भारत में विधि का शासन


                        भारत में विधि का शासन

        एडवर्ड काक के द्वारा प्रतिपादित विधि के शासन को प्रोफेसर डायसी ने विस्तृत व्याख्या कर अर्थ स्पष्ट किया और प्रायः दुनिया के सभी देशों मंे उनके अभिमत को स्वीकार कर अपने संविधान का अभिन्न अंग बनाया है।

        विधि के शासन में सभी व्यक्ति विधि के समक्ष समान है और सभी का संरक्षण विधि बिना किसी भेदभाव के करती है लेकिन इसमें  वर्ग विभेद को विधि के विपरीत नहीं माना गया है और एक वर्ग विशेष और व्यक्ति के लिए भिन्न कानून और व्यवस्था की जा सकती है, जिसे युक्तियुक्त वर्गीकरण कहा जाता है । 

        विधि के शासन के अंतर्गत राज्य का प्रत्येक अधिकारी अपने आप को विधि के अधीन समझेगा और कानून का पालन करेगा । इसमें राज्य के तीनों अंग कार्यपालिका, विधायिका और न्यायपालिका तीनों कानून के अनुसार कार्यवाही किए जाने के लिए बाध्य है ।

        विधि के शासन के अंतर्गत व्यक्ति संबंधी सभी स्वतंत्रताऐं इसमें शामिल मानी गई है और इसे संविधान का महत्वपूर्ण अंग माना गया है । विधि के शासन के अंतर्गत राज्य कर्मचारियों के द्वारा संवैधानिक सीमाओं के अंदर अपनी कार्यपालक शक्तियों का प्रयोग किया जाएगा । यदि उनकेे द्वारा अपनी शक्तियों का प्रयोग नहीं किया जाता है या सीमा से अधिक किया जाता है तो जनता उनके आचरण को चुनौती दे सकती है और न्यायालय उनके आचरण में सुधार करेगें ।

        विधि के शासन के अंतर्गत सरकारी अधिकारियों को मनमाना विवेकाधिकार प्राप्त नहीं होंता है, किसी भी व्यक्ति के पास विवेकाधिकार की असीमित शक्तियां नहीं होती हैं। सभी व्यक्तियों को विवेकाधिकार का प्रयोग विधि के अनुसार दी गई शक्तियों के अंतर्गत करना होता है । 

        विधि के शासन के अंतर्गत सभी विधि के उल्लंघन करने वाले को दण्डित किया जाता है । सभी व्यक्तियों पर देश का संपूर्ण कानून लागू बराबरी से लागू होता है, कोई भी व्यक्ति विधि के उपर नहीं माना जाता है, किसी भी सरकारी अधिकारी-कर्मचारी, नेता को विशेष छूट नहीं होती है  ।  
       इस संबंध में 1959 में दिल्ली में आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कमीशन आॅफ ज्यूरिस में भारत के संबंध में विधि के शासन को लागू किए जाने के लिए कमेटीयां बनाई गई थीं, जो निम्नलिखित हैं:-

        (1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता तथा विधि का शासन
        (2) राज्य के संबंध में विधि का शासन
        (3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन
        (4) सुनवाई तथा परीक्षण  के संबध्ंा में विधि का शासन         
      
(1) व्यक्तिगत स्वतंत्रता और विधि का शासन लागू करने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-
1. राज्य पक्षपातपूर्ण विधि नहीं बनाएगा,
2.राज्य धार्मिक विश्वास पर हस्तक्षेप नहीं करेंगे,
3. राज्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता पर प्रतिबंध नहीं लगाऐंगे ।

(2) राज्य के संबंध में विधि का शासन लागू करने के संबध्ंा में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-
1.राज्य द्वारा प्रभावशाली सरकार दी जाएगी,
2.राज्य सरकार विधि के अनुसार चलेगी,
3. राज्य सरकार व्यक्ति की सुरक्ष देगी,
4. राज्य द्वारा बुराईयों का अंत किया जाएगा ।

(3) आपराधिक प्रशासन के संबंध में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-
1.बिना विधिक प्रावधानों के गिरफतार नहीं किया जाएगा,
2. आरोप साबित होने पर जांच एजेन्सी व्यक्ति को निर्दोष मानेगी
3. युक्ति को अपने विरूद्ध आरोप में सुनवाई  का पूरा अवसर दिया जाएगा
4. व्यक्ति का परीक्षण विधि अनुसार होगा ।

(4) सुनवाई तथा परीक्षण करने के संबध्ंा में विधि का शासन लागू किए जाने के संबंध में  निम्नलिखित घोषणाऐं की गई हैंः-ः-
1. न्यायालय स्वतंत्र रूप से कार्य करेंगी ।
2. न्यायालय और न्यायाधीश निष्पक्ष और निर्भिक होकर न्याय प्रदान करेंगे ।
3. .विधि का व्यवसाय स्वतंत्र रूप से किया जाएगा ।

        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय प्रशासन द्वारा न्याय प्रदान करना ही विधि का शासन है, जिसमें बिना डर, दबाव, पक्षपात के न्याय प्रदान किया जाएगा । इसके अंतर्गत कानून किसी के साथ विभेद नहीं करेगा, सभी पर समान रूप से लागू होंगा और सभी को समान और संपूर्ण संरक्षण प्रदान किया जाएगा ।
      














पूर्व निर्णीत प्रकरणों के संबंध में

             पूर्व निर्णीत प्रकरणों के  संबंध में

                              माननीय म0प्र0 उच्च न्यायालय की विशेष खंडपीठ में पाच जजो ने 2003 भाग-1 जे0एल0जे0 105 में पूर्व निर्णय के संबंध में सिद्धांत अभिनिर्धारित किये है, जिसमें मान्नीय मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय द्वारा बलवीर सिंह (पूर्वोक्त) के मामले में पूर्ण न्यायपीठ के विनिश्चय में, जिसमें अभिनिर्धारित किया गया हैं कि यदि उच्चतम न्यायालय की दो समान अधिकारयुक्त न्यायपीठो के दृष्टिकोण में विरोध हो तब उच्च न्यायालय द्वारा उस निणर्य का अनुसरण किया जाना होगा जिसमें से प्रतीत हो कि विधि अधिक विस्तृत रूप और अधिक सही और अधिनियम की योजना के अनुरूप अभिकथित हैं, जिसे सही विधि न मानते हुए उसे इस बिंदु पर उलटा गया है । अतः  2001 रा नि 343त्र 2001  (2) एम पी एल जे 644  (पूर्ण न्यायपीठ) द्वारा उलटा गया । 


        इसके बाद ए.आई.आर. 2005 सुप्रीम कोर्ट 752 सेन्ट्र्ल बोर्ड आॅफ द्विवेदी बोरा कमेटी विरूद्ध महाराष्ट्र् राज्य के मामले में माननीय उच्चतम न्यायालय के पाच न्यायाधीशगण के द्वारा पूर्व निर्णय के संबंध में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं जिसमें निम्नलिखित सिद्धांत अभिनिर्धारित किए हैं। 

1-        उच्च न्यायालय के बारे में, एकल न्यायपीठ अन्य एकल न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं।

2-         यदि एकल न्यायाधीश अन्य एकल न्यायपीठ के दृष्टिकोण से सहमत नहीं हो तब उन्हें उस मामले को बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित करना चाहिए।

3-         इसी प्रकार खंड न्यायपीठ, पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से आबद्ध हैं ।

4-         यदि वह पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय से सहमत नहीं हो तब उसके द्वारा मामला बृहत्तर न्यायपीठ को निर्देशित किया जाना चाहिए। 

5-        समान सामथ्र्य की दो खंड न्यायपीठो के विनिश्चयों में विरोध की दशा में पूर्वतर खंड न्यायपीठ के विनिश्चय का अनुसार किया जाएगा, सिवाय तब जब उसे पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा स्पष्ट किया गया हो , जिस दिशा में पश्चात्वर्ती खंड न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होगा ।


6-        बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय, लघुतर न्यायपीठों के लिए बाध्यकर हैं।


7-        उच्चतम न्यायालय के दो विनिश्चयों में विरोध की दशा में, जब न्यायपीठों में न्यायाधीशों की संख्या समान हो तब पूर्वतर न्यायपीठ का विनिश्चय बाध्यकर होता हैं, सिवाय तब जब समान संख्या की पश्चात्वर्ती न्यायपीठ द्वारा स्पष्टीकृत हो, जिस दशा में पश्चात्वर्ती विनिश्चय बाध्यकर होता हैं।


