भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
अधिनियम’ की धारा 13(6)
1..केवल कुमार शर्मा विरूद्ध सतीषचंद्र गोठी एवं एक अन्य, 11991 एम.पी.जे.आर. 404 में उक्त प्रावधानों का गहन विष्लेषण एवं विषद व्याख्या करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13(6) के अंतर्गत निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा समाप्त किये जाने पर धारा 12 के अध्याधीन उपलब्ध आधारों पर प्रतिवाद करने का प्रतिवादी का अधिकार समाप्त हो जाता है,
2 लेकिन ऐसी प्रतिरक्षा, जो धारा 12 की परिधि के बाहर है, प्रतिवादी/किरायेदार के द्वारा ली जा सकती है। साथ ही प्रतिवादी, वादी के साक्षियों का कूट परीक्षण कर सकता है, तर्क में भाग ले सकता है, लेकिन वह अपनी स्वयं की साक्ष्य न तो दे सकता है और न ही स्वयं के प्रकरण को सिद्ध कर सकता है।
3 मध्यप्रदेष साहसिक एवं खोजी संस्थान भोपाल विरूद्ध श्री आर.एस.बघेल, 2004(2) एम.पी.एच.टी.-19 एन.ओ.सी. में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 दो भागों में है तथा बकाया किराये के आधार पर निष्कासन के विरूद्ध बचाव के लिये यह जरूरी है कि दोनों ही प्रावधानों का सम्यक् पालन किया जाये।
4 देवेन्द्र चैधरी विरूद्ध वारसीलाल दुआ 2005(2) जे.एल.जे.-149 में इस संबंध में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि धारा 13 के प्रावधानों का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है और उसका कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है तो उपलब्ध बचाव किरायेदार को प्राप्त नहीं होगा।
5.. तुलसीराम विरूद्ध राधाकिषन 1979(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-53(म.प्र.)
6.... केदार नाथ विरूद्ध अर्जुनराम, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-26 में यह विधिक प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 को आकर्षित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि प्रथमतः पक्षकारों के मध्य भवन स्वामी तथा किरायेदार के सम्बन्धों के विवाद को निराकृत किया जाये। यदि ’अधिनियम’ की धारा 12(1) के आधार पर निष्कासन चाहा गया है तो ’अधिनियम’ की धारा 13(1) के प्रावधानों की प्रयोज्यता इस आधार पर वर्जित नहीं हो जायेगी कि भवन स्वामी तथा भाड़ेदार के सम्बन्धों को स्वीकार नहीं किया गया है। मानाराम विरूद्ध ओमप्रकाष, 1990 जे.एल.जे. 19 भी अवलोकनीय है।
7.. सद्भाविक आवष्यकता के संबंध में जहाॅं तक विधिक स्थिति का संबंध है, ऐसी आवष्यकता का अर्थ ईमानदारीपूर्ण आवष्यकता से है। किसी किरायेदार को मकान मालिक की इच्छा मात्र के आधार पर निष्कासित नहीं किया जा सकता है तथा मकान मालिक का यह दायित्व है कि वह न्यायालय के समक्ष विष्वसनीय साक्ष्य द्वारा यह सिद्ध करे कि उसे न केवल मकान की आवष्यकता है बल्कि यह आवष्यकता वास्तविक एवं सद्भावनापूर्ण है, टी.बी.सरपटे वि. नेमीचंद, 1966 एम.पी.एल.जे. सु.को. 26 गोगाबाई वि. धनराज, 1990(2) वि.नो. 92।
8 अभिकथित आवष्यकता के बारे में न्यायालय को मामले के तथ्यांे एवं परिस्थितियों के आधार पर वस्तुपरक रूप से भवन स्वामी की मांग का मूल्यांकन करना चाहिये और कथित आवष्यकता की सद्भावना का निर्णय करना चाहिये,
संदर्भ:- ताहिर अली आदि विरूद्ध समद खाॅन, 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 25. मान 8...षिवस्वरूप गुप्ता वि. डाॅ.महेषचंद गुप्ता, सिविल अपील क्र. 4166/99 निर्णय दिनाॅंकित 30.7.1999, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत प्रेमकुमार वि. कन्हैयालाल (2000) (2) एम.पी.वी.नो. 4 में किया गया है, में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी द्वारा अनुभव की जा रही आवष्यकता, वास्तविक और ईमानदारी की इच्छा के परिणाम पर आधारित है, वहाॅं भूस्वामी निष्कासन की आज्ञप्ति प्राप्त करने का अधिकारी है तथा ऐसे मामले में न्यायाधीष को स्वयं को भू-स्वामी की स्थिति में रखकर यह पता लगाना चाहिये कि क्या आवष्यकता सद्भाविक, वास्तविक एवं ईमानदारीपूर्ण है। न्यायालय को ऐसे मामले में अपनी राय भवन स्वामी पर थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
