सहमति
धारा 375 भा0द0सं0 के तहत बलात्संग के अपराध की सार किसी पुरूष द्वारा किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरूद्ध और उसकी सम्मति के बिना इस धारा में उल्लेखित छह परिस्थितियों में से किसी एक के तहत लैंगिक सम्भोग है ।
बलात्संग के अपराध के लिए किसी व्यक्ति का दायित्व अवधारित करने के लिए सर्वोपरि महतव की बात सम्मति है ।
सम्मति अभियुक्त को दायित्व से पूर्णतः निर्मुक्त करती है।
यह प्रकरण की परिस्थितियों और प्रकृति पर निर्भर करते हुए अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है ।
किसी स्त्री ने सम्मति दी है यह तभी कहा जा सकता है जब वह स्वतंत्रतापूर्वक स्वयं को समर्पित करने के लिए सहमत होती है ।
जब वह उस रीति जिसमें वह चाहती है में कार्य करने के लिए उसकी शारीरिक और नैतिक शक्ति के स्वतंत्र एंव निर्बाधित रूप से अवगत होती है ।
सम्मति जो दी गई है को निर्वापित करने या रोकने के लिए स्वतंत्र और निर्बाधित अधिकार का अनुप्रयोग अभियोक्त्री करती है यह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले प्रस्तावित कार्य और पूर्ववर्ती द्वारा सहमत की स्वेच्छिक और सचेत स्वीकृति सर्वदा होती है।
अभियुक्त को बलात्संग के आरोप से मुक्त करने के लिए स्त्री की सहमति तर्क संगत कार्य होनी चाहिए जो सोच विचार के साथ और संतुलित मस्तिष्क से किया गया होना चाहिए एंव प्रत्येक पहलू पर किसी व्यक्ति की इच्छा या भावना के अनुसार सहमति वापस लेने की शक्ति और विद्यमान क्षमता से अच्छाई और बुराई को वह तोल चुकी है ।
डर या आतंक के प्रभाव के अधीन समर्पण सम्मति नहीं है और किसी व्यक्ति को दायित्व से निर्मुक्त नहीं करेगी ।
सहमति और समर्पण के मध्य अन्तर होता है ।
राव हरनारायण सिंह शिवजी सिंह बनाम राज्य ए0आई0आर0 1958 पंजाब 123 में सम्प्रकाशित के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सहमति सोच विचार मौनानुकूलता या विरोध् नहीं करना और बिना चाहे कार्य करने की किसी व्यक्ति को बलात्संग के आरोप से मुक्त करने के लिए सम्मति होना नहीं समझा जा सकता ।
न्यायालय द्वारा यह सम्प्रेक्षित किया गया था कि असहाय त्याग का मात्र कार्य जब मानसिक रूप से किसी डर या उत्प्रेरणा द्वारा कार्य करने के लिए तत्पर होती है तो यह सम्मति दूषित हो जाती है और उसे विधि में यथा समझी गयी सम्मति होना नहीं कहा जा सकता ।
बलात्संग के अभिकथन के प्रति प्रतिरक्षा के रूप में किसी महिला के द्वारा सम्मति स्वेच्छिक सहभाग अपेक्षित करती है न केवल कार्य की महत्ता और नैतिक गुण के ज्ञान पर आधारित करते हुए बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य करने के पश्चात बल्कि विरोध करने और सहमति देने के मध्य पसन्द का स्वतंत्रतापूर्वक अनुप्रयोग करने के पश्चात स्वेच्छिक सहभाग अपेक्षित करती है ।
न्यायालय द्वारा यह और सम्प्रेक्षित किया गया था कि सहमति और समर्पण के मध्य अन्तर होता है एंव समर्पण का मात्र कार्य समर्पण लिप्त नहीं करता ।
बलात्संग के समान दाण्डिक प्रकृत के कृत्य से मुक्त करने क लिए किसी लडकी की सम्मति उसकी इच्छा या चाहने के अनुसार सम्मति वापस लेने के लिए शक्ति और विद्यमान क्षमता के साथ दोनो तरफ अच्छाई एंव बुराई के संतुलन के रूप में मस्तिष्क द्यारा मापी जाने के पश्चात होती है,
इसलिए किसी स्त्री को सम्मति देना केवल तभी कहा जा सकता है जब वह स्वतंत्रापूर्वक स्वयं को समर्पित करना सहमत होती है जब उसके पास उसी रीति में जो वह चाहती है कार्य करने की शारीरिक एंव नैतिक शक्ति स्वतंत्रतापूर्वक औरनिर्बाधित रूप से होती है ।
इसलिए मामलो के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए विशेष रूप से अभियोक्त्री का परिसाक्ष्य यह प्रतीत होता है कि वह अपीलार्थी द्वारा मैथुन के लिए बिना उसकी इच्छा के विवश की गयी थी और यद्यपि उसका प्रेम प्रसंग हो सकता है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि घटना दिनांक को वह सहमत पक्षकार थी एंव अपीलार्थी के साथ मैथुन के लिए उसकी सहमति दी थी ।
