार्यो को 


आच्छादित करता है। यह अपवाद इसी 

सिद्धांत पर आधारित है कि दोनो में ही पूर्वचिंतन का अभाव है ।

जबकि अपवाद 1 के मामले में आत्म नियंत्रण का पूर्ण अभाव है

 और स्पष्टीकरण 4 के मामले में केवल 

आवेश की तीव्रता का उल्लेख है जो व्यक्तियों के सौम्य संतुलन को

 प्रभावित करती है और उनको 

उन कार्यो को करने के लिए प्रेरित करती है । जिन्हें वे अन्यथा 

नहीं करेंगे । अपवाद 4 में प्रकोपन 

को उपबंधित किया गया है ।जैसा कि अपवाद 1 में है किन्तु 

कारित क्षति उस प्रकोपन का प्रत्यक्ष 

परिणाम नही है ।

वास्तव में अपवाद 4 के अधीन ऐसे मामलो पर विचार किया गया 

है जिनमें इस बात के होते हुए भी

 कि प्रहार किया गया है या विवाद के उदगम में कुछ प्रकोपन 


दिया 

गया है या किसी भी रीति में 

झगडे से उत्पन्न हुआ है तथापि दोनो पक्षों का पश्चातवर्ती आचरण

 उनके अपराध के संबंध में समान


 आधार पर रख देता है । अकस्मात लडाई में एक दूसरे को 


प्रकोपन और दोनो ओर से प्रहार


 विवक्षित है । तब कारित मानववध स्पष्टतः एक पक्षीय प्रकोपन के


 अंतर्गत नहीं आता है और न ही 

ऐसे मामलो में सम्पूर्ण दोष किसी एक पक्ष पर डाला जा सकता है 


। ऐसा होता हो जो अपवाद 



अधिक उपयुक्त रूप से लागू होगा वह अपवाद 1 है । लडाई के

 लिए कोई पूर्व विचार विमर्श या 

अवधारण नहीं होता है लडाई अचानक होती है जिसके लिए लगभग


दोनो ही पक्ष दोषी होते हैं । 


अचानक लडाई के मामले में जब परस्पर प्रकोपन का मामला हो

 यह निष्कर्ष निकालना कठिन है कि 


दोनो पक्षों में कौन ज्यादा जिम्मेदार है तो धारा 304 के अपवाद


 में मामला माना जायेगा । महेश 

विरूद्ध एम.पी.राज्य ए.आई.आर. 1996 सु.को. 3315 इसी प्रकार पूर्व


 चिंतन पूर्व रंजिश के अभाव में 

यदि क्षति पहंुचाई जाती है तो प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में


 मृत्यु कारित करने के लिए पर्याप्त 

नहीं है और चिकित्सीय सहायता द्वारा अभियुक्त को बचाया जा


 सकता था तो यह कार्य आपराधिक 

मानव वध माना जायेगा । 


 
धारा-149 एक विनिर्दिष्ट अपराध सृजित करती है और उस अपराध 


हेतु दण्ड व्यवहत करती है । जब

 कभी न्यायलाय किसी व्यक्ति या व्यक्तियों को धारा-149 की



 सहायता से अपराध हेतु दोषसिद्ध 


करती है । जमाव के सामान्य उददेश्य के संबंध में स्पष्ट निष्कर्ष

 दिया जाना चाहिए एंव चर्चा किया 


गया साक्ष्य न केवल सामान्य उददेश्य की प्रकृति दर्शाना चाहिए ।



 बल्कि यह भी कि उददेश्य विधि 


विरूद्ध था । भा..सं. की धारा-149 के तहत दोषसिद्धि अभिलिखित



 करने के पूर्व, भा..सं. की 


धारा-141 के आवश्यक संघटक स्थापित किये जाने चाहिए ।


141 विधिविरूद्ध जमाव- पांच याअधिक व्यक्तियों का जमाव 


विधिविरूद्ध जमाव कहा जाता है यदि उन

 व्यक्तियों का जिनसे वह जमाव गठित हुआ है, सामान्य उददेश्य



 हो-


पहला- केन्द्रीय सरकार को या किसी राज्य सरकार को संसद को 

या किसी राज्य के विधान मंडल

 को या किसी लोक सेवक को जब कि वह ऐसे लोक सेवक की 



विधिपूर्ण शक्ति का प्रयोग कर रहा 

हो, आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा

 आतंकित करना अथवा

दूसरा- किसी विधि के या किसी वैध आदेशिका के निष्पादन का 

प्रतिशेध करना अथवा

तीसरा- किसी रिष्टि या आपराधिक अतिचार या अन्य अपराध का 


रना अथवा

चैथा- किसी व्यक्ति पर आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के


 प्रदर्शन द्वारा किसी सम्पत्ति का 

कब्जा लेना या अभिप्राप्त करना या किसी व्यक्ति को किसी मार्ग के


 अधिकार के उपभोग से या जल 

का उपभोग करने के अधिकार या अन्य अमूर्त अधिकार से जिसका


 वह कब्जा रखता हो, या उपभोग

 करता हो, वंचित करना या किसी अधिकार या अनुमति अधिकार



 को प्रवर्तित करना अथवा

पांचवा- आपराधिक बल द्वारा या आपराधिक बल के प्रदर्शन द्वारा 


किसी व्यक्ति को वह करने के लिए

 जिसे करने के लिए वह वैध रूप से आबद्ध न हो या उसका लोप



 करने के लिए जिसे करने का वह 

वैध रूप से हकदार हो विवश करना ।

स्पष्टीकरण- कोई जमाव जो इकट्ठा होते समय विधि विरूद्ध नहीं था


 बाद को विधि विरूद्ध जमाव हो 


सकेगा ।

धारा-149 आकर्षित करने के अनुसरण में, यह देखा जाना चाहिए 




कि फंसाने वाला कृत्य विधि 



विरूद्ध जमाव के सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए किया 

या 

था और यह अन्य सदस्यों के 

ज्ञान में होना चाहिए यथा सामान्य उददेश्य को पूर्ण करने के लिए 



किया गया था और यह अन्य 

सदस्यों के ज्ञान में होना चाहिए । यथा सामान्य उददेश्य के 


अग्रसरण में कारित किया होना चाहिए । 

यदि जमाव के सदस्य जानते या सामान्य उददेश्य के अग्रसरण में



 कारित होते हुए विशिष्ट अपराध 

की सम्भावना से अवगत थे, वे भा.दं.सं. की धारा-149 के तहत


 इसके लिए उत्तरदायी होगे ।

धारा-149 भा... के प्रमाणन के लिए दो बाते साबित की जाना 


आवश्यक है ।

पहला- किसी विधि विरूद्ध जमाव के किसी सदस्य के द्वारा अपराध

 किया जाना चाहिए।


दूसरा- उस अपराध को उस समूह के सामान्य उददेश्य की


 अग्रसरता में होना चाहिए अथवा इस 

प्रकार होना चाहिए कि उस समूह के सभी सदस्य यह जानते थे 


कि यह कारित होना प्रतीत होता 


था।

सामान्य उददेश्य के अपराध के गठन के लिए आवश्यक है कि 



उसके सदस्यों द्वारा उसमें कोई भाग



 लिया गया है । मात्र उपस्थिति से इसकी उपधारणा नहीं की जा 


सकती है । यदि सदस्य को 

सामान्य उददेश्य की जानकारी नहीं है तो अपराध घटित नहीं हो 


सकता है । अतः विधि के 


सुस्थापित सिद्धांतो के अनुसार अचानक लडाई के मामले में 


पक्षकार एक दूसरे को प्रकोपन देते है 


और दोनो ओर से प्रहार किये जाते हैं । लडाई के लिए कोई पूर्व


 विचार विमर्श या चिन्तन का 


अभाव रहता है । लडाई अचानक होती है इसके लिए दोनो पक्ष 


दोषी होते हैं । अचानक पारस्पिरिक


 लडाई के मामले में भा00वि0 की धारा-34 और 149 दोनो लागू




 नहीं होती है ।


भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर विधिक प्रतिपादनाएं

भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर            विधिक प्रतिपादनाएं

    क-    भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के उपबंधों को लागू करने के लिए लोक सेवक को स्वयं के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या धनीय फायदे को-
    1    भ्रष्ट या विधिविरूद्ध साधनो द्वारा या
    2    लोक सेवक के रूप में अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग या
    3    किसी लोक हित के बिना अभिप्राय करना ।

         आर0साई भारतीय बनाम जे जयालालीथा, 2004    भाग-2 एस0सी0सी0 9 वाला मामला।

    ख-    लोक सेवक द्वारा अवचार आवश्यकतः अपने पदीय कर्तव्य के संबंध में किया जाना आवश्यक नहीं है । अतः यह आवश्यक नहीं हे कि लोक सेवक रिश्वत देने वाले को उसके द्वारा किए गए वदे के अनुसार शासकीय पक्षपात दर्शाने के योग्य है ।
         धनेश्वर नारायण सक्सेना बनाम दिल्ली प्रशासन ए0आई0आर0 1962 एस0सी0 195 सीबी और
         जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 वाला मामला ।

