पारिवारिक व्यवस्था पत्र

                                    पारिवारिक व्यवस्था पत्र
                                       पारिवारिक व्यवस्था पत्र को भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की धारा 2-24 में व्यवस्थापन के रूप में इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि:-



        किसी जंगम या स्थावर संपत्ति का ऐसा लिखत जिसमें अवसीयती व्ययन अभिप्रेत है,  जिसमें व्यवस्थापन की सपंत्ति उनके कुटुम्ब के या उन व्यक्तियों के बीच जिनके लिए वह व्यवस्था करना चाहता है, वितरित करने के प्रयोजन के लिए या उस पर आश्रित व्यक्तियों के लिए व्यवस्था करने के प्रयोजन के लिए किया गया है ।
 

        इसके अंतर्गत विवाह के प्रतिफल के लिए किया गया व्यवस्थापन और धार्मिक या पूर्त प्रयोजन के लिए किया गया व्यवस्थापन शामिल है । इसके अंतर्गत ऐसा व्ययन लिखित में नहीं किया गया है, वहां किसी प्रयोजनके निबन्धनों को चाहे वह न्यास की घोषणा के तौर पर या अन्य प्रकार का हो, अभिलिखित करने वाली कोई लिखत है ।
 

        भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की अनुसूची 1-क के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन की लिखत पर उचित स्टाम्प शुल्क व्यवस्थापित संपत्ति की रकम के बाजार मूल्य के राशि के बंध पत्र के अनुसार लगाया जाएगा और अनुसूची के क्रमांक 12 के अनुसार प्रतिभूत रकम या मूल्य का चार प्रतिशत स्टाम्प शुल्क अदा किया जाएगा । 

        अनुसूची के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन के लिखित के अंतर्गत महर विलेख शामिल है । लेकिन इसे विवाह के अवसर पर मुसलमानों के बीच निष्पादित किया गया महर विलेख चाहे ऐसा विलेख विवाह के पूर्व या विवाह के पश्चात् निष्पादित किया गया हो, उसे छूट प्रदान की गई है । 


        व्यवस्थापन का प्रतिसंहरण 100/-रूपये के स्टाम्प के शुल्क पर होगा तथा जहां कि व्यवस्थापन के लिए करार व्यवस्थापन की लिखत के लिए अपेक्षित स्टाम्प से स्टाम्पित है और ऐसे करार के अनुसरण में व्यवस्थापन संबंधी लिखत तत्पश्चात् निष्पादित की गई है, वहां ऐसी लिखत पर शुल्क 100/-रूपये से अधिक नहीं होगा ।
      

             पारिवारिक व्यवस्था पत्र के संबंध में यह सुस्थापित विधि है कि वह धारा 25 संविदा अधिनियम के अंतर्गत बिना प्रतिफल के अंतरण माना जाता है, जो धारा 23 संविदा अधिनियम के अंतर्गत प्रवर्तनीय है, जो धारा 2 (डी) संविदा अधिनियम के अंतर्गत एक वैध संविदा है और धारा 5 और 9 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत एक प्रकरण का अंतरण है । जो धारा 118 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विबंध के रूप में लागू होते हैं । 


            पारिवारिक व्यवस्था पत्र कुटुम्ब के सदस्यों के बीच विवाद न बढ़े और उन्हें अनावश्यक खर्च न उठाना पड़े, इसके लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति के संबंध में संयुक्त परिवार के सदस्यों को आपसी समझौता के आधार पर बने कुटुम्ब प्रबंध को पारिवारिक व्यवस्था पत्र कहा गया है । इसके लिए आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं कि:-


            (1)  पूरे परिवार के हित में परिवार के सदस्यों के बीच संदेहास्पद या विवादित दावों के राजीनामा के संबंध में उसी प्रकार के सदस्यों के बीच यह एक इकरार है ।


            (2) कौटुम्बिक प्रबंध करने के लिए परिवार में ऐसी परिस्थितियां     होनी चाहिए, जिसके कारण ऐसा प्रबन्ध करना पड़ा ।


            (3) कौटुम्बिक प्रबन्ध की वैधता को स्वीकार करने के लिए यह शर्त आवश्यक है कि वर्तमान में या भविष्य में वैधानिक दावों पर विवाद हो जाना संभावित हो या सद्भावपूर्वक विवाद की स्थिति हो या भविष्य में हो जाने की संभावना हो ।   


            (4) यदि अचल संपत्ति पर किसी का स्वत्व वर्तमान में स्थापित करना हो तो उनके पक्ष में कौटुम्बिक प्रबन्ध का पंजीकरण किया         जाना आवश्यक है, परंतु ऐसा स्वत्व स्थापित न हो तो बिना पंजीकरण के ही कौटुम्बिक प्रबन्ध वैध माना जाएगा ।


            (5) यदि सद्भावनापूर्वक कौटुम्बिक प्रबन्ध किया गया हो और उसकी शर्तें भी उचित हों तो ऐसे कौटुम्बिक प्रबन्ध को न्यायालय स्वीकार करते हुए प्रभावी करेगी ।



            किसी भी पारिवारिक व्यवस्था पत्र की वैधानिकता के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैंः-


            (1) पारिवारिक प्रबन्ध सदभावपूर्वक होना चाहिए, जिससे कि परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच संयुक्त परिवार की संपत्ति का उचित एवं साम्यापूर्ण बंटवारा हो और पारिवारिक विवाद और     परस्पर विरोधी दावे समाप्त हो जाऐं ।


            (2) पारिवारिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है और ज्ञापन (यादगार) के रूप में लिखे गए दस्तावेज का पंजीकरण आवश्यक नहीं है ।