धारा 375 भा0द0सं0 के तहत बलात्संग के अपराध की सार किसी पुरूष द्वारा किसी स्त्री के साथ उसकी इच्छा के विरूद्ध और उसकी सम्मति के बिना इस धारा में उल्लेखित छह परिस्थितियों में से किसी एक के तहत लैंगिक सम्भोग है ।
बलात्संग के अपराध के लिए किसी व्यक्ति का दायित्व अवधारित करने के लिए सर्वोपरि महतव की बात सम्मति है ।
सम्मति अभियुक्त को दायित्व से पूर्णतः निर्मुक्त करती है।
यह प्रकरण की परिस्थितियों और प्रकृति पर निर्भर करते हुए अभिव्यक्त या विवक्षित हो सकती है ।
किसी स्त्री ने सम्मति दी है यह तभी कहा जा सकता है जब वह स्वतंत्रतापूर्वक स्वयं को समर्पित करने के लिए सहमत होती है ।
जब वह उस रीति जिसमें वह चाहती है में कार्य करने के लिए उसकी शारीरिक और नैतिक शक्ति के स्वतंत्र एंव निर्बाधित रूप से अवगत होती है ।
सम्मति जो दी गई है को निर्वापित करने या रोकने के लिए स्वतंत्र और निर्बाधित अधिकार का अनुप्रयोग अभियोक्त्री करती है यह किसी अन्य व्यक्ति द्वारा किये जाने वाले प्रस्तावित कार्य और पूर्ववर्ती द्वारा सहमत की स्वेच्छिक और सचेत स्वीकृति सर्वदा होती है।
अभियुक्त को बलात्संग के आरोप से मुक्त करने के लिए स्त्री की सहमति तर्क संगत कार्य होनी चाहिए जो सोच विचार के साथ और संतुलित मस्तिष्क से किया गया होना चाहिए एंव प्रत्येक पहलू पर किसी व्यक्ति की इच्छा या भावना के अनुसार सहमति वापस लेने की शक्ति और विद्यमान क्षमता से अच्छाई और बुराई को वह तोल चुकी है ।
डर या आतंक के प्रभाव के अधीन समर्पण सम्मति नहीं है और किसी व्यक्ति को दायित्व से निर्मुक्त नहीं करेगी ।
सहमति और समर्पण के मध्य अन्तर होता है ।
राव हरनारायण सिंह शिवजी सिंह बनाम राज्य ए0आई0आर0 1958 पंजाब 123 में सम्प्रकाशित के मामले में यह अभिनिर्धारित किया गया है कि सहमति सोच विचार मौनानुकूलता या विरोध् नहीं करना और बिना चाहे कार्य करने की किसी व्यक्ति को बलात्संग के आरोप से मुक्त करने के लिए सम्मति होना नहीं समझा जा सकता ।
न्यायालय द्वारा यह सम्प्रेक्षित किया गया था कि असहाय त्याग का मात्र कार्य जब मानसिक रूप से किसी डर या उत्प्रेरणा द्वारा कार्य करने के लिए तत्पर होती है तो यह सम्मति दूषित हो जाती है और उसे विधि में यथा समझी गयी सम्मति होना नहीं कहा जा सकता ।
बलात्संग के अभिकथन के प्रति प्रतिरक्षा के रूप में किसी महिला के द्वारा सम्मति स्वेच्छिक सहभाग अपेक्षित करती है न केवल कार्य की महत्ता और नैतिक गुण के ज्ञान पर आधारित करते हुए बुद्धिमत्ता पूर्ण कार्य करने के पश्चात बल्कि विरोध करने और सहमति देने के मध्य पसन्द का स्वतंत्रतापूर्वक अनुप्रयोग करने के पश्चात स्वेच्छिक सहभाग अपेक्षित करती है ।
न्यायालय द्वारा यह और सम्प्रेक्षित किया गया था कि सहमति और समर्पण के मध्य अन्तर होता है एंव समर्पण का मात्र कार्य समर्पण लिप्त नहीं करता ।
बलात्संग के समान दाण्डिक प्रकृत के कृत्य से मुक्त करने क लिए किसी लडकी की सम्मति उसकी इच्छा या चाहने के अनुसार सम्मति वापस लेने के लिए शक्ति और विद्यमान क्षमता के साथ दोनो तरफ अच्छाई एंव बुराई के संतुलन के रूप में मस्तिष्क द्यारा मापी जाने के पश्चात होती है,
इसलिए किसी स्त्री को सम्मति देना केवल तभी कहा जा सकता है जब वह स्वतंत्रापूर्वक स्वयं को समर्पित करना सहमत होती है जब उसके पास उसी रीति में जो वह चाहती है कार्य करने की शारीरिक एंव नैतिक शक्ति स्वतंत्रतापूर्वक औरनिर्बाधित रूप से होती है ।
इसलिए मामलो के तथ्यों और परिस्थितियों को देखते हुए विशेष रूप से अभियोक्त्री का परिसाक्ष्य यह प्रतीत होता है कि वह अपीलार्थी द्वारा मैथुन के लिए बिना उसकी इच्छा के विवश की गयी थी और यद्यपि उसका प्रेम प्रसंग हो सकता है परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि घटना दिनांक को वह सहमत पक्षकार थी एंव अपीलार्थी के साथ मैथुन के लिए उसकी सहमति दी थी ।
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