नापुन्सकता
जार्ज फिलिप बनाम सेली एलियास टी.0ए0आई0आर0 1995 केरल 289 में सम्प्रकाशित मामले में जिसमें केरल उच्च न्यायालय की खण्ड न्यायपीठ ने अभिनिर्धारित किया है कि नपुंसकता से सामान्य सहवास के लिए अक्षमता या असमर्थता अभिपे्रत है । ऐसी असमर्थता या अक्षमता कई कारणों से हो सकती है । नपुंसकता पूर्णतया लैंगिक सम्भोग करने की सामथ्र्यता का अभाव है । जब इस पहलू को वैवाहिक मुकदमें के किसी पक्षकार द्वारा स्थापित एंव साबित करने की ईप्सा की जाती हे तो विवाह के पक्षकारगण की चिकित्सीय जांच ऐसे अभिकथनो को स्थापित करने के लिए ज्ञात विधियों में से एक है ।
यद्यपि यह सत्य है कि किसी भीपक्षकार को न्यायालय के विधिमान्य आदेश के तहत गठित किसी चिकित्सीय मण्डल से चिकित्सीय जांच कराने के लिए विवश नहीं किया जा सकता चिकित्सीय जाच कराने के लिए पक्षकारगण में से एक के द्वारा प्रख्यान अनुमान के परिणाम में अपनी स्थिति होती है । तथ्यात्मक रूप से स्थिति और अधिक संरक्षित हो जाती है यदि दूसरा पक्षकार ऐसी चिकित्सीय जांच के लिए समपूर्ण कर देता है और स्पष्ट रूप से उसे अपने पक्ष में साबित कर देता है । तथ्यों पर यह नोट किया जाना चाहिए कि अपीलार्थी चिकित्सीय जांच कराने के पश्चात सामान्य सहवास के बारे में क्षमतावान और साम्र्थयवान व्यक्ति होना प्रमाणित कियाजा चुका है ।
जगदीश कुमार बनाम श्रीमती सीता देशी ए0आई0आर0 1963 पंजाब 155 वी 50 31 में सम्प्रकाशित के मामले जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया कि लैंगिक सम्भोग के लिए अक्षमता नपंुसकता का आवश्यक संघटक है । ऐसी कोई असमर्थता विभिन्न कारणों से उत्पन्न हो सकती है इसके अन्तर्गत मानसिक और नैतिक निःशक्तता है, असमर्थता भावनात्मक कारणों से भी सकती है कोई व्यक्ति अन्यथा यौन कार्य करने के लिए समथर् है, वह उसकी स्वयं की पत्नी के साथ ऐसा करने में असमर्थ हो सकेगा ।
यह और सम्प्रेक्षित किया गया है जहां पति उसकी पत्नी के साथ लैंगिक सम्भोग करने के लिए पूर्णतया असमर्थ है जिसके लिए उसके पास पूर्णतया विवाह के पश्चात दो या तीन दिनों तक उसके साथ उसी कमरे में रहा था तो यह निष्पष अनुमान है कि विवाहेत्तर सम्भोग नहीं होना अक्षमता, तनावग्रस्तता या मिरगी से उत्पन्न पति को ज्ञात प्रत्याख्यान के कारण है और यह कि वह उसकी पत्नी के प्रति उसकी नपंुसकता दर्शाता है । यहां तक कि जो पत्नी को निष्पक्ष परीक्षण प्रदत्त किया गया है यदि पति उसके प्राथमिक वैवाहिक कर्तव्य में विफल होता है तो उसे उसके विवाह के समय से तुरन्त विवाह शून्य करने के लिए कार्यवाही के संस्थान से धारा-12-1क के तहत नपंुसक के रूप में समझा जाना चाहिए ।
मोईना खोसला बनाम अमरदीप खोसला ए0आई0आर0 1986 दिल्ली 399 में सम्प्रकाशित के मामले में जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विवाहेत्तर सम्भोग से अभिप्रेत है साधारणतया और सम्पूर्ण लैगिक सम्भोग और लैंगिक सम्भोग उस समय पूर्ण होता है जब स्त्री और पुरूष सहभागी चरमोत्कर्ष प्राप्त कर चुके थे । सामान्यता स्त्रियों के साथ्ज्ञ किसी कार्य के प्रति अपनी भावना प्रदर्शित करने के लिए पति की अक्षमता के कारण सम्भोग का अभाव सामान्यतया पत्नी को अकृतता की डिक्री का हकदार बनाता है ।
युवराज दिग्विजय सिंह बनाम युवरानी प्रताप कुमार ए0आई0आर0 1970 एस0सी0 137 में सम्प्रकाश्ति के मामले में जिसमें माननीय शीर्ष न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि याचिकाकर्ता को यह अवश्य साबित करना चाहिए कि विवाह के समय से कार्यवाही संस्थित करने तक प्रत्यर्थी की मानसिक या शारीरिक दशा ऐसी थी कि विवाहोत्तर सम्भोग व्यवहारिक रूप से असम्भाव्य था ।
कोई पक्षकार नपंुसक होता है यदि उसकी मानसिक या शारीरिक दशा विवाहोत्तर सम्भोग को असम्भाव्य बनाती है । किसी याचिकाकर्ता को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा-12-1क के तहत अकृतता की डिक्रीप्राप्त करने क लिए उसे स्थापित करना होगा कि उसकी पत्नी प्रत्यर्थी विवाह के समय नपंुसक थी और इस प्रकार कार्यवाहियां संस्थित करने तक नपंुसक होना कायम थी ।
