दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति

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1.. दुष्प्रेरण की विधिक स्थिति पर दृष्टिपात करना आवष्यक है, जिसे ’संहिता’ की धारा 306 एवं 107 में प्रतिपादित एवं इंगित किया गया है। उक्त प्रावधानों के अनुसार आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उद्धृत करने या ऐसा करने के लिये सहायता करने से है,
 संदर्भ:- महावीर सिंह आदि विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1987 जे.एल.जे. 645.
 उक्त परिप्रेक्ष्य में यह देखना होगा कि क्या वर्तमान  अभियुक्तगण  आत्महत्या करने के लिये प्रोत्साहित या उद्धृत किया अथवा ऐसा करने में उसकी प्रत्यक्ष या परोक्ष सहायता की अथवा इस हेतु कोई षडयंत्र किया ?

2...         पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
 न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है।

3.. न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहा अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। 

4...न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।
5....न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया।

6...... न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।

7.....        न्याय दृष्टांत महावीर सिंह आदि विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1987 जे.एल.जे.-645  यह प्रतिपादित किया गया है कि आत्महत्या के लिये दुष्प्रेरण का तात्पर्य स्पष्ट प्रोत्साहन द्वारा ऐसा कृत्य करने के लिये उकसाने या ऐसा कृत्य करने के लिये सहायता करने से है।

8..... न्याय दृष्टांत पंचमसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1971 जे.एल.जे.शार्ट नोट 80 के मामले में अभियुक्त का प्रेम संबंध किसी महिला से चल रहा था जिसके कारण वह अपनी पत्नी के प्रति उदासीन रहता था तथा पत्नी ने स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली। मामले की परिस्थितियों में अभियुक्त के व्यवहार को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। 

9.....न्याय दृष्टांत तेजसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1985 करेन्ट क्रिमिनल लाॅ जजमेंट्स 201 के मामले में यह ठहराया गया कि मात्र इसलिये कि अभियुक्त का मृतक के साथ झगड़ा हुआ था, उक्त कृत्य को आत्महत्या का दुष्प्रेरण नहीं माना जा सकता है। 

10....न्याय दृष्टांत मध्यप्रदेष राज्य विरूद्ध रूपसिंह, 1991(2) एम.पी.जे.आर. शार्ट नोट 04 में जहाॅं अभियुक्त के द्वारा मारपीट करने के कारण मृतक ने आत्महत्या कर ली थी, यह प्रतिपादित किया गया है कि सामान्यतः किसी व्यक्ति को आत्महत्या के दुष्प्रेरण के अपराध के लिये केवल इस आधार पर दोषसिद्ध ठहराना कठिन होगा कि उसने आत्महत्या करने वाले व्यक्ति की मारपीट की तथा उसके कारण जिस व्यक्ति की मारपीट की गयी उसने आत्महत्या का रास्ता चुना, क्योंकि ऐसा करने पर अचंभित करने वाले परिणाम निकलेंगे। उदाहरण के तौर पर एक व्यक्ति केवल इसलिये भी आत्महत्या कर सकता है कि दूसरे व्यक्ति ने उसे धमकी दी है अथवा चांटा मारा है। 

12.        न्याय दृष्टांत दीपक बनाम म.प्र.राज्य, 1994 क्रिमिनल लाॅ जज. 677 के मामले में अभियुक्त, मृतिका के कमरे में अचानक घुस गया, उसको पकड़ लिया तथा उसके साथ संभोग करने की इच्छा प्रकट की जिसके लिये उस महिला ने इंकार कर दिया बाद में उस महिला ने बदनामी के डर से स्वयं पर मिट्टी का तेल छिड़ककर आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया। 

13...न्याय दृष्टांत दिनेषचंद्र विरूद्ध म.प्र.राज्य, 1988 (2) एम.पी.वी.नो. नोट 84 के मामले में मृतक ने यह कथन दिया था कि वह अपने पिता, भाई एवं भाभी के द्वारा परेषान किये जाने के कारण आत्महत्या कर रहा है लेकिन पिता, भाई एवं भाभी को आत्महत्या के दुष्प्रेरण का दोषी नहीं माना गया। 

14.....न्याय दृष्टांत राजलाल उर्फ कमलेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 1999(1) एम.पी.एल.जे. नोट 43 के मामले में अभियुक्त ने मृतक के साथ दुव्र्यवहार किया था तथा उसके प्रति कुछ अमर्यादित बातें कही थी जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली, लेकिन अभियुक्त के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।

15.        न्याय दृष्टांत अषोक कुमार सवादिया विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन. 2001(प्) नोट-93 में मृतक को अभियुक्तों द्वारा खुलेआम पीटा गया था तथा अपमानित किया गया था, जिसके कारण उसने आत्महत्या कर ली तथा यह पत्र भी छोड़ा कि अभियुक्तगण के द्वारा मारपीट किये जाने तथा अपमानित किये जाने के कारण वह आत्महत्या कर रहा है। इसके बावजूद अभियुक्तगण के कृत्य को आत्महत्या के दुष्प्रेरण की परिधि में नहीं माना गया।








एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-

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एल0पी0जी0 अत्यावशयक वस्तुअधिनियम मे आता है-

                             ’पेट्रोलियम प्रोडक्ट्स सप्लाय एण्ड डिस्ट्रीब्यूशन आर्डर 1972, जो अत्यावश्यक वस्तु अधिनियम 1955 की धारा 3 के अंतर्गत प्रदत्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए, केन्द्रीय शासन द्वारा जारी किये गये है,  में एलपीजी गैस को अत्यावश्यक वस्तु की श्रेणी में रखा गया है ।
 न्याय दृष्टांत सुभाषचन्द्र गोयल विरूद्व उत्तरप्रदेश राज्य 1984 इलाहाबाद लाॅ जनरल 711
 में भी एल.पी.जी. को अत्यावश्यक वस्तु माना गया है ।

द0प्र0सं0 311

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                    द0प्र0सं0 311
                           न्याय दृष्टांत जाहिरा हबीबुल्ला विरूद्ध गुजरात राज्य (2004) 4 एस.सी.सी.-158 में अभिनिर्धारित किया गया है कि दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 311 के प्रावधान किसी पक्ष को यह अधिकार नहीं देते हैं कि वे किसी साक्षी को परीक्षण, पुनः परीक्षण या प्रतिपरीक्षण हेतु बुलाये, अपितु यह शक्ति न्यायालय को इस उद्देष्य से दी गयी है ताकि न्याय के हनन को तथा समाज एवं पक्षकारों को होने वाली अपूर्णीय क्षति को रोका जा सके, इन प्रावधानों का उपयोग केवल तभी किया जाना चाहिये जब न्यायालय मामले के सम्यक् निर्णयन हेतु तथ्यों के प्रमाण की आवष्यकता महसूस करे।

’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास

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          धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’

       ’प्रयत्न’ का विधि एवं तथ्यों से गठन होता है। जो प्रकरण में विद्यमान परिस्थितियों पर निर्भर रहते हैं। धारा 307 में मानव वध का ’प्रयत्न’ स्थापित करने हेतु यह आवश्यक नहीं है कि आहत को ऐसी शारीरिक क्षति पहुॅचायी जाये जो उसकी मृत्यु कारित कर दे।

                 यह भी आवश्यक नहीं है कि ऐसी क्षति से प्रकृति के सामान्य अनुक्रम में आहत की मृत्यु संभव हो। विधि में केवल यह देखना होता है कि अभियुक्त की इच्छा का परिणाम उसका प्रत्यक्ष कृत्य है।
 संदर्भ:- भैयाराम मिंज विरूद्ध म.प्र.राज्य 2000(4) एम.पी.एच.टी. 437
        महाराष्ट्र राज्य विरूद्ध बलराम बामा पाटिल, ए.आई.आर 1983 सु.को. 305 में

                              ’संहिता’ की धारा 307 की परिधि एवं विस्तार पर विचार करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि धारा-307 के अंतर्गत दोष-सिद्धि को उचित ठहराने के लिये यह आवश्यक नहीं है कि ऐसी शारीरिक उपहति कारित की गयी हो जो मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। यद्यपि वास्तविक रूप से कारित उपहति की प्रकृति अभियुक्त के मंतव्य के बारे में विनिश्चय करने में पर्याप्त सहायक हो सकती है, लेकिन ऐसा मंतव्य अन्य परिस्थितियों के आधार पर भी तथा कतिपय मामलों में वास्तविक उपहति के संदर्भ के बिना भी विनिश्चय किया जा सकता है।

                 
              धारा-307 अभियुक्त के कृत्य तथा उसके परिणाम के बीच विभेद करती है तथा जहा तक आहत व्यक्ति का संबंध है, यद्यपि कृत्य से वैसा परिणाम नहीं निकला हो लेकिन फिर भी अभियुक्त इस धारा के अधीन दोषी हो सकता है।
 यह भी आवश्यक नहीं है कि पहुचायी गयी उपहति परिस्थितियों के सामान्य क्रम में आहत की मृत्यु कारित करने के लिये पर्याप्त हो। न्यायालय को वस्तुतः यह देखना है कि अभियुक्त का कृत्य उसके परिणाम से भिन्न क्या ’संहिता’ की धारा 300 में प्रावधित आशय अथवा ज्ञान की परिस्थितियों के साथ किया गया।




        ’संहिता’ की धारा-307 के अंतर्गत हत्या के प्रयास का अपराध गठित करने के लिये यह देखना आवश्यक है कि चोट की प्रकृति क्या थी, चोट कारित करने के लिये किस स्वरूप के हथियार का प्रयोग, कितने बल के साथ किया गया। घटना के समय प्र्रहारकर्ता ने अपना मनोउद्देश्य किस रूप से तथा किन शब्दों को प्रकट किया ? उसका वास्तविक उद्देश्य क्या था ? आघात के लिये आहत व्यक्ति के शरीर के किन अंगों को चुना गया ? आघात कितना प्रभावशाली था ? उक्त परिस्थितियों के आधार पर ही यह अभिनिर्धारित किया जा सकता है कि वास्तव में अभियुक्त का उद्देश्य हत्या कारित करना था अथवा नहीं
 संदर्भ:- म.प्र.राज्य बनाम रामदीन एवं पाच अन्य-1990, करेन्ट क्रिमिनल जजमेंट्स 228.


