इसे हम चाणक्य की राजनीति, अकबर की नीतियों, शेरशाह सूरी के सुधारों, में देखते हैं । सामाजिक न्याय का

        भारत का संविधान और समाजिक न्याय
                               भारतीय समाज में सदियों से सामाजिक न्याय की लडाई आम जनता और शासक तथा प्रशासक वर्ग के मध्य होती आई है । यही कारण हेै कि इसे हम कबीर की वाणी बुद्ध की शिक्षा, महावीर की दीक्षा, गांधी की अहिंसा, सांई की सीख, ईसा की रोशनी, नानक के संदेश में पाते हैं ।

                                सदियों से मानव सामाजिक न्याय को प्राप्त करने भटकता रहा है और इसी कारण दुनिया में कई युद्ध, क्रांति, बगावत, विद्रोह, हुये हैं जिसके कारण कई सत्ता परिवर्तन हुए हैं । जिन राज्यों और प्रशासकों ने सामाजिक न्याय के विरूद्ध कार्य किया उनकी सत्ता हमेशा क्रांतिकारियों के निशानों में रही है । इसलिए प्रत्येक शासक ने अपनी नीतियों मे सामाजिक न्याय को मान्यता प्रदान की है । इसे हम चाणक्य की राजनीति, अकबर की नीतियों, शेरशाह सूरी के सुधारों, में देखते हैं ।   
  

                                       सामाजिक न्याय का आशय आम तौर पर समाज में लोगो के मध्य समता, एकता, मानव अधिकार, की स्थापना करना है तथा व्यक्ति की गरीमा को विशेष महत्व प्रदान करना है । यह मानव अधिकार और समानता की अवधारणाओं पर आधारित है और प्रगतिशील कराधन, आय, सम्पत्ति के पुनर्वितरण, के माध्यम से आर्थिक समतावाद लाना सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य हैं ।

 
      
                                     हमारा भारतीय समाज पहले वर्ण व्यवस्था पर आधारित था जो धीरे  धीरे बदलकर जाति व्यवस्था मंे परिवर्तित हो गया, उसके बाद असमानता, अलगाववाद, क्षेत्रवाद, रूढीवादीता, समाज में उत्पन्न हुई जिसका लाभ विदेशियों के द्वारा उठाया गया और ‘‘फूट डालो और राज्य करों’’ की नीति अपनाकर भारत को एक लम्बी अवधि तक पराधीन रखा। 

                                    लेकिन लोगो की एकता अखण्डता और भाईचारे की भावना से आजादी की लडाई लडने पर भारत 15 अगस्त सन् 1947 को आजाद हुआ और उसके बाद भारत में सामाजिक न्याय की स्थापना, व्यक्ति का शासन, सोच की स्वतंत्रता, भाषण प्रेस की आजादी, संघ बनाने की स्वतंत्रता हो, इसके लिए सर्वोच्च कानून बनाये जाने की आवश्यकता समझी गई और डॉ.राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में संविधान सभा का गठन किया गया जिसमें डॉ. बाबा साहेब भीमराव अम्बेडकर जैसे महान् व्यक्तित्व को मसौदा समिति का अध्यक्ष मनोनीत किया गया ।
        संविधान सभा की कई बैठको के बाद भारत के संविधान की रचना की गई, जो विश्व का सबसे बडा, लिखित, अनूठा, संविधान है जिसमें सामाजिक न्याय को सर्वोच्चता प्रदान की गई है । यह दुनिया का सामाजिक न्याय को दर्शित करने वाला एक प्रमाणिक अभिलेख है ।
        हमारे संविधान मंे सामाजिक और आर्थिक न्याय की गारंटी समस्त नागरिकों को तथा जीवन जीने की गारंटी प्रत्येक व्यक्ति को दी गई है। सामाजिक न्याय का मुख्य उद्देश्य व्यक्तिगत हित और सामाजिक हित के बीच सामान्जस्य स्थापित करना है । इसलिए कल्याणकारी राज्य की कल्पना संविधान निर्माताओं ने की है। बहुजन हितांयैं, बहुजन सुखांयै को ध्यान में रखते हुये समाजवादी व्यस्था स्थापित की गई है ।
        भारतीय समाजवाद अन्य राष्ट्ों के समाजवाद से अलग है । यहां पर सत्ता समाज में निहित रहती है, परन्तु उसका उपयोग समाज के हित के लिए हो इसलिए सरकार नियंत्रण रखती है । सामाजिक न्याय के लिए संविधान में जो प्रावधान दिये गये हैं उनका मुख्य उद्देश्य वितरण की असमानता को दूर करना तथा असमानों में संव्यवहारों में असमानता को दूर करना व कानून का प्रयोग वितरण योग साधन के रूप में समाज में धन का उचित बटवारां करने में किया जाये। इसका विशेष ध्यान रखा गया है ।
         हमारे संविधान की उद्देशीयका संविधान का आधारभूत ढांचा है । जिसमें सामाजिक, आर्थिक राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने की गारंटी प्रदान की गई है । इसके लिए भारतीय संविधान के भाग-3 में मौलिक अधिकार दिये गये हैं । भाग-4 में राज्यों को नीतिनिदेशक तत्व बताये गये है, जो राज्य की नीति का आधारस्तम्भ बताये गये हैं ।
        मूल अधिकार सम्बंधी भाग-3 अधिकारों का घोषणा पत्र, मेग्नाकार्टा, बिल आफ राइट्स, आदेश, हैं जिसके संबंध में न्यायधिपति श्री भगवती ने मेनका गांधी बनाम भारत संघ 1979 भाग-1 उच्चतम न्यायालय निर्णय पत्रिका 243 मामले में कहा है कि‘‘इन मूल अधिकारों का गहन उद्गम स्वतंत्रता का संघर्ष है । उन्हें संविधान में इस आशा और प्रत्याशा के साथ सम्मिलित किया गया था कि एक दिन
सही स्वाधीनता का वृक्ष भारत में विकसित होगा । ये उस जाति के अवचेतन मन में अमिट तौर पर अंकित थे जिन्होंने ब्रिटिश शासन से मुक्ति प्राप्त करने के लिए
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पूरे 30 वर्षो तक लडाई लडी और संविधान अधिनियमित किया गया तो जिन्होंने मूल अधिकारों के रूप में अभिव्यक्ति पायी । ये मूल अधिकार इस देश की जनता द्वारा वैदिक काल से संजोये गये आधारभूत मूल्यों का प्रतिनिधत्व करते हैं और वे व्यक्ति की गरिमा का संरक्षण करने और ऐसी दशांए बनाने के लिए परिकल्पित हैं जिनमें हर एक मानव अपने व्यक्त्वि का पूर्ण विकास कर सके । वे मानव अधिकारों के आधार भूत ढांचे के आधार पर गारंटी का एक ताना-बाना बुनते है और व्यक्तिगत स्वाधीनता पर इसके विभिन्न आयामों में अतिक्रमण न करने की राज्य पर नकारात्मक बाध्यता अधिरोपित करते हैं।’’       
        सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए सर्व प्रथम हमारे संविधान के भाग 4 में उल्लेखित राज्य की नीतिनिदेशक तत्व एक लोकहितकारी राज्य और समाजवादी समाज की स्थापना के संबध में महत्वपूर्ण कदम है । जिसके संबंध में डॉ. अम्बेडकर का कहना है कि हम कल्याणकारी राज्य के नागरिक है । हमारा कर्तव्य केवल शांति व्यवस्था बनाये रखना और जनता के प्राण की स्वतंत्रता और सम्पत्ति की सुरक्षा तक ही सीमित नहीं है बल्कि जन साधारण के सुख ओर समृद्धि की अभिवृद्धि करना है । इसलिए राज्यों को नीति निर्देशक तत्व दिये गये हैं ताकि वे इनका पालन करके जनता के हित के लिए आर्थिक लोक तंत्र की स्थापना कर सकते हैं । अपनी नीतियों के निर्धारण और कानून बनाने में वह इन्हें शामिल कर सकते हैं । 
        डॉ. अम्ब्ेाडकर के अनुसार नीति निर्देशक तत्व भारतीय संविधान की अनोखी व्यवस्था है । जिसके संबंध में उनका कहना है कि हमारा संविधान संसदीय प्रजातंत्र की स्थापना करता है ।संसदीय प्रजातंत्र से तात्पर्य है-एक व्यक्ति एक वोट । हमारा यह भी तात्पर्य है कि प्रत्येक सरकार अपने प्रतिदिन के कार्य-कलापों में तथा एक विषय के अन्त में, जब कि मतदाताओ और निर्वाचक-मण्डल की सरकार द्वारा किये गये कार्यो का मूल्यांकन करने का अवसर मिलता है, कसौटी पर कसी जायेगी । राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना का उददेश्य यह है कि हम कुछ निश्चित लोगों को यह अवसर न दें कि वे निरंकुशवाद को कायम रख सकें । जब हमने राजनीतिक लोकतंत्र की स्थापना की है, तो हमारी यह भी इच्छा है कि आर्थिक  लोकतंत्र का आदर्श भी स्थापित करें ।