    ग-    प्रत्येक अवैध परितोषण की स्वीकृति चाहे मांग के पूर्ववर्ती य नहीं धारा 7 के अधीन आएगी । किन्तु यदि अवैध की स्वीकृति लोक सेवक द्वारा मांग के अनुसरण में है तो यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के अधीन भी आएगी ।
        राज्य बनाम ए0प्रतिबन 2006 भाग-11 एस0सी0सी0 473
         बालीराम बनाम महाराष्ट्र राज्य 2008 भाग-14 एस0सी0सी0 779।

    घ-    एक बार यदि अभियोजन यह साबित करता है कि नकद या किसी वस्तु के रूप में परितोषण लोक सेवक को दिया गया है या उसके द्वारा स्वीकार किया गया है तो न्यायालय धारण 7 के अधीन विधिक विवाधक के अधीन यह उपधारणा करने के लिए सशक्त है कि उक्त परितोषण किसी पदीय कार्य को करने या करने से प्रवर्तित रहने के लिए हेतुक या परितोषक के रूप में संदत्त या स्वीकार किया गया था ।
        मधुकर भास्कर राव जोशी बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0 147 ।

    ड-    एक बार यह साबित हो जाता है कि अभियुक्त ने किसी ओर के बिना दूषित धन स्वीकार किया था तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हेै कि उसने धारा-13-1-घ के अर्थान्तर्गत मांग के अनुसरण में दूषित धन अभिप्राप्त किया । 

   एम0डब्ल्यू0 मुहीद्दीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0  567   जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।

    च-    जब यह साबित हो जाता है कि कोई रकम लोक सेवक को अंतरित की गई है तो यह साबित करने का भार लोक सेवक पर है कि यह अवैध परितोषण के माध्यम से नहीं किया गया था।   
         बी0 नोहा बनाम केरल राज्य 2006 भाग-12 एस0.सी0सी0277।

    छ-    जब एक बार दूषित धन अभियुक्त लोक सेवक के कब्जे में आ जाता है तो या केवल निष्कर्ष निकाला जा सकता है उसने इसे स्वीकार किया और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के साथ पठित धारा-7 के अर्थान्तर्गत धनीय फायदा अभिप्राप्त किया 
      एम0डब्ल्यू0मोहीददीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567।
   
    ज    जहां  अभियेाजन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और धारा-13-1 घ के साथ पठित धारा-13-2 के अधीन दण्डनीय अपराध के संबंध में है । वहां यह तर्क कि उपधारणा नहीं निकाली जा सकती यदि धारा-13-2 के साथ पठित धारा-13-1घ के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरोप धारा-7 के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरेाप धारा-7 के अधीन भी है ।
        राज्य द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो हैदराबाद बनाम जी0प्रेम राज 2010 भाग-1 एस0सी0सी0 398 ।

    झ    यदि कानूनी उपधारणा अनुपयुक्त है क्योंकि आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा-5-1घ के अधीन है तो न्यायालय स्थितियां स्वयं बोलती है, के सिद्धांत को लागू कर सकता है । यदि लोक सेवक परिवादी से अभिप्राप्त चिन्हित करेंसी नोटो के साथ रंगे हाथ पकडा गया है ।
        रघुवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य 1974 भाग 4 एस0सी0सी0 56
        ए0आई0आर0 1974 एस0सी0 1516,
        राज्य ए0पी0बनाम जीवरतनम 2004 भाग 6 एस0सी0सी0 488।

    ञ - जब यह साबित हो जाता है कि धन की स्वीकृति स्वेच्छया और सोच समझकर की गई थी तो धारा 7 के साथ पठित धारा 13 एक घ के अधीन आरोप में अभियोजन को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा मांग या हेतुक साबित करने का अतिरिक्त भार नहीं डाला जा सकता ।
         ( बी. नोहा बनाम केरल राज्य, 2006 (12) एस.सी.सी. 277 ) ।
   
    ट - महाराष्ट्र राज्य बनाम रसीद बी. मुलानी, 2006 एक एस.सी.सी. 407 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसकी परीक्षा के दौरान विलंब से न कि अन्वेषक अधिकारी को तत्काल अभियुक्त द्वारा दिया गया रिश्वत धन प्राप्त करने के लिए स्पष्टीकरण स्वीकार नहीं किया।

    ठ - धारा 13 (1) घ के साथ पठित धारा 13 (2) के अधीन किसी भी समय अभियुक्त की यह दलील कि रिश्वत धन बलपूर्वक उसके हाथ में दिया गया था, 313 के अधीन परीक्षा के दौरान पहली बार उठाई गई दलील सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं की गई ।
      राज्य ए.पी. बनाम पी. सत्यनारायण मुरतय, 2009 (9) एस.सी.सी. 674 ) ।
   
    ड - लोक सेवक की ओर से तत्काल स्पष्टीकरण देने की सफलता पर जब पुलिस अधिकारी ने साक्षियों की उपस्थिति में यह घोषित किया कि अभियुक्त लोक सेवक ने परिवादी से रिश्वत धन ग्रहण किया, अभियोजन मामले के समर्थन में परिस्थिति के रूप िमें विचार नहीं किया जा सकता ।
     सुल्ताना अहमद बनाम बिहार राज्य, 1947 चार एस.सी.सी. 252
    जोसफ जेम्स बनाम केरल राज्य, 2010 (1) के.एल.डी. 581)

    ढ-    लोक सेवक का सामान्य और अनैच्छिक प्रक्रिया जब करेंसी नोट उसे सौंपे जाने का प्रयास किया गया घोर विरोध के पश्चात ऐसे व्यक्ति को जिसने उसे रिश्वत देने का प्रयास किया जोरदार डांट डपट किया गयाथा यदिजाल के दौरान मामले में ऐसी केाई बात घटित नहीं हुई तो यह ऐसा परिस्थिति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।


        ए0 शशिधरन बनाम केरल राज्य 2007 भाग-2 के0एल0डी0 600
        जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।

                               सामान्य आशय के अग्रसरण में ऐसा करने के लिए और अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग करते हुए रिश्वत की मांग की ओर स्वीकार किया और तदद्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और 13-2 के साथ पठित धारा-13-1-घ तथा भारतीय दंण्ड संहिता की धारा-34 के अधीन दण्डनीय अपराध किया गया माना जाता है ।

पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881 में दिये विशेष प्रावधान