498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता

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498ए मे क्षेत्रिय अधिकारिता
1        न्याय दृष्टांत वाय. अब्राहम अजीथ विरूद्ध इंस्पेक्टर आफ पुलिस, 2004(8) एस.सी.सी.-10 के मामले मं 

माननीय शीर्षस्थ न्यायालय के द्वारा यह स्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया है कि क्षेत्रीय अधिकारिता के अभाव में भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498(ए) के अपराध के लिये न्यायालय द्वारा विचारण नहीं किया जा सकता है। इस मामले में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि यदि किसी न्यायालय की अधिकारिता के क्षेत्र में क्रूरता का कोई कृत्य ही घटित नहीं हुआ है तो ऐसे न्यायालय को विचारण की क्षेत्रीय अधिकारिता नहीं हो सकती हैै।

 न्याय दृष्टांत रमेष विरूद्ध तमिलनाडू राज्य, 2005(3) एस.सी.सी. 507 के मामले में इस विधिक स्थिति को पुनः दोहराया गया है।


2.        न्याय दृष्टांत गुरमीत सिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2006(1) एम.पी.एल.जे.-250 के मामले में भी वाय. अब्राहम अजीथ (पूर्वोक्त) का संदर्भ देते हुये इंदौर न्यायालय जहा कि अभियोग प्रस्तुत किया गया था, की क्षेत्रीय अधिकारिता को इस आधार पर प्रमाणित नहीं माना गया कि इंदौर न्यायालय की क्षेत्रीय अधिकारिता में अभियुक्तगण के द्वारा क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था।


3.            न्याय दृष्टांत तस्कीन अहमद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, आई.एल.आर.(2008) म.प्र.-29 वर्तमान मामले के लिये सर्वाधिक सुसंगत है। इस मामले में 8 व्यक्तियों के विरूद्ध अभियोग पत्र भोपाल न्यायालय में प्रस्तुत किया गया था, जबकि उनमें से 5 अभियुक्तों के द्वारा भोपाल न्यायालय की अधिकारिता के अंतर्गत क्रूर एवं प्रताड़नापूर्ण व्यवहार का कोई कृत्य किया जाना अभिकथित नहीं था। ऐसी स्थिति में यह ठहराया गया कि उनके विरूद्ध भोपाल न्यायालय को सुनवाई की अधिकारिता नहीं हो सकती है।

4. भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो:-

        उक्त क्रम में ’संहिता’ की धारा 498(क) के निर्वचन के संबंध में दो न्याय दृष्टांत सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं

। न्याय दृष्टांत भास्करलाल शर्मा विरूद्ध मोनिका 2009(प्प्) एस.सी.आर.-408 के मामले में विस्तृत विवेचना के पष्चात् यह अभिनिर्धारित किया गया है कि भौतिक या मानसिक क्रूरता इस प्रकृति की होनी चाहिये, जो महिला को आत्महत्या करने के लिये दुुष्प्रेरित करे अथवा उसके शरीर या स्वास्थ्य को खतरा उत्पन्न करें अथवा सम्पत्ति या मूल्यवान् प्रतिभूति की मांग पूरी करने के लिये या पूरी न किये जाने के कारण संबंधित महिला को तंग किया गया हो। उक्त मामले की कंडिका 52 इस क्रम में दृष्ट्व्य है, जिसमें यह ठहराया गया है कि सामान्य मारपीट की घटना ’संहिता’ के अंतर्गत किसी अन्य अपराध की परिधि में तो आ सकती है, लेकिन ’संहिता’ की धारा 498(क) की परिधि में लाने के लिये विनिर्दिष्ट स्थितिया पूरी की जानी चाहिये।

5. हर प्रताड़ना क्रूरता की परिधि में नहीं आएगी, उसके लिए धन की अवैधानिक मांग होना जरूरी है:-

        न्याय दृष्टांत आंध्रप्रदेष राज्य विरूद्ध मधुसूदनराव, जे.टी.-2008 (टवस.11) एस.सी.-454 भी इस संबंध मंे सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें यह ठहराया गया है कि प्रत्येक प्रकृति का प्रताड़नापूर्ण व्यवहार क्रूरता की परिधि में नहीं आयेगा तथा ऐसे व्यवहार को क्रूरता की परिधि में लाने के लिये आवष्यक है कि वह धन की अवैधानिक मांग से जुड़ा हुआ हो।










साक्षी की साक्ष्य

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                                               साक्षी की  साक्ष्य
1. पक्षविरोधी साक्षी  साक्ष्य
         खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, ए.आई.आर.-1991 (एस.सी.)-1853 के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय द्वारा प्रतिपादित किया गया है कि यह धारणा सही नहीं है अपितु ऐसे साक्षी की अभिसाक्ष्य को, जिसे अभियोजन के द्वारा पक्ष विरोधी घोषित कर दिया गया है, यांत्रिक रूप से रद्द करने के बजाय सावधानीपूर्वक विष्लेषण कर यह देखना आवष्यक है कि क्या उसका कोई हिस्सा विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य है।

2. साक्षी की साक्ष्य में आई भिन्नता या विरोधाभाष के कारण साक्षी की पूरी साक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता है:-

        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि साक्ष्य में व्याप्त ऐसी विसंगतियों और विरोधाभासों को जो वर्णनात्मक भिन्नता के कारण प्रकट हुये हैं या फिर अतिरंजनाओं के कारण आये हैं, उस स्थिति में सम्पूर्ण साक्ष्य को रद्द करने का आधार नहीं बनाया जाना चाहिये। जबकि आधारभूत कथा में सत्य का अंष मौजूद हो,
 संदर्भ:- भरवादा भोगिन भाई हिरजी भाई विरूद्ध गुजरात राज्य ए.आई.आर. 1983 एस.सी. 753.

3. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य को मात्र उसके हितबद्ध होने के कारण नकारा नहीं जा सकता है:-

         न्याय दृष्टांत हरिजन नारायण विरूद्ध स्टेट आॅफ आन्ध्रप्रदेष ए.आई.आर.-2003 एस.सी. -2851 यह विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर कि वह हितबद्ध है, यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता है।

4. हितबद्ध साक्षी की साक्ष्य यदि विश्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-

        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि हितबद्ध साक्षी की अभिसाक्ष्य यदि अंतर्निहित गुणवत्तापूर्ण तथा विष्वास योग्य है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि का निष्कर्ष निकालने में कोई अवैधानिकता नहीं है।
इस संबंध में न्याय दृष्टांत सरवन सिंह आदि विरूद्ध पंजाब राज्य, ए.आई.आर. 1976 (एस.सी.) 2304 एवं हरि कोबुला रेड्डी आदि विरूद्ध आंध्रप्रदेष राज्य, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 82 सुसंगत एवं अवलोकनीय हैं।

5. किसी साक्षी की साक्ष्य को मात्र इस कारण अस्वीकार नहंी किया जा सकता कि उसके समर्थन में किसी स्वतंत्र साक्षी की साक्ष्य नहीं कराई गई ।
        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि उसकी सम्पुष्टि के लिये स्वतंत्र साक्ष्य प्रस्तुत नहीं की गयी है।

 संदर्भ:- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, 1989 क्रि.ला.जर्नल पेज 88. ।
 जहा साक्षीगण की अभिसाक्ष्य अन्यथा विष्वास योग्य है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई त्रुटि नहीं मानी जा सकती है।

6. एकल विश्वसनीय साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, चाहे अभियोजन द्वारा प्रत्यक्षदर्शी साक्षी प्रस्तुत भी न किया हो:-
         लेकिन मात्र इस आधार पर कि प्रत्यक्षदर्षी साक्षी को प्रस्तुत नहीं किया गया,  साक्ष्य को यांत्रिक रूप से रद्द नहीं किया जा सकता। यदि उसकी साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण एवं विष्वसनीय है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि निर्धारित की जा सकती है, 
संदर्भ:- न्याय दृष्टांत लल्लू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य 2003 (3) एस.सी.सी.-401.

7. यदि घटना में आरोपी/अपीलार्थी को भी चोटें आई हों तो अभियोजन आरोपी को आई चोटों के संबंध में स्पष्टीकरण देना होगा:-
        यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि यदि अभियुक्त पक्ष को चोटें है जो अत्यंत छुद्र स्वरूप की नहीं है तो अभियोजन का यह दायित्व है कि वह यह स्पष्ट करें कि ये चोटें कैसे आई अन्यथा यह उपधारित किया जायेगा कि अभियोजन  घटना के स्वरूप और उद्गम को छिपा रहा है,
 संदर्भ लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263 ।

8. अभियोजन के लिए यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को आई प्रत्येक चोट का स्पष्टीकरण न्यायालय में दे, गंभीर चोट के संबध् में स्पष्टीकरण देना आवश्यक है लेकिन क्षुद्र और सतही चोटों के संबध् में स्पष्टीकरण देना आवश्यक नहीं है:

        अभियोजन पक्ष के द्वारा बचाव पक्ष की चोटां को स्पष्ट किये जाने के बारे में यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि अभियोजन के लिये यह जरूरी नहीं है कि वह बचाव पक्ष को कारित की गयी प्रत्येक चोट को न्यायालय के समक्ष स्पष्टीकृत करें। अभियोजन अभियुक्त पक्ष को आई क्षुद्र और सतही चोटों को स्पष्ट करने के लिये दायित्वाधीन नहीं है। , यदि चोटें गम्भीर हैं तो उन्हें स्पष्ट किया जाना आवष्यक है, संदर्भः- श्रीराम विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2004(1) जे.एल.जे.-256 (एस.सी.) एवं लक्ष्मीसिंह विरूद्ध बिहार राज्य, ए.आई.आर. 1976 एस.सी 2263


9. साक्ष्य मूल्यांकन के पश्चात् यदि उचित पाई गई, तो उसके आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है:-
        यदि उचित मूल्यांकन एवं विवेचना के बाद साक्ष्य गुणवत्तापूर्ण पाई गई है, तो उसके आधार पर अभिलिखित की गई दोष-सिद्धि को त्रुटिपूर्ण नहीं कहा जा सकता है,
 संदर्भ:- लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य (2003) 2 एस.सी.सी. 401

10. एक झंूठ, सब झंूठ का सिद्धांत दांडिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है:-
        यह विधिक स्थिति भी यहाॅं संदर्भ योग्य है कि ’’एक झूंठ सब झूंठ का सिद्धांत’’ दाण्डिक मामलों में प्रयोज्य नहीं है,
 संदर्भ:- जकी उर्फ सलवाराज विरूद्ध राज्य 2007 ब्तण् स्ण् श्रण् 1671 (एस.सी)।

11. किसी साक्षी की साक्ष्य को इस कारण अस्वीकार नहीं किया जा सकता है कि उसका समर्थन किसी स्वतंत्र स्त्रोत से नहंी किया गया:-
        यहा इस विधिक स्थिति का उल्लेख करना असंगत नहीं होगा कि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य को मात्र इस आधार पर यांत्रिक तरीके से अविष्वसनीय ठहराकर अस्वीकृत नहीं किया जा सकता है कि स्वतंत्र स्त्रोत से उसकी साक्ष्य की संपुष्टि नहीं है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत संपुष्टि का नियम सावधानी एवं प्रज्ञा का नियम है, विधि का नियम नहीं है। जहा किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य विष्लेषण एवं परीक्षण के पष्चात् विष्वसनीय है, वहा उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित करने में कोई अवैधानिकता नहीं हो सकती है।

 इस क्रम में न्याय दृष्टांत लालू मांझी विरूद्ध झारखण्ड राज्य, (2003) 2 एस.सी.सी.-401, उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध अनिल सिंह, ए.आई.आर. 1988 एस.सी. 1998 तथा वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में किये गये विधिक प्रतिपादन सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


12. विवाहिता के साथ प्रताड़ना के मामले में यह आवश्यक नहीं है कि उसे इस प्रकार प्रताडि़त किया जाए कि आसपास/पडौस के लोगों की जानकारी में आए, यह आवश्यक नहीं है कि अभियोजन आसपास/पडौस के लोगों को प्रताड़ना के संबध् में साक्ष्य हेतु प्रस्तुत करे:-

    यदि निकट संबंधी ही साक्षी के रूप में प्रस्तुत किए गए तो उनकी अभिसाक्ष्य को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मं, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।

        न्याय दृष्टांत पष्चिमी बंगाल राज्य विरूद्ध ओरीलाल जायसवाल, 1994 क्रिमिनल लाॅ जनरल 2104 (एस.सी.) में