प्रश्न यह है कि क्या हमारे पास कोई निश्चित तरीका है जिससे हम आर्थिक लोकतंत्र की स्थापना कर सकते हैं ? विभिन्न ऐसे तरीके हैं जिनमें लोगों का विश्वास है कि आर्थिक लोकतंत्र समझते हैं, और बहुत से लोग समाजवादी समाज की स्थापना को सबसे अच्छा आर्थिक लोकतंत्र मानते है, और बहुत से लोग कम्युनिज्म की स्थापना को सर्वोत्तम आर्थिक समाजवाद का रूप मानते हैं । इस तथ्य पर ध्यान देते हुए कि आर्थिक लोकतंत्र लाने के विभिन्न तरीके हैं, हमने जो भाषा प्रयुक्त की है, उसमें जानबूझकर नीति- निदेशक तत्वों में ऐसी चीज रखी है जो निश्चित या अनम्य नहीं है । हमनेइसीलिए विविध तरीकों से आर्थिक लोकतंत्र के आदर्श तक पहंुचने के लिए चिन्तनशील लोगों के लिए पर्याप्त स्थान छोडा है । इस संविधान की रचना में
हमारे वस्तुतः दो उद्देश्य हैं-
    1-     राजनीतिक लोकतंत्र का रूप निर्धारित करना, और
    2-    यह स्थापित करना कि हमारा आदर्श लोकतंत्र है और इसका भी विधान करना कि प्रत्येक सरकार, जो कोई भी सत्ता में हो, आर्थिक लोकतंत्र लाने का प्रयास करेगी ।
        सामाजिक और आर्थिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए नीति निदेशक तत्व राज्य को यह निर्देश देते है कि वे लोक कल्याण की अभिवृद्धि करके ऐसी सामाजिक व्यवस्था की स्थापना का प्रयास करें जिनमें सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय प्रत्येक व्यक्ति के लिए सुनिश्चित हों ।
        ये वे निदेश है जो संविधान की प्रस्तावना में अन्तर्निहित हैं, जिनके अनुसार राज्य का कर्तव्य अपने नागरिकों के लिए सामाजिक, आर्थिक और राजनितिक न्याय प्रदान करना है । उन्हें विचार अभिव्यक्ति, धर्म, विश्वास, उपासना, की स्वतंत्रता प्रदान करना है । उन्हें प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करना है तथा व्यक्ति की गरीमा राष्ट् की एकता और अखण्डता और बन्धुता को बढाना है । तभी हम भारत के लोग भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न समाजवादी पंथनिरपेक्ष लोकतंत्रात्मक गणराज्य बना सकते है ।    
        नीतिनिदेशक तत्व समाजिक न्याय प्रदान किये जाने की दिशा में उठाये गये महत्वपूर्ण कदम है जिसमें सामाजिक न्याय की विवेचना विस्तार तथा व्यापक रूप से की गई है । इसलिए ग्रेनविल ऑस्टिन ने निदेशक तत्वों की महत्ता                 //03//
को निम्न शब्दों में व्यक्त किया है -भारतीय संविधान प्रथमतः और सर्वोपरि रूप में एक सामाजिक दस्तावेज है । इसके अधिकांश उपबन्ध या तो प्रत्यक्षतः सामाजिक क्रान्ति के उद्देश्य को पूरा करने के लिए आवश्यक दशाओं की स्थापना करते हुये सामाजिक क्रांति के लक्ष्यों को आगे बढाने के लिए या तो सीधे उपबन्धित हैं, या फिर सम्पूर्ण संविधान में राष्ट्ीय पुनर्जागरण का लक्ष्य व्याप्त होते हुए भी सामाजिक क्रान्ति के लिए वचनबद्धता का जो मर्म है, वह भाग-3 और 4 के मूल अधिकारों तथा राज्य की नीति निदेशक तत्वों में है। यह संविधान की आत्मा है।’’
        संविधान शास्त्रीयों के अनुसार नीति निर्देशक तत्व और मूल अधिकारो के बीच में कोई विरोधाभाष नहीं है । डॉ. अम्ब्ेाडकर के अनुसार यह कहना निरर्थक है कि नीति निर्देशक तत्वों का कोई महत्व नहीं हैं । मेरे विचार के अनुसार तो निदेशक तत्व बहुत ही महत्व के हैं, क्यों कि उनसे यह प्रस्थापित होता है कि हमारा आदर्श लोकतंत्र है। हम यह नही चाहते थें कि बिना किसी ऐसे मार्ग-दशर््ान के कि हमारा आर्थिक आदर्श क्या है, हमारा सामाजिक संगठन किस प्रकार का हो मात्र एक संसदात्मक प्रकार की सरकार संविधान में उपबन्धित विविध साधनों के माध्यम द्वारा गठित करा ली जाये । अतः हम लोगों ने संविधान में जानबूझकर नीति निर्देशक तत्वों का समावेश किया है ।’’
         इन सिंद्धातों में व्यापक लोक साधारण के हितो की रक्षा की भावना सन्निहित है । इसी कारण संविधान के 25वे संशोधन द्वारा राज्यों को निर्देशक तत्वों के सबंध में विधि बनाये जाने की शक्ति प्रदान की गई । जिसमें नीति निदेशक तत्वों को मूल अधिकारो पर प्राथमिकता दी गई है । और इसके अनुसार निदेशक तत्वों को कार्यन्वित करने के लिए बनायी गई किसी भी विधि को इस आधार पर चुनौती नहीं दी जा सकती थी कि वह अनुच्छेद 14 और 19 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारो से अंसगत है या उसे छीनती है या न्यून करती है ।
        इसीलिए सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने अनुच्छेद 38 में नया खण्ड 2 जोडकर नीति निर्देशक तत्व भी जोडा गया है कि राज्य विशेष रूप से आय की असमानता को कम करने का प्रयास करेंगा न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुये लोगो के समूहों के बीच प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरो की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा । इस प्रकार आर्थिक असमानता दूर करने का प्रयास किया गया है ।
        आर्थिक न्याय प्रदान किये जाने के लिए संविधान के अनुच्छेद 39 में निर्देश दिये गये है कि-
        क- पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो ।
        ख- समुदाय की भौतिक सम्पदा का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हितों का सर्वोत्तम साधन बन सके । इस खण्ड के अधीन उददेश्यों की पूर्ति करने के लिए राज्य उत्पादन के साधनों का राष्ट्ीयकरण कर सकता है ।
        ग- आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन के साधन का सर्वसाधारण के अहित के लिए केन्द्रण न हो ।
        घ- पुरूषों और स्त्रियों दोनो के लिए समान कार्य के लिए समान वेतन हो ।
        ड- कर्मकारों के स्वास्थ्य और शक्ति का तथा बालको की सुकुमार अवस्था का दुरूपयोग न हो और आर्थिक आवश्यकता से विवश होकर नागरिकों को ऐसे रोजगार में न जाना पडे जो उनकी आयु या शक्ति के अनुकूल न हो ।
        च- बालकों को स्वतंत्र और गरिमामय वातावरण में स्वस्थ विकास के अवसर और सुविधाएं दी जांए ओर बालको तथा अल्पवय व्यक्तियों की शोषण से तथा नैतिक और आर्थिक परित्याग से रक्षा की जाये ।
        इस प्रकार संविधान के अनुच्छेद 38 और 39 में विधि शास्त्र का वितरण न्याय का सिंद्धात शामिल किया गया है । जिसका उद्देश्य नागरिकों के लिए आर्थिक विषमता को समाप्त करना है । इसी कारण संसद ने समान परिश्रमिक अधिनियम 1976 पारित किया । जिसमें समान कार्य के लिए समान वेतन को संवैधानिक लक्ष्य मानते हुये इसे मूल अधिकार के बराबर दर्जा दिया गया
है । जमीदारी उन्मूलन अधिनियम लोक प्रयोजन के लिए पारित किया गया है ।