      पराक्रम्य लिखत अधिनियम 1881 में दिये विशेष प्रावधान

      (1).    धारा-147 निगोषियबिल इन्स्टूमेंट एक्ट के अंतर्गत दण्डनीय प्रत्येक अपराध     क्षमनीय है ।
    (2)    राजीनामा के लिए न्यायालय कीे अनुमति आवष्यक नहीं है ।
    (3)    धारा 138 का अपराध क्षमनीय है ।
    (4)    धारा-147 में राजीनामा हो जाने पर आरोपी को दोषमुक्त माना जायेगा ।
    (5)    षिकायतकर्ता द्वारा गवाही हल्फनामे पर धारा-145 के अंतर्गत दी जा सकती है ।
    (6)    यह षपथ पत्र सभी न्यायसंगत अपवादो के अंतर्गत जांच विचारण की कार्यवाही में पढा जायेगा।
    (7)    न्यायालय अभियोजन या अभियुक्त के आवेदन पर षपथकर्ता केा             परीक्षण हेतु बुलासकता है    
    (8)    अपराध के पंजीयन के लिए 200 या 202 दं.प्र.स. के अंतर्गत मौखिक परीक्षण             आवष्यक नहीं है ।
    (9)    धारा-146 के अंतर्गत बैंकं पर्ची  अनादरण कें तथ्यों की प्रथम दृष्टया साक्ष्य हे ।
    (10)    चैक अनादृत हो गया है बैंक पर्ची पेष की जाने पर न्यायालय चेक अनादृत मानेगा
    (11)    वे मेमो जिस पर षासकीय चिन्ह लगा हुआ है जिससे यह पता चलता है कि चैक अनादृत हो गया है । न्यायालय चेक का अनादृत  मानेगा ।
    (12)    यह कि जब तक ऐसा तथ्य असाबित नहीं हो जाता तब तक न्यायालय बैंक की पर्ची या मेमो पेष किये जाने पर अनादृत मानेगा  ।
    (13)    धारा 144 में संमंस तामीली का तरीका दिया गया है ।
    (14)    अभियुक्त का या गवाह का संमसं जारी करने वाले मजिस्ट्ेट जहां पर वह वास्तव में रहता है भेज सकता है ।
    (15)    जहां पर वह व्यवसाय करता है या व्यक्तिगत रूप से कार्य करता है उसे संमस भेज सकता है ।
    (15)    संमंस स्पीड पोस्ट द्वारा या कोरियर द्वारा भेजा जा सकता है  इसके लिए सत्र न्यायालय की अनुमति आवष्यक है ।
    (16)    जहां प्राप्ति पर संमंस लेने से मना कर दिया है कि टीप अंकित हो वहां         न्यायालय यह घोषित  कर सकता है कि संमंस जरिये तामील हो गया है ।
    (17)    धारा-143 में प्रार्थी का विचारण प्रथम श्रेणी न्यायिक दण्डाधिकरी अथवा महानगर मजिस्ट्ेट संक्षिप्त विचारण कर सकता है ।
    (18)    संक्षिप्त विचारण के दौरान दं.प्र.सं. की धारा-262 से 265 के अनुसार विचारण किया     जा सकता है ।
    (19)    संक्षिप्त विचारण के दौरान एक वर्ष से अधिक की सजा और पांच हजार से अधिक का अर्थ दण्ड नहीं दिया जा सकता है ।
    (20)    विचारणं इस धारा के अंतर्गत षिंकायत दर्ज होने के 6 माह के अंदर पूरा किये जाने की कोषिष की जायेगी इस धारा के अंतर्गत मामले का विचारण नतीजे तक     दिन प्रति दिन     जारी रहेगा ।
    (21)    धारा-142 में अपराध का सज्ञानं लिखित षिकायत पर पाने वाले अथवा चैक धारक के द्वारा करने पर दिया जायेगा ।
    (22)    षिकायत एक महिने केे अंदर की जावेगी जब धारा-138 सी के अंतर्गत चेक देने वाले पर नोटिस प्राप्त होने के बाद 15 दिन के अंदर धनराषि का संदाय नहीं किया जाता है ं।
    (23)    महानगर मजिस्ट्ेट अथवा प्रथम श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्ेट के द्वारा यह अपराध का विचारण किया जावेगा ।
    (24)    न्यायालय निर्धारित समयअवधि के बाद पर्याप्त कारण विलम्ब का दर्षाये जाने पर भी षिकायत का संज्ञान ले सकता है ।
    (25)    द्वितीय श्रेणी न्यायिक मजिस्ट्ेट के द्वारा धारा-138 के अपराध का संज्ञान नहीं लिया जा सकता     है ।
    (26)    धारा-141 में भी कम्पनी को दंड दिया जा सकता है ।
    (27)    धारा-141 में कम्पनियों द्वारा किये गये अपराध के लिए कम्पनी को उत्तरदायी धारा-138 में बनाया जा सकता है ।
    (28)    कम्पनी का हर व्यक्ति जो अपराध होने के समय कम्पनी में व्यवसाय व कम्पनी के संचालन का भारसाधक था दण्डित किया जावेगा ।
    (29)    कम्पनी का हर व्यक्ति जो अपराध के लिए उत्तरदायी है अपराध का दोषी माना जायेगा, यदि व्यक्ति यह प्रमाणित कर दे कि अपराध उसकी जानकारी में  किया गया है तो वह उत्तरदायी है । यदि यह प्रमाणित करता है कि उसने ऐसे अपराध को रोकने के लिए पूरे समय तत्पर्ता अपनाई थी तो भी वह उत्तरदायी नहीं है ।   
     (30)    धारा 141 में कम्पनी का अर्थ निगमित निकाय से है ।
     (31)    इसमें व्यक्तियों की फर्म सम्मिलित है ।
     (32)    इसमें अन्य संघ षामिल है ।
     (33)    निदेषक का अर्थ फर्म के संबंध में फर्म के हिस्सेदार से है ।
     (34)    कम्पनी के भारसाधक का अर्थ व्यवसाय के दिन प्रतिदिन के सम्पूर्ण नियंत्रण से है ।
     (35)    केवल कम्पनी की तरफ से चेक पर हस्ताक्षर करने वाले निदेषक को सूचना पत्र देना पर्याप्त है ।
     (36)    केवल कम्पनी को ही सूचना पत्र देना अनिवार्य है ।
     (37)    कम्पनी के पारिसमापन के बाद भी निदेषक उत्तरदायी नहीं है ।
     (38)    धारा 140 के अनुसार यह उचित अभिकथन नही होगा कि चैक जारी करते समय जारी कर्ता के द्वारा विष्वास करने का कारण ं था कि कथित कारण से चेक अनादृत हो जावेगा ।
     (39)    धारा 139 में धारक के पक्ष में खण्डित उपधारणा दी है ।
     (40)    जिसके अनुसार यह उपधारणा की जाएगी  कि चैक धारक ने किसी ऋण या अन्य दायित्व का पूर्ण रूप से निर्वाह करने के दौरान प्राप्त किया ।
     (41)    यह उपधारणा की जावेगी कि आंशिक रूप से निर्वाह करने के लिए चैक प्राप्त किया ।
     (42)    धारा 138 के अंतर्गत 2 वर्ष के कारावास की सजा का प्रावधान है ।
     (43)    धारा-138 के अंतर्गत अर्थ दण्ड चैक की दुगनी रकम तक हो सकेगा ।
     (44)    दोनो दण्ड से भी दण्डित हो सकेगा ।
     (45)    प्रतिकर चेक की रकम के अनुसार दिया जायेगा ।
        धारा 138 के अपराध के लिए निम्नलिखित
    (46)    चैक लिखी तारीख से 6 महिने की मियाद बैंक में पेष हो । अब मियाद की अवधि 3 महिने हो गई है । लेकिन अधिनियम में परिवर्तन नहीं किया गया है।
    (47)    चैक तिथि मान्य अवधि के लिए पेष हो ।
    (48)    दोनो में जो पहले हो तब पेष हो ।
    (49)    चैक अनादरण कीसूचना के 30 दिन के अंदर लिखित नोटिस देकर धन की मांग की जाना जरूरी है ।
        धारा138 के लिए आवष्यक
    (50)    चैक लिखने वाला व्यक्ति प्राप्ति के बाद 15 दिनो के अंदर धनराषि का भुगतान कर दे ।
    (51)    15 दिन के अंदर भुगतान करें ।
    (52)    केवल कानूनी रूप से वसूली ऋण धन प्राप्त किया जा सकता है।
    (53)    केवल कानूनी रूप से वसूल योग्य अन्य दायित्व धन की वसूली की जा सकती है।           
        धारा-138 में
    (54)    बैंक से तात्पर्य उपरवाल बैंक  से है अनादृत बैंक से नही है ।
    (55)    चैंक कालसीमा बाधित ऋण के लिए दिये जाने पर प्रावधान धारा-138 के आकर्षितनहीं होते ।
    (56)     यदि अभिस्वीकृति कालसीमा बाधित ऋण की समय समाप्त होने के पूर्व प्राप्त होगी तभी धारा-138 आकर्षित होगी ।
    (57)    चैक उपहार दान धरमार्थ दिये जाने पर भी अनादरण की दषा में धारा-138 लागू नहींहोती है
    (58)    विक्रय के प्रतिफल स्वरूप जारी चैक अनादरण पर धारा-138 लागू होती है।
    (59)    खाता बदं होने पर भी लागू होगी ।
    (60)    स्टाप पेमेंट पर लागू होगी ।
    (61)    पिता के ऋण के बदले पुत्र चैक दे दे तो धारा-138 लागू नहीं होगी ।   
    (62)    पोस्टेड चैक खाता खत्म मात्र प्राप्ति की सूचना के बाद पेष होने पर भी धारा-138 लागू होगी ।
    (63)    अपर्याप्त राषि पं्रबंधक के पद की टीप धारा-138 लागू होती ।
    (64)    ओवर ड्ाफट की दषा में लागू होगी ।
    (65)    ओवर ड्ाफट की दषा में यदि बैंक एकांकी रूप से सुविधा बंद कर दे तो धारा‘138 लागू नहीं होगा ।
        धारा-138 के लिए
    (66)     चैक पर हस्ताक्षर पर्याप्त हैे ।
    (67)    चैक पूरा निष्पादक द्वारा ही लिखा जाना अनिवार्य नहीं है ।
    (68)    पेय आडर चैक की परिभाषा में आता हैं।
    (69)     स्वयं के देय पर धारा-138 लागू नहीं ंहोता है।
    (70)    यदि चैक लेखीवाल के अपूर्ण हस्ताक्षर में हो जो बेईमानी पूर्वक न हो तभी तो धारा-138 आकर्षित होती है ।
    (71)     यदि हस्ताक्षर का मिलान नहीं हो पायेगा तो धारा-138 लागू होती है ।
    (72)    संयुक्त हस्ताक्षर की दषा में एक के भी हस्ताक्षर पर धारा-138 लागू होती है ।
    (73)    नोटिस प्राप्ति पर चैक राषि अदा करने पर नोटिस का व्यय भी अदा करना जरूरी नहीं है ।
    (74)     धारा 138 के अंर्तगत आपराधिक कार्यवाही के साथ साथ सिविल कार्यवाही हो सकती है ।
    (75)    धारा-138 के साथ सिविल कार्यवाही हो सकती है ।
    (76)    दोनो कार्यवाही एक साथ चल सकती है ।
    (77)    सिविल कार्यवाही लंबित रहने की दषा में आपराधिक कार्यवाही कारक का दुरूपयोग नहीं है ।
    (78)    सूचना पत्र कीअवधि के अवतरण के पूर्व परिवाद प्रस्तुति अपरिपक्व नहीं होगी क्यों कि संज्ञान लेना परिवाद पेष करना दो अलग अलग बाते है ।   
    (79)    धारा-138 का परिवाद परिवादी की मृत्यु पर समाप्त नहीं होगा ।
    (80)    मृत परिवादी के विधिक उत्तराधिकारी मृत परिवादी की जगह षामिल होगे ।
     (81)    बेंक के संमंापन के बाद मर्जर बैंक परिवाद जारी रख सकता है ।
    (82)    गारंेटर के विरूद्ध परिवाद पेष किया जा सकता है ।
    (83)    यह कि 1 मार्च 1882 में लागू हुआ है ।
    (84)    यह कि 147 धारा है।
    (85)    बैंकर में डाक घर बचत बैंक षामिल है ं
    (86)    वचन-पत्र ऐसी लेख पर लिखा जाए जिसमें निष्चित व्यक्ति या उसके आदेषानुसार लिखत के वाहक को धन की निष्चित राषि बिना किसी षर्त के दी जाती है ।
    (87)    विनिमय-पत्र ऐसी लेख पर लिखत है जिसमें निष्चित व्यक्ति को निर्देष देने वाले के रचयिता के द्वारा हस्ताक्षर अषर्त आदेष रखता है निष्चित व्यक्ति को निष्चित राशि दिया जाए ।
    (88)    चैक वचन पत्र नहीं है ।
    (89)    चैक विनिमय पत्र है ।
    (90)    धारा-118 में लिखित के संबंध में उपधारणा दी गई है ।
    अधिनियम की धारा-118 के अनुसार जब तक कि प्रतिकूल साबित नहीं कर दिया जाता, निम्नलिखित उपधारणाएं की जाएंगी-
    (91)    प्रतिफल के विषय में यह कि हर एक परक्राम्य लिखत प्रतिफलार्थ         रचित या लिखी गई थी और यह कि हर ऐसी लिखत जब  प्रतिग्रहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित हो चुकी हो तब वह प्रतिफलार्थ, प्रतिगृहीत, पृष्ठांकित, परक्रामित या अन्तरित की गई  थी;
    (92)    तारीख के बारे में यह कि ऐसी हार परक्राम्य लिखत जिस पर             तारीख पडी है, ऐसी तारीख को रचित या लिखी गई थी;
    (93)    प्रतिग्रहण के समय के बारे में यह कि हर प्रतिग्रहित विनिमय-पत्र         उसकी तारीख के पश्चात युक्तियुक्त समय के अंदर और उसकी         परिपक्वता के पूर्व प्रतिगृहीत किया गया था;
    (94)    अन्तरण के समय के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत का हर             अन्तरण उसकी परिपक्वता के पूर्व किया गया था;
    (95)    पृष्ठांकनो के क्रम के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत पर विद्यमान         पृष्ठांकन उस क्रम में किए गए थे जिसमें वे उस पर विद्यमान हैं;
    (96)    स्टाम्प के बारे में यह कि परक्राम्य लिखत पर विद्यमान-पत्र या             चैक सम्यक् रूप से स्टापित था;
    (97)    यह कि धारक सम्यक्-अनुक्रम धारक है यह कि परक्राम्य लिखत         का धारक सम्यक्-अनुक्रम-धारक है,
       (98)  अधिनियम की धारा-139 में उपधारणा दी गई है कि जब तक तत्प्रतिकूल साबित न हो यह उपधारणा की जाएगी कि चेक के धारक ने धारा 138 में निर्दिष्ट प्रकृति का चेक किसी ऋण या अन्य दायित्व के पूर्णतः या भागतः उन्मोचन के लिए प्राप्त किया है ।
       