8-         बृहत्तर न्यायपीठ का विनिश्चय लघुतर न्यायपीठों के लिये बाध्यकर होता हैं। अतः पूर्वतर खंड न्यायपीठ का विनिश्चय, जब तब पश्चत्वर्ती खंड न्यायपीठ द्वारा प्रभेदित नहीं हो, उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों के लिए बाध्यकर है।


9-         इसी प्रकार, जब खंड न्यायपीठ के विनिश्चय तथा बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय विद्यमान हो तब उच्च न्यायालयों तथा अधीनस्थ न्यायालयों पर बृहत्तर न्यायपीठ के विनिश्चय बाध्यकर हैं।

10-        उच्चतम न्यायालय के विभिन्न विनिश्चयों में जो सामान्य सूत्र हैं वह यह हैं कि उस पूर्व निर्णय को अत्यधिक मूल्य दिया जाना होता हैं जो न्यायालय के विनिश्चयों में सामंजस्य तथा सुनिश्चितता के प्रयोजनार्थ न्यायालय द्वारा अनुसरित विनिर्णय के रूप में प्रवर्तित हो गया हैं । जब तक पूर्व निर्णय के रूप में प्रस्तुत किए गए विनिश्चय को न्यायालय द्वारा स्पष्टतः प्रभेदित नहीं किया जा सका हो अथवा वह कुछ ऐसे पूर्व निर्णयों को विचार में लिय बिना,अनवधानता के कारण दिया गया हो जिनसे न्यायालय सहमत हो।
  





      

विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका

            विधि का शासन और न्यायपालिका की भूमिका
          
        विधि के शासन का अर्थ विधि के द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार निष्पक्ष, निडर होकर पक्षपातरहित ढंग से न्याय प्रदान करना विधि का शासन कहलाता है,  न्यायालय को संहिताबद्ध विधि भारतीय दण्ड संहिता सिविल प्रक्रिया संहिता, दण्ड प्रक्रिया संहिता आदि के पालन में कोई बाधा नहीं है ।  जिसमें न्यायालय लिखित विधि के अनुसार कार्य कर विधि का शासन प्रदान करते हंै।

         लेकिन हमारे देश में अनेक जाति, धर्म भाषा के लोग हैं, जिनमें अनेक रूढी प्रथा और रीति-रिवाज विद्धमान है, जो विधि का रूप रखते ंहै, जैसे मुस्लिम विधि संहिताबद नहीं है, लेकिन मुस्लिम धर्म ग्रन्थ शरियत और कुरान के आधार पर कानून पर आधारित है । इसी प्रकार गौड़-भील, आदिवासी आदी जनजातियांें में भी सामाजिक रूढी प्रथा रीतिरिवाज प्रचलित हैं, जिसके अनुसार उनके यहां विवाह, तलाक, दत्तक, उत्तराधिकार की कार्यवाही होती है, जो न्यायालय में प्रमाणित होने पर विधि का रूप रखते हैं ।

        इसलिए जब न्यायालय द्वारा असंहिताबद्ध रूढीगत विधि को लागू किया जाता है तब न्यायालय को यह ध्यान रखना चाहिए कि वह संविधान के द्वारा प्रदत्त मूल और कानूनी अधिकारों का ध्यान रखते हुए विधि के समक्ष समता-समानता-संरक्षण, वर्ग विभेद, लिंगभेद, जातिभेद धर्मभेद को ध्यान में रखते हुए व्यक्तिगत स्वतंत्रता और प्राकृतिक न्याय तथा मानव अधिकार के सिद्धांत को ध्यान में रखते हुए न्याय प्रदान करे, यही विधि का शासन है ।

        व्यक्तिगत स्वतंत्रता के संबध् में मूल अधिकारों का उल्लंघन होने पर व्यक्ति को मूल अधिकारों के संबध् में संविधान के द्वारा गारंटी प्रदान की गई है और भारत के उच्च और उच्चतम न्यायालय रिट जारी कर उनके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते हैं । 

        न्याय प्रशासन में विधि का शासन लागू करने में वरिष्ठ न्यायालय की महत्वपूर्ण भूमिका है और वे समय-समय पर व्यक्तिगत स्वतंत्रता, गिरफतारी, संरक्षण आदि के संबंध में दिशा-निर्देश जारी कर न्यायालय, पुलिस प्रशासन आदि से संबंधित संस्थाओं को सचेत करते  रहते है, उनके द्वारा प्रतिपादित दिशा निर्देशों को लागू करना अधीनस्थ न्यायालय और राज्य का कर्तव्य है । 

        न्यायालयों में विधि का शासन प्रदान करने में महत्वपूर्ण भूमिका राज्य के प्रमुख अंग जिला कलेक्टर, न्यायिक मजिस्ट्रेट, कार्यपालिक मजिस्ट्रेट, पुलिस आदि की रहती है और सर्वप्रथम संज्ञेय अपराध घटित होने पर पुलिस द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य है और उसके पश्चात् उसकी जांच कर अभियोग पत्र पेश करना सुरक्षा एजेन्सीयों का काम है और प्रथम सूचना रिपोर्ट पंजीकरण के साथ उसकी प्रतिलिपि धारा 157 द.प्र.सं. के अंतर्गत संबंधित न्यायिक मजिस्ट्रेट को भेजने के साथ ही  विधि का शासन और संरक्षण प्रभावशील हो जाता है ।

        आरोपी के गिरफतार होने पर उसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा डी.के.बसु के मामले में दी गई गाईडलाईन के अनुसार पुलिस के द्वारा गिरफतार किया जाता है, उसे गिरफतारी के कारणों की सूचना दी जाती है । उसके सगे-संबंधियों को गिरफतारी की सूचना से अवगत कराया जाता है और उसे पसंद के अधिवक्ता से सलाह लेने की छूट दी जाती है, इसके बाद उसे 24 घण्टे के अंदर न्यायालय के समक्ष पेश किया जाता है । उसके साथ गिरफतारी के दौरान अमानवीय व्यवहार नहीं किया जाता है, हथकड़ी-बेड़ी नहीं लगाई जाती है । उसे मारपीट कर प्रताडि़त नहीं किया जाता है । 


        आरोपी के गिरफतार होने के बाद व्व्यक्ति को जब सर्वप्रथम मजिस्ट्रेट के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है तो मजिस्ट्रेट की महत्वपूर्ण भूमिका होती है । वह आरोपी से पूछतांछ करता है, यदि उसके शरीर पर कोई चोट है, तो उसका मेडीकल करवाता है या वह अपना चिकित्सीय परीक्षण कराना चाहता है तो उसका चिकित्सीय परीक्षण कराया जाता है । इसके बाद उसे और अभियेाजन को सुनकर न्यायिक अभिरक्षा अथवा पुलिस अभिरक्षा में विधिक प्रावधानों के अनुसार भेजा जाता है ।
        मजिस्ट्रेट के द्वारा यदि गिरफतारी के दौरान मानव अधिकारों का उल्लंघन पाया जाता है तो उसका परिवाद मानव अधिकार न्यायालय के समक्ष मानवअधिकार अधिनियम की धारा 13 के अंतर्गत प्रस्तुत कर सकता है । निर्धारित समय अवधि  के लिए न्यायिक रिमांड और पुलिस रिमांड दिए जाने के साथ ही साथ जमानत के सबंध में आरोपी को सुना जाता है और उसे विधिक प्रावधानों के अनुसार जमानत प्रदान की जाती है अथवा निरस्त की जाती है  ।


        उसके बाद न्यायालय में चालान पेश होने पर आरोपी को चालान की नकल दी जाती है । यदि प्रार्थी इलाज के लिए सहायता चाहता है तो उसे सरकारी खर्च पर न्यायालय द्वारा इलाज कराने की सुविधा दी जाती है । आरोपी और प्रार्थी दोनों को निःशुल्क विधिक सहायता प्रदान किए जाने का प्रावधान है, ताकि कोई भी व्यक्ति बिना अभिरक्षा के विचारण का सामना न कर सके ।


        उसके बाद आरोप लगाए जाने के साथ ही विचारण प्रारंभ होता है और विचारण भी शीघ्र किए जाने पर ही विधि का शासन प्रभावशील होता है । विधि के शासन के अनुसार शीघ्र विचारण होना चाहिए, विचारण प्रारंभ होने के दौरान साक्ष्य अभिलेखन न्यायालय द्वारा किया जाता है और यह एक महत्वपूर्ण कार्य है, जिसमें न्यायालय के समक्ष उपस्थित होने वाले साक्षियों की साक्ष्य घटना के संबध् में अभिलिखित की जाती है ।


