धारा-174 दं0प्र0सं0 में मृत्यु समीक्षा के संबंध में

    

   धारा-174 दं0प्र0सं0 में मृत्यु समीक्षा के संबंध में

1-        धारा-174 दं.प्र.सं. के अंतर्गत की जाने वाली कार्यवाही का क्षेत्र अत्यंत पर संबंधित है। इसका उद्देश्य मात्र यह सुनिश्चित करना है, कि क्या किसी व्यक्ति की संदेहास्पद परिस्थितियों के अधीन मृत्यु हो गई है या अप्राकृतिक मृत्यु हुई है। यदि ऐसा है तो मृत्यु का प्रत्यक्ष कारण क्या है ?


2-        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत क्या मृतक पर हमला किया गया है। किसने हमला किया है। किन परिस्थितियों में हमला हुआ आदि बातें इसकी कार्यवाही और परिधि और क्षेत्र के बाहर की हैं। इसलिए मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में सभी प्रत्यक्ष कार्या के सभी विवरणों की प    रविष्टि कराना आवश्यक नहीं है। यदि इन चीजों का योग है तो न्यायालय द्वारा अभियोजन कहानी को संदेहास्पद नहीं माना जा सकता है। 

3-        पोददा नारायण बनाम आन्ध्रप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1975 एस0सी0 1252।


4-        शकीला खादर बनाम नौशेर गामा ए0आई0आर0 1975 एस0सी0 1324 के मामले में यदि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि ऐसा व्यक्ति प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं है।


5-        इकबाल बेग बनाम आंध्रप्रदेश राज्य ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 923-मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में आरोपी का नाम का उल्लेख नहीं होने से यह भी नहीं माना जा सकता कि वह अपराध के समय पस्थित नहीं था क्योंकि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट ऐसे किसी व्यक्ति का कथन नहीं है एवं सभी नामों का उल्लेख किया जावेगा।


6-        खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी बनाम मध्यप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 1853-वह 3 न्यायाधीशों की खण्डपीठों में यह अभिनिर्धारित किया है, कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों का लाभ मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में न होने पर उनकी साक्ष्य अविश्वसनीय नहीं हो जाती।


7-        अमरसिंह बनाम बलविन्दर सिंह (2003) 2 एस0सी0सी0 518-जे0टी0-2003 (2) एस0सी0-1 में यह अभिनिर्धारित किया गया है।


8-        राधा मोहन सिंह उर्फ लाल साहब और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य जे0टी0 2006    (1) एस0सी0 482 में 3 जजों की खण्डपीठ में यह अभिनिर्धारित किया है, कि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में अभियुक्त व्यक्तियों के नाम उनके पास के आयुध साक्षी के नाम का उल्लेख करना विधि की अपेक्षा नहीं है। मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट मृत्यु के स्पष्ट कारणों को निश्चित करने तक सीमित है और इसमें यह उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं है, कि मृतक पर किसने हमला किया था और हमले के साक्षी कौन थे

9-        अतः माननीय उच्चतम न्यायालय के अनेक विनिश्चयों से यह सुस्थापित है, कि मृत्यु समीक्षा करने का प्रयोजन अत्यंत परिसिमित है अर्थात् यह सुनिश्चित करना है, कि क्या किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की है या किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा हत्या की गई है या किसी पशु द्वारा या किसी मशीनरी द्वारा उसकी मृत्यु हुई है या कोई दुर्घटना हुई है या उसकी ऐसी परिस्थितियों के अधीन मृत्यु हुई है जो युक्तियुक्त रूप से यह संदेह उत्पन्न करती है कि किसी अन्य व्यक्ति ने अपराध किया है। निश्चित रूप से विधि की यह अपेक्षा नहीं है, कि प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के ब्यौरों का उल्लेख किया जाए, अभियुक्तों के नामों या प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के नामों का उल्लेख किया जाये या उनके कथनों का सार लिखा जाये और न ही यह आवश्यक है, कि किसी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी द्वारा उस पर हस्ताक्षर कराये जाये।
      

















   

‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
     ‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति

                                          दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई हैं तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा ।


                                      इस प्रकार प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी भी मृत्यु दण्ड, अजीवन कारावास, दो वर्ष से अधिक दण्डनीय अपराध के संबंध में की गई वह पहली सूचना हैं जिसके आधार पर अभियोजन द्वारा जाॅच प्रारंभ की जाती हैं । 


                             यदि रिपोर्टकर्ता थाने जाकर रिपोर्ट करने की स्थिति में नहीं हैं तो उसे मौके पर देहाती नालिस के रूप में दर्ज किया जाता हैं । इसी प्रकार यदि संबंधित क्षेत्राधिकार के बाहर रिपोर्ट की जाती हैं तो उसे शून्य पर कायम कर संबंधित थाने को भेजा जाता हैं । प्रथम सूचना रिपोर्ट को परिभाषित नहीं किया गया हैं, यह एक जानकारी मात्र हैं, जो अनवेषण अधिकारी को मामला फाइल करने के पूर्व अथवा पश्चात् के सभी विषय को खोजने के लिये प्राधिकृत करने हेतु समुचित होती हैं।


                         घटना के बाबत् धुंधले प्रकार का संदेश प्रथम सूचना रिपोर्ट के समतुल्य नहीं माना गया हैं ।(कृपया देखें पताई उर्फ कृष्ण कुमार बनाम स्टेट आॅफ यू.पी.,2010 क्रि.लाॅ.ज. 2815 सु.को.) । 


प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलम्ब का परिणाम
 
        प्रथम सूचना रिपोर्ट यदि विलम्ब से की गई हैं तो उस संबंध मे ंदिया गया स्पष्टीकरण तर्कपूर्ण व साख पूर्ण होना चाहिए यदि स्पष्टीकरण विलम्ब के संबंध में पर्याप्त नहीं हैं तो ऐसी रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित नहीं हैं ।
      
  विलंब से मामले के वृत्तांत में परिवर्तन होने की संभावना रहती हैं। इसीलिए अपेक्षा की जाती हैं कि आरंभिक अवसर में न्यायालय के समक्ष पहुंच की जाए। यदि पुलिस के समक्ष पहुॅंच करने में अथवा न्यायालय के समक्ष पहॅुंच करने में विलंब होता हैं तो ऐसी स्थिति में न्यायालय लांछनों को
संदेह की निगाह से देखेगा और वह इस संबंध में निः संकोच संतोषप्रद स्पष्टीकरण की मांग करेगा । यदि ऐसा स्पष्टीकरण नहीं पाया जाता हैं तो उस विलंब को अभियोजन के मामले के लिये घातक माना जाएगा । 


          प्रथम सूचना रिपोर्ट को त्वरित तौर पर दर्ज कराने के पीछे निहित भावना यह होती हैं कि विलंब किए जाने पर घटना बढ़ाए चढ़ाए जाने की संभावना हो सकती हैं ।
        रंजिश के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब को अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा गया हैं और असामान्य विलंब को संतोषजनक नहीं माना गया हैं ।     (कृपया देखें -रमेश बाबूराव देवास्कर बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, 2007 क्रि.लाॅ.ज. 851ः2008 क्रि.लाॅ.ज. 372ः2007(4) करेन्ट क्रिमिनल रिपोर्टर्स 272ः2007 (12) स्केल 272ः 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 6475 सु.को. )
        प्रत्येक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट विलंब से करना संदेहास्पद नहीं होता हैं। यह मामले के तथ्य और परिस्थितियों के आधार पर उसके विलंब से किये जाने के प्रभाव को ध्यान में रखकर विचार किया जाना चाहिए । इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा रविन्द्र कुमार बनाम स्टेट
आफ पंजाब 2007 भाग-7 एस.एस.सी. 690 में कुछ परिस्थितियाॅं बताई हैं जो निम्नलिखित हैं ।
    1-    भारतीय परिवेश में ग्रामवासियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह घटना के उपरांत तत्काल पुलिस को सूचना देंगें ।
    2-    मानवीय स्वभाव होता हैं कि मृतक के नाते-रिश्तेदार जिन्होने
घटना देखी हैं उनसे  शीघ्रता से रिपोर्ट किये जाने की आशा नहीं की जा सकती ।
       3-    इसके अलावा ग्रामीण व्यक्ति बिना समय गंवाए अपराध की पुलिस को जानकारी देने की आवश्यकता के तथ्य से अनभिज्ञ हो सकता हैं।     4-    इस तरह की स्थिति शहरी व्यक्तियों के साथ भी हो सकती हैं जो तत्काल पुलिस स्टेशन जाने की नहीं सोचते हैं।
    5-    सूचना देने वाले व्यक्ति को पुलिस स्टेशन पहुंचने तक समुचित परिवहन सुविधाओं का अभाव ।
    6-    मृतक के नाते-रिश्तेदारों को कतिपय स्तर की मस्तिष्क की प्रशांति को पुनः हासिल करने में समय लग सकता हैं ।
    7-    जो व्यक्ति ऐसी सूचना देने वाले समझे जाते हैं उनकी शारीरिक दशा अपने आप में इतनी बिगडी होने की स्थिति में हो सकती हैं कि पुलिस को दुर्घटना के बाबत् कतिपय जानकारी हासिल करने के लिए उनके पास तक पुलिस को पहॅुंचना पड़ा हो ।
         इस प्रकार सूचनादाता की दशा, कारित क्षतियों की प्रकृति, आहतों की संख्या, पुनः चिकित्सीय सहायता पहुॅंचाने के संबंध में किए गए प्रयास, अस्पताल की दूरी, पुलिस स्टेशन की दूरी आदि तथ्य व परिस्थितियों के आधार पर विलंब प्रथम सूचना रिपोर्ट का आकलन किया जाना चाहिए।उसे अपने आप विलंब के आधार पर संदेहास्पद नहीं माना जाना चाहिए । ( कृपया देखे- अमरसिंह बनाम बलविंदर सिंह,2003 (2) सु.को.के. 518ः2003 ए.आई.आर. डब्ल्यू 717, साहिब राव बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्  2006 क्रिं.लाॅ.ज. 2881 सु.को.), ऐसा कोई अंकगणितीय फार्मूला नहीं हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब के आधार पर किसी भी ओर अनुमान निकाला जा सके ।     


         प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्यिक मूल्य 

 
         प्रथम सूचना रिपोर्ट को सारवान साक्ष्य के भाग के रूप में होना नहीं समझा जा सकता है। अतः इसके आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा। इसका उपयोग इसको करने वाले व्यक्ति के खंडन अथवा समथर््ान के लिये ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा- 145 और 157 के अनुसार किया जा सकता हैं ।  कृपया देखें-अर्जुनसिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी.,1997 (1)म.प्र.वी.नो. 194 (स्टेट आॅफ एम.पी. बनाम के.के.पाण्डे,2007 (3) म.प्र.वी.नो. 21 म.प्र.) 


