निर्णयों की सुसंगता

साक्ष्य अधिनियम 1872 के अधीन निर्णयों की सुसंगता 

 
                                        भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40, 41, 42, 43,और 44, निर्णय, डिक्री, आदेश की सुसंगतता के संबंध में है निर्णय सत्यनिष्ठ संव्यवहार है जो न्यायालय द्वारा सार्वजनिक रूप से अभिलिखित किया जाता है और वह इस तथ्य का निश्चयात्मक सबूत है कि अमुख समय पर कुछ पक्षकार के बीच मुकदमें बाजी हुई थी और वह अमुख रूप से समाप्त हुई है भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 के अंतर्गत द्वितीय वाद या विचारण के रोक के लिये पूर्व निर्णय सुसंगत माने गये हैं । 

 
                                                भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 के अनुसार किसी भी ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व जो किसी न्यायालय को वाद के संज्ञान या कार्य विचारण करने से विधि द्वारा निवारित करते हैं सुसंगत तथ्य है जबकि प्रश्न यह है कि क्या ऐसे न्यायालय को ऐसे वाद का संज्ञान या विचारण करना चाहिये
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की तीन धारा 41,42,43 न्यायालय को निर्णयों या उसकी विशेष बातों को साबित करने के लिये सुसंगत बनाती है । 
  
यदि किसी न्यायालय मंे सिविल या आपराधिक मामले में किसी विषय पर निर्णय देने का अधिकार है और वाद का एक पक्षकार यह कहता है इस संबंध में पहले निर्णय हो चुका है और न्यायालय अब उस पर निर्णय नहीं दे सकता है तो धारा 40 लागू होगी और सक्षम न्यायालय द्वारा पहले किये गये निर्णय में उस तथ्य को बताने के लिये पहले दिया गया निर्णय एक विशेष प्रकार का सुसंगत तथ्य है । 
 
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 298 के अंतर्गत पूर्व दोषसिद्धि या दोषमुक्ति साबित किये जाने के लिये दंडादेश की प्रतिलिपि प्रस्तुत की जावेगी और धारा 300 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत एक बार दोषसिद्धि या दोषमुक्ति किये गये व्यक्ति का पुनः उसी अपराध के लिये विचारण नहीं किया जावेगा । यह बात पूर्व के निर्णय से साबित की जावेगी 

 
सी.पी.सी की धारा 11 के अंर्तगत पूर्व न्याय के सिद्धांत के अनुसार सिविल वाद वर्जित होने पर और आदेश -2 नियम-2 सी.पी.सी के अंतर्गत दावे के भाग का त्याग किये जाने पर पुनः वाद नहीं लाया जावेगा तथा धारा 10 पूर्व मे विचारण हो जाने पर बाद का वाद रोक दिया जावेगा और धारा 12 सी.पी.सी के अंतर्गत किसी विशिष्ट वाद हेतुक, के संबंध में अतिरिक्त वाद वर्जित होगा आदि तथ्य साबित किये जाने के लिये पूर्व का निर्णय सुसंगत भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40 में माना गया है ।
भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 41 प्रोबेट, विवाह, नावधिकरण, दिवाला, विषयक अधिकारिता के प्रयोग में सक्षम न्यायालय द्वारा किये गये अंतिम निर्णय की सुसंगति के संबंध में→जिसके अनुसार कोई भी निर्णय, आदेश या डिक्री जो किसी व्यक्ति को या से कोई विधिक हेसियत प्रदान करती है या ले लेती है या जो सर्वतः न किसी विनिदिष्ट व्यक्ति के विरूद्ध किसी व्यक्ति को ऐसी किसी हेसियत का हकदार या किसी विनिदिष्ट चीज का हकदार या किसी ऐसी चीज पर किसी ऐसे व्यक्ति का हक का अस्तित्व सुसंगत है । 
 