        सामाजिक सुरक्षा संबधी अनेक उपबन्ध नीतिनिर्देशक तत्वों में शामिल किया गया है जिसमें प्रमुख निम्नलिखित हैः-
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    क-    उद्योगो के प्रबंध में कर्मकारांे का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए
अनुच्छेद 43क राज्य से यह अपेक्षा करता है कि राज्य उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य प्रकार से किसी उद्योग में लगे हुये उपक्रमों व स्थापनों अथवा अन्य संगठनों के प्रबंध में कर्मकारों का भाग लेना सुनिश्चित करने के लिए कदम उठायेगा ।
    ख-    कुछ अवस्थाओं में काम, शिक्षा और लोक-सहायता पाने का अधिकार प्रदान किये जाने के लिए अनुच्छेद 41 राज्य को यह निदेश देता है कि वह अपनी सामार्थ्य और विकास की भीतर प्रत्येक व्यक्ति के लिए काम पाने, शिक्षा प ाने तथा बेकारी, बुढापा, बीमारी और अंगहानि तथा अनर्ह अभाव की दशाओ में सार्वजनिक सहायता पाने के अधिकार को प्राप्त करने का कार्य साधक उपबन्ध करेगा ।
    ग-    काम की न्याय तथा मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए अनुच्छेद 42 राज्य को काम की न्यायसंगत और मानवोचित दशाओं को सुनिश्चित करने के लिए और प्रसूति सहायता का उपबन्ध करने के लिए निदेश देता है । यही कारण है कि आज 6 माह का प्रसूति अवकाश और 15 दिन पितृत्व अवकाश प्रदान किया जाता है । 
    घ-    कर्मकारों के लिए निर्वाह मजदूरी आदि तथा कुटीर उद्योगो को बढावा देने के लिए अनुच्छेद 43 राज्य से अपेक्षा करता है कि वह कर्मकारों को काम निर्वाह मजदूरी, शिष्ट जीवन स्तर और उसका सम्पूर्ण उपभोग सुनिश्चित करने वाली काम की दशाएं तथा सामाजिक और सांस्कृतिक अवसर प्राप्त कराने का प्रयास करेगा और विशेषरूप से ग्रामों में कुटीर उद्योग को बढाने का प्रयास करेगा । कई राज्यों द्वारा सूती कपडे बनाने वाली लघु सहकारी समितियों को
छूट दी गई है ।
        समाज के दुर्बल वर्गो के शिक्षा और अर्थ सम्बंधी हितों की अभिवृद्धि करने के लिए अनुच्छेद 46 इस बात का आह्वान करता है कि राज्य जनता के दुर्बल वर्गो के, विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों की शिक्षा तथा अर्थ संबंधी हितों की विशेष सावधानी से अभिवृद्धि करेगा तथा सामाजिक अन्याय तथा सब प्रकार के शोषण से उनकी संरक्षा करेगा ।
        अनुच्छेद-46 राज्य को जन के दुर्बलता और विशेषतया अनुसूचित जातियों तथा अनुसूचित आदिम जातियों के शिक्षा तथा आर्थिक हितों की विशेष सावधानी से उन्नति करने तथा सब प्रकार के शोषण से उनका संरक्षण करने का निदेश देता है ।
        संविधान के भाग-3 में भी अल्पसंख्यकों के अधिकारों के संरक्षण के लिए अनेक उलबन्ध हैं । अनुच्छेद-14 भारत के प्रत्येक व्यक्ति को विधि के समक्ष समता ओर विधियों के समान संरक्षण की गारंटी देता है । अनुच्छेद- 15 धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या जन्म-स्थान के आधार पर सार्वजनिक स्थानों में प्रवेश पर राज्य द्वारा भेदभाव करने का प्रतिषेध करता हैं । इस अनुच्छेद की कोई भी बात राज्य को सामाजिक और शिक्षात्मक दृष्टि से पिछडंे हए वर्गो या अनुसूचित जातियों या अनुसूचित आदिम जातियों की उन्नति के लिए विशेष उपबन्ध करने में बाधक न होगी ।
        अनुच्छेद-16 सरकारी नौकरियों के लिए अवसर की समानता की गारंटी करता है और इसके संबंध में धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग उदभव, जन्मस्थान, निवास के आधार पर भेदभाव को वर्जित करता है । किन्तु राज्य उक्त वर्गो के व्यक्तियों के लिए, यदि उन्हें पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिल सका है, नियुक्तियों या पदों पर आरक्षण का प्रावधान कर सकता है । अनुच्छेद-17 अस्पृश्यता का उन्मूलन करता है जो भारतीय समाज का एक महान कलंक था । अनुच्छेद-19-5 अनुसूचित आदिम जातियों के हितें की सरंक्षा के लिए इस अनुच्छेद के खण्ड घ, ड और च में प्रदत्त मूल अधिकारों पर निर्बन्धन लगाता है ।
        अनुच्छेद-29 से लेकर 30 तक में अल्पसंख्यकों की संस्कृति के संरक्षण के लिए उपबन्ध किया गया है । भारत में रहने वाले नागरिको के किसी वर्ग को, जिसकी अपनी विशेष भाषा, लिपि या संस्कृति है, उसे बनाये रखने का अधिकार प्राप्त है । सभी अल्पसंख्यक वर्गो को, चाहे वे धर्म या भाषा पर आधारित हो, अपनी रूचि की शिक्षा-संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन का अधिकार होगा । शिक्षा-संस्थाआंे को सहायता देने में राज्य किसी विद्यालय के विरूद्ध इस आधार पर विभेद न करेगा कि वह किसी अल्पसंख्यक वर्ग के प्रबंध में है ।
        अनुच्छेद-275 अनुसूचित आदिम जातियों के कल्याण हेतु राज्यों को
केन्द्र द्वारा सहायक अनुदान का उपबन्ध करता है । अनुच्छेद-325 के अनुसार निर्वाचन हेतु एक साधारण निर्वाचक-नामावली होगी तथा केवल धर्म, मूलवंश,
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जाति, लिंग के आधार पर कोई व्यक्ति किसी ऐसी नामावली में सम्मिलित किये जाने के लिए अपात्र न होगा ।
        अनुच्छेद-164 उडीसा, बिहार और मध्य प्रदेश राज्यों में आदिम अनुसूचित जातियों के कल्याण के लिए एक विशेष मंत्री का उपबन्ध करता है । अनुच्छेद-330 से लेकर 342 तक में अनुसूचित जातियों, अनुसूचित आदिम जातियों, ऐंग्लो-इंडियन्स और पिछडे वर्गो के लिए विशेष उपबन्ध लोक सभा में सीटों के आरक्षण राज्यों में नौकरी में आरक्षण, पिछडा वर्ग नियुक्ति आयोग, अल्पसंख्यक आयुक्त की नियुक्ति आदी के प्रावधान किये गये है । अनुच्छेद- 347,350, 350क, 350ख, भाषायी अल्पसंख्यकों के संरक्षण की व्यवस्था करते हैं ।    अनुसूचित जाति, जनजाति बाहूल्य क्षेत्रों को संविधान के अंतर्गत विशेष क्षेत्र घोषित कर उसके निवासियों को विशेषाधिकार प्रदान किये गये है ।   
        बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा प्रदान करने के लिए अनुच्छेद 45 अशिक्षा को दूर करने के उद्देश्य से राज्य को 14 वर्ष तक की आयु तक के सभी बालकों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा देने के लिए उपबन्ध करने का निदेश देता है । 14 वर्ष के बालकों को निःशुल्क शिक्षा देना राज्य का संविधानिक दायित्व माना गया है । क्यों कि अनुच्छेद 21 के अधीन शिक्षा पाने का अधिकार एक मूल अधिकार है । किन्तु उच्च शिक्षा पाने के मामले में यह अधिकार राज्य की आर्थिक क्षमता पर निर्भर करेगा ।
        पोषाहार स्तर और जीवन स्तर को उंचा करने तथा लोक स्वास्थ्य का सुधार करने का राज्य का कर्तव्य बताते हुये कहा गया है कि अनुच्छेद 47 के अधीन राज्य का यह प्राथमिक कर्तव्य होगा कि वह लोगों के पोषाहार-स्तर और जीवन- स्तर को उंचा करने और लोक-स्वास्थ्य में सुधार करने का प्रयास करें तथा विशिष्टतया मादक पेयों और स्वास्थ्य के लिए हानिकर औषधियों के औषधीय प्रयोजनों को छोडकर, उपयोग का प्रतिषेध करने का प्रयास करें ।