        न्यायालय में उपस्थित साक्षियां को आने- जाने का खर्च दिया जाता है । अभियोजन साक्षी बिना डर दबाव के अपनी साक्ष्य प्रस्तुत करें इसलिए उन्हें सुरक्षा प्रदान की जाती है । इसके बाद आरोपी को आरोपी को बचाव का पर्याप्त अवसर दिया जाता है और उसे भी अपनी तरफ से बचाव साक्ष्य पेश करने का अवसर प्राप्त होता है । विचारण के दौरान उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है, जब तक कि वह दोषी नहीं ठहराया जाए, उसके निर्दोष होने की उपधारणा की जाती है । दस दोषी छूट जाऐं, परंतु एक निर्दोष को दोषी नहीं ठहराया जाए, इस बात को ध्यान में रखते हुए न्यायिक विचारण किया जाता है ।


        आरोपी के निर्दोष होने की उपधारणा के बाद विचारण प्रारंभ होने के बाद उसे बचाव और प्रतिरक्षा का पर्याप्त अवसर देकर उसके विरूद्ध आई साक्ष्य से अभियुक्त परीक्षण में अवगत कराकर उससे बचाव में साक्ष्य देने का अवसर प्रदान किया जाता है । यदि उसे लिखित में अंतिम तर्क प्रस्तुत किए जाने और उसे खुद की बाध्यता के साथ बचाव में साक्ष्य प्रस्तुत करने के प्रावधानों के साथ साक्ष्य का विश्लेषण कर निणर््ाय पारित किया जाता है ।

         निणर््ाय पारित होने के बाद आरोपी और प्रार्थी दोनों के हितों को ध्यान  में रखते हुए दण्डादेश पारित किया जाता है, जिसमें प्रार्थी को हुए नुकसान के लिए प्रतिकर और खर्च दिलाया जाता हैे । आरोपी को दण्ड इस उददेश्य के साथ दिया जाता है कि अपराध की पुनर्रावृत्ति न हो और उसे देखकर समाज में सुधार हो और अन्य कोई व्यक्ति पुनः इस प्रकार का अपराध करने की न सोचे ।

        विचारण के समय महिला संबंधी अपराधों में मान्नीय उच्चतम न्यायालय के द्वारा साक्षी के मामले में प्रतिपादित गाईडलाईन का ध्यान रखा जाता है । प्रार्थी का नाम उजागर न हो, इस बात का ध्यान रखते हुए कैमरा ट्रायल की जाती है । विचारण के दौरान सुलह, समझौता, राजीनामा का प्रयास किया जाता है ताकि पक्षकारों में आपसी सामन्जस्य स्थापित हो और उनमें व्याप्त दुश्मनी, वैमनस्यता समाप्त हो ।

        इस प्रकार विधि द्वारा स्थापित न्यायालय विधिक प्रावधानों के अंतर्गत कार्य करते हुए विधि का शासन स्थापित करते हैं ।







//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//


//विधि का शासन और न्याय प्रदान करने में आने वाली कठिनाईयां//
        विधि द्वारा स्थापित न्यायालयों को विधिक प्रक्रिया के अनुसार न्यायालय में विधि का शासन लागू किए जाने में अनेक कठिनाईयों का सामना करना पड़ रहा है, जिसके कारण न्याय प्रशासन प्रभावित होता हैं । उपरोक्त कठिनायां निम्नलिखित हैंः-

        1. न्यायालय में कार्य की अधिकता ।

        2. न्यायालय में सभी गवाहों को खर्च नहीं दिया जाता है             क्योंकि वह कम होने के कारण जल्दी समाप्त हो जाता है । 

        3. निःशुल्क विधिक सहायता , अप्रशिक्षित, पैनल लायर             के माध्यम से दी जाती है ।

        4. सरकारी अधिवक्ता राजनैतिक प्रभाव से बनाए जाते हैं             इसलिए एक ही दिन में 15-20 प्रकरणों में कार्यवाही किए जाने हेतु सक्षम नहीं होते हैं ।

        5. न्यायालय के पास प्रतिकर अदायगी हेतु खुद का कोई             फण्ड नहीं है, इसलिए प्रार्थी को इलाज हेतु पर्याप्त राशि  प्रदान नहीं की जा सकती है ।

        6. न्यायालय में फाईलों की संख्या अत्यधिक है, जिसके                 कारण न्यायाधीश निर्धारित प्रक्रिया के अनुसार कार्यवाही नहंी             कर पाते हैं ।

        7. न्यायालय और न्यायाधीश राजनीति, मीडिया, प्रमोशन के             लालच में डर दबाव के कारण काम करते हैं ।

        8. बाल न्यायालय भी औपचारिकतापूर्ण एक दिन लगाया                 जाता     है, उसमें विशेषज्ञ की नियुक्ति नहीं होती है । 

        9. ग्राम न्यायालय भी केवल एक दिन लगाए जाते हैं और             ग्राम न्यायालय के अनुरूप ग्रामों में जाकर न्यायाधीश                 सुविधाओं के अभाव के कारण न्याय प्रदान नहीं करते हैं । 

        10. शासकीय गवाहों को सुरक्षा प्रदान नहंी की जाती है,             जिसके कारण वे डर दबाव के कारण अभियोजन का पक्ष             समर्थन नहीं करते हैं, जिसके कारण दोषी व्यक्ति न्यायालय  में छूट जाते हैं । 

        11.न्यायालय और न्यायाधीश पर डर दबाव बनाए जाने के             लिए झंूठे आरोप और शिकायतें की जाती हैं, जिसके कारण             न्यायाधीश स्वतंत्रतापूर्वक कार्य नहीं कर पाते हैं ।






















  


























  

पारिवारिक व्यवस्था पत्र

                                    पारिवारिक व्यवस्था पत्र
                                       पारिवारिक व्यवस्था पत्र को भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की धारा 2-24 में व्यवस्थापन के रूप में इस प्रकार परिभाषित किया गया है कि:-



        किसी जंगम या स्थावर संपत्ति का ऐसा लिखत जिसमें अवसीयती व्ययन अभिप्रेत है,  जिसमें व्यवस्थापन की सपंत्ति उनके कुटुम्ब के या उन व्यक्तियों के बीच जिनके लिए वह व्यवस्था करना चाहता है, वितरित करने के प्रयोजन के लिए या उस पर आश्रित व्यक्तियों के लिए व्यवस्था करने के प्रयोजन के लिए किया गया है ।
 

        इसके अंतर्गत विवाह के प्रतिफल के लिए किया गया व्यवस्थापन और धार्मिक या पूर्त प्रयोजन के लिए किया गया व्यवस्थापन शामिल है । इसके अंतर्गत ऐसा व्ययन लिखित में नहीं किया गया है, वहां किसी प्रयोजनके निबन्धनों को चाहे वह न्यास की घोषणा के तौर पर या अन्य प्रकार का हो, अभिलिखित करने वाली कोई लिखत है ।
 

        भारतीय स्टाम्प अधिनियम 1899 की अनुसूची 1-क के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन की लिखत पर उचित स्टाम्प शुल्क व्यवस्थापित संपत्ति की रकम के बाजार मूल्य के राशि के बंध पत्र के अनुसार लगाया जाएगा और अनुसूची के क्रमांक 12 के अनुसार प्रतिभूत रकम या मूल्य का चार प्रतिशत स्टाम्प शुल्क अदा किया जाएगा । 

        अनुसूची के क्रमांक 52 के अनुसार व्यवस्थापन के लिखित के अंतर्गत महर विलेख शामिल है । लेकिन इसे विवाह के अवसर पर मुसलमानों के बीच निष्पादित किया गया महर विलेख चाहे ऐसा विलेख विवाह के पूर्व या विवाह के पश्चात् निष्पादित किया गया हो, उसे छूट प्रदान की गई है । 


        व्यवस्थापन का प्रतिसंहरण 100/-रूपये के स्टाम्प के शुल्क पर होगा तथा जहां कि व्यवस्थापन के लिए करार व्यवस्थापन की लिखत के लिए अपेक्षित स्टाम्प से स्टाम्पित है और ऐसे करार के अनुसरण में व्यवस्थापन संबंधी लिखत तत्पश्चात् निष्पादित की गई है, वहां ऐसी लिखत पर शुल्क 100/-रूपये से अधिक नहीं होगा ।
      