मृत्यु कालीन कथन

                     मृत्यु कालीन कथन

                                                    चिकित्सीय न्याय शास्त्र के अनुसार मृत्यु विज्ञान को थैनेटालाजी थैनेटास-मृत्यु लाजी विज्ञान कहते है । इस विषय के अंतर्गत मृत्यु का वैज्ञानिक अध्ययन किया जाता है जिसके अनुसार मृत्यु के पहले शारीरिक या आंगिक मृत्यु होती है । 

                           तत्पश्चात आण्विक मालीक्यूलर या कोशिकाओ सेल्यूलर की  मृत्यु होती है । ।         इसमें शरीर के विभिन्न अंग जैसे मस्तिष्क, हृदय, फेफडे आदि का कार्य स्थाई रूप से बंद हो जाता है और उसे शारीरक मृृत्यु कहते हैं। इस शारीरिक मृत्यु के समय शरीर की कोशिकाओं की उसी समय मृत्यु नहीं हो जाती है और शारीािक मृत्यु के कुछ समय पश्चात तक  कोशिकाएं जीवित रहती है और आक्सीजन के अभाव में शनैः शनैः उनकी मृत्यु शारीरिक मृत्यु के बाद होती है । मस्तिष्क की कोशिकाएं पहले मृत होती है और अन्य कोशिकाएं बाद में । जब कोशिकाएं भी मृत हो जाती है तब इसे आण्विक मृत्यु कहते हैं । शारीरिक मृत्यु के 3-4 घंटों के बाद आण्विक मृत्यु आरंभ हो जाती है । शरीरिक मृत्यु में भले की शरीर जीवित न हो किन्तु उतको में रासायनिक अनुक्रिया हो सकती । 


        शरीर मृत्यु के उसी समय के चिन्ह है-अचैतन्य और विद्युत मस्तिष्क चित्राकन न होना हृदय और रक्त परिसंचरण बंद होना और श्वसन क्रिया का बंद होना। यदि पांच मिनिट तक मस्तिष्क चित्रांकन के कुछ चिन्ह न हो तो समझना चाहिये कि मृत्यु हो गई या हृदय का स्टेथोस्कोप रखकर हृदय गति पांच मिनिट तक सुनाई न दे तो इसे मृत्यु होना माना जा सकता है । ऐसी स्थिति में श्वसन ओर हृदय गति ठीक से ज्ञात न हो तो वह मृत्यु का परिचायक है ।

        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-32-1 में मृत्यु कालिक कथन को परिभाषित किया गया है जिसके अनुसार वह कथन किसी व्यक्ति द्वारा अपनी मृत्यु के कारण के बारे में या उस संव्यवहार की किसी परिस्थिति के बारे में किया गया है जिसके फलस्वरूप उसकी मृत्यु हुई तब उन मामलो में जिनमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत है ।

    ऐसे कथन सुसंगत है, चाहे उस व्यक्ति को जिसने उन्हें किया है, उस  समय जब वे किये गये थे, मृत्यु की प्रत्याशंका थी या नहीं और चाहे उस कार्यवाही जिसमें उस व्यक्ति की मृत्यु का कारण प्रश्नगत होता है, प्रकृति कैसी ही क्यों न हो ।
इस विषय में विधि के तहत यह व्यवस्थापित स्थिति की है कि यह साक्ष्य में ग्राहय है । यहां तक कि सम्पुष्टि की तब तक कोई आवश्यकता नहीं होती है जब तक किसी प्रकार की दोर्बल्यता से ग्रसित नहीं है ।

    मृत्यु कालीन कथन के संबध में यह सुस्थापित सिद्धांत है कि एक मात्र मृत्यु कालीन कथन के आधार पर दोष सिद्धि की जा सकती है । इस संबंध में मान्ननीय उच्चतम न्यायालय के पांच जजो की खण्डपीठ ने ताराचंद कामूसतार विरूद्व महाराष्ट् राज्य 1962 भाग-2 ए0सी0आर0 775, ए0आई0आर0 1962 सुप्रीम कोर्ट 130 मे विनिश्चय किया गया है कि मृत्यु कालीन कथन को एक बार स्वीकार  कर लेने पर किसी संपुष्टि के बिना उस पर कार्यवाही की जा सकती है । 

        इसी प्रकार खुशाल राव विरूद्ध राज्य ए0आई0आर 1958 एस0सी0 -22 में मृत्यु कालीन घोषणाओं के संबंध में निम्नलिखित सिद्धंात प्रतिपादित किये गये हैं:-
    1-    यह कि जहाॅ कानून के एक आत्यन्तिक नियम का उल्लेख किया जा    सकता है कि एक मृत्यु कालीन घोषणा दोषसिद्ध के मात्र आधार को             विरचित कर सकता है जब तक कि इसकी संपुष्टि नहीं कर दी जाती है 

    2-    यह कि इस प्रकार प्रत्येक मामले को परिस्थ्तिियों की दृष्टिकोण से तथ्यों         के आधार पर अवश्यमेव निर्धारित किया जाना चाहिये जिसमें मृत्यु कालीन         घोषणा की गई हो ।

    3-    यह कि यह एक सामान्य प्रतिवादना के रूप में उल्लेखित किया जा              सकता है कि मृत्यकालीन घोषणा साक्ष्य के अन्य भाग की तुलना में एक         कमजोर साक्ष्य होती है।

    4-    यह कि मृत्यकालीन घोषणा चतुर्दिक परिस्थ्तिियाॅ तथा साक्ष्य का मूल्याकन         कर शासन करने वाले सिद्धांतो के संदर्भ में निर्णित किया जाना होता है ।

    5-    यह कि एक मृत्य कालीन घोषणा जिसे उचित तरीके से एक सक्षम              मजिस्ट्ेट द्वारा अभिलिखित किया जा चुका है प्रश्न और उत्तर के प्रारूप         में कहना होता है और यथासंभव मृत्यु कालीन घोषणा करने वाले शब्दो में         मृत्युकालीन  घोषणा  की अपेक्षाकृत अधिक प्भाव रखता है जो मोखिक         साक्ष्य पर निर्भर करता है जो6-    यह कि मृत्यु कालीन घोषणा को परीक्षण करने के लिये न्यायालय को             प्रेक्षण के लिये मरणासन व्यक्ति के समान अवसर को दृष्टिगत रखना             होता है ।

 उदहारणार्थ
 क्या वहां पर्याप्त प्रकाश था, जहां अपराध किया         जाता था,
 क्या कथित तथ्यों को याद करने के लिये व्यक्ति की सामथ्र्य         को उस समय  क्षीण्र नहीं किया गय था, जब वह कथन कर रहा था।     