            (3) ऐसा पारिवारिक प्रबन्ध स्वेच्छा से किया गया हो और धोखा, कूटरचना या अनुचित प्रभाव से न किया हो ।


            (4) यदि पूर्व में कर लिए गए मौखिक पारिवारिक प्रबन्ध का ज्ञापन तैयार किया जाता है जो न्यायालय को प्रमाणीकरण की सूचना के लिए या जानकारी के लिए हो तो उसका पंजीकरण आवश्यक नहीं है परंतु यदि पारिवारिक प्रबंध करते समय ही दस्तावेज लिखा     जाता है ताकि उसका उपयोग सबूत के लिए किया जा सके तो पंजीकरण आवश्यक है ।


            (5) पारिवारिक प्रबन्ध में जो पक्षकार हों, उनका संयुक्त संपत्ति में पूर्व से स्वामित्व, दावा या हित हो या भावी दावा हो, जिसे सभी पक्षकार स्वीकार करते हों । यदि पारिवारिक प्रबन्ध के एक पक्षकार का संयुक्त संपत्ति में कोई स्वामित्व न हो परन्तु अन्य     पक्षकार उसके पक्ष में अपने हित को छोड़ता हो और उसको पूर्णस्वामी देता हो, को उस व्यक्ति का पूर्व का ही स्वामित्व माना जायेगा और न्यायालय भी इस पारिवारिक प्रबन्ध को मान्यता देगा।


            (6) संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच सद्भावपूर्वक हुए         कौटुम्बिक प्रबन्ध जो उचित और साम्यापूर्ण हो और जिसमें विधिक दावा शामिल न हो तो वह कौटुम्बिक प्रबन्ध में शामिल पक्षकारों के लिए बन्धनकारी होगा । 


            कौटुम्बिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है लेकिन यदि उसे ज्ञापन के रूप में अभिलिखित किया जाता है और उससे पारिवार की संपत्ति का बंटवारा होता है, ऐसे दस्तावेज का पंजीयन कराना आवश्यक है क्योंकि इससे संपत्ति पर पक्षकारों के कब्जे और अधिकार की घोषणा होती है और यह उनके स्वामित्व को दर्शाने वाला दस्तावेज होता है ।


                  लेकिन यदि पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार पहले से लोग अपनी-अपनी संपत्ति पर शांतिपूर्ण रूप से व्यवस्था बनाकर रहते हैं और बाद में उसका विवरण लिखा जाता है तो इस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था का पंजीयन आवश्यक नहीं है अर्थात ऐसा दस्तावेज जिसे लिखे जाने के दिनांक से हक और अधिकार सृजित होता है, उस दस्तावेज का पंजीयन आवश्यक है और ऐसे दस्तावेज लिख् जाने से पूर्व पारिवारिक हक व अधिकार की पुष्टि होती है । इस प्रकार के पारिवारिक व्यवस्था पत्र का पंजीयन आवश्यक नहीं है ।
            

                     यदि पारिवारिक व्यवस्था पत्र रजिस्टर्ड नहीं है तो वह रजिस्टीकरण अधिनियम 1908 की धारा 48 और 49 के अनुसार संपाश्र्वििक प्रयोजन के लिए उपयोग में लाएगा, इस संबंध में रजिस्टीकरण अधिनियम की धारा 49 प्रावधानों की:- जो जो लिखत अभिलिखित रजिस्ट्रीकृत लिखित द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षित हों, रजिस्ट्रीकृत न की गई हों, ऐसी दस्तावेज साम्पाशर्वक संव्यवहार के साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकती है 
                                     साम्पाशर्विक सहव्यवहार वह सह व्यवहार होगा जो उस दस्तावेज में दिए गए कथनों को विभाजित कर दे, अलग रूप से पढा जा सके और जिसका उल्लेख उसमें न हो । जैसे कि कब्जा प्रदान किया जाना, दस्तावेज के अनुसार कार्य करना आदि ।

अंतरिम व्यादेष

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
(1)      यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो।

 इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


1 अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, ए.आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107, 


2    बैंक आफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368 


3ं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995

मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत


(1)    निम्नलिखित न्यायदृष्टांतों में यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में  ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’  का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था । 


  2लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल ला जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4 

 वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र. 

(3)              ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है 


1 -    ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971
2 - यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460
3    नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514
4     कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में
 


यह सुस्पष्ट  प्रतिपादन किया  गया है कि ट्रैक्टर  पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । 




(5)  कोई अभिवचन अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत-
1-     रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया  गया है  कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है



 (6)  वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त

1-    नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281 


(7)         मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त

1-    सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्सपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104

के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
         अ.    मृतक की आयु .
         ब.    मृतक की आय
         स.    मृतक के आश्रितों की संख्या.


2-.    उक्त   मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है

3-     मा ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।
4-.    जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी मा है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है

5-    प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में  यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।

 यह विधि सुस्थापित है कि  मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
                      
6-.     इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 25000/-रूपयें  10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।


7-.         आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।  


8-     न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये। 


9-    इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता।      



10-     वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है।

 इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित
1-    सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2-    नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.
3-    न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.)
  

(11)- पै एंड रिकवर का सिद्धांत-
1सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2-    इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.)

    मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा
पै एंड रिकवर का सिद्धांत  को प्रयोज्य नहीं माना गया।

3-    नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
    के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा।

 समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत
पै एंड रिकवर का सिद्धांत-सिद्धांत लागू

12-    1नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297

, 2नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 
3न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
4 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
   




13-    ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 में यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।


14-        राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी घटना  संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।


15-        वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.) 