जार्ज फिलिप बनाम सेली एलियास टी.0ए0आई0आर0 1995 केरल 289 में सम्प्रकाशित मामले में जिसमें केरल उच्च न्यायालय की खण्ड न्यायपीठ ने अभिनिर्धारित किया है कि नपुंसकता से सामान्य सहवास के लिए अक्षमता या असमर्थता अभिपे्रत है । ऐसी असमर्थता या अक्षमता कई कारणों से हो सकती है । नपुंसकता पूर्णतया लैंगिक सम्भोग करने की सामथ्र्यता का अभाव है । जब इस पहलू को वैवाहिक मुकदमें के किसी पक्षकार द्वारा स्थापित एंव साबित करने की ईप्सा की जाती हे तो विवाह के पक्षकारगण की चिकित्सीय जांच ऐसे अभिकथनो को स्थापित करने के लिए ज्ञात विधियों में से एक है ।
यद्यपि यह सत्य है कि किसी भीपक्षकार को न्यायालय के विधिमान्य आदेश के तहत गठित किसी चिकित्सीय मण्डल से चिकित्सीय जांच कराने के लिए विवश नहीं किया जा सकता चिकित्सीय जाच कराने के लिए पक्षकारगण में से एक के द्वारा प्रख्यान अनुमान के परिणाम में अपनी स्थिति होती है । तथ्यात्मक रूप से स्थिति और अधिक संरक्षित हो जाती है यदि दूसरा पक्षकार ऐसी चिकित्सीय जांच के लिए समपूर्ण कर देता है और स्पष्ट रूप से उसे अपने पक्ष में साबित कर देता है । तथ्यों पर यह नोट किया जाना चाहिए कि अपीलार्थी चिकित्सीय जांच कराने के पश्चात सामान्य सहवास के बारे में क्षमतावान और साम्र्थयवान व्यक्ति होना प्रमाणित कियाजा चुका है ।
जगदीश कुमार बनाम श्रीमती सीता देशी ए0आई0आर0 1963 पंजाब 155 वी 50 31 में सम्प्रकाशित के मामले जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया कि लैंगिक सम्भोग के लिए अक्षमता नपंुसकता का आवश्यक संघटक है । ऐसी कोई असमर्थता विभिन्न कारणों से उत्पन्न हो सकती है इसके अन्तर्गत मानसिक और नैतिक निःशक्तता है, असमर्थता भावनात्मक कारणों से भी सकती है कोई व्यक्ति अन्यथा यौन कार्य करने के लिए समथर् है, वह उसकी स्वयं की पत्नी के साथ ऐसा करने में असमर्थ हो सकेगा ।
यह और सम्प्रेक्षित किया गया है जहां पति उसकी पत्नी के साथ लैंगिक सम्भोग करने के लिए पूर्णतया असमर्थ है जिसके लिए उसके पास पूर्णतया विवाह के पश्चात दो या तीन दिनों तक उसके साथ उसी कमरे में रहा था तो यह निष्पष अनुमान है कि विवाहेत्तर सम्भोग नहीं होना अक्षमता, तनावग्रस्तता या मिरगी से उत्पन्न पति को ज्ञात प्रत्याख्यान के कारण है और यह कि वह उसकी पत्नी के प्रति उसकी नपंुसकता दर्शाता है । यहां तक कि जो पत्नी को निष्पक्ष परीक्षण प्रदत्त किया गया है यदि पति उसके प्राथमिक वैवाहिक कर्तव्य में विफल होता है तो उसे उसके विवाह के समय से तुरन्त विवाह शून्य करने के लिए कार्यवाही के संस्थान से धारा-12-1क के तहत नपंुसक के रूप में समझा जाना चाहिए ।
मोईना खोसला बनाम अमरदीप खोसला ए0आई0आर0 1986 दिल्ली 399 में सम्प्रकाशित के मामले में जिसमें दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभिनिर्धारित किया कि विवाहेत्तर सम्भोग से अभिप्रेत है साधारणतया और सम्पूर्ण लैगिक सम्भोग और लैंगिक सम्भोग उस समय पूर्ण होता है जब स्त्री और पुरूष सहभागी चरमोत्कर्ष प्राप्त कर चुके थे । सामान्यता स्त्रियों के साथ्ज्ञ किसी कार्य के प्रति अपनी भावना प्रदर्शित करने के लिए पति की अक्षमता के कारण सम्भोग का अभाव सामान्यतया पत्नी को अकृतता की डिक्री का हकदार बनाता है ।
युवराज दिग्विजय सिंह बनाम युवरानी प्रताप कुमार ए0आई0आर0 1970 एस0सी0 137 में सम्प्रकाश्ति के मामले में जिसमें माननीय शीर्ष न्यायालय ने सम्प्रेक्षित किया है कि याचिकाकर्ता को यह अवश्य साबित करना चाहिए कि विवाह के समय से कार्यवाही संस्थित करने तक प्रत्यर्थी की मानसिक या शारीरिक दशा ऐसी थी कि विवाहोत्तर सम्भोग व्यवहारिक रूप से असम्भाव्य था ।
कोई पक्षकार नपंुसक होता है यदि उसकी मानसिक या शारीरिक दशा विवाहोत्तर सम्भोग को असम्भाव्य बनाती है । किसी याचिकाकर्ता को हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा-12-1क के तहत अकृतता की डिक्रीप्राप्त करने क लिए उसे स्थापित करना होगा कि उसकी पत्नी प्रत्यर्थी विवाह के समय नपंुसक थी और इस प्रकार कार्यवाहियां संस्थित करने तक नपंुसक होना कायम थी ।
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