        प्रथम सूचना रिपोर्ट के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को इनसाइक्लोपीडिया होना आवश्यक नहीं होता हैं, इसलिये अभियोजन
घटना की सभी तथ्यों का इसमें समावेश होना आवश्यक नहीं हैं,ं परन्तु प्रथम सूचना रिपोर्ट में घटना की प्रथम जानकारी के बाबत अत्याधिक महत्वपूर्ण सामग्री होती हैं। इसके वृत्तांत में परिवर्तन किए जाने व सुधार किए जाने की संभावना होती है। 


        प्रथम सूचना रिपोर्ट मात्र विधि को गतिशील करने के लिए की जाती हैं। इसे विस्तृत होना अवश्यक नहीं हैं अपितु इसमें आवश्यक लांछन जिससे कि संज्ञेय अपराध कागठन होना होता हो पर्याप्त माना गया।  इसमें यदि सभी चक्षुदर्शी साक्षीगण के नाम वर्णित न हो सके तो यह तथ्य असारवान होगा। (चारू किशोर मेहता बनाम (श्रीमति) बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, क्रि.लाॅ.ज. 1486 बम्बई )  आनंद सिंह बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. 2010 क्रि.लाॅ.ज. एन.ओ.सी. 334 इलाहाबाद मनोज बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 1999 (4)सु.को.के. 268.सुजाय सेन बनाम स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल, 2007 (2) म.प्र.वी.नो. 89 सु.को. )   

 
         यदि एन्टी-टाइम व एन्टी- डेटेड रिपोर्ट के आधार पर मामला रजिस्टर्ड किया जाए और इसी कारण द.प्र.सं. की धारा- 157 के प्रावधान का पालन नहीं किया गया था । ऐसी स्थिति में प्रथम  सूचना रिपोर्ट को महत्व प्रदान नहीं किया गया। 


        यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट न केवल एन्टी-टाइम थी अपितु यह एन्टी-डेटेड भी थी, तो ऐसी देहाती नालिश में मामले को गढ़े जाने की संभावना मानी गयी।  (छबिलाल बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2009 (1) जे.एल.जे. 167 म.प्र. ) (रामाधार बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. आई.एल.आर.2011 म.प्र. नोट 32)
      
                             यदि साक्षी का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में होना नहीं पाया गया। घटना स्थल पर भीड़ थी और इसलिए प्रथम सूचना दाता से युक्तियुक्त तौर पर इस बात की प्रत्याशा नहीं की जाती थी कि वह प्रत्येक देखने वाले व्यक्ति के नाम को प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित करें ऐसी स्थिति में साक्षी की साक्ष्य को इस आधार पर त्यक्त नहीं किया जा सकता कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में उसका नाम नहीं था। (कृपया देखें- पिल्लू उर्फ प्रहलाद बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2010 (2) जे.एल.जे. 309 म.प्र.)

 
        इसी प्रकार यदि घायल साक्षी के नाम भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में न हो तो इस आधार पर भी उसे संदेहास्पद नहीं माना जा सकता । ऐसी कोई विधिक अपेक्षा नहीं हैं कि सभी साक्षीगण का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में हो ।


        प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्राॅवधानिक मुद्रित प्रारूप में होना चाहिए । यदि इस रूप में नहीं हैं तो उसे विश्वास योग्य नहीं माना जा सकता । पुलिस अधिकारी के द्वारा स्टेशन हाउस की डायरी में दर्ज सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जा सकता हैं। इसे केवल धारा- 162 के अंतर्गत अभिलिखत कथन माना जाएगा ।


        इसी प्रकार तार संदेश से दी गई अस्पष्ट सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। टेलीफोन से दी गई व्यर्थ सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं।  प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत करना प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार हैं ।


        एक ही घटना के संबंध में दी गई द्वितीय सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट के रूप में दर्ज नहीं की जा सकती। एक मामले में केवल एक ही एफ.आई.आर. हो सकती है।
        यदि आरोपी के द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाई गई हैं तो उसमें की गई संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धारा- 25 के अंतर्गत साक्ष्य में ग्रा्ह्य नहीं होगी लेकिन धारा- 8 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत आचरण के रूप में उसे मान्यता प्रदान की जाएगी । 



          यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में ओवहर राईटिंग की जाती हैं तो इस बात की संभावना हैं कि वह एंटी डेटेड थी अथवा एंटी टाइम थी । यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित वृत्तांत सत्य होना नहीं पाया जाता हैं और उसका चिकित्सीय एवं मौखिक साक्ष्य से भी समर्थन नहीं होता हैं तो ऐसी रिपोर्ट के आधार पर दोषसिद्धी नहीं दी जा सकती हैं ।

                      

























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धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता अभियुक्त सक्षम साक्षी

 धारा 315 दण्ड प्रक्रिया संहिता    अभियुक्त  सक्षम साक्षी 

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20  (3) में यह उपबंधित किया गया है, कि किसी भी व्यक्ति को जिस पर कोई अपराध लगाया गया है, स्वयं अपने विस्द्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। यह मूल अधिकार इस सिद्धांत पर आधारित है, कि प्रत्येक व्यक्ति तब तक निर्दाेष माना जाएगा, जब तक उसे अपराधी सिद्ध न कर दिया जाए। अपराधी के अपराध सिद्ध करने का भार अभियोजक पर होता है। अभियुक्त को अपनी इच्छा के विरूद्ध कोई स्वीकृति या बयान देने की आवश्यकता नहीं होती है। 


        इसी सिद्धांत को आधार मानते हुए दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 315 (1) में उपबंधित किया गया है, कि कोई व्यक्ति, जो किसी अपराध के लिए किसी दण्ड न्यायालय के समक्ष अभियुक्त है, प्रतिरक्षा के लिए सक्षम साक्षी होगा और अपने विरूद्ध या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य दे सकता है:-
    परन्तु -

(क) वह स्वयं अपनी लिखित प्रार्थना के बिना साक्षी के रूप में न बुलाया जाएगा,
(ख) उसका स्वयं साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय
    द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय न बनाया जाएगा और न उसे उसके, या उसी विचारण में उसके साथ आरोपित किसी व्यक्ति के विरूद्ध कोई उपधारणा ही की जाएगी।
    (2) कोई व्यक्ति जिसके विरूद्ध किसी दंड न्यायालय में धारा 98, या धारा        107, या धारा 108, या धारा 109, या धारा 110 के अधीन या अध्याय 9        के अधीन या अध्याय 10 के भाग ख, भाग ग या भाग घ के अधीन       कार्यवाही संस्थित की जाती, ऐसी कार्यवाही में अपने आपको साक्षी 
  के रूप में पेश कर सकता है:

    परन्तु धारा 108, धारा 109 या धारा 110 के अधीन कार्यवाही में ऐसे व्यक्ति
द्वारा साक्ष्य न देना पक्षकारों में से किसी के द्वारा या न्यायालय के द्वारा किसी टीका-टिप्पणी का विषय नहीं बनाया जाएगा और न उसे उसके या किसी अन्य व्यक्ति के विरूद्ध जिसके विरूद्ध उसी जाच में ऐसे व्यक्ति के साथ कार्यवाही की गई है, कोई  उपधारणा ही की जाएगी। 

        भारतीय संविधान के अनुच्छेद 20-3- में दिये गये मूल अधिकार के समकक्ष धारा-315 दं0प्र0सं0 है।अनुच्छेद 20-3- का संरक्षण तब मिलेगा जब निम्नलिखितें शर्तें पूरी होगी:-

    1-    व्यक्ति पर अपराध करने का आरोप लगाया गया हो।
    2-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया गया हो।
    3-    उसे अपने विरूद्ध गवाही देने के लिये बाध्य किया जाये।

        यह संरक्षण केवल आपराधिक मामले में अपराध के अभियुक्त को प्राप्त है,  सिविल कार्यवाही में लागू नहीं होता है।

        एम.पी. शर्मा बनाम सतीशचंद्र ए.आई.आर. 1954 सुप्रीम कोर्ट 300 एवं वीरा इब्राहिम महाराष्ट््र राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी. 1167 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि किसी व्यक्ति के विरूद्ध एफ.आई.आर. दर्ज की गई है, तो भी उसे अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जायेगा। गवाह बनने के लिये वाक्यांश की व्याख्या करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि ऐसी साक्ष्य प्रस्तुत करना या न्यायालय में किसी विलेख को प्रस्तुत करना जो विवादास्पद विषय पर प्रकाश डालता हो। इसमें अभियुक्त के ऐसे बयान शामिल नहीं है जो उसके व्यक्तिगत ज्ञान पर आधारित है।

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा स्टेट आफ बाम्बे बनाम काथूकाली ए.आई.आर.-1961 सुप्रीम कोर्ट 1808 और परसादी बनाम उत्तरप्रदेश ए.आई.आर. 1973 सुप्रीम कोर्ट 210 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-27 को वैध घोषित किया है। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि कोई अभियुक्त से स्वेच्छया से साक्ष्य देता है तो वह वर्जित नहीं है किन्तु उस पर यदि शारीरिक, मानसिक दबाव डाला जाता है तो इस प्रकार का साक्ष्य दबावपूर्ण साक्ष्य माना जाएगा इसलिए नंदनी सतपती बनाम पी.एल. धनी ए.आई.आर. 1978 सुप्रीम कोर्ट 1025 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि दं0प्र0सं0 की धारा-161 (2) में अभियुक्त से पूछताछ के दौरान ही उसे अपने लिये साक्ष्य देने बाध्य नहीं किया जा सकता। 


        दं0प्र0सं0 संहिता की धारा-315 यह नियम प्रतिपादित करती है, कि अभियुक्त व्यक्ति प्रतिरक्षा (कममिदबम) के लिए सक्षम साक्षी होता है और किसी अन्य साक्षी तरह वह अभियोजन द्वारा अपने विरूद्ध लगाए गए आरोपों को नासाबित करने के लिए शपथ पर साक्ष्य देने का हकदार होता है। 

        यह धारा यह भी उपबन्ध करती है कि साक्षी के रूप में उसकी परीक्षा न किए जाने से न्यायालय इससे कोई प्रतिकूल निष्कर्ष नहीं निकाल सकता। परन्तु यदि अभियुक्त अपनी परीक्षा प्रतिरक्षा के साक्षी के रूप में स्वेच्छा से करता है तो अभियोजन उसकी आगे की परीक्षा करने का हकदार होगा और ऐसा साक्ष्य सह-अभियुक्त के विरूद्ध उपयोग किया जा सकता है। 