             पारिवारिक व्यवस्था पत्र के संबंध में यह सुस्थापित विधि है कि वह धारा 25 संविदा अधिनियम के अंतर्गत बिना प्रतिफल के अंतरण माना जाता है, जो धारा 23 संविदा अधिनियम के अंतर्गत प्रवर्तनीय है, जो धारा 2 (डी) संविदा अधिनियम के अंतर्गत एक वैध संविदा है और धारा 5 और 9 संपत्ति अंतरण अधिनियम के अंतर्गत एक प्रकरण का अंतरण है । जो धारा 118 भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत विबंध के रूप में लागू होते हैं । 


            पारिवारिक व्यवस्था पत्र कुटुम्ब के सदस्यों के बीच विवाद न बढ़े और उन्हें अनावश्यक खर्च न उठाना पड़े, इसके लिए संयुक्त परिवार की संपत्ति के संबंध में संयुक्त परिवार के सदस्यों को आपसी समझौता के आधार पर बने कुटुम्ब प्रबंध को पारिवारिक व्यवस्था पत्र कहा गया है । इसके लिए आवश्यक तथ्य निम्नलिखित हैं कि:-


            (1)  पूरे परिवार के हित में परिवार के सदस्यों के बीच संदेहास्पद या विवादित दावों के राजीनामा के संबंध में उसी प्रकार के सदस्यों के बीच यह एक इकरार है ।


            (2) कौटुम्बिक प्रबंध करने के लिए परिवार में ऐसी परिस्थितियां     होनी चाहिए, जिसके कारण ऐसा प्रबन्ध करना पड़ा ।


            (3) कौटुम्बिक प्रबन्ध की वैधता को स्वीकार करने के लिए यह शर्त आवश्यक है कि वर्तमान में या भविष्य में वैधानिक दावों पर विवाद हो जाना संभावित हो या सद्भावपूर्वक विवाद की स्थिति हो या भविष्य में हो जाने की संभावना हो ।   


            (4) यदि अचल संपत्ति पर किसी का स्वत्व वर्तमान में स्थापित करना हो तो उनके पक्ष में कौटुम्बिक प्रबन्ध का पंजीकरण किया         जाना आवश्यक है, परंतु ऐसा स्वत्व स्थापित न हो तो बिना पंजीकरण के ही कौटुम्बिक प्रबन्ध वैध माना जाएगा ।


            (5) यदि सद्भावनापूर्वक कौटुम्बिक प्रबन्ध किया गया हो और उसकी शर्तें भी उचित हों तो ऐसे कौटुम्बिक प्रबन्ध को न्यायालय स्वीकार करते हुए प्रभावी करेगी ।



            किसी भी पारिवारिक व्यवस्था पत्र की वैधानिकता के लिए निम्नलिखित बातें आवश्यक हैंः-


            (1) पारिवारिक प्रबन्ध सदभावपूर्वक होना चाहिए, जिससे कि परिवार के विभिन्न सदस्यों के बीच संयुक्त परिवार की संपत्ति का उचित एवं साम्यापूर्ण बंटवारा हो और पारिवारिक विवाद और     परस्पर विरोधी दावे समाप्त हो जाऐं ।


            (2) पारिवारिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है और ज्ञापन (यादगार) के रूप में लिखे गए दस्तावेज का पंजीकरण आवश्यक नहीं है ।


            (3) ऐसा पारिवारिक प्रबन्ध स्वेच्छा से किया गया हो और धोखा, कूटरचना या अनुचित प्रभाव से न किया हो ।


            (4) यदि पूर्व में कर लिए गए मौखिक पारिवारिक प्रबन्ध का ज्ञापन तैयार किया जाता है जो न्यायालय को प्रमाणीकरण की सूचना के लिए या जानकारी के लिए हो तो उसका पंजीकरण आवश्यक नहीं है परंतु यदि पारिवारिक प्रबंध करते समय ही दस्तावेज लिखा     जाता है ताकि उसका उपयोग सबूत के लिए किया जा सके तो पंजीकरण आवश्यक है ।


            (5) पारिवारिक प्रबन्ध में जो पक्षकार हों, उनका संयुक्त संपत्ति में पूर्व से स्वामित्व, दावा या हित हो या भावी दावा हो, जिसे सभी पक्षकार स्वीकार करते हों । यदि पारिवारिक प्रबन्ध के एक पक्षकार का संयुक्त संपत्ति में कोई स्वामित्व न हो परन्तु अन्य     पक्षकार उसके पक्ष में अपने हित को छोड़ता हो और उसको पूर्णस्वामी देता हो, को उस व्यक्ति का पूर्व का ही स्वामित्व माना जायेगा और न्यायालय भी इस पारिवारिक प्रबन्ध को मान्यता देगा।


            (6) संयुक्त परिवार के सदस्यों के बीच सद्भावपूर्वक हुए         कौटुम्बिक प्रबन्ध जो उचित और साम्यापूर्ण हो और जिसमें विधिक दावा शामिल न हो तो वह कौटुम्बिक प्रबन्ध में शामिल पक्षकारों के लिए बन्धनकारी होगा । 


            कौटुम्बिक प्रबन्ध मौखिक हो सकता है लेकिन यदि उसे ज्ञापन के रूप में अभिलिखित किया जाता है और उससे पारिवार की संपत्ति का बंटवारा होता है, ऐसे दस्तावेज का पंजीयन कराना आवश्यक है क्योंकि इससे संपत्ति पर पक्षकारों के कब्जे और अधिकार की घोषणा होती है और यह उनके स्वामित्व को दर्शाने वाला दस्तावेज होता है ।


                  लेकिन यदि पारिवारिक व्यवस्था के अनुसार पहले से लोग अपनी-अपनी संपत्ति पर शांतिपूर्ण रूप से व्यवस्था बनाकर रहते हैं और बाद में उसका विवरण लिखा जाता है तो इस प्रकार की पारिवारिक व्यवस्था का पंजीयन आवश्यक नहीं है अर्थात ऐसा दस्तावेज जिसे लिखे जाने के दिनांक से हक और अधिकार सृजित होता है, उस दस्तावेज का पंजीयन आवश्यक है और ऐसे दस्तावेज लिख् जाने से पूर्व पारिवारिक हक व अधिकार की पुष्टि होती है । इस प्रकार के पारिवारिक व्यवस्था पत्र का पंजीयन आवश्यक नहीं है ।
            

                     यदि पारिवारिक व्यवस्था पत्र रजिस्टर्ड नहीं है तो वह रजिस्टीकरण अधिनियम 1908 की धारा 48 और 49 के अनुसार संपाश्र्वििक प्रयोजन के लिए उपयोग में लाएगा, इस संबंध में रजिस्टीकरण अधिनियम की धारा 49 प्रावधानों की:- जो जो लिखत अभिलिखित रजिस्ट्रीकृत लिखित द्वारा किए जाने के लिए अपेक्षित हों, रजिस्ट्रीकृत न की गई हों, ऐसी दस्तावेज साम्पाशर्वक संव्यवहार के साक्ष्य के तौर पर उपयोग में लाई जा सकती है 
                                     साम्पाशर्विक सहव्यवहार वह सह व्यवहार होगा जो उस दस्तावेज में दिए गए कथनों को विभाजित कर दे, अलग रूप से पढा जा सके और जिसका उल्लेख उसमें न हो । जैसे कि कब्जा प्रदान किया जाना, दस्तावेज के अनुसार कार्य करना आदि ।

अंतरिम व्यादेष

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(1)      यह विधिक स्थिति भी सुस्थापित है कि सामान्यतः इस स्वरूप का अंतरिम व्यादेष प्रदान नहीं किया जाना चाहिये, जो वस्तुतः वाद में प्रार्थित अंतिम अनुतोष की प्रकृति का हो।

 इस संबंध में न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


1 अषोक कुमार वाजपेयी विरूद्ध रंजना वाजपेयी, ए.आई.आर. 2004 अलाहाबाद 107, 


2    बैंक आफ महाराष्ट्र विरूद्ध रेस षिपिंग एवं ट्रांसपोर्ट कंपनी ए.आई.आर. 1995 एस.सी. 1368 


3ं बर्न स्टैण्डर्ड कंपनी लिमिटेड विरूद्ध दीनबंधु मजूमदार ए.आई.आर. 1995

मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत

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मोटर दावा अधि0 संबंधी महत्वपूर्ण न्याय दृष्टांत


(1)    निम्नलिखित न्यायदृष्टांतों में यह ठहराया गया है कि वाहन चालक के कथन के अभाव में  ’’दुर्घटना स्वयं बोलती है’’  का न्याय सिद्धांत आकर्षित होगा तथा यह माना जायेगा कि वाहन चालक लापरवाह था । 


  2लाजवंती विरूद्ध केशर प्रसाद सोनी, 1985 करेन्ट सिविल ला जजमेंट्स (एन.ओ.सी.) 4 

 वसुंधरा आदि विरूद्ध मध्यप्रदेश राज्य, 1985 ए.सी.जे. 919 म.प्र. 

