भ्रष्टाचार निवारण अधनियम के अंतर्गत न्यायिक निर्णयों द्वारा स्थिर विधिक प्रतिपादनाएं
क- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के उपबंधों को लागू करने के लिए लोक सेवक को स्वयं के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या धनीय फायदे को-
1 भ्रष्ट या विधिविरूद्ध साधनो द्वारा या
2 लोक सेवक के रूप में अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग या
3 किसी लोक हित के बिना अभिप्राय करना ।
आर0साई भारतीय बनाम जे जयालालीथा, 2004 भाग-2 एस0सी0सी0 9 वाला मामला।
ख- लोक सेवक द्वारा अवचार आवश्यकतः अपने पदीय कर्तव्य के संबंध में किया जाना आवश्यक नहीं है । अतः यह आवश्यक नहीं हे कि लोक सेवक रिश्वत देने वाले को उसके द्वारा किए गए वदे के अनुसार शासकीय पक्षपात दर्शाने के योग्य है ।
धनेश्वर नारायण सक्सेना बनाम दिल्ली प्रशासन ए0आई0आर0 1962 एस0सी0 195 सीबी और
जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 वाला मामला ।
ग- प्रत्येक अवैध परितोषण की स्वीकृति चाहे मांग के पूर्ववर्ती य नहीं धारा 7 के अधीन आएगी । किन्तु यदि अवैध की स्वीकृति लोक सेवक द्वारा मांग के अनुसरण में है तो यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के अधीन भी आएगी ।
राज्य बनाम ए0प्रतिबन 2006 भाग-11 एस0सी0सी0 473
बालीराम बनाम महाराष्ट्र राज्य 2008 भाग-14 एस0सी0सी0 779।
घ- एक बार यदि अभियोजन यह साबित करता है कि नकद या किसी वस्तु के रूप में परितोषण लोक सेवक को दिया गया है या उसके द्वारा स्वीकार किया गया है तो न्यायालय धारण 7 के अधीन विधिक विवाधक के अधीन यह उपधारणा करने के लिए सशक्त है कि उक्त परितोषण किसी पदीय कार्य को करने या करने से प्रवर्तित रहने के लिए हेतुक या परितोषक के रूप में संदत्त या स्वीकार किया गया था ।
मधुकर भास्कर राव जोशी बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0 147 ।
ड- एक बार यह साबित हो जाता है कि अभियुक्त ने किसी ओर के बिना दूषित धन स्वीकार किया था तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हेै कि उसने धारा-13-1-घ के अर्थान्तर्गत मांग के अनुसरण में दूषित धन अभिप्राप्त किया ।
एम0डब्ल्यू0 मुहीद्दीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567 जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।
च- जब यह साबित हो जाता है कि कोई रकम लोक सेवक को अंतरित की गई है तो यह साबित करने का भार लोक सेवक पर है कि यह अवैध परितोषण के माध्यम से नहीं किया गया था।
बी0 नोहा बनाम केरल राज्य 2006 भाग-12 एस0.सी0सी0277।
छ- जब एक बार दूषित धन अभियुक्त लोक सेवक के कब्जे में आ जाता है तो या केवल निष्कर्ष निकाला जा सकता है उसने इसे स्वीकार किया और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के साथ पठित धारा-7 के अर्थान्तर्गत धनीय फायदा अभिप्राप्त किया
एम0डब्ल्यू0मोहीददीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567।