        धारा-315 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत आरोपी से सक्षम साक्षी के रूप में प्रस्तुत होने संबंधी प्रक्रिया:-
        1-     यह कि आरोपी न्यायालय के समक्ष लिखित आवेदन प्रस्तुत              करेगा।
        2-    यह कि आरोपी को न्यायालय द्वारा साक्ष्य लेने के पूर्व शपथ                दिलाई जाएगी।
        3-     यह कि अभियोजन उसकी प्रतिपरीक्षा करेगा और प्रतिपरीक्षण             में  उसके विरूद्ध आए तथ्यों को प्रस्तुत कर सकेगा।
        4-    यह कि आरोपी इस सम्पूर्ण साक्ष्य के बाद उसके विरूद्ध                 साबित तथ्य साक्ष्य में ग्राह्य होगे। 

        अभियुक्त को शपथ दिलाने या प्रतिज्ञान कराने के विरूद्ध सृजित शपथ अधिनियम, 1969 की धारा 4(2) के अधीन वर्जन केवल दांडिक विचारण पर ही लागू होता है। शब्द ‘‘दांडिक कार्यवाही’’ की परिधि का विस्तार पुनरीक्षणों या अपीलों में दिए गए अन्तरिम आवेदन-पत्रों के समर्थन में शपथ-पत्रों के दाखिल किए जाने पर विस्तारित नहीं किया जा सकता। 

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा मोहम्मद शरीफ बनामा स्टेट  आफ झारखण्ड 2006 क्रिमनल लाॅ जनरल 4498 झारखण्ड, काशीराम बनाम स्टेट आफ एम.पी. ए.आई.आर. 2001 सुप्रीम कोर्ट 2902 में  अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त व्यक्ति साक्षी कक्ष में नहीं आता है तो इससे विपरीत आशय का निष्कर्ष नहीं निकाला जाना चाहिए। यह प्राथमिक आपराधिक विधिशास्त्र है कि किसी अभियुक्त को साक्षी बनने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता है। इसी प्रकार यह प्रतिरक्षा हेतु समुचित अवसर प्रदान किया गया परन्तु प्रतिरक्षा प्रस्तुत नहीं की जाती है तो प्रतिरक्षा का अधिकार आरोपी का समाप्त किया जा सकता है इसे प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के विपरित नहीं माना जा सकता है।

        यदि अभियुक्त साक्षी बन कर पेश हुआ और उसे उस दस्तावेज को पेश करने से नहीं रोका जाना चाहिए जिसपर वह भरोसा करके आया है। उसे इस आधार पर ऐसा करने से नहीं रोका जाना चाहिए कि उसने ऐसा साक्ष्य अभिलेखन के पूर्व नहीं किया था।  ऐसी  स्थिति में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा- गजेन्द्रसिंह विरूद्ध स्टेट आॅफ राजस्थान 1998 भाग-8 एस.एस.सी.-612 में अभिनिर्धारित किया है, कि उसे साक्ष्य-सम्बंधी दस्तावेज़ पेश करने की अनुमति दे देनी चाहिए।  

        विधि का यह सर्वमान्य सिद्धांत है, कि अभियोजन को अपना मामला साबित करना चाहिए और आपराधिक मामलों में सबूत का भार अभियोजन पर आरोपित किया गया है। भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-103 में विशिष्ट तथ्य के सबूत का भार उस व्यक्ति पर होता है जो न्यायालय से यह चाहता है, कि उसके अस्तित्व में विश्वास करें। जब तक कि किसी विधि द्वारा यह उपबंधित न हो कि उस तथ्य के सबूत का भार किसी विशिष्ट व्यक्ति पर होगा। ऐसे मामलों में आरोपी अभियोजन साक्षियों को प्रतिपरीक्षण में सुझाव देकर बचाव में दस्तावेज पेश कर और स्वयं उपस्थित होकर विशिष्ट तथ्य को साबित कर सकता है किन्तु उसे बाध्य नहीं किया जा सकता।

        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-105 में अभिनिर्धारित है, कि यह साबित करने का भार कि अभियुक्त का मामला अपवादों के अंतर्गत आता है, उस व्यक्ति पर है और न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करेगा। ऐसे मामलों में आरोपी स्वयं को प्रस्तुत कर तथ्य साबित कर सकता है, परन्तु उसे इसके लिये बाध्य नहीं किया जा सकता। 

        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा-106 इस बात का अपवाद है, कि अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे साबित करना चाहिए। धारा-106 भा0सा0अधि0 के अनुसार जबकि कोई तथ्य विशेषतः किसी व्यक्ति के ज्ञान में है, तब उस तथ्य को साबित करने का भार उस पर है। जबकि कोई व्यक्ति किसी कार्य को उस आशय से भिन्न किसी आशय से करता है जिसे उस कार्य का स्वरूप और परिस्थितियाॅ इंगित करती है तब उस आशय को साबित करने का भार उस व्यक्ति पर है।

        इस प्रकार यह धारा-101 भा.सा.अधि. का अपवाद है। आरोपी को जब कोई विशेष ज्ञान किसी वस्तु अथवा तथ्य के संबंध में है तो उसे साबित करने का भार उस पर है।
        इसी प्रकार जब अभियुक्त के कब्जे में कोई वस्तु प्रतिबंधित पाई जाती है तो विशेष ज्ञान के द्वारा यह स्पष्ट कर सकता है, कि वह वस्तु उसके पास किस प्रकार आई। उसके नहीं बताने पर उसे अवैध रूप से प्राप्त मानकर उसे संदेह का लाभ नहीं दिया जा सकता। जहाॅ पर आरोपी को विशेष ज्ञान और जानकारी साबित करना है वहाॅ पर वह खुद को प्रस्तुत करके उसे स्पष्ट कर सकता है। यदि उसके द्वारा अभियोजन साक्षियों को बचाव में सुझाव अथवा दस्तावेज और स्पष्टीकरण नहीं दिया जाता है, तो उसके विरूद्ध उपधारणा की जा सकती है।

        इस प्रकार धारा-315 दं0प्र0सं0 इस मूल अधिकार पर आधारित है, कि किसी भी व्यक्ति को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता और अभियोजन को अपना मामला संदेह के परे खुद साबित करना चाहिए। इसके लिये आरोपी को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने के लिये बाध्य नहीं किया जा सकता है।

        अपने विरूद्ध हस्तलिपि के मिलान हेतु नमूना देने, रक्त सेम्पल देना, नार्काे टेस्ट देना, मेमोरेण्डम कथन देना, तलाशी पंचनामा देना, हस्ताक्षर करना आदि भौतिक एवं रासायनिक परीक्षण अपने विरूद्ध साक्ष्य देने की श्रेणी में नहीं आते हैं क्योंकि ये वस्तुए केवल तुलना के उद्देश्य से ली जाती है।
               
                            
       

श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
श्रीमती सरला वर्मा एवं अन्य बनाम दिल्ली परिवहन निगम एवं अन्य, 2009 (2) दुर्घटना और मुआवजा प्रकाशिका 161 (सु.को.) में प्रतिपादित मुख्य सिद्धांत

1.        मृत्यु के मामले में मुआवजा निर्धारण के लिये-जहां मृतक विवाहित , है मृतक के व्यक्तिगत एवं जीवन यापन व्ययों के प्रति कटौती का निम्न सिद्धांत परिवार में आश्रितों की संख्या के आधार पर निर्धारित किया गया है:-

क्रमंाक     परिवार में आश्रितों की संख्या    व्यक्तिगत एवं जीवन
                            यापन व्ययों के प्रति कटौती

1        2 से 3                    1/3 (एक तिहाई)
2.        4 से 6                    1/4 (एक चैथाई)
3.        6 से अधिक                1/5 (एक पांचवा)

2.        यदि मृतक अविवाहित है तो व्यक्तिगत एवं जीवन यापन की कटौती 50 प्रतिशत की जाएगी, अविवाहित मृतक की केवल माता ही आश्रित मानी जाएगी, पिता-भाई‘-बहिन नहीं अपवादिक परिस्थितियों में माने जाएंगे।

3.        मृत्यु के मामले में प्रयोज्य गुणांक के संबध्ंा में मृतक की आयु के आधार पर निम्नलिखित गुणांक  अभिनिर्धारित किया गया है:-

क्रमांक        मृतक की आयु                 प्रयुक्त गुणांक
1.        15 वर्ष तक                        20
2.         15 से 20 वर्ष                        19
3.        21 से 25 वर्ष                        18
4.        26 से 30 वर्ष                        17
5.        31 से 30 वर्ष                        16
6.        36 से 40 वर्ष                        15
7.        41 से 45 वर्ष                        14
8.        46 से 50 वर्ष                        12
9.        51 से 55 वर्ष                        10
10.        56 से 60 वर्ष                        8
11.        61 से 65 वर्ष                        6
12.        65 से अधिक                         5

4.        मृत्यु के मामले में संपदा क्षति हेतु 5,000/-रूपये, अंत्येष्टि व्ययों हेतु 5,000/-रूपये और सहजीवन की क्षति हेतु 10,000/-रूपये दिये जायेंगे जो केवल मृतक की उत्तरजीवी विधवा को दिये जाएंगे। मृतक के विधिक उत्तराधिकारीगण को कारित पीड़ा, व्यथा, कठिनाई के लिये कोई राशि नहीं दी जाएगी।  (सहजीवन की क्षति केवल विधवा को ही दिलाई जाएगी) ।
5.        मृत्यु के पश्चात् हुए वेतन संसोधन को विचारण में ग्रहण नहीं किया जा सकेगा।
6.        मृत्यु के मामले में अंत्येष्ठि व्यय, मृत शरीर के परिवहन के व्यय, मृत्यु के पूर्व मृतक के चिकित्सीय उपचार को भी प्रदान किया जाएगा।
7मोटर व्हीकल एक्ट की धारा 163 (क) के अधीन किए गए दावों तथा धारा 166 के अधीन किए गए दावों के लिए दायित्व तथा मुआवजे की मात्रा के निर्धारण के सिद्धांत भिन्न-भिन्न (अलग-अलग) हैं ।
8.        मृत्यु के मामले में मृतक की आयु मृतक की आय, आश्रितों की संख्या तीन बातें प्रमाणित की जानी चाहिए।
9.        आश्रितता की क्षति के निर्धारण हेतु आय क निर्धारण होना चाहिए फिर उसमें मृतक के व्यक्तिगत जीवन यापन की कटौती की जानी चाहिए उसके बाद मृतक की आयु के संबंध में गुणांक कर उचित मुआवजा राशि निकाला जाना चाहिए।






























युक्तियुक्त संदेह

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                                                                 युक्तियुक्त संदेह   
        विधि का यह सामान्य सिद्धांत है, कि किसी भी निर्दाेष को सजा न हो इसलिए यदि संदेह उत्पन्न होता है, तो संदेह का लाभ आरोपी को दिया जाना चाहिए। लेकिन संदेह किसी कल्पना, अटकलों और अंदाज के आधार पर आधारित न होकर मजबूर आधारांे पर आधारित होना चाहिए।