(3)              ट्रेक्टर ट्राली में में यात्रा कर रहे व्यक्ति के घायल होने या मृत होने के संबंध में बीमा कंपनी का कोई उत्तरदायित्व नहीं होगा क्योंकि ऐसा व्यक्ति ’अधिनियम’ के अंतर्गत तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है 


1 -    ओरियन्टल इंश्योरेंस कंपनी विरूद्ध ब्रजमोहन आदि, ए.आई.आर. 2007 एस.सी.-1971
2 - यूनाईटेड इंश्योरेंस कंपनी लिमिटेडा विरूद्ध सरजीराव आदि, ए.आई.आर. 2008 एस.सी. 460
3    नाथूसिंह कुशवाह एवं एक अन्य विरूद्ध नारायण सिंह आदि, 2009(2) दु.मु.प्र. 514
4     कन्हैयालाल विरूद्ध कमलेश सिंह 2009 (2) दु.मु.प्र.-455 में
 


यह सुस्पष्ट  प्रतिपादन किया  गया है कि ट्रैक्टर  पर यात्रा कर रहे अथवा ट्रेक्टर के साथ लगी ट्राली में यात्रा कर रहे व्यक्ति के संबंध में बीमा कंपनी का उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि ऐसा व्यक्ति तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आता है । 




(5)  कोई अभिवचन अपने वादोत्तर में नहीं किया गया है । ऐसी स्थिति में उक्त साक्ष्य जो अभिवचनों पर आधारित नहीं है, कोई महत्व नहीं रखती है इस संबंध में न्याय दृष्टांत-
1-     रामदेव विरूद्ध गीताबाई, 1999 ए.सी.जे.-643 राजस्थान अवलोकनीय है । यह मामला मोटर यान दुर्घटना से संबंधित दावे के विषय में था तथा इस मामले में यह स्पष्ट प्रतिपादन किया  गया है  कि ऐसी साक्ष्य, जिसका कोई अभिवचनगत आधार नहीं है, का कोई महत्व नहीं है तथा उस पर निर्भर नहीं किया जा सकता है



 (6)  वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञप्ति पत्र चालक के पास न होने बाबत संविदा की शर्तो का उल्लंघन का अभिवचन किया है । अतः न्याय दृष्टान्त

1-    नरचिन्वा वी.कामथ आदि विरूद्व अलफ्रेंडो एंटीनीयों डियो मार्टिन आदि ए0 आई0 आर0,1985 एस0सी0 1281 


(7)         मोटरयान दुर्धटना जनित मृत्यु के संबंध में प्रतिकर राशि निर्धारण के संबंध में माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने न्याय दृष्टान्त

1-    सरला वर्मा विरूद्व देहली ट्र्सपोर्ट कारपोरेशन ए0आई0आर0 2009 एस0सी0 3104

के मामले में यह प्रतिपादित किया है कि प्रधानतः तीन तथ्य इस हेतु प्रमाणित किये जाना चाहिए:-
         अ.    मृतक की आयु .
         ब.    मृतक की आय
         स.    मृतक के आश्रितों की संख्या.


2-.    उक्त   मामले में यह भी अभिनिर्धारण किया गया है कि यदि अन्यथा कोई साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गई है तो यहीं माना जावेगा कि पिता की अपनी स्वयं की आय है वह आश्रित नहीं है

3-     मा ऐसी दशा में आश्रित मानी जा सकती है लेकिन अन्यथा साक्ष्य के अभाव में भाई और बहिनों को भी जो सामान्यतः पिता के उपर निर्भर होते है,मृतक पर आश्रित नहीं माना जा सकता है।
4-.    जहां तक मृतक के स्वयं के खर्चो के क्रम में उक्त आय से कटोत्रे का संबंध है, जहां मृतक अविवाहित है तथा आश्रितों में केवल उसकी मा है ऐसी दशा में स्वयं पर किये जाने वाला व्यय 50 प्रतिशत एवं आश्रितता 50 प्रतिशत के रूप में मानी जा सकती है

5-    प्रतिकर निर्धारण हेतु गुणक के संबंध में  यह ठहराया गया है कि आयु के आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।

 यह विधि सुस्थापित है कि  मृतक या उसके आश्रितों में जिसकी भी आयु अधिक है उसके आधार पर गुणक का निर्धारण किया जाना चाहिए ।
                      
6-.     इस्टेट क्षति के लिए 5000/-रूपयें तथा अंत्येष्टि व्यय हेतु 25000/-रूपयें  10,000/-रूपयें की राशि दिलाया जाना भी उचित होगा ।


7-.         आश्रितता की क्षति के विनिष्चिय हेतु निम्न बिन्दुओं पर विचार किया जाना चाहिये:-
1. मृतक की आय में जोड़े जाने वाले या काटी जाने वाली राषि,
2. मृतक के स्वयं के व्यय के संबंध में उसकी आय से घटायी जाने वाली राषि,
3. मृतक की आय के संदर्भ में प्रयोज्य गुणक।  


8-     न्यायोचित मुआवजा वह पर्याप्त मुआवजा है, जो कि मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में उचित तथा साम्यापूर्ण है, ताकि त्रुटि के परिणामस्वरूप उपगत हानि को प्रतिपूरित किया जा सके जहा तक धन से यह संभव हो सके तथा ऐसा मुआवजे के निर्धारण से संबंधित सुस्थापित सिद्धांतों को लागू कर किया जाना चाहिये। प्रतिकर को पारितोषिक, बहुतायत अथवा लाभ का स्त्रोत नहीं होना चाहिये। 


9-    इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यद्यपि मुआवजे के निर्धारण में कतिपय उपधारणात्मक विचारण अंतर्ग्रस्त होते हैं, फिर भी उसे उद्देष्य परक होना चाहिये। यद्यपि गणीतीय सटीकता या समान अधिनिर्णय प्रतिकर के निर्धारण में संभव नहीं हो सकते हैं, लेकिन जब कारक/उत्पादक सामग्री एक जैसी हो, तथा सूत्र/विधिक सिद्धांत एक जैसे हों तो न्याय-निर्णयन का परिणाम प्राप्त करने के लिये संगतता और समरूपता ही आधार होना चाहिये न कि भिन्नता और अस्पष्टता।      



10-     वाहन चालक के पास वैध एवं प्रभावी चालक अनुज्ञा पत्र न होने के कारण बीमा कंपनी को दायित्व से मुक्त किया जाना विधि सम्मत है।

 इस मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ द्वारा निर्णित
1-    सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2-    नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्ण सिंह, 2004 ए.सी.जे.-1 (एस.सी.
3-    न्यू इंडिया एष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रभूलाल, 2008 ए.सी.जे.-627 (एस.सी.)
  

(11)- पै एंड रिकवर का सिद्धांत-
1सरदारी आदि विरूद्ध सुषील कुमार आदि, 2008 ए.सी.जे.-1307
2-    इफ्को टोकिया जनरल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध शंकरलाल, एन.ए.सी.डी.-2008(2)-673(म.प्र.)

    मृतक ट्रैक्टर के मडगार्ड पर बैठकर यात्रा कर रहा था अतः यह माना गया कि वह अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा कर रहा तथा
पै एंड रिकवर का सिद्धांत  को प्रयोज्य नहीं माना गया।

3-    नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297
    के मामले में सुसंगत विधिक स्थिति का विष्लेषण करते हुये यह सुस्पष्ट प्रतिपादन किया है कि जहा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन हुआ है, लेकिन पालिसी जारी की गयी, वहा तृतीय पक्ष को बीमा कंपनी से प्रतिकर राषि अदा कराते हुये बीमा कंपनी को ऐसी राषि वाहन स्वामी से वसूल करने का अधिकार दिया जाना उचित होगा।

 समान विधिक स्थिति न्याय दृष्टांत
पै एंड रिकवर का सिद्धांत-सिद्धांत लागू

12-    1नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297

, 2नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 
3न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
4 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम, 2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)
   




13-    ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध प्रेमलता शुक्ला एवं अन्य, 2007 ए.आई.आर.एस.सी.डब्ल्यू.-3591 में यह प्रतिपादित किया है कि वाहन के चालक की ओर से उतावलेपन या उपेक्षापूर्ण चालन का प्रमाण मोटर यान अधिनियम की धारा 166 के अंतर्गत आवेदन को पोषनीय रखने के लिये आवष्यक तत्व है।


14-        राजेष सिंह आदि विरूद्ध भगवान सिंह आदि, 2009(2) टी.एम.पी. 331 एम.पी. (विविध अपील क्र. 497/04 निर्णय दिनाक 8.1.2008, ग्वालियर पीठ) के मामले में दुर्घटना की प्रथम सूचना रिपोर्ट लगभग 15 माह लेखबद्ध करायी गयी थी घटना  संदेहास्पद है तथा दावा निरस्त किये जाने को उचित ठहराया गया।


15-        वाहन को चलाने के लिये सामान्य हल्का मोटर यान को चलाने का अनुज्ञापत्र पर्याप्त नहीं है, अपितु इसके लिये विषिष्ट पृष्ठांकन किया जाना आवष्यक है। इस विधिक स्थिति को न्याय दृष्टंत ओरियेंटल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध अंगद कोल, 2009(2) दुर्घटना मुआवजा प्रकरण-292 (एस.सी.) 