ऐसा निर्णय आदेश या डिक्री इस बात का निश्चायक सबूत है कि कोई विधिक हेसियत जो वह प्रदत्त करती है उस समय प्रोदभूत हुई जब ऐसा निर्णय आदेश या डिक्री प्रवर्तन में आई या कि कोई विधिक हेसियत जिसे वह ऐसे किसी व्यक्ति से ले लेती है उस समय खत्म हुई जो उस समय ऐसे निर्णय आदेश या डिक्रीद्वारा घोषित है कि उस समय से वह हेसियत खत्म हो गई थी या खत्म होना चाहिये ओर कि कोई चीज जिसके
लिये वह किसी व्यक्ति को ऐसा हकदार घोशित करती है उस व्यक्ति की उस समय संपत्ति थी जो समय ऐसे निर्णय आदेश या डिक्री घोशित है कि उस समय से वह चीज उसकी सम्पत्ति थी या होनी चाहिये ।
विधि का यह सुस्थापित सिद्धांत है कि किसी भी व्यक्ति को बिना सुने उसके विरूद्ध निर्णय नहीं दिया जावेगा । इसके लिये आवश्यक है कि पक्षकार को दावे प्रस्तुति की सूचना हो और वह अपना पक्ष प्रस्तुत कर सके परंतु न्यायालय द्वारा कुछ निर्णय ऐसे पारित किये जाते है जो पक्षकार नहीं होते हुए भी लोगो पर बंधनकारी होते है । यह निर्णय दो प्रकार के होते हैं 
 
1. सर्वसंबंधी निर्णय
2. व्यक्तिसंबंधी निर्णय

सर्वसंबंधी निर्णय:- सर्व संबंधी निर्णय ऐसा निर्णय है जो किसी विशिष्ट बातों की स्थिति पर, इस प्रयोजन के लिये सक्षम प्राधिकार रखने वाले किसी अधिकरण द्वारा, सब व्यक्तियों पर, चाहे वे मामले में पक्षकार हो या न हो, आबद्धकर होता है । अर्थात अपरिचित व्यक्ति भी ऐसे निर्णय के लिये बाध्यकारी होते हैं । यह संपूर्ण विश्व के विरूद्ध निश्चायक होता है । अर्थात केवल पक्षकारों के बीच ही नहीं अपितु पूरे संसार पर बाध्यकारी होते हैं ।

व्यक्ति बंधी निर्णय:- व्यक्ति बंधी निर्णय सक्षम न्यायालय द्वारा दिया गया ऐसा निर्णय है जो पश्चातवर्ती कार्यवाहियों में उन्हीं पक्षकारों के अथवा उनके बीच विनिश्चय मामलों के संबंध में और साथ ही साथ विनिश्चय के आधारों के संबंध में निश्चयात्मक साक्ष्य होती है ऐसे निर्णय लोक प्रकृति के मामलों में ग्राहय है और कपट होने की दशा में उनका प्रयोग अपरिचित व्यक्तियों के लिये नहीं हो सकता है । नातेदारी, के मामलों में नातेदारी, की सीमा तक किया जा सकता है ।

सर्वबंधी निर्णय - सर्वबंधी निर्णय धारा 41 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के प्रथम भाग क अंतर्गत उस दशा में सुसंगत होते हैं जबकि अंतिम निर्णय का आशय है कि:- 
 
//// किसी सक्षम न्यायालय के प्रोबेट, विषयक, विवाह विषयक नावधिकरण विषयक या दिवाला विषयक अधिकारिता के प्रयोग में दिया गया है 
 
//// किसी व्यक्ति को कोई विधिक हेसियत प्रदान करता है अथवा उसको ऐसे स्वरूप से वंचित करता है ।
//// यह घोषित करता है कि कोई व्यक्ति इस प्रकार की प्रास्थिति का अधिकारी है यह घ ोषित करता है कि कोई व्यक्ति किसी वस्तु विशेष का पूर्ण अधिकारी है और 
 
//// इस प्रकार की विधिक हेसियत हो कि व्यक्ति विशेष का पूर्ण अधिकार अवश्य विवाद्यक या सुसंगत हो । 
 