        युक्तियुक्त संदेह साधारण तौर पर संदेह की वह श्रेणी है जो किसी न्यायसंगत और युक्तियुक्त व्यक्ति को कोई निष्कर्ष निकालने की अनुमति देगी। संदेह का औचित्य अन्वेषण किये जाने वाले अपराध की प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए। संदेह का लाभ देने के नियम को लागू करने की अत्यधिक लगन ऐसी काल्पनिक शंकाओं अथवा चिरकालिक सन्देहों को प्रोत्साहन न दें, जिनके द्वारा सामाजिक प्रतिरक्षा का विनाश हो जाए। न्याय को इस अभिवाक् पर निष्फल नहीं किया जा सकता है, कि किसी निर्दोष को दंड देने की बनिस्बत सैकड़ो दोषी व्यक्तियों को बचकर निकलने देना अधिक अच्छा है। दोषी को बचकर निकलने देना विधि के अनुसार न्याय करना नहीं है।


        दाण्डिक विधि विनश्चिायक सबूत की अपेक्षा नहीं करती। वह केवल युक्तियुक्त संदेह से परे सबूत की अपेक्षा करती है।  माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उ.प्र. राज्य बनाम रांझा राम आदि (1986) 4 एस.सी.सी. 99} के.गोपाल रेड्डी बनाम आंध्रप्रदेश राज्य, 1979 उम.नि.प. 893 मंे अभिनिर्धारित किया है, कि   युक्तियुक्त सन्देह से किसी भी समय किसी विवाद के बारे में हम में से किसी के दिमाग से उत्पन्न होने वाला कोई तुच्छ, हवाई या सारहीन सन्देह अभिप्रेत नहीं है, इससे ऐसा सन्देह अभिप्रेत नहीं है, जो दोषसिद्धि में हिचकिचाहट की भावना से उत्पन्न हुआ है। इससे युक्तियुक्तता पर आधारित वास्तविक संदेह अभिपे्रत है।


        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा खमकरण और अन्य बनाम उ.प्र. राज्य, ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 1567 एवं इन्दरसिंह व अन्य बनाम दिल्ली प्रशासन, 1979-1 उम.नि.प. 1443 में अभिनिर्धारित किया है, कि केवल सम्भाव्यताएॅ या क्षीण सम्भाव्यताएॅ या मात्र सन्देह, जो युक्तियुक्त नहीं है। न्याय के प्रशासन को खतरे में डाले बिना, उस दशा में अभियुक्त व्यक्ति की दोषमुक्ति का आधार नहीं बन सकते, जब अन्यथा उचित रूप से विश्वसनीय परिसाक्ष्य है। 


    माननीय उच्चतम न्यायालय का स्पष्ट अभिमत है    कि ‘‘यह आवश्यक है, कि सभी दाण्डिक मामलों में युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत दिया जाना चाहिए, यह आवश्यक नहीं कि यह परिपूर्ण हो। यदि कोई मामला पूर्ण रूप से साबित कर दिया गया है तो यह दलील दी जाती है, कि यह कृत्रिम है। यदि किसी मामले में कुछ दोष रह गये हैं, जो मानव के त्रुटि उन्मुख होने के कारण अनिवार्य हैं तो यह दलील दी जाती है कि यह बहुत अपूर्ण है। यह आश्चर्य     होता है कि क्या किसी निर्दाेष व्यक्ति को सजा दिलाने से बचाने के लिये अत्यधिक तर्क, अतिसंवेदिता में बहुत से दोषी व्यक्तियों को     निर्दयता से छूट दे दी जाए। युक्तियुक्त सन्देह से परे सबूत मार्गदर्शन है न कि कोई जादू टोना।‘‘ 


            अब्दुलगानी बनाम म.प्र. राज्य ए.आई.आर. 1974 एस.सी. 753 में अभिनिर्धारित किया गया है, कि  न्यायालय में साक्ष्य देते समय कभी-कभी कोई साक्षी भ्रमित हो जाता है। कोई साक्षी पूर्णतः सत्यवादी होने के बावजूद न्यायालय के वातावरण और बीधने वाली प्रति-परीक्षण से आतंकित हो सकता है। ऐसी असंगतियों को जो मामले की जड़ तक नहीं पहुंचती और मामले की मूल विशेषताओं को नष्ट नहीं करती। असम्यक महत्व नहीं दिया जा सकता। 


        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा उप्र. राज्य बनाम अनिल सिंह, 1989-1 उम.नि.प. 977 के मामले में न्यायालयों की साक्ष्य में फर्क होने की दशा में सारे मामले को झूंठा मानकर अस्वीकार करते हुए सुगम मार्ग अपनाने की भत्र्सना की है। न्यायालय का कर्तव्य यह है, कि वह वास्तविक सच्चाई का पता लगावे। न्यायाधीश मात्र इसलिए दाण्डिक विचारण में पीठासन नहीं होता है, कि वह यह सुनिश्चित करें कि किसी निर्दाेष व्यक्ति को दंडित न किया जाए। न्यायाधीश इसलिए भी पीठासीन होता है-जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि कोई दोषी व्यक्ति दंडित होने से न बच जाए। दोनों ही महत्वपूर्ण कर्तव्य हैं, जिनका न्यायाधीशांें को पालन करना होता है।


    कालीराम बनाम हिमाचल प्रदेश राज्य ए.आई.आर.1973    में अभिनिर्धारित किया गया है, कि यदि अभियुक्त के दोष के बारे में कोई युक्तियुक्त संदेह उत्पन्न हो जाए तो उसके लाभ से अभियुक्त को वंचित नहीं किया जा सकता है। यदि न्यायालय अभियुक्त को संदेह का लाभ न दें, तो यह न्यायोचित न होगा, लेकिन दोषमुक्ति से विधि और व्यवस्था की स्थिति पर प्रभाव पड़ सकता है या इससे समाज के ऐसे सदस्यों में एक प्रतिकूल प्रतिक्रिया हो सकती है, जो यह विश्वास करते हैं, कि अभियुक्त दोषी है। अभियुक्त के दोष पर इस तथ्य की दृष्टि से विचार नहीं किया जाना चाहिए कि बहुसंख्यक व्यक्ति यह विश्वास करते हैं, कि वह दोषी  है,  अपितु  इस दृष्टि से कि क्या उसका दोष अभिलेख पर लाई गई साक्ष्य द्वारा सिद्ध कर दिया गया है। वास्तव में अभ्ज्ञियुक्त के रूप में दोषारोपित व्यक्ति के दोष का निर्णय करने के लिये न्यायालयों के पास शायद ही और कोई मापदंड या सामग्री है।
      
        कभी-कभी लोकहित और अभियुक्त के हित के विरोध का उल्लेख किया जाता है। यह निःसंदेह सही है, कि गलत दोष-मुक्ति अवांछनीय है और इससे न्याय पद्धति में आम जनता का विश्वास शिथिल पड़ सकता है। तथापि निर्दोष व्यक्ति की गलत दोषसिद्धि इससे कहीं अधिक बुरी है। निर्दोष व्यक्ति की दोषसिद्धि के परिणाम कहीं अधिक गंभीर होते हैं और इसकी प्रतिक्रियाएॅ अवश्यंभावी  रूप से सभ्य समाज में अनुभव की जा सकती है।

        आरोपी/अभियुक्त के विरूद्ध कितना भी प्रबल संदेह हो और न्यायाधीश का कितना भी प्रबल नैतिक विश्वास एवं निश्चय हों, परन्तु जब तक वैध साक्ष्य तथा अभिलेख की विषय वस्तु के आधार पर युक्तियुक्त शंका के परे दोषारोप सिद्ध नहीं होता है, तब तक उसे दण्डित नहीं किया जा सकता है। समग्र रूप से अभियोजन कथा सत्य हो सकती है, परन्तु ‘‘हो सकती है‘‘ और ‘‘होना चाहिए‘‘ के मध्य एक लंबी दूरी है और आरोपी को वैध विश्वसनीय एवं अकाट्य साक्ष्य के माध्यम से इस दूरी को पार करना अनिवार्य है।


        शिवाजी साहब राय व अन्य बनाम महाराष्ट्र राज्य, ए.आई.आर. 1973 एस.सी. 2622, बर्की जोसफ बनाम केरल राज्य, ए.आई.आर. 1993 एस.सी. 1892 पैरा-1, 2, आशीष बाथम बनाम म.प्र. राज्य, 2003 (1) एम.पी.एच.टी. 1 एस.सी. वाले मामले में उच्चतम न्यायालय ने यह ठहराया है, कि निश्चय ही यह एक प्राथमिक सिद्धांत है, कि इससे पहले कि न्यायालय अभियुक्त को दोषसिद्ध कर सके, अभियुक्त दोषी ‘‘होना चाहिए‘‘ न कि केवल ‘‘दोषी हो सकता है‘‘। ‘‘हो सकता है तथा ‘‘होना चाहिए‘‘ के बीच वास्तविक अन्तर बहुत लम्बा है जो अस्पष्ट अटकलों को निश्चित निष्कर्षाें से अलग करता है।

        हमें इस बात से अनभिज्ञ नहीं होना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत की कोटि उससे अधिक कड़ी होती है जितनी सिविल कार्यवाहियों में अपेक्षित होती है। किसी दाण्डिक विचारण में मामले के तथ्य और परिस्थितियाॅ चाहे कितनी ही पेचीदा क्यांे न हो, फिर भी अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को सभी युक्तियुक्त सन्देहों से परे साबित किया जाना चाहिए और सबूत की अपेक्षा को कल्पनाओं और अनुमानों के आधार पर नहीं छोड़ा जा सकता है। हालांकि न्यायालय की अंतश्चेतना की इस संबंध में तुष्टि हो जानी चाहिए कि अभियुक्त को ऐसी स्थिति में दोषी अभिनिर्धारित नहीं किया गया है।

                      जब अभिकथित अपराधों के संबंध में अभियुक्त के निर्दोष होने के बाबत् युक्तियुक्त संदेह है, फिर भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि किसी दाण्डिक विचारण में सबूत के लिये कोई पूर्ण स्तरमान नहीं है और यह प्रश्न कि क्या अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोप किसी युक्तियुक्त संदेह से परे साबित हो गये हैं। प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर तथा उस मामले में प्रस्तुत की गई साक्ष्य की श्रेणी ओर अभिलेख पर रखी गई सामाग्री पर निर्भर करता है। 


        गुरूवचन सिंह बनाम सतपाल सिंह व अन्य, ए0आई0आर0 1990 एस0सी0 209 वाले मामले मंे यह उपदर्शित किया है, कि न्यायालय की अंतश्चेतना को किसी नियम द्वारा आबद्ध नहीं किया जा सकता, बल्कि वह स्वयं किसी निर्णय को देने में सत्यता और बुद्धिमता का प्रयोग करते हुए यह कार्य करती है।