    अपने नियंत्रण के परे परिस्थ्तिियों द्वारा यह कथन कि सम्पूर्तया संगत     किया जा चुका था 

। यदि वह इसके राजकीय अभिलेख से पृथक             मृत्यकालीन घोषणा करने के लिये     अनेक अवसर मिले थे और उस कथन         को सबसे पहले घोषित किया गया जो कि हितबद्ध पक्षकारों द्वारा             सिखाये-पढ़ाये जाने के परिणाम स्वरूप हुआ था । 

        मृत्यु कालीन कथन के लिए फिट स्टेट आॅफ माईन्ड में होना आवश्यक  है।  2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह, 2007 भाग-3 क्राईम्स -57 एस0सी0 स्टेट आॅफ राजस्थान विरूद्ध वाकटांग, ए0आई0आर0 1999 एस0सी0 3455 पापारा म्बिका विरूद्व आन्ध्र प्रदेश राज्य में

 यह अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि घायल की स्थिति स्टेबिल नहीं हैे और वह मानसिक रूप से सक्षम नहीं है फिट स्टेट आॅफ माईन्ड नहीं है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है । 


        करनसिंह विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य आई0एल0आर0 2008 एम0पी0 2698 में अभिनिर्धारित  किया गया है कि यदि मृत स्वस्थ मानसिक स्थिति में नहीं था और प्रत्यक्षदर्शी साक्षी और चिकित्सीय साक्ष्य में विरोधाभास है तो ऐसे कथन  पर विश्वास किया जाना उचित नहीं है । इसके लिए आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन जो व्यक्ति ले रहा है उसे खुद समाधान करना चाहिये कि शपथकर्ता की मानसिंक दशा ठीक है तथा वह पहुंची चोट के संबंध में कथन करने में पूर्णतः होश में है । 


        विधि के सुस्थापित सिद्धांत के अनुसार मान्नीय उच्चतम न्यायालय की बडी बेंच ने अभिनिर्धारित किया है कि अर्द्ध चेतन अवस्था में भी मृत्यु कालीन कथन दर्ज किया जा सकता है, किन्तु इसके लिए फिट स्टेट आफ माइण्ड होना चाहिए ।

        2011 भाग-10 सु0कोर्ट केसेस-173 सुरेन्द्र कुमार विरूद्ध स्टेट आॅफ एम0पी0, 2006 क्रि0लाॅ जनरल 589 सुनील काशीराम विरूद्ध स्टेट आॅफ महाराष्ट्, 2008 क्रि0लाॅ जनरल 2150 स्टेट आॅफ एम0पी0 विरूद्ध रघुवीर सिंह में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार यदि यह पाया जाता है कि मृत्यु कालीन कथन देते समय मृतक के रिश्तेदार उसके पास मौजूद थे और उसे सिखाये पढ़ाये  जाने के अवसर है तो ऐसे मृत्यु कालीन कथन पर विश्वास किया जाना उचित  नहीं है । 


    मृत्यु कालीन कथन प्रश्न उत्तर के रूप में लिखा जाना अनिवार्य नहीं है,परन्तु सावधानी के नियम के तौर पर यह आवश्यक है कि वह मृतक के शब्दो में लिखा जावे । यह आवश्यक है कि मृत्यु कालीन कथन मृतक की भाषा में होना चाहिये । विधि का यह नियम है कि मृतक न्यायालय के समक्ष जो रहस्य उजागर करना चाहा है वह न्यायालय को प्रगट होना चाहिये ।


     मुन्नुराजा बनाम मध्य प्रदेश राज्य 1976 जे0एल0जे0 599 एस0सी0 में सम्प्रकाशित के मामले में उच्चतम न्यायालय ने निम्नानुसार अभिनिर्धारित किया है-

    यह सुव्यवस्थापित है कि यद्यपि मृत्युकालिक कथन का अर्थान्वयन इस     कारण से सावधानीपूर्वक करना चाहिए कि कथन के करने वाले की प्रति     परीक्षा नहीं की जा सकती है न तो विधि का यह नियत है न दरदर्शिता     का नियम है जो विधि के नियम में परिपक्व हो चुका है कि मृत्युकालिक     कथन को तब तक स्वीकार नहीं किया जा सकता जब तक इसकी     सम्पुष्टि नहीं की जा सकती है । इस प्रकार न्यायालय को तब तक     सम्पुष्टि की अपेक्षा नहीं करनी चाहिए जब तक वह इस निष्कर्ष तक नहीं     पहंुचता कि मृत्युकालिक कथन किसी दौर्बल्यता से ग्रसित है,जिसके     कारण सम्पुष्टि की अपेक्षा करना आवश्यक था 

    मृत्यु कालीन कथन के संबंध में यह सुस्थापित सिद्धांत है किं मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य कोमहत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए । जो निम्न लिखित है । 


    ए-    इस संबंध मे न्यायालय को यह सावधानी और सतर्कता बरतनी चाहिए कि         मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी             परिकल्पना का परिणाम नहीं था । 

    बी-    न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का         चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी             पहचान करने का अवसर था ।

    सी-    इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के         लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में         था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए  

    डी-    न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और  स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक  कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है ।


    इसी प्रकार केशव बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 1971 एस0सी0 953 के मामले में अभिनिर्धारित किया गया था । यदि मृतक की मानसिक दशा के बारे में चिकित्सक से चिकित्सीय अभिमत मांगा गया था, तो मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य पूर्णतया विश्वसनीय है और उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है । साक्ष्य अधिनियम 1872 की धारा 32-1 का उपबन्ध अनुश्रुत नियम की ग्राहता के विरूद्ध नियम का अपवाद है और यदि मृत्युकालिक कथन विश्वसनीय है तो उस पर दोषसिद्धि आधारित की जा सकती है ।    

   
    नारायण सिंह और अन्य बनाम हरियाणा राज्य 2004 भाग-13 एस0सी0सी0 264 हस्तगत मामले में यह पाया गया है कि मृत्युकालिक कथन की साक्ष्य उपलब्ध है, और वह ग्राहय है और स्वीकार की जाने योग्य है । इसलिए चक्षुदर्शी साक्षीगण द्वारा प्रस्तुत की गयी अन्य कहानी विश्वसनीय नहीं है एंव दोषसिद्धि के लिए आधार नहीं हो सकती ।

    इस मामले में अभियोजन दो विरोधाभासी कहानियों के साथ आया एक मृत्युकालिक कथन के अनुसार और दूसरी चक्षुदर्शी साक्षी के अनुसार इस कारण से कि मृत्युकालिक कथन नायब तहसीलदार द्वारा अभिलिखित किया गया था जो चिकित्सक के प्रमाण पत्र पर स्वतंत्र साक्षी है इसलिए मृत्युकालिक कथन चक्षुदर्शी साक्षियों की तुलना में अधिक विश्वसनीय है और उक्त साक्ष्य के प्रकाश में अपीलार्थीगण के विद्वान काउंसेल का यह तर्क वजन रखता है कि देहाती नालिसी समय से अभिलिखित नहीं की गई थी एंव यह एक पश्चातवर्ती सोच दस्तावेज है एंव कोई सबूत नहीं है कि इसे दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 157 के तहत यथा अपेक्षित तुरंत न्यायालय को अग्रेषित किया गया था । इसलिए ऐसा प्रतीत होता हे कि चक्षुदर्शी साक्षियों के वृत्तान्त गढे गये है ।


        रवि कुमार उर्फ बनाम तमिलनाडु राज्य भाग 1 के मामले में इस न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि मृत्युकालिक कथन इस विचारण के अधीन ग्राहय होता है कि घोषणाकर्ता ने इसे अत्यंत ही आसन्न दशा में किया था। जब घोषणाकर्ता मृत्यु के निकट था और जब उसके जीवित रहने की प्रत्येक आशा समाप्त हो चुकी हो और इस प्रकार उसके द्वारा मिथ्या अभिवाक करने का कोई हेतुक नहीं रहता और चित सत्य बोलने की अत्यंत सशक्त विचारण द्वारा उत्प्रेरित होता है । ऐसा होते हुए भी उसके सत्य को प्रभावित करने वाली अनेक विधमान परिस्थितियों के कारण उसके साक्ष्य को महत्व देते समय अत्यंत ही सावधानी और सतर्कता बरती जानी चाहिए । 


        न्यायालय को सदैव यह सतर्कता बरतनी चाहिए कि मृतका का कथन सिखाए पढाये जाने या उकसाए जाने या किसी परिकल्पना का परिणाम नहीं था । न्यायालय को यह भी देखना और सुनिश्चित करना होता है कि मृतका का चित की दशा ठीक थी और उसके हमलावर को देखने और उसकी पहचान करने का अवसर था 


        इसलिए सामान्यतया न्यायालय को इसं संबंध में अपने को संतुष्ट करने के लिए कि मृतक मृत्यु कालिक कथन करने के लिए ठीक मानसिक दशा में था चिकित्सीय मत को भी विचार में लेना चाहिए । न्यायालय के एक बार इस बावत संतुष्ट होने पर भी कि घोषणा सत्य और स्वेच्छिक थी यह निसंदेह बिना किसी अतिरिक्त संपुष्टि के मृत्युकालिक कथन के आधार पर दोषसिद्धि कर सकता है । 


