भारतीय दंड संहिता की धारा 306 विधिक प्रतिपादनाऐं


    ‘‘1-  किसी अभियुक्त को भारतीय दंड संहिता की धारा 306 के अधीन अपराध का दोषी ठहराने के लिये न्यायालय को मामले के तथ्यो और परिस्थ्तिियों की अति साबधानी पूर्वक परीक्षा करनी चाहिये और उसके समक्ष प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का भी यह निष्कर्ष निकालने के लिये अवधारणा करना चाहिये कि क्या विपदग्रस्त के साथ्ळा की गई क्रूरता ओर तंग करने के कारण उसके पास अपने जीवन का अंत करने के सिवाये कोई अन्य विकल्प नहीं वचा था । यह बात भी ध्यान में रचानी चाहिये कि अभिकथित आत्महत्या दुष्प्रेरण के मामलो में आत्महत्या करने के लिये उकसाने के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये ।घटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसी ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया का अभाव होने के कारण भ0दं0वि0 की धारा 306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्वी कायम रखने योग्य नहीं है


 अमलेन्दु पाल उर्फ झंटू बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य
ए.आईआर.2010 एस.सी.-512- 2009
 ए.आई.आर.एस.सी.डव्लू. 7070



 ‘‘2-    किसी मामले को भारतीय दंड संहिता की धार 306 की परिधि के अंतर्गत आने के लिये मामला आत्महत्या का होना चाहिये और उक्त अपरध कारित करने में उस व्यक्ति जिसने कथित रूप से आत्महत्याकरने के लिये दुष्प्रेरित किया था ,द्वारा उकसाहट के किसी कार्य द्वारा या आत्महत्या करने के कार्य को सुकर बनाने के लिये कतिपय कार्य करके सक्रिय भूमिका अदा की जानी चाहिये , इसलिये उक्त अपराध से आरोपित व्यक्ति को भा0दंवि0 की धारा 306 के अधीन दोषसिद्व करने से पूर्व अभियोजन पक्ष द्वारा उस व्यक्ति द्वारा किये गये दुष्प्रेरण के कार्य को साबित और सिद्व किया जाना आवश्यक है

‘‘3-    रणधीर सिंह बनाम पंजाब राज्य- वाले मामले में मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने भारतीय दंड संहिता की धारा 306 से संबंधित विधिक स्थिति को दोहराया हे जो कि पैरा-12 ओर 13 में विस्तार से स्थापित हे । पेरा 12 और 13 इसप्रकार है:-
    ‘‘ दुष्पेरण किसी व्यक्ति को उकसाने या जानवूझकर कोई कार्य करने में सहायता करने की एक मानसिंक प्रक्रिया  है । षडयंत्र के मामलों में भी उस कार्य को करने के लिये षडयंत्र करने की मानसिंक प्रक्रिया अंतर्वलित होती हे । इससे पूर्व कि यह कहा जा सके कि भा0दं0सं0 की धारा 306 के अधीन दुष्प्रेरित करने का अपराध किया गया है,ऐसी अत्यधिक सक्रिय भूमिका होनी अपेक्षित है जिसे उकसाने या किसी कार्य को करने में सहायता करने के रूप में बर्णित किया जासके ।
  2004-13 एस.सी.सी. 120- ए.आई.आर. 2004 एस.सी. 5097- 2004 ए.आई.आर. एस.सी.डव्लू 5832


4-    पश्चिमी बंगाल राज्य बनाम उड़ीलाल जायसवाल 1994 1-एस.सी.सी. 73-ए.आई्र.आर.1994 एस.सी. 1418- 1994 क्रिमी.लॉ जनरल 2104
वाले  मामले में इस न्यायालय ने यह मत व्यकत किया है कि न्यायालयों को यह निष्कर्ष निकालने के प्रयोजन के लिये कि क्या मृतिका के साथ की गई क्रूरता ने ही वास्तव में उसे आत्महत्या करके जीवन का अंत करने के लिये उत्प्रेरित किया था प्रत्येक मामले के तथ्यों और परिस्थितियों तथा विचारण में प्रस्तुत किये गये साक्ष्य का अवधारणा करने में अत्यधिक सावधान रहना चाहिये ,यदि न्यायालय को यह प्रतीत होता है कि आत्महत्या करने वाला विपदग्रस्त घरेलू जीवन में  ऐसी सामान्य चिड़चिड़ी बातो, कलह ओर मतभेदो के प्रति अति संवेदनशील था जो उस समाज के लिये एक सामान्य बात हे जिसमें विपदग्रस्त रहता हे ओर ऐसे चिड़चिड़ेपन, कलह और मतभेदो में उस समाज में के किसी व्यक्ति से उसी प्रकार की परिस्थितियों में आत्महत्या करने की प्रत्याशा नहीं थी, तब न्यायालय की अंतश्चेतना का यह निष्कर्ष निकालने के लिये समाधान नहीं  होना चाहिये कि आत्महत्या के अपराध के दुष्प्रेरण के आरोपी अभियुक्त को दोषी ठहराया जाये । ‘‘

5-    मान्नीय उच्चतम न्यायालय के उपर उदघृत निर्णयों का परिशीलन करने पर यह बात ध्यान में रखी जानी आवश्यक है कि अभिकथित आत्महत्या के दुष्प्रेरण के मामलों मे आत्महत्या करने के लिये उकसाने का प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कार्यो का सबूत होना चाहिये । घटनाघटने के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से किसर ऐसे सकारात्मक कार्य, जिसने व्यक्ति को आत्महत्या करने के लिये बाध्य किया ,काअभाव होने  के कारण भा0 दं0सं. की धारा306 के निबंधनो में की गई दोषसिद्वी कायम रखने योग्य नहीं है । इसलिये अपेक्षित यह हैकि जब तकघटना के सन्निकट समय पर अभियुक्त की और से कियागया कोई ऐसा सकारात्क कार्य नहीं है  जिसने आत्म हत्या करने वाले व्यक्ति को आत्महत्याकरने  के लिये बाध्य किया , धारा 306 के अधीन दोषसिद्वी कायम रखने योग्य नहीं है ।


           






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