ज जहां अभियेाजन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और धारा-13-1 घ के साथ पठित धारा-13-2 के अधीन दण्डनीय अपराध के संबंध में है । वहां यह तर्क कि उपधारणा नहीं निकाली जा सकती यदि धारा-13-2 के साथ पठित धारा-13-1घ के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरोप धारा-7 के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरेाप धारा-7 के अधीन भी है ।
राज्य द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो हैदराबाद बनाम जी0प्रेम राज 2010 भाग-1 एस0सी0सी0 398 ।
झ यदि कानूनी उपधारणा अनुपयुक्त है क्योंकि आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा-5-1घ के अधीन है तो न्यायालय स्थितियां स्वयं बोलती है, के सिद्धांत को लागू कर सकता है । यदि लोक सेवक परिवादी से अभिप्राप्त चिन्हित करेंसी नोटो के साथ रंगे हाथ पकडा गया है ।
रघुवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य 1974 भाग 4 एस0सी0सी0 56
ए0आई0आर0 1974 एस0सी0 1516,
राज्य ए0पी0बनाम जीवरतनम 2004 भाग 6 एस0सी0सी0 488।
ञ - जब यह साबित हो जाता है कि धन की स्वीकृति स्वेच्छया और सोच समझकर की गई थी तो धारा 7 के साथ पठित धारा 13 एक घ के अधीन आरोप में अभियोजन को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा मांग या हेतुक साबित करने का अतिरिक्त भार नहीं डाला जा सकता ।
( बी. नोहा बनाम केरल राज्य, 2006 (12) एस.सी.सी. 277 ) ।
ट - महाराष्ट्र राज्य बनाम रसीद बी. मुलानी, 2006 एक एस.सी.सी. 407 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसकी परीक्षा के दौरान विलंब से न कि अन्वेषक अधिकारी को तत्काल अभियुक्त द्वारा दिया गया रिश्वत धन प्राप्त करने के लिए स्पष्टीकरण स्वीकार नहीं किया।
ठ - धारा 13 (1) घ के साथ पठित धारा 13 (2) के अधीन किसी भी समय अभियुक्त की यह दलील कि रिश्वत धन बलपूर्वक उसके हाथ में दिया गया था, 313 के अधीन परीक्षा के दौरान पहली बार उठाई गई दलील सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं की गई ।
राज्य ए.पी. बनाम पी. सत्यनारायण मुरतय, 2009 (9) एस.सी.सी. 674 ) ।
ड - लोक सेवक की ओर से तत्काल स्पष्टीकरण देने की सफलता पर जब पुलिस अधिकारी ने साक्षियों की उपस्थिति में यह घोषित किया कि अभियुक्त लोक सेवक ने परिवादी से रिश्वत धन ग्रहण किया, अभियोजन मामले के समर्थन में परिस्थिति के रूप िमें विचार नहीं किया जा सकता ।
सुल्ताना अहमद बनाम बिहार राज्य, 1947 चार एस.सी.सी. 252
जोसफ जेम्स बनाम केरल राज्य, 2010 (1) के.एल.डी. 581)
ढ- लोक सेवक का सामान्य और अनैच्छिक प्रक्रिया जब करेंसी नोट उसे सौंपे जाने का प्रयास किया गया घोर विरोध के पश्चात ऐसे व्यक्ति को जिसने उसे रिश्वत देने का प्रयास किया जोरदार डांट डपट किया गयाथा यदिजाल के दौरान मामले में ऐसी केाई बात घटित नहीं हुई तो यह ऐसा परिस्थिति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
ए0 शशिधरन बनाम केरल राज्य 2007 भाग-2 के0एल0डी0 600
जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।
सामान्य आशय के अग्रसरण में ऐसा करने के लिए और अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग करते हुए रिश्वत की मांग की ओर स्वीकार किया और तदद्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और 13-2 के साथ पठित धारा-13-1-घ तथा भारतीय दंण्ड संहिता की धारा-34 के अधीन दण्डनीय अपराध किया गया माना जाता है ।
क- भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के उपबंधों को लागू करने के लिए लोक सेवक को स्वयं के लिए या किसी अन्य व्यक्ति के लिए कोई मूल्यवान वस्तु या धनीय फायदे को-
1 भ्रष्ट या विधिविरूद्ध साधनो द्वारा या
2 लोक सेवक के रूप में अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग या
3 किसी लोक हित के बिना अभिप्राय करना ।
आर0साई भारतीय बनाम जे जयालालीथा, 2004 भाग-2 एस0सी0सी0 9 वाला मामला।
ख- लोक सेवक द्वारा अवचार आवश्यकतः अपने पदीय कर्तव्य के संबंध में किया जाना आवश्यक नहीं है । अतः यह आवश्यक नहीं हे कि लोक सेवक रिश्वत देने वाले को उसके द्वारा किए गए वदे के अनुसार शासकीय पक्षपात दर्शाने के योग्य है ।
धनेश्वर नारायण सक्सेना बनाम दिल्ली प्रशासन ए0आई0आर0 1962 एस0सी0 195 सीबी और
जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 वाला मामला ।
ग- प्रत्येक अवैध परितोषण की स्वीकृति चाहे मांग के पूर्ववर्ती य नहीं धारा 7 के अधीन आएगी । किन्तु यदि अवैध की स्वीकृति लोक सेवक द्वारा मांग के अनुसरण में है तो यह भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के अधीन भी आएगी ।
राज्य बनाम ए0प्रतिबन 2006 भाग-11 एस0सी0सी0 473
बालीराम बनाम महाराष्ट्र राज्य 2008 भाग-14 एस0सी0सी0 779।
घ- एक बार यदि अभियोजन यह साबित करता है कि नकद या किसी वस्तु के रूप में परितोषण लोक सेवक को दिया गया है या उसके द्वारा स्वीकार किया गया है तो न्यायालय धारण 7 के अधीन विधिक विवाधक के अधीन यह उपधारणा करने के लिए सशक्त है कि उक्त परितोषण किसी पदीय कार्य को करने या करने से प्रवर्तित रहने के लिए हेतुक या परितोषक के रूप में संदत्त या स्वीकार किया गया था ।
मधुकर भास्कर राव जोशी बनाम महाराष्ट्र राज्य ए0आई0आर0 2001 एस0सी0 147 ।
ड- एक बार यह साबित हो जाता है कि अभियुक्त ने किसी ओर के बिना दूषित धन स्वीकार किया था तो यह निष्कर्ष निकाला जा सकता हेै कि उसने धारा-13-1-घ के अर्थान्तर्गत मांग के अनुसरण में दूषित धन अभिप्राप्त किया ।
एम0डब्ल्यू0 मुहीद्दीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567 जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।
च- जब यह साबित हो जाता है कि कोई रकम लोक सेवक को अंतरित की गई है तो यह साबित करने का भार लोक सेवक पर है कि यह अवैध परितोषण के माध्यम से नहीं किया गया था।
बी0 नोहा बनाम केरल राज्य 2006 भाग-12 एस0.सी0सी0277।
छ- जब एक बार दूषित धन अभियुक्त लोक सेवक के कब्जे में आ जाता है तो या केवल निष्कर्ष निकाला जा सकता है उसने इसे स्वीकार किया और इस प्रकार भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-13-1-घ के साथ पठित धारा-7 के अर्थान्तर्गत धनीय फायदा अभिप्राप्त किया
एम0डब्ल्यू0मोहीददीन बनाम महाराष्ट्र राज्य 1995 भाग-3 एस0सी0सी0 567।
ज जहां अभियेाजन भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और धारा-13-1 घ के साथ पठित धारा-13-2 के अधीन दण्डनीय अपराध के संबंध में है । वहां यह तर्क कि उपधारणा नहीं निकाली जा सकती यदि धारा-13-2 के साथ पठित धारा-13-1घ के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरोप धारा-7 के अधीन आरोप इस तथ्य की अपेक्षा करता है कि आरेाप धारा-7 के अधीन भी है ।