 यह अभिनिर्धारण किया गया है कि सामान्यतः यह अपेक्षित नहीं है कि पति तथा उसके रिष्तेदारों द्वारा वधु के साथ प्रताड़नापूर्ण व्यवहार इस प्रकार किया जाये कि वो पड़ोसियों तथा आसपास रहने वाले किरायेदारों की जानकारी में आये, क्योंकि ऐसी स्थिति में पड़ोसी उन्हें असम्मान एवं अवमान की दृष्टि से देखेंगे अतः वधू के साथ ससुराल पक्ष द्वारा की जाने वाली प्रताड़ना के मामले में यह आवष्यक नहीं है कि अभियोजन पड़ोसियों तथा आसपास के लोगो को स्वतंत्र साक्षी के रूप में अपने मामले के समर्थन में न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत करें।
         उक्त मामले में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि पीडि़त  के निकट संबंधियों, जो अभियोजन में रूचि रखते हैं, की अभिसाक्ष्य को केवल इस आधार पर अस्वीकार नहीं किया जाना चाहिये कि स्वतंत्र साक्षियों से उसकी सम्पुष्टि नहीं हुयी है अपितु मामले के विषिष्ट तथ्यों  के आधार पर उसकी विष्वसनीयता के बारे में विनिष्चय किया जाना चाहिये क्योंकि क्रूरता के कृत्यों की जानकारी निकटस्थ संबंधियों, यथा मंा, भाई, बहन आदि को ही हो सकती है।

13. दांडिक मामलों में अभियोजन को अपना मामला युक्तियुक्त संदेह से परे प्रमाणित करने का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं है, यह प्रत्येक मामले के तथ्य व परिस्थिति पर निर्भर करता है:-

    उक्त मामले में गुरूवचनसिंह विरूद्ध सतपाल सिंह, ए.आई.आर. 1990 (सु.को.)209 का संदर्भ देते हुये यह भी प्रतिपादित किया गया हे कि दाण्डिक विचारण में अभियुक्त के विरूद्ध लगाये गये आरोपों को युक्तियुक्त संदेह के परे प्रमाणित किये जाने का कोई निष्चित मापदण्ड नहीं है तथा प्रत्येक मामले के तथ्यों, परिस्थितियों एवं साक्ष्य की गुणवत्ता के आधार पर निष्कर्ष निाकला जाना चाहिये

1. प्रथम सूचना रिपोर्ट में हुए विलंब के कारण पूरे मामले को अस्वीकार नहंी किया जा सकता है:-
         न्याय दृष्टान्त तारासिंह विस्द्ध पंजाब राज्य, 1991 (सप्लीमेंट) 1 एस.सी.सी.536 में यह अभिनिर्धारित किया गया कि प्रथम सूचना रिपोर्ट लेख कराने में हुआ विलम्ब अपने आप में अभियोजन के मामले को अस्वीकृत या अविष्वसनीय ठहराने का आधार नहीं बनाया जा सकता है तथा ऐसे मामलों में विलम्ब को स्पष्ट करने वाली परिस्थितियों पर विचार करना आवष्यक है।


15. साक्षियों के कथनों में आए महत्वहीन विरोधाभाष या विसंगति से न्यायालय को प्रभावित नहीं होना चाहिए बल्कि न्यायालय को यह देखना चाहिए कि उक्त विसंगति एवं विरोधाभाष का प्रभाव मूल प्रश्न पर तो नहीं पड़ता है ।

        साक्षियों के कथनों में व्याप्त विसंगतियों एवं उनके प्रभाव के संबंध में सुसंगत विधिक स्थिति भी इस संबंध में संदर्भ योग्य है. उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध जी.एस.मुर्थी, 1997 (1) एस.सी.सी. 272. में यह ठहराया गया है कि न्यायालय को मामले की विस्तृत अधिसंभावनाओं का परीक्षण करना चाहिये तथा क्षुद्र विरोधाभासों अथवा महत्वहीन विसंगतियों से प्रभावित नहीं होना चाहिये, जब तक विसंगतियंा मूल प्रष्न पर न हो, उनका दुष्प्रभाव साक्षी की साक्ष्य पर नही ंपड़ता है, क्योंकि यह सामान्य अनुभव है कि ऐसा कोई व्यक्ति संभवतः ईष्वर ने बनाया ही नहीं है जो एक घटना बाबत् विभिन्न समय पर समान विवरण दे सके, विभिन्नता ही स्वाभाविक है। छोटे-छोटे बिन्दुओं पर गौण फर्क जो प्रकरण के केन्द्र बिन्दु को प्रभावित नहीं करते हैंद्व उन्हें तूल देकर आधारभूत साक्ष्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता है

संदर्भ- उत्तरप्रदेष राज्य विरूद्ध एम.के.एन्थोनी 1985 करेन्ट क्रिमनल जजमेंट सु.को.18.

16. विधि फरियादी पक्ष को यह अनुमति नहीं देती है कि वह अपीलार्थी के शांतिपूर्ण कब्जे में उसे बलपूर्वक बेदखल करे, अपीलार्थी को अपने आधिपत्य की सुरक्षा का अधिकार प्राप्त है:-

विधि उन्हें इस बात की अनुमति नहीं देती है कि वे बलपूर्वक आपीलार्थीगण के शांतिपूर्ण कब्जे में हस्तक्षेप करें तथा विवादित भूमि से उनको बलपूर्वक बेदखल करे अतः उस सीमा तक अपने आधिपत्य की सुरक्षा करने का अधिकार उन्हें प्राप्त है। 
इस क्रम में न्याय दृष्टांत गंगाप्रसाद विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-(1) नोट-236 एवं गुड्डू उर्फ राकेष विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, एम.पी.डब्ल्यू.एन.-2001(1) नोट -34 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।
 जिनमं सम्पत्ति की प्रायवेट रक्षा के अधिकार के अस्तित्व होने की दषा मे ’संहिता’ की धारा 323/34 की दोष-सिद्धि को उचित नहीं ठहराया गया है।

17. यदि मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती तो उसे रदद नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दशा में मामले को अविश्वसनीय ठहरा सकते हैं जहां मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो:-

        न्याय दृष्टांत में ही संदर्भित माननीय सर्वोच्च न्यायालय न्याय दृष्टांत नागेन्द्र बाला विरूद्ध सुनीलचंद, ए.आई.आर. 1960 एस.सी.-706 में किये गये इस प्रतिपादन का संदर्भ आवष्यक है कि चिकित्सीय साक्ष्य एक अभिमत मात्र है तथा यदि मौखिक साक्ष्य अपने आप में स्पष्ट है तो मात्र इस आधार पर कि ऐसी मौखिक साक्ष्य चिकित्सीय साक्ष्य से मेल नहीं खाती है, उसे रद्द नहीं किया जा सकता है, केवल उसी दषा में मामले को अविष्सनीय ठहराया जा सकता है, जहा मौखिक साक्ष्य एवं चिकित्सीय साक्ष्य में पूर्ण विरोध विद्यमान हो।




18. एकल साक्ष्य के आधार पर भी दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, अगर वह  विसंगतिविहीन एवं विश्वास योग्य हो:-

निष्चय ही विधि का ऐसा कोई नियम नहीं है कि एकल साक्ष्य पर दोष-सिद्धि आधारित नहीं की जा सकती है, लेकिन ऐसा करने के लिये यह आवष्यक है कि एकल साक्षी की अभिसाक्ष्य ठोस, विसंगति विहीन एवं विष्वास योग्य हो। इस संबंध में
 न्याय दृष्टांत वादी वेलूथुआर विरूद्ध मद्रास राज्य, ए.आई.आर. 1957 एस.सी. 614 में प्रतिपादित विधिक स्थिति सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


20. यदि किसी साक्षी की साक्ष्य में घटना के संबध् में समर्थनकारक साक्ष्य है तो उसकी साक्ष्य में आई प्रकीण बिन्दुओं पर विसंगति के कारण पूरी साक्ष्य को नहीं नकारा जा सकता है:-

        विधिक स्थिति को दृष्टिगत रखते हुये कि यदि किसी साक्षी की अभिसाक्ष्य में आधारभूत घटनाक्रम के बारे में सत्य का अंष है तो उसे प्रकीर्ण बिन्दुओं पर आई विसंगतियों और विरोधाभासों के आधार पर रद्द नहीं किया जाना चाहिये, 
संदर्भ:- उत्तरप्रदेश राज्य विरूद्ध शंकर, ए.आई.आर. 1981 (एस.सी.) 897

21.अपीलार्थीगण/आरोपीगण की न्यायालय में पहचान के संबंध में:-

        विवेचना-क्रम में पहचान न कराये जाने के बाद न्यायालय में पहली बार की गयी पहचान कार्यवाही को सारभूत एवं महत्वपूर्ण साक्ष्य नहीं माना गया है, अपितु दुर्बल किस्म की साक्ष्य माना गया है। इस क्रम में न्याय दृष्टांत अफसर विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य, 2009(3) एम.पी.डब्ल्यू.एन.नोट-63 संदर्भ योग्य है,

 जिसमें बार-बार न्यायालय आने-जाने के बाद विचारण के दौरान साक्षी न्यायालय में द्वारा की गयी पहचान को महत्वहीन ठहराया गया।

24. पुलिस अधिकारी की साक्ष्य का अन्य साक्षियों की साक्ष्य की तरह ही मूल्यांकन किया जाना चाहिए तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोत से संपुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विश्वास नहीं किया जाएगा :-

        न्याय दृष्टांत करमजीत सिंह विरूद्ध राज्य, (2003) 5 एस.सी.सी. 291 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने यह स्पष्ट प्रतिपादन किया है कि पुलिस अधिकारी की अभिसासक्ष्य का मूल्यांकन भी उसी कसौटी पर किया जाना चाहिये, जिस कसौटी पर किसी दूसरे साक्षी की अभिसाक्ष्य का मूल्यांकन किया जाता है तथा ऐसा कोई विधिक सिद्धांत नहीं है कि स्वतंत्र स्त्रोंत से सम्पुष्टि के अभाव में ऐसी साक्ष्य पर विष्वास नहीं किया जायेगा।


27. पुलिस अधिकारी की एकल साक्ष्य, जो स्वतंत्र साक्ष्य से परिपुष्ट नहीं है, के आधार पर दोषसिद्धि स्थापित की जा सकती है, जबकि वह विश्वास योग्य हो:-

         विधि या प्रज्ञा का ऐसा कोई नियम नहीं है कि पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य स्वतंत्र संपुष्टि के बिना स्वीकार नहीं की जा सकती है, क्योंकि साक्ष्य अधिनियम की धारा 114 दृष्टांत ’ख’  के अंतर्गत ऐसी अपेक्षा केवल सह अपराधी की अभिसाक्ष्य के विषय में की गई है। न्यायालय यदि किसी विषिष्ट मामले में पुलिस अधिकारी की अभिसाक्ष्य को विष्वास योग्य एवं निर्भर किये जाने योग्य पाता है तो उसके आधार पर दोष-सिद्धि अभिलिखित किये जाने में कोई अवैधानिकता नहीं है। इस विधिक स्थिति के बारे में विद्वान विचारण मजिस्ट्रेट ने आलोच्य निर्णय में विभिन्न न्याय दृष्टांतों का संदर्भ देते हुये विधिक स्थिति का उचित विष्लेषण किया है।

 इस विधिक स्थिति के संबंध में न्याय दृष्टांत करमजीतसिंह विरूद्ध दिल्ली राज्य (2003)5 एस.सी.सी. 291 एवं नाथूसिंह विरूद्ध मध्यप्रदेष राज्य ए.आई.आर. 1973 एस.सी.2783 भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है।


अधिनियम’ की धारा 13(6)निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha 

                                          अधिनियम’ की धारा 13(6)

1..केवल कुमार शर्मा विरूद्ध सतीषचंद्र गोठी एवं एक अन्य, 11991 एम.पी.जे.आर. 404 में उक्त प्रावधानों का गहन विष्लेषण एवं विषद व्याख्या करते हुये यह अभिनिर्धारित किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13(6) के अंतर्गत निष्कासन के विरूद्ध प्रतिरक्षा समाप्त किये जाने पर धारा 12 के अध्याधीन उपलब्ध आधारों पर प्रतिवाद करने का प्रतिवादी का अधिकार समाप्त हो जाता है,

2 लेकिन ऐसी प्रतिरक्षा, जो धारा 12 की परिधि के बाहर है, प्रतिवादी/किरायेदार के द्वारा ली जा सकती है। साथ ही प्रतिवादी, वादी के साक्षियों का कूट परीक्षण कर सकता है, तर्क में भाग ले सकता है, लेकिन वह अपनी स्वयं की साक्ष्य न तो दे सकता है और न ही स्वयं के प्रकरण को सिद्ध कर सकता है।

3 मध्यप्रदेष साहसिक एवं खोजी संस्थान भोपाल विरूद्ध श्री आर.एस.बघेल, 2004(2) एम.पी.एच.टी.-19 एन.ओ.सी. में किया गया यह प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 दो भागों में है तथा बकाया किराये के आधार पर निष्कासन के विरूद्ध बचाव के लिये यह जरूरी है कि दोनों ही प्रावधानों का सम्यक् पालन किया जाये। 

4 देवेन्द्र चैधरी विरूद्ध वारसीलाल दुआ 2005(2) जे.एल.जे.-149 में इस संबंध में यह भी अभिनिर्धारित किया गया है कि यदि धारा 13 के प्रावधानों का निरंतर उल्लंघन किया जा रहा है और उसका कोई युक्तियुक्त कारण नहीं है तो उपलब्ध बचाव किरायेदार को प्राप्त नहीं होगा।


5.. तुलसीराम विरूद्ध राधाकिषन 1979(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-53(म.प्र.) 