        इसी कारण मुम्बई राज्य द्वारा बम्बई मध्य निषेध अधिनियम लागू किया गया है । गुजरात में भी शराब की बिक्री पर रोक लगाई गई है । बार डांस को प्रतिबंधित किया गया है । 
        समान न्याय और निःशुल्क विधिक सहायता को सर्वाधिक महत्व प्रदान करते हुये अनुच्छेद 39क राज्य को यह निदेश देता है कि वह सुनिश्चित करे कि विधिक व्यवस्था इस प्रकार काम करे कि सभी को अवसर के आधार सुलभ हों और वह विशिष्टतया आर्थिक या किसी अन्य निर्योग्यता के कारण कोई नागरिक न्याय प्राप्त करने के अवसर से वंचित न रह जाये तथा उपयुक्त विधान द्वारा या किसी अन्य रीति से निः श्ुाल्क विधिक सहायता की व्यवस्था करें । इस प्रकार निःशुल्क विधिक सहायत शीघ्र परीक्षण की व्यवस्था की गई है । राज्यों में विधिक सेवा प्राधिकरण बनाये गये है । लोक अदालत, सुलह, समझौते के आधार पर प्रकरणो के निपटारे का प्रयास किया जा रहा है ।
        समाज कल्याण संबंधी निदेशक तत्व भी शामिल किये गये हैं  राष्ट्ीय पिता महात्मा गांधी के ग्राम राज्य की कल्पना साकार करने के लिए पंचायती राज्य व्यवस्था स्थापित करने संविधान में 73वे-74वें संशोधन शामिल किये गये हैं । तथा गावों में पंचायतो और शहर में नगर पालिकाओं को महत्व प्रदान किया गया है।जिसके संबंध में अनुच्छेद 40 राज्य को निदेश देता है कि वह ग्राम पंचायतों का संगठन करने के लिए कदम उठायेगा और उनको ऐसी शक्तियां और प्राधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो । इन संस्थाओ को नागरिक प्रशासन की शक्ति दी गई है । गांवों में सडक, गली, तालाब, कुओं, का निर्माण करवाने शिक्षा और सफाई की व्यवस्था करने के अधिकार दिये गये हैं ।
        इस प्रकार सामाजिक, आर्थिक, न्याय प्रदान करने निदेशक तत्वों को ध्यान में रखते हुये अखिल भारतीय खादी और ग्राम उद्योग बोर्ड की स्थापना की गई है । राज्यों में अनिर्वाय शिक्षा लागू की गई है । देश में पूजी का सामान्य बटवारा किये जाने के लिए बैंको का राष्ट्ीय करण किया गया है । भूतपूर्व महाराज के प्रिवी पर्स को समाप्त किया गया है । जमीदारी प्रथा समाप्त करके भूमि जोतने वाले को भूमि स्वामी बना दिया है । राज्यों में खेतीहर किसानो, मजदूरो की दिशा एंव दशा सुधारने अनेक कानून पारित किये हैं । खेती की सीमा निर्धारित कर दी है ।    
        हमारे भारतीय समाज में बहु विवाह, मानव बली, सती प्रथा, पशु हत्या, सदियों से व्याप्त है जिसे धार्मिक रंग देकर कानूनी वैद्धता अपने धर्म के नाम से प्रदान की गई है, जब कि यह सभी कार्य सामाजिक बुराई में शामिल है और
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लोक आचरण के विरूद्ध है ।इसलिए संविधान निर्माताओं ने समान नागरिक संहिता की बात नीतिनिदेशक तत्वों में कही है और प्रत्येक विवाह के पंजीयन को कानूनी रूप से अनिवार्य बना दिया गया है । 
        अनुच्छेद 44 यह अपेक्षा करता है कि राज्य भारत के समस्त राज्य क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान सिविल संहिता प्राप्त कराने का प्रयास होगा ।
        कृषि और पशुपालन का संघटन सुधारने के लिए अनुच्छेद 48 राज्य को निदेश देता है कि वह कृषि और पशुपालन को आधुनिक और वैज्ञानिक प्रणालियों पर संगठित करने का प्रयास करेगा तथा विशेषयता गायों और बछडो तथा अन्य दुधारू और वाहक ढोरों की नस्ल के परिरक्षण और सुधारने के लिए और उनके वध का प्रतिषेध करने के लिए कदम उठायेगा । इसी कारण कईराज्यों ने गौ वध अधिनियम पारित किये हैं ।
        पर्यावरण का संरक्षण तथा वन्य जीवों की रक्षा करने के लिए अनुच्छेद 48क यह अपेक्षा करता है कि राज्य देश के पर्यावरण की सुरक्षा तथा उनमें सुधार करने का और वन तथा वन्य जीवों की रक्षा का प्रयास करेगा । इसके लिए कई राज्यों में प्रोजेक्ट टाइगर जैसी बहुअयामी योजना चल रही है । वनो को संरक्षित घोषित किया गया है । जंगली जानवरों के संरक्षण के लिए नेश्नल पार्क बनाये गये हैं और वन अपराध में कठोर दण्ड के प्रावधान किये गये हैं । 
        राष्ट्ीय महत्व के स्मारकों, स्थानों और वस्तुओं का संरक्षण प्रदान करने के लिए अनुच्छेद49 यह उपबंधित करता है कि राज्य कलात्मक या ऐतिहासिक अभिरूचि वाले प्रत्येक स्मारक या स्थान या वस्तु की यथा स्थिति लुंठन, विरूपण, विनाश, अपसारण, व्ययन अथवा निर्यात से रक्षा करना राज्य का अधिकार होगा ।
        कार्यपालिका से न्यायपलिका का टकराव रोकने पृथक्करण संबंधी प्रावधान किये गये है जिन्हें कई राज्यों में अपनाया भी है अनुच्छेद 50 यह अपेक्षा करता है कि राज्य लोक-सेवाओं में न्यायपालिका को कार्यपालिका से पृथक् करने के लिए कदम उठायेगा ।
        अन्तर्राष्ट्ीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि के लिए अनुच्छेद 51 यह उपबंधित करता है कि राज्य अन्तर्राष्ट्ीय क्षेत्र में अन्तर्राष्ट्ीय शान्ति और सुरक्षा की अभिवृद्धि करेगा, राज्यों के बीच न्याय रखने का और सम्मानपूर्ण सम्बंधों के बनाये रखने का प्रयास करेगा, एक-दूसरे से व्यवहारों में अन्तर्राष्ट्ीय विधि और संधि बाध्यताओं के प्रति आदर बढाने का प्रयास किया जायेगा और    अन्तर्राष्ट्ीय विवादों का मध्यस्थता द्वारा निपटारे के लिए प्रोत्साहन देने का प्रयास करेगा ।
        व्यक्ति के बौद्धिक, नैतिक, अध्यात्मिक, राजनीतिक, शारीरिक, मानसिक, विकास के लिए मूल अधिकार भाग-3 में प्रदान किये गये हैं जो वे आधारभूत अधिकार हैं जिनके अभाव में व्यक्ति का बहुमुखी विकास संभव नहीं है। यह अधिकार प्राकृतिक, अपर्रिहार है इसलिए इन्हें अप्रतिदेय माना गया है । यह सामाजिक न्याय के मापदण्ड और संरक्षक दोनो हैं । इनके बिना सामाजिक न्याय की प्राप्ति असंभव है ।        
        हमारे मान्नीय सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा केशवानंद भारती के मामले मे ंयह कहा गया कि मूल अधिकार तथा निदेशक तत्व हमारे संविधान के अन्तःकरण है । मूल अधिकार का प्रयोजन एक समतावादी समाज का निर्माण करना और समाज के उत्पीडन या बन्धनों से सब नागरिकों को मुक्त करना और सबके लिए स्वतंत्रता की उपलब्धि करना है । निदेशक तत्वों का प्रयोजन कुछ ऐसे सामाजिक और आर्थिक उद्देश्यों को नियत करना है जो अहिंसात्मक क्रान्ति द्वारा तत्काल प्राप्त किये जा सकते हैं । मूल अधिकारों तथा निदेशक तत्वों के बीच कोई विरोध नही है । वे एक-दूसरे के पूरक हैं । इसी कारण पंडित जवाहरलाल नेहरू को कहना पडा है कि मूल अधिकार ओर नीति निदेशक तत्वो के मध्य विवाद होने पर निर्देशक तत्वों को प्राथमिकता दी जानी चाहिए  क्यों कि इन सिद्धंातों में व्यापक लोक साधारण के हितों की रक्षा की भावना सन्निहित है ।