4-.     सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोे

रेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।


5-.        अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा  न्याय दृष्टांतअषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892  में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।


6-         बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में  किया जाना प्रमाणित हुआ है,
 नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297,
 नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम,
2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)     
पै एंड रिकवर    का सिद्धांत लागू 


7-        वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा।


 उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके। 

दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो। 

निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।

8-        न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहा प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहा इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है





 


9-    व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत 
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडित पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये
 प्रथम-वित्तीय क्षति,
द्वितीय-विषेष क्षति।

 इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं।
जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय।
 विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता,


 जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि
 उक्त परिप्रेक्ष्य में 
दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।


 

’अधिनियम’ की धारा 138

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

                          ’अधिनियम’ की धारा 138
1    धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-

’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था।

 इस संबंध मं न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

2. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-

        उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।


3. धारा 138 के संबध् में:-
        न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।

        इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि 

’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।      

4.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।

        उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।

4. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
        ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया ।

 उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।




















अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध्ंा में:

 अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध् में
        
                   न्याय दृष्टांत गड्डो उर्फ विनोद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य 2006(1) एम.पी.जे.आर. शार्टनोट- 35 

 में अभिनिर्धारित किया गया है, अपचारी बालक को सुुपुर्दगी पर दिये जाने या अभिरक्षा से मुक्त किये जाने के संबंध में मामले के गुण-दोषों के बजाय ’अधिनियम’ की धारा 12 के परिप्रेक्ष्य मंे सामान्य नियम यह है कि ऐसे किषोर को अभिरक्षा से मुक्त किया जाना चाहिये। अपवाद की स्थिति वहा हो सकती है, जहा पर यह विष्वास करने के युक्तियुक्त आधार हो कि अभिरक्षा से मुक्त किये जाने पर ऐसे किषोर के ज्ञात अपराधियों के सानिध्य में आने की संभावना है अथवा निरोध से मुक्त किये जाने पर उसको नैतिक, भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से खतरा होगा अथवा उसके कारण न्याय के हितों का हनन होगा।
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द.प्र.सं. की धारा 391

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1. द.प्र.सं. की धारा 391 के तहत आवेदन पेश होने पर उक्त आवेदन का निरा करण अपील के साथ ही किया जाना चाहिए, न्यायालय स्वयं अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित कर सकता है या विचारण न्यायालय को निर्देशित कर सकता है:-

        धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपील न्यायालय आवष्यक समझने पर अतिरिक्त साक्ष्य या तो स्वयं अभिलिखित कर सकता है अथवा संबंधित मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित करने का निर्देष दे सकता है।

 न्याय दृष्टांत धर्मेन्द्र भंडारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006 क्रि.लाॅ.रि. एम.पी.-216 में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिये तथा यदि आवेदन पत्र स्वीकार किया जाता है तो अपील न्यायालय मामले को साक्ष्य अभिलिखित करने के लिये अधीनस्थ न्यायालय को भेज सकता है अथवा स्वयं साक्ष्य ले सकता है।


दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3)

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1. विचारण न्यायालय द्वारा धारा 357 द.प्र.सं. की शक्ति का प्रयोग करना चाहिए :-
        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के प्रावधानों का समुचित, प्रभावपूर्ण एवं उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिकिषन विरूद्ध सुखवीर सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2127 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 न्यायालय को इस बात के लिये सषक्त करती है कि वह पीडित व्यक्ति को युक्तियुक्त प्रतिकर दिलाये।

 ऐसा प्रतिकर अभियुक्त पर अधिरोपित अर्थदण्ड से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1) के अंतर्गत तथा अन्यथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अंतर्गत दिलाया जा सकता है।

   2      माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने व्यक्त किया है कि यह शक्ति पीडित व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने के लिये है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में उसे विस्मृत नहीं किया है। अपराधों के संबंध में यह एक रचनात्मक पहुच है तथा आपराधिक न्याय व्यवस्था को आगे ले जाने वाला एक कदम है, जिसका उपयोग सकारात्मक, सार्थक एवं प्रभावी तरीके से किया जाना चाहिये। यह अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट उक्त विधिक स्थिति के क्रम में अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करेंगे।


                                प्रतिकर

        के.भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन 1997-7 एस.सी.सी.510    में संहिता की धारा-357-3को विचारणकरते हुए, इस न्यायालय ने अभिव्यक्त किया कि यदि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्ेट जुर्माने में से प्रतिकर परिवादी को परिवादी को हानि उठाने वाला महसूस करके संदत्त करना आदेशित करते थे, जब राशिउक्त सीमा से अधिक थी । 

ऐसे प्रकरण में परिवादी केवल अधिकतम रूपये पंाच हजार की राशि प्राप्त    करेगा, क्योकि न्यायिक मजिस्टे्रट प्रथम श्रेणी संहिता की धारा- 29-2 के अनुसार तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए कारावास का दण्डादेश या 5,000 रूपये से अधिक जुर्माना या दोनों उक्त राशि अब 10,000 तक बढौतरी की गई है, पारित कर सकता है । इस न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे प्रकरणों में मजिस्ट्रेट संहिता की धारा-357-3 से आश्रय लेने के द्वारा परिवादी की व्यथा कम कर सकता है।


        अभियुक्त को परिवादी को प्रतिकर संदाय करने के लिए निदेशित करते हुए आयडिया उसको तुरंत अनुतोष उसकी व्यथा कम करने के लिए देना है । धारा- 357-3 के निबंधनों में, प्रतिकर अभियुक्त के कृत्य के कारण उस व्यक्ति द्वारा वहन की गई नुकसानी या क्षति के लिए अधिनिर्र्णीत किया जाता है, जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया है ।

