धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना

   धारा-311 दं0प्र0सं0 न्यायालय द्वारा साक्ष्य बुलाये जाने की अनुमति देना
  


        हनुमान राम बनाम राजस्थान राज्य एवं अन्य , (2008) 15 एस.सी.सी. 652 में उच्चतम न्यायालय द्वारा निर्धारित किया गया है कि धारा-311  का उद्देश्य किसी पक्षकार की अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लेने या साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए बात के लाने की गलती के कारण न्याय की असफलता रोकना है। इस न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया । 

        ‘‘ यह समर्थ करते हुए एक पूरक उपबंध है एवं कतिपय परिस्थितियाॅं न्यायालय पर अधिरोपित करते हुए , तात्विक साक्षी की जाॅच करने का कर्तव्य , जो इसके पूर्व अन्यथा नहीं लाया जाएगा । यह वृहद संभव निबन्धनों में रखा गया है एवं किसी परिसीमा हेतु नहीं कहता , या तो प्रक्रम के संबंध में , जो न्यायालय की शक्तियाॅ अनुप्रयोग किया जाना चाहिए या रीति के संबंध में , जिसमें यह अनुप्रयोग किया जाना चाहिए । यह केवल परमाधिकार नहीं है , बल्कि न्यायालय की ऐसे साक्षियों की जाॅच करने का सादा कर्तव्य है यथा राज्य एवं विषय के मध्य न्याय करने के लिए स्पष्टतः आवश्यक विचारण किया जाता है । न्यायालय पर समस्त विधिपूर्ण अर्थों से सत्य पर पहॅुचने का कर्तव्य अधिरोपित किया गया है एवं ऐसे अर्थों में से एक इसके स्वयं के साक्षियों की जाॅच है , जब कतिपय स्पष्ट कारण हेतु कोई पक्षकार साक्षियों को बुलाने के लिए तैयार नहीं करता , जो महत्वपूर्ण सुसंगत तथ्य बोलने की स्थिति में होते हैं । 

        ‘‘ संहिता की धारा-311 में रेखांकित करते हुए उद्देश्य से स्पष्ट है कि अभिलेख पर मूल्यवान साक्ष्य लाने में या किसी भी तरफ के जाॅचे साक्षियों के कथनों में संदिग्धता छोड़ते हुए किसी भी पक्षकार की त्रुटि के कारण न्याय की असफलता नहीं हो सके । निश्चायक तथ्य है कि क्या यह प्रकरण के उचित विनिश्चय के लिए आवश्यक है।

        धारा-311 केवल अभियुक्त के लाभ हेतु सीमित नहीं है , और यह न्यायालय की इस धारा के तहत् मात्र क्योंकि साक्ष्य अभियोजन का प्रकरण समर्थित करता है एवं अभियुक्त का नहीं , साक्षी को समन करने की शक्तियों के अनुचित अनुप्रयोग हेतु नहीं होगी । यह धारा सामान्य धारा है , जो संहिता के तहत् समस्त कार्यवाहियों , जांचों एवं परीक्षण को लागू होती है एवं मजिस्ट्रे्ट को किसी भी साक्षी को ऐसी कार्यवाहियों के किसी प्रक्रम पर समन जारी करने लिए सशक्त करती है । 

        धारा-311 में महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति है कि ‘‘ इस संहिता के तहत् जाॅच या परीक्षण या किसी कार्यवाही के किसी भी प्रक्रम पर ’’ है। यह परन्तु मस्तिष्क में उठता है कि जबकि धारा न्यायालय साक्षियों को समनित करने के लिए अत्यंत वृहद शक्ति प्रदत्त  करती है , प्रदत्त विवेकाधिकार न्यायिक रूप से अनुप्रयोग होना चाहिए , क्योंकि शक्ति की वृहदता न्यायिक मस्तिष्क की प्रयोज्यता की आवश्यकता से वृहद है । ’’

        हाॅफमेन एन्ड्र्ेस बनाम इंस्पेक्टर आॅफ कस्टम्स , अमृतसर , (2000)10 एस.सी.सी. 430 में अभिनिर्धारित किया है कि ‘‘ ऐसी परिस्थितियों में , यदि नये काउंसेल तात्विक साक्षियों को आगे जाॅच करना सोचते हैं , न्यायालय नरम एवं उदार रूप न्याय के हित में अपना सकता था , विशिष्ट रूप से जब न्यायालय को यथा संहिता की धारा-311 में निहित मामले में शक्तियाॅ हैं । अखिरकार परीक्षण मूल रूप से कैदियों के लिए है और न्यायालयों को उनको निष्पक्ष संभव रीति में अवसर प्रदान करना चाहिए । ’’

