भारतीय न्याय व्यवस्था न्यायालय में मामले के त्वरित निराकरण के उपाय:-
1. यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।
2. यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।
जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।
3. यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।
इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।
4. यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।
5. यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।
6. यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।
इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।
7. यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।
8. यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
9. यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10. यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।
11. यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।
1. यह कि प्रत्येक न्यायाधीश को विशेष एक्ट और क्षेत्र का अलग से प्रशिक्षण देकर प्रशिक्षित किये जाने के बाद उस विषय विशेष से संबंधित एक्ट और कोर्ट की कार्यवाही हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। यह देखा गया है कि न्यायाधीशों को कई विषय के मामले दे दिये जाते हैं जिसमें कुछ में वे पारंगत होते हैं कुछ में नहीं । जिन मामलों में उन्हें विषय विशेष की जानकारी नहीं होती है ऐसे मामले में जानबूझकर लम्बी तारीख देकर लम्बा खींचते हैं और यहाॅ तक कि अपने कार्यकाल में उसका निराकरण नहीं करते हैं। यही कारण है कि भू-अर्जन अधिनियम , लोक न्यास अधिनियम, मध्यस्थता अधिनियम आदि से संबंधित मामले न्यायालयों में लम्बी अवधि से लंबित रहते हैं।
2. यह कि सिविल तथा विवाह सम्बन्धी मामले जिनका निराकरण समझाइश मध्यस्थता सुलह, समझौता से हो सकता है। अर्थात् ऐसे मामले जिनका निराकरण न्यायालय के बाहर हो सकता है ऐसे मामले सबसे पहले मीडिएशन हेतु मध्यस्थता केन्द्र भेजे जाने चाहिये। जहाॅ पर उनका निराकरण न होने के बाद ही ऐसे मामलेां का पंजीयन सिविल न्यायालय में होना चाहिये। इससे पक्षकारों पर अनावश्यक न्याय शुल्क का बोझ नहीं आयेगा और न्यायालय की भी न्याय शुल्क वापिसी की प्रक्रिया बचेगी तथा न्यायालय का बहुत समय बचेगा। और न्यायालय की आंकड़ोें में भी ऐसे प्रकरण पंजीबद्ध होकर लंबित संख्या को ज्यादा नहीं बताएंगे ।
जहाॅ तक मामलों की परिसीमा का प्रश्न है तो ऐसे मामलों में पक्षकारों को परिसीमा अधिनियम की धारा 14 का लाभ प्राप्त होगा और विधिवत् मध्यस्थता कार्यवाही में लगा समय विहित अवधि में जोड़ा नहीं जायेगा। और वाद परिसीमा में माने जाएंगे।
3. यह कि न्यायालय एम0पी0ई0बी0 की बिजली के बिल की वसूली की कोर्ट हो गई है और निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट के अन्तर्गत वैध अवैध रूप से जारी बिना दिन तारीख के खाली सुरक्षा हेतु रखे चैकों की वसूली की कोर्ट हो गई है। इसके लिये आवश्यक है कि अलग से विशेष प्राधिकरण बनाये जायें और बैंक ऋण वसूली की तरह एम0पी0ई0बी0 के बिजली चोरी राशि की वसूली और जारी चैक की राशि की वसूली उन अधिकरण के माध्यम से कराई जावे।
इसके साथ ही साथ निगोशिएविल इन्स्ट्रूमेन्ट एक्ट में यह संशोधन किया जाये कि चैक जारी होने की सूचना चैक जारी करने वाला तुरन्त बैंक को दे जिससे केवल चैक जारी दिनांक के तीन माह के अन्दर ही उसकी वैधता की तारीख रहने तक चैक से राशि की वसूली की जाये। ऐसा हो जाने पर बिना दिन तारीख के चैक सुरक्ष हेतु जमा चैक फर्जी चैक संम्बन्धी मामलों पर रोक लगेगी और केवल वास्तविक मामले ही चैक वसूली के न्यायालय के सामने आएंगे।
4. यह कि ए0डी0आर0, लोक अदालत, विधिक साक्षरता शिविर आदि में सभी न्यायाधीश संलग्न रहते हैं जिसके कारण वह वास्तविक समय न्यायालय कार्य में नहीं दे पाते हैं और न्यायालय कार्य का महत्वपूर्ण समय ए0डी0आर0 में देते हैं जिसके कारण न्यायालयीन कार्य प्रभावित होता है इसके लिये आवश्यक है कि प्रत्येक जिला एवं तहसील में एक एक न्यायाधीश की नियुक्ति ए0डी0आर0 जज के रूप में की जावे और उसके द्वारा ही सम्पूर्ण ए0डी0आर0 का काम किया जावे। इससे न्यायालय और न्यायाधीशगण को महत्वपूर्ण समय बचेगा जो पूरा न्यायालयीन कार्य में काम आयेगा।