6.... केदार नाथ विरूद्ध अर्जुनराम, 1983 एम.पी.डब्ल्यू.एन.-26 में यह विधिक प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम’ की धारा 13 को आकर्षित करने के लिये यह आवष्यक नहीं है कि प्रथमतः पक्षकारों के मध्य भवन स्वामी तथा किरायेदार के सम्बन्धों के विवाद को निराकृत किया जाये। यदि ’अधिनियम’ की धारा 12(1) के आधार पर निष्कासन चाहा गया है तो ’अधिनियम’ की धारा 13(1) के प्रावधानों की प्रयोज्यता इस आधार पर वर्जित नहीं हो जायेगी कि भवन स्वामी तथा भाड़ेदार के सम्बन्धों को स्वीकार नहीं किया गया है। मानाराम विरूद्ध ओमप्रकाष, 1990 जे.एल.जे. 19 भी अवलोकनीय है।

7..        सद्भाविक आवष्यकता के संबंध में जहाॅं तक विधिक स्थिति का संबंध है, ऐसी आवष्यकता का अर्थ ईमानदारीपूर्ण आवष्यकता से है। किसी किरायेदार को मकान मालिक की इच्छा मात्र के आधार पर निष्कासित नहीं किया जा सकता है तथा मकान मालिक का यह दायित्व है कि वह न्यायालय के समक्ष विष्वसनीय साक्ष्य द्वारा यह सिद्ध करे कि उसे न केवल मकान की आवष्यकता है बल्कि यह आवष्यकता वास्तविक एवं सद्भावनापूर्ण है, टी.बी.सरपटे वि. नेमीचंद, 1966 एम.पी.एल.जे. सु.को. 26 गोगाबाई वि. धनराज, 1990(2) वि.नो. 92।

8 अभिकथित आवष्यकता के बारे में न्यायालय को मामले के तथ्यांे एवं परिस्थितियों के आधार पर वस्तुपरक रूप से भवन स्वामी की मांग का मूल्यांकन करना चाहिये और कथित आवष्यकता की सद्भावना का निर्णय करना चाहिये,
संदर्भ:- ताहिर अली आदि विरूद्ध समद खाॅन, 1997 एम.पी.ए.सी.जे. 25. मान 8...षिवस्वरूप गुप्ता वि. डाॅ.महेषचंद गुप्ता, सिविल अपील क्र. 4166/99 निर्णय दिनाॅंकित 30.7.1999, जिसका संदर्भ न्याय दृष्टांत प्रेमकुमार वि. कन्हैयालाल (2000) (2) एम.पी.वी.नो. 4 में किया गया है, में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी द्वारा अनुभव की जा रही आवष्यकता, वास्तविक और ईमानदारी की इच्छा के परिणाम पर आधारित है, वहाॅं भूस्वामी निष्कासन की आज्ञप्ति प्राप्त करने का अधिकारी है तथा ऐसे मामले में न्यायाधीष को स्वयं को भू-स्वामी की स्थिति में रखकर यह पता लगाना चाहिये कि क्या आवष्यकता सद्भाविक, वास्तविक एवं ईमानदारीपूर्ण है। न्यायालय को ऐसे मामले में अपनी राय भवन स्वामी पर थोपने का प्रयास नहीं करना चाहिये। 

9.        न्याय दृष्टांत सरला आहूजा वि. यूनाईटेड इंडिया इंष्योरेंस कंपनी, 1998 (8) एस.सी.सी.119 में इस क्रम में यह भी प्रतिपादित किया गया है कि जहाॅं भवन स्वामी अपनी अभिकथित आवष्यकता के बारे में प्रथम दृष्ट्या मामला स्थापित करता है, वहाॅं उसके पक्ष में उसकी आवष्यकता के सद्भाविक होने की अवधारणा उत्पन्न हो जाती है तथा किरायेदार को भवन स्वामी पर अपनी यह राय थोपने का आधार नहीं रह जाता है कि भवन स्वामी अपने आप को अन्यत्र व्यवस्थित करे। 

10--न्याय दृष्टांत श्यामलाल विरूद्ध हजारीलाल, 2007(2) एम.पी.ए.सी.जे. 278 में किया गया यह विधिक प्रतिपादन भी सुसंगत एवं अवलोकनीय है कि सद्भाविक आवष्यकता का तथ्य महसूस की गई आवष्यकता के रूप में ईमानदार एवं सच्ची वांछा का परिणाम होना चाहिये न कि भवन खाली कराने का बहाना मात्र। पूर्वोक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में सद्भाविक आवष्यकता के बिन्दु पर वर्तमान मामले की तथ्यस्थिति पर विचार करना होगा।

11.        जहाॅं तक ’विवादित भवन’ में प्रत्यार्थी/वादी के स्वत्व की इंकारी के आधार पर ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन का अनुतोष प्रदान किये जाने का सम्बन्ध है, यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि व्युत्पन्न स्वत्व के मामले में प्रतिवादी द्वारा भवन स्वामी के स्वत्व से इंकार करना ’अधिनियम’ की धारा 12(1)(सी) के अंतर्गत निष्कासन के आधार को निर्मित नहीं कर सकता 

12 इस क्रम में न्याय दृष्टांत शीला बनाम फर्म प्रहलाद राय प्रेमप्रकाष, 2002(2) एम.पी.एच.टी. 232 सु.को., कौषल्या बाई बनाम विनोद कुमार, 1994 एम.पी.ए.सी.जे. 369, बजरंगलाल वर्मा विरूद्ध ज्ञासू बाई, 2004(4) एम.पी.एल.जे. 192 तथा देवसहायम विरूद्ध पी.सावित्रथमा (2005) 7 एस.सी.सी.-653 सुसंगत एवं अवलोकनीय है।

परिसीमा:-

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                                                          परिसीमा:-

1.......         गनपतराम शर्मा विरूद्ध गायत्री देवी ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 2017  के मामले में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय ने परिसीमा अधिनियम, 1963 के अनुच्छेद 66 की प्रयोज्यता का विष्लेषण करते हुये निर्णय की कण्डिका 22 एवं 23 में यह सुस्पष्ट अभिनिर्धारण किया है कि स्थावर सम्पत्ति के कब्जे के लिये जब वादी किसी समपहरण या शर्त भंग के कारण कब्जे का अधिकारी होने का अभिकथन कर रहा हो, वहाॅं परिसीमा काल ऐसे समपहरण के ज्ञान की तारीख से प्रारम्भ होगा


2---- रमती देवी विरूद्ध यूनियन आॅफ इंडिया, 1995(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. नोट-186 में माननीय शीर्षस्थ न्यायालय की त्रि-सदस्यीय पीठ के द्वारा यह सुस्पष्ट विधिक प्रतिपादन किया गया है कि विक्रय का पंजीकृत विलेख न्यायालय द्वारा समुचित घोषणा द्वारा रद्द अथवा शूनय घोषित किये जाने तक विधि मान्य रहता है तथा पक्षकारों पर आबद्धकर है।

3-- उक्त मामले में यह प्रतिपादन भी किया गया है कि परिसीमा अधिनियम के अनुच्छेद-59 के परिप्रेक्ष्य में रजिस्ट्रीकृत विक्रय विलेख रद्द कराने के लिये यदि वाद तीन वर्ष के अंदर संस्थित नहीं किया गया है तो ऐसा वाद समय बाधित है।

भागीदारी फर्म

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                              भागीदारी फर्म
1.....बाबूलाल बिरला विरूद्ध रामप्रकाष शर्मा आई.एल.आर. 2008 एम.पी. 2646
 मूल किरायेदार भागीदारी फर्म की न होकर मूल भवन स्वामी तथा एक अन्य व्यक्ति के मध्य थी तथा बाद मं विविच्छित रूप से भागीदार फर्म, जो निरंतर किराया अदा कर रही थी, सम्पत्ति अंतरण अधिनियम की धारा 111 जो पट्टा समाप्ति के विषय में है, के आधार पर किरायेदार बन गई।                                 
                    जहा भागीदार फर्म किरायेदार है तथा फर्म को प्रतिवादी के रूप में संयोजित नहीं किया गया है वहा निष्कासन का वाद उचित रूप से संधारणीय नहीं माना जायेगा।
2....लक्ष्मीबाई विरूद्ध रामलाल 1985 वीकली नोट-95 
 यदि सह किरायेदार को प्रतिवादी के रूप में संयोजित नहीं किया गया है तो निष्कासन वाद संधारणीय नहीं होगा।

वसीयत

                                                             वसीयत
1.     रानी पूर्णिमादेवी एवं एक अन्य विरूद्व नारायण देव अयांगर ‘ए0आई0आर0 1962 सु0को0 567 में यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतीय उत्तराधिकार अधिनियम 1925 की धारा 63 में वसीयत में अनुप्रमाणन के बारे में दिए गए उपबंधों के अनुसार वसीयत को प्रमाणित किया जाना चाहिए तथा यह प्रमाण भार वसीयत-ग्रहीता पर है
 एवं संदेहजनक परिस्थितियों के अभाव में वसीयतकर्ता की क्षमता एवं हस्ताक्षरों को प्रमाणित किया जाना पर्याप्त है

,लेकिन जहां संदेहकारक परिस्थितियां हैं वहां वसीयतकर्ता को न्यायालय में समाधानप्रद रूप से यह दर्षाना होगा कि वसीयत वास्तविक एवं स्वीकार किए जाने योग्य है। 

यदि वसीयत के संबंध में अनुचित प्रभाव,धोखा या दबाव के आक्षेप हैं, तो उसे साबित करने का भार ऐसे आक्षेप कर्ता पर होगा, 

लेकिन जहां ऐसे आक्षेप नहीं लगाए गए हैं,लेकिन परिस्थितियां संदेहजनक है वहां न्यायालय के विवेक की तुष्टि करते हुए वसीयतनामा को प्रमाणित किया जाना चाहिए।

 उक्त मामले में उन परिस्थितियों का संदर्भ भी किया गया है, जो संदेहकारक हो सकती हैं यथा-

1 वसीयतकर्ता के हस्ताक्षरों का संदिग्ध होना,
 2वसीयतकर्ता की मनःदषा अथवा स्वास्थ्य की स्थिति खराब होना,
 3वसीयत में सम्पत्ति अप्राकृतिक एवं अस्वाभाविक रूप से दिया जाना तथा
4वसीयत के अंतर्गत लाभ प्राप्त करने वाले व्यक्ति द्वारा वसीयत के निष्पादन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाना।
 2....... गुरूदयाल कौर विरूद्व करतार कौर ‘1998 (2)एम0पी0डब्यलू0एन0,नोट 87 सु0को0  

वैकल्पिक परिसर:- ’अधिनियम, 1961

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                                                              वैकल्पिक परिसर:-
1.         ’अधिनियम, 1961 की धारा 12(1)(प) प्रावधित करती है कि यदि किरायेदार ने कोई ऐसा स्थान, जो उसके निवास के लिये उपयुक्त है, बना लिया है, उसका खाली कब्जा प्राप्त कर लिया है अथवा उसे कोई स्थान आबंटित कर दिया गया है तो इस आधार पर भवन स्वामी निष्कासन का अनुतोष प्राप्त कर सकेगा।

2.         दामोदर विरूद्ध नानकदास 1987 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-79 में यह ठहराया गया है कि किरायेदार द्वारा निर्मित स्थान का निवास हेतु उपयुक्त होना सिद्ध किया जाना चाहिये। 

3.... माधोलाल विरूद्ध कन्हैयालाल 1980 एम.पी.आर.सी.जे. नोट 48 में यह प्रतिपादन किया गया है कि ’अधिनियम, 1961’ की धारा 12(1)(प) के लिये किरायेदार द्वारा प्राप्त किये गये स्थान का स्वरूप और उसका रिक्त आधिपत्य किरायेदार के पास होना भी प्रमाणित किया जाना चाहिये। 

4........... अब्दुल सत्तार विरूद्ध फुटेजा बाई 2004(1) एम.पी.ए.सी.जे.-47 के मामले में माननीय सर्वाेच्च न्यायालय के द्वारा यह अभिनिर्धारित किया गया है कि जिस व्यक्ति के द्वारा भवन का प्राप्त किया जाना अभिकथित है, वह प्रष्नगत समय पर किरायेदार होना चाहिये।   

5..............श्रीमती मोहिनी बधवार विरूद्ध रघुनंदन शरण ए.आई.आर. 1989 एस.सी. 1492 के मामले में किया गया यह विधिक प्रतिपादन महत्वपूर्ण है कि यदि किरायेदार ने एक बार भवन का रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लिया है लेकिन बाद में विक्रय अनुबंधपत्र निष्पादित कर उसे अंतरित कर दिया है तो भी वैकल्पिक परिसर प्राप्त किये जाने के आधार पर किरायेदार निष्कासन हेतु उत्तरदायी होगा।  वैकल्पिक परिसर का आधिपत्य एक बार मिल जाने के बाद उसे किरायेदार द्वारा स्वयं छोड़ दिये जाने की दषा मंे किरायेदार को किराया नियंत्रण अधिनियम के प्रावधानों का लाभ नहीं मिल सकता है।

6........ सच्चिदानंद गर्ग विरूद्ध गोविंदलाल जी महाराज 1981 एम.पी.आर.सी.जे. 142 में अधिनियम, 1961 की धारा 12(1)(प) के संदर्भ में यह ठहराया गया है कि यदि किरायादार रिक्त आधिपत्य अर्जित करता है तथा बाद में उसे विक्रय कर देता है तो उसे धारा 12 के अंतर्गत प्राप्त सुरक्षा समाप्त हो जाती है तथा तद्विषयक् प्रावधान कठोरता से विष्लेषित किये जाने चाहिये। 

7........ अहमद खान रज्जू खान विरूद्ध माइकेलनाथ 1971 एम.पी.एल.जे. पृष्ट 574 में यह ठहराया गया है कि अधिनियम की धारा 12(1)(प) के लिये यह आवष्यक नहीं है कि किरायेदार के पास रिक्त वैकल्पिक परिसर का आधिपत्य वाद संस्थित दिनाॅंक तक हो, एक बार यदि किरायेदार किसी भवन का रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लेता है तो उस दषा में उक्त आधार की आवष्यकता पूरी हो जाती है।

 8........ ज्ञानचंद जैन विरूद्ध श्रीमती पंछीबाई 1998 एम.पी.ए.सी.जे. 47 

9......... मांगीलाल विरूद्ध ओमप्रकाष 1979 एम.पी.आर.सी.जे नोट 57 भी संदर्भ योग्य है।
        जहाॅं तक किरायेदार द्वारा प्राप्त परिसर की निवास हेतु उपयुक्तता का प्रष्न है,
1.0........ गनपतराम शर्मा विरूद्ध श्रीमती गायत्री देव ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 2016  यह अभिकथित किया है कि यदि यह प्रमाणित कर दिया जाता है किरायेदार ने भवन बना लिया है या उसका रिक्त आधिपत्य प्राप्त कर लिया है या उसे भवन आबंटित हो गया है तो ऐसा भवन निवास के लिये उपयुक्त है या नहीं तथा वास्तव में उसे वैकल्पिक परिसर माना जा सकता है या नहीं, ये तथ्य किरायेदार के विषिष्ट ज्ञान में होने के कारण किरायेदार को ही प्रमाणित करने चाहिये।
        उक्त विधिक प्रतिपादनों के समवेत परिषीलन से यह विधिक स्थिति उभरकर सामने आती है कि

 किरायेदार द्वारा वैकल्पिक परिसर प्राप्त किये जाने की दषा में प्रथमतः ऐसा परिसर निवास हेतु उपयुक्त है या नहीं यह प्रमाण भार किरायेदार पर होगा।

 द्वितीयतः यदि किरायेदार वैकल्पिक उपयुक्त परिसर का आधिपत्य मिलने के बाद उसे विक्रय कर दिया है, किराये पर उठा देता है या

 अन्य किसी प्रकार से अंतरित कर देता है तो इस बात के बावजूद कि ऐसी कार्यवाही निष्कासन वाद संस्थिति के पूर्व कर दी गयी थी, 

किरायेदार को अधिनियम की धारा 12 के अंतर्गत प्राप्त सुरक्षा उपलब्ध नहीं होगी।

आदेष 41 नियम 27 (1)(ए)

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                                             आदेष 41 नियम 27 (1)(ए)
1.....दुर्गाप्रसाद विरूद्ध कलेक्टर, 1996 (5) एस.सी.सी. 618

2... उत्तर प्रदेश राज्य विरूद्ध अमरसिंह आदि, 1997 (1) एस.सी.सी. 734 

 राजस्व अभिलेखों में अथवा जमाबंदी पंजी में स्वत्व विषयक् की जाने वाली प्रविष्टिया मूलतः राजस्व संग्रह के उद्देश्य से की जाती है तथा न तो उनके आधार पर स्वत्व अर्जित किया जा सकता है और न ही ऐसी प्रविष्टिया स्वत्व का हरण कर सकती है अर्थात स्वत्व का अर्जन, अंतरण व  हरण संपत्ति अंतरण अधिनियम अथवा म.प्र.भू-राजस्व संहिता 1959 में विहित प्राविधानों  के अनुसार ही संभव है, अन्यथा नहीं ।

3....नेषनल इंष्योरेंस कंपनी विरूद्ध श्रीमती सूरज 1996(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 231 में यह प्रतिपादन किया गया है कि जहा महत्वपूर्ण प्रलेख पक्षकार की संवेदनाहीन उपेक्षा के कारण न्यायालय के समक्ष समय पर प्रस्तुत नहीं किये गये, वहा ऐसे प्रलेखों को साक्ष्य में ग्रहण कर ऐसी उपेक्षा को प्रोत्साहित नहीं करना चाहिये और न ही ऐसी दषा में अपीलार्थी को कमी दूर करना अनुज्ञात किया जा सकता है। 

4......लक्ष्मीनारायण विरूद्ध मोहरसिंह आदि 1989 जे.एल.जे. -271  जहा लोक प्रलेखों की प्रमाणित प्रतिया असावधानी के कारण विचारण न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत नहीं की गई, वहा अपील में उन्हें ग्रहण करने से इंकार करना उचित है।

5.......अषोक कुमार विरूद्ध लक्ष्मी किराना स्टोर 1996 (2) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 169 में मामले के तथ्यों एवं परिस्थितियों में ’निर्णायक प्रलेखों’ की प्रमाणित प्रतिलिपि को अभिलेख पर लिया जाना उचित माना गया।

6......रामगोपाल विरूद्ध एम.पी.एस.आर.टी.सी 1994(2) एम.पी.डब्ल्यू.एन.-165 में ऐसे सुसंगत दस्तावेजों को, जो विचारण न्यायालय में उपलब्ध नहीं थे, साक्ष्य में ग्रहण करने की अनुमति दी गई। 

7.....सुंदरबाई विरूद्ध मूलचंद अग्रवाल 1985 एम.पी.आर.सी.जे.-171 के मामले में यह ठहराया गया कि जब पूर्व में साक्ष्य की खोज नहीं हो सकी तथा साक्ष्य निर्णायक प्रकृति का है तब उसे ग्राह्य किया जा सकता है। 

8......विजय किराना स्टोर्स विरूद्ध मे.जनता कोल डिपो 1993(1) एम.पी.डब्ल्यू.एन. 206 में यह प्रतिपादित किया गया कि यदि सम्यक् प्रयासों के बावजूद प्रलेख प्रस्तुत नहीं किया जा सका है तो उसे आदेष 41 नियम 27 (1)(ए) के अंतर्गत ग्रहण किया जा सकता है। 

9......श्यामगोपाल बिंदाल विरूद्ध लैण्ड एक्यूजिषन अधिकारी ए.आई.आर. 2010 एस.सी. 690 में वादी की मृत्यु हो जाने के कारण स्वत्व संबंधी प्रमाण प्रस्तुत नहीं किये जा सके थे अतः अपील में उन्हें स्वीकार्य ठहराया गया।

        उक्त न्याय दृष्टांतों के परिप्रेक्ष्य में यह विधिक स्थिति उभरकर सामरने आती है कि सम्यक् तत्परता के बावजूद प्रलेख उपलब्ध न होने अथवा प्रष्नगत प्रलेख के निर्णायक स्वरूप का होने की दषा में ही उसे अपील के प्रक्रम पर साक्ष्य में ग्रहण किया जा सकता है।

प्रतिकूल आधिपत्य

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha  
                               प्रतिकूल आधिपत्य

 1........प्रतिकूल आधिपत्य से सम्बन्धित यह विधिक स्थिति ध्यान देने योग्य है कि प्रतिकूल आधिपत्य का दावा करने वाले व्यक्ति को यह प्रमाणित करना चाहिये कि वास्तविक स्वामी के विरूद्ध आधिपत्य स्वतंत्र स्वामी के रूप में प्रतिकूलतः दर्षाया गया।


 सहस्वामियों के मध्य सामान्यतया एक दूसरे के विरूद्ध प्रतिकूल आधिपत्य नहीं हो सकता है क्योंकि विभाजन न होने की दषा में प्रत्येक सहस्वामी द्वारा धारित आधिपत्य अन्य सहस्वामियों के लिये भी होता है। 


मात्र लम्बे समय तक एकल आधिपत्य प्रतिकूल आधिपत्य का परिचायक नहीं है। 

2...... नंदकिषोर विरूद्ध रमेषचंद्र एवं एक अन्य 2003(4) 
एम.पी.एच.टी.-114।
3....... अनूप सिंह आदि विरूद्ध शोभाजी 2002 राजस्व निर्णय 34
4... पी.लक्ष्मी रेड्डी विरूद्ध एल.लक्ष्मी रेडड्डी ए.आई.आर.1957 सुप्रीम
कोर्ट -314 


5..... दर्षनसिंह विरूद्ध गुज्जरसिंह 2002(1) ए.एन.जे.-सुप्रीम कोर्ट 370

 सहस्वामियों के बीच, स्पष्ट विरोधी आधिपत्य के दावे के साथ-साथ ’’वनेजमत’’ एवं एकल आधिपत्य का प्रमाण होना चाहिये क्योंकि उपधारणा यह है कि एक सहस्वामी का आधिपत्य दूसरे सहस्वामी का आधिपत्य है


7..........        जहा तक प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जन का प्रष्न है, प्रतिकूल आधिपत्य के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि संबंधित व्यक्ति ने खुले तौर पर सम्पत्ति के वास्तविक स्वामी के विरूद्ध अपने आपको स्वामी अभिकथित करते हुये अधिनियमित अवधि तक निरंतर सम्पत्ति का उपभोग किया। जहा आधिपत्य उक्त प्रकृति का नहीं है, वहादीर्घ अवधि का होने के बावजूद उसे प्रतिकूल आधिपत्य नहीं माना जा सकता है। 


8..... देवा विरूद्ध सज्जन कुमार (2003) 7 एस.सी.सी.-481,
 9वीरेन्द्र नाथ विरूद्ध मो.जमील, (2004) 6 एस.सी.सी.-140,
10... रामसिंह विरूद्ध रामचंद्र, 2004 राजस्व निर्णय-72
11...... टी.अंजनप्पा विरूद्ध सोमलिंगाप्पा (2006) 7 एस.सी.सी.-570 


        टी.अंजनप्पा  के मामले में यह प्रतिपादित किया गया है कि जहा प्रतिकूल आधिपत्य का दावा करने वाले को यही विदित नहीं है कि वास्तविक भू-स्वामी कौन है, वहा प्रतिकूल आधिपत्य का प्रष्न ही पैदा नहीं होता है।

      
12......        प्रतिकूल आधिपत्य के विषय में यह विधि सुस्थापित है कि प्रतिकूल आधिपत्य स्थापित करने के लिये स्पष्ट रूप से यह अभिवचन किया जाना चाहिये कि ऐसा आधिपत्य कब प्रारम्भ हुआ। मूल स्वामी के विरूद्ध खुले रूप से अधिनियमित अवधि तक निरंतर बेरोकटोक आधिपत्य स्थापित किये जाने की दषा में ही प्रतिकूल आधित्य के आधार पर स्वत्व का सृजन हो सकता है,
 13.... अन्ना साहेब विरूद्ध बलवंत ए.आई.आर.1995-एस.सी.-895 

14..... एम.सी. शर्मा विरूद्ध राजकुमारी शर्मा ए.आई.आर. 1996-एस.सी.-869.

 15....प्रतिकूल आधिपत्य के द्वारा स्वत्व अर्जन के लिये यह प्रमाणित किया जाना आवष्यक है कि आधिपत्य सजग, चैतन्य, वास्तविक स्वामी की जानकारी में तथा खुले तौर पर उसके स्वत्वों को चुनौती देते हुये किया गया। बिना यह जाने की वास्तव में जिस भूमि पर आधिपत्य है, वह भूमि किसके स्वत्व स्वामित्व की है, एक पक्ष का अचेतन आधिपत्य उसे ऐसी भूमि के संबंध में प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जन नहीं करा सकता है।


 16.. देवा विरूद्ध सज्जन कुमार, (2003) 7 एस.सी.सी. 481 सुसंगत एवं अवलोकनीय है, जिसमें प्रतिकूल आधिपत्य के आधार पर स्वत्व अर्जन की स्थिति के विषय में सुसंगत विधिक स्थिति का विस्तृत उल्लेख किया गया है।

व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अंतर्गत प्राड़ःन्याय

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                       व्यवहार प्रक्रिया संहिता  - प्राड़ःन्याय
1......व्यवहार प्रक्रिया संहिता की धारा 11 के अंतर्गत प्राड़ःन्याय का प्रभाव रखने के लिये प्रष्नगत निष्कर्ष ऐसा होना आवष्यक है जिसके बारे में विवाद विद्यमान था एवं जिसे उभय पक्ष की सुनवाई के बाद निराकृत किया गया। 


2... संजय कुमार पाण्डे विरूद्ध गुलबहार शेख ए.आई.आर.2004 एस.सी. 3354 में स्पष्ट रूप से यह अभिनिर्धारण किया है कि अधिनियम की धारा 5 के अंतर्गत संक्षिप्त स्वरूप के वाद का निराकरण किया जाता है क्योंकि ऐसे वाद में जाॅच का बिन्दु केवल आधिपत्य तथा विगत 6 माह में आधिपत्यच्युत किये जाने तक सीमित है तथा स्वत्व का विवाद ऐसे मामले में महत्वहीन है।


 अधिनियम की धारा 6(4) अपने आप में यह प्रावधित करती है कि यह धारा किसी व्यक्ति को स्वत्व के आधार पर आधिपत्य मांगने से प्रतिषिद्ध नहीं करेगी।
 3......... बिषाखा बाई विरूद्ध सीताबाई 1987(1) वीकली नोट 236 में इस आषय का स्पष्ट अभिनिर्धारण किया गया है कि धारा 6 के वाद में किया गया विनिष्चिय स्वत्व संबंधी वाद के लिये प्राड़ःन्याय का प्रभाव नहीं रखता है।


        उक्त विधिक स्थिति के प्रकाष में यह प्रकट है कि स्वत्व के आधार पर आधिपत्य के अनुतोष हेतु संस्थित  वाद अधिनियम की धारा 6 के अंतर्गत प्रस्तुत पूर्ववर्ती वाद के अंतिम निराकरण के बाबत् प्राड़ःन्याय के सिद्धांत से बाधित नहीं है।

अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

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अभियुक्त परीक्षण की उपयोगिता

                                       लालू महतो बनाम राज्य (2008-8 एस.सी.सी. 395) अजयसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (2009-1 उम.नि.पं. 8-(2007)-12 एस.सी.सी. 341 और विक्रम जीत सिंह बनाम पंजाब राज्य (2006)-13 एस.सी.सी. 306):- वाले मामले में सविस्तार प्रतिपादित किया गया है और उन पर चर्चा की गई है। 

    उच्चतम न्यायालय ने अजयसिंह बनाम महाराष्ट्र राज्य (उपरोक्त) वाले मामले में दिए गए विनिश्चय के पैरा-11, 12 और 13 में निम्नलिखित मताभिव्यक्ति की है:-

                                        इस धारा के अधीन परीक्षा किए जाने का उद्देश्य अभियुक्त को यह अवसर देना है, कि वह अपने विरूद्ध किए गए पक्ष कथन का स्पष्टीकरण दे सकें। अभियुक्त की निर्दाेषिता या दोषिता का निर्णय करने के लिये इस कथन पर विचार किया जा सकता है। यदि उन्मोचन का भार अभियुक्त पर हो, तब यह उस मामले के तथ्यों और परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि ऐसे कथन के आधार पर भार का उन्मोचन होता है या नहीं। 


                                                      उपधारा (10) (ख) में वर्णित ‘‘साधारणतया‘‘ शब्द से मामले से संबंधित सामान्य प्रकृति को सीमित नहीं होता है। अपितु इसका यह अर्थ है, कि प्रश्न साधारणतया संपूर्ण मामले से संबंधित होना चाहिए और वह मामले के किसी भी विशिष्ट भाग या भागों तक सीमित भी होना चाहिए। प्रश्न इस प्रकार विरचित किया जाना चाहिए, जिससे कि अभियुक्त यह जान सके कि उसे क्या स्पष्ट करना है, ऐसी कौन सही परिस्थितियाॅ हैं, जो उसके विरूद्ध हैं ओर जिनकी बाबत् स्पष्टीकरण दिया जाना उसके लिये आवश्यक है। इस धारा का संपूर्ण उद्देश्य अभियुक्त को उन परिस्थितियों को स्पष्ट करने के लिये सही और समुचित अवसर प्रदान करने का है, जो उसके विरूद्ध प्रतीत होती है और यह कि प्रश्न सही होने चाहिए और वे इस क्रम से पूछे जाने चाहिए कि गुण-दोष के बारे में कोई अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें। अभियुक्त द्वारा ऐसी किसी बात को, जो उससे स्पष्ट करने के लिये कभी पूछी ही नहीं गई, स्पष्ट न कर पाने के आधार पर की गई दोषसिद्धि विधि की दृष्टि से दोषपूर्ण है। संहिता की धारा-313 को अधिनियमित करने का संपूर्ण उद्देश्य यह था कि अभियुक्त का ध्यान आरोप  और  साक्ष्य में उन विनिर्दिष्ट मुद्दों की ओर, जिनके आधार पर अभियोजन पक्ष द्वारा यह दावा किया जाता है, कि अभियुक्त के विरूद्ध मामला बनता है, आकर्षित किया जाना चाहिए, जिससे कि वह ऐसा स्पष्टीकरण दे सकें, जो वह देना चाहता है।



                                                     संहिता की धारा-313 के उपबंधों पर ईमानदारी ओर निष्पक्ष रूप से विचार करने की महत्ता पर बहुत ही अत्यधिक जोर नहीं दिया जा सकता। अभियुक्त के समक्ष बहुत सारे तथ्यों को एक साथ रखकर उससे, उनके बारे में पूछना कि उसे क्या कहना है ? इस धारा का ठीक प्रकार से अनुपालन नहीं होगा। उससे प्रत्येक तात्विक बात के संबंध में जो, उसके विरूद्ध प्रयोग की जानी आशयित है, पृथक रूप से प्रश्न किया जाना चाहिए। प्रश्न सही होने चाहिए कि उनके गुण-दोषों के बारे में अनभिज्ञ या अशिक्षित व्यक्ति भी विवेचन कर सकें और उन्हें समझ सकें। अभियुक्त भले ही अशिक्षित न हो तो भी यदि उस पर हत्या का आरोप है, वह मानसिक रूप से विचलित हो सकता है। अतः निष्पक्षता की बाबत् यह अपेक्षा की जताी है, कि प्रत्येक तात्विक परिस्थिति को सहज रूप से और पृथक रूप से (अभियुक्त के समक्ष) रखा जाना चाहिए, जिससे कि कोई अशिक्षित व्यक्ति, जो विक्षुब्ध या भ्रमित हो, आसानी से उसके गुण-दोष के बारे में विवेचन कर सके और उसे समझ सके।

                                                     उच्चतम न्यायालय में पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह  (2005) 6 एस.सी.सी. 101:- वाले मामले में दिए गए विनिश्चिय के पैरा-10 में मताभिव्यक्ति की है, कि यदि साक्ष्य में ऐसी परिस्थितियाॅ विद्यमान थीं, जो अभियुक्त और उसके  (द्वारा दिये गये) स्पष्टीकरण के प्रतिकूल है और उसके द्वारा दिया गया स्पष्टीकरण साक्ष्य का उचित रूप से मूल्यांकन किए जाने में न्यायालय की सहायता करेगा, तो न्यायालय को इस बात को अभियुक्त की जानकारी में लाना चाहिए, जिससे कि वह (अपने) साक्ष्य में उन प्रतिकूल परिस्थितियों के बाबत् कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सके। समेकित प्रश्न के बिन्दु पर उच्चतम न्यायालय ने आगे मताभिव्यक्ति की, कि सामान्यता, समेकित प्रश्नों, जो अनेक प्रश्नों को एक साथ सम्मिलित करते हैं, को अभियुक्त से पूछा नहीं जाएगा। आगे यह मताभिव्यक्ति की गई कि प्रश्न जो पूछे जाने हैं, ऐसे होने चाहिए जिनका अभियुक्त की स्थिति में कोई युक्तियुक्त व्यक्ति, युक्तिसंगत स्पष्टीकरण देने की स्थिति में हो।


                                         स्थिति चाहे कोई भी हो, इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि सेशन न्यायाधीश ने अपीलार्थी के समक्ष कोई फंसाने वाले प्रश्न और प्रतिकूल साक्ष्य नहीं रखे थे। पुनः मामले के तथ्यों पर विचार करते हैं, यह सुव्यक्त हे कि बरामदगिया जो फंसाने वाली थी और अपीलार्थी के प्रतिकूल थी, की वास्तविकता के विश्लेषण मं अंततः स्वीकार किया गया था, किन्तु महत्वपूर्ण प्रश्न जो हमारे समक्ष विचारणार्थ उत्पन्न हुआ है, यह है, कि सेशन न्यायाधीश द्वारा अभियुक्त का परीक्षण दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन किया जाना चाहिए था। ऐसा प्रतीत होता है, कि सेशन न्यायाधीश ने सभी अभियुक्तों की बरामदगी के संबंध में मात्र एक प्रश्न पूछा था। प्रश्न संख्या 4 सभी बरामदगियों के संबंध में एक समेकित प्रश्न जटिलता वाला प्रश्न है जिसको उपरोक्त विनिश्चयों के प्राश में अनेक तथ्यों को एक साथ समेकित करके नहीं पूछा जाना चाहिए था।

 इसमें कोई संदेह नहीं कि काउंसेल ने दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-294 के अधीन वास्तविकता को स्वीकार किया है, किन्तु विद्वान सेशन न्यायाधीश ने अभियुक्त व्यक्तियों से दंड प्रक्रिया संहिता की धारा-313 के अधीन कोई प्रश्न नहीं पूछा है, जिसको पंजाब राज्य बनाम स्वर्णसिंह वाले (उपर्युक्त) मामले में दिए गए उच्ततम न्यायालय के विनिश्चय  को दृष्टि में रखते हुए अभियुक्त की जानकारी में लाया जाना चाहिए, जिससे कि वह साक्ष्य में इस प्रकार की प्रतिकूल परिस्थितियों कोई स्पष्टीकरण या उत्तर देने के लिये समर्थ हो सकें।
      
   

हितबद्ध साक्षी

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                हितबद्ध साक्षी

        माननीय उच्चतम न्यायालय ने कुलेश मंडल बनाम पश्चिमी बंगाल राज्य (2007) 59 ए.सी.सी. 798) वाले मामले में दिलीपसिंह और अन्य बनाम पंजाब राज्य (ए.आई.आर. 1953 एस.सी. 364) वाले मामले में पारित निर्णय को उद्दत करते हुए इस प्रकार मत व्यक्त किया:-

        ‘‘हम उच्च न्यायालय के विद्वान न्यायाधीशों के इस मत से असहमत हैं, कि दोनों प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के परिसाक्ष्य की पुष्टीकरण की आवश्यकता है। यदि ऐसे किसी मत के लिये आधार इस तथ्य पर आधारित हैं, कि साक्षी स्त्रिया हैं और उनकी परिसाक्ष्य के उपर सात व्यक्तियों का भाग्य आधारित है, हमारी जानकारी में ऐसा कोई नियम नहीं है। यदि यह बात इस तर्क पर आधारित है, कि वे मृतक के निकट के नातेदार हैं, तो हम इस मत से सहमत नहीं हैं। अनेक दांडिक मामलों के लिये यह एक सामान्य भ्रामकताः है और इस न्यायालय की एक अन्य न्यायपीठ ने एक मामले में इस भ्रामकता को दूर करने का प्रयत्न किया है। तथापि, हमें ऐसा प्रतीत होता है, कि दुर्भाग्यवश यह अवस्थिति अभी तक मौजूद है और यदि न्यायालयों के निर्णयों में नहीं तो किसी भी प्रकार से काउंसेलों की दलीलों में।‘‘

मसालती और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य (ए.आई.आर. 1965 एस.सी. 202):- वाले मामले में न्यायालय ने इस प्रकार मत व्यक्त किया था:-    ‘‘किन्तु हमारा यह मत है, कि यह दलील तर्कयुक्त नहीं है कि साक्षियों द्वारा दिए गए साक्ष्य को मात्र इस आधार पर व्यक्त किया जाना चाहिए कि यह साक्ष्य पक्षपाती या हितबद्ध साक्षी का साक्ष्य है............। ऐसे एकमात्र आधार पर कि यह एक विफल करने वाली होगी। इस बारे में कोई पक्का नियम अभिकथित नहीं किया जा सकता कि कितने साक्ष्य को स्वीकार किया जाना चाहिए ? न्यायिक मत ऐसे साक्ष्य पर विचार करने में सतर्कता बरतने की उपेक्षा करता है, किन्तु यह दलील है, कि ऐसे साक्ष्य को खारिज किया जाना चाहिए, क्योंकि यह एक पक्षपाती साक्षी का साक्ष्य है, सही होना स्वीकार नहीं किया जा सकता।‘‘
      

धारा-174 दं0प्र0सं0 में मृत्यु समीक्षा के संबंध में

    

   धारा-174 दं0प्र0सं0 में मृत्यु समीक्षा के संबंध में

1-        धारा-174 दं.प्र.सं. के अंतर्गत की जाने वाली कार्यवाही का क्षेत्र अत्यंत पर संबंधित है। इसका उद्देश्य मात्र यह सुनिश्चित करना है, कि क्या किसी व्यक्ति की संदेहास्पद परिस्थितियों के अधीन मृत्यु हो गई है या अप्राकृतिक मृत्यु हुई है। यदि ऐसा है तो मृत्यु का प्रत्यक्ष कारण क्या है ?


2-        धारा-174 दं0प्र0सं0 के अंतर्गत क्या मृतक पर हमला किया गया है। किसने हमला किया है। किन परिस्थितियों में हमला हुआ आदि बातें इसकी कार्यवाही और परिधि और क्षेत्र के बाहर की हैं। इसलिए मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में सभी प्रत्यक्ष कार्या के सभी विवरणों की प    रविष्टि कराना आवश्यक नहीं है। यदि इन चीजों का योग है तो न्यायालय द्वारा अभियोजन कहानी को संदेहास्पद नहीं माना जा सकता है। 

3-        पोददा नारायण बनाम आन्ध्रप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1975 एस0सी0 1252।


4-        शकीला खादर बनाम नौशेर गामा ए0आई0आर0 1975 एस0सी0 1324 के मामले में यदि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट किसी व्यक्ति के नाम का उल्लेख नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि ऐसा व्यक्ति प्रत्यक्षदर्शी साक्षी नहीं है।


5-        इकबाल बेग बनाम आंध्रप्रदेश राज्य ए.आई.आर. 1987 एस.सी. 923-मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में आरोपी का नाम का उल्लेख नहीं होने से यह भी नहीं माना जा सकता कि वह अपराध के समय पस्थित नहीं था क्योंकि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट ऐसे किसी व्यक्ति का कथन नहीं है एवं सभी नामों का उल्लेख किया जावेगा।


6-        खुज्जी उर्फ सुरेन्द्र तिवारी बनाम मध्यप्रदेश राज्य ए0आई0आर0 1991 एस0सी0 1853-वह 3 न्यायाधीशों की खण्डपीठों में यह अभिनिर्धारित किया है, कि प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों का लाभ मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में न होने पर उनकी साक्ष्य अविश्वसनीय नहीं हो जाती।


7-        अमरसिंह बनाम बलविन्दर सिंह (2003) 2 एस0सी0सी0 518-जे0टी0-2003 (2) एस0सी0-1 में यह अभिनिर्धारित किया गया है।


8-        राधा मोहन सिंह उर्फ लाल साहब और अन्य बनाम उत्तरप्रदेश राज्य जे0टी0 2006    (1) एस0सी0 482 में 3 जजों की खण्डपीठ में यह अभिनिर्धारित किया है, कि मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट में अभियुक्त व्यक्तियों के नाम उनके पास के आयुध साक्षी के नाम का उल्लेख करना विधि की अपेक्षा नहीं है। मृत्यु समीक्षा रिपोर्ट मृत्यु के स्पष्ट कारणों को निश्चित करने तक सीमित है और इसमें यह उल्लेख करना भी आवश्यक नहीं है, कि मृतक पर किसने हमला किया था और हमले के साक्षी कौन थे

9-        अतः माननीय उच्चतम न्यायालय के अनेक विनिश्चयों से यह सुस्थापित है, कि मृत्यु समीक्षा करने का प्रयोजन अत्यंत परिसिमित है अर्थात् यह सुनिश्चित करना है, कि क्या किसी व्यक्ति ने आत्महत्या की है या किसी दूसरे व्यक्ति द्वारा हत्या की गई है या किसी पशु द्वारा या किसी मशीनरी द्वारा उसकी मृत्यु हुई है या कोई दुर्घटना हुई है या उसकी ऐसी परिस्थितियों के अधीन मृत्यु हुई है जो युक्तियुक्त रूप से यह संदेह उत्पन्न करती है कि किसी अन्य व्यक्ति ने अपराध किया है। निश्चित रूप से विधि की यह अपेक्षा नहीं है, कि प्रथम इत्तिला रिपोर्ट के ब्यौरों का उल्लेख किया जाए, अभियुक्तों के नामों या प्रत्यक्षदर्शी साक्षियों के नामों का उल्लेख किया जाये या उनके कथनों का सार लिखा जाये और न ही यह आवश्यक है, कि किसी प्रत्यक्षदर्शी साक्षी द्वारा उस पर हस्ताक्षर कराये जाये।
      

















   

‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति

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     ‘‘प्रथम सूचना प्रतिवेदन के साक्ष्य में उपयोग, उसके साक्ष्यिक मूल्य और विलंब के बारे में विधिक स्थिति

                                          दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा- 154 के अनुसार संज्ञेय अपराध के किए जाने से संबंधित प्रत्येक इत्तिला, यदि पुलिस थाने के भारसाधक अधिकारी को मौखिक दी गई हैं तो उसके द्वारा या उसके निदेशाधीन लेखबद्ध कर ली जाएगी और इत्तिला देने वाले को पढ़कर सुनाई जाएगी और प्रत्येक ऐसी इत्तिला पर, चाहे वह लिखित रूप में दी गई हो या पूर्वोक्त रूप में लेखबद्ध की गई हो, उस व्यक्ति द्वारा हस्ताक्षर किए जाएंगे, जो उसे दे और उसका सार ऐसी पुस्तक में, जो उस अधिकारी द्वारा ऐसे रूप में रखी जाएगी जिसे राज्य सरकार इस निमित्त विहित करें, प्रविष्ट किया जाएगा ।


                                      इस प्रकार प्रथम सूचना रिपोर्ट किसी भी मृत्यु दण्ड, अजीवन कारावास, दो वर्ष से अधिक दण्डनीय अपराध के संबंध में की गई वह पहली सूचना हैं जिसके आधार पर अभियोजन द्वारा जाॅच प्रारंभ की जाती हैं । 


                             यदि रिपोर्टकर्ता थाने जाकर रिपोर्ट करने की स्थिति में नहीं हैं तो उसे मौके पर देहाती नालिस के रूप में दर्ज किया जाता हैं । इसी प्रकार यदि संबंधित क्षेत्राधिकार के बाहर रिपोर्ट की जाती हैं तो उसे शून्य पर कायम कर संबंधित थाने को भेजा जाता हैं । प्रथम सूचना रिपोर्ट को परिभाषित नहीं किया गया हैं, यह एक जानकारी मात्र हैं, जो अनवेषण अधिकारी को मामला फाइल करने के पूर्व अथवा पश्चात् के सभी विषय को खोजने के लिये प्राधिकृत करने हेतु समुचित होती हैं।


                         घटना के बाबत् धुंधले प्रकार का संदेश प्रथम सूचना रिपोर्ट के समतुल्य नहीं माना गया हैं ।(कृपया देखें पताई उर्फ कृष्ण कुमार बनाम स्टेट आॅफ यू.पी.,2010 क्रि.लाॅ.ज. 2815 सु.को.) । 


प्रथम सूचना रिपोर्ट में विलम्ब का परिणाम
 
        प्रथम सूचना रिपोर्ट यदि विलम्ब से की गई हैं तो उस संबंध मे ंदिया गया स्पष्टीकरण तर्कपूर्ण व साख पूर्ण होना चाहिए यदि स्पष्टीकरण विलम्ब के संबंध में पर्याप्त नहीं हैं तो ऐसी रिपोर्ट पर विश्वास किया जाना उचित नहीं हैं ।
      
  विलंब से मामले के वृत्तांत में परिवर्तन होने की संभावना रहती हैं। इसीलिए अपेक्षा की जाती हैं कि आरंभिक अवसर में न्यायालय के समक्ष पहुंच की जाए। यदि पुलिस के समक्ष पहुॅंच करने में अथवा न्यायालय के समक्ष पहॅुंच करने में विलंब होता हैं तो ऐसी स्थिति में न्यायालय लांछनों को
संदेह की निगाह से देखेगा और वह इस संबंध में निः संकोच संतोषप्रद स्पष्टीकरण की मांग करेगा । यदि ऐसा स्पष्टीकरण नहीं पाया जाता हैं तो उस विलंब को अभियोजन के मामले के लिये घातक माना जाएगा । 


          प्रथम सूचना रिपोर्ट को त्वरित तौर पर दर्ज कराने के पीछे निहित भावना यह होती हैं कि विलंब किए जाने पर घटना बढ़ाए चढ़ाए जाने की संभावना हो सकती हैं ।
        रंजिश के मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब को अत्यंत महत्वपूर्ण दृष्टि से देखा गया हैं और असामान्य विलंब को संतोषजनक नहीं माना गया हैं ।     (कृपया देखें -रमेश बाबूराव देवास्कर बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, 2007 क्रि.लाॅ.ज. 851ः2008 क्रि.लाॅ.ज. 372ः2007(4) करेन्ट क्रिमिनल रिपोर्टर्स 272ः2007 (12) स्केल 272ः 2007 ए.आई.आर. एस.सी.डब्ल्यू, 6475 सु.को. )
        प्रत्येक मामले में प्रथम सूचना रिपोर्ट विलंब से करना संदेहास्पद नहीं होता हैं। यह मामले के तथ्य और परिस्थितियों के आधार पर उसके विलंब से किये जाने के प्रभाव को ध्यान में रखकर विचार किया जाना चाहिए । इस संबंध में माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा रविन्द्र कुमार बनाम स्टेट
आफ पंजाब 2007 भाग-7 एस.एस.सी. 690 में कुछ परिस्थितियाॅं बताई हैं जो निम्नलिखित हैं ।
    1-    भारतीय परिवेश में ग्रामवासियों से यह आशा नहीं की जा सकती कि वह घटना के उपरांत तत्काल पुलिस को सूचना देंगें ।
    2-    मानवीय स्वभाव होता हैं कि मृतक के नाते-रिश्तेदार जिन्होने
घटना देखी हैं उनसे  शीघ्रता से रिपोर्ट किये जाने की आशा नहीं की जा सकती ।
       3-    इसके अलावा ग्रामीण व्यक्ति बिना समय गंवाए अपराध की पुलिस को जानकारी देने की आवश्यकता के तथ्य से अनभिज्ञ हो सकता हैं।     4-    इस तरह की स्थिति शहरी व्यक्तियों के साथ भी हो सकती हैं जो तत्काल पुलिस स्टेशन जाने की नहीं सोचते हैं।
    5-    सूचना देने वाले व्यक्ति को पुलिस स्टेशन पहुंचने तक समुचित परिवहन सुविधाओं का अभाव ।
    6-    मृतक के नाते-रिश्तेदारों को कतिपय स्तर की मस्तिष्क की प्रशांति को पुनः हासिल करने में समय लग सकता हैं ।
    7-    जो व्यक्ति ऐसी सूचना देने वाले समझे जाते हैं उनकी शारीरिक दशा अपने आप में इतनी बिगडी होने की स्थिति में हो सकती हैं कि पुलिस को दुर्घटना के बाबत् कतिपय जानकारी हासिल करने के लिए उनके पास तक पुलिस को पहॅुंचना पड़ा हो ।
         इस प्रकार सूचनादाता की दशा, कारित क्षतियों की प्रकृति, आहतों की संख्या, पुनः चिकित्सीय सहायता पहुॅंचाने के संबंध में किए गए प्रयास, अस्पताल की दूरी, पुलिस स्टेशन की दूरी आदि तथ्य व परिस्थितियों के आधार पर विलंब प्रथम सूचना रिपोर्ट का आकलन किया जाना चाहिए।उसे अपने आप विलंब के आधार पर संदेहास्पद नहीं माना जाना चाहिए । ( कृपया देखे- अमरसिंह बनाम बलविंदर सिंह,2003 (2) सु.को.के. 518ः2003 ए.आई.आर. डब्ल्यू 717, साहिब राव बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्  2006 क्रिं.लाॅ.ज. 2881 सु.को.), ऐसा कोई अंकगणितीय फार्मूला नहीं हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट दर्ज कराने में विलंब के आधार पर किसी भी ओर अनुमान निकाला जा सके ।     


         प्रथम सूचना रिपोर्ट का साक्ष्यिक मूल्य 

 
         प्रथम सूचना रिपोर्ट को सारवान साक्ष्य के भाग के रूप में होना नहीं समझा जा सकता है। अतः इसके आधार पर अभियुक्त को दोषसिद्ध नहीं किया जा सकेगा। इसका उपयोग इसको करने वाले व्यक्ति के खंडन अथवा समथर््ान के लिये ही भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा- 145 और 157 के अनुसार किया जा सकता हैं ।  कृपया देखें-अर्जुनसिंह बनाम स्टेट आॅफ एम.पी.,1997 (1)म.प्र.वी.नो. 194 (स्टेट आॅफ एम.पी. बनाम के.के.पाण्डे,2007 (3) म.प्र.वी.नो. 21 म.प्र.) 


        प्रथम सूचना रिपोर्ट के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा अभिनिर्धारित किया गया हैं कि प्रथम सूचना रिपोर्ट को इनसाइक्लोपीडिया होना आवश्यक नहीं होता हैं, इसलिये अभियोजन
घटना की सभी तथ्यों का इसमें समावेश होना आवश्यक नहीं हैं,ं परन्तु प्रथम सूचना रिपोर्ट में घटना की प्रथम जानकारी के बाबत अत्याधिक महत्वपूर्ण सामग्री होती हैं। इसके वृत्तांत में परिवर्तन किए जाने व सुधार किए जाने की संभावना होती है। 


        प्रथम सूचना रिपोर्ट मात्र विधि को गतिशील करने के लिए की जाती हैं। इसे विस्तृत होना अवश्यक नहीं हैं अपितु इसमें आवश्यक लांछन जिससे कि संज्ञेय अपराध कागठन होना होता हो पर्याप्त माना गया।  इसमें यदि सभी चक्षुदर्शी साक्षीगण के नाम वर्णित न हो सके तो यह तथ्य असारवान होगा। (चारू किशोर मेहता बनाम (श्रीमति) बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र्, क्रि.लाॅ.ज. 1486 बम्बई )  आनंद सिंह बनाम स्टेट आॅफ यू.पी. 2010 क्रि.लाॅ.ज. एन.ओ.सी. 334 इलाहाबाद मनोज बनाम स्टेट आॅफ महाराष्ट्र् 1999 (4)सु.को.के. 268.सुजाय सेन बनाम स्टेट आॅफ वेस्ट बंगाल, 2007 (2) म.प्र.वी.नो. 89 सु.को. )   

 
         यदि एन्टी-टाइम व एन्टी- डेटेड रिपोर्ट के आधार पर मामला रजिस्टर्ड किया जाए और इसी कारण द.प्र.सं. की धारा- 157 के प्रावधान का पालन नहीं किया गया था । ऐसी स्थिति में प्रथम  सूचना रिपोर्ट को महत्व प्रदान नहीं किया गया। 


        यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट न केवल एन्टी-टाइम थी अपितु यह एन्टी-डेटेड भी थी, तो ऐसी देहाती नालिश में मामले को गढ़े जाने की संभावना मानी गयी।  (छबिलाल बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2009 (1) जे.एल.जे. 167 म.प्र. ) (रामाधार बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. आई.एल.आर.2011 म.प्र. नोट 32)
      
                             यदि साक्षी का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में होना नहीं पाया गया। घटना स्थल पर भीड़ थी और इसलिए प्रथम सूचना दाता से युक्तियुक्त तौर पर इस बात की प्रत्याशा नहीं की जाती थी कि वह प्रत्येक देखने वाले व्यक्ति के नाम को प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित करें ऐसी स्थिति में साक्षी की साक्ष्य को इस आधार पर त्यक्त नहीं किया जा सकता कि प्रथम सूचना रिपोर्ट में उसका नाम नहीं था। (कृपया देखें- पिल्लू उर्फ प्रहलाद बनाम स्टेट आॅफ एम.पी. 2010 (2) जे.एल.जे. 309 म.प्र.)

 
        इसी प्रकार यदि घायल साक्षी के नाम भी प्रथम सूचना रिपोर्ट में न हो तो इस आधार पर भी उसे संदेहास्पद नहीं माना जा सकता । ऐसी कोई विधिक अपेक्षा नहीं हैं कि सभी साक्षीगण का नाम प्रथम सूचना रिपोर्ट में हो ।


        प्रथम सूचना रिपोर्ट को प्राॅवधानिक मुद्रित प्रारूप में होना चाहिए । यदि इस रूप में नहीं हैं तो उसे विश्वास योग्य नहीं माना जा सकता । पुलिस अधिकारी के द्वारा स्टेशन हाउस की डायरी में दर्ज सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं माना जा सकता हैं। इसे केवल धारा- 162 के अंतर्गत अभिलिखत कथन माना जाएगा ।


        इसी प्रकार तार संदेश से दी गई अस्पष्ट सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं। टेलीफोन से दी गई व्यर्थ सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट नहीं हैं।  प्रथम सूचना रिपोर्ट प्रस्तुत करना प्रत्येक नागरिक का मूलभूत अधिकार हैं ।


        एक ही घटना के संबंध में दी गई द्वितीय सूचना प्रथम सूचना रिपोर्ट के रूप में दर्ज नहीं की जा सकती। एक मामले में केवल एक ही एफ.आई.आर. हो सकती है।
        यदि आरोपी के द्वारा प्रथम सूचना रिपोर्ट लिखाई गई हैं तो उसमें की गई संस्वीकृति साक्ष्य अधिनियम की धारा- 25 के अंतर्गत साक्ष्य में ग्रा्ह्य नहीं होगी लेकिन धारा- 8 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत आचरण के रूप में उसे मान्यता प्रदान की जाएगी । 



          यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में ओवहर राईटिंग की जाती हैं तो इस बात की संभावना हैं कि वह एंटी डेटेड थी अथवा एंटी टाइम थी । यदि प्रथम सूचना रिपोर्ट में वर्णित वृत्तांत सत्य होना नहीं पाया जाता हैं और उसका चिकित्सीय एवं मौखिक साक्ष्य से भी समर्थन नहीं होता हैं तो ऐसी रिपोर्ट के आधार पर दोषसिद्धी नहीं दी जा सकती हैं ।

                      

























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भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

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