4-.     सुशीला भदौरिया आदि बनाम म.प्र.स्टेट रोड़ ट्रांसपोर्ट कार्पोे

रेशन एवं एक अन्य, 2005 ए.सी.जे. 831 पूर्णपीठ के मामले में यह सुस्पष्ट विधिक अभिनिर्धारण किया गया है कि जहा दो वाहनों की आपस की टक्कर हुई हो वहा दावाकर्ता किसी एक वाहन के चालक, स्वामी तथा बीमा कंपनी के विरूद्ध याचिका प्रस्तुत करने के लिये स्वतंत्र है। उक्त परिप्रक्ष्य में यह नहीं कहा जा सकता कि दुर्घटना में संलिप्त बताये जाने वाले दूसरे वाहन के स्वामी तथा बीमाकर्ता इस मामले के लिये आवश्यक पक्षकार थे अथवा मामले में पक्षकारों के असंयोजन का दोष है।


5-.        अनुग्राही यात्री के रूप में यात्रा  न्याय दृष्टांतअषोक कुमार सिंह विरूद्ध पतरिका केरकेट्टा व अन्य, प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-261 (डी.बी.) जषोदा बाई व अन्य विरूद्ध मेहरबान सिंह व अन्य, प्प्(2010) एक्सीडेंट एवं कम्पेसेषन केसेस-892  में स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि माल वाहक यान में यात्रा कर रहे व्यक्तियों की क्षति या मृत्यु के संबंध में बीमा कंपनी पर कोई उत्तरदायित्व नहीं है, क्योंकि वे तृतीय पक्ष की श्रेणी में नहीं आते हैं।


6-         बीमा कंपनी द्वारा जारी बीमा पालिसी की शर्तों का उल्लंघन चालक अनुज्ञा-पत्र के संबंध में  किया जाना प्रमाणित हुआ है,
 नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध स्वर्णसिंह, (2004)3 एस.सी.सी.-297,
 नेषनल इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध बलजीत कौर 2004(2) एस.सी.सी-1 न्यू इंडिया इंष्योरेंस कंपनी लिमिटेड विरूद्ध कुसुम,
2009, ए.सी.जे. 2655 (एस.सी.)     
पै एंड रिकवर    का सिद्धांत लागू 


7-        वीरप्पा व अन्य विरूद्ध सिद्दप्पा व अन्य प्(2010) एक्सीडेंट एण्ड कम्पंसेषन केसेस-644 (डी.बी.) के मामले में कर्नाटक उच्च न्यायालय की खण्डपीठ के द्वारा यह व्यक्त किया गया है कि अनुभव दर्षाता है कि मोटर दुर्घटना मुआवजे से संबंधित विधि की शाखा धीरे-धीरे ऐसे व्यक्तियों के हाथों में आ रही है, जो न्यायिक प्रक्रिया का माखौल बना रहे हैं। पुलिस, चिकित्सकों, अधिवक्ताओं और यहा तक कि बीमा कंपनियों के माध्यम से एक नापाक गठजोड़ उस दुखद चलन की ओर इषारा करता है, जो लोकधन को वैधानिक तरीके से प्राप्त करने के लिये तेजी से उभर रहा है तथा इस प्रक्रिया में संलग्न लोग अपने व्यवसाय में सफलता के कारण सम्मान भी प्राप्त कर रहे हैं। यह एक खतरनाक रूझान है तथा यदि इसे रोका नहीं गया तो इससे न्यायिक प्रक्रिया को नुकसान पहुचेगा।


 उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि न्यायालयों को ऐसे मामलों के निराकरण के समय न केवल सावधान रहना चाहिये, बल्कि ऐसे तरीके भी ढूढना चाहिये, जिससे कि कानून के दुरूपयोग की प्रक्रिया को रोका जा सके। 

दुर्घटना से पीडित पक्ष या उसके उत्तराधिकारियों को उचित प्रतिकर अवष्य मिलना चाहिये, लेकिन यह सुनिष्चित किया जाना आवष्यक है कि विधिक प्रक्रिया का दुरूपयोग न किया जाये तथा उसे ऐसे लोगों के हाथ का खिलौना न बनने दिया जाये, जिन्होंने दुरूपयोग करने में विषेषज्ञता हासिल कर ली हो। 

निष्चय ही न्यायालयों के कंधों पर इस बारे में एक महत्वपूर्ण दायित्व है तथा कठोर रूप से यह संदेष दिया जाना आवष्यक है कि न्यायिक प्रक्रिया का दुरूपयोग नहीं होने दिया जायेगा।

8-        न्याय दृष्टांत भानू बेन जी.जोषी विरूद्ध कांतिलाल बी.परमार - 1994 ए.सी.जे. 714 (गुजरात) के मामले में प्रकट किया गया है कि जहा प्रथम सूचना रिपोर्ट को पक्षकारों की सहमति से साक्ष्य में ग्रहण किया गया है। वहा इस बात के बावजूद कि रिपोर्ट करने वाले व्यक्ति का परीक्षण नहीं कराया गया है, ऐसी रिपोर्ट को साक्ष्य में पढ़ा जा सकता है





 


9-    व्यक्तिगत शारीरिक उपहतियों के विषय में प्रतिकर निर्धारण आधारभूत 
सिद्धांतों की व्याख्या करते हुये न्याय दृष्टांत आर.डी. हट्टगडी विरूद्ध में. पेस्ट कंट्रोल (इंडिया) प्रायव्हेट लिमिटेड एवं अन्य जे.टी. 1995 (1) एस.सी. में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि मोटे तौर पर ऐसे मामलों में पीडित पक्ष को देय प्रतिकर के संबंध में दो शीर्षों के अंतर्गत प्रतिकर की गणना की जानी चाहिये
 प्रथम-वित्तीय क्षति,
द्वितीय-विषेष क्षति।

 इस न्याय निर्णय के अनुसार वित्तीय क्षति में वह व्यय शामिल किये जाने चाहिये, जो घायल व्यक्ति के द्वारा वास्तव में किये गये हैं।
जैसे कि उपचार व्यय, उपार्जन क्षति तथा परिचर्या और परिवहन आदि से संबंधित व्यय।
 विषेष क्षति के शीर्ष के अंतर्गत मानसिक एवं शारीरिक कष्ट, कारित क्षति के कारण जीवन में सुविधाओं से वंचित होने संबंधी क्षति जैसे कि बैठने-उठने, चलने-फिरने, दौड़ने आदि में असमर्थता,


 जीवन अवधि की अधिसंभाव्यता में शारीरिक क्षति के कारण आई कमी तथा शारीरिक क्षति के कारण होने वाली असुविधा कष्ट, व्यथा आदि
 उक्त परिप्रेक्ष्य में 
दोनों शीर्षों के अंतर्गत क्षतियों का निर्धारण करना होगा।


 

’अधिनियम’ की धारा 138

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                          ’अधिनियम’ की धारा 138
1    धारा 138 के अंतर्गत यह प्रमाणित करना आवश्यक है कि चैक जारीकर्ता के खाते में अपर्याप्त राशि के कारण चैक का अनादरण हुआ एवं ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था:-

’अधिनियम’ की धारा 138 के अंतर्गत आपराधिक दायित्व अधिरोपित किये जाने के लिये न केवल यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि चैक जारी करने वाले के खाते में अपर्याप्त निधि या निधि के अभाव के कारण उसका अनादरणहुआ, अपितु साथ ही साथ यह भी प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि ऐसा चैक विधि के अंतर्गत परिवर्तनीय ऋण या अन्य दायित्व के संबंध में जारी किया गया था।