 यदि मात्र प्रतिकर निदेशित करते हुए आदेश पारित किया जाता है, यह पूर्णतः अप्रभावकारी होगा । यह बिना भय दिखाकर या इसके अनुपालन के प्रकरण में तुरंत प्रतिकूल परिणामों की आशंका का आदेश होगा । 


            संहिता की धारा-357-3 के तहत परिवादी को अनुतोष देने का सम्पूर्ण प्रयोजन हतोत्साहित होगा, यदि वह संहिता की धारा-421 का आश्रय लेते हुए जाता है । धारा-357-3 के तहत आदेश इसका अनुपालन संरक्षित करने का सामथ्र्य से होना चाहिए ।

 यह बिना भय दिखाकर केवल व्यतिक्रम दण्डादेश के लिए उपबंधित करने के द्वारा आदेश में प्रेरित हो सकता है । यदि संहिता की धारा-421 न्यायालय द्वारा संदत्त किया जाना आदेशित प्रतिकर जुर्माने के साथ रखती है, जहां तक वसूली की रीति का संबंध है, तब कोई कारण नहीं है कि क्यों न्यायालय प्रतिकर के भुगतान के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता, यथा यह भा.द.सं. की धारा-64 के तहत जुर्माने के संदाय के व्यतिक्रम में किया जा सकता है ।

 यह स्पष्ट होता हैकि इसके आलोक में, विजयन में, इस न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त वर्णित उपबंध न्यायालय को प्रतिकर के संदाय के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए समर्थ करते हैं और निवेदन निरस्त किया कि आश्रय केवल प्रतिकर के आदेश को प्रवृत्त करने के लिए संहिता की धारा-421 का हो सकता था। सम्बद्ध रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि इस न्यायालय द्वारा हरिसिंह में किये सम्प्रेक्षण आज उतने महत्वपूर्ण हैं, यथा वे तब थे, जब वे किये गये थे । निष्कर्ष, इसलिए है कि प्रतिकर संदाय करने का आदेश व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिनिर्णीत करने के द्वारा प्रवृत्त किया जा सकेगा ।

दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति

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1.. दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना आवष्यक है, जिसे ’संहिता’ की धारा 306 एवं 107 में प्रतिपादित एवं इंगित किया गया है। उक्त प्रावधानों के अनुसार आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उद्धृत करने या ऐसा करने के लिये सहायता करने से है,
 संदर्भ:- महावीर सिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1987 जे.एल.जे. 645.
 उक्त परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या वर्तमान  अभियुक्तगण  आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित या उद्धृत किया अथवा ऐसा करने में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता की अथवा इस हेतु कोई षडयंत्र किया ?

2...         पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
 न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है।

3.. न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहा अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। 

4...न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
5....न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया।

6...... न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।

7.....        न्याय दृष्टांत महावीर सिंह आदि विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1987 जे.एल.जे.-645  यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उकसाने या ऐसा कृत्य करने के लिये सहायता करने से है।

8..... न्याय दृष्टांत पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। 

9.....न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। 

10....न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। 

12.        न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त, मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। 

13...न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। 

14.....न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।

15.        न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।








एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-

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एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-

                             ’पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स सप्लाय एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन आर्डर 1972, जो अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय शासन द्वारा जारी किये गये है,  में एलपीजी गैस को अत्यावश्यक वस्तु की श्रेणी में रखा गया है ।
 न्याय दृष्टांत सुभाषचन्द्र गोयल विरूद्व उत्तरप्रदेश राज्य 1984 इलाहाबाद लाॅ जनरल 711
 में भी एल.पी.जी. को अत्यावश्यक वस्तु माना गया है ।

द0प्र0सं0 311

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                    द0प्र0सं0 311
                           न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।

’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास

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          धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’

       ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे।

                 यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।
 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में

                              ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

                 
              धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है।
 यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।




        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं
 संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.


498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता

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498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता
1        न्याय दृष्टांत वाय. अब्राहम अजीथ विरूद्ध इंस्पेक्टर आफ पुलिस, 2004(8) एस.सी.सी.-10 के मामले मं 

माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया है कि क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अपराध के लिये न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी न्यायालय की अधिकारिता के क्षेत्र में क्रूरता का कोई कृत्य ही घटित नहीं हुआ है तो ऐसे न्यायालय को विचारण की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती हैै।

 न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, 2005(3) एस.सी.सी. 507 के मामले में इस विधिक स्थिति को पुनः दोहराया गया है।


2.        न्याय दृष्टांत गुरमीत सिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006(1) एम.पी.एल.जे.-250 के मामले में भी वाय. अब्राहम अजीथ (पूर्वोक्त) का संदर्भ देते हुये इंदौर न्यायालय जहा कि अभियोग प्रस्तुत किया गया था, की क्षेत्रीय अधिकारिता को इस आधार पर प्रमाणित नहीं माना गया कि इंदौर न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में अभियुक्तगण के द्वारा क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था।


3.            न्याय दृष्टांत तस्कीन अहमद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, आई.एल.आर.(2008) म.प्र.-29 वर्तमान मामले के लिये सर्वाधिक सुसंगत है। इस मामले में 8 व्यक्तियों के विरूद्ध अभियोग पत्र भोपाल न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था, जबकि उनमें से 5 अभियुक्तों के द्वारा भोपाल न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था। ऐसी स्थिति में यह ठहराया गया कि उनके विरूद्ध भोपाल न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता नहीं हो सकती है।

4. भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो:-

        उक्त क्रम में ’संहिता’ की धारा 498(क) के निर्वचन के संबंध में दो न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं

। न्याय दृष्टांत भास्करलाल शर्मा विरूद्ध मोनिका 2009(प्प्) एस.सी.आर.-408 के मामले में विस्तृत विवेचना के पष्चात् यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो। उक्त मामले की कंडिका 52 इस क्रम में दृष्ट्व्य है, जिसमें यह ठहराया गया है कि सामान्य मारपीट की घटना ’संहिता’ के अंतर्गत किसी अन्य अपराध की परिधि में तो आ सकती है, लेकिन ’संहिता’ की धारा 498(क) की परिधि में लाने के लिये विनिर्दिष्ट स्थितिया पूरी की जानी चाहिये।

5. हर प्रताड़ना क्रूरता की परिधि में नहीं आएगी, उसके लिए धन की अवैधानिक मांग होना जरूरी है:-

        न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध मधुसूदनराव, जे.टी.-2008 (टवस.11) एस.सी.-454 भी इस संबंध मंे सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि प्रत्येक प्रकृति का प्रताड़नापूर्ण व्यवहार क्रूरता की परिधि में नहीं आयेगा तथा ऐसे व्यवहार को क्रूरता की परिधि में लाने के लिये आवष्यक है कि वह धन की अवैधानिक मांग से जुड़ा हुआ हो।










साक्षी की साक्ष्य

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                                               साक्षी की  साक्ष्य
1. पक्षविरोधी साक्षी  साक्ष्य
         खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि यह धारणा सही नहीं है अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को, जिसे अभियोजन के द्वारा पक्ष विरोधी घोषित कर दिया गया है, यांत्रिक रूप से रद्द करने के बजाय सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर यह देखना आवष्यक है कि क्या उसका कोई हिस्सा विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य है।

2. साक्षी की साक्ष्य में आई भिन्नता या विरोधाभाष के कारण साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता है:-

        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्ष्य में व्याप्त ऐसी विसंगतियों और विरोधाभासों को जो वर्णनात्मक भिन्नता के कारण प्रकट हुये हैं या फिर अतिरंजनाओं के कारण आये हैं, उस स्थिति में सम्पूर्ण साक्ष्य को रद्द करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिये। जबकि आधारभूत कथा में सत्य का अंष मौजूद हो,
 संदर्भ:- भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753.

3. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को मात्र उसके हितबद्ध होने के कारण नकारा नहीं जा सकता है:-

         न्याय दृष्टांत हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851 यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर कि वह हितबद्ध है, यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता है।

4. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य यदि विश्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-

        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं।

5. किसी साक्षी की साक्ष्य को मात्र इस कारण अस्वीकार नहंी किया जा सकता कि उसके समर्थन में किसी स्वतंत्र साक्षी की साक्ष्य नहीं कराई गई ।
        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि उसकी सम्पुष्टि के लिये स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है।

 संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.ला.जर्नल पेज 88. ।
 जहा साक्षीगण की अभिसाक्ष्य अन्यथा विष्वास योग्य है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई त्रुटि नहीं मानी जा सकती है।

6. एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, चाहे अभियोजन द्वारा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी प्रस्तुत भी न किया हो:-
         लेकिन मात्र इस आधार पर कि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी को प्रस्तुत नहीं किया गया,  साक्ष्य को यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता। यदि उसकी साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि निर्धारित की जा सकती है, 
संदर्भ:- न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य 2003 (3) एस.सी.सी.-401.

7. यदि घटना में आरोपी/अपीलार्थी को भी चोटें आई हों तो अभियोजन आरोपी को आई चोटों के संबंध में स्पष्टीकरण देना होगा:-
        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि अभियुक्त पक्ष को चोटें है जो अत्यंत छुद्र स्वरूप की नहीं है तो अभियोजन का यह दायित्व है कि वह यह स्पष्ट करें कि ये चोटें कैसे आई अन्यथा यह उपधारित किया जायेगा कि अभियोजन  घटना के स्वरूप और उद्गम को छिपा रहा है,
 संदर्भ लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263 ।

8. अभियोजन के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को आई प्रत्येक चोट का स्पष्टीकरण न्यायालय में दे, गंभीर चोट के संबध् में स्पष्टीकरण देना आवश्यक है लेकिन क्षुद्र और सतही चोटों के संबध् में स्पष्टीकरण देना आवश्यक नहीं है:

        अभियोजन पक्ष के द्वारा बचाव पक्ष की चोटां को स्पष्ट किये जाने के बारे में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि अभियोजन के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को कारित की गयी प्रत्येक चोट को न्यायालय के समक्ष स्पष्टीकृत करें। अभियोजन अभियुक्त पक्ष को आई क्षुद्र और सतही चोटों को स्पष्ट करने के लिये दायित्वाधीन नहीं है। , यदि चोटें गम्भीर हैं तो उन्हें स्पष्ट किया जाना आवष्यक है, संदर्भः- श्रीराम विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2004(1) जे.एल.जे.-256 (एस.सी.) एवं लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263


9. साक्ष्य मूल्यांकन के पश्चात् यदि उचित पाई गई, तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
        यदि उचित मूल्यांकन एवं विवेचना के बाद साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण पाई गई है, तो उसके आधार पर अभिलिखित की गई दोष-सिद्धि को त्रुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है,
 संदर्भ:- लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी. 401

10. एक झंूठ, सब झंूठ का सिद्धांत दांडिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है:-
        यह विधिक स्थिति भी यहाॅं संदर्भ योग्य है कि ’’एक झूंठ सब झूंठ का सिद्धांत’’ दाण्डिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है,
 संदर्भ:- जकी उर्फ सलवाराज विरूद्ध राज्य 2007 ब्तण् स्ण् श्रण् 1671 (एस.सी)।