        यह एक आत्यांतिक विधि के रूप में अधिकथित नहीं किया जा सकता कि मृत्युकालिक कथन दोषसिद्धि का एकमात्र आधार नहीं हो सकता जब तक इसकी संपुष्टि नहीं हो जाती । संपुष्टि की अपेक्षा करने वाले नियम मात्र प्रज्ञा का नियम है ।

        यदि मजिस्ट्रेट जिसने मृत्यु कालिक कथन अभिलिखित किया है ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त दर्द से पीडित थी और वह हस्ताक्षर करने की स्थिति में नहीं थी और इसलिए उसके अंगूठे की छाप ली गई थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया है कि क्षतिग्रस्त प्रश्नों का उत्तर देने में समय ले रही थी । इसके आगे मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया कि क्षतिग्रस्त घोर पीडा से ग्रस्त थी । इन तथ्यों के बावजूद यह प्रतीत होता है कि मजिस्ट्रेट ने क्षतिग्रस्त से यह सीधा प्रश्न न पूछकर कि क्या वह कोई कथन करने के लिए समर्थ है । गम्भीर अनियमितता कारित की प्रतीत होती है ।


    राजस्थान राज्य बनाम पारथू वाले मामले में अभिनिर्धारित किया गया है कि विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि दोषसिद्धि का निर्णय अकेले मृत्युकालिक कथन के आधारपर अभिलिखित किया जा सकता है यदि न्यायालय की इस बावत संतुष्टि हो जाती है कि यह सत्य और स्वेच्छिक है । मृत्यु कालिक कथन की सत्यता या स्वेच्छिकता सुनिश्चित करने के प्रयोजन के लिए न्यायालय अन्य परिस्थितियों को भी विचार में ले सकता है । 


    मृत्यु कालीन कथन के संबंध में मान्नीय उच्च न्यायालय द्वारा 2011 भाग-2 मनीसा-92 एम0पी0 मिजाजी लाल विरूद्ध मध्य प्रदेश राज्य में अभिनिर्धारित कि यद्यपि मृतक का मृत्युकालीन कथन किसी अभिपुष्टि के बिना व्यवहत किया जा सकता है फिर भी न्यायालय को संतुष्ट होना चाहिये कि वह सत्य है, एंव मृतक के व्दारा किया स्वेच्छिक कथन है । 


        मुथु कुटटी और अन्य बनाम राज्य व्दारा इंस्पेक्टर आॅफ पुलिस तामिलनाडू ,ए0आई0आर0 2005 सुप्रीम कोर्ट पृष्ठ-1473 में सम्प्रेक्षित किया गया कि मृत्युकालीन कथन केवल बिना जांच किये साक्ष्य का एक भाग होता है और किसी अन्य साक्ष्य जैसा होना चाहिये , न्यायालय की संतुष्टि करता है कि इसमे जो कहा गया है । पवित्र सत्य है और यह कि यह अविलम्ब लेने के लिये सुरक्षित होता है ।

विधिक प्रतिनिधि

                                                                     विधिक प्रतिनिधि

    आदेष 22 नियम 4 के अनुसार जब दो या दो से अधिक प्रतिवादी होने से एक की मृत्यु हो जाती है और वाद लाने का अधिकार अकेला वादी के विरूद्ध बचा रहता है वहां पर न्यायालय मृत प्रतिवादी के  को पक्षकार बनाएगा । आदेष 22 नियम 4 उप नियम 2 के अनुसार इस प्रकार  पक्षकार बनाया गया कोई भी व्यक्ति जो मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि के नाते अपनी हेसियत के लिए समुचित प्रतिरक्षा कर सेंकेंगे ।

        सिविल प्रक्रिया संहिता के संषोधन अधिनियम 1976 की धारा-73‘4‘ के द्वारा उप नियम 4 एंव उप नियम 5 नयेसंषोधन किये गये है जो 1/फरवरी/1977 से लागू हुये हैं ।

        संषोधन के पूर्व में जो प्रतिवादी वादोत्तर प्रस्तुत नहीं करता था अथवा वादोत्तर प्रस्तुति के बाद वाद में कभी उपस्थित नहीं होता था उसकी मृत्यु के बाद इस नियम के अधीन वादी को उसके विधिक प्रतिनिधि के संबंध में कार्यवाही करना आवष्यक हो जाता है । 

        संषोधन के पष्चात इस उपनियम के अधीन वादी को ऐसे प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को अभिलेख पर लाये जाने के संबंध में न्यायालय छूट दे सकता है ।     

        यदि मृत प्रतिवादी ने समुचित प्रतिरक्षा नहीं की है तो वह अपनी प्रतिरक्षा कर सकता है ।यदि मृत प्रतिवादी ने उसके अधिकारो के विरूद्ध प्रतिरक्षा की हैे तो वह अपने अधिकारो के संबंध में लिखित कथन पेष कर सकता है । 

        इस प्रकार यदि मृत प्रतिवादी ने अपने हितो का ध्यान नहीं रखा है तो वह अपने हितो के संरक्षण के लिए अतिरिक्त कथन प्रस्तुत कर सकता है। इस प्रकार मृत प्रतिवादी का विधिक प्रतिनिधि सम्पूर्ण बचाव पेष कर सकता है । यह आवष्यक नहीं है कि वह मृत प्रतिवादी की प्रतिरक्षा के अनुसार ही बचाव पेष करे लेकिन वहमृत प्रतिवादी के व्यक्तिगत अधकारो के संबंध में अलग से कोई बचाव पेष नहीं कर सकता है । और उनके सामूहिक हित के संबंध में ही कोई विपरीत प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं कर सकता है ं।

        आदेष 7 नियम 8 के अंतर्गत प्रतिवादी के लिखित कथन के पष्चात कोई भी लिखित कथन न्यायालय की इजाजत से प्रस्तुत किया जा सकता है । और प्रतिरक्षा का कोई भी आधार जो वाद संस्थित किये जाने के बाद पैदा हुआ है और प्रतिवादी आदेष 7 नियम 8 के अंतर्गत प्रतिरक्षा नहीं उठा सकता है । 

         सिविल प्रक्रिया संहिता की धारा-11 जो पूर्व न्याय से संबंधित है उसका स्पष्टीकरण 4 के अनुसार ऐसे किसी भी विषय के बारे में जो ऐसे पूर्ववर्ती वाद में प्रतिरक्षा या आक्रमण का आधार बनाया जा सकता था और बनायाजाना चाहिये था । यदि मृत प्रतिवादी के द्वारा इस प्रकार का कोईा आधार नहीं उठाया गया है तो धारा-11 के स्पष्टीकरण 4 के अनुसार विधिक प्रतिनिधि प्रतिरक्षा का ऐसे आधार से उठा सकता है ताकि उनका मामला पूर्व न्याय के सिद्धात के अनुसार वर्जित नहीं माना जाये ।
        इस प्रकार एक अधिकार के रूप में मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि अपने बचाव प्रस्तुत कर सकते हैं ए0आई0आर0 1972 सुप्रीम कोर्ट 2528 में यह बात स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया गया है । 

        यदि मूल प्रतिवादी पूर्व से एक पक्षीय हो तो मृत प्रतिवादी के विधिक प्रतिनिधि को अभिलेख में षामिल करना आवष्यक नहीं है ।

        प्रस्तुत प्रष्न के अनुसार विधिक प्रतिनिधि प्रतिवादी द्वारा उठाये गये बचाव के संबंध में अभिवाक ले सकता है अपना नया अभिवाक प्रस्तुत नहीं कर सकता है । यह सिद्धांत थ परन्तु विधिक प्रतिनिधि अपनी प्रतिरक्षा में समुचित बचाव कर सकता है अपने खुद का उचित अभिवाक ले सकता है । किन्तु मृत के व्यक्तिगत संबंध में अभिवाक नहीं लिया जा सकता है ं

        जब वाद किसी मृत किरायेदार से संबंध मे हो तो उसके वारिस केवल वे ही अभिवाक ले सकते हैं और मृतक किरायेदार के द्वारा लिये गये थे उनसे भिन्न अभिवाक किरायेदार के विधिक प्रतिनिधि नहीं लिये जा सकते हैं । मृतक के व्यकितगत अभिवाक विधिक प्रतिनिधि नहींले सकता प्रतिनिधि स्वरूप जो कथन हो वे कर सकने के लिए स्वतंत्र है ।

        ए0आई0आर0 1972 2526जे0सी0 चटर्जी विरूद्ध श्रीकिषन टंडन समुचित प्रतिरक्षा प्रस्तुत कर सकता था वह अपनी व्यक्तिगत हैसियत से बचाव प्रस्तुत कर सकता है । मानो उसके विरूद्ध दावा प्रस्तुत किया गया है ।

        माननीय दिल्ली उच्च न्यायालय द्वारा ए0आई0आर0 1992 दिल्ली सैययद सिराजुल हसन विरूद्ध सैययद मुर्तुजा अली खान के मामले में यह अभिनिर्धातिर किया गया है कि प्रतिवादी अपनी समुचित प्रतिरक्षा अतिरिक्त परिवाद पत्र प्रस्तुत कर सकता है ।
       

घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम 2005 umesh

                घरेलू हिंसा
        हमारा भारत सदियों से पुरूष प्रधान समाज रहा है । जहां पर महिलाओं को अनउपयोगी मानते हुए घर और परिवार में पैरो की जूती मानते हुये हमेशा से प्रताडि़त किया गया है और उन्हे ं  घर के अंदर रहकर कामकाज करने वाली और परिवार, बच्चों का भरण-पोषण करने वाली वस्तु माना गया है और यही कारण है कि इनके साथ घर के अंदर घरेलू ंिहंसा की जाती है जिससे घर के आस-पास रहने वाले और उनके परिवार के सदस्यों को ज्ञान नहीं होता है । ऐसी घरेलू हिंसा से निपटने के लिये जो कुटुम्ब के भीतर होने वाली जो ंिहंसा से पीडि़त है। घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम  2005 बनाया गया है जो 26 अक्टूबर 2006 से लागू  किया गया है ।

        इस अधिनियम की धारा 3 में घरेलू हिंसा को परिभाषित किया गया है जिसके अंतर्गत अनावेदक का कोई कार्य या लोप, आचरण घरेलू हिंसा घटित करेगा जिनसे व्यथित व्यक्ति के स्वास्थ, सुरक्षा जीवन को हानि पहुंचती है तो क्षति पहुंचाने वाला संकट उत्पन्न करता है तो उसके विरूद्ध शारीरिक, लैंगिक मौखिक रूप से उत्पीडि़त करना शामिल है । 

किसी से दहेज व अन्य संपत्ति की मांग करने पर उसकी पूर्ति के लिये उत्पीडि़त करना घरेलू ंिहसा कहलायेगी ।
    1-    शारीरिक दुरूपयोग:- से ऐसा कोई कार्य या आचरण अभिप्रेत है जो ऐसी प्रकृति का है जो व्यथित व्यक्ति को शारीरिक पीड़ा अपहानि या उसके जीवन अंग स्वास्थ को खतरा  कारित करता हे या उसके अधिक स्वास्थ या विकास का हाॅस होता है और इसके अंतर्गत हमला,आप0 अभित्रास और आपराधिक बल भी है ।       

    2-    लैंगिक दुरूपयोग:-  से लैंकिग प्रकृति का कोई आचरण ,अभिप्रेत है जो महिला की गरिमा का दुरूपयोग ,अपमान, त्रिस्कार, करता है या उसका अन्यथा अतिक्रमण करता है ।

    3-    मौखिक और भावनात्मक दुरूपयोग के अन्तर्गत निम्नलिखित है-

    क-    अपमान, उपहास, तिरस्कार गाली और विशेष रूप से संतान या नर बालक के न होने के संबंध में अपमान या उपहास और
    ख-    किसी ऐेसे व्यक्ति को शारीरिक पीडा कारित करने की लगातार धमकिया देना, जिसमें व्यथित व्यक्ति हितबद्ध है,
    4-    आर्थिक दुरूपयोग के अंतर्गत निम्नलिखित है ।

    क-    ऐसे सभी या किन्हीं आर्थिक या वित्तीय संसाधनों जिनके लिए व्यथित व्यक्ति किसी विधि या रूढि के अधीन
 हकदार है, चाहे वे किसी न्यायालय के किसी आदेश के अधीन या अन्यथा संदेय हो या जिनकी व्यथित व्यक्ति किसी आवश्यकता के लिए जिसके अंतर्गत व्यथित व्यक्ति और उसके बालकों यदि कोई हों, के घरेलू आवश्यकताएं भी हैं, किन्तु जो उन तक सीमित नहीं है, स्त्रीधन, व्यथित द्वारा संयुक्त रूप से या पृथकतः स्वामित्व वाली सम्पत्ति, साझी गृहस्थी और उसके रखरखाव से संबंधित भाटक के संदाय, से वंचित करना,

    ख-    गृहस्थी की चीजबस्त का व्ययन, आस्तियों का चाहे वे जंगम हो या स्थावर, मूल्यवान वस्तुओं, शेयरों , प्रतिभूतियों बंधपत्रों और इसके सदृश या अन्य सम्पत्ति का कोई अन्य संक्रामण, जिसमें व्यथित व्यक्ति काई हित रखता है या घरेलू नातेदारी के आधार पर उनके प्रयोग के लिए हकदार है या जिसकी व्यथित व्यक्ति  या उसकी संतानो द्वारा युक्तियुक्त रूप से अपेक्षा की जा सकती है या उसका स्त्रीधन या व्यथित व्यक्ति द्वारा संयुक्तः या पृथकतः धारित करने वाली कोई अन्य संपत्ति और

    ग-    ऐसे संसाधनों या सुविधाओं तक जिनका घरेलू नातेदारी के आधार पर कोई व्यथित व्यक्ति, उपयोग या उपभोग करने के लिए हकदार है, जिसके अंतर्गत साझी गृहस्थी तक पहंुच भी है , लगातार पहंुच के लिए प्रतिषेध या निर्बन्धन ।
    स्पष्टीकरण 2-यह अवधारित करने के प्रयोजन के लिए कि क्या प्रत्यर्थी का कोई कार्य, लोप या कुछ करना या आचरण इस धारा के अधीन ’’घरेलू हिंसा’’ का गठन करता है, मामले के सम्पूर्ण तथ्यों और परिस्थितियों पर विचार किया जाएगा ।

        घरेलू हिंसा अधिनियम के अंतर्गत धारा  12 के अंतर्गत मजिस्ट्ेट को आवेदन दिये जाने पर या संरक्षण अधिकारी की रिपोर्ट प्राप्त होने पर न्यायालय द्वारा एक आदेश जारी किया जावेगा जो अधिनियम की धारा 18 के अंतर्गत संरक्षण आदेश जारी किया जावेगा जिसमें घरेलू हिंसा के कार्यो को रोकने के आदेश दिये जावेगें तथा आदेश धारा 19 के अंतर्गत पारित किया जा सकता है ।

   





















   

ग्राम न्यायालय umesh

                ग्राम न्यायालय

        भारत 120 करोड़ वाला देश है । जहां पर अधिकांश आबादी गांव में
रहकर अपना जीवनयापन करती है ।  शिक्षा, अज्ञानता, परम्परावादी, रूढीवादी  होने के कारण इनमें आपस में विवाद होते रहते हैं । प्राचीन परम्पराओं के चलते गांव के मामले गांव में निपट जाते थे । गाॅव में पंचायत व्यवस्था थी ।  पंच को परमेश्वर मानकर विवादो का निपटारा हो जाता था । पंच भी जुम्मन शेख और अलगू चैधरी  के बीच में हिन्दु,मुस्लिम, सिख, इसाई का अंतर न रखते हुए जाति, धर्म, भाषा का भेदभाव भुलाकर न्यायोचित फैसला देते थे ।

        इसी परम्परा को आगे बढ़ाते हुये भारत में ग्राम न्यायालय की स्थापना की गई । गांव के लोग गांव  में ही न्याय प्राप्त कर सकें और उन्हें न्याय पाने के लिये अपनेे दिन भर का काम-धंधा छोड़कर शहर के चक्कर न काटने पड़े, नागरिकों को उनके घरों तक न्याय उपलब्ध हो । इस प्रयोजन से ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अंतर्गत ग्राम न्यायालय की स्थापना की गई है । 

        ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 में इस बात का ध्यान रखा गया है कि किसी भी नागरिक को सामाजिक, आर्थिक या अन्य निःशक्त्ता के कारण न्याय प्राप्त करने के अवसरों से वंचित नहीं किया जाए । इसके लिए अधिनियम में विधिक सहायता उपलब्ध कराने की व्यवस्था की गई है । 

        ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 के अंतर्गत राज्य सरकार उच्च न्यायालय से परामर्श के बाद अधिसूचना द्वारा किसी जिले में माध्यमिक स्तर पर प्रत्येक पंचायत या पंचायतो के समूह या ग्राम पंचायतो के समूह के लिये एक ग्राम न्यायालय स्थापित करेगी । जिसका मुख्यालय उस पंचायत में स्थित होगा । प्रत्येक न्यायालय के लिये न्याय अधिकारी के रूप में प्रथम श्रेणी न्यायिक दंडाधिकारी  को नियुक्त किया जावेगा जिसमें अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति स़्त्री तथा अन्य वर्ग के समुदाय के सदस्यों को बराबर का प्रतिनिधित्व दिया जावेगा । 

        न्याय अधिकारी का कर्तव्य होगा कि वह अपनी अधिकारिता के अंतर्गत आने वाले ग्रामों के अंदर दौरा करें और ऐसे स्थान पर विचारण या कार्यवाही संचालित  करे जिसे वह उस स्थान से निकट समझते हो जहां पक्षकार निवास करते हो ,ग्राम न्यायालय को मुख्यालय से बाहर चलित न्यायालय लगाने की भी शक्ति प्राप्त है । गाम न्यायालय को सिविल ओर दांडिक दोनो प्रकरणों की अधिकारिता प्रदान की गई है ।

         ग्राम न्यायालय में अधिनियम की अनुसूची-1 के अनुसार दिये गये दांडिक प्रकरणों का एंव दूसरी अनुसूची में दिये गये सिविल प्रकरणों का निराकरण  किया जावेगा । 

        आपराधिक मामलो में भारतीय दण्ड संहिता 1860 के अंतर्गत निम्नलिखित अपराध ग्राम न्यायालय के क्षेत्राधिकार में रखे गये है । जिन्हें अनुसूची एक में दर्शाया गया है ।  