         नीति निर्देशक तत्व सामाजिक न्याय प्राप्ति के वे लक्ष्य है जो हमे प्राप्त करना है उन लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु हमे मूल अधिकारो के रूप में  वे साधन दिये गये हैं जिनके माध्यम से हमें उन लक्ष्यों की प्राप्ति करना है । आर्थिक, सामाजिक और राजनेतिक क्षेत्र में मानव के सुखी एंव उन्नत जीवन के लिए प्राकृतिक और अप्रतिदेय मूल अधिकार भाग- 3 में संविधान में दिये गये हैं ।
        जिसके संबंध में कहा गया है कि राज्य ऐसे कोई विधि नहीं बनायेगा  जो मूल अधिकारो से असंगत हो । संविधान के अनुच्छंेद 13 में  घोषित किया गया है कि भारत में  प्रदत्त कोई भी विधि जिसमें अध्यादेश, आदेश, उपनिधि, नियम,
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अधिसूचना, रूढियां और प्रावधान सम्मिलित है । वे मूल अधिकारों के असंगत नहीं होगी और उस मात्रा तक शून्य होगी जिस मात्रा तक वे भाग-3 के उपबंधों से अंसगत है । इसलिए कहा गया है कि राज्य ऐसी कोई विधि नहीं बना सकता जो भाग-3 द्वारा प्रदत्त मूल अधिकारों को छीनती हो अथवा अन्यून करती हो ।
        सामाजिक न्यायप्रदान किए जाने संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 तक में प्रत्येक व्यक्ति को सम्मता का अधिकार दिया गया है और विधि के समक्ष समान संरक्षण प्रदान किया गया है । समान परिस्थिति वाले व्यक्ति के साथ समान व्यवहार किया जायेगा । इस प्रकार संविधान में समान न्याय का शासन प्रदान किया गया है क्यों कि कोई व्यक्ति कानून के उपर नहीं है । यही कारण है कि प्रत्येक व्यक्ति चाहे किसी भी पद या अवस्था में हो देश की समान विधि के अधीन रहता है ।
        समान न्याय का सिद्धांत युक्तियुक्त वर्गीकरण की अनुमति देता है । वर्ग विभेद की अनुमति नहीं देगा। नैसर्गिंक न्याय का सिद्धांत अनुच्छेद 14 में निहित है । नैसर्गिंक न्याय के नियम नैतिकता और सदाचार से उदभूत हुए हैं । इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये धारणाएं विधि शासन का अभिन्न अंग बन गई है और इससे इकंार नहीं किया जा सकता कि किसी समाज में विधिक नियमों के बनाने में इनका महत्वपूर्ण स्थान है ।
        सामाजिक, आर्थिक न्याय सामाजिक नैतिकता की धारणा से उत्पन्न हुऐ है । जो आर्थिक शोषण के विरूद्ध है और विकसित समाज कलांतर में इन नैतिक और सदाचार के नियमों को विधिक नियमों में परिवर्तित कर लेता है । सामाजिक न्याय प्रदान करने के लिए संविधान के अनुच्छेद 15 में प्रत्येक नागरिक को धर्म, जाति, लिंग, मूलवंश, जन्म स्थान के आधार पर विभेद करने से प्रतिबंधित किया गया है ।
        स्त्रियों और बालकों के लिए राज्यों को विशेष प्रावधान बनाने की शक्ति दी गई है । राज्यों को शैक्षणिक रूप से पिछडे वर्गो अनुसूचित जातियों एंव जन जातियों के लिए विशेष व्यवस्था करने के लिए कहां गया है। महिलाओ के उत्थान के लिए उन्हें नौकरी में विशेष आरक्षण बालश्रम रोकने स्कूली शिक्षा प्रदान करने विशेष अधिकार दिये गये हैं ।
        महिलाओ के उत्थान के लिए राष्ट्ीय महिला आयोग अधिनियम 1990 की स्थापना की गई है । जिसका मुख्य कार्य महिलाओं के संविधानिक व विधिक अधिकारों की रक्षा करना, निगरानी रखना, और उनमें सुधार के लिए सरकार को सिफारिश करना। समाज में फेली कुरीतियों को दूर  करने के लिए किसी भी व्यक्ति को सार्वजनिक स्थान में प्रवेश के लिए किसी निर्योग्यता दायित्व या प्रतिबंध के आधीन अनुच्छेद-15-2 के अनुसार नहीं रखा गया है। राज्य को पिछडे वर्ग के नागरिकों की उन्नति के लिए विशेष प्रावधान बनाने के लिए अनुच्छेद-15-4 में निर्देशित किया गया है ।
        सामाजिक न्यायप्रदान करने के लिए सामाजिक आर्थिक रूप से पिछडे लोगो को नौकरी में आरक्षण  प्रदान किया गया है । लोक सेवा में अवसर की समानता का अधिकार अनुच्छेद 16 में दिया गया है । सामान्य कार्य के लिए सामान्य वेतन दिये जाने का प्रावधान रखा गया है ।राज्याधीन नौकरियों या पदो पर नियुक्ती के सबंध में सब नागरिकों को अवसर की समानता प्रदान की गई है ।
धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास के आधार पर नौकरी में कोई अयोग्यता या भेद भाव नहीं किया जायेगा। इसी प्रकार अनुच्छेद-325 के अनुसार धर्म, मूलवंश, जाति या लिंग के आधार पर किसी व्यक्ति को निर्वाचक नामावली में शामिल किये जाने से अयोग्य नहीं माना जायेगा । प्रत्येक 18 वर्ष के वयस्क को मताधिकार प्रदान किया गया है ।
        भारतीय समाज सदियों से रूढि प्रथा अन्धविश्वास सामाजिक कुरितियों से ग्रस्त रहा है । जाति, धर्म, भाषा, क्षेत्र के नाम पर समाज को बांटा गया है । इस सामाजिक असामनता को समाप्त करने के लिए अस्पृश्यता निवारण अधिनियम 1955 अनुच्छेद 17 के अनुसार बनाया गया है । अछूतपन के विरूद्ध गारंटी दी गई है । अछूतपन के आधार पर किसी को अयोग्य ठहराना दण्डनीय है। कोई भी व्यक्ति सार्वजनिक पूजा स्थल में जा सकता है । किसी घाट पवित्र कुओं, तालाब, जलधारा, झरने में नहा सकता है। अस्पृश्यता से उत्पन्न अयोग्यता को दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है । जन्म रोग मृत्यु से उत्पन्न सामाजिक बुराईयों का अंत किया गया है । उपाधी तथा उपहारों पर रोक लगाई गई है । ताकि सामाजिक समानता अनुच्छेद-18 के अनुसार बनी रहे ।
        संविधान में किसी भी व्यक्ति को उसके प्राण देैहिक स्वाधीनता से
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विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अनुसार ही वंचित किया जायेगा संविधान का यह अनुच्छेद 21 न सिर्फ कार्यपालिका के विरूद्ध विधिक संरक्षण प्रदान करता है बल्कि विधान मण्डल के विरूद्ध भी संरक्षण प्रदान करता है और विधान मण्डल ऐसी कोई विधि पारित नहीं कर सकता जो किसी व्यक्ति को उसके प्राण और देैहिक स्वतंत्रता से वंचित करती हो । विधान मण्डल द्वारा बनाई विधि, उचित, युक्तियुक्त, नैसर्गिक न्याय के सिंद्धातो के अनुरूप होनी चाहिए।
        एक सुव्यवस्थित समाज के लिए व्यक्तिगत स्वंतत्रता अनिवार्य है। कोई भी अधिकार आत्यन्तिक नहीं हो सकता इसलिए विधि का बंधन लगाया गया है । अनुच्छेद 21 में दैहिक स्वंतत्रता  में वे सभी तथ्य शामिल है जो व्यक्ति को पूर्ण बनाते हैं । इसके अंतर्गत अनुच्छेद 19 में प्रदत्त वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभा करने की स्वतंत्रता, संघ बनाने की स्वंतत्रता, भ्रमण की स्वतंत्रता, आवास की स्वतंत्रता, शांतिपूर्वक और हथियारो के बिना इकट्ठा होने की स्वतंत्रता, पेशा, व्यवसाय, वार्णिज्य, एंव व्यापार की स्वतंत्रता शामिल है ।
        अनुच्छेद-21 में प्रदत्त स्वतंत्रताएं केवल नागरिकों को प्राप्त हैं ।जिन पर लोकहित में सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने देश की स्वतंत्रता को ध्यान में रखते हुये समाज कल्याण के हित के लिए युक्तियुक्त पावंदी लगाई गई है । यह पावंदी मौलिक तथा प्रक्रिया संबंधी विधि के अंतर्गत लगाई गई है । जैसे-शराब बनाना, नशीले पौधे उगाना, देह व्यापार करना, आदि पर पावंदियां लगाई गई है । प्रेस की आजादी, फिल्मों में सैन्सरशिप आदि समाज के कल्याण के लिए उठाये गये कदम ।