11. किसी साक्षी की साक्ष्य को इस कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि उसका समर्थन किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहंी किया गया:-
        यहा इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


12. विवाहिता के साथ प्रताड़ना के मामले में यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस प्रकार प्रताडि़त किया जाए कि आसपास/पडौस के लोगों की जानकारी में आए, यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन आसपास/पडौस के लोगों को प्रताड़ना के संबध् में साक्ष्य हेतु प्रस्तुत करे:-

    यदि निकट संबंधी ही साक्षी के रूप में प्रस्तुत किए गए तो उनकी अभिसाक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मं, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।

        न्याय दृष्टांत पष्चिमी बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल, 1994 क्रिमिनल लाॅ जनरल 2104 (एस.सी.) में

 यह अभिनिर्धारण किया गया है कि सामान्यतः यह अपेक्षित नहीं है कि पति तथा उसके रिष्तेदारों द्वारा वधु के साथ प्रताड़नापूर्ण व्यवहार इस प्रकार किया जाये कि वो पड़ोसियों तथा आसपास रहने वाले किरायेदारों की जानकारी में आये, क्योंकि ऐसी स्थिति में पड़ोसी उन्हें असम्मान एवं अवमान की दृष्टि से देखेंगे अतः वधू के साथ ससुराल पक्ष द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना के मामले में यह आवष्यक नहीं है कि अभियोजन पड़ोसियों तथा आसपास के लोगो को स्वतंत्र साक्षी के रूप में अपने मामले के समर्थन में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें।
         उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि पीडि़त  के निकट संबंधियों, जो अभियोजन में रूचि रखते हैं, की अभिसाक्ष्य को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये कि स्वतंत्र साक्षियों से उसकी सम्पुष्टि नहीं हुयी है अपितु मामले के विषिष्ट तथ्यों  के आधार पर उसकी विष्वसनीयता के बारे में विनिष्चय किया जाना चाहिये क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।

13. दांडिक मामलों में अभियोजन को अपना मामला युक्तियुक्त संदेह से परे प्रमाणित करने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है, यह प्रत्येक मामले के तथ्य व परिस्थिति पर निर्भर करता है:-

    उक्त मामले में गुरूवचनसिंह विरूद्ध सतपाल सिंह, ए.आई.आर. 1990 (सु.को.)209 का संदर्भ देते हुये यह भी प्रतिपादित किया गया हे कि दाण्डिक विचारण में अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित किये जाने का कोई निष्चित मापदण्ड नहीं है तथा प्रत्येक मामले के तथ्यों, परिस्थितियों एवं साक्ष्य की गुणवत्ता के आधार पर निष्कर्ष निाकला जाना चाहिये

1. प्रथम सूचना रिपोर्ट में हुए विलंब के कारण पूरे मामले को अस्वीकार नहंी किया जा सकता है:-
         न्याय दृष्टान्त तारासिंह विस्द्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी.536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविष्वसनीय ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवष्यक है।


15. साक्षियों के कथनों में आए महत्वहीन विरोधाभाष या विसंगति से न्यायालय को प्रभावित नहीं होना चाहिए बल्कि न्यायालय को यह देखना चाहिए कि उक्त विसंगति एवं विरोधाभाष का प्रभाव मूल प्रश्न पर तो नहीं पड़ता है ।

        साक्षियों के कथनों में व्याप्त विसंगतियों एवं उनके प्रभाव के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति भी इस संबंध में संदर्भ योग्य है. उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. में यह ठहराया गया है कि न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, जब तक विसंगतियंा मूल प्रष्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नही ंपड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईष्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है। छोटे-छोटे बिन्दुओं पर गौण फर्क जो प्रकरण के केन्द्र बिन्दु को प्रभावित नहीं करते हैंद्व उन्हें तूल देकर आधारभूत साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है

संदर्भ- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध एम.के.एन्थोनी 1985 करेन्ट क्रिमनल जजमेंट सु.को.18.

16. विधि फरियादी पक्ष को यह अनुमति नहीं देती है कि वह अपीलार्थी के शांतिपूर्ण कब्जे में उसे बलपूर्वक बेदखल करे, अपीलार्थी को अपने आधिपत्य की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है:-

विधि उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती है कि वे बलपूर्वक आपीलार्थीगण के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करें तथा विवादित भूमि से उनको बलपूर्वक बेदखल करे अतः उस सीमा तक अपने आधिपत्य की सुरक्षा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त है। 
इस क्रम में न्याय दृष्टांत गंगाप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-(1) नोट-236 एवं गुड्डू उर्फ राकेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-2001(1) नोट -34 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
 जिनमं सम्पत्ति की प्रायवेट रक्षा के अधिकार के अस्तित्व होने की दषा मे ’संहिता’ की धारा 323/34 की दोष-सिद्धि को उचित नहीं ठहराया गया है।

17. यदि मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती तो उसे रदद नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दशा में मामले को अविश्वसनीय ठहरा सकते हैं जहां मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो:-

        न्याय दृष्टांत में ही संदर्भित माननीय सर्वोच्च न्यायालय न्याय दृष्टांत नागेन्द्र बाला विरूद्ध सुनीलचंद, ए.आई.आर. 1960 एस.सी.-706 में किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ आवष्यक है कि चिकित्सीय साक्ष्य एक अभिमत मात्र है तथा यदि मौखिक साक्ष्य अपने आप में स्पष्ट है तो मात्र इस आधार पर कि ऐसी मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती है, उसे रद्द नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दषा में मामले को अविष्सनीय ठहराया जा सकता है, जहा मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो।




