प्रतिरक्षा का अधिकार
प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राकृतिक प्रदत अति बहुमूल्य अधिकार है और इसे युक्तियुक्त सीमाओं के भीतर समस्त स्वतंत्र, सभ्य एंव प्रजातांत्रिक समाज में मान्यता प्रदान की गई है । यह सामाजिक प्रयोजन को पूरा करता है । प्रकृति का यह सामान्य सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति उस पर बल प्रयोग किये जाने पर वह उसका विरोध करेगा ।यह न्यायसंगत है कि किसी व्यक्ति के शरीर, सम्पत्ति के विरूद्ध कोई अपराध किये जाने पर वह खडा नहीं रहेगा । उसका तब तक सामना करेगा जब तक वह खतरा समाप्त नहीं हो जाता है ।
विधि का यह सुस्थापित सिद्धंात है कि यदि कोई कार्य शरीर या सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को सदभावपूर्वक प्रयोग मे लाते हुए किया जाये तो वह अपराध नही है । इसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा-96 में परिभाषित किया गया है । जिसे आगे संहिता से संबोधित किया गया है । जिसके अनुसार कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा ‘‘प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ‘‘ को परिभाषित नहीं करती ,यह मात्र इंगित करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है।
इस संबंध में संहिता की धारा-6 भी उल्लेखनीय है । जिसमें कहा गया है कि इस संहिता में सर्वत्र, अपराध की हर परिभाषा, हर दण्ड उपबन्ध और , हर ऐसी परिभाषा या दण्ड उपबन्ध का हर दृष्टांत, साधारण अपवाद शीर्षक वाले अध्याय में अन्तर्विष्ट अपवादो के अध्यधीन समझा जाएगा, चाहे उन अपवादो को ऐसी परिभाषा, दण्ड उपबन्ध या दृष्टांत न गया हो ।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 96 से लेकर 106 में संहिताबद्ध किया गया है । प्रतिरक्षा के अधिकार के निर्वाचन के लिए इन समस्त धाराओ को एक साथ पढा जाना आवश्यक है । प्रकरण में व्याप्त तथ्य एंव परिस्थितियों के आधार पर अभियुक्त को प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का हकदार माना जा सकता है। यदि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है तो उसका भी मामले की परिस्थितियों के आधार पर निर्वाचन किया जा सकता है ।
आत्मरक्षा में कार्य करने वाला कोई व्यक्ति सामान्यता अपराध रोकने के लिए अथवा किसी अन्य व्यक्ति की प्रतिरक्षा के लिए कार्य करता है । उसे उतना बल प्रयोग करने की इजाजत है जो परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हो। प्रतिरक्षा का अधिकार व्यक्ति को न केवल स्वयं के लिए बल्कि उसके कुटुम्ब के सदस्य के लिए, यहां तक कि पूर्णतया अपीरिचत के लिए भी प्राप्त है । यदि वे अविधिपूर्ण हमले के अंतर्गत है तो उनकी प्रतिरक्षा का हक बनता है।
यह मापने के लिए कि क्या उपयोग किया गया बल युक्तियुक्त है । इसका निर्धारण मामले में व्याप्त तथ्य एंव परिस्थितियों के आधार पर होगा । यह विधि का प्रश्न नहीं है, बल्कि तथ्य का प्रश्न है । अतः यह नियम प्रतिपादित नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति, जिस पर हमला किया गया है । उसको बदला लेने से पूर्व हार मान लेना चाहिए । यह विनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति को सुरक्षा के साथ वापस जाने का अवसर प्राप्त था । उसका युक्तियुक्त आचरण सुसंगत है ।
ऐसे बल का उपयोग करने के पूर्व स्वयं को उसमें शामिल करना या अलग रखना वहां की परिस्थिति के अनुरूप निर्धारित किया जायेगा। यदि कोई व्यक्ति उस स्थान पर जाने के लिए विधि द्वारा निर्योग्य पात्र है तो उस पर उस स्थान पर वह विधिपूर्ण कार्य करने के लिए रोका नहीं जा सकता है और वहां पर यदि उस पर हमला किया जाता है तो वह आत्मरक्षा के अपने अधिकार से वंचित नहीं है।
जहां कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति की प्रतिरक्षा करने में कार्य कर रहा है तो वह ऐसे बल का उपयोग कर सकता है जो उन परिस्थितियों में युक्तियुक्त है । जहां कोई अपराध लिप्त नहीं है, वहा मात्र कोई अतिचार किया गया है तो उन परिस्थितियों मंे युक्तियुक्त बल का नियम लागू होता है ।
यदि युक्तियुक्त बल का उपयोग करने में आरोपी किसी अन्य व्यक्ति की हत्या कर देता है तोे ऐसी हत्या करना मर्डर या मेनस्लाटर नहीं समझा जाएगा सामान्यतया प्रत्येक सम्पत्ति की प्रतिरक्षा के मामलें में हत्या करना उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन अतिचारी यदि बल पूर्वक उसको उसके घर से बेकब्जा करे तो उसको चोट पहंुचाना । प्रतिरक्षा के अधिकार में माना जायेगा ।
आत्मरक्षा का अधिकार केवल तभी उत्पन्न होता है । जब कोई आशंका उत्पन्न होती है और व्यक्ति पूर्व से उस आशंका से अनभिज्ञ रहता है । यदि कोई व्यक्ति पहले से पूरी जानकारी के साथ अपरिहार्य खतरे में प्रविष्ट होता है और हथियारों से लैस होकर लडने जाता है, तो वह आत्मरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शुद्ध रूप से दण्डात्मक न होकर निवारक है। यह अधिकार केवल हमला करने के खतरे को रोकने के लिए उपलब्ध है। खतरा आसन्न तथा वास्तविक होना चाहिए एंव ऐसा होना चाहिए जिसे प्रति हमले द्वारा टाला नहीं जा सकता।ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता है और धमकी समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है, तो प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का अवसर समाप्त हो जाता। प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों में नहीं मापा जा सकता।
संहिता की धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा परिभाषित करती है। संहिता की धारा 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपत्ति क्रमशः की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यक्त करती है। अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही शरीर पर अपराध कारित करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है। यद्यपि अपराध नहीं किया होगा ,परन्तु उस समय तक नहीं जब युक्तियुक्त आंशका नहीं होती है। यह अधिकार तब तक बना रहता है जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।
संपत्ति के अभिरक्षा के अधिकार के उपयोग में जहां पर अकसर बल पूर्वक बेकब्जा किये जाने और आपराधिक अतिचार किये जाने के मामले सामने आते हैं । ऐसे मामलो में यदि अतिक्रमण किया गया हो अथवा लम्बे समय से अवैध कब्जा रहा है तो ऐसे मामले मे भी कब्जाधारी को कोई विधिक स्वत्व प्रापत न होने के बाद भी शरीर और सम्पत्ति की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार प्राप्त होता है। ’‘कब्जे की प्रकृति, अतिचारी को संपत्ति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का हकदार बना देती है । इसके लिए आवश्यक है कि कब्जा सतत, निरंतर , बेरोकटोक, खुला, और सार्वजनिक होना चाहिए । तथा संपत्ति का वास्तविक भौतिक कब्जा होना चाहिये ।वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और व्यवस्थापित कब्जा होना चाहिए ।
यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी है । तब यहां तक कि वास्तविक मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है । उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं होगा । उसे केवल व्यवहार न्यायालय से सहायता प्राप्त हो सकती है ।
सामान्यतः यह देखा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र में जहां आज भी कृषि भूमि के कब्जे के बारे में विवाद जीवन का हिस्सा है । भूमि का अधिभोग जीवित रहने का एकमात्र स्त्रोत होते हुए जीवन के लिए संघर्ष से भिन्न भावनात्मक जुडाव घोर लडाई में परिणित होता है और कब्जा संरक्षित करने के लिए हथियारो का अवलम्ब लिया जाता है क्योकि धीमी गति से चलने वाली मुकदमे की प्रक्रिया के प्रसंग में वास्तविक हकदार हताश हो जाता है । कानूनी लडाई में कई वर्ष व्यतीत करते हुए नीचे से उपर की न्यायालयों मे जाते हुए तथा समय एंव खर्चा करते हुए किसी अतिचारी को बाहर निकालने के चक्कर में वह खुद खुदा को प्यारा हो जाता है । ऐसे मामलो में लडाई झगडे होते है और आपराधिक मामले निर्मित होते है ।
जहां तक अतिक्रामक के विरूद्ध भूमि की प्रतिरक्षा का प्रश्न है व्यक्ति को अतिक्रामक को प्रवारित करने के लिए अथवा अतिक्रामक को निष्कासित करने के लिए आवश्यक बल का प्रयोग करने का अधिकार होगा । कथित प्रयोजन के लिए बल का प्रयोग जितना आवश्यक अथवा युक्तियुक्त हो उसी रूप में न्यूनतम तौर पर किया जाना चाहिए। सामान्य तौर पर अतिक्रामक से पहले छोडने के लिए कहना चाहिए और यदि अतिक्रामक वापसी में लडाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग किया जा सकता है ।
आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है । जितना कि अभियोजन का होता है । अभियोजन को उसका मामला युक्ति-युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता होती है। जब कि अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है और आत्मरक्षा के अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके अपने भार का निवर्हन सिविल मामले की तरह किया जा सकता है। वह अभियोजन साक्षीगण के प्रति-परीक्षण में या बचाव साक्ष्य प्रस्तुत करके अपना अधिकार स्थापित कर सकता है ।
प्रत्येक प्रकरण के व्याप्त तथ्य एंव परिस्थितियों के आधार पर इस अधिकार का निर्वाचन किया जायेगा । इसके लिए काल्पनिक रूप से उपधारणा नहीं की जायेगी । न्यायालय को समस्त आस पास की परिस्थितियो को विचारण में लेना होगा । प्राइवेट अभिरक्षा के अधिकार के लिए यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का वैध रूप से अनुप्रयोग किया गया है तो न्यायालय ऐसे अभिवचन का विचारण करने में स्वंतत्र होगी। यहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है और अभिलेखगत सामग्री से यह प्रकट होता है तो न्यायालय उसे प्रदान करेगी ।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के अंतर्गत जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का अभिवचन उठाता उस पर सबूत का भार होता है । न्यायालय द्वारा सबूत के अभाव में अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है । न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करके चलता है । यदि अभियुक्त के द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करके अथवा अभियोजन साक्षियों को प्रतिपरीक्षण में सुझाव देकर अथवा अभिलेख में उपलब्ध सामग्री के आधार पर अपने अधिकार की स्थापना की जा सकती है ।
जहां प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानि हमले को विफल करने के लिये या अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के लिये आवश्यक दर्शाने वाली होना चाहिए । आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा प्रकट किया जाता है ।
संहिता की धारा 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट रक्षा का अधिकार प्राप्त है ,तो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक यदि युक्तियुक्त आंशका हो कि मृत्यु या घोर उपहति हमले का परिणाम होगी जो धारा 100 के अंतर्गत विस्तारित होता है।
यह व्यवस्थापित स्थिति है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा तब नहीं किया जा सकता, जब अभियुक्त गण आक्रामक होते हैं, विशेषकर जब परिवादी दल के सदस्यगण पूर्णतया शस्त्र विहिन होते है तब प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता, क्योकि अभियुक्त आक्रामक की स्थिति में होता है ।
यह अवधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था। सुरक्षित मानदंड सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । हमेशा यह नहीं माना जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर क्षतियॉ पाई जाती है ,तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी । इसके लिए बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है । जो यह निर्धारित करती है किआरोपी के द्वारा बल प्रयोग शरीर सम्पत्ति की अभिरक्षा के अधिकार में किया गया है । अथवा उसके द्वारा आक्रमण किये जाने के फलस्वरूप दूसरे पक्ष के द्वारा प्रतिरक्षा किये जाने पर उसे चोट पहंुची है। अथवा जानबूझकर चोटो को छुपाया जा रहा है, ताकि अभिरक्षा के अधिकार का लाभ प्राप्त हो सके ।
हमेशा अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन के लिए घातक नहीं होता है । यह सिद्वांत उन मामलों में लागू होता है। जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है, और उपरी तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट अकाटय, स्वतंत्र, हितवद्व नहीं है और इतने अधिक स्पष्ट, संभाव्य ,सुसगंत और विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये अभियोजन के लोप के प्रभाव को समाप्त कर देता है अर्थात जहां प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य उपलब्ध है ।
. प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को उपलव्ध है ,तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर घोर एंव घातक क्षति करने का अवसर मिला होगा ।यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को उपलव्ध है ,तो सम्पूर्ण घटना की सावधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यक्त करती है । जिसके अनुसार अधिकार का अभिवचन अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के या किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है,और इस अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद्व किसी अपराध की दशा में किया जा सकेगा एंव चोरी, लूट, रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों और संपत्ति के संबंध में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा-99 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।
संहिता की धारा 96 और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदत्त करती है । जो संहिता की धारा 100 से 106 तक, धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।
स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पन्न प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था।
संहिता की धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा परिभाषित करती है। संहिता की धारा 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपत्ति क्रमशः की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यक्त करती है। अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही शरीर पर अपराध कारित करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है। यद्यपि अपराध नहीं किया होगा ,परन्तु उस समय तक नहीं जब युक्तियुक्त आंशका नहीं होती है। यह अधिकार तब तक बना रहता है जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।
क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलव्ध है या नहीं यह पता करने के लिये की अभियुक्तों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षा को धमकी की आंशका, अभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारीगण के पास जाने का समय था और समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।
कोई व्यक्ति ,जो मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है उस को उस क्षण में और परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों ,जो हथियारों से लैस थे, को निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों में मापा नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में पक्षकारगण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव उसे आशंकित खतरे के समान रूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता है। जहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन जाता है । ऐसी स्थितियों को सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्की सी या मामूली सी गल्ती का पता लगाने के लिये दुरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । अर्थात इसे माइक्रोस्कोप अथवा सोने की तरह तराजू से तोले जाने की आवश्यकता है ।
प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में किये गये कार्य को प्राइवेट प्रतिरक्षा मे किया गया है । जानने के लिए अति तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये साधारण मानव प्रतिक्रिया एंव मानवीय आचरण को ध्यान में रखते हुये, जहां आत्मरक्षा सर्वोपरि है उस बिन्दु का ध्यान रखा जाना चाहिए।
प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किये जाने पर भा0द0सं0 की धारा-300 के अपवाद 2 को ध्यान में रखते हुए आरोपी के कार्य को हत्या न मानते हुए आपराधिक मानव वध मानते हुए दण्डादेश भा0द0सं0 की धारा 302 से भा0द0स0 की धारा-304 में परिवर्तित किया जा सकता है ।
इसके लिए आवश्यक है कि यदि अपराध, शरीर या सम्पतित की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को सद्भावपूर्वक प्रयोग में लाते हुए विधि द्वारा उसे दी गई शक्ति का अतिक्रमण कर दे और पूर्व चिन्तन बिना और ऐसी प्रतिरक्षा के प्रयोजन से जितनी अपहानि करना आवश्यक हो उससे अधिक अपहानि करने के किसी आशय के बिना उस व्यक्ति की मृत्यु कारित कर दे जिसके विरूद्ध वह प्रतिरक्षा का ऐसा अधिकार प्रयोग में ला रहा हो ।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का ऐसा अधिकार धारा-101 भा0द0ंस0 के तहत शासित है और दो निर्बन्धनो के अध्यधीन है । एक यह है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में किसी भी प्रकार की उपहति कारित की जा सकती है । परन्तु मृत्यु कारित नही की जा सकती और दूसरा यह है कि बल का उपयोग व्यक्ति जिसकी प्रतिरक्षा मे बल का उपयोग किया गया है को बचाने के लिए न्यूनतम अपेक्षित से अधिक नहीं है । क्षति पंहंुचाई जा सकती है । लेकिन यदि अधिकार का दुरूपयोग किया जाता है तो मामला धारा-300 के अपवाद 2 के अधीन आएगा, जिसके तहत इस आधार पर हत्या की कोटि में नहीं आने वाला मानव वध कि मृत्यु प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कारित की गयी थी। परन्तु उस अधिकार का अतिक्रमण करने के द्वारा इस प्रकृति का अपराध भा0द0सं0 की धारा- 304 के प्रथम भाग द्वारा दण्डनीय बनाया गया है ।
इस प्रकार प्रकृति द्वारा प्रदत्त निजी प्रतिरक्षा के मूल्यवान अधिकारो का सामाजिक प्रयोजन हेतु अर्थ निकाला जाना चाहिए। इसके निर्धारण के समय तकनीकि दृष्टीकोण न अपनाते हुए उस समय व्याप्त तथ्य परिस्थितियों के अनुसार निर्धारण किया जाना चाहिए। इसे अभिवचन किये जाने की आवश्यकता नहीं है । यदि अभिलेख इसे अभिव्यक्त करता है तो स्वमेव इसे न्यायालय द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए ।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राकृतिक प्रदत अति बहुमूल्य अधिकार है और इसे युक्तियुक्त सीमाओं के भीतर समस्त स्वतंत्र, सभ्य एंव प्रजातांत्रिक समाज में मान्यता प्रदान की गई है । यह सामाजिक प्रयोजन को पूरा करता है । प्रकृति का यह सामान्य सिद्धांत है कि कोई भी व्यक्ति उस पर बल प्रयोग किये जाने पर वह उसका विरोध करेगा ।यह न्यायसंगत है कि किसी व्यक्ति के शरीर, सम्पत्ति के विरूद्ध कोई अपराध किये जाने पर वह खडा नहीं रहेगा । उसका तब तक सामना करेगा जब तक वह खतरा समाप्त नहीं हो जाता है ।
विधि का यह सुस्थापित सिद्धंात है कि यदि कोई कार्य शरीर या सम्पत्ति की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को सदभावपूर्वक प्रयोग मे लाते हुए किया जाये तो वह अपराध नही है । इसे भारतीय दण्ड संहिता की धारा-96 में परिभाषित किया गया है । जिसे आगे संहिता से संबोधित किया गया है । जिसके अनुसार कोई भी कार्य अपराध नहीं है जो प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है। यह धारा ‘‘प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार ‘‘ को परिभाषित नहीं करती ,यह मात्र इंगित करती है कि कोई भी कार्य अपराध नहीं है । जो ऐसे अधिकार के अनुप्रयोग में किया जाता है।
इस संबंध में संहिता की धारा-6 भी उल्लेखनीय है । जिसमें कहा गया है कि इस संहिता में सर्वत्र, अपराध की हर परिभाषा, हर दण्ड उपबन्ध और , हर ऐसी परिभाषा या दण्ड उपबन्ध का हर दृष्टांत, साधारण अपवाद शीर्षक वाले अध्याय में अन्तर्विष्ट अपवादो के अध्यधीन समझा जाएगा, चाहे उन अपवादो को ऐसी परिभाषा, दण्ड उपबन्ध या दृष्टांत न गया हो ।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार भारतीय दण्ड संहिता की धारा 96 से लेकर 106 में संहिताबद्ध किया गया है । प्रतिरक्षा के अधिकार के निर्वाचन के लिए इन समस्त धाराओ को एक साथ पढा जाना आवश्यक है । प्रकरण में व्याप्त तथ्य एंव परिस्थितियों के आधार पर अभियुक्त को प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का हकदार माना जा सकता है। यदि उसने प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किया है तो उसका भी मामले की परिस्थितियों के आधार पर निर्वाचन किया जा सकता है ।
आत्मरक्षा में कार्य करने वाला कोई व्यक्ति सामान्यता अपराध रोकने के लिए अथवा किसी अन्य व्यक्ति की प्रतिरक्षा के लिए कार्य करता है । उसे उतना बल प्रयोग करने की इजाजत है जो परिस्थितियों के अनुसार आवश्यक हो। प्रतिरक्षा का अधिकार व्यक्ति को न केवल स्वयं के लिए बल्कि उसके कुटुम्ब के सदस्य के लिए, यहां तक कि पूर्णतया अपीरिचत के लिए भी प्राप्त है । यदि वे अविधिपूर्ण हमले के अंतर्गत है तो उनकी प्रतिरक्षा का हक बनता है।
यह मापने के लिए कि क्या उपयोग किया गया बल युक्तियुक्त है । इसका निर्धारण मामले में व्याप्त तथ्य एंव परिस्थितियों के आधार पर होगा । यह विधि का प्रश्न नहीं है, बल्कि तथ्य का प्रश्न है । अतः यह नियम प्रतिपादित नहीं किया जा सकता कि व्यक्ति, जिस पर हमला किया गया है । उसको बदला लेने से पूर्व हार मान लेना चाहिए । यह विनिश्चित करने के लिए किसी व्यक्ति को सुरक्षा के साथ वापस जाने का अवसर प्राप्त था । उसका युक्तियुक्त आचरण सुसंगत है ।
ऐसे बल का उपयोग करने के पूर्व स्वयं को उसमें शामिल करना या अलग रखना वहां की परिस्थिति के अनुरूप निर्धारित किया जायेगा। यदि कोई व्यक्ति उस स्थान पर जाने के लिए विधि द्वारा निर्योग्य पात्र है तो उस पर उस स्थान पर वह विधिपूर्ण कार्य करने के लिए रोका नहीं जा सकता है और वहां पर यदि उस पर हमला किया जाता है तो वह आत्मरक्षा के अपने अधिकार से वंचित नहीं है।
जहां कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति की प्रतिरक्षा करने में कार्य कर रहा है तो वह ऐसे बल का उपयोग कर सकता है जो उन परिस्थितियों में युक्तियुक्त है । जहां कोई अपराध लिप्त नहीं है, वहा मात्र कोई अतिचार किया गया है तो उन परिस्थितियों मंे युक्तियुक्त बल का नियम लागू होता है ।
यदि युक्तियुक्त बल का उपयोग करने में आरोपी किसी अन्य व्यक्ति की हत्या कर देता है तोे ऐसी हत्या करना मर्डर या मेनस्लाटर नहीं समझा जाएगा सामान्यतया प्रत्येक सम्पत्ति की प्रतिरक्षा के मामलें में हत्या करना उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन अतिचारी यदि बल पूर्वक उसको उसके घर से बेकब्जा करे तो उसको चोट पहंुचाना । प्रतिरक्षा के अधिकार में माना जायेगा ।
आत्मरक्षा का अधिकार केवल तभी उत्पन्न होता है । जब कोई आशंका उत्पन्न होती है और व्यक्ति पूर्व से उस आशंका से अनभिज्ञ रहता है । यदि कोई व्यक्ति पहले से पूरी जानकारी के साथ अपरिहार्य खतरे में प्रविष्ट होता है और हथियारों से लैस होकर लडने जाता है, तो वह आत्मरक्षा के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार शुद्ध रूप से दण्डात्मक न होकर निवारक है। यह अधिकार केवल हमला करने के खतरे को रोकने के लिए उपलब्ध है। खतरा आसन्न तथा वास्तविक होना चाहिए एंव ऐसा होना चाहिए जिसे प्रति हमले द्वारा टाला नहीं जा सकता।ज्यों ही युक्तियुक्त आंशका का हेतुक गायब हो जाता है और धमकी समाप्त हो गई है या समाप्त की जा चुकी है, तो प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का अवसर समाप्त हो जाता। प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को अक्सर प्रोद्वरित सूक्ति में सुनहरे मापों में नहीं मापा जा सकता।
संहिता की धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा परिभाषित करती है। संहिता की धारा 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपत्ति क्रमशः की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यक्त करती है। अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही शरीर पर अपराध कारित करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है। यद्यपि अपराध नहीं किया होगा ,परन्तु उस समय तक नहीं जब युक्तियुक्त आंशका नहीं होती है। यह अधिकार तब तक बना रहता है जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।
संपत्ति के अभिरक्षा के अधिकार के उपयोग में जहां पर अकसर बल पूर्वक बेकब्जा किये जाने और आपराधिक अतिचार किये जाने के मामले सामने आते हैं । ऐसे मामलो में यदि अतिक्रमण किया गया हो अथवा लम्बे समय से अवैध कब्जा रहा है तो ऐसे मामले मे भी कब्जाधारी को कोई विधिक स्वत्व प्रापत न होने के बाद भी शरीर और सम्पत्ति की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार प्राप्त होता है। ’‘कब्जे की प्रकृति, अतिचारी को संपत्ति और शरीर की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अनुप्रयोग करने का हकदार बना देती है । इसके लिए आवश्यक है कि कब्जा सतत, निरंतर , बेरोकटोक, खुला, और सार्वजनिक होना चाहिए । तथा संपत्ति का वास्तविक भौतिक कब्जा होना चाहिये ।वास्तविक मालिक द्वारा मौन सहमति होनी चाहिये और व्यवस्थापित कब्जा होना चाहिए ।
यदि अतिचारी द्वारा फसल उगाई जा चुकी है । तब यहां तक कि वास्तविक मालिक को अतिचारी द्वारा उगाई गई फसल नष्ट करने का कोई अधिकार नहीं है । उस दशा में अतिचारी के पास प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार होगा और वास्तविक मालिक को प्रायवेट प्रतिरक्षा का कोई अधिकार नहीं होगा । उसे केवल व्यवहार न्यायालय से सहायता प्राप्त हो सकती है ।
सामान्यतः यह देखा गया है कि ग्रामीण क्षेत्र में जहां आज भी कृषि भूमि के कब्जे के बारे में विवाद जीवन का हिस्सा है । भूमि का अधिभोग जीवित रहने का एकमात्र स्त्रोत होते हुए जीवन के लिए संघर्ष से भिन्न भावनात्मक जुडाव घोर लडाई में परिणित होता है और कब्जा संरक्षित करने के लिए हथियारो का अवलम्ब लिया जाता है क्योकि धीमी गति से चलने वाली मुकदमे की प्रक्रिया के प्रसंग में वास्तविक हकदार हताश हो जाता है । कानूनी लडाई में कई वर्ष व्यतीत करते हुए नीचे से उपर की न्यायालयों मे जाते हुए तथा समय एंव खर्चा करते हुए किसी अतिचारी को बाहर निकालने के चक्कर में वह खुद खुदा को प्यारा हो जाता है । ऐसे मामलो में लडाई झगडे होते है और आपराधिक मामले निर्मित होते है ।
जहां तक अतिक्रामक के विरूद्ध भूमि की प्रतिरक्षा का प्रश्न है व्यक्ति को अतिक्रामक को प्रवारित करने के लिए अथवा अतिक्रामक को निष्कासित करने के लिए आवश्यक बल का प्रयोग करने का अधिकार होगा । कथित प्रयोजन के लिए बल का प्रयोग जितना आवश्यक अथवा युक्तियुक्त हो उसी रूप में न्यूनतम तौर पर किया जाना चाहिए। सामान्य तौर पर अतिक्रामक से पहले छोडने के लिए कहना चाहिए और यदि अतिक्रामक वापसी में लडाई करता है तो युक्तियुक्त बल का प्रयोग किया जा सकता है ।
आत्म रक्षा का अभिवचन स्थापित करने का भार अभियुक्त पर उतना अधिक दुर्भर नहीं होता है । जितना कि अभियोजन का होता है । अभियोजन को उसका मामला युक्ति-युक्त शंका से परे साबित करने की आवश्यक्ता होती है। जब कि अभियुक्त को सम्पूर्ण अभिवचन स्थापित करने की आवश्यक्ता नहीं है और आत्मरक्षा के अभिवचन के लिये आधार प्रदत्त करके संभावनाओं की मात्र बाहुल्यता स्थापित करके अपने भार का निवर्हन सिविल मामले की तरह किया जा सकता है। वह अभियोजन साक्षीगण के प्रति-परीक्षण में या बचाव साक्ष्य प्रस्तुत करके अपना अधिकार स्थापित कर सकता है ।
प्रत्येक प्रकरण के व्याप्त तथ्य एंव परिस्थितियों के आधार पर इस अधिकार का निर्वाचन किया जायेगा । इसके लिए काल्पनिक रूप से उपधारणा नहीं की जायेगी । न्यायालय को समस्त आस पास की परिस्थितियो को विचारण में लेना होगा । प्राइवेट अभिरक्षा के अधिकार के लिए यदि परिस्थितियॉ यह दर्शार्ती है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का वैध रूप से अनुप्रयोग किया गया है तो न्यायालय ऐसे अभिवचन का विचारण करने में स्वंतत्र होगी। यहां तक कि यदि अभियुक्त ने इसे नहीं उठाया है और अभिलेखगत सामग्री से यह प्रकट होता है तो न्यायालय उसे प्रदान करेगी ।
साक्ष्य अधिनियम की धारा 105 के अंतर्गत जो प्रायवेट प्रतिरक्षा का अभिवचन उठाता उस पर सबूत का भार होता है । न्यायालय द्वारा सबूत के अभाव में अभिवचन की सच्चाई की उपधारणा करना सभंव नहीं होता है । न्यायालय ऐसी परिस्थितियों के अभाव की उपधारणा करके चलता है । यदि अभियुक्त के द्वारा या तो स्वंय सकारात्मक साक्ष्य प्रस्तुत करके अथवा अभियोजन साक्षियों को प्रतिपरीक्षण में सुझाव देकर अथवा अभिलेख में उपलब्ध सामग्री के आधार पर अपने अधिकार की स्थापना की जा सकती है ।
जहां प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन किया जाता है तो प्रतिरक्षा युक्तियुक्त और संभाव्य वृतांत न्यायालय का समाधान करती हुई होना चाहिये कि अभियुक्त के द्वारा कारित अपहानि हमले को विफल करने के लिये या अभियुक्त की तरफ से आगामी युक्तियुक्त आंशका का आभास करने के लिये आवश्यक दर्शाने वाली होना चाहिए । आत्मरक्षा स्थापित करने का भार अभियुक्त पर होता है और भार अभिलेखगत सामग्री के आधार पर उस अभिवचन के हित में संभावनाओं की बाहुल्यता दर्शाने के द्वारा प्रकट किया जाता है ।
संहिता की धारा 100 से 101 शरीर के प्रायवेट प्रतिरक्षा की मात्रा को परिभाषित करती है । यदि किसी व्यक्ति को धारा 97 के तहत शरीर के प्रायवेट रक्षा का अधिकार प्राप्त है ,तो वह अधिकार मृत्यु कारित करने तक यदि युक्तियुक्त आंशका हो कि मृत्यु या घोर उपहति हमले का परिणाम होगी जो धारा 100 के अंतर्गत विस्तारित होता है।
यह व्यवस्थापित स्थिति है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा तब नहीं किया जा सकता, जब अभियुक्त गण आक्रामक होते हैं, विशेषकर जब परिवादी दल के सदस्यगण पूर्णतया शस्त्र विहिन होते है तब प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा नहीं किया जा सकता, क्योकि अभियुक्त आक्रामक की स्थिति में होता है ।
यह अवधारित करने के लिये कि कौन आक्रमक था। सुरक्षित मानदंड सर्वदा क्षतियों की संख्याऐ नहीं होती है । हमेशा यह नहीं माना जा सकता कि जब भी अभियुक्तों के शरीर पर क्षतियॉ पाई जाती है ,तो आवश्क रूप से उपधारणा की जानी चाहिये कि अभियुक्तो ने यह क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के अनुप्रयोग में कारित की थी । इसके लिए बचाव में आगे यह स्थापित किया जाना चाहिये कि अभियुक्तो पर इस प्रकार कारित क्षतियॉ प्रायवेट प्रतिरक्षा के वृतांत को संभावित करती है।
घटना के समय या झगड़े के अनुक्रम के बाबत अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियों का अस्पष्टीकरण अतिमहत्वपूर्ण परिस्थिति होती है । जो यह निर्धारित करती है किआरोपी के द्वारा बल प्रयोग शरीर सम्पत्ति की अभिरक्षा के अधिकार में किया गया है । अथवा उसके द्वारा आक्रमण किये जाने के फलस्वरूप दूसरे पक्ष के द्वारा प्रतिरक्षा किये जाने पर उसे चोट पहंुची है। अथवा जानबूझकर चोटो को छुपाया जा रहा है, ताकि अभिरक्षा के अधिकार का लाभ प्राप्त हो सके ।
हमेशा अभियोजन के द्वारा क्षतियों का मात्र अस्पष्टीकरण अभियोजन के लिए घातक नहीं होता है । यह सिद्वांत उन मामलों में लागू होता है। जहां अभियुक्तों द्वारा वहन की गई क्षतियॉ मामूली है, और उपरी तौर पर लगी हुई है या जहां साक्ष्य इतने अधिक स्पष्ट अकाटय, स्वतंत्र, हितवद्व नहीं है और इतने अधिक स्पष्ट, संभाव्य ,सुसगंत और विश्वास किये जाने योग्य हैं कि वे क्षतियों को स्पष्ट करने के लिये अभियोजन के लोप के प्रभाव को समाप्त कर देता है अर्थात जहां प्रत्यक्षदर्शी साक्ष्य उपलब्ध है ।
. प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अभिवचन को संदेह ओर कल्पनाओं पर आधारित नहीं किया जा सकता । यह विचारण करते समय कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को उपलव्ध है ,तो यह सुसंगत नहीं है कि क्या उसे आक्रमक पर घोर एंव घातक क्षति करने का अवसर मिला होगा ।यह पता करने के लिये कि क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार अभियुक्त को उपलव्ध है ,तो सम्पूर्ण घटना की सावधानी पूर्वक जांच की जाना चाहिये और उसकी उचित विरचना से उसे देखा जाना चाहिये ।
धारा 97 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के विषय वस्तु को व्यक्त करती है । जिसके अनुसार अधिकार का अभिवचन अधिकार का अनुप्रयोग करने वाले व्यक्ति के या किसी अन्य व्यक्ति के शरीर या संपति को समाविष्ट करता है,और इस अधिकार का अनुप्रयोग शरीर के विरूद्व किसी अपराध की दशा में किया जा सकेगा एंव चोरी, लूट, रिष्टि या आपराधिक अतिचार के अपराधों और संपत्ति के संबंध में ऐसे अपराधों के प्रयास की दशा में धारा-99 प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार की सीमाऐं प्रतिपादित करती है ।
संहिता की धारा 96 और 98 कतिपय अपराधों एंव कृत्यों के विरूद्व प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्रदत्त करती है । जो संहिता की धारा 100 से 106 तक, धारा 99 द्वारा नियंत्रित किये गये हैं ।
स्वेच्छयापूर्वक मृत्यु कारित करने तक विस्तारित प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का दावा करने के लिये अभियुक्त को यह अवश्य दर्शाना चाहिये कि या तो उसे मृत्यु या घोर उपहति कारित की जाएगी कि आंशका के लिये युक्तियुक्त आधारों को उत्पन्न प्रदत्त करते हुए परिस्थितियॉ अस्तित्ववान थी । यह दर्शाने का भार अभियुक्त पर है कि उसे प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार प्राप्त था जो मृत्यु कारित करने तक विस्तारित था।