        अंत में यह निष्कर्ष निकलता है, कि न्याय दर्शन भारतीय दर्शन की धुरी है। इसमें न केवल आर्य विचारधारा प्रभावित हुई, बल्कि जैन, बौद्ध एवं समस्त उपनिषदीय चिंतन का स्वरूप भी निश्चित हुआ। संसार में सत्य केवल साधारण कथन से मान्य नहीं होता है। उसे तर्क आधारित होना पड़ता है। केवल तर्कांे से भी कुछ विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। तर्क तो खोपड़ी की खुजलाहट मात्र है, जो बुद्धि के चातुर्य से प्रकट होता है। तर्क से हम दिन को रात व रात को दिन सिद्ध कर सकते हैं। हर तर्क को अपने पक्ष में प्रमाण लाना पड़ता है। शुद्ध ज्ञान तर्कशील प्रमाणों का विवेचन विश्लेषण है। अतः युक्तियुक्त संदेह को कल्पना, अटकलों और संभावनाओं पर न तौलते हुए मजबूत आधार सबूत, निश्चयात्मक तथ्यों के आधार पर तौलना चाहिए।





द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता के संबंध में विधिक स्थिति

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता के संबंध में विधिक स्थिति , जहा धारा-35 भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 के तहत प्राथमिक साक्ष्य (मूल दस्तावेज) अग्राह्य पाया जावे:-
                                        
                                                         भारतीय स्टाम्प अधिनियम एक वित्तीय अधिनियम है जो कुछ दस्तावेजांे पर राज्य शासन के राजस्व को सुरक्षित करने के उद्देश्य से अधिनियमित किया गया। यह इस उद्देश्य से नहीं बनाया गया है कि किसी पक्षकार को एक हथियार प्रदान कर दिया जावे जिससे कि वह यांत्रिकीय आधार पर विपक्षी के केस को मिटा सके।

                                        मूलतः यह प्रावधान राजस्व के हित में सृजित किया गया। एक बार जब इस प्रावधान का उद्देश्य कानून के द्वारा स्थापित कर दियागया है तो वह पक्षकार जो किसी दस्तावेज के आधार पर दावा करता है। केवल उस दस्तावेज की प्रारंभिक त्रुटियों के कारण विफल नहीं किया जावेगा। 

        द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता की विधिक स्थिति पर विचार करने के पूर्व उपरोक्त सिद्धांत को मस्तिष्क में रखना आवश्यक है।

                              शीर्षस्थ न्यायालय ने हाल में ही डा0 चिरंजित लाल वि0 हरिदास -2005  (10) एस0सी0सी0 746के प्रकरण में यह कहा है कि किसी दस्तावेज की साक्ष्य मंे ग्राह्यता पर विचार करने के दौरान उस विचार को दृढ़ता के साथ द्वितीयक कानून के आलोक में यथा धारा-35 इंडियन स्टांप के आलोक में विवेचित करना चाहिए।

        धारा-35 कहती है, कि कोई दस्तावेज जिस पर स्टांप ड्यूटी देय है और उचित रूप से स्टांपित नहीं है, उसे साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया जा सकता और कानून  के  द्वारा या उभय पक्षों की सहमति के द्वारा भी वह ग्राह्य नहीं होता। मूलतः यह कहा जा सकता है, कि धारा-35 के प्रावधान किसी प्रकार के द्वितीयक साक्ष्य को नहीं पहचानता है और यह तथ्य उसके लिये अंजान है। 

        धारा-35 इंडियन स्टांप एक्ट 1899 के अनुसार वैसे दस्तावेज जिनके लिये स्टांपित होना आवश्यक है और वे स्टांपित नहीं है या पर्याप्त रूप से स्टांपित नहीं है, उन्हंे साक्ष्य में ग्राह्य नहीं किया जायेगा।

 सिवाय की वह दस्तावेज रशीद विनिमय पत्र और वचन पत्र नहीं है

 उपरोक्त तीन दस्तावेजों को छोड़कर अन्य कोई भी दस्तावेज यदि पर्याप्त रूप से स्टांपित नहीं पाया जाता है तो वह साक्ष्य में तभी ग्राह्य होगा जबकि स्टांप ड्यूटी की कमी  को अदा कर दिया जाए और दस्तावेज को अभिप्रमाणित कर दिया जाए। 

        गंगा बिसन वि0 तुकाराम 1909 एन0एल0जे0 70 के प्रकरण में नागपुर उच्च न्यायालय ने निर्धारित किया था कि किसी भी दशा में प्राथमिक साक्ष्य के स्थान पर द्वितीयक साक्ष्य को प्रतिस्थापित नहीं किया जा सकता है। तात्पर्य यह है, कि यदि प्राथमिक साक्ष्य ग्राह्य नहीं हुई तो किसी भी दशा में द्वितीयक साक्ष्य नहीं दिया जा सकता।

        इसी प्रकार सेवा वि0 तुका 1951 ए0आई0आर0 (राज) 66 वाले प्रकरण मंे राजस्थान हाईकोर्ट ने निर्धारित किया कि वे अस्टांपित होने के कारण अथवा अपर्याप्त रूप से स्टांपित होने के कारण यदि कोई प्राथमिक दस्तावेज साक्ष्य में अग्राह्य हो तो उसका द्वितीयक दस्तावेज या साक्ष्य भी अग्राह्य होगा।

 जैसा कि उपर कहा जा चुका है सर्वाेच्च न्यायालय ने भी स्टेट आफ बिहार वि0 करमचंद और ब्रदर्स लिमिटेड 1962 ए0आई0आर0 (एस0सी0) 110 वाले प्रकरण में निर्धारित किया कि दस्तावेजों को अभिप्रमाणिक प्राथमिक दस्तावेज पर किया जाता है और इस हेतु द्वितीयक दस्तावेज को प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है और जब प्रस्तुत ही नहीं किया जा सकता तो साक्ष्य में उसके ग्राह्य होने का प्रश्न ही नहीं उठता है,

 इसी तथ्य को सुग्रीव प्रसाद दुबे वि. सीताराम दुबे 2004 (1) एम0पी0एच0टी0 488 मंे  उच्च न्यायालय ने भी पुष्ट किया है और कहा है, कि यदि कोई मूल दस्तावेज अस्टांपित या अपर्याप्त रूप से स्टांपित होने के कारण साक्ष्य में अग्राह्य हो तो उसका द्वितीयक साक्ष्य यथा उसके फोटोकाॅपी भी साक्ष्य में अग्राह्य हांेगे। 

        जे0के0राव वि0 पी0बी0 सुब्बाराव  1971 ए0आई0आर0 (एस0सी0)1070 इस बिन्दु पर एक महत्वपूर्ण फैसला है जिसमें अवधारित सिद्धांत सुग्रीव प्रसाद वाले केस में भी माना गया था। इस केस में सर्वाेच्च न्यायालय में अवधारित किया है, कि अस्टांपित या अपर्याप्त रूप से स्टांपित दस्तावेज साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होते हैं और उन दस्तावेजों की काॅपियाॅ या द्वितीयक साक्ष्य भी साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होती  (पैरा 13 और 14)

 पंजाब उच्च न्यायालय ने करतारसिंह वि0 मोहिन्दरसिंह 1971 ए0आई0आर0 (पंजाब) 458 वाले प्रकरण में अवधारित किया कि यदि प्राथमिक दस्तावेज स्टांप ड्यूटी की कमी और साक्षी की अदायगी के बाद अभिप्रमाणित कर दिया गया हो और उसके बाद वह खो जाए तो ऐसी दशा में उसका द्वितीयक साक्ष्य नहीं किया जा सकता और यदि दिया भी जाता है तो वह साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा। 


पंजाब उच्च न्यायालय का यह निर्णय वैसे द्वितीयक साक्ष्य की ग्राह्यता को प्रतिबंधित करता है जिसका मूल दस्तावेज अभिप्रमाणित किया गया हो और बाद में खो गया हो। इसी न्याय दृष्टांत में यह भी कहा गया है, कि:-

यदि पहले वाले केस में द्वितीयक साक्ष्य अस्टांपित होने के कारण साक्ष्य में अग्राह्य पाया जाए तो बाद वाले प्रकरण में भी वे अग्राह्य ही होंगे।

 पूर्व में ही रामरतिन वि0 परमानंद 1946 ए0आई0आर0 (पी0सी0) 51 वाले प्रकरण में यह कहा गया है, कि संपाश्र्वनिक प्रयोजनों के लिये भी अस्टांपित दस्तावेज ग्राह्य नहीं हो सकते हैं

 और फर्म चुन्नीलाल, टुक्कीलाल वि0 फर्म मुकटलाल, रामचरण 1968 ए0आई0आर0 (ईलाहा.) 64 वाले प्रकरण में यह कहा गया है, कि उपर वाली दशा में पक्षकारों के हस्ताक्षर भी प्रमाणित नहीं किए जा सकते हैं। 

        उपरोक्त विवेचन के आलोक में एवं जे0के0 राव वि0 पी0वी0 सुब्बाराव और अन्य वाले न्याय दृष्टांत के आधार पर जो अपने उच्च न्यायालय द्वारा भी सुग्रीव प्रसाद वाले केस में पुष्ट किया गया है। यह बिल्कुल स्पष्ट है, कि यदि किसी कारण  से प्राथमिक साक्ष्य अग्राह्य होगा तो उसी का द्वितीयक साक्ष्य नहीं दिया जा सकता है और किसी भी दशा में साक्ष्य में ग्राह्य नहीं होगा।

क्या मृतक का विधिक प्रतिनिधि मोटर यान अधिनियम, 1988 की धारा-166 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है जब कि वह आश्रित नहीं है ?

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

        क्या मृतक का विधिक प्रतिनिधि मोटर यान अधिनियम,  1988 की धारा-166 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की मांग कर सकता है जब कि वह आश्रित नहीं है ?