 इस संबंध मं न्याय दृष्टांत प्रेमचंद विजयसिंह विरूद्ध यषपालसिंह, 2005(5) एम.पी.एल.जे.-5 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

2. प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है:-

        उक्त क्रम मेें न्याय दृष्टांत कुंदनलाल रल्ला राम विरूद्ध कस्टोदियन इबेक्यू प्रोपर्टी, ए.आई.आर.-1961 (एस.सी.)-1316 में भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 118 के संदर्भ में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि प्रमाण-भार विधि या तथ्य की उपधारणा के आधार पर बदल सकता है तथा विधि और तथ्य की उपधारणायें न केवल प्रत्यक्ष एवं पारिस्थतिक साक्ष्य से खण्डित की जा सकती है, अपितु विधि या तथ्य की उपधारणा के द्वारा भी खण्डित की जा सकती है।


3. धारा 138 के संबध् में:-
        न्याय दृष्टांत एम.एस.नारायण मेनन उर्फ मनी विरूद्ध केरल राज्य (2006) 6 एस.सी.सी.-29 में ’अधिनियम’ की धारा 139 की उपधारणा के संबंध में किया गया प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि खण्डन को निष्चयात्मक रूप से स्थापित किया जाना आवष्यक नहीं है तथा यदि साक्ष्य के आधार पर न्यायालय को यह युक्तियुक्त संभावना नजर आती है कि प्रस्तुत की गयी प्रतिरक्षा युक्तियुक्त है तो उसे स्वीकार किया जा सकता है।

        इसी क्रम में न्याय दृष्टांत कृष्णा जनार्दन भट्ट विरूद्ध दत्तात्रय जी. हेगड़े, 2008 क्रि.ला.ज. 1172 (एस.सी.) में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि 

’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा को खण्डित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि अभियुक्त साक्ष्य के कटघरे में आकर अपना परीक्षण कराये, अपितु अभिलेख पर उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर भी इस बारे में विनिष्चय किया जा सकता है कि क्या चैक विधि द्वारा प्रवर्तनीय ऋण या दायित्व के निर्वाह के लिये दिया गया। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया कि ’अधिनियम’ की धारा 139 के अंतर्गत की जाने वाली उपधारणा एवं निर्दोष्तिा की उपधारणा के मानव अधिकार के बीच एक संतुलन बनाया जाना आवष्यक है।      

4.यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।

        उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी हाजी विरूद्ध पलापेट्टी मोहम्मद आदि, 2007(6) एस.सी.सी. 555 (त्रि-सदस्यीय पीठ) में किया गया यह अभिनिर्धारण भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि यदि चैक जारीकर्ता यह प्रतिरक्षा ले रहा है है कि वैधानिक सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ है तो वह आव्हान पत्र निर्वाहित होने के 15 दिवस के अंदर सम्पूर्ण राषि न्यायालय के समक्ष अदा कर सकता है तथा यदि वह ऐसा नहीं करता है तो वह ऐसी प्रतिरक्षा लेने के लिये स्वतंत्र नहीं है कि उसे आव्हान पत्र प्राप्त नहीं हुआ।

4. धारा 138 के अंतर्गत सूचना पत्र की तामीली के संबंध में:-
        ऐसी स्थिति में न्याय दृष्टांत मे.इण्डो आटो मोबाईल विरूद्ध जयदुर्गा इंटरप्राइजेस आदि, 2002 क्रि.लाॅ.ज.-326(एस.सी.) में प्रतिपादित विधिक स्थिति के प्रकाष में यह माना जाना चाहिये कि प्रष्नगत सूचना पत्र का निर्वाह विधि-सम्मत रूप से अपीलार्थी पर हो गया ।

 उक्त क्रम में न्याय दृष्टांत सी.सी.अलावी (पूर्वोक्त) भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि ऐसी प्रतिरक्षा लिये जाने पर कि सूचनापत्र प्राप्त नहीं हुआ, अपीलार्थी आव्हान पत्र के प्राप्त होने के 15 दिवस के अंदर न्यायालय में राषि निक्षिप्त कर सकता था। वर्तमान मामले में अपीलार्थी के द्वारा ऐसा भी नहीं किया गया है। ऐसी दषा में उसके विरूद्ध ’अधिनियम’ की धारा 138 का आरोप सुस्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है।




















अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध्ंा में:

 अपचारी बालक की सुपुदर्गी या स्वतंत्र करने के संबध् में
        
                   न्याय दृष्टांत गड्डो उर्फ विनोद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य 2006(1) एम.पी.जे.आर. शार्टनोट- 35 

 में अभिनिर्धारित किया गया है, अपचारी बालक को सुुपुर्दगी पर दिये जाने या अभिरक्षा से मुक्त किये जाने के संबंध में मामले के गुण-दोषों के बजाय ’अधिनियम’ की धारा 12 के परिप्रेक्ष्य मंे सामान्य नियम यह है कि ऐसे किषोर को अभिरक्षा से मुक्त किया जाना चाहिये। अपवाद की स्थिति वहा हो सकती है, जहा पर यह विष्वास करने के युक्तियुक्त आधार हो कि अभिरक्षा से मुक्त किये जाने पर ऐसे किषोर के ज्ञात अपराधियों के सानिध्य में आने की संभावना है अथवा निरोध से मुक्त किये जाने पर उसको नैतिक, भौतिक एवं मनोवैज्ञानिक रूप से खतरा होगा अथवा उसके कारण न्याय के हितों का हनन होगा।
भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

द.प्र.सं. की धारा 391

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1. द.प्र.सं. की धारा 391 के तहत आवेदन पेश होने पर उक्त आवेदन का निरा करण अपील के साथ ही किया जाना चाहिए, न्यायालय स्वयं अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित कर सकता है या विचारण न्यायालय को निर्देशित कर सकता है:-

        धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के अंतर्गत अपील न्यायालय आवष्यक समझने पर अतिरिक्त साक्ष्य या तो स्वयं अभिलिखित कर सकता है अथवा संबंधित मजिस्ट्रेट को अतिरिक्त साक्ष्य अभिलिखित करने का निर्देष दे सकता है।

 न्याय दृष्टांत धर्मेन्द्र भंडारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006 क्रि.लाॅ.रि. एम.पी.-216 में यह अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 391 दण्ड प्रक्रिया संहिता के आवेदन का निराकरण अपील के साथ ही किया जाना चाहिये तथा यदि आवेदन पत्र स्वीकार किया जाता है तो अपील न्यायालय मामले को साक्ष्य अभिलिखित करने के लिये अधीनस्थ न्यायालय को भेज सकता है अथवा स्वयं साक्ष्य ले सकता है।


दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3)

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha
1. विचारण न्यायालय द्वारा धारा 357 द.प्र.सं. की शक्ति का प्रयोग करना चाहिए :-
        माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने इस बात पर बल दिया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 के प्रावधानों का समुचित, प्रभावपूर्ण एवं उदारतापूर्वक उपयोग किया जाना चाहिये।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत हरिकिषन विरूद्ध सुखवीर सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 2127 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357 न्यायालय को इस बात के लिये सषक्त करती है कि वह पीडित व्यक्ति को युक्तियुक्त प्रतिकर दिलाये।

 ऐसा प्रतिकर अभियुक्त पर अधिरोपित अर्थदण्ड से दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(1) के अंतर्गत तथा अन्यथा दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 357(3) के अंतर्गत दिलाया जा सकता है।

   2      माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने व्यक्त किया है कि यह शक्ति पीडित व्यक्ति को इस बात का एहसास कराने के लिये है कि आपराधिक न्याय व्यवस्था में उसे विस्मृत नहीं किया है। अपराधों के संबंध में यह एक रचनात्मक पहुच है तथा आपराधिक न्याय व्यवस्था को आगे ले जाने वाला एक कदम है, जिसका उपयोग सकारात्मक, सार्थक एवं प्रभावी तरीके से किया जाना चाहिये। यह अपेक्षा की जाती है कि भविष्य में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट उक्त विधिक स्थिति के क्रम में अपनी शक्तियों का समुचित उपयोग करेंगे।