इस धारा का दूसरा भाग नीचे लिखी बातों को दर्शित करने के लिये सर्वबंधी निर्णय को निश्चायक सबूत घोेषित करता है:-
//1// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति को कोई विधिक
हेसियत उस समय से प्राप्त हुई जबकि निर्णय प्रवर्तन में आया ।
 
//2// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति की कोई विधिक हेसियत उस समय से जो कि निर्णय में उल्लेखित है घोषित हुई ।
//3// ऐसे निर्णय से किसी व्यक्ति को उसकी विधिक हेसियत से वंचित उस समय से किया गया है जो कि निर्णय में घोषित हो । 
 
//4// किसी व्यक्ति को जिस वस्तु का हकदार घोषित किया जाता है वह वस्तु निर्णय में उल्लेखित तारीख से उस व्यक्ति की सम्पत्ति है या रहेगी 
 
धारा-41 की महत्वपूर्ण षर्त सक्षम न्यायालय द्वारा किया गया निर्ण है । सक्षम न्यायालय ऐसा न्यायालय है जिसे पक्षकारो और विषयवस्तु पर निर्णय की अधिकारीता प्राप्त है ।
विदेषी निर्णय भी सक्षम न्यायालय द्वारा दिये गये निर्णय होने की दषा निष्चायक है बषर्त कि वह न्यायालय अंतर्राष्ट्रीय अर्थ में सक्षम न्यायालय हो { कृप्या देखे ए.आई.आर. 1963 एस.सी.1 आर. विष्वनाथ बनाम रूख-उल-मुल्क सैयद अब्दुल वजीद}
साक्ष्य अधिनियम की धारा 42 के अनुसार वह निर्णय या आदेश या डिक्री जो धारा 41 में वर्णित से भिन्न है यदि वे जांच में सुसंगत, लोकप्रकृति की बातों से संबंधित है तो वह सुसंगत है किन्तु ऐसे निर्णय या आदेश या डिक्रीया उन बातों का निश्चायक स्वरूप नहीं है जिनका वे कथन करती है । वे रूढि, चिरभोग, न्यास अदि मामलो से संबंधित पूर्ववर्ती निर्णय चाहे पक्षकारों के बीच हो, या अन्य पक्षकारों के बीच हो लोक अधिकारों के साधारण हित मामलों में साक्ष्य के रूप में ग्राहय है ।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 43 के अनुसार धारा 40, 41 और 42 में वर्णित से अलग निर्णय आदेश या डिक्रीयां विसंगत है, जब तभी ऐसे निर्णय, आदेश या डिक्री का अस्तित्व विवाद्यक न हो या वह इस अधिनियम के निर्णय अन्य उपबंध के अंतर्गत सुसंगत न हो ।
इस प्रकार के निर्णय हेतु, रूढि़ पूर्व दोशसिद्धि को सिद्ध करने के लिये संसुगत है । 
 
साक्ष्य अधिनियम की धारा 44 के अनुसार वादी या अन्य कार्यवाही का कोई भी पक्षकार यह दर्शित कर सकेगा कि कोई निर्णय, आदेश या डिक्री जो धारा 40, 41, या 42 के अधीन सुसंगत है और जो प्रतिपक्षी द्वारा साबित की जा चुकी है, ऐसे न्यायालय द्वारा दी गई थी जो उसे देने के लिये अक्षम था या कपट या दुरभिसंधि द्वारा अभिप्राप्त की गई थी ।
जब कोई वाद में धारा 40, 41, 42, के अंतर्गत निर्णायक आदेश या डिक्री साक्ष्य में पेश करता है तो विपक्षी उसके प्रमाण से इस आधार पर बच सकता है कि:-
/1/ निर्णय देने वाले न्यायालय में अधिकारिता का अभाव था ।
/2/ निर्णय कपट से प्राप्त किया गया क्योंकि कपट और न्याय साथ-साथ नहीं रह सकते ।
/3/ पक्षकारों के मध्य दुरभीसंधि है ।
इस प्रकार भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 40, 41, 42, 43, 44 निर्णय के सुसंगति के संबंध में है ।

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