1.    ऐेसे अपराध जो मृत्यु दण्ड आजीवन कारावास या दो वर्ष से अधिक अवधि     के कारावास से दण्डनीय नहीं है,
2.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-379, धारा 380 या धारा-381के अधीन,     चोरी, जहां चुराई गई सम्पत्ति का मूल्य  बीस हजार रूपये से अधिक हीं है,
3.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-411 के अधीन, चुराई गयी     सम्पत्ति को प्राप्त करना या प्रतिधारित करना, जहां ऐसी सम्पत्ति का मूल्य     बीस हजार रूपये से अधिक नहीं है,
4.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-41 के अधीन, चुराई गई     सम्पत्ति को     छुपाने या उसका व्ययन करने में सहायता करना, जहां ऐसी सम्पत्ति का     मूल्य बीस हजार रूपये से अधिक नहीं है,
5.    भारतीय दण्ड संिहता 1860 की धारा-454 और धारा-456 के अधीन अपराध,
6.    धारा-504 के अधीन शांति के भंग का प्रकोपन करने के आशय से अपमान     और भारतीय दण्ड संिहता 1860 का 45 की धारा-506 के अधीन ऐसी अवधि     के, जो दो वर्ष तक की हो सकेगी, कारावास से या जुर्माने से या क्षेत्रों से     दण्डनीय आपराधिक अभित्रास,
7.    पूर्वोक्त अपराधों में से कोई अपराध करने का प्रयत्न, जब ऐसा प्रयत्न अपराध     हो,

        इसके अलावा अन्य केन्द्रीय अधिनियमों के अधीन अपराध और अनुतोष संबंधि मामले रखे गये है जो निम्नलिखित हैः-

1.    ऐसे किसी कार्य द्वारा गठित कोई अपराध, जिसकी बावत पशु अतिचार     अधिनियम, 1871 कर 1 की धारा-20 के अधीन परिवाद किया जा सकेगा,
2.    मजदूरी संदाय अधिनियम 1936 का 34,
3.    न्यूनतम मजदरूी अधिनियम 1948 का 11,
4.    सिविल अधिकार संरक्षण अधिनियम 1955 का,
5.    दण्ड प्रक्रिया संहिता, 1973-1974 का 2 के अध्याय 9 के अधीन पत्नियों,     बालकों और माता-पिता के भरण-पोषण के लिए आदेश,
6.    बन्धित श्रम पद्धति उत्सादन अधिनियम, 1976 का 19,
7.    समान पारिश्रमिक अधिनियम,1976 का 25,
8..    घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियम, 20058 का 43,

        दांडिक मामलो का विचारण करते समय ग्राम न्यायालय दं0प्र0सं0 मेंदी गई संक्षिप्त प्रक्रिया का अनुुसरण करेगें और संक्षिप्त प्रक्रिया अपनाते हुये मामलों का निपटारा करेगें। इस संबंध में सौदा अभिवाक् से संबंधित अध्याय 21क दं0प्र0सं0 के प्रावधान पूर्णतः ग्राम न्यायालय को लागू होगें । सरकार की तरफ से ग्राम न्यायालय में दांडिक मामलो का संचालन करने के लिये सहायक लोक अभियोजन अधिकारी कार्य कर सकेंगे और न्यायालय की इजाजत से परिवादी अपना अधिवक्ता नियुक्त कर सकते हैं ।

        ग्राम न्यायालय विधिक सेवा प्रणिकरण के माध्यम से पक्षकारो को निशुल्क विधिक सहायता उपलब्ध करायेगी और मामले के निर्णय की निःशुल्क प्रति तत्काल दोनो पक्षकारो को दी जावेगी । निर्णय विचारण समाप्ति के 15 दिन के अन्दर सुनाया जाएगा । ग्राम न्यायालय में भारतीय साक्ष्य अधिनियम कठोरता से लागू नहीं की जाएगी । साक्षियों की साक्ष्य विस्तार से अभिलिखित न कर संक्षेप में लिपिबद्ध की जाएगी । औपचारिक प्रकृृति  की साक्ष्य को शपथ पत्र पर प्रकट किए जाने की अनुमति दी जाएगी। 

        ग्राम न्यायालय द्वारा प्रत्येक सिविल विवादो में विशेष प्रक्रिया का पालन किया जावेगा, 100/-कोर्टफीस के साथ दावा ग्राम न्यायालय में प्रस्तुत किया जावेगा, सिविल वाद का निराकरण 6 माह की अवधि के अंदर किया जावेगा और तर्क सुनने के ठीक 15 दिन के अंदर निर्णय पारित किया जावेगा, निर्णय की प्रतिलिपि तीन दिन के अंदर निःशुल्क दी जावेगी ग्राम न्यायालय द्वारा पारित निर्णय डिक्री का निष्पादन सिविल प्रक्रिया के तहत होगा लेकिन इसमें नैसर्गिक न्याय के सिद्वांतो का अनुरण किया जावेगा । 

        ग्राम न्यायालय अनुसूची दो में दिये गये सिविल प्रकृति के मामले में सुनवाई करेगी ।

1-    सिविल विवाद-क-सम्पत्ति क्रय करने का अधिकार, ख-    आम चारागाहों का     उपयोग, ग-सिंचाई सरणियों से जल लेने का विनियमन और समय,
2-    सम्पत्ति विवाद-क-ग्राम और फार्म हाउस कब्जा, ख-जलसरणियां, ग-    कुंए या नलकूप से जल लेने का अधिकार,
3-    अन्य विवाद-
क-    मजदूरी संदाय अधिनियम 1948 के अधीन दावे,
ख-    न्यूनतम मजदूरी अधिनियम 1948 के अधीन दावे,
ग-    व्यापार संव्यवहार या साहूकारी से उद्भूत धन संबंधी वाद,
घ-    भूमि पर कृषि में भागीदारी से उद्भूत विवाद,
ड-    ग्राम पंचायतों के निवासियों द्वारा वन उपज के उपयोग के संबंध में विवाद,

        केन्द्री और राज्य सरकार द्वारा इस अधिनियम के धारा-14 की उपधारा-1 के अधीन अधिसूचित केन्द्रीय और राज्य अधिनियमों के अधीन दावे और विवाद ।

        ग्राम न्यायालय प्रथम दो अवसर पर यह प्रयास करेगी कि प्रत्येक वाद या कार्यवाही समझौते से निपटाई जावे । पक्षकारो के बीच समझौता कराये जाने का प्रयास किया जायेगा । इसके लिये सुलाहदारों की नियुक्ति जिला मजिस्ट्ेट के परामर्श से की जावेगी । 

        ग्राम न्यायालय की भाषा अंग्रेजी से भिन्न राज्य भाषाओं में से एक राज्य भाषा होगी ,भारत के संविधान की अनुसूची-8 में 22 भाषा राज्य भाषा के रूप में शामिल हैं। जिनमें असमी, बांगला, बोडो, डोगरी, गुजराती, हिन्दी, कन्नड, कश्मीरी, कोकंडी  मैथली, मलयालयम्, मणीपुरी, मराठी, नेपाली, उडिया, पंजाबी, संस्कृत, संथाली, सिंधी, तमिल, तेलगु, उर्दू, शामिल है ।

        ग्राम न्यायालय के किसी भी निर्णय दंडाज्ञा या आदेश के विरूद्ध अपील सेंशन न्यायालय में 30 दिन के अंदर होगी जिसे सेंशन न्यायालय 6 माह के अंदर निपटाएगी । सेंशन न्यायालय के निर्णय या विश्लेषण के विरूद्व अपील नहीं होगी रिट याचिका को वर्जित नहीं किया गया है ।

        अपराधिक प्रकरण में यदि आरोपी ने अपराध स्वीकार किया है तो उस दोषसिद्धी के विरूद्ध अपील नहीं होगी । इसी प्रकार ग्राम न्यायालय एक हजार रूपये से कम का जुर्माना किया है तो उसके विरूद्ध अपील नहीं होगी ।

        सिविल मामलो में अन्तर्वती आदेश को छोड़कर अंतिम आदेश के विरूद्ध जिला न्यायाधीश के न्यायालय में 30 दिन के अंदर अपील होगी, जिला न्यायालय 6 माह के अंदर सिविल अपील का निपटारा करेंगे । अपील न्यायालय के आदेश के विरूद्ध कोई अपील या पुनरीक्षण नहीं होगी । सिविल मामलों में यदि  कोई आदेश पक्षकारो की सहमति से पारित किया गया है तो विवादित  विषय वस्तु का मूल्य एक हजार रूपये से कम है तो वहां अपील नहीं होगी यदि विवादित विषय वस्तु का मूल्य पांच हजार रूपये से कम है तो विधि के प्रश्न पर अपील होगी ।

        ग्राम न्यायालय पुलिस सहायता प्राप्त कर सकेगी अपने कृत्यों के निर्वहन के लिये राजस्व अधिकारियों, सरकारी सेवक की सहायता प्राप्त कर सकती हैं । न्यायाधिकारी और कर्मचारी को लोक सेवक समझा जावेगा, प्रत्येक 6 माह में एक बार ग्राम न्यायालय का वरिष्ठ अधिकारी निरीक्षण करेगें 

        इस प्रकार न्याय प्राणाली को मजबूत करने और जन स्तर तक न्याय पहुंचाने के लिये तथा समाज के व्यक्तियों को त्वरित और सस्ता सुलभ न्याय  उपलब्ध हो सके इसके लिये ग्राम न्यायालय अधिनियम 2008 की स्थापना की गई है।

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta