न्याय और न्याय की संकल्पना
ह म
समाज में रहते हैं। और हमेशा न्याय की बात करते हैं। यह न्याय क्या है!
क्या सत्य की ओर बढ़ना न्याय है! क्या सत्य की प्राप्ति न्याय है।
क्या सत्य की खोज करना न्याय है! क्या सत्य ही न्याय है! क्या जो
सभ्य समाज के लिए सही है वह न्याय है!
हम जंगल के बारे में जानते हैं कि जो जितना ताकतवर होता है, वह उतना ही जी पाता है। क्या यह जंगलराज न्यायोचित है। इसलिए क्या जंगलराज की समाप्ति न्याय है। इन सब को देखे तो न्याय हर समाज के दृष्टिकोण से उसकी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, गतिविधियों को देखते हु जो उस समाज के लिए सही है वही न्याय है।
एक आम आदमी संविधान के अनुरूप अपना जीवन जी सके वह न्याय है। सलिए केवल अपराधी को सजा देने से न्याय की प्राप्ति समाज को नहीं होती है। क्योंकि सजा से पीड़ित/पीड़िता को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता है। यदि पीड़ित को सजा से उसकी भरपायी होती है तब कहा जा सकत है कि न्याय हुआ है।
इसलिए हम न्यायविद् यह सोचते हैं कि केवल भारतीय दंड संहिता में दंडित करने से न्याय की पूर्ति होती है तो हम गलत है। न्याय की पूर्ति तब होती है जब हम भारत के संविधान की पूर्ति करते हैं। जब हम भारत के नागरिक को संविधान के अनुरूप सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करते हैं। और भारतीय होने का एहसास कराते हैं। उसे स्वतंत्र भारत का नागरिक होने का गौरव प्रदान करते हैं। तब हम न्याय प्रदान करते हैं।
इसलिए हमें यह देखना होगा ,समझना होगा कि न्याय क्या है! जब हम भारत के संविधान पर चलते हुए आम आदमी को स्वराज का एहसास कराऐंगे तब ही हम पाएंगे कि न्याय हुआ है। बिना स्वराज के हम भी न्याय का अहसास नहीं कर पाते हैं। इसलिए भारतीय संविधान के अनुसार चलते हुए स्वराज का अहसास कराना ही उसकी अनुभूति है। सही भारत की अनुभूति है। आजाद होने की अनुभूति है, जो भारत के न्यायालय प्रदान कर सकते हैं।
यदि हम अपना कर्त्तव्य संविधान के अनुसार निभाएं तभी न्याय की प्राप्ति आम आदमी को सकती है। यदि केवल दंड प्रक्रिया संहिता, सिविल प्रक्रिया संहिता भारतीय दंड संहिता आदि के अनुसार चला जाए तो लोगों को केवल सहायता प्राप्त होती है। अपराधी को उसके कार्य की सजा मिलती है और पीड़ित को केवल अपराध ग्रस्त होने का अहसास मिलता है।
आज देश में लाखों मुकदमे ऐसे निपट जाते हैं कि पीड़ित को पता ही नहीं चलता कि उसके केस में क्या हुआ। उसके भाई की टक्कर मारकर मृत्यु कारित करने वाला ड्रायवर कहाँ है! उसके हाथ-पैर तोड़ने वाले अभी भी पहले जैसे अन्य की ठुकाई कर रहे है। उसके केस में गवाही देने के बाद क्या यह बच जाएगा। आदि बातें आम आदमी के दिमाग में घूमती रहती है। और वह न्याय के खौफ से इतना घबराया रहता है कि खुद न्याय परिसर में प्रवेश करके अपने केस का हाल जानना नहीं चाहता है। पहले दो तीन बार के चक्कर के बाद जब उसकी गवाही होती है और गवाही में जब उसे पता चलता है कि पुलिस ने बिना पूछे उसके धारा 161 के कथन दर्ज कर लिए और पता नहीं क्या-क्या अपने मन से पुलिस ने लिख लिया है जिसका स्पष्टीकरण प्रति परीक्षण में देते-देते उसका गला सूख जाता है। दिमाग काम करना बंद कर देता है। सारी शिक्षा, अनुभव, तर्जुबा, उस पुलिस अफसर के सामने हार मान जाता है और फिर वह पुनः न्याय प्राप्ति की व अन्य को न्याय दिलाने लड़ने की उसकी हिम्मत खो जाती है। तब ऐसे थके हारे व्यक्ति के बयान पर शक करते हैं। जो वास्तव में न्याय होता नहीं है न्याय का दिखावा मात्र होता है।
इसलिए वास्तव में न्याय क्या है यह जानना बहुत जरूरी है जिसकी खोज हम आम आदमी के स्वराज के अहसास में कर सकते हैं।
बलात्कार के मामले में पीड़ित को क्या न्याय मिलता है। अपराधी जेल चला जाता है। पीड़ित समाज में तिरस्कार झेलती है। यदि गर्भ ठहर जाता है तो उसके बच्चे को पालती है,गर्भपात नहीं कराती तो उसके बाप को अपराधी नाम देती है। तब उसे क्या होता है इसका कोई जवाब नहीं है इसलिए अधिकतर मामले में रिपोर्ट नहीं होती है।
एक आम आदमी को जिसकी पहुंच भारत के न्यायालयों तक नहीं है उसे भारतीय संविधान की आत्मा मौलिक अधिकारों को प्राप्त करना न्याय है। यह नहीं है कि शक्ति के आधार पर न्यायालय में पहुंचकर धनबल से न्याय की पहल कर न्याय प्राप्त करने पर ही न्याय मिले । यदि देश के सबसे निम्नतर वर्ग को बिना किसी परिश्रम के न्याय मिलता है तभी हम न्याय प्रदत्त करने की बात कर सकते हैं।
हम जंगल के बारे में जानते हैं कि जो जितना ताकतवर होता है, वह उतना ही जी पाता है। क्या यह जंगलराज न्यायोचित है। इसलिए क्या जंगलराज की समाप्ति न्याय है। इन सब को देखे तो न्याय हर समाज के दृष्टिकोण से उसकी आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, गतिविधियों को देखते हु जो उस समाज के लिए सही है वही न्याय है।
एक आम आदमी संविधान के अनुरूप अपना जीवन जी सके वह न्याय है। सलिए केवल अपराधी को सजा देने से न्याय की प्राप्ति समाज को नहीं होती है। क्योंकि सजा से पीड़ित/पीड़िता को कोई लाभ प्राप्त नहीं होता है। यदि पीड़ित को सजा से उसकी भरपायी होती है तब कहा जा सकत है कि न्याय हुआ है।
इसलिए हम न्यायविद् यह सोचते हैं कि केवल भारतीय दंड संहिता में दंडित करने से न्याय की पूर्ति होती है तो हम गलत है। न्याय की पूर्ति तब होती है जब हम भारत के संविधान की पूर्ति करते हैं। जब हम भारत के नागरिक को संविधान के अनुरूप सामाजिक,आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करते हैं। और भारतीय होने का एहसास कराते हैं। उसे स्वतंत्र भारत का नागरिक होने का गौरव प्रदान करते हैं। तब हम न्याय प्रदान करते हैं।
इसलिए हमें यह देखना होगा ,समझना होगा कि न्याय क्या है! जब हम भारत के संविधान पर चलते हुए आम आदमी को स्वराज का एहसास कराऐंगे तब ही हम पाएंगे कि न्याय हुआ है। बिना स्वराज के हम भी न्याय का अहसास नहीं कर पाते हैं। इसलिए भारतीय संविधान के अनुसार चलते हुए स्वराज का अहसास कराना ही उसकी अनुभूति है। सही भारत की अनुभूति है। आजाद होने की अनुभूति है, जो भारत के न्यायालय प्रदान कर सकते हैं।
यदि हम अपना कर्त्तव्य संविधान के अनुसार निभाएं तभी न्याय की प्राप्ति आम आदमी को सकती है। यदि केवल दंड प्रक्रिया संहिता, सिविल प्रक्रिया संहिता भारतीय दंड संहिता आदि के अनुसार चला जाए तो लोगों को केवल सहायता प्राप्त होती है। अपराधी को उसके कार्य की सजा मिलती है और पीड़ित को केवल अपराध ग्रस्त होने का अहसास मिलता है।
आज देश में लाखों मुकदमे ऐसे निपट जाते हैं कि पीड़ित को पता ही नहीं चलता कि उसके केस में क्या हुआ। उसके भाई की टक्कर मारकर मृत्यु कारित करने वाला ड्रायवर कहाँ है! उसके हाथ-पैर तोड़ने वाले अभी भी पहले जैसे अन्य की ठुकाई कर रहे है। उसके केस में गवाही देने के बाद क्या यह बच जाएगा। आदि बातें आम आदमी के दिमाग में घूमती रहती है। और वह न्याय के खौफ से इतना घबराया रहता है कि खुद न्याय परिसर में प्रवेश करके अपने केस का हाल जानना नहीं चाहता है। पहले दो तीन बार के चक्कर के बाद जब उसकी गवाही होती है और गवाही में जब उसे पता चलता है कि पुलिस ने बिना पूछे उसके धारा 161 के कथन दर्ज कर लिए और पता नहीं क्या-क्या अपने मन से पुलिस ने लिख लिया है जिसका स्पष्टीकरण प्रति परीक्षण में देते-देते उसका गला सूख जाता है। दिमाग काम करना बंद कर देता है। सारी शिक्षा, अनुभव, तर्जुबा, उस पुलिस अफसर के सामने हार मान जाता है और फिर वह पुनः न्याय प्राप्ति की व अन्य को न्याय दिलाने लड़ने की उसकी हिम्मत खो जाती है। तब ऐसे थके हारे व्यक्ति के बयान पर शक करते हैं। जो वास्तव में न्याय होता नहीं है न्याय का दिखावा मात्र होता है।