        दैेहिक स्वतंत्रता का अर्थ शारीरिक  स्वतंत्रता मात्र से नहीं है। इसके अंतर्गत वे सभी प्रकार के अधिकार शामिल है जो व्यक्ति को पूर्ण बनाते है और उसके अधिकारों को संरक्षण प्रदान करते है तथा सभी प्रकार के मनोवैज्ञानिक अवरोधों को हटाते हैं, व्यक्ति के निजी जीवन में किसी भी प्रकार का अप्राधीकृत हस्तक्षेप चाहे वह प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष सभी से संरक्षण प्रदान करते है ।
        अनुच्छे 21 में प्रयुक्त प्राण शब्द का अर्थ केवल मानव जीवन नहीं है और यह न केवल शरीर के अंग भंग करने से निषेध करता है बल्कि इसके अंतर्गत एकांतता का अधिकार भी शामिल है । यह केवल भौतिक अस्तित्व तक सीमित नहीं है वरण् इसमें मानव गरिमा को बनाये रखते हुए जीने का अधिकार शामिल है । इसमें विदेश भ्रमण का अधिकार, व्यापार, व्यवसाय का अधिकार, एकांतता का अधिकार, मानव गरीमा के साथ जीने का अधिकार, न्यूनतम मजदूरी प्राप्त करने का अधिकार, जीवकोपार्जन का अधिकार प्रदूषण रहित जल और वायु के उपयोग का अधिकार, लोकहितवाद, प्रस्तुत करने का अधिकार, काम का अधिकार, वैधानिक रूप से पद मुक्ति का अधिकार, सडक पर व्यापार का अधिकार, बेगार न करने का अधिकार शामिल है ।
        अनुच्छे 21 में मानव गरीमा को बनाये रखते हुये जीने के अधिकार में लोक स्वास्थ को बढाये रखने एंव उसमें सुधार करने का अधिकार भी शामिल है एक स्वस्थ शरीर मनुष्य के जीवन के लिए आवश्यक है । सार्वजनिक स्वास्थ को सुरक्षित रखना एंव सुधार के लिए कदम उठाना एक कल्याणकारी राज्य का परम कर्तव्य है ।
        अनुच्छेद 21 में प्राण शब्द से तात्पर्य मनुष्य का जीवन है इसलिए इसके अंतर्गत जीविकोपार्जन, जीवनयापन का उत्तम स्तर, कर्मकारो के काम के स्थान का आरोग्यपूर्ण होना तथा आराम का समय दिया जाना भी सम्मिलित है । इससे कर्मकारो के काम की क्षमता में वृद्धि होती है । एक स्वस्थ कर्मकार ही अपने परिश्रम के फल का लाभ उठा सकता है । चिकित्सा सुविधाएं कर्मकारो के स्वास्थ्य को संरक्षित रखने के लिए अत्यावश्यक है ।
        सी.ई.एस.सी. लिमि.बनाम सुभाषचन्द्र बोस 1992 भाग-1 एस.सी.सी. 441 के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया कि सामाजिक न्याय का अधिकार एक मूल अधिकार है । कर्मकारों का स्वास्थ प्राण के अधिकारों का एक आवश्यक तत्व है और स्वास्थ से तात्पर्य केवल बीमारी से रक्षा करना नहीं बल्कि पूर्ण शारीरिक मानसिक और सामाजिक कल्याण से है ।
        श्रमजीवी महिलाओं का यौन शोषण प्रतिकर एंव पुनर्वास के लिए मार्गदर्शक सिद्धांत प्रतिपादित किये गये है । पीडित व्यक्ति की पहचान को गोपनीय रखा गया है । हथकडी लगाने को प्रतिबंधित किया गया है । अमानवीय व्यवहार के विरूद्ध संरक्षण प्रदान किया गया है । मानव प्रतिष्ठा को आदर्श बनाया गया है ।
        शारीरिक रूप से विकलांग अंधे, अर्ध अंधे व्यक्तियों को भारतीेय
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प्रशासनिक सेवाओ में नौकरी का अधिकार है इसलिए जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मे ंउनको भागीदारी में उत्साहित करना सरकार का कर्तव्य है । इसके लिए उन्हें ब्रेल लिपि या लेखक की सहायता प्रदत्त कराना सरकार का दायित्व बनाया गया है । चिकित्सीय सहायता प्राप्त करने का अधिकार भी इसमें शामिल है ।
         अनुच्छेद 21 में प्राण दैहिक स्वतंत्रता केदियों को भी दी गई है । उन्हें निःशुल्क विधिक सहायता देना उनका शीघ्र न्याय करना शीघ्रता परीक्षण, एकांत कारावास, केदियों को लोहे की बेडिया न लगाना, जेल में अच्छा खाना देना, व्यक्ति को हथकडी न लगाना, परीक्षाणाधीन केदी को सिद्धदोष केदियों से दूर रखना । केदियों से अमानवीय व्यवहार न करना । एंकान्त वास में अधिक अवधि तक न रखना, आवश्यक सुविधाओं से वंचित न रखना । आदि अधिकार बंदियों को दिये गये है ।
        अनुच्छेद 20 में प्रदत्त अधिकार की एक अपराध के लिए एक बार दण्डित किया जायेगा । किसी व्यक्ति को अपने विरूद्ध साक्ष्य देने बाध्य नहीं किया जायेगा। किये गये अपराध के लिए एक बार दण्डित किया जायेगा । यह अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को उसके कल्याण के लिए प्रदान किया गया है और व्यक्ति का सामाजिक, आर्थिक विकास हो उसे अपने मानव होने का गर्व हो इसके लिए  अपराधी व्यक्ति को भी संवैधानिक सरंक्षण अनुच्छेद 22 में प्रदान किये गये हैं
        अनुच्छेद 22 के अनुसार गिरफतार व्यक्ति को शीघ्रताशीघ्र गिरफतारी का कारण बताया जायेगा उसे अपने मन पंसद वकील से परामर्श का अधिकार होगा । 24 घंटे के अंदर निकटतम मजिस्ट्ेट के समक्ष पेश किया जायेगा ।
        पुलिस अभिरक्षा में अमानवीय व्यवहार, अवैध गिरफतारी के विरूद्ध संरक्षण दिया गया है । गिरफतार किये जाने पर महत्वपूर्ण मार्गदर्शक सिद्धांत माननीय उच्चतम न्यायालय ने जोगेन्दर सिंह विरूद्ध उत्तरप्रदेश राज्य 1994 भाग 4 एस.एस.सी. 260 और डी.केेेे.वसु के मामले में दिशा निर्देश प्रतिपादित किये गये हैं । जिसके फलस्वरूप दण्ड प्रक्रिया सहिता में संशोधन किया गया है ।
        आजीवन कारावास सजा काट रहे व्यक्ति द्वारा मानव वध करने पर केवल मृत्यु दण्ड संबंधी प्रावधान धारा-303 भा.द.सं. का मिटठू बनाम पंजाब राज्य ए.आई.आर. 1983 सुप्रीम कोर्ट 473 के मामले में विलोपित किया गया है । मृत्यु दण्ड को आजीवन कारावास में बदलने की शक्ति दी गई है । नागरिको के संवैधानिक अधिकारो के उल्लंघन पर न्यायालय को प्रतिकर दिलाने की शक्ति प्रदान की गई है ।
        संविधान में प्रदत्त अनुच्छेद 21 को अपात्काल में भी निलंबित नहीं किया जा सकता है और संवैधानिक उपचारो का अधिकार जो डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जिसके बिना यह संविधान शून्य है जो संविधान की आत्मा है का प्रयोग किया जा सकता है और यह अधिकार हमें मूल अधिकारो की गारेंटी प्रदान करके सामाजिक न्याय प्रदान करता है ।
        सामाजिक न्याय का प्रमुख स्त्रोत संवैधानिक उपचारो का  अधिकार है क्यों कि उपचारो के अभाव में अधिकारो का अस्तित्व संभव नहीं है। इसके लिए न केवल दुखित व्यक्ति बल्कि लोकहित के लिए कोई भी व्यक्ति लोकहित वाद प्रस्तुत कर सकता है ।
        न्यायालय द्वारा सामाजिक न्याय के लिए पर्यावरण सरंक्षण, प्रदूषण निवारण, बंधुआ मजदूरी, अभिरक्षा में मौत, आदि से संबधित लोकहित याचिकाओं में महत्वपूर्ण दिशा निर्देश पारित कर सामाजिक न्याय के नए रास्ते खोले हैं ।
        शोषण के विरूद्ध व्यक्ति को सामाजिक, आर्थिक न्याय प्रदान करने अनुच्छेद 23 में कहा गया है कि मानव के क्रय विक्रय बेगार एंव बलात श्रम को प्रतिषेधित किया गया है । इन्हें दण्डनीय अपराध घोषित किया गया है । नारी का क्रय विक्रय रोका गया है । बेगार प्रथा को समाप्त किया गया है । स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय समाज में यह दो महत्वपूर्ण कुरीतियां थी । भारतीय नवाब राजा, जमीदार, कमजोर वर्ग तथा गरीबों से बेगार लेते थे । उन्हें मजदूरी नहीं देते थे । गरीबी के कारण स्त्रीयों का क्रय विक्रय होता था। जिस पर रोक लगाई गई है ।