संहिता की धारा 100 और 101 भा0दं0सं0 प्रायवेट प्रतिरक्षा की सीमा और मात्रा परिभाषित करती है। संहिता की धारा 102 और 105 भा0दं0सं0 शरीर और संपत्ति क्रमशः की प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के प्रारंभ और कायमता को व्यक्त करती है। अधिकार उस समय प्रारंभ होता है ज्यों ही शरीर पर अपराध कारित करने का प्रयास या धमकी से खतरे की युक्तियुक्त आशंका उत्पन्न होती है। यद्यपि अपराध नहीं किया होगा ,परन्तु उस समय तक नहीं जब युक्तियुक्त आंशका नहीं होती है। यह अधिकार तब तक बना रहता है जब तक शरीर को खतरे की युक्तियुक्त आंशका कायम रहती है ।
क्या प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार उपलव्ध है या नहीं यह पता करने के लिये की अभियुक्तों को कारित क्षतियॉ उसकी सुरक्षा को धमकी की आंशका, अभियुक्तों द्वारा कारित क्षतियॉ और परिस्थितियॉ कि क्या अभियुक्त के पास लोक प्राधिकारीगण के पास जाने का समय था और समस्त सुसंगत कारको को ध्यान में रखा जाना चाहिये ।
कोई व्यक्ति ,जो मृत्यु या शारीरिक क्षति की आशंका कर रहा है उस को उस क्षण में और परिस्थितियों की गर्मजोशी में हमलावरों ,जो हथियारों से लैस थे, को निशस्त्र करने के लिये अपेक्षित क्षतियों की संख्या में सुनहरे मापों में मापा नहीं जा सकता । उग्रता और बिगडा़ हुआ मानसिंक संतुलन के क्षण में पक्षकारगण से सब्र रखने की अपेक्षा करना अक्सर कठिन होता है एंव उसे आशंकित खतरे के समान रूप बदले में केवल उतना ही अधिक बल का प्रयोग करना की अपेक्षा करना कठिन होता है। जहां हमला बल का प्रयोग करने के द्वारा आसन्न है तो यह आत्मरक्षा में बल को दूर हटाने के लिये विधिपूर्ण होगा और प्रायवेट प्रतिरक्षा का अधिकार आसन्न बन जाता है । ऐसी स्थितियों को सकारात्मक रूप से देखा जाना चाहिये और उच्च शक्ति के चश्मों से नहीं या हल्की सी या मामूली सी गल्ती का पता लगाने के लिये दुरबीन से नहीं देखा जाना चहिये । अर्थात इसे माइक्रोस्कोप अथवा सोने की तरह तराजू से तोले जाने की आवश्यकता है ।
प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार में किये गये कार्य को प्राइवेट प्रतिरक्षा मे किया गया है । जानने के लिए अति तकनीकी दृष्टिकोण नहीं अपनाना चाहिये साधारण मानव प्रतिक्रिया एंव मानवीय आचरण को ध्यान में रखते हुये, जहां आत्मरक्षा सर्वोपरि है उस बिन्दु का ध्यान रखा जाना चाहिए।
प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार का अतिक्रमण किये जाने पर भा0द0सं0 की धारा-300 के अपवाद 2 को ध्यान में रखते हुए आरोपी के कार्य को हत्या न मानते हुए आपराधिक मानव वध मानते हुए दण्डादेश भा0द0सं0 की धारा 302 से भा0द0स0 की धारा-304 में परिवर्तित किया जा सकता है ।
इसके लिए आवश्यक है कि यदि अपराध, शरीर या सम्पतित की प्राइवेट प्रतिरक्षा के अधिकार को सद्भावपूर्वक प्रयोग में लाते हुए विधि द्वारा उसे दी गई शक्ति का अतिक्रमण कर दे और पूर्व चिन्तन बिना और ऐसी प्रतिरक्षा के प्रयोजन से जितनी अपहानि करना आवश्यक हो उससे अधिक अपहानि करने के किसी आशय के बिना उस व्यक्ति की मृत्यु कारित कर दे जिसके विरूद्ध वह प्रतिरक्षा का ऐसा अधिकार प्रयोग में ला रहा हो ।
प्रायवेट प्रतिरक्षा का ऐसा अधिकार धारा-101 भा0द0ंस0 के तहत शासित है और दो निर्बन्धनो के अध्यधीन है । एक यह है कि प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में किसी भी प्रकार की उपहति कारित की जा सकती है । परन्तु मृत्यु कारित नही की जा सकती और दूसरा यह है कि बल का उपयोग व्यक्ति जिसकी प्रतिरक्षा मे बल का उपयोग किया गया है को बचाने के लिए न्यूनतम अपेक्षित से अधिक नहीं है । क्षति पंहंुचाई जा सकती है । लेकिन यदि अधिकार का दुरूपयोग किया जाता है तो मामला धारा-300 के अपवाद 2 के अधीन आएगा, जिसके तहत इस आधार पर हत्या की कोटि में नहीं आने वाला मानव वध कि मृत्यु प्रायवेट प्रतिरक्षा के अधिकार के अनुप्रयोग में कारित की गयी थी। परन्तु उस अधिकार का अतिक्रमण करने के द्वारा इस प्रकृति का अपराध भा0द0सं0 की धारा- 304 के प्रथम भाग द्वारा दण्डनीय बनाया गया है ।
इस प्रकार प्रकृति द्वारा प्रदत्त निजी प्रतिरक्षा के मूल्यवान अधिकारो का सामाजिक प्रयोजन हेतु अर्थ निकाला जाना चाहिए। इसके निर्धारण के समय तकनीकि दृष्टीकोण न अपनाते हुए उस समय व्याप्त तथ्य परिस्थितियों के अनुसार निर्धारण किया जाना चाहिए। इसे अभिवचन किये जाने की आवश्यकता नहीं है । यदि अभिलेख इसे अभिव्यक्त करता है तो स्वमेव इसे न्यायालय द्वारा प्रदान किया जाना चाहिए ।
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