                                प्रतिकर

        के.भास्करन बनाम शंकरन वैद्यन बालन 1997-7 एस.सी.सी.510    में संहिता की धारा-357-3को विचारणकरते हुए, इस न्यायालय ने अभिव्यक्त किया कि यदि प्रथम श्रेणी के न्यायिक मजिस्ट्ेट जुर्माने में से प्रतिकर परिवादी को परिवादी को हानि उठाने वाला महसूस करके संदत्त करना आदेशित करते थे, जब राशिउक्त सीमा से अधिक थी । 

ऐसे प्रकरण में परिवादी केवल अधिकतम रूपये पंाच हजार की राशि प्राप्त    करेगा, क्योकि न्यायिक मजिस्टे्रट प्रथम श्रेणी संहिता की धारा- 29-2 के अनुसार तीन वर्ष से अधिक अवधि के लिए कारावास का दण्डादेश या 5,000 रूपये से अधिक जुर्माना या दोनों उक्त राशि अब 10,000 तक बढौतरी की गई है, पारित कर सकता है । इस न्यायालय ने स्पष्ट किया कि ऐसे प्रकरणों में मजिस्ट्रेट संहिता की धारा-357-3 से आश्रय लेने के द्वारा परिवादी की व्यथा कम कर सकता है।


        अभियुक्त को परिवादी को प्रतिकर संदाय करने के लिए निदेशित करते हुए आयडिया उसको तुरंत अनुतोष उसकी व्यथा कम करने के लिए देना है । धारा- 357-3 के निबंधनों में, प्रतिकर अभियुक्त के कृत्य के कारण उस व्यक्ति द्वारा वहन की गई नुकसानी या क्षति के लिए अधिनिर्र्णीत किया जाता है, जिसके लिए वह दण्डादिष्ट किया गया है ।

 यदि मात्र प्रतिकर निदेशित करते हुए आदेश पारित किया जाता है, यह पूर्णतः अप्रभावकारी होगा । यह बिना भय दिखाकर या इसके अनुपालन के प्रकरण में तुरंत प्रतिकूल परिणामों की आशंका का आदेश होगा । 


            संहिता की धारा-357-3 के तहत परिवादी को अनुतोष देने का सम्पूर्ण प्रयोजन हतोत्साहित होगा, यदि वह संहिता की धारा-421 का आश्रय लेते हुए जाता है । धारा-357-3 के तहत आदेश इसका अनुपालन संरक्षित करने का सामथ्र्य से होना चाहिए ।

 यह बिना भय दिखाकर केवल व्यतिक्रम दण्डादेश के लिए उपबंधित करने के द्वारा आदेश में प्रेरित हो सकता है । यदि संहिता की धारा-421 न्यायालय द्वारा संदत्त किया जाना आदेशित प्रतिकर जुर्माने के साथ रखती है, जहां तक वसूली की रीति का संबंध है, तब कोई कारण नहीं है कि क्यों न्यायालय प्रतिकर के भुगतान के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित नहीं कर सकता, यथा यह भा.द.सं. की धारा-64 के तहत जुर्माने के संदाय के व्यतिक्रम में किया जा सकता है ।

 यह स्पष्ट होता हैकि इसके आलोक में, विजयन में, इस न्यायालय ने कहा कि उपर्युक्त वर्णित उपबंध न्यायालय को प्रतिकर के संदाय के व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिरोपित करने के लिए समर्थ करते हैं और निवेदन निरस्त किया कि आश्रय केवल प्रतिकर के आदेश को प्रवृत्त करने के लिए संहिता की धारा-421 का हो सकता था। सम्बद्ध रूप से यह स्पष्ट किया गया था कि इस न्यायालय द्वारा हरिसिंह में किये सम्प्रेक्षण आज उतने महत्वपूर्ण हैं, यथा वे तब थे, जब वे किये गये थे । निष्कर्ष, इसलिए है कि प्रतिकर संदाय करने का आदेश व्यतिक्रम में दण्डादेश अधिनिर्णीत करने के द्वारा प्रवृत्त किया जा सकेगा ।

दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति

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1.. दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना आवष्यक है, जिसे ’संहिता’ की धारा 306 एवं 107 में प्रतिपादित एवं इंगित किया गया है। उक्त प्रावधानों के अनुसार आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उद्धृत करने या ऐसा करने के लिये सहायता करने से है,
 संदर्भ:- महावीर सिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1987 जे.एल.जे. 645.
 उक्त परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या वर्तमान  अभियुक्तगण  आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित या उद्धृत किया अथवा ऐसा करने में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता की अथवा इस हेतु कोई षडयंत्र किया ?

2...         पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
 न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है।

3.. न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहा अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। 

4...न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
5....न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया।

6...... न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।

7.....        न्याय दृष्टांत महावीर सिंह आदि विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1987 जे.एल.जे.-645  यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उकसाने या ऐसा कृत्य करने के लिये सहायता करने से है।

8..... न्याय दृष्टांत पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। 

9.....न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। 

10....न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। 

12.        न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त, मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। 

13...न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। 

14.....न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।

15.        न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।








एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-

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एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-

                             ’पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स सप्लाय एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन आर्डर 1972, जो अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय शासन द्वारा जारी किये गये है,  में एलपीजी गैस को अत्यावश्यक वस्तु की श्रेणी में रखा गया है ।
 न्याय दृष्टांत सुभाषचन्द्र गोयल विरूद्व उत्तरप्रदेश राज्य 1984 इलाहाबाद लाॅ जनरल 711
 में भी एल.पी.जी. को अत्यावश्यक वस्तु माना गया है ।

द0प्र0सं0 311

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                    द0प्र0सं0 311
                           न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।

’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास

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          धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’

       ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे।

                 यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।
 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में

                              ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

                 
              धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है।
 यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।




        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं
 संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.


498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता

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498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता
1        न्याय दृष्टांत वाय. अब्राहम अजीथ विरूद्ध इंस्पेक्टर आफ पुलिस, 2004(8) एस.सी.सी.-10 के मामले मं 

माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया है कि क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अपराध के लिये न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी न्यायालय की अधिकारिता के क्षेत्र में क्रूरता का कोई कृत्य ही घटित नहीं हुआ है तो ऐसे न्यायालय को विचारण की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती हैै।

 न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, 2005(3) एस.सी.सी. 507 के मामले में इस विधिक स्थिति को पुनः दोहराया गया है।


2.        न्याय दृष्टांत गुरमीत सिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006(1) एम.पी.एल.जे.-250 के मामले में भी वाय. अब्राहम अजीथ (पूर्वोक्त) का संदर्भ देते हुये इंदौर न्यायालय जहा कि अभियोग प्रस्तुत किया गया था, की क्षेत्रीय अधिकारिता को इस आधार पर प्रमाणित नहीं माना गया कि इंदौर न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में अभियुक्तगण के द्वारा क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था।


3.            न्याय दृष्टांत तस्कीन अहमद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, आई.एल.आर.(2008) म.प्र.-29 वर्तमान मामले के लिये सर्वाधिक सुसंगत है। इस मामले में 8 व्यक्तियों के विरूद्ध अभियोग पत्र भोपाल न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था, जबकि उनमें से 5 अभियुक्तों के द्वारा भोपाल न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था। ऐसी स्थिति में यह ठहराया गया कि उनके विरूद्ध भोपाल न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता नहीं हो सकती है।

4. भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो:-

        उक्त क्रम में ’संहिता’ की धारा 498(क) के निर्वचन के संबंध में दो न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं

। न्याय दृष्टांत भास्करलाल शर्मा विरूद्ध मोनिका 2009(प्प्) एस.सी.आर.-408 के मामले में विस्तृत विवेचना के पष्चात् यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो। उक्त मामले की कंडिका 52 इस क्रम में दृष्ट्व्य है, जिसमें यह ठहराया गया है कि सामान्य मारपीट की घटना ’संहिता’ के अंतर्गत किसी अन्य अपराध की परिधि में तो आ सकती है, लेकिन ’संहिता’ की धारा 498(क) की परिधि में लाने के लिये विनिर्दिष्ट स्थितिया पूरी की जानी चाहिये।

5. हर प्रताड़ना क्रूरता की परिधि में नहीं आएगी, उसके लिए धन की अवैधानिक मांग होना जरूरी है:-

        न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध मधुसूदनराव, जे.टी.-2008 (टवस.11) एस.सी.-454 भी इस संबंध मंे सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि प्रत्येक प्रकृति का प्रताड़नापूर्ण व्यवहार क्रूरता की परिधि में नहीं आयेगा तथा ऐसे व्यवहार को क्रूरता की परिधि में लाने के लिये आवष्यक है कि वह धन की अवैधानिक मांग से जुड़ा हुआ हो।










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umesh gupta