धारा-27 साक्ष्य अधिनियम
विधि के सुस्थापित सिद्धांतों के अनुसार एक मात्र विवेचक की साक्ष्य के आधार पर धारा-27 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत दिया गया मेमोरेण्डम कथन और उसकी जप्ती को प्रमाणित माना जा सकता है ।
इस संबंध मे मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्य राष्ट्ीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली विरूद्ध नवजोग सिद्धू 2006 भाग-1 उच्चतम न्यायालय पत्रिका 169 में धारा-27 में विस्तृत व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया है कि केवल पुलिस अधिकारी की साक्ष्य इसके लिए पर्याप्त है, किन्तु निम्नलिखित शर्ताे की पूर्ति होने परः-
1- यह कि वह तथ्य जिसके बारे में साक्ष्य दिया गया है विवावधक से सुसंगत होना चाहिए ।यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि उपबंध का सुसंगतता के प्रश्न से सीधा संबंध नहीं है । प्रकट किए गए तथ्य की सुसंगति ऐसे अन्य साक्ष्य की सुसंगति निर्देशनों के अनुसार ऐसे साबित की जानी चाहिए जो अन्य साक्ष्य की सुसंगति से संबद्ध हों और जो प्रकट किए गए तथ्य को ग्राहय बनाने के लिए इसे अपराध से संबद्ध करें ।
2- तथ्य प्रकट किए जाने चाहिए ।
3- प्रकटीकरण, अभियुक्त से प्राप्त सूचना के परिणाम स्वरूप किया जाना चाहिए न कि अभियुक्त के अपने कृत्य द्वारा ।
4- सूचना देने वाला व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त होना चाहिए।
5- वह पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में होना चाहिए ।
6- अभिरक्षाधीन अभियुक्त से प्राप्त सूचना के परिणाम स्वरूप तथ्य के प्रकटीकरण की बावत् अभिसाक्ष्य दिया जाना चाहिए ।
7- इस पर सूचना का केवल वह भाग जो प्रकट किए गए तथ्य से स्पष्ट रूप से या पूर्ण रूप से सबंद्ध है, साबित किया जा सकता है शेष भाग ग्राहय है ।
. पुलिस को नये तथ्य की जानकारी होना ही धारा 27 साक्ष्य अधिनियम में ग्राहॅय है, यदि वह तथ्य पुलिस की जानकारी में पहले से था तो वह उक्त अधिनियम की परिधि में साक्ष्य में ग्राहॅय नहीं है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत ऐसी साक्ष्य ही ग्राह्य है, जिससे किसी तथ्य की जानकारी मिली हो, जहा कोई तथ्य पूर्व से ही पुलिस की जानकारी में है, वहा उस तथ्य का पुनः पता चलना धारा 27 साक्ष्य अधिनियम की परिधि में साक्ष्य के सुसंगत एवं ग्राह्य नहीं बनायेगा,
संदर्भ:- अहीर राजा विरूद्ध राज्य ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 अतः कथित संसूचना आधारित बरामदगी अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता है।
विधि के सुस्थापित सिद्धांतों के अनुसार एक मात्र विवेचक की साक्ष्य के आधार पर धारा-27 साक्ष्य अधिनियम के अंतर्गत दिया गया मेमोरेण्डम कथन और उसकी जप्ती को प्रमाणित माना जा सकता है ।
इस संबंध मे मान्नीय उच्चतम न्यायालय द्वारा राज्य राष्ट्ीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली विरूद्ध नवजोग सिद्धू 2006 भाग-1 उच्चतम न्यायालय पत्रिका 169 में धारा-27 में विस्तृत व्याख्या करते हुए अभिनिर्धारित किया है कि केवल पुलिस अधिकारी की साक्ष्य इसके लिए पर्याप्त है, किन्तु निम्नलिखित शर्ताे की पूर्ति होने परः-
1- यह कि वह तथ्य जिसके बारे में साक्ष्य दिया गया है विवावधक से सुसंगत होना चाहिए ।यह बात ध्यान में रखी जानी चाहिए कि उपबंध का सुसंगतता के प्रश्न से सीधा संबंध नहीं है । प्रकट किए गए तथ्य की सुसंगति ऐसे अन्य साक्ष्य की सुसंगति निर्देशनों के अनुसार ऐसे साबित की जानी चाहिए जो अन्य साक्ष्य की सुसंगति से संबद्ध हों और जो प्रकट किए गए तथ्य को ग्राहय बनाने के लिए इसे अपराध से संबद्ध करें ।
2- तथ्य प्रकट किए जाने चाहिए ।
3- प्रकटीकरण, अभियुक्त से प्राप्त सूचना के परिणाम स्वरूप किया जाना चाहिए न कि अभियुक्त के अपने कृत्य द्वारा ।
4- सूचना देने वाला व्यक्ति किसी अपराध का अभियुक्त होना चाहिए।
5- वह पुलिस अधिकारी की अभिरक्षा में होना चाहिए ।
6- अभिरक्षाधीन अभियुक्त से प्राप्त सूचना के परिणाम स्वरूप तथ्य के प्रकटीकरण की बावत् अभिसाक्ष्य दिया जाना चाहिए ।
7- इस पर सूचना का केवल वह भाग जो प्रकट किए गए तथ्य से स्पष्ट रूप से या पूर्ण रूप से सबंद्ध है, साबित किया जा सकता है शेष भाग ग्राहय है ।
. पुलिस को नये तथ्य की जानकारी होना ही धारा 27 साक्ष्य अधिनियम में ग्राहॅय है, यदि वह तथ्य पुलिस की जानकारी में पहले से था तो वह उक्त अधिनियम की परिधि में साक्ष्य में ग्राहॅय नहीं है:-
यह विधिक स्थिति सुस्थापित है कि भारतीय साक्ष्य अधिनियम की धारा 27 के अंतर्गत ऐसी साक्ष्य ही ग्राह्य है, जिससे किसी तथ्य की जानकारी मिली हो, जहा कोई तथ्य पूर्व से ही पुलिस की जानकारी में है, वहा उस तथ्य का पुनः पता चलना धारा 27 साक्ष्य अधिनियम की परिधि में साक्ष्य के सुसंगत एवं ग्राह्य नहीं बनायेगा,
संदर्भ:- अहीर राजा विरूद्ध राज्य ए.आई.आर. 1956 एस.सी. 217 अतः कथित संसूचना आधारित बरामदगी अपने आप में कोई महत्व नहीं रखता है।
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