        मोटर यान अधिनियम एक लोककल्याणकारी लोकहित संबंधी अधिनियम है जिसके अंतर्गत सड़क दुर्घटना में  घायल होने, स्थाई रूप से अंपग होने एवं आकस्मिक मृत्यु की दशा में परिवार के सदस्यों को क्षतिपूर्ति दिये जाने संबंधी प्रावधान दिये गये हैं। यदि संपत्ति को भी कोई नुकसान पहुंचाता है तो उसकी भी क्षतिपूर्ती की जाती है।


        इस अधिनियम की धारा-165 के अंतर्गत राज्य सरकार राजपत्र में अधिसूचना द्वारा मोटरदावा अधिकरण की संरचना करती है जो मोटरयानों के उपयोग से व्यक्तियों को मृत्यु, शारीरिक क्षति, सपंत्ति का नुकसान आदि के संबंध में प्रतिकर का निर्धारण करती है। 


        मोटरयान अधिनियम 1988 की धारा-166 के अनुसार इस प्रकार के प्रतिकर के लिये जो दुर्घटना से उत्पन्न हुआ है,     न्यायालय में उस व्यक्ति के द्वारा आवेदन प्रस्तुत किया जा सकता है। 

क-    उस व्यक्ति द्वारा, जिसे क्षति हुई है, या
ख-    संपत्ति के स्वामी द्वारा, या
ग-    जब दुर्घटना के परिणामस्वरूप मृत्यु हुई है, तब मृतक के सभी या किसी विधिक प्रतिनिधि द्वारा, या
घ-    जिस व्यक्ति को क्षति पहुंची है उसके द्वारा अथवा सम्यक रूप से प्राधिकृत किसी अभिकर्ता द्वारा अथवा मृतक के सभी या विधिक प्रतिनिधि द्वारा

        मोटरयान अधिनियम 1988 में विधिक प्रतिनिधि को कहीं परिभाषा नहीं दी गई है। विधिक प्रतिनिधि को व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा-2 (11) में परिभाषित किया गया है।


        जिसके अनुसार विधिक प्रतिनिधि से वह व्यक्ति अभिप्रेत है जो मृत व्यक्ति का विधिक दृष्टि से प्रतिनिधित्व करता है ओर इसके अंतर्गत कोई दूसरा व्यक्ति आता है जो मृत व्यक्ति की संपदा में दखलांदाजी करता है और जहाॅ किसी पक्षकार प्रतिनिधि के रूप में वाद लाता है या जहाॅ किसी पक्षकार पर प्रतिनिधि के रूप में वाद लाया जाता है, वहाॅ वह व्यक्ति इसके अंतर्गत आता है जिसे वह संपदा उस पक्षकार के मरने पर न्यायगत होती है जो इस प्रकार वाद लाये या जिस पर इस प्रकार वाद लाया है। 


      मोटरयान अधिनियम के अंतर्गत प्रतिकर राशि का निर्धारण आश्रितता के सिद्धांत के आधार पर धारा-168 के अंतर्गत किया जाता है और उसी व्यक्ति को प्रतिकर दिया जाता है जो किसी दुर्घटना के कारण उस धनराशि सुविधा, सुख आदि से वंचित होता है जिसका वह पात्र था। इसका अपवाद धारा-140 -2- जहाॅ त्रुटिविहीन दायित्व के लिये विधिक प्रतिनिधि बिना आश्रितता के आधार पर भी क्षतिपूर्ती प्राप्त कर सकता है। 

        दावा न्यायालय द्वारा विधिक प्रतिनिधि के प्रतिकर का निर्धारण उत्तरजीविका के आधार पर अथवा उनकी व्यक्तिगत विधि के आधार पर नहीं किया जाता है।
      
        यारासिंह बनाम पंजाब राज्य 1998 ए0सी0जे0 493 पंजाब हरियाणा के मामले में विधिक प्रतिनिधि का निर्वाचन किया गया है। जिसके अनुसार मोटरयान अधिनियम में जो विधिक प्रतिनिधि शब्द है उस शब्द का निर्वाचन हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम की धारा-8 में दिये गये वैधानिक प्रतिनिधियों की परिभाषा के आधार पर विस्तृत अथवा सीमित नहीं किया जा सकता है।

        इसी प्रकार अब्दुल रहमान बनाम दयाराम 1989 ए0सी0जे0 806 में बंबई उच्च न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है, कि प्रतिकर के मामले में व्यक्तिगत विधि लागू नहीं होती। आश्रितता के प्रश्न पर जोर दिया जाता है। 

        मुस्लिम विधि के अंतर्गत पिता द्वारा पृथक से  आधे प्रतिकर की मांग की गई थी जिसे इंकार किया गया है तथा शकुन बनाम स्टेट आॅफ म0प्र0 1995 ए0सी0जे0 64 में म0प्र0 उच्च न्यायालय की खण्डपीठ ने भी अभिनिर्धारित किया है, कि हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम के सिद्धांत मोटरयान अधिनियम के अंतर्गत प्रस्तुत दावा प्रकरणों पर लागू नहीं होते।

        इस प्रकार यह सुस्थापित सिद्धांत है, कि दावा अधिकरण के द्वारा प्रतिकर का निर्धारण करते समय केवल आश्रितता पर जोर दिया जाता है और व्यक्तिगत विधि के प्रावधान प्रतिकर निर्धारण करते समय लागू नहीं होते हैं। 

        आश्रितता को कहीं परिभाषित नहीं किया गया है किन्तु इसका निर्धारण अधिनियम के अंतर्गत दी गई अनुसूचियों और पक्षकारों के जीवन की दशा स्थिति, आय व्यय को देखते हुए किया जाता है जिसके अंतर्गत दाम्पत्य सुख से वंचित रहने  बाबत् प्रतिकर, संतान से प्रत्याशा की हानि बाबत् प्रतिकर, विकलंाग होने पर शादी में परेशानी बाबत् प्रतिकर, इलाज के दौरान विशेष भोजन हेतु प्रतिकर, संतान सुख से वंचित होने पर प्रतिकर, जीवन के आनन्द में हानि बाबत् प्रतिकर आदि का निर्धारण किया जाता है।

        आश्रितता का सीधा अर्थ किसी व्यक्ति पर आश्रित होना है और उस व्यक्ति के उपर जीवन की स्थिति के लिये निर्भर होना है और बिना उसके उस जीवन में भोग रहे सुख, समृद्धि, कल्याण, सुविधा आदि की कल्पना नहीं की जा सकती। यह मानकर चलना है ऐसी दशा में यदि आश्रित व्यक्ति को कोई हानि पहुंची है तो उसका प्रभाव उस पर आधारित व्यक्तियों पर पड़ता है और इसी बात का निर्धारण धन के रूप में प्रतिकर के रूप में दावा अधिकरण करते हैं।

        अधिकांश मामलों में दावा अधिकरण के द्वारा आश्रितता के आधार पर ही प्रतिकर का निर्धारण किया जाता है और जो विधिक प्रतिनिधि आश्रितता की कोटि में नहीं आते हैं उन्हें सामान्यतः प्रतिकर नहीं दिया जाता है।

        यदि माॅ की दुर्घटना में मृत्यु हुई हो और विवाहित पुत्र/पुत्री माॅ से अलग रहते हों तो उन्हें प्रतिकर पाने का हकदार नहीं माना गया है क्योंकि वे अपनी माॅ पर आश्रित नहीं थे। एम0पी0एस0 रोड़ ट््रांसपोर्ट बनाम राघवैया 1989 ए0सी0जे0 622

        एक मामले में अवयस्क भाई की ओर से दावा पेश किया गया किन्तु वह पिता एवं भाई का भरणपोषण नहीं करता था ऐसी स्थिति में भाई एवं पिता मृतक की मृत्यु के संबंध में प्रतिकर पाने के हकदार नहीं माने गये। रेखा बनाम रामपाल 1984 ए0सी0जे0 929

    यदि मृतक के माता-पिता जीवित हैं तो उसके भाई प्रतिकर पाने का हकदार नहीं माना गया। हंसराज वल्द नीलम चोपड़ा 1986 ए0सी0जे0 152 भाई को उसी समय मृतक का  विधिक  प्रतिनिधि माना जा सकता है जब पक्षकारों शासित करने वाली व्यक्तिगत विधि के अंतर्गत अधिमानीय वारिसगण अनुपस्थित हों। न्यू इंडिया इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध अब्दुल रसीद 1998 भाग-1 म0प्र0 वीकली नोट-112


        माॅ की उपस्थिति में भाई या बहिन अपने भाई की मृत्यु का प्रतिकर दावा करने के अधिकार नहीं माने जा सकते। यदि मृतक के भाई के अलावा अन्य कोई संबंधी न हो तो भाई प्रतिकर के रूप में दावा प्रस्तुत कर सकता है। उच्चतम न्यायालय द्वारा गुजरात स्टेट रोड़ कार्पाेरेशन बनाम रावनभाई 1987 एम0सी0जे0-561  में यह निर्धारित किया है

        विधवा अपने स्वर्गीय पति की मृत्यु के संबंध में प्रतिकर का दावा प्रस्तुत कर सकती है, उसके साथ ही साथ बच्चों, मृतक की माॅ भी दावा प्रस्तुत कर सकती है क्योंकि व्यक्तिगत विधि के प्रावधान लागू नहीं होते हैं इसलिए सौतेली माॅ भी पक्षकार हो सकती है।

        इस प्रकार जो भी व्यक्ति आश्रित रहता है वह आश्रितता के सिद्धांत के आधार पर दावा प्रस्तुत कर सकता है और सभी विधिक प्रतिनिधि को दावा प्रस्तुत करने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है, किन्तु इसके लिये शर्त है, कि मृतक पर आश्रित हो, तभी क्षतिपूर्ति की माॅग कर सकते हैं। 

        यदि विधिक प्रतिनिधि मृतक पर आश्रित नहीं हैं तो वह क्षतिपूर्ति की मंाग नहीं कर सकता। दावा अधिकरण द्वारा स्वतंत्र आय अर्जित करने वाले पुत्रगण को मृतक का प्रतिकर पाने का हकदार नहीं पाया गया।

         सामेला बनाम रामपुरी 1995 ए0सी0जे0 1094 म0प्र0 के मामले में दावेदार जो मृतक पर आश्रित नहीं थे उन्हें दावे की कोई राशि पाने का हकदार नहीं माना गया। इस मामले में मृतक के दादा-दादी, माता-पिता के अलावा मृतक के भाई-बहिन भी शामिल थे परन्तु मृतक के भाई-बहिन मृतक पर आश्रित नहीं होना पाये गये इसलिए उन्हें प्रतिकर में किसी राशि के पाये जाने का हकदार नहीं माना गया है।

         इस प्रकार यह सुस्थपित सिद्धांत है, कि जो मृतक का विधिक प्रतिनिधि मृतक पर आश्रित नहीं है, उसे क्षतिपूर्ति प्रदान नहीं की जायेगी किन्तु वह क्षतिपूर्ति की मांग विधिक प्रतिनिधि होने के नाते कर सकता है किन्तु उसे केवल आश्रितता के आधार पर ही क्षतिपूर्ति दी जायेगी।

    दावा अधिकरण की धारा-166 में विधिक प्रतिनिधि के दावा प्रस्तुत करने का अधिकार दिया गया है किन्तु दावा अधिकरण धारा-140 (2) के अंतर्गत आश्रिता ना होने की दशा में भी विधिक प्रतिनिधि को क्षतिपूर्ति प्रदान कर सकता है तथा कई मामलों में आश्रिता ना होने की दशा मंे भी क्षतिपूर्ति प्रतिकर प्रदान किया गया है। 

        विधिक प्रतिनिधि ऐसा व्यक्ति होता है, जो मोटरयान दुर्घटना के कारण व्यक्ति की मृत्यु होने से हानि उठाता है और उसे आवश्यक रूप से पति-पत्नि, माता-पिता होना आवश्यक नहीं होता है।

        माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा लेटेट्स सुप्रीम कोर्ट पुने 2007 भाग- (4)    पृष्ठ क्रं0-239 श्रीमति मंजूरी बेरा बनाम ओरिऐंटेड इंश्योरेंस लिमिटेड कंपनी के मामले में निर्धारित किया है, कि विधिक प्रतिनिधिगण केवल दावेदार का मृतक पर आश्रित होना नहीं है। धारा-2 (11) व्य0प्र0सं0 के अंतर्गत उसका निश्चित और विधिक प्रतिनिधि आश्रित ना होने की दशा में प्रतिकर प्राप्त कर सकता है और प्रतिकर की मात्रा अधिनियम की धारा-140 में निर्धारित दायित्व से कम नहीं होगी। 

        मान0 उच्चतम न्यायालय अधिनियम की धारा-140 के अंतर्गत आश्रितता का वाद के कारण दायित्व समाप्त नहीं होता है, क्योंकि आश्रितता का अभाव है। दावा आवेदन पत्र दाखिल करने का अधिकार का विचारण हकदारी के अधिकार की पृष्ठभूमि में किया जाना चाहिए। मात्रा निर्धारित करते समय गुणक विधि का उपयोग आश्रितता की वंचना के कारण किया जाता है। 

        उस व्यक्ति का दायित्व, जो उत्तरदायी है और व्यक्ति जिसे दायित्व की क्षतिपूर्ति करना है, अधिनियम की धारा-140 के निबन्धन में दायित्व आश्रितता के अभाव के कारण समाप्त नहीं होती है। ऐसी दशा में विधिक प्रतिनिधि जो आश्रित नहीं हैं। प्रतिकर के लिये आवेदन प्रस्तुत करते हैं केवल प्रतिकर की मात्रा धारा-140 से कम पाने का अधिकारी नहीं होता है। यदि विवाहित पुत्री अपने पिता की विधिक प्रतिनिधि के रूप में दावा करती है तो वह आश्रित ना होने की दशा में भी त्रुटिविहिन दायित्व के अंतर्गत प्रतिकर पाने की अधिकारी है। 

        इस प्रकार मृतक का विधिक प्रतिनिधि धारा-166 के अंतर्गत क्षतिपूर्ति की मांग तो कर सकता है परन्तु आश्रित न होने की दशा में उसे क्षतिपूर्ति नहीं दी जायेगी और आश्रित साबत न होने की दशा में विधिक प्रतिनिधि केवल धारा-140 (2) के अंतर्गत निर्धारित क्षतिपूर्ति उत्तराधिकार के रूप में प्राप्त करने के अधिकारी हैं।

धारा-174 दं0प्र0सं0 ‘‘मृत्यु समीक्षा‘‘ धारा-176 (1-ए) जांच

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha 

  धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत ‘‘मृत्यु समीक्षा‘‘ एवं धारा-176 (1-ए) दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच में अंतर समझाईये ?

                     भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को प्राण और दैहिक स्वतंत्रता का अधिकार दिया गया है, इसलिए कि व्यक्ति के साथ न्याय हो। अतः मृत्यु समीक्षा के अलावा न्यायिक  मजिस्टेªट द्वारा भी जांच के प्रावधान धारा-176 (1-ए) के अंतर्गत दं0प्र0सं0 में जोड़े गये हैं। जिसका मुख्य उद्देश्य यह है कि:-

1-    किसी भी व्यक्ति की स्वतंत्रता या नागरिक अधिकार अन्यायपूर्ण तरीके से न छीनें जाये।

2-    कोई भी व्यक्ति जिसकी स्वतंत्रता छीन ली गई है अभिरक्षा में रहे व्यक्तियों की निर्दयता और उपेक्षा का शिकार न बनने पाये।

3-    किसी भी मृत व्यक्ति की जो जमीन में गाड़ दिया गया है पहचान हो सके और मृत्यु के कारणों का पता चल सके।

4-    यदि मृत्यु या मामले पर संदेह हो, तो मामला न्यायिक मृत्यु समीक्षा में सुलझना चाहिए न कि पुलिस मृत्यु समीक्षा से।

5-    यह कि, पुलिस अभिरक्षा के दौरान मृत्यु या बलात्कार होने पर पीडि़त व्यक्ति को न्याय प्राप्त हो सके और दोषी को सजा प्राप्त हो सके। 

                                      उपरोक्त मानवीय दृष्टिाकोण को ध्यान में रखते हुए न्यायिक मजिस्टेªट के द्वारा मृत्यु समीक्षा के अधिकार दं0प्र0सं0 मंे दिये गये हैं। 

मृत्यु समीक्षा:-समीक्षा का अर्थ है, तथ्य की विधिवत जांच चिकित्सा न्यायशास्त्र में मृत्यु समीक्षा का अर्थ है मृत्यु के उन कारणों की जांच जो प्राकृतिक कारण नहीं लगते। जब भी किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो विधि के अंतर्गत यह आवश्यक है, कि जांच की जाए कि मृत्यु प्राकृतिक या अप्राकृतिक किन कारणों से हुई है।

         यदि मृत्यु प्राकृतिक कारणों जैसे हृदयधमनी अवरोध, कर्क रोग, फुफ््फुसशोथ आदि से हुई है तो आगे की जांच आवश्यक नहीं है और शव की अंत्येष्ठि क्रिया उसके धार्मिक संस्कारों के अनुसार कर दी जाती है।

    यदि मृत्यु अप्राकृतिक कारणों से हुई है तो यह आवश्यक है, कि मृत्यु के कारण की जांच की जाए (मृत्यु समीक्षा) और अपराधी को पकड़कर दंड दिया जाए। ऐसी मृत्यु को अप्राकृतिक या संदेहास्पद मृत्यु कहते हैं और यह जरूरी है, कि उसकी रिपोर्ट अधिकारियों को की जाए ताकि अन्वेषण हो सके।

    धारा-176 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मृत्यु के कारण की मजिस्टेªट द्वारा जांच के प्रावधान दिये गये हैं। 

        निम्नलिखित परिस्थितियों में मजिस्टेªट मृत्यु की जांच कर सकता है 

1-    जब किसी व्यक्ति की मृत्यु पुलिस की अभिरक्षा में हुई है।

2-    जब मृत्यु उन परिस्थितियों में हुई है जो धारा-174 में पुलिस द्वारा जांच के     संबंध में बताई गई है। 

        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत निम्नलिखित परिस्थितियों में मृत्यु के कारणों की जांच की आवश्यकता है -

जब (1)    किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की है, या 

    (2)    किसी व्यक्ति की हत्या की गई है, या

    (3)    किसी व्यक्ति की मृत्यु-

            1.    किसी पशु द्वारा, या
        2.    किसी मशीन द्वारा,
        3.    किसी दुर्घटना में हुई है, या

    (4)    किसी व्यक्ति की मृत्यु ऐसी परिस्थितियों में हुई है कि जिससे ऐसा             संदेह है, कि उसके साथ किसी ने अपराध किया है।

        दण्ड प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2005 द्वारा-

        धारा-176 (1) (क) जोड़ी गई है जिसके अनुसार पुलिस द्वारा की जा रही जांच और विवेचना के अतिरिक्त न्यायिक मजिस्टेªट या महानगरीय मजिस्टेªट जैसा भी मामला हो जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकारिता में अपराध हुआ है, उसके द्वारा जांच की जाएगी। ऐसी जांच निम्नलिखित मामलों में की जाएगी।

    1.    जहाॅ कोई व्यक्ति या महिला पुलिस अभिरक्षा में है या मजिस्टेªट या न्यायालय द्वारा प्राधिकृत अभिरक्षा में है और इस दौरान.......................................

        जहाॅ कोई व्यक्ति मर जाता है,
        जहाॅ कोई व्यक्ति गायब हो जाता है,
        जहाॅ किसी स्त्री के साथ बलात्कार किया जाना अपेक्षित है,
        वहाॅ पर न्यायिक मजिस्टेªट द्वारा जांच की जाएगी।
जांच की प्रक्रिया:-

1.    ऐसी जांच करने वाला मजिस्टेªट उसके संबंध में लिए गए साक्ष्य को इसमें इसके पश्चात् विहित किसी प्रकार से मामले की परिस्थितियों के अनुसार अभिलिखत करेगा। 

2.    जब कभी ऐसे मजिस्टेªट के विचार में यह समीचीन है, कि किसी व्यक्ति के, जो पहले ही गाड़ दिया गया है, मृत शरीर की इसलिए परीक्षा की जाए कि उसकी मृत्यु के कारण का पता चले, तब मजिस्टेªट उस शरीर को निकलवा सकता है और उसकी परीक्षा करा सकता है।

3.        जहाॅ कोई जांच इस धारा के अधीन की जानी है, वहाॅ मजिस्टेªट जहाॅ कहीं साध्य है, मृतक के उन नातेदारों को, जिनके नाम और पते ज्ञात हैं, इत्तिला देगा और उन्हें जांच के समय उपस्थित रहने की अनुज्ञा देगा। ‘‘नातेदार‘‘ पद से माता-पिता, संतान, भाई-बहिन और पति या पत्नि अभिप्रेत है।

4.        जांच अधिकारी किसी व्यक्ति की मृत्यु के 24 घंटे के भीतर शव को परीक्षित किये जाने की दृष्टि से निकटतम सिविल सर्जन या इसके लिये राज्य शासन द्वारा नियुक्त अन्य सुयोग्य चिकित्सकीय व्यक्ति को अग्रेषित करेगा। यदि ऐसा करना संभव न हो, तो लिखित रूप से ऐसे कारणांे को अभिलिखित किया जावेगा।

धारा-174 दं0प्र0सं0 एवं धारा-176 दं0प्र0सं0 में जांच अंतर
 

(1)        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत विशेष रूप से नियुक्त मृत्यु समीक्षा करने के लिये सशक्त जिला मजिस्टेªट, उपखंड मजिस्टेªट, कार्यपालिक मजिस्टेªट द्वारा जांच की जाएगी।

जबकि धारा-176 दं0प्र0सं0 (1) (क)  के अंतर्गत स्थानीय क्षेत्राधिकारिता के न्यायिक मजिस्टेªट    या महानगरीय मजिस्टेªट जिसकी स्थानीय क्षेत्राधिकारिता पर अपराध कारित हुआ, उसके द्वारा जांच की जावेगी। 

(2)    धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मृत्यु के दृष्यमान कारणांे की जांच की जाती है और केवल उसकी रिपोर्ट तैयार की जाती है।