18. एकल साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, अगर वह  विसंगतिविहीन एवं विश्वास योग्य हो:-

निष्चय ही विधि का ऐसा कोई नियम नहीं है कि एकल साक्ष्य पर दोष-सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है, लेकिन ऐसा करने के लिये यह आवष्यक है कि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य ठोस, विसंगति विहीन एवं विष्वास योग्य हो। इस संबंध में
 न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में प्रतिपादित विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


20. यदि किसी साक्षी की साक्ष्य में घटना के संबध् में समर्थनकारक साक्ष्य है तो उसकी साक्ष्य में आई प्रकीण बिन्दुओं पर विसंगति के कारण पूरी साक्ष्य को नहीं नकारा जा सकता है:-

        विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये कि यदि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य में आधारभूत घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो उसे प्रकीर्ण बिन्दुओं पर आई विसंगतियों और विरोधाभासों के आधार पर रद्द नहीं किया जाना चाहिये, 
संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897

21.अपीलार्थीगण/आरोपीगण की न्यायालय में पहचान के संबंध में:-

        विवेचना-क्रम में पहचान न कराये जाने के बाद न्यायालय में पहली बार की गयी पहचान कार्यवाही को सारभूत एवं महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना गया है, अपितु दुर्बल किस्म की साक्ष्य माना गया है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत अफसर विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009(3) एम.पी.डब्ल्यू.एन.नोट-63 संदर्भ योग्य है,

 जिसमें बार-बार न्यायालय आने-जाने के बाद विचारण के दौरान साक्षी न्यायालय में द्वारा की गयी पहचान को महत्वहीन ठहराया गया।

24. पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का अन्य साक्षियों की साक्ष्य की तरह ही मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोत से संपुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जाएगा :-

        न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध राज्य, (2003) 5 एस.सी.सी. 291 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि पुलिस अधिकारी की अभिसासक्ष्य का मूल्यांकन भी उसी कसौटी पर किया जाना चाहिये, जिस कसौटी पर किसी दूसरे साक्षी की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोंत से सम्पुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जायेगा।


27. पुलिस अधिकारी की एकल साक्ष्य, जो स्वतंत्र साक्ष्य से परिपुष्ट नहीं है, के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, जबकि वह विश्वास योग्य हो:-

         विधि या प्रज्ञा का ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य स्वतंत्र संपुष्टि के बिना स्वीकार नहीं की जा सकती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 दृष्टांत ’ख’  के अंतर्गत ऐसी अपेक्षा केवल सह अपराधी की अभिसाक्ष्य के विषय में की गई है। न्यायालय यदि किसी विषिष्ट मामले में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य पाता है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस विधिक स्थिति के बारे में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट ने आलोच्य निर्णय में विभिन्न न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये विधिक स्थिति का उचित विष्लेषण किया है।

 इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी.2783 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


अधिनियम’ की धारा 13(6)निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा

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                                          अधिनियम’ की धारा 13(6)

1..केवल कुमार शर्मा विरूद्ध सतीषचंद्र गोठी एवं एक अन्य, 11991 एम.पी.जे.आर. 404 में उक्त प्रावधानों का गहन विष्लेषण एवं विषद व्याख्या करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13(6) के अंतर्गत निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा समाप्त किये जाने पर धारा 12 के अध्याधीन उपलब्ध आधारों पर प्रतिवाद करने का प्रतिवादी का अधिकार समाप्त हो जाता है,

2 लेकिन ऐसी प्रतिरक्षा, जो धारा 12 की परिधि के बाहर है, प्रतिवादी/किरायेदार के द्वारा ली जा सकती है। साथ ही प्रतिवादी, वादी के साक्षियों का कूट परीक्षण कर सकता है, तर्क में भाग ले सकता है, लेकिन वह अपनी स्वयं की साक्ष्य न तो दे सकता है और न ही स्वयं के प्रकरण को सिद्ध कर सकता है।

3 मध्यप्रदेष साहसिक एवं खोजी संस्थान भोपाल विरूद्ध श्री आर.एस.बघेल, 2004(2) एम.पी.एच.टी.-19 एन.ओ.सी. में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 दो भागों में है तथा बकाया किराये के आधार पर निष्कासन के विरूद्ध बचाव के लिये यह जरूरी है कि दोनों ही प्रावधानों का सम्यक् पालन किया जाये। 

4 देवेन्द्र चैधरी विरूद्ध वारसीलाल दुआ 2005(2) जे.एल.जे.-149 में इस संबंध में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि धारा 13 के प्रावधानों का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है और उसका कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है तो उपलब्ध बचाव किरायेदार को प्राप्त नहीं होगा।


5.. तुलसीराम विरूद्ध राधाकिषन 1979(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-53(म.प्र.) 

6.... केदार नाथ विरूद्ध अर्जुनराम, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-26 में यह विधिक प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 को आकर्षित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि प्रथमतः पक्षकारों के मध्य भवन स्वामी तथा किरायेदार के सम्बन्धों के विवाद को निराकृत किया जाये। यदि ’अधिनियम’ की धारा 12(1) के आधार पर निष्कासन चाहा गया है तो ’अधिनियम’ की धारा 13(1) के प्रावधानों की प्रयोज्यता इस आधार पर वर्जित नहीं हो जायेगी कि भवन स्वामी तथा भाड़ेदार के सम्बन्धों को स्वीकार नहीं किया गया है। मानाराम विरूद्ध ओमप्रकाष, 1990 जे.एल.जे. 19 भी अवलोकनीय है।

7..        सद्भाविक आवष्यकता के संबंध में जहाॅं तक विधिक स्थिति का संबंध है, ऐसी आवष्यकता का अर्थ ईमानदारीपूर्ण आवष्यकता से है। किसी किरायेदार को मकान मालिक की इच्छा मात्र के आधार पर निष्कासित नहीं किया जा सकता है तथा मकान मालिक का यह दायित्व है कि वह न्यायालय के समक्ष विष्वसनीय साक्ष्य द्वारा यह सिद्ध करे कि उसे न केवल मकान की आवष्यकता है बल्कि यह आवष्यकता वास्तविक एवं सद्भावनापूर्ण है, टी.बी.सरपटे वि. नेमीचंद, 1966 एम.पी.एल.जे. सु.को. 26 गोगाबाई वि. धनराज, 1990(2) वि.नो. 92।

8 अभिकथित आवष्यकता के बारे में न्यायालय को मामले के तथ्यांे एवं परिस्थितियों के आधार पर वस्तुपरक रूप से भवन स्वामी की मांग का मूल्यांकन करना चाहिये और कथित आवष्यकता की सद्भावना का निर्णय करना चाहिये,
संदर्भ:- ताहिर अली आदि विरूद्ध समद खाॅन, 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 25. मान 8...षिवस्वरूप गुप्ता वि. डाॅ.महेषचंद गुप्ता, सिविल अपील क्र. 4166/99 निर्णय दिनाॅंकित 30.7.1999, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत प्रेमकुमार वि. कन्हैयालाल (2000) (2) एम.पी.वी.नो. 4 में किया गया है, में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी द्वारा अनुभव की जा रही आवष्यकता, वास्तविक और ईमानदारी की इच्छा के परिणाम पर आधारित है, वहाॅं भूस्वामी निष्कासन की आज्ञप्ति प्राप्त करने का अधिकारी है तथा ऐसे मामले में न्यायाधीष को स्वयं को भू-स्वामी की स्थिति में रखकर यह पता लगाना चाहिये कि क्या आवष्यकता सद्भाविक, वास्तविक एवं ईमानदारीपूर्ण है। न्यायालय को ऐसे मामले में अपनी राय भवन स्वामी पर थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये। 

9.        न्याय दृष्टांत सरला आहूजा वि. यूनाईटेड इंडिया इंष्योरेंस कंपनी, 1998 (8) एस.सी.सी.119 में इस क्रम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी अपनी अभिकथित आवष्यकता के बारे में प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करता है, वहाॅं उसके पक्ष में उसकी आवष्यकता के सद्भाविक होने की अवधारणा उत्पन्न हो जाती है तथा किरायेदार को भवन स्वामी पर अपनी यह राय थोपने का आधार नहीं रह जाता है कि भवन स्वामी अपने आप को अन्यत्र व्यवस्थित करे। 

10--न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध हजारीलाल, 2007(2) एम.पी.ए.सी.जे. 278 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि सद्भाविक आवष्यकता का तथ्य महसूस की गई आवष्यकता के रूप में ईमानदार एवं सच्ची वांछा का परिणाम होना चाहिये न कि भवन खाली कराने का बहाना मात्र। पूर्वोक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सद्भाविक आवष्यकता के बिन्दु पर वर्तमान मामले की तथ्यस्थिति पर विचार करना होगा।

11.        जहाॅं तक ’विवादित भवन’ में प्रत्यार्थी/वादी के स्वत्व की इंकारी के आधार पर ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन का अनुतोष प्रदान किये जाने का सम्बन्ध है, यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि व्युत्पन्न स्वत्व के मामले में प्रतिवादी द्वारा भवन स्वामी के स्वत्व से इंकार करना ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन के आधार को निर्मित नहीं कर सकता 

12 इस क्रम में न्याय दृष्टांत शीला बनाम फर्म प्रहलाद राय प्रेमप्रकाष, 2002(2) एम.पी.एच.टी. 232 सु.को., कौषल्या बाई बनाम विनोद कुमार, 1994 एम.पी.ए.सी.जे. 369, बजरंगलाल वर्मा विरूद्ध ज्ञासू बाई, 2004(4) एम.पी.एल.जे. 192 तथा देवसहायम विरूद्ध पी.सावित्रथमा (2005) 7 एस.सी.सी.-653 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

परिसीमा:-

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                                                          परिसीमा:-

1.......         गनपतराम शर्मा विरूद्ध गायत्री देवी ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 2017  के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 66 की प्रयोज्यता का विष्लेषण करते हुये निर्णय की कण्डिका 22 एवं 23 में यह सुस्पष्ट अभिनिर्धारण किया है कि स्थावर सम्पत्ति के कब्जे के लिये जब वादी किसी समपहरण या शर्त भंग के कारण कब्जे का अधिकारी होने का अभिकथन कर रहा हो, वहाॅं परिसीमा काल ऐसे समपहरण के ज्ञान की तारीख से प्रारम्भ होगा


2---- रमती देवी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया, 1995(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-186 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ के द्वारा यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि विक्रय का पंजीकृत विलेख न्यायालय द्वारा समुचित घोषणा द्वारा रद्द अथवा शूनय घोषित किये जाने तक विधि मान्य रहता है तथा पक्षकारों पर आबद्धकर है।

3-- उक्त मामले में यह प्रतिपादन भी किया गया है कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद-59 के परिप्रेक्ष्य में रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख रद्द कराने के लिये यदि वाद तीन वर्ष के अंदर संस्थित नहीं किया गया है तो ऐसा वाद समय बाधित है।

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