5. यह कि प्रत्येक न्यायालय कम्प्यूटरीकृत हो गये हैं और न्यायालय के आंकड़े कम्प्यूटर के माध्यम से प्रत्येक दिन सी0आई0एस0 में पंजीबद्ध होते रहते हैं जिसकी जानकारी जिला मुख्यालय पर रहती है इसके बाद भी प्रत्येक माह कई बार आंकड़े , लंबित मामलों की जानकारी न्यायालय से बुलाई जाती है जिससे न्यायालय व न्यायाधीश का समय जानकारी देने में लगता है जिसके कारण वे न्यायालयीन कार्यवाही नहीं कर पाते हैं। अतः प्रत्येक जिले व तहसील में इस कार्य के लिये एक लिपिक की नियुक्ति की जावे और वह सी0आई0एस0 के माध्यम से प्रत्येक जानकारी ई-मेल के माध्यम से प्रस्तुत कर सकता है। केवल आंकड़ों के कारण ही न्यायालय में एक तारीख को कोई काम नहीं होता है और 01 से 05 तारीख तक बहुत कम मामले केवल मासिक , वार्षिक जानकारी देने के कारण प्रत्येक माह लगाये जाते हैं जिसके कारण न्यायालय का वास्तविक समय न्यायालयीन कार्य में नहीं लग पाता है।
6. यह कि न्यायालय में केस साक्षी और आरोपी की उपस्थिति न होने के कारण लम्बे समय तक लंबित रहते हैं और न्यायालय द्वारा जारी समंस वारण्ट न्यायालय को अदम तामील भी वापस नहीं किये जाते हैं ऐसी स्थिति में पुलिस केसों में समंस वारण्ट जारी करने वाली एजेन्सी सिविल मामलों की तरह संबंधित न्यायालय के न्यायाधीश के अन्तर्गत अधीनस्थ होना चाहिये और उस न्यायालय न्यायाधीश के प्रति उसकी जिम्मेदारी नियत की जानी चाहिये।
इसके लिये पुलिस अधिकारियों को प्रतिनियुक्ति न्यायालय में पुलिस मामलों में आदेशिका जारी किये जाने हेतु नियुक्त किया जाना चाहिये। ऐसी स्थिति में वह न्यायालय के प्रति जिम्मेदार रहेंगे और समंस वारण्ट की तामीली पर्याप्त होगी।
7. यह कि न्यायालय में आदेशिका जारी किये जाने हेतु कम्प्यूटर की नई तकनीक, एस0एम0एस0, ई-मेल, सोसल नेटवार्किंग का सहारा लिया जाना चाहिये और प्रत्येक व्यक्ति के पास उसके नाम से रजिस्टर्ड मोबाइल में उसे सूचना दी जानी चाहिये। आज टेलीफोन बिजली के बिल , बैंक में जमा राशि और उसकी निकासी आदि की जानकारी तत्काल एस0एम0एस0 के माध्यम से उपभोक्ता को दी जा रही है। इस तकनीक का प्रयोग न्यायालय में भी किया जाना चाहिये।
8. यह कि साक्ष्य लेखन के लिये भी नवीनतम तकनीक का उपयोग वीडियो कान्फ्रेसिंग के माध्यम से किया जा सकता है और किसी कारण से यदि विचाराधीन बन्दी जेल से न्यायालय नहीं आ पाते हैं तो साक्षी के उपस्थित हो जाने पर उनकी साक्ष्य अंकित की जा सकती है। पहचान के बिन्दु पर साक्ष्य स्थगन की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।
9. यह कि न्यायाधीश के साथ ही साथ अधिवक्तागण साक्ष्य लेखक स्टेनोग्राफर आदि स्टाफ को भी बराबर का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिये ताकि वे सब मिलकर नई तकनीक के अनुसार काम कर सके और किसी भी बिन्दु पर कोई कमजोर न पड़े क्योंकि किसी एक भी कमजोर पड़ने पर सम्पूर्ण न्यायिक प्रक्रिया प्रभावित होती है और न्याय में विलंब होता है।
10. यह कि आंकड़ों के अनुसार हमारे देश में प्रत्येक 10 लाख जनसंख्या/केस पर एक न्यायाधीश , 20 हजार जनसंख्या/केस पर एक हाईकोर्ट जज तथा एक हजार जनसंख्या/केस पर एक सुप्रीम कोर्ट जज का अनुपात है जो बहुत कम है इसलिये जनसंख्या के अनुपात में न्यायालय व न्यायाधीशों की संख्या बढ़ाई जानी चाहिये।
11. यह कि हमारे देश में विभिन्न उच्च न्यायालय व उच्चतम न्यायालय के एक ही बिन्दु पर कई विरोधाभाषी निर्णय न्याय पत्रिकाओं में देखने को मिलते हैं ऐसी स्थिति में न्याय के लिये निर्मित प्रशिक्षण संस्थाओं को एक ही बिन्दु पर लागू होने वाले पांच न्यायाधीश, तीन न्यायाधीश, दो न्यायाधीश अथवा उनसे बड़ी पीठ के निर्णय जो लागू होने योग्य हैं उससे अवगत कराने चाहिये जिससे न्यायालय का समय बचेगा और विरोधाभासी निर्णयों से न्यायालय न्यायाधीश पक्षकार का समय बचेगा और हमें उचित निर्णय प्राप्त होगा।