इसलिए वास्तव में न्याय क्या है यह जानना बहुत जरूरी है जिसकी खोज हम आम आदमी के स्वराज के अहसास में कर सकते हैं।
बलात्कार के मामले में पीड़ित को क्या न्याय मिलता है। अपराधी जेल चला जाता है। पीड़ित समाज में तिरस्कार झेलती है। यदि गर्भ ठहर जाता है तो उसके बच्चे को पालती है,गर्भपात नहीं कराती तो उसके बाप को अपराधी नाम देती है। तब उसे क्या होता है इसका कोई जवाब नहीं है इसलिए अधिकतर मामले में रिपोर्ट नहीं होती है।
एक आम आदमी को जिसकी पहुंच भारत के न्यायालयों तक नहीं है उसे भारतीय संविधान की आत्मा मौलिक अधिकारों को प्राप्त करना न्याय है। यह नहीं है कि शक्ति के आधार पर न्यायालय में पहुंचकर धनबल से न्याय की पहल कर न्याय प्राप्त करने पर ही न्याय मिले । यदि देश के सबसे निम्नतर वर्ग को बिना किसी परिश्रम के न्याय मिलता है तभी हम न्याय प्रदत्त करने की बात कर सकते हैं।
भारत में भारतीय संविधान की
उददेशिका का पालन ही न्याय है। यदि भारत का नागरिक भारत की उद्देशिका की
अनुभूति करता है तो माना जाता है कि उसे न्याय प्राप्त हुआ है।
हमारे संविधान के अनुसार हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाना चाहते हैं। तथा भरत के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करना चाहते हैं। भारत के नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति,विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। और प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करते हैं। तथा उनके मध्य राष्ट की एकता और अखंडता के लिए बंधुता बढ़े इसके लिए कार्य करते हैं। तब हम सामाजिक न्याय/आर्थिक न्याय/राजनैतिक न्याय/देने की बात करते हैं। इसके साथ साथ हम भारत के नागरिकों को व्यक्ति होने की गरिमा प्रदान करते हैं।
इस प्रकार हमारा संविधान केवल आपराधिक न्याय ही नही बल्कि सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय राजनैतिक न्याय व्यापार व्यवसाय की स्वतत्रता का न्याय और मनुष्य का जीवन जीने का न्याय प्रदान करने की बात मूल अधिकारों में कही है जो हम प्रदान नहीं कर पाते हैं।
हमारे संविधान के अनुसार हम भारत के लोग भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्वसंपन्न समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाना चाहते हैं। तथा भरत के नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय प्रदान करना चाहते हैं। भारत के नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति,विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्रदान करते हैं। और प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्रदान करते हैं। तथा उनके मध्य राष्ट की एकता और अखंडता के लिए बंधुता बढ़े इसके लिए कार्य करते हैं। तब हम सामाजिक न्याय/आर्थिक न्याय/राजनैतिक न्याय/देने की बात करते हैं। इसके साथ साथ हम भारत के नागरिकों को व्यक्ति होने की गरिमा प्रदान करते हैं।
इस प्रकार हमारा संविधान केवल आपराधिक न्याय ही नही बल्कि सामाजिक न्याय, आर्थिक न्याय राजनैतिक न्याय व्यापार व्यवसाय की स्वतत्रता का न्याय और मनुष्य का जीवन जीने का न्याय प्रदान करने की बात मूल अधिकारों में कही है जो हम प्रदान नहीं कर पाते हैं।
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