        मोहन लाल शामजी सोनी बनाम भारत का संघ एवं अन्य , 1991 सप्ली. (1) 271 में  उच्चतम न्यायालय द्वारा सम्प्रेक्षित कियाः-

        ‘‘ विधि का सिद्धांत , जो इस न्यायालय द्वारा उपर्युक्त विनिश्चयों में अभिव्यक्त अभिमतों से निकलता है , है कि दाण्डिक न्यायालय के पास किसी व्यक्ति को साक्षी के रूप में समनित करने या पुनः बुलाने एवं किसी ऐसे व्यक्ति को जाॅच करने की प्रचुर शक्ति है , यहाॅ तक कि दोनों तरफ केक साक्ष्य समाप्त हो गये हैं एवं न्यायालय की अधिकारिता से निकाली जानी चाहिए एवं निष्पक्ष एवं अच्छा अर्थ केवल सुरक्षित मार्गदर्शनों में प्रतीत होता है एवं यह कि न्याय की अपेक्षाएॅ किसी व्यक्ति की जाॅच करती है , जो प्रत्येक प्रकरण के तथ्यों एवं परिस्थितियों पर निर्भर करेगा । ’’

        सत्य की खोज करना किसी भी परीक्षण या जाॅच का आवश्यक प्रयोजन है ,माननीय उच्चतम न्यायालय की तीन न्यायाधीशगण की न्यायपीठ ने मारिया मार्गरीडा स्केरिया फर्नांडिस बनाम एरास्मो जेक डे स्केरिया द्वारा विधिक प्रतिनिधिगण , 2012  (3) स्केल 550 में सम्प्रेषित किया । उस पवित्र कर्तव्य का समय-समय पर स्मरण निम्नलिखित शब्दों में दिया गया था:-

        ‘‘ जो लोग अपेक्षित करते हैं कि न्यायालय को यह पता करने की इसकी बाध्यता से निर्मुक्ति चाहिए ,जहाॅ वस्तुतः सत्य ठहरता है । न्यायिक प्रणाली के प्रारम्भ में यह अपेक्षित किया गया है कि खोज , दोष-प्रक्षालन एवं सत्य की स्थापना न्याय के न्यायालयों के रेखांकित अस्तित्व के मुख्य प्रयोजन हैं । ’’ 

        हमें इस तथ्य का भान हैं कि साक्षियों का पुनः आहुत करना , उनके  घटना के बारे में मुख्य-परीक्षण में जाॅचे  जाने के लगभग चार वर्ष पश्चात् निदेशत करते हुए , जो लगभग सात वर्ष पुरानी है । विलम्ब मानवीय स्मृति पर प्रबल भार रखता है , युक्तियुक्त रूप से समयावधि के भीतर प्रकरणों को विनिश्चित करने के लिए न्यायिक प्रणाली की शुद्धता के बारे में शिष्टता से अलग होती है । इस सीमा तक श्री रावल द्वारा अभिव्यक्त आशंका कि अभियोजन विलम्बित पुनः बुलाने के कारण प्रभाव वहन कर सकेगा । यह कहते हुए कि , हम इस अभिमत के हैं कि कारणों की समानता पर एवं साक्षियों को प्रति-परीक्षण हेतु अवसर के इन्कार के परिणामों को देखते हुए , हम अपीलार्थी के पक्ष में उसके पक्ष में सम्भावित प्रभाव के विरूद्ध अभियोजन संरक्षित करने के मुकाबले अवसर देते हुए निर्दिष्ट करेंगे । परीक्षण की निष्पक्षता इस आधार पर है कि हमारी न्यायिक प्रणाली में अलंघनीय है एवं कोई मूल्य उस आधार को संरक्षित करने हेतु अत्यंत प्रबल नहीं है । अभियोजन को सम्भावित प्रभाव यहाॅ तक कि इस मूल्य पर भी नहीं है , एक मात्र अनुमति , जो अभियुक्त को उसको स्वयं की प्रतिरक्षा हेतु निष्पक्ष अवसर का इंकार न्यायसंगत करेगी ।
      

       2012 भाग-3 एल.एस.सी.टी. सुप्रीम कोर्ट 57  में अभिनिर्धारित सिद्धांतो के अनुसार स्वर्ण सिंह बनाम पंजाब राज्य (2003) 1 एस.सी.सी. 240 में निर्धारित किया है कि ‘‘ यह आवश्यक न्याय का नियम है कि जब कभी विरोधी ने उसके प्रकरण में प्रति-परीक्षण में उसको स्वयं को उपस्थित रखने से इन्कार किया , यह अनुसरण करता है कि उस विषय पर रखा साक्ष्य स्वीकार किया जाना चाहिए । ’’
    


 

     

कोई टिप्पणी नहीं:

भारतीय न्याय व्यवस्था nyaya vyavstha

umesh gupta