राज्य द्वारा केन्द्रीय अन्वेषण ब्यूरो हैदराबाद बनाम जी0प्रेम राज 2010 भाग-1 एस0सी0सी0 398 ।
झ यदि कानूनी उपधारणा अनुपयुक्त है क्योंकि आरोप भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम 1947 की धारा-5-1घ के अधीन है तो न्यायालय स्थितियां स्वयं बोलती है, के सिद्धांत को लागू कर सकता है । यदि लोक सेवक परिवादी से अभिप्राप्त चिन्हित करेंसी नोटो के साथ रंगे हाथ पकडा गया है ।
रघुवीर सिंह बनाम पंजाब राज्य 1974 भाग 4 एस0सी0सी0 56
ए0आई0आर0 1974 एस0सी0 1516,
राज्य ए0पी0बनाम जीवरतनम 2004 भाग 6 एस0सी0सी0 488।
ञ - जब यह साबित हो जाता है कि धन की स्वीकृति स्वेच्छया और सोच समझकर की गई थी तो धारा 7 के साथ पठित धारा 13 एक घ के अधीन आरोप में अभियोजन को प्रत्यक्ष साक्ष्य द्वारा मांग या हेतुक साबित करने का अतिरिक्त भार नहीं डाला जा सकता ।
( बी. नोहा बनाम केरल राज्य, 2006 (12) एस.सी.सी. 277 ) ।
ट - महाराष्ट्र राज्य बनाम रसीद बी. मुलानी, 2006 एक एस.सी.सी. 407 वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 313 के अधीन उसकी परीक्षा के दौरान विलंब से न कि अन्वेषक अधिकारी को तत्काल अभियुक्त द्वारा दिया गया रिश्वत धन प्राप्त करने के लिए स्पष्टीकरण स्वीकार नहीं किया।
ठ - धारा 13 (1) घ के साथ पठित धारा 13 (2) के अधीन किसी भी समय अभियुक्त की यह दलील कि रिश्वत धन बलपूर्वक उसके हाथ में दिया गया था, 313 के अधीन परीक्षा के दौरान पहली बार उठाई गई दलील सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्वीकार नहीं की गई ।
राज्य ए.पी. बनाम पी. सत्यनारायण मुरतय, 2009 (9) एस.सी.सी. 674 ) ।
ड - लोक सेवक की ओर से तत्काल स्पष्टीकरण देने की सफलता पर जब पुलिस अधिकारी ने साक्षियों की उपस्थिति में यह घोषित किया कि अभियुक्त लोक सेवक ने परिवादी से रिश्वत धन ग्रहण किया, अभियोजन मामले के समर्थन में परिस्थिति के रूप िमें विचार नहीं किया जा सकता ।
सुल्ताना अहमद बनाम बिहार राज्य, 1947 चार एस.सी.सी. 252
जोसफ जेम्स बनाम केरल राज्य, 2010 (1) के.एल.डी. 581)
ढ- लोक सेवक का सामान्य और अनैच्छिक प्रक्रिया जब करेंसी नोट उसे सौंपे जाने का प्रयास किया गया घोर विरोध के पश्चात ऐसे व्यक्ति को जिसने उसे रिश्वत देने का प्रयास किया जोरदार डांट डपट किया गयाथा यदिजाल के दौरान मामले में ऐसी केाई बात घटित नहीं हुई तो यह ऐसा परिस्थिति है जिसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती ।
ए0 शशिधरन बनाम केरल राज्य 2007 भाग-2 के0एल0डी0 600
जोसफ जेम्स जोस बनाम केरल राज्य 2010 भाग-1 के0एल0डी0 581 ।
सामान्य आशय के अग्रसरण में ऐसा करने के लिए और अपनी पदीय स्थिति का दुरूपयोग करते हुए रिश्वत की मांग की ओर स्वीकार किया और तदद्वारा भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा-7 और 13-2 के साथ पठित धारा-13-1-घ तथा भारतीय दंण्ड संहिता की धारा-34 के अधीन दण्डनीय अपराध किया गया माना जाता है ।
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