9. न्याय दृष्टांत सरला आहूजा वि. यूनाईटेड इंडिया इंष्योरेंस कंपनी, 1998 (8) एस.सी.सी.119 में इस क्रम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी अपनी अभिकथित आवष्यकता के बारे में प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करता है, वहाॅं उसके पक्ष में उसकी आवष्यकता के सद्भाविक होने की अवधारणा उत्पन्न हो जाती है तथा किरायेदार को भवन स्वामी पर अपनी यह राय थोपने का आधार नहीं रह जाता है कि भवन स्वामी अपने आप को अन्यत्र व्यवस्थित करे।
10--न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध हजारीलाल, 2007(2) एम.पी.ए.सी.जे. 278 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि सद्भाविक आवष्यकता का तथ्य महसूस की गई आवष्यकता के रूप में ईमानदार एवं सच्ची वांछा का परिणाम होना चाहिये न कि भवन खाली कराने का बहाना मात्र। पूर्वोक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सद्भाविक आवष्यकता के बिन्दु पर वर्तमान मामले की तथ्यस्थिति पर विचार करना होगा।
11. जहाॅं तक ’विवादित भवन’ में प्रत्यार्थी/वादी के स्वत्व की इंकारी के आधार पर ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन का अनुतोष प्रदान किये जाने का सम्बन्ध है, यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि व्युत्पन्न स्वत्व के मामले में प्रतिवादी द्वारा भवन स्वामी के स्वत्व से इंकार करना ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन के आधार को निर्मित नहीं कर सकता
12 इस क्रम में न्याय दृष्टांत शीला बनाम फर्म प्रहलाद राय प्रेमप्रकाष, 2002(2) एम.पी.एच.टी. 232 सु.को., कौषल्या बाई बनाम विनोद कुमार, 1994 एम.पी.ए.सी.जे. 369, बजरंगलाल वर्मा विरूद्ध ज्ञासू बाई, 2004(4) एम.पी.एल.जे. 192 तथा देवसहायम विरूद्ध पी.सावित्रथमा (2005) 7 एस.सी.सी.-653 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
अधिनियम’ की धारा 13(6)
1..केवल कुमार शर्मा विरूद्ध सतीषचंद्र गोठी एवं एक अन्य, 11991 एम.पी.जे.आर. 404 में उक्त प्रावधानों का गहन विष्लेषण एवं विषद व्याख्या करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13(6) के अंतर्गत निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा समाप्त किये जाने पर धारा 12 के अध्याधीन उपलब्ध आधारों पर प्रतिवाद करने का प्रतिवादी का अधिकार समाप्त हो जाता है,
2 लेकिन ऐसी प्रतिरक्षा, जो धारा 12 की परिधि के बाहर है, प्रतिवादी/किरायेदार के द्वारा ली जा सकती है। साथ ही प्रतिवादी, वादी के साक्षियों का कूट परीक्षण कर सकता है, तर्क में भाग ले सकता है, लेकिन वह अपनी स्वयं की साक्ष्य न तो दे सकता है और न ही स्वयं के प्रकरण को सिद्ध कर सकता है।
3 मध्यप्रदेष साहसिक एवं खोजी संस्थान भोपाल विरूद्ध श्री आर.एस.बघेल, 2004(2) एम.पी.एच.टी.-19 एन.ओ.सी. में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 दो भागों में है तथा बकाया किराये के आधार पर निष्कासन के विरूद्ध बचाव के लिये यह जरूरी है कि दोनों ही प्रावधानों का सम्यक् पालन किया जाये।
4 देवेन्द्र चैधरी विरूद्ध वारसीलाल दुआ 2005(2) जे.एल.जे.-149 में इस संबंध में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि धारा 13 के प्रावधानों का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है और उसका कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है तो उपलब्ध बचाव किरायेदार को प्राप्त नहीं होगा।
5.. तुलसीराम विरूद्ध राधाकिषन 1979(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-53(म.प्र.)
6.... केदार नाथ विरूद्ध अर्जुनराम, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-26 में यह विधिक प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 को आकर्षित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि प्रथमतः पक्षकारों के मध्य भवन स्वामी तथा किरायेदार के सम्बन्धों के विवाद को निराकृत किया जाये। यदि ’अधिनियम’ की धारा 12(1) के आधार पर निष्कासन चाहा गया है तो ’अधिनियम’ की धारा 13(1) के प्रावधानों की प्रयोज्यता इस आधार पर वर्जित नहीं हो जायेगी कि भवन स्वामी तथा भाड़ेदार के सम्बन्धों को स्वीकार नहीं किया गया है। मानाराम विरूद्ध ओमप्रकाष, 1990 जे.एल.जे. 19 भी अवलोकनीय है।
7.. सद्भाविक आवष्यकता के संबंध में जहाॅं तक विधिक स्थिति का संबंध है, ऐसी आवष्यकता का अर्थ ईमानदारीपूर्ण आवष्यकता से है। किसी किरायेदार को मकान मालिक की इच्छा मात्र के आधार पर निष्कासित नहीं किया जा सकता है तथा मकान मालिक का यह दायित्व है कि वह न्यायालय के समक्ष विष्वसनीय साक्ष्य द्वारा यह सिद्ध करे कि उसे न केवल मकान की आवष्यकता है बल्कि यह आवष्यकता वास्तविक एवं सद्भावनापूर्ण है, टी.बी.सरपटे वि. नेमीचंद, 1966 एम.पी.एल.जे. सु.को. 26 गोगाबाई वि. धनराज, 1990(2) वि.नो. 92।
8 अभिकथित आवष्यकता के बारे में न्यायालय को मामले के तथ्यांे एवं परिस्थितियों के आधार पर वस्तुपरक रूप से भवन स्वामी की मांग का मूल्यांकन करना चाहिये और कथित आवष्यकता की सद्भावना का निर्णय करना चाहिये,
संदर्भ:- ताहिर अली आदि विरूद्ध समद खाॅन, 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 25. मान 8...षिवस्वरूप गुप्ता वि. डाॅ.महेषचंद गुप्ता, सिविल अपील क्र. 4166/99 निर्णय दिनाॅंकित 30.7.1999, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत प्रेमकुमार वि. कन्हैयालाल (2000) (2) एम.पी.वी.नो. 4 में किया गया है, में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी द्वारा अनुभव की जा रही आवष्यकता, वास्तविक और ईमानदारी की इच्छा के परिणाम पर आधारित है, वहाॅं भूस्वामी निष्कासन की आज्ञप्ति प्राप्त करने का अधिकारी है तथा ऐसे मामले में न्यायाधीष को स्वयं को भू-स्वामी की स्थिति में रखकर यह पता लगाना चाहिये कि क्या आवष्यकता सद्भाविक, वास्तविक एवं ईमानदारीपूर्ण है। न्यायालय को ऐसे मामले में अपनी राय भवन स्वामी पर थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये।
9. न्याय दृष्टांत सरला आहूजा वि. यूनाईटेड इंडिया इंष्योरेंस कंपनी, 1998 (8) एस.सी.सी.119 में इस क्रम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी अपनी अभिकथित आवष्यकता के बारे में प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करता है, वहाॅं उसके पक्ष में उसकी आवष्यकता के सद्भाविक होने की अवधारणा उत्पन्न हो जाती है तथा किरायेदार को भवन स्वामी पर अपनी यह राय थोपने का आधार नहीं रह जाता है कि भवन स्वामी अपने आप को अन्यत्र व्यवस्थित करे।
10--न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध हजारीलाल, 2007(2) एम.पी.ए.सी.जे. 278 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि सद्भाविक आवष्यकता का तथ्य महसूस की गई आवष्यकता के रूप में ईमानदार एवं सच्ची वांछा का परिणाम होना चाहिये न कि भवन खाली कराने का बहाना मात्र। पूर्वोक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सद्भाविक आवष्यकता के बिन्दु पर वर्तमान मामले की तथ्यस्थिति पर विचार करना होगा।
11. जहाॅं तक ’विवादित भवन’ में प्रत्यार्थी/वादी के स्वत्व की इंकारी के आधार पर ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन का अनुतोष प्रदान किये जाने का सम्बन्ध है, यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि व्युत्पन्न स्वत्व के मामले में प्रतिवादी द्वारा भवन स्वामी के स्वत्व से इंकार करना ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन के आधार को निर्मित नहीं कर सकता
12 इस क्रम में न्याय दृष्टांत शीला बनाम फर्म प्रहलाद राय प्रेमप्रकाष, 2002(2) एम.पी.एच.टी. 232 सु.को., कौषल्या बाई बनाम विनोद कुमार, 1994 एम.पी.ए.सी.जे. 369, बजरंगलाल वर्मा विरूद्ध ज्ञासू बाई, 2004(4) एम.पी.एल.जे. 192 तथा देवसहायम विरूद्ध पी.सावित्रथमा (2005) 7 एस.सी.सी.-653 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
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