जबकि धारा-176  (1) (क) के अंतर्गत साक्ष्य अभिलिखत करके मामले की संपूर्ण जांच कर ही रिपोर्ट तैयार की जाती है और उसमें दोषी व्यक्ति का उल्लेख भी होता है। 

(3)    धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत नियुक्त मजिस्टेªट मृत्यु के कारण की बाबत् संदेह होने पर एवं मृत्यु की समीक्षा कर कारणों का उल्लेख कर यह राय देता है, कि मृत्यु अप्राकृतिक मृत्यु है।

जबकि धारा-176 (1) (क)     के अंतर्गत न्यायिक मजिस्टेªट मामले की जांच करता है। साक्षियों के कथन अभिलिखत कर मृत्यु के कारणों का पता लगाकर उसके रिश्तेदारों से पूछताछ कर, शव परीक्षण कराकर उपर्युक्त जांच प्रतिवेदन देता है,जिसमें किये गये अपराध का उल्लेख, जिन व्यक्तियों ने अपराध किया, उनका उल्लेख, कौन सा अपराध किया, उसका उल्लेख होता है और इस प्रकार का जांच प्रतिवेदन आपराधिक कार्यवाही किये जाने के लिये पर्याप्त आधार होता है।

(4)        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत मौके पर केवल दो अधिक गवाहों को उस समय की वास्तविक स्थिति के दर्शाने हेतु एवं मामले के तथ्यों से परिचित व्यक्तियों को बुलाया जाता है। 

    जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत मृतक के रिश्तेदार की उपस्थिति में भी जांच की जाती है और संबंधित व्यक्तियों की साक्ष्य अभिलिखित की जाती है, उसके बाद प्रतिवेदन प्रस्तुत किया जाता है, जिसमंे संपूर्ण परिस्थितियों का वर्णन रहता है। 

(5)        धारा-174 दं0प्र0सं0 की मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में साक्षियों का वर्णन नहीं रहता है। 

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत की जा रही जांच में साक्षियों के नाम का उल्लेख रहता है। 

(6)        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जिन परिस्थितियों में मृत्यु होना पाया जाता है उसकी जांच की जाती है।
    जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत किस व्यक्ति ने अपराध किया उसकी जांच की जाती है।

(7)        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच की प्रक्रिया धारा-174 और 175 दं0प्र0सं0 के अनुसार की जाती है।

    जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत प्रक्रिया निर्धारित नहीं है। इसे जांच अधिकारी स्वयं निर्धारित कर सकता है या जिस अधिकारी ने उसे नियुक्त किया है वह प्रक्रिया को निर्धारित करके दे सकता है।

(8)        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच अधिकारी की 
शक्तियाॅ सीमित हैं।

जबकि धारा-176 (1) (क) के अंतर्गत जांच करने हेतु मजिस्टेªट को ये सब शक्तियाॅ प्राप्त हैं जो उसे किसी अपराध की जांच विचारण के संबंध में प्राप्त हैं।

                  इस प्रकार धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत सीमित जांच की जाती है, जबकि धारा-176 (1) (क) दं0प्र0सं0 के अंतर्गत जांच का क्षेत्र असीमित हैं।
















              

अनुसूचित जाति जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के अंतर्गत मजिस्टेªट को जमानत की अधिकारिता

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha 

 अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 के अंतर्गत मजिस्टेªट को जमानत देने की अधिकारिता 

                            अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति अत्याचार निवारण अधिनियम 1989 एक विशेष अधिनियम है और इस अधिनियम के अंतर्गत अपराधों के विचारण के लिये विशेष न्यायालय का गठन किया गया है।

                                 अधिनियम को धारा-3 के अंतर्गत वर्णित अपराधों में कम से कम छह माह एवं अधिकतम 05 वर्ष तथा कुछ अपराधों में मृत्यु दण्ड तथा आजीवन कारावास तक की सजा के प्रावधान दिये गये हैं।

                           इस संहिता में जमानत के संबंध में धारा-18 के अंतर्गत केवल यह प्रावधान दिया गया है, कि दं0प्र0सं0 की धारा-438 के प्रावधान इस अधिनियम के अधीन अपराध करने के अभियोग पर किसी गिरफ्तारी के किसी मामले के संबंध में लागू नहीं होंगें।


                                  इसके अलावा जमानत के संबंध में कोई प्रावधान नहीं दिया गया है। ऐसी दशा में सुस्थापित सिद्धांत है, कि जब विशेष अधिनियम में जमानत के संबंध में कोई प्रावधान न दिये गये हो, तो दं0प्र0सं0 के प्रावधान लागू होंगे।

                                    दं0प्र0सं0 के    23 की अनुसूचि-2 के अनुसार अन्य विधियों के विरूद्ध अपराधों में 03 वर्ष से कम की सजा या केवल जुर्माने से दण्डनीय अपराध जमानतीय माने गये हैं और तीन वर्ष से अधिक की सजा के अपराध अजमानतीय माने गये हैं। 


                                    ऐसी दशा में जब विशेष अधिनियम में जमानत संबंधी कोई प्रावधान नहीं है, तो दं0प्र0सं0 के प्रावधान लागू होते हैं। 


        इस संबंध में मानन0उच्च न्यायालय द्वारा मिर्ची उर्फ राकेशवि.एम.पी.राज्य2001(3)एम0पी0एल0जे0-356 में यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि अनुसूचित जाति तथा जनजाति अधिनियम के तहत होने वाले मामले में विशेष न्यायालय द्वारा धारा-439 दं0प्र0सं0 के तहत जमानत प्रदान करने में सक्षम होता है। 


                          इसी प्रकार धारा-437 दं0प्र0सं0 के प्रावधान के अनुसार मजिस्टेªट केवल मृत्यु दण्ड अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय अपराधों को छोड़कर सभी मामलों में उसे जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।


                            इस संबंध में सानू वि0 स्टेट बैंक आॅफ केरल राज्य 2001 क्राइम्स 292, रामभरोस वि0 उत्तरप्रदेश राज्य 2004 (2) क्राइम्स 651 तथा संजय वि0 महाराष्ट्र राज्य क्रि0ला0जनरल 2984 बाम्बे में स्पष्ट रूप से यह अभिनिर्धारित किया गया है कि:-


                                       उन मामलों में सिवाय जिनमें कि व्यक्ति को मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दंडनीय अपराध में विचारित किया जाना हो न्यायालय के मजिस्ट््रेट को अभियुक्त को जमानत प्रदान करने अथवा इंकार करने के संबंध में विस्तृत शक्ति प्राप्त होती है, इनका उपयोग न्यायिक तौर पर किया जाना चाहिए।


                                       जमानत प्रदान करने में मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त गंभीर प्रकृति के अपराध को करने के संबंध में अभियुक्त है, जमानत प्रदान करने में सम्पूर्ण प्रतिषेध नहीं होता है। 

                                            धारा-209 दं0प्र0सं0 के अलावा जो कि कमिटल कार्यवाही को व्यक्त करती है मजिस्टे््रेट को जमानत प्रदान करने अथवा इंकार करने की शक्तियों पर र्को वर्जन अधिरोपित नहीं किया गया है।



                                            यह भी स्पष्ट किया गया है, कि अपराध को विचारण करने के संबंध में मजि0 को शक्ति का अभाव है। आगे यह स्पष्ट किया गया है कि जब तक विशेष विधान को जो कि विशेष न्यायालय को इसके अधीन होने वाले अपराधों के विचारण के बाबत् अनन्य अधिकारिता प्रदान करता है,

                                    जैसा कि स्वापक औषधि एवं मनः प्रभावी पदार्थ अधिनियम की धारा-36 (क) में प्रावधान है, जिसमें कि मजि0 को आरोपीगण को ऐसे अपराध कारित करने के संबंध में जमानत प्रदान करने से अपवर्जित किया गया हो, उसके सिवाए जमानत प्रदान करने के संबंध में मजि0 को शक्तियों पर कोई प्रतिबंध नहीं लगाया जा सकता।

                               मात्र इस आधार पर कि अभियुक्त 1989 के अनु0जाति0जनजाति अत्या0निवारण अधिनियम में अभियुक्त है, जब तक कि अपराध मृत्यु अथवा आजीवन कारावास से दण्डनीय ना हो। 

                                               इस संबंध में ए0एम0अली वि0 केरल राज्य 2000 क्रि0ला0जनरल 2721 में प्रतिपादित किया गया है, कि यदि कुछ अपराध साधारण प्रकृति के और कुछ अपराध गंभीर किस्म के अपराध हो, तो ऐसी स्थिति में भी मजिस्टेªट को सामान्य सिद्धांत के अनुसार धारा-437 दं0प्र0सं0 के तहत एस0सी0एस0टी0 एक्ट में जमानत देने की क्षेत्राधिकारिता प्राप्त है। 



                                  गंागुला अशोक वि0 आंध्रप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 -2000 एस0सी0डब्ल्यू0 279 मंे यह भी अभिनिर्धारित किया गया है, कि ‘‘विशेष न्यायालय बिना कमिटल के अपराध का विचारण नहीं कर सकता है और मजिस्टेªट के धारा-209 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत उपार्पण करने के उपरान्त प्रकरण का विचारण विशेष न्यायालय करती है और धारा-209 (ख) में स्पष्ट रूप से अभिनिर्धारित किया गया है, कि जमानत से संबंधित इस संहिता के उपबंधों के अधीन रहते हुए विचारण के दौरान और समाप्त होने पर अभियुक्त को अभिरक्षा में प्रतिप्रेषित किया जायेगा


                               इस प्रकार धारा-209 (ख) सहपठित धारा-437 के प्रावधानों के अनुसार भी मजिस्टेªट को विशेष अधिनियम मंे जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

                                                 खाली गवार वि0 राज्य 1974 क्रि0ला0जनरल 526 एस0के0 और आफताब अहमद वि0 यू0पी0 राज्य 1990 क्रि0ला0जनरल 1636 में भी यह अभिनिर्धारित किया गया है, कि मजिस्टेªट को जमानत देने का अधिकार उसके प्रकरण के विचारण करने के अधिकार से संबंधित नहीं है।


                            जमानत का अधिकार आरोपित अपराध मंे सजा से संबंधित है और धारा-437 के प्रावधान के अनुसार मृत्यु दण्ड और आजीवन कारावास से दंडनय अपराध को छोड़कर शेष सभी मामलों में मजिस्टेªट द्वारा जमानत दी जा सकती है।

                                ऐसी दशा में मान0उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों में धारा-437, 209 दं0प्र0सं0 के प्रावधान को देखते हुए  मजिस्टेªट को इस विशेष अधिनियम के अंतर्गत जमानत देने का क्षेत्राधिकार प्राप्त है।

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umesh gupta