दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3)

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
1. विचारण न्यायालय द्वारा धारा 357 द.प्र.सं. की शक्ति का प्रयोग करना चाहिए :-
        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के प्रावधानों का समुचित, प्रभावपूर्ण एवं उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिकिषन विरूद्ध सुखवीर सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2127 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 न्यायालय को इस बात के लिये सषक्त करती है कि वह पीडित व्यक्ति को युक्तियुक्त प्रतिकर दिलाये।

 ऐसा प्रतिकर अभियुक्त पर अधिरोपित अर्थदण्ड से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1) के अंतर्गत तथा अन्यथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अंतर्गत दिलाया जा सकता है।

   2      माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने व्यक्त किया है कि यह शक्ति पीडित व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने के लिये है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में उसे विस्मृत नहीं किया है। अपराधों के संबंध में यह एक रचनात्मक पहुच है तथा आपराधिक न्याय व्यवस्था को आगे ले जाने वाला एक कदम है, जिसका उपयोग सकारात्मक, सार्थक एवं प्रभावी तरीके से किया जाना चाहिये। यह अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट उक्त विधिक स्थिति के क्रम में अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करेंगे।


                                प्रतिकर

        के.भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन 1997-7 एस.सी.सी.510    में संहिता की धारा-357-3को विचारणकरते हुए, इस न्यायालय ने अभिव्यक्त किया कि यदि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्ेट जुर्माने में से प्रतिकर परिवादी को परिवादी को हानि उठाने वाला महसूस करके संदत्त करना आदेशित करते थे, जब राशिउक्त सीमा से अधिक थी । 

ऐसे प्रकरण में परिवादी केवल अधिकतम रूपये पंाच हजार की राशि प्राप्त    करेगा, क्योकि न्यायिक मजिस्टे्रट प्रथम श्रेणी संहिता की धारा- 29-2 के अनुसार तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए कारावास का दण्डादेश या 5,000 रूपये से अधिक जुर्माना या दोनों उक्त राशि अब 10,000 तक बढौतरी की गई है, पारित कर सकता है । इस न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे प्रकरणों में मजिस्ट्रेट संहिता की धारा-357-3 से आश्रय लेने के द्वारा परिवादी की व्यथा कम कर सकता है।


        अभियुक्त को परिवादी को प्रतिकर संदाय करने के लिए निदेशित करते हुए आयडिया उसको तुरंत अनुतोष उसकी व्यथा कम करने के लिए देना है । धारा- 357-3 के निबंधनों में, प्रतिकर अभियुक्त के कृत्य के कारण उस व्यक्ति द्वारा वहन की गई नुकसानी या क्षति के लिए अधिनिर्र्णीत किया जाता है, जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया है ।

 यदि मात्र प्रतिकर निदेशित करते हुए आदेश पारित किया जाता है, यह पूर्णतः अप्रभावकारी होगा । यह बिना भय दिखाकर या इसके अनुपालन के प्रकरण में तुरंत प्रतिकूल परिणामों की आशंका का आदेश होगा । 


            संहिता की धारा-357-3 के तहत परिवादी को अनुतोष देने का सम्पूर्ण प्रयोजन हतोत्साहित होगा, यदि वह संहिता की धारा-421 का आश्रय लेते हुए जाता है । धारा-357-3 के तहत आदेश इसका अनुपालन संरक्षित करने का सामथ्र्य से होना चाहिए ।

 यह बिना भय दिखाकर केवल व्यतिक्रम दण्डादेश के लिए उपबंधित करने के द्वारा आदेश में प्रेरित हो सकता है । यदि संहिता की धारा-421 न्यायालय द्वारा संदत्त किया जाना आदेशित प्रतिकर जुर्माने के साथ रखती है, जहां तक वसूली की रीति का संबंध है, तब कोई कारण नहीं है कि क्यों न्यायालय प्रतिकर के भुगतान के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता, यथा यह भा.द.सं. की धारा-64 के तहत जुर्माने के संदाय के व्यतिक्रम में किया जा सकता है ।

 यह स्पष्ट होता हैकि इसके आलोक में, विजयन में, इस न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त वर्णित उपबंध न्यायालय को प्रतिकर के संदाय के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए समर्थ करते हैं और निवेदन निरस्त किया कि आश्रय केवल प्रतिकर के आदेश को प्रवृत्त करने के लिए संहिता की धारा-421 का हो सकता था। सम्बद्ध रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि इस न्यायालय द्वारा हरिसिंह में किये सम्प्रेक्षण आज उतने महत्वपूर्ण हैं, यथा वे तब थे, जब वे किये गये थे । निष्कर्ष, इसलिए है कि प्रतिकर संदाय करने का आदेश व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिनिर्णीत करने के द्वारा प्रवृत्त किया जा सकेगा ।

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umesh gupta