        उत्तर प्रदेश में रिमूवल आफ सोशल डिसएवल्ट्ी एक्टस् पारित किया गया है, जिसके अनुसार कोई भी व्यक्ति किसी भी व्यक्ति की सेवा करने से इस आधार पर इन्कार नहीं कर सकता कि वह अनुसूचित जाति का है। यदि वह उन्हीं शर्तो पर अन्य हिन्दूओं के प्रति ऐसी सेवा करता रहा है ।
        संविधान में सामाजिक न्याय प्रदान किये जाने धार्मिक कट्टरता को खत्म किये जाने धर्म निरपेक्ष राज्य की परिकल्पना की है जिसका अर्थ है कि राज्य का स्वंय अपना कोई धर्म नहीं होगा और न ही अपने नागरिकों में धर्म के आधार
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पर राज्य भेद-भाव रख्ेागा । धर्म के मामले में तटस्थता बरती गई है । प्रत्येक धर्म को समान आधिकार प्रदान किया गया है ।
         भारतीय संविधान में सामाजिक न्याय प्रदान करने हेतु जो मूल अधिकार दिये गये है उनकी सुरक्षा के लिए संवैधानिक उपचारो के अधिकार अनुच्छेद 32,226,136,141,142, आदि में दिये गये हैं और नागरिकों को मूल अधिकारों को गारंटी के साथ सुरक्षा प्रदान की गई है, जिसके लिए उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय को एक सजग प्रहरी के रूप में कार्य करते हैं ।
        लेकिन सामाजिक, आथर््िाक और राजनीतिक न्याय प्रदान किये जाने संबंधी उपरोक्त संवैधानिक उपबंध केवल संविधान के ‘‘आइना’’ में छबि बनकर रह गये हैं। लोगो का जीवन स्तर निम्न है, गरीबी, बेकारी, भुखमरी, अशिक्षा, अज्ञानता व्याप्त है । आर्थिक सामनता, सामाजिक न्याय आम जनता से कोसो दूर है । इसलिए लक्ष्य प्राप्ति के लिए शीघ्रता और कठोरता से इन सावैधानिक उपबंधों को लागू किया जाना आवश्यक है । 
        आज हमारे देश में सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्राप्त करना आम जनता के लिए परीलोक की कहानी है। सामाजिक न्याय चुनावी मरूस्थल में मृगतृष्णा के रूप में जनता को दिखाया जाता है ।सभी राजनैतिक दलों के चुनावी घोषणा पत्र सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने के नारे से भरे रहते हैं, लेकिन कोई भी दलगत जातिगत, व्यक्तिगत राजनीति से उठकर देशहित में न्याय प्रदान नहीं कर पाता है ।
        देश की अधिकाशं जनता, गांव में रहती है । गांव में आज भी आजादी के 65 साल बाद भी बिजली, पानी, सडक, की सुविधाओं का अभाव हैं । देश की आधी आबादी लगभग अशिक्षित है । 30 प्रतिशत लोग गरीबी का जीवन जी रहे हैं । एक समय का भोजन भी उनके लिए नसीब नहीं है । आज भी गावं की अधिकाश आबादी दिशा मैदान को जाती है । गांव में स्वास्थ्य, शिक्षा, जैसी बुनियादी सुवधिओं का अभाव है । यदि सौ रूपये सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक न्याय प्रदान किये जाने बजट में प्रदत किए जाते हैं तो मात्र दस रूपये इस काम में आते हैं और नब्बे रूपये भ्रष्टाचार की भेटं चढ जाते हैं । यही कारण है कि आज इससे लडने एक नहीं हजारो हजार बाबा अम्बेडकर देश को चाहिए है।
        देश मे आर्थिक न्याय का यह हाल है कि अमीरों और गरीबों के मध्य खाई बढती जा रही है । आय, वेतन, आर्थिक संसाधनों का असमान वितरण है । प्रति व्यक्ति आय कम है । देश में भ्रष्टाचार के कारण शासकीय नीतियों का लाभ आम जनता प्राप्त नहीं कर पाती है । भ्रष्टाचार का यह हाल है कि आजादी के बाद देश की सडकों के लिए जितना धन दिया गया है उससे सोने की सडके बन सकती थी तथा बांध और तालाबों पर इतना पैसा व्यय किया गया है कि उनकी दिवारे चांदी के बन सकती थी ।
        यही कारण है कि आज हम जनता का लाखों रूपये खर्च करके  साम्प्रदायिकता, क्षेत्रवाद, भाषावाद, अलगांववाद, धार्मिक अंधविश्वास, जैसे कच्चे, पत्थरीले रास्तों पर चल रहे हैं । करोडो रूपये खर्च करके अशिक्षा, बेकारी, गरीबी, भुखमरी, आतंकवाद, नक्सलवाद, से जूझ रहे हैं और अरबों रूपये खर्च करके भ्रष्ट अधिकारी, कर्मचारी, नेता, व्यापारी, उद्योगपतियो,  के मध्य जी रहे हैं जिसके कारण सामाजिक न्याय सपने की बात लगती है ।
        सामाजिक न्याय को जो अधिकार स्वरूप प्राप्त होआ था आज भीख के रूप में मांगा जा रहा है । इसलिए यदि संविधान में दिये प्रावधानों का कठोरता से पालन किया जाये देश के नेता अधिकारी,  उद्योगपति, व्यापारी, संविधान के अनुसार कार्य करें तो देश के प्रत्येक  नागरिक को संविधान की उद्देशिका के अनुसार सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक न्याय गारंटी के रूप में प्राप्त हो सकता है ।
        देश में सामाजिक न्याय का प्रश्न हो तो 50 प्रतिशत से अधिक आबादी अशिक्षित, अर्द्धशिक्षित, अल्पशिक्षित है जिसमें से आजादी के पूर्व के अधिंकाश लोग जो अशिक्षित है वह अंगूठा छाप हैं लेकिन स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र नागरिक भी सर्व शिक्षा अभियान के नाम पर करोडो रूपये खर्च किये जाने के बाद साक्षरता के नाम पर केवल हस्ताक्षर करना जानते हैं उन्हें अपने अच्छा बुरा समझने की शिक्षा अथवा ज्ञान नहीं दिया जाता है यही कारण है कि आज वे शोषण का शिकार हो रहे हैं ।
        अशिक्षा के कारण उन्हें काम धन्धा प्राप्त नही हो पाता है ओर व्यापार , व्यवसाय की कमी के कारण वे अपराध की ओर आकर्षित होकर आतंकवाद, नक्सलवाद को बढावा देते हैं ।देश मंे असामान्य वितरण के कारण गरीबी व्याप्त है जिसके कारण अपराध हिंसा बढ रही है । सरकारी दमनचक्र के विरोध में नक्सलवाद, आतंकवाद, पनप रहा है । देश में हजारों बेगुनाह प्रति वर्ष आतंकवाद का शिकार होकर मौत की भेंट चढ जाते हैं ।
        जहां तक देश में स्त्रीयों की दशा का प्रश्न है तो वह दयनीय है, स्त्रीयों सबधी अपराध बढ रहे है । आज भी स्त्री का जन्म होना बुरा माना जाता है जिसके कारण भू्रण हत्या जैसे अपराध बढ रहे हैं जिसके कारण देश के कई राज्यों में स्त्री-पुरूष अनुपात में कमी आई है ।
         स्त्रीयों को आज भी अपनी इच्छा के अनुसार व्यवसाय, व्यापार विवाह करने की छूट नहेीं है उन पर आज भी सदियों पुरानी रूढीयों और प्रथाओं के अनुसार कोई न कोई बंधन लगाये जातेे हैं । आज भी अधिकाशं देश में असंख्य बाल विवाह होते है। एक अकेली स्त्री का समाज मंे रहकर जीवन यापन करना मुश्किल है उस पर अनेक प्रकार के लांछन लाद दिये जाते हैं ।
        देश के गावों में लोगो का जीवन स्तर निम्न है मनोरंजन साधनो का  अभाव है, अधिकांश लोग गांव में आज भी जुआ, शराब, को मनोरंजन का साधन समझते हैं । गांव पानी लाने आज भी मीलो जाना पडता है । घरों में फ्लेश लेटरिन नहीं है लोग खुले आम जानवरों की तरह निस्तार करने मजबूर है ।
        देश में गांव में सडक नहीं है शहर में सडक की यह स्थिति है कि  एक मर्द को भी प्रसुति दर्द का एहसास करा देती है। बिजली नाम के लिए आती है केवल मोहनी के रूप में दर्शन देकर चली जाती है जिसके कारण लाखों हेक्टेयर खेती असिंचित रह जाती है । किसानों को समय पर खाद, बीज, पानी नहीं मिलता है इसके उपर से प्राकृतिक आपदा भी सहन करनी पडती है जिसके कारण कई किसान कर्ज न चुका पाने के कारण आत्म हत्या करते है ं।
       
        देश के ग्रामीण क्षेत्रों में शिक्षा का अभाव है ।  लोगो को पढने के लिए कोसो मील दूर जाना पडता है । बीमार पडने पर घंटो बाद शहरो में स्वास्थ्य सुविधाएं मिलती है तब तक अनेक लोग रास्ते में दम तोड चुके होते हैं ।
        देश में न्याय व्यवस्था का यह हाल है कि े न्यायिक प्रक्रिया काफी लम्बी, महंगी है । पिता दावा लाता है पु़त्र निर्णय प्राप्त करता है नाती निर्णय का निष्पादन करवाता हैै। सुलभ, सरल, शीघ्र, सस्ता न्याय केवल किताब की बात है न्यायालय में मुकदमे के बोझ से दबे जा रहे है । रोज नये नये कानून अध्यादेश बन रहे हैं और अदालतों में काम का बोझ बढ रहा है । जिसके कारण न्याय समय पर प्राप्त नहीं हो पा रहा है । जब कि आज जनता का विश्वास केवल न्याय पालिका पर है इसके लिए जरूरी है कि नई न्यायिक प्रणाली विकासित की जाये । जांच विचारण अनवेषण में नयी वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग किया जाये । अधिकांश मामले न्यायालय के बाहर सुलह, समझोते के आधार पर निपटाये जाये । तभी सस्ता सुलभ, शीघ्र न्याय लोगो को प्राप्त हो पायेगा ।
        जहां तक राजनैतिक न्याय की बात है तो वह वोट और नोट के बीच बट गया है ं दागी छबि वाले लोग चुनाव में खडे हो रहे है। धन बल बाहू बल के आधार पर चुनाव जीता जाता है।ं राजनीति में व्याप्त गंदगी में कोई शरीफ व्यक्ति शामिल नहीं होना चाहता है । भूले भटके कोई ऐसा व्यक्ति राजनीति में प्रवेश कर जाता है तो उसे वोट की राजनीति बाहर कर देती है।
        गुप्त मतदान का प्रावधान दिया गया है लेकिन लोगो के वोट नोट और बंदूको के साये में डलवाये जाते हैं ।धर्म , जाति, भाषा के नाम पर वोट खरीदे जाते हैं । गांव में लोगो को वोट डालने नहीं दिया जाता है। गांव के गांव बंधक बना लिये जाते हैं । देश में चुनाव युद्ध की तरफ लडा जाता है और नाजायज तरीके से चुनाव लडे जाते हैं । चुनाव में प्रत्याशी की बौद्धिक योग्यता को देखकर  लोग वोट नहीं देते हैं । उसकी ताकत और पार्टी की क्षमता को देखकर वोट दिये जाते है।
        चुनाव में खडे लोगो को देखकर कई लोग वोट देने नहीं जाते है । इसके लिए जरूरी है कि घर में बैठकर वोट इंटरनेट के माध्यम से डाले जाने की व्यवस्था की जाये । प्रत्येक व्यक्ति का नाम उसके वयस्क होने के साथ ही मतदाता सूची में अपने आप जोडा जाये । मतदान को अनिवार्य किया जाये ।    जिस प्रकार वोट डालकर प्रत्याशी को चुना जाता है उसी प्रकार उसी प्रतिशत से चुने गये प्रत्याशी को क्षेत्र मे काम न करने की दशा में वापिस बुलाये जाने का अधिकार भी जनता को प्रदान किया जाये ।
        यह देखा गया है कि जन प्रतिनिधि चुने जाने के बाद 5 साल बाद अपने क्षेत्र में शक्ल नहीं दिखाते हैं । क्षेत्र के विकास के लिए कोई कार्य नहीं करते हैं तो ऐसे लोगो के लिए लोकतंत्र में जिसमें जनता का राज्य है और जनता के द्वारा चुने प्रतिनिधि जनता में से चुनकर जनता का प्रतिनिधित्व करते है। उन्हें जनता के द्वारा वापिस बुलाये जाने का अधिकार भी संविधान में प्रदान किया जाना चाहिए ।
        देश में आर्थिक न्याय का यह हाल है कि गरीब और गरीब अमीर और अमीर होता जा रहा है । शेयर बाजार, देश का व्यापार, व्यवसाय पर बडे व्यापारी उद्योगपति औद्योगिक घरानो का राज्य है । सरकार का अतिआवश्यक वस्तुओ दाल, शक्कर, आटा के बाजार भाव  नियंत्रण नहीं है । महगाई आसमान छू रही है ।पेट्ोल, डीजल, जैसे अति आवश्यक वस्तुओ के दाम सरकार के नियंत्रण के बाहर है । शेयर बाजार में कम दाम पर कम्पनी के एफ.पी.ओ. निकाले जाते हैं बाद में उनकी कीमते बढा दी जाती है । जब कि उन सेयरों की कीमत बढ जाती है तो वहीं कम्पनियां दूसरो से खरीदवाकर उन्हें बाद में बेचकर अधिक पंूजी जुटाकर कर शेयरों की कीमत कम कर देती है । जिससे लोगों की मेहनत मजदूरी की पूंजी डूब जाती है जिस पर सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है ।
        आज जहां देख्ेा वहां चिट फंड कम्पनियां कार्य कर रही है और अधिक बयाज का लोभ लालच देकर लोगो के पसीने की कमाई जमा करवादेती है और बाद में उन्हे हडप कर गायब हो जाती है । देश में जमा पर नाम मात्र का ब्याज सरकारी बैंक देती है जब कि वही बैक लोगो को बढी हुई ब्याज दर पर ऋण देती है । इसलिए उसी बयाज दर पर बैंक को भी लोगो को जमा पर ब्याज दिया जाना चाहिए । जिससे लोगों का रूंझान सरकारी बैंको की तरफ बढेंगा ।

        जहंा तक राजनीतिक न्याय का प्रश्न है तो व्यक्तिगत हित के लिए राजनीति की जा रही है । विधायका के सदन ऋण भूमि बन जाती है वहीं पर वाक युद्ध लडा जाता है लागो रूपये खर्च होने के बाद भी देश की संसद में कोई काम नहीं हो पाता है ।यदि संसद और विधायक का वाद बढ जाने का प्रश्न है तो सभी सांसद विधायक बहुमत से उसे सर्व सम्मित से पारित कर देता है लेकिन यदि आज आम जनता को राजनीति न्याय दिलाये जाने की किसी भी बिल को पेश कराये जाने की बात है तो उस बिल मे हजारों अडंगे लगाये जाते हैं ।
        जहा तक देश की कार्य पालिका, न्याय पालिका और विधायका का प्रश्न है तो तीनेा ही अपने-अपने क्षेत्र में सामाजिक, न्याय प्रदान किये जाने पूर्णतः  असफल है । न्याय पालिका काम के बोझ से दबी है ।संसाधनों का अभाव है आधारभूत ढाचा अभी भी अग्रेेजों के जमाने का है । एक तथ्य को कई बार प्रमाणित करना पडता है । जिसके कारण लोग न्याय प्रदान करने में हिस्सा नहीं ले पाते हैं ।
        विधायका भी धर्म और जाति की राजनीति में उलझ कर ठीक से कार्य नहीं कर पा रही है । व्यक्तिगत हितों और परिवार के लोगो कोेे बढावा दिया जा रहा है । देश की आम समस्या पर विचार विमर्श नहीं किया जाकर संसद और विधान सभा का समय आपसी बुराइयों और लडाईयों पर निकाला जाता है ।
        कार्यपालिका का प्रश्न है तो वह पेैर से सिर तक भ्रष्टाचार से डूबी हुई है वहां पर कोई भी कार्य विधि एंव नियम के अनुसार नहीं होता है । सभी काम व्यक्ति की हेसीयत के अनुसार किया जाते हैं।
        यही कारण हेै कि आज सामाजिक न्याय जो लोगो को अधिकार स्वरूप प्राप्त होना था उसकीे भीख मांगी जा रही हैं। यदि संविधान के अनुसार कार्य किया जाये तो सामाजिक न्याय दूर की बात नहीं है । शाम के अंधेरे के बाद सुबह होती है । रास्ता भूले लोग अपने घर वापिस आते हैं । यदि व्यक्तिगत हित छोडकर देश हित में संविधान के अनुसार कार्य किया जाये तो सामाजिक न्याय परिलोक की बात नहीं है ।




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भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta